कुंभ से लें सीख प्रकृति पूजा की - डॉ. दीपक आचार्य

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सब तरफ मची है हौड़ कुंभ स्नान की। हर धर्मावलम्बी की दौड़ इन दिनों उज्जैन कुंभ की ओर है। जो कुंभ में जा आए हैं वे संत-महात्माओं, बाबाओं, योगियों, मठाधीशों और महामण्डलेश्वरों के सान्निध्य, सत्संग और दिव्य ऊर्जाओं की प्राप्ति के महिमामण्डन में जुटे हुए हैं।

जो पहली बार जाकर आए हैं वे अभिभूत हैं। जो अपने जीवन में कई बार जा आए हैं वे आंकड़ों के साथ अपने आपके परम धार्मिक और दिव्यता प्राप्त होने का अहसास करते हुए तुलना करते नहीं अघाते कि कौनसा कुंभ कैसा था और वहाँ की खासियतें क्या थीं।

जो नहीं जा पाए हैं उनके लिए अब भी दो दिन का वक्त शेष बचा है। हम सभी सोचते हैं कि क्यों न दो दिन में जाकर कुंभ नहाने का इतिहास कायम कर लें। कहीं यह मलाल न रह जाए कि कुंभ में जा नहीं पाए।

जो किसी कारण से नहीं जा पाए हैं या नहीं जा पा रहे हैं उनकी रामकहानियां अलग-अलग हैं। कुछ लोग अपने आकाओं को कोसते नज़र आते हैं जिनकी वजह से छुट्टी नहीं मिल पायी है।

कई सारे लोग ढेरों कारण गिनाते हैं। कुछ फीसदी लोग ऎसे भी हैं जिनका सोचना है कि कुंभ में जाने की पात्रता होनी चाहिए। जो लोग अपने घर के तीर्थ माता-पिता और गुरुजनों तथा बड़े लोगों का आदर-सम्मान नहीं कर सकते, भगवान के ध्यान-पूजन, संध्या-गायत्री या किसी भजन भाव के लिए स्थान नहीं निकाल पाते,उनके लिए ये कुंभ भी क्या करे।

बहुत से लोग हैं जो साल भर किसी न किसी देवरे में धोक लगाते रहते हैं, नंगे पांव पैदल चलते हैं, कावड़े भर-भर कर यात्राएं करते रहते हैं, कितने सारे व्रत-उपवास करते हैं, हर कुंभ में जाकर कई-कई बार नहा आते हैं, बड़े-बड़े तीर्थों में जाकर मत्था टेक आते हैं और धर्म के नाम पर इतना अधिक दिखावा करते हैं कि उनकी बराबरी को कोई दूसरा भक्त या धर्मात्मा पैदा ही नहीं हुआ हो।

हजारों संत-महात्माओं, असामान्य से लेकर सिद्ध और महान-महान लोगों का जमघट लगता है कुंभ में लेकिन इनमें से अधिकांश लोगों को कुंभ के मूल मर्म से कोई लेना-देना नहीं है। ये लोग केवल अपने पापों का खात्मा करने और भगवान की कृपा से अपनी जिन्दगी भर की समस्याओं के निराकरण के साथ ही सुख-समृद्धि और वैभव की प्राप्ति की कामना से आते-जाते हैं और वह भी क्षेत्र, कुटुम्बियों और पड़ोसियों की नहीं बल्कि केवल अपनी समृद्धि के लिए ही।

और यही कारण है कि सालों से हम कुंभ में जाते रहे हैं फिर भी वहीं की वहीं ठहरे हुए हैं जहां पहले थे। कुंभ में जाने के पहले और बाद में अपने व्यक्तित्व और जीवन व्यवहार में कोई अंतर नहीं आ पाया बल्कि और अधिक सांसारिक कुटिलताओं का आश्रय पाते जाते हैं जैसे-जैसे हम बूढ़े होते जाते हैं।

और एक दिन खाक हो जाते हैं फिर हम नहीं जाते हमारी अस्थियां ही ले जायी जाती हैं। हजारों-लाखों लोगों में कुछ ही बिरले होते हैं जो कुंभ के महत्व को समझते हैं और जीवन में बदलाव ला पाते हैं। कुंभ अपने आप में पंच तत्वों की उपासना का महाप्रतीक है जहाँ जो प्रकृति में रम जाता है वह सब कुछ पा लेता है।

जो संसार में रमा रहता है वह एक दिन संसार को भी छोड़ देता है और ढेर सारे कुंभों में असंख्य बार स्नान और दर्शनों के बावजूद खाली झोली के ही ऊपर चला जाता है। न कोई पुण्य का धेला और न सेवा और परोपकार का अनुभव।

जो कुंभ से आए हैं और जो कुंभ में अब तक जाते रहे हैं, जो लोग जाने की इच्छा रखते हैं उन सभी को चाहिए कि वे कुंभ को केवल औपचारिक स्नान और देखा-देखी की भक्ति या परंपरा के रूप में ही नहीं देखें बल्कि कुंभ से प्रकृति के पंच तत्वों के संरक्षण और संवर्धन के प्रति समर्पित होने के संकल्प लें और इस प्रकार कार्य करें कि उनका कुंभ स्नान और देव दर्शनादि सार्थक हो।

यह तभी संभव है कि हम जिस जल में स्नान कर पवित्रता का अहसास करते हैं व उस जल की  अंजुलि लेकर शपथ लें कि अपने इलाके में पानी का दुरुपयोग नहीं होने देंगे, पानी बचाएंगे, पानी का संग्रहण करेंगे और पानी के माध्यम से सेवा करेंगे। पानी के भण्डारों को बर्बादी से बचाएंगे, उनका अतिक्रमण नहीं करेंंगे और पानी से जुड़े हुए जो भी काम हैं उनमें प्राण-प्रण से जुटेंगे। 

यह भी संकल्प लें कि आबोहवा को शुद्ध रखें, खुले भागों को आबाद रखें। कुंभ जैसी सामाजिक समरसता, अनासक्ति भाव और सामुदायिक एवं वैश्विक कल्याण की भावना से काम करें। 

सभी पंच तत्वों की उपासना को जीवन भर के लिए अंगीकार करने का संदेश देता है कुंभ। जो लोग अतिक्रमणकारी हैं, जलाशयों पर कब्जा करने वाले, उन्हें नष्ट-भ्रष्ट करने वाले, गौहत्या करने वाले, खुले भागों को खत्म करने वाले हैं उनमें से किसी को भी कुंभ में नहाने का कोई अधिकार नहीं है। 

बहते नीर की तरह जो निर्मल रह सके, सभी को पावन करने का सामथ्र्य रख सके, सभी के कल्याण की भावना हो, उसे ही कुंभ नहाने और कुंभ में देव दर्शनादि का अधिकार है।

कुंभ में जाने के बाद भी हमारी दृष्टि में विकार, पक्षपात और अपना-पराया बना रहे, उसी तरही भ्रष्टाचार-व्यभिचार और पापाचार में रमे रहें, हराम का खान-पान करते रहें, तो उस कुंभ का कोई अर्थ नहीं है।

हर बाबाजी और मठाधीश भी यह संकल्प लें कि जहां उनके मठ हैं उस गांव-शहर में कम से कम एक जलाशय गोद लें, भक्तों की जेब से निकला कुछ पैसा खर्च करें और परंपरापगत जलाशयों को और अधिक विकसित करें ताकि सदियों तक उनका नाम अमर रह सके और यह सिद्ध हो सके कि धार्मिक कहे जाने वाले लोग भी सेवाभावी, परोपकारी, परमार्थी और संवेदनशील होते हैं।

अबकि बार कुंभ का लाभ लेकर आने वाले और कुंभ के प्रति दिल में श्रद्धा रखने वाले सभी लोग जल से भरा कुंभ हाथों में लेकर यह प्रतिज्ञा करें कि आजीवन जल संरक्षण और जल को सम्मान देने की परंपरा का निर्वाह करेंगे और जल सेवा-प्रभु सेवा को जीवन में उतारेंगे। पशु-पक्षियों से लेकर प्राणी मात्र, पेड़-पौधों आदि की जल सेवा भी कुंभ स्नान के पुण्य से कम नहीं है। इसलिए जल तत्व के प्रति पूज्य भाव रखें और अपने-अपने क्षेत्रों में प्रतिष्ठा करें।

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