हिंदी में हाइकु (१५) माटी की नाव / सुरेन्द्र वर्मा

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‘कागज़ की नाव’ हिन्दी में एक प्रचलित मुहावरा है. कागज़ की नाव ज्यादह देर तक तैर नहीं सकती. कागज़ गल जाता है और नाव पानी में डूब जाती है. रामेश...

‘कागज़ की नाव’ हिन्दी में एक प्रचलित मुहावरा है. कागज़ की नाव ज्यादह देर तक तैर नहीं सकती. कागज़ गल जाता है और नाव पानी में डूब जाती है. रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने अपने हाइकु संग्रह का नाम “माटी की नाव” (अयन प्रकाशन,नई दिल्ली २०१३) रखकर एक नया मुहावरा गढ़ा है. और इसलिए इस संग्रह को पढ़ते हुए पाठक का ध्यान सबसे पहले संग्रह के शीर्षक पर ही जाता है. आखिर कवि ‘माटी की नाव’ जैसे पदबंध से क्या कहना चाहता है?

सामान्यत: भारत में यह प्रथा है कि किसी भी काम की शुरूआत हम अपने आराध्य देव का स्मरण करके करते हैं. कोई माता सरस्वती का स्मरण करता है, तो कोई राम और / या कृष्ण को याद करता है. कोई सीधे-सीधे प्रभु / ईश्वर का ही नाम लेता है. लेकिन यह ध्यान देने की बात है कि रामेश्वर जी धरती माता की याद करते हैं. वह धरती को वसुंधरा, विश्वम्भरा, प्राणदायिनी, सुमनरूपा, मधुजा, शस्यश्यामला, मां मेदिनी आदि कहकर संबोधित करते हैं और उसके स्नेह निर्झर की कामना करते हैं. लघुकथाकार और हाइकुकार पारस दासोद जिनका हाल ही में असमय निधन हो गया है, भी अपने एक हाइकु संग्रह, ‘आ..गाँव चलें’ में पुस्तक के आरम्भ में अपनी धरती को ही नमन करते हैं. – ‘प्यारी से प्यारी / मां ..गाँव की माटी मां /तुझे नमन”. धरती के पास सिर्फ माटी ही तो है. और यही माटी उसे मां बना देती है.

बच्चन ने अपना परिचय देते हुए एक जगह लिखा है, ‘मिट्टी का तन, मस्ती का मन – क्षण भर जीवन मेरा परिचय’ हम सभी माटी के ही तो बने हैं. माटी नए नए रूप धरती है और अंतत: ये सभी माटी में ही समा जाते हैं. माटी हमें हमारे जीवन की क्षणभंगुरता की और संकेत करती है. जीवन की इसी क्षणभंगुर नौका को लेकर हमें भवसागर पार करना है. यह सोच सोच कर कवि काम्बोज का मन काँप काँप जाता है.

दूर है गाँव

तैरनी है नदिया

माटी की नाव *

गहरा जल

तूफ़ान है उमड़ा

कांपता मन*

अंतत: माटी को घुल कर जल समाधि ले ही लेनी है. ऐसे अंत को कोई रोक नहीं सकता. –

घुली है माटी

ली है जल समाधि

खो गयी नाव *

हमारे क्षण भंगुर जीवन की यही कथा है.

डा. सुधा गुप्ता ने ‘माटी की नाव’ को ‘जीवन का ककहरा’ ठीक ही कहा है. इसमें जीवन के विविध रूपों का काव्यात्मक निरूपण हुआ है. इसमें जहां प्रकृति के म्लान-अम्लान, सोम्य-रौद्र रूप हैं वहीं चिड़ियों का कलरव है, नियाग्रा फाल है और फूलों की गंध-सुगंध भी है. इसमें जहां अनुरागी मन है, वहीं सुधियों की ज्योति भी है. रिश्तों की एक पूरी दुनिया है. बहिन और मां का प्यार है, तो भाल पर बिंदिया सजाए पत्नी का सौभाग्य भी है. रिश्ते खून के ही नहीं, मित्रता और दोस्ती के सम्बन्ध भी हैं. माटी की नाव के अंतर्गत आशा निराशा से खेलता मानव मन है तो बुझी हुई उमंगें भी हैं. मन आँगन भले ही डूबता उतराता रहे कवि का उदात्त भावनाओं से लहलहाता एक सकारात्मक सोच बराबर बना रहता है.

वनस्पति जगत मुख्यत: अपने पुष्प-पत्रों से जाना जाता है, हर मौसम के अपने फूल हैं और अपने ही पत्ते होते हैं. होली के आसपास पलाश के सारे पत्ते झर जाते हैं और पेड़ लाल पुष्पों से लद जाता है. होली रंगों का त्यौहार है और एक दूसरे पर रंग-जल डाल कर खेला जाता है. लेकिन पलाश को देखिए. कवि कल्पना कहती है

आग की पाग

बाँध कर पलाश

खेलता फाग *

सुबह होती है और सूर्य धीरे धीरे धरती पर उतरता है. ज़रा इसकी उतरने की उतावली तो देखिए –

चढी छत पे

छज्जे उतरी धूप

गिरी घास पे *

जो लोग पहाड़ पर या ठण्डे मौसम में रहते हैं उनके लिए धूप नियामत है. जब,

धरती ओढ़े

पूरे बदन पर

बर्फ की शाल (तब)

धूप का रूप

गुनगुना लगता है

हिमपात में *

धूप निकलते ही हिमपात का बर्फ उड़ने लगता है. कवि कहता है,

निकली धूप

उडी हिम-चिड़ियाँ

आँगन गीला *

धूप आवारा

घुमक्कड़ी करती

हाथ न आए *

खेले है धूप

कोहरे के कुञ्ज में

आँख मिचौली *

धूप बिटिया

खेले आँख-मिचौली

हाथ न आए *

सर्दी की धूप

गोदी में आ बैठी

नन्ही शिशु सी *

पल में उडी

चंचल तितली सी

फूलों को चूम *

धूप के ही नहीं, सुबह, शाम के वे चित्र भी जो ‘हिमांशु’ जी की कलम से उतरे हैं, इतने ही मन भावन हैं. भोर की लाली में वह अपनी प्रियतमा की आँखों में आशा की लाली देखते हैं और सांझ गए, सूर्य अपने मेंहदी रचे पाँव (रजनी के) द्वार पर रखता है.

तिरे नैनों में

आशा की रंगत ले

भोर की लाली*

भोर के होंठ

खुले तो ऐसा लगा

तुम मुस्कराए *

नभ अधर

हुए जो मुकुलित

उषा पधारी *

संझा जो आए

मेंहदी रचे पाँव

द्वार लगा *

पाखी चहके

नभ हुआ मुखर

संध्या वंदन *

मानव मन को छूतीं इस प्रकार की उत्तंग, उदात्त कल्पनाएँ काम्बोज जी के काव्य में बिखरी पडी हैं. किन्तु प्रकृति का रौद्र रूप भी अनदेखा नहीं रहा है. सुनामी और भूकम्प जैसी संघटनाएं प्रलय रूप हैं और हाहाकार मचा देती हैं. गरमी की लू-लपट तक कभी कभी जानलेवा हो जाती है.

निगल गई

अजगर-लहरें

उगता सूर्य *

अचानक ही

डूबे कई सूर्य

कुछ पल में*

हुए लापता

कलेजे के टुकडे

कम्पित धरा *

नदी सी बहें

लू लपटें लपेटे

छाँव झुलसे *

यह तो बात रही प्रकृति के अपने नैसर्गिक रौद्र रूप की जिसमें मनुष्य को चकित/ भ्रमित किया है, लेकिन मनुष्य ने भी अपने स्वार्थ के चलते प्रकृति को कोई कम नहीं रौंधा है.

काट ही डाला

छतनार पाकड़

उगी कोठियां*

पेड़ निष्प्राण

सीमेंट के जंगल

उगे कुरूप *

हाइकु काव्य को प्रकृति और प्रेम का काव्य माना गया है. काम्बोज जी के अनुरागी मन ने भी अपनी हाइकु रचनाओं में प्रेम को खासी वरीयता दी है.

झुके नयन

झील में झिलमिल

नील गगन *

तुम अभागे

हम मिले अभागे

तो भाग जागे *

तुम्हारा रूप

निद्रित शिशु हो या

सर्दी की धूप*

सांस कातके

है बुननी चादर

नई नकोर *

बरसों बाद

तुम मिल गए तो

सवेरा हुआ*

भीगा है मन

सुरभित जीवन

तुम चन्दन*

माँ सा मन

आंच मिली किसी की

पिघल गया *

मन बांसुरी

जितना दर्द भरे

उतनी बजे.*

इत्यादि, हाइकु कवि के अनुरागी मन के सहज प्रमाण हैं. यादों में भी काम्बोज जी ने अपने अनुरागी क्षणों को ही सहेज रखा है. क्षण की अनुभूति तो क्षण भंगुर है. अनुभूति के बाद वह पल तो विदा हो जाता है लेकिन यादें उसे टेरती रहती हैं. ठीक ऐसे ही जैसे हम विदा होते अपने किसी प्रिय जन को अपना रूमाल हिला कर प्रेम व्यक्त करते रहते हैं. हम अपनी स्मृतियों को दबा नहीं सकते. वे आवारा हैं, दबे पाँव आती हैं. वे हमारे मनके शजर से लताओं की तरह लिपटी रहती हैं, कसमसाती रहतीं हैं, और सबसे बड़ी बात यह कि मन के किसी भी कोने में प्रकाश की तरह वे आबाद रहती हैं.

टेरती रहीं

हिलते रूमाल सी

व्याकुल यादें*

बंधती नहीं

कभी किसी पाश में /

आवारा यादें*

आहट आई

आँगन में यादों की

दुबके पाँव *

गीली सुधियाँ

लताओं से लिपटी

उर-तरु से*

छोड़ न पाएं

दो पल भी तरु को

कसमसाएं*

तुम्हारी याद

अँधेरे में दीप सी

रही आबाद *

प्रेम का अर्थ ही है दूसरों के लिए हमारा ‘कंसर्न’, हमारी चिंता. प्रेम से ही पराए अपने बन जाते हैं. खून का रिश्ता तो अपना है ही, लेकिन जो खून का रिश्ता नहीं भी है वह मित्रता में बदल जाता और मित्रता कभी कभी खून के रिश्तों से भी बड़ी हो जाती है. रामेश्वर कामबोज ‘हिमांशु अपना प्रेम सभी को बाँटते हैं. बहन का प्यार, पत्नी/प्रेमिका का प्यार, मां का प्यार और इन खून के रिश्तों से अलग दोस्ती का विश्वास और प्रेम. सभी बहुमूल्य हैं. प्रेम एक ऐसी भावना है जिसका

शब्दार्थ – गंध

रचे नवल छंद

प्राणों में बसे *

कच्चे हैं धागे

है प्रेम गाँठ पक्की

खुले न कभी*

कवि वैदिक प्रार्थना, सर्वे भवन्तु सुखिन:, की तरह कामना करता है,

सब हों सुखी

प्यार की वर्षा से हो

आँगन हरा*

बहना मेरी

है नदिया की धारा

भाई किनारा *

मान सिंदूर

भाल पर बिंदिया

आँखों में चाँद*

माँ की याद

ज्यों मंदिर में जोत

जलती कहे *

दोस्ती का रिश्ता तो सबसे अलग ही तरह का रिश्ता है. न तो यह रक्त-सम्बन्ध है और न ही यह कोई कानूनी अनुबंध है. पूरी तरह प्रेम / विश्वास पर टिका यह सम्बन्ध वस्तुत: एक अनोखा ही सम्बन्ध है. खून के रिश्ते तो प्राय: खून के आंसू रुलाते हैं लेकिन

कोई न नाम

इतना रहा ऊंचा

दोस्ती है जैसा*

न अनुबंध

न हिसाब किताब

मैत्री सम्बन्ध*

रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ सकारात्मक सोच के कवि हैं. आशावादी हैं. बेशक जीवन में उतार-चढाव आते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं की हम सदा के लिए मुंह फुला कर बैठ जाएं,चुप. बैठ जाना किसी समस्या का कोई हल नहीं है –

न इनायत

न कोई शिकायत

चुप्पी ने मारा*

चुप से अच्छा

नफ़रत ही करो

दो बातें कहो *

बात तो करनी ही पड़ेगी. हाँ, अपने आंसुओं को ज़रूर बचा कर रखना होगा -

धोना पड़े जो

कभी मन आँगन

आंसू बचाना*

तरल करें

जब जब भी बहें

दर्द के आंसू*

कवि का परामर्श है कि तूफ़ान भी आएं तो भी सर न झुकाएं. उदास होने की कोई आवश्यकता नहीं है. रात में भी किसी न किसी रूप में रोशनी साथ रहती है –

तूफ़ान आएं

नहीं सर झुकाएं

रोशनी लाएं*

न हो उदास

संग चाँद औ’ तारे

होगा ही प्रात:*

रामेश्वर जी हालांकि इस बात से सहमत दिखाई देते हैं कि हाइकु काव्य का मुख्य आग्रह प्रकृति और प्रेम पर है किन्तु वह यह भी जानते हैं की कवि अपने सामाजिक सरोकारों और वस्तुस्थितियों से जिनसे उसकी मुठभेड़ प्रतिदिन होती ही रहती है, मुंह नहीं मोड़ सकता. एक हाइकुकार भी ऐसा नहीं कर सकता. आखिर हाइकुकार भी समाज का ही एक अंग है. वह अनावश्यक रूप से हाइकु और सेंर्यु में भेद नहीं करते. उनके हाइकु जिनमें स्पष्ट: सामाजिक सन्दर्भ है, इसके प्रमाण हैं. वह अपने समाज की स्थिति को देखकर व्यथित होते हैं. –‘चौराहों पर / घूमता सांड–जैसा / बेख़ौफ़ डर’ उन्हें भी डराता है. ‘फूंस का घर / या कि घूस का घर / भक से जलता’ देख उन्हें भी निराशा और अप्रसन्नता होती है और वह इसे बेलाग अपनी हाइकु रचनाओं में अभिव्यक्ति देते हैं. उनके यहाँ कोई भी विषय हाइकु रचनाओं के लिए वर्जित नहीं प्रतीत होता. मुझे प्रसन्न्ता है कि उन्हें इन रचनाओं में हास्य और व्यंग्य परोसने में भी मज़ा आता है. कुछ छुटभइयों की स्थिति का जायज़ा लेते हुए वह कहते हैं,

न बने मूंछ

कुछ तो बनाना था

बने हैं पूंछ

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डा. सुरेंद्र वर्मा

१०, एच आई जी /१,सर्कुलर रोड इलाहाबाद -२११००१

मो. ९६२१२२२७७८ ब्लॉग – surendraverma389.blogspot.in

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हिंदी में हाइकु (१५) माटी की नाव / सुरेन्द्र वर्मा
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