मेरा जुर्म क्या है ? / कहानी / सुशांत सुप्रिय

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    आइए , इंस्पेक्टर साहब । मुझे शुबहा था कि आप लोग मेरे घर भी ज़रूर आएँगे । इलाक़े में जितने मुसलमान हैं , उन में से ज़्यादातर के दरवाज़ो...

 

 

आइए , इंस्पेक्टर साहब । मुझे शुबहा था कि आप लोग मेरे घर भी ज़रूर आएँगे । इलाक़े में जितने मुसलमान हैं , उन में से ज़्यादातर के दरवाज़ों पर आप पहले ही दस्तक दे चुके हैं । ख़ैर , यह भी बता दीजिए कि मेरा जुर्म क्या है ? क्या कहा ? आपको मुझ पर भी शक है ? तो आइए और मेरे घर की तलाशी भी ले लीजिए , हालाँकि मैं पहले ही बता दूँ कि मैं एक ग़रीब दर्ज़ी हूँ । शहर में हुए बम-धमाकों से मेरा कोई लेना-देना नहीं ।

जनाब , उधर तसबीह लिए बैठे बुज़ुर्गवार मेरे वालिद हैं । नहीं-नहीं , उनका भी शहर में हुए बम-धमाकों से कुछ भी वास्ता नहीं । पुलिसवालों को अपने घर में घुस आया देखकर जैसे कोई भी आम इंसान सहम जाता है , वैसे ही वो भी सहम गए हैं ।

जी, जनाब ! ये दोनों बच्चे मेरे ही हैं । मदरसे में पढ़ते हैं । आप लोगों को देखकर डर गए हैं । उस कोने में मेरी बच्ची है जो बुर्क़े में खड़ी अपनी माँ की टाँगों से चिपकी हुई है । घर में किसी को समझ नहीं लग रही है कि हमारे यहाँ पुलिस क्यों घुस आई है । पर आप अपना काम कीजिए , जहाँ चाहे तलाशी लीजिए ।

क्या कहा , जनाब ? आप अलमारी खोलकर देखना चाहते हैं ? शौक़ से देखिए । हर घर में जो आम चीज़ें होती हैं , बस वैसी ही कुछ चीज़ें अलमारी में रखी हैं । वह हमारी ऐल्बम है , साहब । आप जानना चाहते हैं कि उसमें यह फ़ोटो किसकी है ? यह मेरा छोटा भाई है हुज़ूर जो मुज़फ़्फ़रनगर में हुए दंगों में मारा गया था । नहीं-नहीं , आप ग़लत समझ रहे हैं । वह दंगाई नहीं था । वह पुलिस-फ़ायरिंग में नहीं मारा गया था । वह बेचारा तो शहर के कॉलेज में पढ़ता था । दंगाइयों ने उसे फ़साद के समय छुरा मार दिया था । मेरे वालिद इस सदमे से अपनी आवाज़ खो बैठे । वो आपके सवालों के जवाब नहीं दे पाएँगे । आप अपने सारे सवाल मुझसे पूछिए ।

अच्छा , आप जानना चाहते हैं कि कोने में पड़े ट्रंक में क्या है ? जनाब , एक ग़रीब दर्ज़ी के यहाँ आपको क्या मिलेगा ? कुछ पुराने कपडे-लत्ते हैं । एक-दो पुरानी दरियाँ हैं । एक-दो फटे हुए कम्बल हैं , जो सर्दियों में काम आते हैं ।

आइए , आइए , आप खुद ही तलाशी ले लीजिए । हुज़ूर , वह क़ुरआन शरीफ़ है और अब जो किताबें आपने उठा रखीं हैं वो मेरे बच्चों की किताबें हैं । आप किताबें खोल कर देख रहे हैं ? देखिए , देखिए । किताबों में और कुछ नहीं है । ये किताबें उर्दू में क्यों हैं ? साहब , हमारे यहाँ तो उर्दू में लिखी किताबें ही मिलेंगी । उर्दू हमारी मादरी ज़बान है । ये किताबें आपने ज़ब्त कर ली हैं ? क्यों हुज़ूर ? क्या उर्दू किताबें घर में रखना जुर्म है ? क्या कहा ? आपको उर्दू नहीं आती और आप किसी उर्दू के जानकार से ये किताबें पढ़वाएँगे । कहीं इसमें मुल्क के ख़िलाफ़ कुछ न लिखा हो , इसलिए ? आप ख़्वामख़ाह शक कर रहे हैं । लाइए , मैं ही पढ़ देता हूँ । ये ऊपर वाली तो अलिफ़ , बे वाली किताब है । नीचे वाली किताब में कुछ नज़्में हैं । क्या कहा ? आपको मेरी बात पर यक़ीन नहीं ? जैसी आपकी मर्ज़ी , साहब । अब मैं आपको कैसे यक़ीन दिलाऊँ ?

नहीं , नहीं , जनाब ! मैंने कहा न , वो मेरी बीवी है । बुर्क़े में क्यों है ?

जनाब , हमारे यहाँ घर की औरतें ग़ैर-मर्दों के सामने बुर्क़े में ही रहती हैं । ये हमारा रिवाज है । नहीं , आप उसका चेहरा नहीं देख सकते । माफ़ कीजिएगा , मैं इस बात की इजाज़त आपको नहीं दूँगा । क्या कहा ? आपको मेरी बीवी पर शक है ? आप उसकी तलाशी लेना चाहते हैं ? इसके लिए आप ज़नाना कांस्टेबल ले कर आइए ।

अरे , आप तो नाराज हो गए । मेरी बात का बुरा मत मानिए , इंस्पेक्टर साहब । मोहल्ले वाले पहले ही गली में खड़े हैं । इलाक़े में आपकी तलाशी की मुहिम की वजह से लोगों में पहले ही ज़बरदस्त ग़ुस्सा भरा है । अगर मोहल्ले के लोगों को पता चला कि घर की औरत की बेइज़्ज़ती हुई है तो इसी बात पर यहाँ दंगा हो जाएगा , जो मैं नहीं चाहता । नहीं-नहीं , हुज़ूर । मैं आप को डरा नहीं रहा , सिर्फ़ हालात से वाक़िफ़ करवा रहा हूँ । क्या कहा ? आप लेडी-पुलिस बुला रहे हैं ? ज़रूर बुलाइए , साहब । इसमें मुझे क्या एतराज़ हो सकता है ।

हाँ , इंस्पेक्टर साहब , यह हिन्दोस्तान का झंडा है । क्या कहा , जनाब ? हमने अपने घर में मुल्क का परचम क्यों रखा है ? साहब , क्या अपने मुल्क का परचम अपने घर में रखना जुर्म है ? यह झंडा मेरा भाई ले कर आया था । उसे क्रिकेट का बहुत शौक़ था । जब भी हिन्दोस्तान की टीम का कोई मैच शहर में होता था , वह मुल्क का परचम ले कर मैच देखने ज़रूर जाता था । जब हमारी टीम जीत रही होती थी , तब मेरा भाई शान से अपने मुल्क का झंडा स्टेडियम में लहराता था ।जब से भाई दंगे में मारा गया , यह परचम घर में यूँ ही पड़ा हुआ है । क्या करूँ , जनाब , जब भाई की याद आती है तो रोना आ जाता है ।

क्या कहा , साहब ? झंडे को इस तरह मोड़कर कोने में रखना झंडे की बेइज़्ज़ती है ? उसका अपमान है ? इस बात के लिए आप मेरे ख़िलाफ़ कार्रवाई कर सकते हैं ? इंस्पेक्टर साहब , मैं तो एक ग़रीब दर्ज़ी हूँ । मुझे मुल्क के क़ायदे-क़ानून की बारीकियाँ नहीं पता । पर हमारे यहाँ सभी अपने मुल्क के परचम की इज़्ज़त करते हैं । देश के झंडे की बेइज़्ज़ती की बात हम सोच भी नहीं सकते । जनाब , एक बात पूछूँ ? आप की वर्दी कैसे फट गई है ? इस पर कालिख़ और दाग-धब्बे कैसे लग गए हैं ? आपको नई वर्दी की सख़्त ज़रूरत है । आप जब वर्दी सिलवाएँ तो मेरे पास आइएगा । मैं आपके लिए एक उम्दा वर्दी सिल दूँगा । नहीं, नहीं , साहब । आप ग़लत समझ रहे हैं । मैं आपको रिश्वत नहीं दे रहा । अल्लाहतआला ने हाथ में कुछ हुनर दिया है । किसी के काम आ सकूँ तो अच्छा लगता है ।

क्या कहा , जनाब ? मैं बहुत बोलता हूँ ? नहीं हुज़ूर , बोलते तो हमारे मुल्क के लीडर हैं । बहुत बोलते हैं , बस करते कुछ नहीं हैं ।

आप भीतर के कमरे की तलाशी लेना चाहते हैं ? शौक़ से लीजिए । हम आप से क्या छिपाएँगे ? हमारे पास है ही क्या छिपाने के लिए ?

एक बात पूछूँ , इंस्पेक्टर साहब ? जब भी कभी शहर में दहशतगर्द कोई बम-धमाका कर देते हैं , तब आप और आपकी पुलिस हम लोगों के इलाक़ों में तलाशी की मुहिम शुरू कर देती है । हर याकूब , नफ़ीस और अशफ़ाक जैसों के घरों में तलाशी ली जाती है । पर इंस्पेक्टर साहब , धमाकों के बाद आप ओंकारनाथ , हरिनारायण और श्यामसुंदर जैसों के घरों की तलाशी लेने कभी नहीं जाते । ऐसा क्यों है , साहब ? क्या आप ' समझौता एक्सप्रेस ' और ' मालेगाँव ' धमाकों की असलियत नहीं जानते ? क्या आपकी निगाह में केवल एक ही मज़हब के लोग दहशतगर्द होते हैं ?

नहीं, नहीं , इंस्पेक्टर साहब ! नाराज़ मत होइए । अगर मेरी बातें आपको बुरी लगी हों तो माफ़ी चाहता हूँ । मेरी बीवी भी कहती है कि मैं खरी बात मुँह पर कह देता हूँ । यह भी नहीं देखता कि किससे बात कर रहा हूँ । वह देखिए , मेरी बीवी उधर कोने में से मुझे इशारा कर रही है कि मैं चुप हो जाऊँ ।

ठीक है , जनाब ! आपने मेरे घर में उथल-पुथल मचा दी है , पर मैं चुप रहूँगा । आपके सिपाहियों के बूटों और डंडों की आवाज़ से सहमकर मेरे दोनों बेटे थर-थर काँप रहे हैं , पर मैं चुप रहूँगा । सिपाहियों को देखकर मेरी छोटी बच्ची का डर के मारे फ़्राक में ही पेशाब निकल गया है , पर मैं चुप रहूँगा । आप पुलिसवालों को घर में घुस आया देखकर मेरे बूढ़े वालिद सहम गए हैं और उनकी आँखों में भरा

धुँधलका कुछ और बढ़ गया है । डर के मारे उन्हें दिल का दौरा पड़ सकता है , पर मैं चुप रहूँगा । अपने घर में आपको तलाशी लेता देखकर मेरा बी. पी . भी बढ़ गया है । मुझे साँस लेने में तकलीफ़ हो रही है , पर मैं चुप रहूँगा । आपकी तलाशी की मुहिम से मेरी बीवी घबराई हुई और सकते में है । वह बेचारी समझ नहीं पा रही कि हमने कौन-सा जुर्म किया है जिसकी वजह से पुलिस हमारे घर में घुस आई है । बुर्क़े के भीतर से झाँकती उसकी सहमी आँखों में डर भरा है , पर मैं चुप रहूँगा । कुछ नहीं कहूँगा , क्योंकि आपके सामने मेरी औक़ात ही क्या है ! आप मुझे पकड़कर न जाने कौन-कौन से जुर्म में कौन-कौन-सी दफ़ाओं के तहत जेल में बंद कर सकते हैं । आप हवालात में मेरी पिटाई करके मुझसे कुछ भी क़ुबूल करवा सकते हैं । मैं ग़रीब आदमी हूँ । मामूली दर्ज़ी हूँ । किसी को नहीं जानता । मेरी तो कोई ज़मानत भी नहीं करवाएगा । इन्हीं सब वजहों से मैं चुप रहूँगा । आप मेरे घर में भूचाल ला दीजिए । आप मेरी छोटी-सी दुनिया में अफ़रा-तफ़री मचा दीजिए । तो भी मैं चुप रहूँगा । तुम ठीक कहती हो बच्चों की अम्मा । अब मैं चुप रहूँगा । कोई शिकायत नहीं करूँगा। आम आदमी चुपचाप सहते रहने के सिवा कर ही क्या सकता है ?

क्या हुआ , इंस्पेक्टर साहब ? हमारे घर की तलाशी में आपको कुछ नहीं मिला ? यक़ीन मानिए , आप हमारे मन की तलाशी लेंगे तो भी ख़ाली हाथ ही लौटेंगे । हमारे मन में अब कोई उम्मीद नहीं बची । हमारी आँखों में अब कोई सपने नहीं बचे हैं ।

क्या कहा , जनाब ? मुझ जैसों को ' टाडा ' या ' पोटा ' में बंद कर देना चाहिए ? आप साहब हैं । पुलिस अफ़सर हैं । आप कुछ भी कह सकते हैं । कुछ भी कर सकते हैं । पर आपकी ऐसी बातें मुझे चुप भी तो नहीं रहने देतीं । मुज़फ़्फ़रनगर-दंगों और दादरी-कांड में शामिल दरिंदों के ख़िलाफ़ आप ' टाडा ' या ' पोटा ' क्यों नहीं लगाते ? ' लश्कर ' या ' हूजी ' के दहशतगर्दों की तलाश के नाम पर आप हम जैसे बेक़सूर आम लोगों के घरों पर छापे मारते हैं । अँधाधुँध गिरफ़्तारियाँ करने लगते हैं । हम पर क्या बीतती है , कभी आपने सोचा है ?

इंस्पेक्टर साहब , आप मुझ पर बिना सबूत के शक क्यों कर रहे हैं ? मेरा जुर्म क्या है ? क्या यह कि मैं इस मुल्क में एक ग़रीब , कम पढ़ा-लिखा मुसलमान हूँ ? या यह कि मेरा नाम अब्दुल्ला है , रामनारायण नहीं ?

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परिचय

 

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नाम : सुशांत सुप्रिय

जन्म : 28 मार्च , 1968

शिक्षा : अमृतसर ( पंजाब ) , व दिल्ली में ।

प्रकाशित कृतियाँ :# हत्यारे , हे राम , दलदल ( तीन कथा - संग्रह ) ।

# अयोध्या से गुजरात तक , इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं

( दो काव्य-संग्रह ) ।

सम्मान : भाषा विभाग ( पंजाब ) तथा प्रकाशन विभाग ( भारत सरकार ) द्वारा रचनाएँ

पुरस्कृत । कमलेश्वर-कथाबिंब कहानी प्रतियोगिता ( मुंबई ) में लगातार दो

वर्ष प्रथम पुरस्कार ।

अन्य प्राप्तियाँ :# कई कहानियाँ व कविताएँ अंग्रेज़ी , उर्दू , पंजाबी, उड़िया, मराठी,

असमिया , कन्नड़ , तेलुगु व मलयालम आदि भाषाओं में अनूदित । व प्रकाशित । कहानियाँ कुछ राज्यों के कक्षा सात व नौ के हिंदी

पाठ्यक्रम में शामिल । कविताएँ पुणे वि. वि. के बी. ए.( द्वितीय

वर्ष ) के पाठ्य-क्रम में शामिल । कहानियों पर आगरा वि. वि. ,

कुरुक्षेत्र वि. वि. , व गुरु नानक देव वि. वि. , अमृतसर के हिंदी

विभागों में शोधार्थियों द्वारा शोध-कार्य ।

# अंग्रेज़ी व पंजाबी में भी लेखन व प्रकाशन । अंग्रेज़ी में काव्य-संग्रह

' इन गाँधीज़ कंट्री ' प्रकाशित । अंग्रेज़ी कथा-संग्रह ' द फ़िफ़्थ

डायरेक्शन ' और अनुवाद की पुस्तक 'विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ'

प्रकाशनाधीन ।

ई-मेल : sushant1968@gmail.com

मोबाइल : 8512070086

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प्रेषकः सुशांत सुप्रिय

A-5001 ,

गौड़ ग्रीन सिटी ,

वैभव खंड ,

इंदिरापुरम ,

ग़ाज़ियाबाद -201010

( उ. प्र . )

मो: 8512070086

ई-मेल : sushant1968@gmail.com

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रचनाकार: मेरा जुर्म क्या है ? / कहानी / सुशांत सुप्रिय
मेरा जुर्म क्या है ? / कहानी / सुशांत सुप्रिय
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