कहानी संग्रह - अपने ही घर में / रिक्तता ही रिक्तता : लाल पुष्प

SHARE:

कहानी संग्रह - अपने ही घर में / रिक्तता ही रिक्तता लाल पुष्प तरह-तरह की रोशनियाँ, तरह-तरह की मिठाइयाँ। उसने रोशनियों की ओर नहीं देखा, मि...

कहानी संग्रह - अपने ही घर में /

रिक्तता ही रिक्तता

लाल पुष्प

तरह-तरह की रोशनियाँ, तरह-तरह की मिठाइयाँ। उसने रोशनियों की ओर नहीं देखा, मिठाइयों को हाथ भी नहीं लगाया। उसके आसपास का शोरगुल, जो आम तरह भी उसे मन के किसी तन्हा कोने में फेंक देता था, आज ज़्यादा बढ़ा हुआ था। जब भी यह दीवाली आई, उसने आसपास के शोर में खुद को ज़्यादा अकेला पाया। और वह तीन बार आई थी। उसे लगा, हमेशा लगता था, जब भी यह दीवाली आई तो राम अयोध्या लौट आया... लेकिन वह अपनी अयोध्या छोड़ आया था। राम जब अयोध्या छोड़कर बनवास गए होंगे, बनवास के कष्टों की पीछे भी उनमें एक उम्मीद रही होगी, कि कभी न कभी, चौदह साल बाद वह अयोध्या वापस लौटेगा। उसे तो एक बार अपनी अयोध्या छोड़ने के उपरान्त वह उम्मीद भी न रही।

लिंकिंग रोड, बान्द्रा, मुम्बई।

और उसकी ‘अयोध्या’ ?

वहाँ से चालीस मील दूर, लोकल गाड़ी से सिर्फ़ दो घंटे, सिंधूनगर के नाम से।

उसने शाही रास्ता छोड़ा और फुटपाथ पर चलने लगा। ऐसे दिन किसी कार या टैक्सी के नीचे मरना अच्छा नहीं है। लाल बत्तियाँ, हरी बत्तियाँ, सभी रंगों की बत्तियाँ, रंग-बिरंगे परदे, खिड़कियों पर लटके, जिन पर बत्तियों के अक्स काँप रहे हैं। उन पदरें के पीछे गूँजते ठहाके, उन पदरें के आगे जलते पटाखे। उसके जहन में सब दीप बुझ गए और सभी कोनों में अंधेरा छा गया। उसकी अयोध्या, गैर पारदर्शी अंधकार की परदे के पीछे गुम हो गई। हाँ, उसके आगे यादें रहीं, यादें, जलते पटाखे?

गज़ेबो के पास एक निहायत ही खूबसूरत, फैशनबिल औरत आगे बढ़ी, यहाँ-वहाँ नज़र फिराई, सामने खड़ी टैक्सी के भीतर बैठे मर्द की बाहों में चली गई और उसके बाहों में चले जाने से टैक्सी भी चली गई। दो मिनट के बाद एक दूसरी टैक्सी आई, शायद दूसरी औरत के इन्तज़ार में। उसने वहाँ से जाना चाहा। उसे किसीका इन्तज़ार न था, न किसी को उसका इन्तज़ार था। मुद्दत हुई, उसे इस लफ़्ज़ से ही चिढ़ थी, क्योंकि उसने किसी पर भरोसा नहीं किया था। सिर्फ़ उस एक ‘इन्तज़ार’ में ही किया था। लेकिन बाद में जाना वह भी स्थाई नहीं, कितना भी तवील है लेकिन स्थाई नहीं है, क्योंकि कभी न कभी पूरा हो जाने वाला है इसलिये सच नहीं है। क्योंकि जब संपूर्ण हो जाता है तो फिर कोई चाह बाक़ी नहीं रहती, क्योंकि...!

उसके दिमाग़ का इंजन ख़यालों के खाली डिब्बे घसीट रहा था, क्योंकि उसकी हर बात के पीछे ‘क्योंकि’ है ....

वक़्त बीते नहीं बीता तो वह हर कहीं खड़ा रहा, जैसे-तैसे खड़ा रहा। अंधकार के सिर्फ़ चंद टुकड़े, रोशनी की जगमगाहट बर्दाश्त न कर पाने के सबब, डर से बिल्डिंग की दाईं तरफ़ वाली दीवारों पर चढ़ गए थे। वहाँ भी जब बीच-बीच में, ज़मीन से काफ़ी ऊपर जाते राकेटों की रोशनी उन्हें ढूँढ़ लाती, तब वो जैसे ज़्यादा डर में थर-थर काँपने लगे... एक क्षण में, आपस में, अनेक छोटे-छोटे टुकड़े होकर, उसी चमक में घुलकर फिर से आपस में समाकर एक हो गए।

‘साहब, मोमबत्तियाँ लीजिये। एक आने की दो, मेहरबानी करके ले लीजिये’, एक लड़का उसके नज़दीक आया।

बच्चे हैं जो मोमबत्तियाँ ले रहे हैं और वह भी बच्चा है जो बेच रहा है। उसने एक आना दिया, मोमबत्तियाँ नहीं लीं। उन छोटी-छोटी, बारीक मोमबत्तियों से उसके जहन में कोण रौशन न होंगे। थोड़े समय के लिये, उनकी काँपती लौ में हल्की रोशनी में वह अपनी यादों को समेटने की कोशिश करेगा भी, तो इस बीच मोमबत्तियाँ खत्म हो जाएँगी और वे यादें जहन के भीतर, बहुत दूर-दूर फासलों में खो जाएँगी। देर हो जाएगी, फुर्सत नहीं है, फ़ायदा भी नहीं है। दाइमी रोशनी, अयोध्या, सिंधूनगर पीछे छूट गया है। बीच में मजबूरियाँ हैं, उनमें वज़नदार ताले लगे हुए हैं, क़दम-क़दम पर लोहे के दरवाज़े हैं और हर दरवाज़े की हर सलाख के सामने पहरेदार है, और हर पहरेदार के हाथ में बंदूक है और हर बंदूक में गोलियाँ हैं।

पैदल करते, लिंकिंग रोड पार हो गया। वह सिनेमा घर पार करके वहाँ पहुँचा जहाँ चार रास्ते बन रहे थे। बाईं तरफ़ वाला, जिसके कोने पर फर्नीचर की शाही (शाही लोगों के लिये) दुकान है, सीधा समुद्र की तरफ़ ले जाने वाला है और आगे बढ़ने से समुद्र का शोर भी, खास करके रात के वक़्त सुनने में आता है। इस शोर में कितने पापों की आवाज़ दब जाती है। उसे समुद्र अच्छा लगता है। इन्सानों से भी ज़्यादा अच्छा लगता है। मुम्बई समुद्र है, पर पहाड़ उसे समुद्र से भी ज़्यादा अच्छे लगते हैं। सिंधू नगर में बहुत पहाड़ हैं। वह तो रहता ही पहाड़ों के चरणों में था। उसका मक़सद, जिसमें अब उसका विश्वास नहीं रहा है, उसने अब महसूस किया है कि शायद उसका वह मक़सद था ही नहीं और वह मक़सद उसके लिये गलत था, या वह खुद उस मक़सद के लिये ग़लत आदमी था। यह बात सबसे पहले इस पहाड़ पर ही उसके सामने खुलासा हुई। दूसरा रास्ता सीधा गोडबंदर रोड से जा मिलता, तीसरा रास्ता, जिसके कोने पर पार्क के नाम पर छः क़दमों के छोटे दायरे में सूखे हुए घास के चारों तरफ़ चार झूले बाँधे गए थे, बांद्रा स्टेशन की तरफ़ जाता था। चौथा पीछे, वही गोडबंदर रोड।

उसने सोचा, कौन-सा रास्ता लूँ, या कोई न लूँ, वापस मुड़ जाऊँ ? देर नहीं हुई थी क्योंकि पटाखों की आवाज़ अभी ज़ोर नहीं पकड़ पाई थी। इस तरफ़ जैसे रात बढ़ती जाती है, पटाखों की आवाज़ तेज़ होती जाती है।

इस वक़्त वह कहाँ होता ? उसने सोचा, और फिर उसने सोचा कि इन सवालों में कहीं कुछ गड़बड़ है। जब तक उसमें यह नहीं जुड़ जाता कि वह अगर इस वक़्त ‘कहीं’ होता था तो कहाँ होता ? शायद उसके जहन के पीछे सिंधूनगर था। यानि वह इस वक़्त सिंधूनगर में होता, तो वहाँ-कहाँ होता था ? इसके लिये वक़्त देखना ज़रूरी है। कोई मिल जाए ....।

‘वक़्त कितना हुआ है ?’ तेज़ी से आते एक आदमी से उसने पूछा। उस आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया, हालाँकि घड़ी भी देखी! जल्दी-जल्दी उसके पास से गुज़रते एक बार उसे देखता गया। उस नज़र से ज़ाहिर था जैसे ‘ये भी कोई वक़्त पूछने का वक़्त है ?’

शायद नौ बजे हैं।

एक छोटे, तंग, अंधेरे, सिर्फ़ बीच-बीच में दुकानों की रोशनियों से रौशन होकर फिर अंधेरे में डूबता रास्ता, जो उसके घर से शुरू होकर सीधा मुख्य चौक पर खतम हो जाता है। उसके घर से उस मुख़्य चौक तक हर क़दम उठाने से और ज़्यादा रौशन होता जाता है। बीच में से टूटा-फूटा है, ऊपर-नीचे है, पैरों को कई बार चोटें पहुँचाता है, बीच-बीच में कहीं बैरकों के पास ही बने शोच-कूप की टूटी दीवारों की वजह से गंदी बदबू से भरे, लेकिन इस चौक तक पहुँचते हज़ार हाथ बढ़ जाते हैं, हज़ार निगाहें उठती हैं, हज़ार मुस्कराहटें मिलती हैं। आदमी-आदमी वाक़िफ़ और चप्पा-चप्पा जाना पहचाना। इस राह के हर पत्थर पर वह बैठा है, हर स्तंभ के पास खड़ा है। उन पुलों और स्तंभों के आस-पास उसकी सारी की सारी मुहब्बतें जलीं हैं और सब मक़सद रौशन हुए हैं। उन मैदानों की हवाएँ, उसको दिए हुए किसी के वादे, दौड़ते हुए दूर तक ले गई हैं और पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर छोड़ आई हैं।

वह आज हर रोज़ की तरह, इस वक़्त लगभग नौ बजे तक इस चौक के किसी कोने पर खड़ा हुआ होता तो इस तरह खाली-खाली न होता। इस महानगरी में वह बिल्कुल अकेला है, सब गैर वाक़िफ़ हैं। तीन साल के अंदर उसे इस मुम्बई में यह भी पता नहीं पड़ा है कि उसके पड़ोस में कौन-कौन रहते हैं। कभी कोई मिलता नहीं है, घर में अगर कोई आ भी जाता है तो सिर्फ़ यह कहने कि ‘बर्फ़ चाहिये तो तुरंत मँगवा लीजिये’, जिसके पीछे कहने का मक़सद यही होता है कि वह बताना चाहता है कि उसने फ्रिज खरीद ली है।

उसने फैसला किया कि वह जल्दी पीछे नहीं लौटेगा। हालाँकि आगे चलकर कहीं भी, कुछ भी, उसे क्या मिलेगा, या किसी भी मक़सद से वह कहीं भी क्यों जा रहा है ? उसे कुछ मालूम न था ? उसे यह भी मालूम नहीं था कि उसका यह फैसला, पीछे न मुड़ने का, आगे बढ़ने का, पक्का है या नहीं ? किसी भी तरह के फैसले से उसने देखा है, कोई फ़ायदा नहीं है। और अब बस, गर वह किसी फैसले पर पहुँचा तो सिर्फ़ एक पर- कि कोई भी ‘फैसला’ व्यर्थ है। किसी भी मक़सद की तरह !

फैसला, मक़सद, किसका ? उसका ? वह ‘कौन-सा’ ?’ वह एक ही वक़्त, इन चार रास्तों की तरह, आपस में, अलग-अलग जाता हुआ नही था ! उन ‘सब’ में वह ‘कौन-सा’ था ? जाना जा सकता है ?

समुद्र, सिगरेट, वह एक बड़े पत्थर पर बैठा।

फैसला, मक़सद। उसने एक छोटा पत्थर उठाकर पानी में उछाला। वह गुम हो गया। फैसला, मक़सद। वे उसमें ऐसे ही गुम हो गए। वह भी इस दुनिया में यूँ ही गुम हो गया था।

मुझमें पहले ‘जानने’ की जलन थी। अब उसकी जगह एक और जलन ने ली है। ‘जाना’ जा सकता है ? मैं जो समझता हूँ कि मैं जानता हूँ, वह मात्र धोखा नहीं है,

बिल्कुल आरजी तस्कीन ?

समुद्र नहीं है, पहाड़ हैं। ‘प’ हैं, मैदान हैं, ‘म’ हैं, पुलें हैं पत्थर की, ‘प’ हैं। हम कभी जुदा न होंगे - ‘प’। हम कभी जुदा न होंगे - ‘म’। सिंधू नगर कभी नहीं सुधरेगा। रस्ते हैं ? बस्तियाँ हैं ? बदबू है, गंदगी है, ज़िन्दगी है ? एक-एक होकर सब जा रहे हैं। पहले भी सब एक-एक करके आए थे। ज़िन्दगी सख़्त है, ठीक है, बेहद मुश्किल है, ठीक है, बेकार जा रही है, ठीक है, उसकी आँखों पर बनावटी खूबसूरत चश्मा नहीं है। मेरा तुमसे प्यार नहीं रहा है, ‘म’ है। मजबूरी की बात है ‘प’ है। मेरा यह सबसे ‘गहरा’ ‘आखिरी’ प्यार है, ‘क’ है। तुम बिलकुल सही हो। यहाँ आओ, मेरे क़रीब आओ, सर्दी है, जज़्बात गर्म हैं, रात अकेली है, रास्ते सुनसान हैं। सभी सोए हैं, सिगरेट खत्म है, क़रीब आओ तो तुम्हें सुनाऊँ मुझको भी तुमसे, बहुत ही गहरा और आख़िरी प्यार है। क़रीब आओ (मैं सोच रहा हूँ) इस खूबसूरत फ़रेब से आज की ज़िन्दगी को आसान बनाएँ। नहीं तो तुम जानती हो, मुझसे पहले भी तुमने औरों को यही कहा है, मैं भी ऐसे ही कहता आया हूँ। हमारा हर प्यार सबसे गहरा और आखरीन है। यह दाइमी झूठ एक आरज़ी सच है।

गाड्रेज की अलमारी कब से ट्रक में चढ़ चुकी है। बिस्तरे बाँधे गए हैं। उसके भाई और बहनें पीछे ट्रेन में आएँगे। वह ट्रक में जाएगा, पिता के साथ। पिता के चेहरे पर खुशी है, आँखों में अभिमान है और बदन में फुर्ती है और वह यहाँ-वहाँ देख रहा है कि कोई उसकी तरफ़ देखे।

‘आप भी जा रहे हैं ?’

‘हाँ साईं, अपना फ्लैट लिया है, पूरे बीस हज़ार दिए हैं।’

‘पर फिर भी समझो कि सस्ता मिला है।’

सुनने वालों के मन में ईर्ष्या है। इस गंदी कैंप को अलविदा ! खुशनसीब हो, साईं बहुत खुशनसीब हो, हमारी ऐसी खुशनसीबी कब आएगी ?

लेकिन वह खामोश है। पहाड़ों, मैदानों, दरख़तों और रास्तों से उसने मन ही मन में विदा ले ली है। यह पत्थर की पुल ट्रक में नहीं ले जा सकते? इसके बिना ....।

बाम्बे, चित्तौड़गढ़, आगरा, आदीपुर। बाम्बे-सिंधूनगर-बाम्बे, सिंधूनगर- बाम्बे-सिंधूनगर और आज फिर बाम्बे। इस बार शायद हमेशा के लिये। क्योंकि इस बार अपनी जगह मिली है। वह जहाँ भी बसा, वहीं टूटा। इसलिये ट्रक में, ड्राइवर के पास बैठते, सामने शीशे में अपनी सूरत देखकर उसे लगा कि यह सूरत उसके बाप की उस सूरत से बिलकुल मिलती है जो उन्नीस साल पहले, उसने कराची छोड़ते हुए स्टीमर में डेक पर देखी थी। इस सूरत में कटे हुए पैरों का दर्द था।

उसे अब उठना चाहिये। पीछे लौटना चाहिये। समुद्र के सामने उसे हमेशा माज़ी याद आता है। पहाड़ उसे इसलिये पसंद है। पहाड़ों पर वह अपना माज़ी भूल जाता है। हाल फिलहाल सम्पूर्ण तरह से जीता है। इर्द-गिर्द के माहौल में रहता है। वो उसी हाल में इर्द-गिर्द के माहौल में रहना चाहता है। पिछले हफ़्ते जब उसे नानावती हास्पिटल में एक मरीज़ की टांग कटने की बात सुनी थी - क्योंकि उस मरीज की टांग में ज़हर फैल गया था, तब उसके मन में यही विचार जागा था कि विज्ञान न जाने कब इतनी तरक़्की करेगा जो किसी के माज़ी को काटकर बाहर फेंक देगा, यहाँ, ज़हन से। अगर वह विज्ञानी होता, उसने सोचा था, तो सबसे पहले इसी बात को ईजाद करता। सुख कभी नहीं मिल सकता और सरल ज़िन्दगी कभी नहीं जी सकते, जब तक यह बात ईजाद नहीं होती है।

उसने दूर से बस आती देखी। समुद्र का एक हिस्सा, एक पल के लिये बस के बल्बों की तेज़ रोशनी में चमक कर, फिर गहरे अंधेरे में छिप गया। उसने बस पकड़ी, शायद आख़िरी थी। छोटे फासले के बीच चलती है। जहाँ पूरी होती है वहीं से शुरू होती है। आठ के क़रीब आदमी उतरे और उसके भी आधे, उसके साथ चढ़े। रास्ते पर फ़क़त दो स्टैंड थे, तीसरे पर उतरना था। अचानक उसके मन में आया, वह सीधा चला जाए और वहीं से सिंधूनगर के लिये रवाना हो जाए।

सिंधूनगर....!

वह सिंधूनगर छोड़ने के बाद, बीच-बीच में कितने बार गया था, यूँ ही। अचानक, अनचाही कशिश ! जब भी उसने यूँ महसूस किया, जैसे आज किया, तब उसने महसूस किया कि जैसे उसके पैरों तले कुछ भी न रहा, उसके इर्द-गिर्द एक ख़ला हो और उसके बीच, बिना किसी वजन के, खुद को तैरता महसूस करता हो। जैसे वह महसूस करता हो कि वह कुछ महसूस नहीं कर रहा है।

जब भी वह उस स्थिति से बाहर आया वह एक अजब डर से घिर गया। वह है ?

वह, खुद आप, क्योंकि वह दूसरा कोई नहीं है। महज़ यही एक यक़ीन उसके होने का पूरा सबूत हो सकता था ?

‘‘मोती हो ? अरे कैसे हो ?’

‘मैं ठीक हूँ, तुम कैसे हो ?’

‘मैं ठीक हूँ।’

‘आज इस तरफ़ आए हो ?’

‘बस , ऐसे ही।’

‘बाम्बे में मजा आता है न, खुशनसीब हो।’

वह खामोश रहा।

‘आओ चाय पीए, बातें करें’ मोती ने कहा।

यह वही मोती है, जिससे वह अरसे से मिलना चाहता था। जिसके साथ वह हर रोज़ रात को रस्ते के एक तरफ़ पत्थर की पुल पर बैठकर बातें करता था। खाने के बाद, माज़ी की बातें !! अपने पहले प्यार की, पहली नाकामयाबी की, अपने मक़सद के बारे में। पिता की मजाकिया तबीयत की बातें, मिसालों के साथ। अपने अंदर में एक बेचैन अस्पष्ट शक को छुपाते हुए कि उसके बाप की उस मज़ाकी तबीयत के पीछे हक़ीक़त में अपमान करने की मुराद है। अगर ग़ौर करके देखा जाए तो, सामने वाले को डंक की, उससे उत्पन्न होने वाले कठोर आत्म सुख हासिल करने की भावना, ऊपरी मज़ाक का नक़ाब ओढ़कर नुमायां होने वाले, और वह शक कि कैसे उसे पिता की मौजूदगी ने नर्वस बनाया और मानसिक सतह पर अलग करके खड़ा कर दिया। पहले वह शक जब तक उसमें अज्ञात था, उसने ख़ुद को बाप के लिये इस तरह के ख़याल के लिये खूब फटकारा - बाद में, जब मन में यह साफ़ हो गया, तब वह अपनी ओर वाली फटकार, बाप की तरफ़ हिकारत की सूरत अपनाने लगी। मोती से उसने कभी कुछ नहीं छुपाया, बाप की ओर पनपती यह हिकारत की बात भी सुना दी।

यही मोती उसे मिला था सिंधूनगर में, सिंधूनगर छोड़ने के बाद !!

‘कैसे हो ?’

‘ठीक हूँ।’

‘कैंप छोड़ गए...!’

‘कैसे हो मोती ?’

‘तुम सुनाओ, बाम्बे कैसी है ?’

‘ठीक है।’

‘हो तो बिलकुल ठीक न ?’

‘बिलकुल ठीक।’

‘कुछ और सुनाओ ?’

‘क्या सुनाऊँ मोती, तुम ही कुछ सुनाओ।’

‘कैंप की याद आती है ?’

उसने कहा कि ‘हाँ उसे बहुत आती है।’

और इस तरह बीस मिनिट में, तुम सुनाओ - तुम सुनाओ और ठीक हो - ठीक हूँ के बार-बार के दोहराए गए वाक्यांश से, इन दोनों ने एक दूसरे को काफ़ी बोर किया। जल्दी जुदा होने के लिये दोनों आतुर थे। जुदा हुए, दोनों एक दूसरे से फिर मिलने का वादा करके। लेकिन बीच में कुछ न था। दोनों उससे सावधान थे।

उसके बाद भी वह जब-जब सिंधूनगर गया, जिस किसी से भी मिला, उसने बीच में एक भी कड़ी न पाई। जैसे वह रिक्तता, उसके इस ओर आते वक़्त उसका पीछे करते हुए साथ आई। उस खालीपन में धँस जाने में भी दर्द का अहसास न था, कोई अहसास था ही नहीं, उनमें पहचान के सभी सिलसिले टूट गये थे।

इस बीच उसने देखा, बैरकों के ऊपर पेड़ों की लटकती टहनियाँ काटी गई हैं। जिस होटल में वह घंटों के घंटों बैठकर दोस्तों के साथ गप्पे मारता था, उसका फर्नीचर बदला गया है, मालिक की आवाज़ में तब्दीली आ गई है, वेटर बदल गया है। वह लड़की जिसने उसे ख़त में लिखा था कि वह ‘मुझसे शादी नहीं करोगे तो मैं खुदकुशी करूँगी’, अब दो बच्चों की माँ बन गई है, बेहद खुश है।

ये क्या वही आदमी हैं ? ये क्या वही स्थान हैं ? इन सबके बीच में वो कब, कौन से जमाने में रहा था। रहा था, या सिर्फ़ किसी सिनेमा के पर्दे पर देखा था, शायद किसी नावल या कहानी में पढ़ा था ? या वो सब वही थे - आदमी और स्थान- वह खुद था जो बदल गया था ? बीच में गहरा कोहरा है। सब कुछ निर्मल, पारदर्शी है। उसकी नज़रें बदल रही हैं, जैसे एक नए गैर वाक़िफ़ शहर को देख रही हैं।

सन्नाटा गहरा, रिक्तता बड़ी।

ज़िन्दगी ठहरा पानी है, एक तिनके की तरह वह पड़ा हुआ है, बिना किसी हरक़त के, वह पानी में यहाँ-वहाँ हो भी रहा है तो हवा के झोंके से, न कि अपने बल पर, अपनी सत्ता से, अपनी इच्छा अनुसार....!

स्टेशन की तरफ़ न जाकर उसने घर की तरफ़ जाने वाला रास्ता लिया। बीच में चाय पी लेगा। नहीं, काफ़ी ! कुछ सिगरेट लेगा। पटाखों की आवाज़ अब रख-रखकर हो रही थी। वह तेज़ी के साथ चलने लगा। मन में डर था कि कहीं वह फैसला न बदल दे, यानि स्टेशन की तरफ़ न जाए, सिंधूनगर जाने के लिये। वह फिर नहीं जाएगा। कोई फर्क़ नहीं है, कोई भी दो जगहों के बीच। लेकिन खास करके किन दो औरतों के बीच में। गुज़रे तीन महीनों से और इस बार, यह बड़े से बड़ा अरसा था, वह सिंधूनगर नहीं गया था। कोई फ़ायदा न था। वह जहाँ भी खड़ा है, धरती उसके पावों तले खिसक गई है। उसे कहीं भी नहीं जाना है, किसी से भी नहीं मिलना है और कुछ भी नहीं पाना है।

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: कहानी संग्रह - अपने ही घर में / रिक्तता ही रिक्तता : लाल पुष्प
कहानी संग्रह - अपने ही घर में / रिक्तता ही रिक्तता : लाल पुष्प
https://lh3.googleusercontent.com/-POxwWihRZTk/VzrYcRbKX1I/AAAAAAAAtsk/P4PPe63-0Fc/image_thumb1_thumb.png?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-POxwWihRZTk/VzrYcRbKX1I/AAAAAAAAtsk/P4PPe63-0Fc/s72-c/image_thumb1_thumb.png?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2016/05/blog-post_311.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2016/05/blog-post_311.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content