''वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के उपन्यासों का तुलनात्मक अध्ययन''

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  डॉ . शेख अफरोज फातेमा शेख हबीब सहयोगी प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्षा, मौलाना आजाद कला, विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्यालय, औरंगाबाद   डॉ . का...

 

डॉ. शेख अफरोज फातेमा शेख हबीब

सहयोगी प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्षा,

मौलाना आजाद कला, विज्ञान एवं

वाणिज्य महाविद्यालय, औरंगाबाद

 

डॉ. काकडे गोरख प्रभाकर

सहयोगी प्राध्यापक

सरस्वती भुवन कला एवं वाणिज्य

महाविद्यालय, औरंगाबाद

 

आज वर्तमान साहित्य विधाओं में भारतीय उपन्यास साहित्य विधा ने अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है । भारतीय उपन्यासों ने वर्तमान जीवन की संगति एवं विसंगतियों में चहु ओर से पहल करके मानवी संवेदनाओं को अपने में समेटा है और वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, शैक्षिक एवं वैश्विक परिवेशों को प्रक्षेपित करके साहित्य में मूल्यात्मक एवं गुणात्मक वृद्धि की है । इस संदर्भ में शशि भारद्वाज लिखती हैं - "उपन्यास के पिटारे में झांकती है मानवीय पीड़ा की कलात्मक अभिव्यक्ति जिसमें वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक परिस्थितियों में पसरती नित्यवृद्धिशील क्रूरता; विस्थापित जीवन-यापन का संकट; देहवादी संस्कृति; बहुराष्ट्रीय कंपनियों का आर्थिक प्रभुत्त्व; स्वकेंद्रित स्वार्थी सत्ता से आम आदमी का संघर्ष; स्त्री विमर्श और स्त्री सशक्तिकरण आदि मानवीय प्रयासों की गतिशीलता; प्रवास, विदेशी यात्राओं और सूचनातंत्र से आयातीत बाहरी प्रभावगत परिवर्तन आदि सब सहज सिमट आए हैं ।"१

साथ ही यह पिटारा मानव का अंतर्मन, मोहभंग, अनास्था, विघटन, यौन कुंठाएँ, आंतक, असंतोष, नैराश्य एवं अजनबीपन की दिशाओं में खुलने की बात भी भारद्वाज करती हैं।

वर्तमान राजनीति के संदर्भ में हिंदी उपन्यासों के साथ जब भारतीय उपन्यास साहित्य का तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया जाता है तो समग्र भारतीय भाषाओं के उपन्यास साहित्य में वर्तमान राजनीति का स्वरूप भाई-भतीजावाद, स्वार्थ-लोलुपता से युक्त अखाड़ा बनने का वास्तव सामने आता है । देश के राजनेता जनता को केवल आश्वासनों के गुब्बारे थमा रहे हैं । आक्रोश या सत्ता के बदलाव पर फिर से वही व्यवस्था पिटी हुई जनता को खिलौना सम-ा अपने स्वार्थ के -ाुन-ाुने-सा बजा रही हैं । अपने बेसिर-पैर के अंजेडे द्वारा जनता के भविष्य का जनाजा निकालकर अपना कछुए-सा पेट भरने का काम कर रहे हैं । साथ ही इन नेताओं ने सरकारी कर्मचारी, शासक, सांसद एवं अन्यों से भी साझा हिस्सेदारी के लिए मिलीभगत की है, जिसे वर्तमान भारतीय उपन्यासों ने वास्तव रूप में सामने रखा है । हिंदी उपन्यासकारों ने अपनी कृतियों के माध्यम से इस सच को उघाड़ा है । प्रतीक-तंत्र को लेकर लिखा गया बदीउज्जमा का उपन्यास 'एक चुहे की मौत' में प्रतीक कथा के माध्यम से सरकारी कार्यालयों की धांधलियाँ प्रस्तुत की गयी हैं, "एक चूहे की मौत' में चूहाखाना और चूहामार सभी प्रतीक हैं । 'चूहा' फाइल का, 'चूहाखाना' सरकारी कार्यालय का और 'चूहामार' कार्यालय के किरानी बाबुओं से लेकर अफसरों और अधिकारियों का प्रतीक हैं ।"२ प्रतीक कथाओं के माध्यम से वर्तमान सरकारी कार्यालयों की व्यवस्था का परदाफाश करने का काम 'बदीउज्जमा' के साथ साथ 'विनोद कुमार शुक्ल' और 'श्रवण कुमार गोस्वामी' ने भी किया है । विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'नौकर की कमीज' में कमीज व्यवस्था का प्रतीक है, ''कमीज नहीं बदलती, कमीज पहननेवाला बदलता है । तंत्र नहीं बदलता, सरकारे बदलती हैं, पार्टियाँ बदलती हैं । सभी पार्टियाँ एक समान हैं।"३ चाहे फिर चुनाव कोई भी पार्टी जिते उसमें वही प्रचलित ढर्रे का कामकाज चलता रहेगा । व्यवस्था ने एक दायरा कायम किया है । जिसमें एक मामूली कर्मचारी से लेकर, बड़े बाबू, अफसर, नेता, मंत्री सभी लोग एक कड़ी से जुड़े हुए हैं । और जिसके कारण आम आदमी की दशा निरिह प्राणी जैसी हो गयी है । वर्तमान व्यवस्था का हर आघात सहने के लिए वह तैयार है । ठीक इसी तरह अन्य भारतीय भाषाओं के उपन्यासों में भी यही चित्रण दिखाई देता है ।

कन्नड़ उपन्यासकार भैरप्पा ने १९९३ में प्रकाशित और 'कर्नाटक साहित्य अकादमी' से पुरस्कृत उपन्यास 'तंतु' के माध्यम से सरकारी कर्मचारी, शासक, नेता, मंत्री आदि की मिलीभगत को उजागर किया है । अवधूत कुडतडकार (कोंकणी उपन्यासकार) ने 'शक्तिपात' (२०००) में बडबोलेपण की बढ़ती प्रवृत्ति को उजागर करते हुए सच्चे नेता का हनन एवं गैरकानूनी काम करनेवालों की होती स्थापना का भंडाफोड़ किया है । चंदन नेगी (पंजाबी) ने 'ते हवा रूक गई' (१९९६) में भ्रष्ट व्यवस्था, कुशासन में पीड़ित, शोषित आम आदमी का चित्रण किया है । रंगनाथ पठारे (मराठी) ने 'ताम्रपट' (१९९४) में भाई-भतीजावाद की राजनीति को चित्रित किया है । सत्ता के लिए एक ही परिवार के लोग कोई सत्ताधारी पक्ष में, तो कोई विरोधी पार्टी में राजनीति करते हैं। इस उपन्यास के पात्र 'भ्रष्टाचार' को युगधर्म मानते हैं ।

इन अमानवीय संवेदनाओं ने भारतीय उपन्यासकारों को झकझोरा है, "जिसके कारण स्वतंत्र भारत की प्रशासन नीति, राजनीति में आए भ्रष्टाचार, अपराधीकरण, शोषण, बेरोजगारी, भ्रामक शिक्षा नीति जैसे विषयों पर सभी भाषाओं में उपन्यास लिखे गए । युग की समस्याओं ने कथा-साहित्य में अपनी अनिवार्य उपस्थिति दर्ज कर ली ।"४ इस वर्तमान विकृत राजनीति ने आज अनेक नयी-नयी समस्याओं को जन्म दिया, जैसे भाषावाद, प्रांतवाद, सांप्रदायिकता, नक्सलवाद, आतंकवाद आदि । जिसे कमलेश्वर ने (हिंदी) 'कितने पाकिस्तान' (२०००) में उजागर किया है और कहा है कि, "लड़ाई धर्म की नहीं, धर्म और धर्मांधता की है। इस्लाम जैसा धर्म खुद अपनी धर्मांधता से लड़ रहा है । और शायद दुनिया के हर धर्म को अपनी धर्मांधता से लड़ना होगा, जितना होगा ।"५

सांप्रदायिक दंगे केवल हिंदू और मुसलमानों में ही नहीं होते वह तो मजहब के नाम पर शिया और सुन्नी में भी करवाये जाते हैं । भारत विभाजन और उसके बाद सांप्रदायिक दंगे यह एक समीकरण बन गया । कुछ स्वार्थी लोग गंदी राजनीति कर सांप्रदायिक टेढ़ निर्माण करते रहे । भारत विभाजन और सांप्रदायिक दंगे एवं उससे उत्पन्न पीड़ा को हम साहित्य की विविध विधाओं के माध्यम से महसूस करते रहे । गीतांजलि श्री का 'हमारा शहर उस बरस' (१९९८) इसकी मुखर अभिव्यक्ति प्रस्तुत करता है । मंजूर एहतेशाम का 'सूखा बरगद' सांप्रदायिकता एवं विभाजन के कारण निर्वासित जीवन को सामने रखता है, "सूखा बरगद" मे जहाँ विभाजन के बाद इस देश में रह गए मुसलमानों के मध्यवर्ग का जीवन प्रामाणिकता के साथ चित्रित हुआ है, वहीं विभाजन के साथ जुडी मुसलमानों की भावना विशेषतः स्वातंत्र्योत्तर परिवेश में असुरक्षा का अहसास बहुत व्यापक रुप में व्यक्त हुआ है।"६ भारत विभाजन की त्रासदी, अयोध्या प्रकरण और आतंकवादी हमलें हमें अपनी सभ्यता और संस्कृति पर सोचने के लिए मजबूर करते हैं । सभ्यताओं के संघर्ष का जुमला इन दिनों मे चाहे जितना चला हो लेकिन उसकी असलियत तो अब दुनिया जान चुकी है । अमरीका साम्राज्यवाद में भूमंडलीकरण ने जिस तरह से आज के माहोल को बेहद संगीन और खतरनाक बनाया है उसके दायरे में कश्मीर की आग, अयोध्या का उपद्रव, देश में सुबाई आतंक और पड़ोस से आनेवाली फिदायिनों की खेप सब आते हैं । हमारे देश में प्रमुख रूप से एक और समस्या उभरकर आने लगी जो है बेरोजगारी एवं शिक्षा के क्षेत्र में नैतिक मूल्यों का अधपतन तथा बढ़ती भ्रष्ट व्यवस्था । इसी विषय को लेकर गिरिराज किशोर के उपन्यास 'यथा प्रस्तावित' (१९८२) में सरकारी कर्मचारी व्यवस्था के अंग हैं । दूसरे उपन्यास 'परिशिष्ट' (१९८४) में शैक्षणिक व्यवस्था का चित्र है । सवर्ण समाज का रवैया केवल दफ्तर में ही नहीं दिखाई देता वह शिक्षण-संस्थाओं में भी मौजूद हैं । इसी तरह नासिरा शर्मा के उपन्यास 'अक्षयवट' (२००३) में शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे भ्रष्टाचार का शिकार 'जहीर' नामक एक मेधावी छात्र होता है जिससे उसका जीवन ही बदल कर वह उपजीविका के लिए बिसाती' की दूकान खोलता है । 'जिरो रोड़' (२००८) नामक दूसरे उपन्यास में बेरोजगारी से परेशान, सिद्धार्थ, रोजगार की तलाश में दुबई चला जाता है । शिक्षण-संस्था ही नहीं, सभी संस्थाओं में विकृतियाँ फैल गयी हैं। विभूति नारायण राय ने 'किस्सा लोकतंत्र' (१९९३) में लोकतंत्र का वास्तविक चेहरा उघाड़ कर रखा है। यह केवल हिंदी उपन्यासों के ही विषय नहीं तो अनेक भारतीय भाषाओं के उपन्यासों के भी विषय हैं।

वर्तमान सामाजिक संरचना शोषण का बदला हुआ मुहावरा है । धर्म-भेद, जातिभेद, वर्णभेद, ऊँच-नीच की समस्याएँ आज पंरपरागत रूप में न दिखते हुए उसने अपने संदर्भ बदले हैं । स्त्री-पुरूष, सवर्ण-अवर्ण कही-न-कही शोषण, उत्पीड़न की यंत्रणा से गुजर रहे हैं । कार्ल मार्क्स द्वारा बताए गए 'अर्थ' वितरण की समानता के सिद्धांत को शिद्दत के साथ पूर्णत्त्व की ओर ले जा नहीं पाये । आज भी पूँजीवाद, अर्धसांमतवादी व्यवस्थाएँ अपना सर रह रह कर (सेज - SEZ के रूप में) निकाल रही हैं । वैश्वीकरण की इस होड़ में 'वैश्विक ग्राम' की संकल्पना फिर से एक बार अपने भविष्य को उपनिवेशवाद के रूप में प्रस्थापित कर रही है । धार्मिक स्थल अब श्रद्धा के केंद्र न रहकर बारूदों के गोदाम, अनाचार के अड्डे एवं साम्प्रदायिक टेढ़ निर्माण करनेवाले गढ़ बन गये हैं । दुआओं के लिए उठनेवाले हाथ अब हत्याएँ कर रहे हैं । जो जीवन दर्शन बन रहा है वह मानवीय सभ्यता की ओर बढ़ने की बजाए विनाश की ओर अग्रेसर है, जो अपने नग्न रूप में हिंदी उपन्यासों में दिखाई देता है । साथ ही हिंदी के समान ही यही दृश्य भारतीय उपन्यास साहित्य में भी दिखाई देते हैं ।

हिंदी की गीताजंलि श्री ने 'हमारा शहर उस बरस' (१९९८) में मठ और विश्वविद्यालय को साम्प्रदायिकता को हवा देनेवाले केंद्रों के रूप में चित्रित किया है । विरेन्द्र जैन (हिंदी) ने 'डूब' (१९९१) के माध्यम से विस्थापित, गरीब किसानों के जीवन को व्यक्त किया है । "इस उपन्यास में जिन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक मुद्दों को उठाया गया है वे भारतवर्ष के तमाम-तमाम गावों की भी जीवंत स्थितियाँ और परिणतियाँ हैं, इसी कारण 'डूब' उपन्यास की कथा-योजना भारतीय ग्राम्य की व्यथा-कथा, अभाव-तनाव, सहजता-स्वाभाविकता, दुःख-दर्द आदि की सर्वांगपूर्ण अभिव्यक्ति से मुखरीत है ।"७ हिंदी के समान ही गुजराती उपन्यासकार जशवंत मेहता ने अपने 'टहुको' (१९९५) उपन्यास में मानवीय मूल्यों के हनन को व्यक्त किया है । शंकर सखाराम (मराठी) ने 'सेज' में सेज से उत्पन्न होनवाली समस्याओं को दर्शया है । बाबा भांड (मराठी) ने सामाजिक, धार्मिक, विकृतियों को 'दशक्रिया' (१९९५) में अंत्यसंस्कारों के बाजारीकरण के रूप में व्यक्त किया है । बलदेव सिंह (पंजाबी) ने 'लालबत्ती' (१९९८) में समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं बढ़ती वेश्यावृत्ति पर बेबाक टिप्पणियाँ की हैं । और उससे उबरने का मार्ग सु-ााया है । धीरूबहन पटेल (गुजराती) 'हुनाशन' (१९९३) में बढ़ रहे पारिवारिक विघटन को रोकने का प्रयास किया है । यही काम शिवशंकरी (तमिल) ने 'यह एक आदमी की कहानी' (१९९१) में पति-पत्नी के बिगड़ते संबंधों को उजागर करके किया है । देवीबालाने (तमिल) 'एक गंगा की कथा' (१९९६) में नारी की अदम्य जिजीविषा, शक्ति, कर्तव्य एवं परिवार में नारी की भूमिका को स्पष्ट किया है ।

दलितों एवं जनजातियों की जीवन समस्याओं को लेकर भी वर्तमान समय में हिंदी में उपन्यास लिखे गए हैं । हिंदी में मैत्रेयी पुष्पा ने 'अल्माकबूतरी' (२००४) में बुंदेलखण्ड की कबूतरा जनजाति के शोषण, उत्पीड़न को उजागर किया है कि, "कभी-कभी सड़कों गलियों ने घूमने या अखबारों की अपराध-सुर्खियों में दिखाई देनेवाले कंजर, साँसी, नट, मदारी, सँपेरे, पारदी, हाबूड़े, बनजारे, बावरियाँ, कबूतरे-न जाने कितनी जनजातियाँ हैं जो सभ्य समाज के हाशियों पर डेरा लगाए सदियों गुजार देती हैं... कबूतरा पुरूष या तो जंगल में रहता है या जेल में... स्त्रियाँ शराब की भट्टियों पर या हमारे बिस्तरों पर ।"८ जयप्रकाश कर्दम ने (हिंदी) 'छप्पर' में दलितों के शोषण, उत्पीड़न, अस्पृश्यता, आक्रोश, नकार, विद्रोह, आत्मशोध एवं आत्मभान को उजागर किया है । हिंदी की तुलना में इन बिंदुओं की प्रखरता मराठी दलित लेखक शरणकुमार लिंबाले के 'हिंदू' में जादा देखी जाती है । गुजराती लेखक दलपत चौहाण ने 'मलक' (१९९१) एवं 'गीध' (१९९१) में दलितों के शोषित जीवन को शब्द दिये हैं । तेलुगु नारीवादी उपन्यासकार अरूणा ने 'एल्लि' (१९९२) और 'नीली' (१९९६) में दलित नारी के दोहरे शोषण को व्यक्त किया है । यह उपन्यास एक ओर 'स्त्री-विमर्श' की कृति है, तो दूसरी ओर 'दलित विमर्श' की कृति है । अनिल घोड़ाई (बांगला) ने 'दौड़बा गाडार उपाख्यान' (१९९७) में पश्चिम सिंहभूमि के आदिवासी जनजीवन को उजागर किया है ।

इन बिंदुओं के अलावा वर्तमान समय में मानव के अंतर्मन को खोलकर उसके मनोभावों, अंतर्द्वद्वों, चेतन-अचेतन वृत्ति को उजागर करनेवाले उपन्यासों का भी सृजन हुआ है । हिंदी में नासिरा शर्मा का 'जिरो रोड', सय्यद जंगम इमाम का 'दोज़ग', मृदुला गर्ग का 'कठगुलाब', मंजूल भगत का 'अनारो' आदि ने सशक्त रुप में इन बिंदुओं को उजागर किया है, तो ओडिया के प्रदोष मिश्र का 'सुब्रत' (१९९१) कन्नड़ के बी.एस. स्वामी का 'भावजीवी' (१९९५) कोंकणी के दामोदर मावजो का 'कार्मेलीन' (१९९१) मराठी के मिलिंद बोकिल का 'शाळा' (२००४) आदि ऐसे ही उपन्यास हैं । साथ ही इस समय में ऐतिहासिक, आंचलिक, वास्तववादी, यौन संबंध, पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण, अकेलेपण की बढ़ती प्रवृत्ति उजागर करनेवाले उपन्यासों का हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में भी सृजन हुआ है ।

संक्षेप में कह सकते हैं कि बीसवीं शती का अंतिम दशक एवं इक्कीसवीं शती का प्रथम दशक भारतीय उपन्यास साहित्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है । इस समय में उपन्यास विधा ने मानव जीवन के विभिन्न समस्याओं को उजागर किया है । इस समय में उपन्यासों ने केवल संख्यात्मक बढ़ोत्तरी ही नहीं की तो मूल्यात्मक गुणों को भी ग्रहण किया है, जिसमें आज नित नये प्रयोग जारी हैं । इन्हीं विशेषताओं के कारण इस काल के ओडिया उपन्यास साहित्य को 'उपन्यास का स्वर्णकाल' कहा है तो, हिंदी उपन्यास के संदर्भ में "कुछ आलोचकों ने इसे इस दशक में 'उपन्यास का विस्फोट' की संज्ञा दी है ।"९ साथ ही गुजरी सदी 'अनुभवों के विस्फोट की सदी' भी कहा जाने लगा है, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लिखे हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के उपन्यासों के कथ्य, वैचारिकता, जीवन दर्शन, विश्वदृष्टि एवं अभिव्यक्ति पक्ष को देखकर सही प्रतीत होता है । जो आज की युगीन मांग भी है । जो समस्याएँ हमें वर्तमान हिंदी उपन्यासों में दिखाई देती हैं लगभग वही समस्याएँ भारतीय उपन्यास साहित्य में भी दिखाई देती है । कुछ भाषाओं में प्रखर तो कुछ भाषाओं के साहित्य में सौम्य ।

संदर्भ :

१) संपा. शशि भारद्वाज - 'भारतीय उपन्यास अंतिम दशक' (१९९१-२०००), पृ. संपादकीय

२) अनभै- उपन्यास विशेषांक- सं. रतनकुमार पाण्डेय - अक्तूबर से मार्च २००८, पृ. ६३

३) वही, पृ. ६९

४) डॉ. जसपाली चौहाण - 'भारतीय साहित्य', उद्धृत 'भाषा साहित्य और संस्कृति', संपा. विमलेश कांतिवर्मा, मालती, पृ. ३८३

५) कमलेश्वर - 'कितने पाकिस्तान', पृ. २००

६) डॉ. वेदप्रकाश अमिताभ- हिंदी उपन्यास की दिशाएँ, पृ. १४३

७) रामसजन पाण्डेय - 'व्यवस्था के बघनख का खूनी मंजर', अनभै - उपन्यास अंक, पृ. २७८, संपा. रतनकुमार पाण्डेय

८) मैत्रेयी पुष्पा - 'अल्मा कबूतरी', पृ. मलपृष्ठ

९) डॉ. गोपाल राय - हिंदी उपन्यास, उद्धृत, भारतीय उपन्यास साहित्य अंतिम दशक, १९९१-२०००, पृ. २३६

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: ''वर्तमान परिप्रेक्ष्य में हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के उपन्यासों का तुलनात्मक अध्ययन''
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