घूंघट / कहानी / अंजली देशपांडे / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1

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अंजली देशपांडे घूंघट जोर-जोर से कुशन पटक कर उसने तीनों को पास की गद्देदार कुर्सी पर उछाल दिया। खिड़क़ी से आकर फर्श पर पसरती धूप की मोटी प...

अंजली देशपांडे

घूंघट

जोर-जोर से कुशन पटक कर उसने तीनों को पास की गद्देदार कुर्सी पर उछाल दिया। खिड़क़ी से आकर फर्श पर पसरती धूप की मोटी पट्टी में धूल कण नृत्य करने लगे। इस कमरे में आने का बस यही एक मौका होता है, बाहर का कमरा, पुरुषों की बैठक, ससुरजी का साम्राज्य। जान गये होंगे ससुरजी कि वह इंतजार ही करती रहती है यहां आने का जभी तो दरवाजा बहुत जोर से बंद करते हैं जब बाहर निकलते हैं। बरामदे से उतर बाएं मुड़क़र मकान के पिछवाड़े स्नानघर तक वे पहुंचते भी नहीं कि पीछे रसोई को जस का तस छोड़ कर दौड़ी चली आती है वीणा यहां। दरवाजे की कुंडी चढ़ी कि आंचल खिसका। नंगे सिर। खुले मुंह। पंखा फुल स्पीड पर। आंचल का किनारा कमर में खोंसे, ढीले जूड़े से उड़ते बालों से बेखबर, कमरे में उठा पटक करती हुई गुनगुना रही है वह। आज देर कर दी ससुरजी ने सोफा खाली करने में, वह तो सोने का कमरा ठीक भी कर चुकी, बेटे को स्कूल भेजने और उनको टिफिन पकड़ाने के बाद। आज तो चादर भी बदल ली थी।

उसने सोफे की पुश्त पर पड़े तेलकट हो चुके जालीदार कवर उठा लिए, सोफे को जोरों से पीटा और हँस दी। दरवाजे पर जोर की दस्तक हुई। इस वक्त? कौन हो सकता है? आंचल झट से सर पर रख, भौंहों तक खींच वीणा ने दरवाजा खोला। वे खड़े थे। दो आदमी साथ में। एक औरत भी। वीणा फिरकनी सी घूम गई और आंचल को उसने नाक तक घसीट लिया। अभी तो गये थे दफ्तर! दो घंटे भी नहीं हुए। और आ गये वापस।

वह भी मेहमानों को लेकर। फोन ही कर देते। घर का क्या हाल है। धूलकणों से लथपथ। कुशन एक कुर्सी पर लदे। सोफे के आवरण फर्श पर पड़े। तेज कदमों से अंदर जाकर उसने घर के पिछले हिस्से और बैठक के बीच दरवाजे का सलेटी पर्दा खींच दिया। ‘बैठिए सर,’ पतिदेव कह रहे थे। ‘पानी, पानी देना,’ ऊंची आवाज उन्होंने पर्दे की तरफ

फेंकी। ‘सर मैं अभी भी कहता हूं, प्लीज इसकी जरूरत नहीं है।’

‘रहने दीजिए,’ वीणा ने औरत की आवाज सुनी। उस आवाज में कुछ था जो दीवाली पर घर आने वाले उनके सहकर्मियों की आवाज में कभी नहीं सुना था। वितृष्णा सा कुछ। शायद उसके बैठक की हालत पर घिन आ गई थी उसे।

‘यह तरीका नार्मल तो नहीं है लेकिन कोई बात नहीं। प्रेलिमिनरी है। मैं अंदर जाकर बात कर लूंगी,’ औरत कह रही थी। इसमें बेतकल्लुफी की नहीं, फैसले की सी ध्वनि थी।

वीणा ने तब तक दाईं ओर की छोटी सी रसोई के कलश से स्टील के चार गिलासों में पानी निकाल लिया था। सुनहरे किनारे और लाल फूलों वाले कांच के गिलास तो बाहर की अलमारी में हैं। फ्रिज भी तो वहीं है। ठंडा पानी चाहिए हो तो उन्हीं को निकालना पड़ेगा। स्टील की थाली में स्टील के गिलास रख कर उसने परदे के पीछे से थाली बाहर निकाल दी। सोने की दो चूडिय़ों के बीच मोटे कांच की गहरे हरे रंग की चूडिय़ां कंगन सी दिख रही थीं जो स्वचालित लीवर की तरह थाल के हाथ से लिए जाते ही परदे के पीछे हो लीं ।

वीणा चाय चढ़ाने की सोचने लगी। इतनी गर्मी है। शर्बत ही बना दे क्या? लस्सी के लायक दही तो नहीं होगी। आते भी नहीं भीतर कि पूछ ले।

‘नमस्ते,’ सुन कर वह अचकचा कर मुड़ी। कोटा की कुरकुरी साड़ी में उनके साथ आई औरत खड़ी थी। हाय राम, उसने तो कंघी तक नहीं की थी, क्या सोचेगी यह।

‘आपसे बात करनी है,’ औरत ने कहा।

बाहर से उसे पति की आवाज आई, ‘वापस तो ले लिया सर...’

फिर एक आदमी ने अंग्रेजी में कुछ कहा। कुछ सख्त सी आवाज में।

वीणा ने औरत को देख मुस्कुरा कर सर हिलाया।

‘दो मिनट रुक जाइए। ससुरजी आ जाएं नहा कर...’

‘नहीं, नहीं,’ औरत ने कहा, ‘बाथरूम नहीं पूछ रही हूं मैं।’

पहली बार वीणा का ध्यान गया उनके बाजू पर टंगे बड़े से पर्स पर। ओह, बदलना है इनको। औरत की जान को भी कितनी मुसीबतें लगी रहती हैं। जल्दी में होगी बेचारी। साड़ी भी हल्के रंग की है।

‘हां, हां, वह भी, दूसरा भी वहीं है। ससुरजी आ जायें, ले चलूंगी। यहां रसोई से भी दरवाजा खुलता है। क्या है अच्छा नहीं लगता आदमियों के सामने।’

‘मैं सुषमा हूं, सुषमा राय। आपसे कुछ खास बात करनी है,’ औरत ने कहा।

‘मैं वीणा। बताया नहीं ना इन्होंने, दफ्तर से लोग आयेंगे। चाय चलेगी या शर्बत पिलाऊं?’

‘कैसे कहूं,’ सुषमा नाम की औरत ने जोर से सांस छोड़ी। ससुरजी कमरे में आ चुके थे। वे मिलवा रहे थे उन्हें मेहमानों से। फिर उसने सुना उन्हें पिताजी से कहते कि कुछ देर के लिए पड़ोस में चले जायें। ऐसा क्या काम था इन लोगों को। ‘पहले बताते, मैं कुछ खाने को अच्छा बनाती...’ वह कह रही थी।

‘हम अचानक आ गये। हमने ही बताने नहीं दिया,’ सुषमा ने कहा। उसने मुड़ कर देखा। बस परदे के अंदर बाएं को एक कमरा था। इतना सा ही मकान था। यहीं बैठना पड़ेगा। ‘हमारा काम ही ऐसा है।’ फिर सुषमा ने बताया कि वे तीनों उसके पति के हेड ऑफिस से आये हैं। दिल्ली से। सुबह निकले थे। सीधे दफ्तर पहुंचे। बाहर जो दो अधिकारी बैठे हैं, उनमें नीले शर्ट में मोहन रेड्डी हैं। सफेद शर्ट वाले हैं ओमप्रकाश खंडेलवाल। और तीनों को उसी से काम है।

‘मुझसे?’ वीणा को लगा उसने ठीक से सुना नहीं।

‘चलिए, यहां बैठते हैं,’ सुषमा ने अधिकार भाव से कहा और सोने के कमरे की तरफ चली। उसके साथ कोटा की साड़ी अपने चारखाने की बुनावट पर इतराती, हर चुनट को सीधा खड़ी किए मुड़ी। सिर्फ कोटा में होता है यह गुण कि पहनने वाले से कुछ अलग सी, कवच सी खड़ी रहे, आगे आगे चले रास्ता साफ करती। कमरे के दरवाजे पर पहुंच कर वह ठिठकी। तीन चौथाई कमरा तो एक बड़ा बक्स ही था लकड़ी का जिसके सिरहाने पर सफेद माइका की चादर ठुंकी थी नीली बुंदकियों वाली। बक्से पर पड़ा गद्दा बड़े लाल गुलाबों के छापे वाली हरी चादर से ढंका था। सिरहाने के पीछे खिड़क़ी पर नीला परदा था। पायताने थी स्टील की अलमारी जिसके एक पल्ले पर शीशा जड़ा था। एक तरफ छोटी सी टेबल के पास दो प्लास्टिक की कुर्सियां रखी थीं जो कभी लाल रंग की रही होंगी अभी उजड़े मांग सी फीकी थीं। वीणा नायलॉन के आंचल को कंधों पर डालती अंदर गई और एक कुर्सी खींच कर उसने सुषमा की तरफ बढ़ा दिया। कुर्सी की तरफ बढ़ते हुए सुषमा की नजर दीवार पर कील से टंगे लाल, नीली, पीली और नारंगी चूडिय़ां पिरोई हुई हैंगर पर पड़ी। बैठकर उन्होंने अपनी कलफदार कोटा को कस कर दबाया और हैंडबैग नीचे रख दिया। गद्दा थपथपाकर बोलीं, ‘बैठिए।’

वीणा पलंग पर बैठ गई। सुषमा की नजर सामने दीवार पर टंगे एक फ्रेम पर टिक गई। जंग के रंग में कढ़ा हुआ खपरैल की ढलुवां छत वाली झोंपड़ीनुमा मकान फ्रेम में सुरक्षित रखा था। नीचे कढ़ाई के अक्षरों में ही लिखा था, ‘घर।’

अनायास सुषमा का हाथ वीणा के कंधे पर आ बैठा। हल्का सा स्पर्श, कुछ मुलायम, कुछ आश्वस्त सा करने वाला, कुछ सांत्वना सा देता। वीणा को झुरझुरी सी उठी। ऐसे क्यों कर रही है? घबराहट सी हुई।

‘देखिए, बात नाजुक है। समझ में नहीं आता कैसे शुरू करूं। आप मुझे माफ कीजिए, मैं सीधे ही आपसे पूछ लेती हूं। मगर पहले यह देख लीजिए,’ सुषमा ने अपने हैंडबैग से कुछ कागज निकाले। तीन पन्ने थे। टाइप किया हुआ था उन पर कुछ। एक कोने में वे पिन से आपस में जुड़े थे। यह कागज वीणा को देते हुए सुषमा ने कहा,

‘पढऩा चाहेंगी आप?’

वीणा ने उनको हाथ में लेकर नकार में सर हिलाया। ‘यह तो अंग्रेजी में है।’

‘आपके पति ने लिखा है।’

‘सच्ची? इतना सारा? उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी है। बेटे का होमवर्क वही कराते हैं।’ वीणा की आँखों में गर्व, होठों पर खुशी थी।

‘मैं ही पढ़ कर सुना देती हूं,’ सुषमा ने कहा और उससे कागज लेकर एकदम सर हिलाकर बोली, ‘मैं भी क्या कह रही हूं। चलिए आपको बता देती हूं इसमें क्या लिखा है।’

उसने कागज बिस्तर पर रखकर तकिए का एक सिरा उन पर टिका दिया। पंखे की हवा में वे फरफर करने लगे।

‘आपके पति ने हेड ऑफिस में शिकायत भेजी है। उनका कहना है कि श्याम कुमार जी आपके घर आये थे।’

‘श्याम कुमार जी कौन हैं?’ वीणा ने टोका।

‘उनकी ब्रांच के मैनेजर। उनके अफसर। बड़े अफसर।’

‘अच्छा, बड़े अफसर? वह तो कभी नहीं आये। पिछली दीवाली ससुरजी ने कहा था, उनको भी बुलाने को। ये बोले, छोटी जात के हैं, गंगाजल छिड़क़ना पड़ेगा। खत्म होने को है। ससुरजी लाये थे, एक गंगाल। इत्ता सा बचा है। दशहरे से दीवाली तक घर में बहुत शुद्धता रखते हैं हम।’

सुषमा चुप बैठी रही वीणा की बात खत्म होने के बाद भी कि शायद अभी और कुछ कहेगी। वीणा उसे प्रश्नवाचक निगाहों से देखने लगी तो सुषमा ने कहा ‘हूं। वह उठने को हुई मगर इसका विचार त्याग कर बोलीं, ‘वीणाजी, मुझे अफसोस है, जो काम करने आये हैं, हमें करना ही होगा। संक्षेप में सुनिए। आपके पति ने लिखा है कि उनके पीछे से श्याम कुमार जी आपके घर में आये और आपसे... उन्होंने आपके साथ ज्यादती...’ उन्होंने सांस छोड़ी और एकदम से बोल गईं, ‘... उनका कहना है कि श्याम कुमार जी ने आपकी इज्जत पर हाथ डाला, आपसे बलात्कार किया है।’

सुषमा ने देखा वीणा की आंखें फैल गई थीं। वह एकाएक निस्पंद हो गईं। न आंखों की पुतलियां हिलीं, न नथुने फड़क़े, न हाथ कांपे, न भौंहों में ही हलचल हुई। सिर्फ बाल उड़ रहे थे पंखे की हवा में। उन्होंने वीणा का कंधा पकड़ कर उसे हिलाया।

‘वीणा जी, मैं समझ सकती हूं आप पर क्या बीत रही है। मैं भी औरत हूं। सुनिए, आपको डीटेल बताने की जरूरत नहीं। कुछ बताने की जरूरत नहीं। सिर्फ इतना बताइये कि यह सच है या झूठ। आपके पति ने लिखा है कि ऐसा दो बार हुआ। दूसरी बार होने पर ही आपने उनको बताया, इसी अप्रैल में।’

वीणा अकंप बैठी रही।

सुषमा उठ कर खड़ी हो गईं। उन्होंने प्लास्टिक की कुर्सी ले जाकर शयनकक्ष और रसोई के बीच के गलियारे में पर्दे के पीछे रख दिया। वापस कमरे में जाकर उन्होंने वीणा का हाथ पकड़ कर उसे उठाया। हाथ एकदम ठंडा था। घबरा कर सुषमा झट से रसोई से एक गिलास पानी ले आईं। दो चार घूंट मुश्किल से पीकर वीणा उसके पीछे चली आई।

‘वीणा जी आप यहीं पर्दे के पीछे से जवाब दीजिए। हम तीनों की कमिटी है। तीनों को आपका जवाब सुनना होगा। प्लीज।’ कह कर सुषमा परदे के पार निकल गई।

वीणा को पति का गिड़गिड़ाता सा स्वर सुनाई दिया। ‘मैडम, प्लीज अब बस कीजिए। मैंने कंप्लेंट वापस ले ली है।’

मोहन रेड्डी ने कुछ गुस्से में अंग्रेजी में पूछा, ‘व्हाय शुड वी स्टॉप? इस धिस अ जोक? फाइलिंग सच कम्प्लेंट्स?’

वीणा अंग्रेजी जानती भी होती तो भी समझ नहीं पाती कि आदमी क्या कह रहा है। उसके मन में मचा झंझावात बाहर से कोई शब्द उस तक पहुंचने से रोक रहा था। दोनों कानों के बीच सन्नाटे का भीषण दर्द शुरू हो गया था।

‘सर मैं कह रहा हूं, गलती हो गई...’

‘कहीं ऐसा तो नहीं कि आपको लग रहा है आपकी इज्जत... इसके बारे में सोच कर भी कभी कभी ऐसी शिकायतें वापस ले ली जाती हैं,’ खंडेलवाल ने कहा।

‘मुझे ऐसा नहीं लगता,’ सुषमा ने कहा। वह अभी भी परदे के पास ही खड़ी थी। फिर ऊंची आवाज में उसने वीणा से उसका नाम पूछा, तसल्ली की कि वह उसी आदमी की पत्नी थी जिसका यह घर था, उसके दफ्तर का नाम पूछा और अंत में पूछा कि क्या कभी श्याम कुमार नाम के किसी आदमी ने आकर उनके साथ कोई जबरदस्ती की है?

तीन चार बार पूछे जाने पर नाम और दफ्तर के नाम जैसे पहचान पुख्ता करने वाले सवालों के जवाब वीणा ने धीमी आवाज में दी थी। आखिरी सवाल पर वह चुप रह गई।

सुषमा ने कहा, ‘वीणा जी क्या मैं दुबारा पूछूं? क्या श्याम कुमार...’

परदे के पीछे से बहुत ही दृढ़ और शांत लेकिन ऊंची आवाज में वीणा का जवाब आया।

‘मैं किसी श्याम कुमार को नहीं जानती। वह यहां कभी नहीं आये। मैं घर में कभी अकेली नहीं रहती। हमेशा ससुरजी रहते हैं। या फिर ये रहते हैं।’

कुछ पलों बाद सुषमा ने परदे के पीछे झांक कर सबकी तरफ से नमस्ते की। वीणा खड़ी हो गई थी। उसकी आंखें लाल थीं। उसने दोनों हाथ उठाकर जोड़ दिये और आंसुओं के फिर से टपकने से पहले ही मुड़ गई। उसने सबके बाहर निकलने की आहट सुनी, दरवाजा खुला और बंद हुआ।

‘अब मैं अकेली हूं,’ वीणा ने खाली मकान से कहा।

वह तीन पन्ने तकिए के नीचे आधे दबे से फरफरा रहे थे। उन्हें उठाकर वीणा ने अलमारी खोल कर अपने गहनों के बक्से में रख दिया। उन्होंने कहा, खुद होके, कि हमारी इज्जत लुट गई? यह एक वाक्य उसके कानों के बीच के सन्नाटे को चीरने लगा। सीता मैया की भी ऐसी स्थिति न हुई थी। उसके स्वामी ने तो कहा ही नहीं था लिख कर दिया था। उसने घूंघट गर्दन तक खींच ली। अब किसी को मुंह दिखाने लायक नहीं बची थी वह।

ससुरजी को परदे के पीछे से थाली दे रही थी। थाली पर उनका हाथ महसूस होते ही उसने हिचकी सी ली। अगर इनको पता चल गया तो? अभी यहीं सड़क़ पर फेंक देंगे।

‘पिताजी,’ उसने कहा, ‘क्या मैं अच्छी औरत हूं?’

वृद्ध हक्का बक्का रह गये। जिसने कभी उनकी उपस्थिति में अपने बच्चे को भी जोर से आवाज नहीं दी आज सीधे उन्हीं से बात कर रही है! हो क्या रहा है घर में। पहले बेटा दफ्तर के लोगों को लेकर आया और उन्हें पड़ोसी के घर में बैठना पड़ा अब यह अपने चरित्र का सर्टिफिकेट मांग रही है।

‘बड़ी नेक है बहू, बड़ी नेक। आराम कर ले,’ उन्होंने कहा।

घर में भूचाल का यह पहला संकेत था। मगर भूचाल आने पर भी फर्श नीचे से खिसकी नहीं।

बेटा स्कूल से लौटा तो मां ने घूंघट नहीं उठाया, उसी को भीतर खींच कर देखा। बात नहीं की उससे।

‘क्या हुआ मां?’ बेटे ने पूछा। घर की बंदिशों के बीच का बंधा वातावरण भी घुट गया था। बेटे ने अपनी किल्लोल पर उदासी का यह आक्रमण देखा तो मां के गले से झूल गया। मां ने गले नहीं लगाया। उसने उन्हें अपनी चॉकलेट भी दी पर वह हँसी नहीं। हाथ उनका उसके सर तक आया नहीं। गालों को होंठों का स्पर्श नहीं मिला। वह रूठ गया और रूठा ही सो गया।

शाम को पति को खाना परोस वह चुपचाप रसोई में बैठी रही। पति की नजरें झुकी थीं। देर रात वह रसोई में आया, ‘ऐसे ही ऑफिस में झगड़े हो जाते हैं। उसको सबक सिखाना था। हो गई गलती। चल, चल के सो।’

उसने जवाब नहीं दिया। पति कमरे में शराब चढ़ाते रहे, सामने थाली रखी रही। वीणा बत्ती बुझने के बाद ही आई और पायताने फर्श पर चादर बिछा कर लेट गई।

सुबह पति ने कहा, ‘हो गई गलती। किसी को पता थोड़े ना है। चल, चल, बात खत्म कर।’

सचमुच किसी को पता नहीं है? उनके दफ्तर के उन लोगों को जो दीवाली पर आते हैं, भाभी कह कर परदे के उस तरफ से नमस्ते करते हैं, उसके हाथ की खीर खाते हैं?

पति ने पहले मनुहारें कीं, एक साड़ी भी लाया, फिर फटकारा पर घूंघट नहीं उठा। चादर नीचे ही बिछती रही। बेटा रोया, रूठा, दादाजी से शिकायत की और उन्हीं के पास रहने लगा।

वह एकदम निर्वासित महसूस करने लगी। उसे लगा उसका वजन बहुत बढ़ गया है जैसे चेतनाशून्य होने पर होता है। सोते ही जैसे बाहों में जागते हँसते शिशु का भार बढ़ जाता है ठीक उसी तरह वीणा को लगा वह बोझिल हो गई है। चलती है तो धरती पर धम्म सा होता है। उसने पाजेब उतार दी। आटा गूंधते गूंधते वह एकदम से हाथ धीमे चलाने लगती थी। कोई सुन न ले।

पड़ोसियों ने देखा वीणा कुछ बदल गई है। कुछ अजीब सी हरकतें करने लगी है। सास गुजरी तब से गली में निकल सब्जी खरीदती है मगर अब आंचल भौंहों तक नहीं, उससे बहुत नीचे छाती पर डोलता है। घूंघट में से ही वह सब्जी चुनती है, अंदाजे से। कोई हँसता है तो एकदम से सब्जी चुनते हाथ थम जाते हैं और घूंघट उसी दिशा में मुड़ जाता। वह खरीदी सब्जी वहीं छोड़ सरपट भाग कर घर में घुस जाती है। कितनी बार तो पड़ोसन ने ही सब्जी खरीद के दी।

पति ने बताया, बेटे को और उसने बताया पड़ोसियों को कि मां ने नया व्रत रखा है, शायद महीना दो महीना घूंघट ही में रहेगी। कोई मन्नत मांगी है, पूरा होने पर ही उठायेगी।

चार दिन बाद शनिवार आया तो ससुरजी के कहने पर पति उसे मायके ले गया। हर साल तपती गर्मी में जाना होता ही था मायके, आम का अचार डालने। वह तो मसालों का अनुपात याद ही नहीं रख पाती थी। इस साल तो अभी अचार के आम आये भी नहीं थे। ननिहाल में मामा के लड़क़े लड़क़ी के साथ धमाचौकड़ी मचाते हुए बेटे ने बताया, मां बौरा गई है। वीणा की भाभी ने भी ननद की हँसी गुल और परदा पूरा देख तो भौंचक रह गई।

‘ऐसा व्रत तो न हमने सुना न देखा, औरतों से भी परदा?’ उसने टोका।

वीणा ने एक दुपहर अपनी मां से पूछा, ‘आदमी का कितना अधिकार होता है औरत पर?’

वह भिंडियों के सर उड़ा रही थी, पेट में चीरे लगा रही थी।

मां ने झिडक़ दिया। छोटा सा परिवार, न ननद की टोक न सास की, कुछ अनबन हो भी गई है तो इतना मुंह सुजाने की क्या बात है? कुछ औरतों को अपना ही सौभाग्य समझ में नहीं आता।

पति लिवाने आया तो सहमा सा। कनिखयों से कभी सास को देखता कभी सलहज को। कुछ बता तो नहीं दिया? वीणा चुपचाप थैली उठा कर चल दी। मां के घर में किसी को खबर नहीं थी मगर यहां तो अलमारी भी जानती है क्या कुछ बीता है इन कुछ दिनों में उस पर। ससुराल में पत्नी के चुप लगा जाने की राहत ने पति को फिर से पति बना दिया। उस दिन बेटा अंदर ही सोया था फिर भी पति ने पलंग से उतर कर नीचे चादर पर पड़ी उसकी काया पर हाथ फेरा। वह चौंक कर उठी, उसने घूंघट खींच लिया, दीवार से सट गई। बेटे की मासूम नींद न तोडऩे की ममता की ध्वनिहीनता और अंतर्मन में जमी अनंत पीड़ा के पिघलने की ध्वनियों का मिश्रण आक्रांत रुदन बनकर रिसने लगा। घायल सियार की सी इस आवाज से डर कर वह पलंग पर जा पड़ा और करवटें बदलता रहा।

वह घर के सारे काम घूंघट ही में करती। एक बार मुश्किल से कुछ खाती। ससुरजी ने कई बार घर के अंदर से अजीब आवाजें सुनी जैसे कोई आततायी के चाबुक के डर से क्रंदन रोकने का प्रयास कर रहा हो। बहुत ही मनहूस आवाज थी।

‘बेटा, डॉक्टर को दिखा लाओ। लगता है बीमार है,’ ससुरजी ने कहा।

घर में मनहूसी छा गई थी। फ्रिज के ऊपर धूल की परत साफ नहीं होती थी। कपड़े साफ नहीं धुलते थे। कई बार तो बेटे को पिछले दिन की बिना धुली ड्रेस पहन कर ही स्कूल जाना पड़ा। खाने में स्वाद नहीं बचा। बर्तन मांजते मांजते हाथ रुक जाते तो नल चलता ही रहता और ससुरजी गला खंखार कर जोर से कहते ‘कितनी गर्मी है,’ या ऐसा ही कुछ कि अंदर कोई होश संभाल ले।

बेटे की हँसी पहले गुल हुई। फिर वह सहमने लगा। एक दिन उसके हाथ से टिफिन लेते लेते पति का हाथ छू गया। उसने फौरन टिफिन छोड़ दिया। पति ने भी अभी पूरी तरह पकड़ा नहीं था। टिफिन बॉक्स गिर कर खुल गया। फर्श पर सब्जी बिखर गई।

‘कब तक करेगी यह नौटंकी?’ पति ने चिल्ला कर पूछा।

उसने टिफिन बॉक्स को लात मारी और स्कूटर पर चलता बना। कुछ दिन दिये थे रोने को, बिसुरने को, बुदबुदाने को, बड़बड़ाने को। चीख लेती, चिल्ला लेती तो भी चलता। इस नाटक ने तो गली भर में तमाशा बना कर रख दिया है उसे।

अगले दिन उसने सुना फोन पर पति को किसी से बात करते हुए। ‘आना ही पड़ेगा। कितनी लंबी छुट्टी लेता?’

कुछ उधर से कहा होगा किसी ने। पति ‘हो हो’करके हँसा, ‘और भेजो मीमो। चखा दिया न मजा! अरे इन्क्वायरी का नतीजा कौन देखता है? जांच कमेटी आ गई यही बहुत है।’ फिर वह कुछ देर चुप रहा। फिर कहा, ‘उससे कहो घूंघट कर ले! मुंह छिपाना है तो यही करना पड़ेगा।’और वह जोरों से ‘हो, हो’ करके हंसने लगा।

वह सन्न रह गई। कौन कर ले घूंघट? वही! तवे पर रोटी जल गई। घर में बदबू फैली तो पति ने रसोई में आकर कहा, ‘एक पड़ेगा ना उलटे हाथ का तब उतरेगा भूत।’

वह तो बहुत देर तक जाने क्या क्या कहता रहा। ससुरजी बेटे को आइसक्रीम खिलाने ले गए थे बाहर, लौटे तब जाकर चुप हुआ।

अगले दिन ससुरजी नहाने निकले तो उसने पति के दफ्तर का फोन लगाया। किसी ने उठा कर कहा, ‘हेलो,’ तो रख दिया। तीन बार ऐसा करने के बाद चौथी बार लगाया तो फोन लगा ही नहीं। दूसरा नंबर लगाया। इस बार उसने धीमी आवाज में कहा, ‘श्यामकुमार जी से बात कराइये।’

‘कौन बोल रहा है?’ कोई आदमी था, मगर उसका पति नहीं।

वीणा ने पड़ोसी का नाम बोल दिया। उसने सुना किसी ने कहा, ‘सर आपका फोन’। फोन पर कुछ अस्पष्ट से स्वर सुनाई दे रहे थे जैसे पृष्ठभूमी में बहुत से लोग बातचीत कर रहे हों ।

एक साफ स्पष्ट आवाज फोन पर आई। ‘हेलो! कौन?’

वीणा ने गहरी सांस भरी और अपना नाम बता दिया। यह भी बता दिया वह किसकी पत्नी है। फौरन उसके हाथ में फोन ठंडा सा पड़ गया। सारी आवाजें एकाएक बंद हो गयीं। उधर से काट दिया गया था। जिसके नाम से पति ने उसे जोड़ दिया था वह तो उससे बात भी नहीं करना चाहता! अगर करता भी तो वह क्या कहती? किसलिए किया था फोन? कोई आशा थी? फरियाद? वह फोन पकड़े खड़ी रही। दरवाजे पर ससुरजी आ खड़े हुए। आजकल वह कुंडा नहीं लगाती। घूंघट उठता ही नहीं तो फिजू़ल है। किवाड़ तो वे भेड़ ही जाते हैं। ससुरजी खंखारे तो उसने फोन रखा और अंदर चली गई। उस दिन दोपहर को वह मंदिर गयी और देर तक रामचंद्रजी और सीताजी की प्रतिमा के आगे माथा टेके रही।

सीता मैया ने ही चुना था सही मार्ग। उसके पति को तो रामचंद्रजी से भी बढ़ कर मालूम था कि कैसा मिथ्या दोषारोपण किया है उन्होंने। ऐसी परीक्षा!

अगले दिन शनिवार था। ससुरजी अपने पोते को लेकर छोटे बेटे के घर चले गये। जाते थे हर दो महीनों में एक बार। इस बार तो अभी एक ही महीना हुआ था फिर भी चले गये। उनको ऑटो में बिठाकर पति लौटा तो आते ही उसने दरवाजा बंद किया और आकर उसका आंचल खींच लिया।

वीणा ने घूम कर उसे साड़ी उतार लेने दी और जमीन पर गिर कर उसने फर्श में मुंह गड़ा दिया। पति ने उसे दो लातें मारी और बाहर निकल गया। शाम को आकर उसने कहा, ‘मेहमान आ रहे हैं। चुपचाप पका दे। कोई रोना पीटना किया तो हड्डियां तोड़ दूंगा। माफी मांग ली। चिरौरी कर ली। ज्यादा सर पर चढ़े जा रही है।’ वह फिर बाहर चला गया।

दफ्तर के तीन आदमी आये थे। उसने सुना ‘भाभीजी नमस्ते’। जानी पहचानी आवाजें थीं, आते थे उसके हाथ के भोजन को चटखारे लेकर खाते थे। मगर आज कुछ नया ही था इन आवाजों में। क्या उनके स्वर ने ‘भाभीजी’ पर कुछ ज्यादा बल दिया था? शायद उस शब्द को अस्फुट हँसी ने रेखांकित किया था। सुनहरी किनारी के लाल फूलों वाले कांच के गिलास निकले थे। कांच की कटोरियों में मूंगफली निकाली गई। सलाद खुद पति ने ही काट लिया था।

सब हँस रहे थे। एक ने कहा था, ‘गजब हो गया। यार तूने भी कमाल कर दिया।’

‘करना पड़ता है अपने हित में,’ पति ने कहा।

एक और आदमी ने कहा, ‘लेकिन भाभीजी...’ वीणा स्तम्भित खड़ी रह गई।

पहले वह सुनती ही नहीं थी बाहर क्या कहा जाता है, आज वह देख भी नहीं रही कि रोटी गोल बिल रही है कि नहीं।

पीते हैं तो खूब जोरों से बोलते हैं सब। ससुरजी जाते हैं तो यही कार्यक्रम होता है। भाभीजी, क्या? क्या कहते कहते रुक गये? क्या कहा आंखों ही आंखों में उन्होंने। सब हँस रहे हैं। घर में बुलाकर उस पर हँसने दे रहा है उसका पति। हँस रहा है खुद उस पर।

जरूर जानते हैं लोग। यह सब जानते हैं। क्या यह जानते हैं कि झूठ था सब? या यह भी सोचते हैं इज्जत की खातिर झूठ बोल गई वह? बादल छंट गए। तेज तिलमिलाती धूप ने जला डाला वीणा के शरीर को। आंखें जल उठीं। दिल्ली तक में जानते हैं लोग। वहीं से तो आये थे वे तीन लोग। गली में हँसते हैं लोग उस पर। बता दिया है लोगों ने पड़ोसियों को कि उस दफ्तर में काम करने वाले की बीवी की इज्जत लुट गई है। खुद उसके पति ने कहा है। सबको पता चल चुका है। बाहर से जोरों के हँसने की आवाज आई। बहुत देर तक हँसते रहे सब।

आधी रात को नशे में झूमते पति ने कहा, ‘मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा।’

वह हँसता जाता और यही कहता जाता। देर रात उसने वीणा की साड़ी खींच ली। वह फर्श पर औंधी लेट गई तो दोनों बांहे पकड़ कर उसने मरोड़ दी। कपड़े फाड़ फेंके। अपनी बनियान उतार कर वीणा के मुंह में ठूंस दी। पति होने का हक वसूला और उठ कर उसने वीणा को कस कर दो थप्पड़ लगाये। फिर वह पलंग पर जा गिरा और खर्राटें भरने लगा। सुबह बहुत देर से आंख खुली। वह मुस्कुराया, जोर की अंगड़ाई ली। देखा अलमारी खुली है। फर्श पर हरी चूडिय़ों के टुकड़े बिखरे पड़े हैं। पायताने वीणा की चादर मुसी पड़ी है और तीन सफेद पन्ने बिखरे पड़े हैं, टाइप किये हुए। अंग्रेजी में। एक पन्ना उल्टा था, उसपर रात खाली हुई शराब की बोतल रखी थी। बॉल पेन से टेढ़े मेढ़े बड़े बड़े हर्फों में उसपर लिखा था, ‘मेरा पति यही किया. बलात्कार. इस आदमी के साथ रह नहीं सकती। मेरा पति मेरी मौत का जिम्मेवार है।’

झटके से उठ वह बाहर निकला। बैठक की तरफ परदा खोलते ही वह खड़ा का खड़ा रह गया। सोफे के ऊपर प्लास्टिक की कुर्सी लुढक़ी पड़ी थी। पंखे से वीणा झूल रही थी, रात जो साड़ी फाड़ी थी उसी के टुकड़े से। पेटीकोट पहने थी, फटा हुआ। ब्लाऊज पहने थी फटा हुआ। सर नंगा था, बाल उड़ रहे थे। हाथ में सोने की चूडिय़ां भी नहीं थीं।

उसने घूंघट उतार दिया था।

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रचनाकार: घूंघट / कहानी / अंजली देशपांडे / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
घूंघट / कहानी / अंजली देशपांडे / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
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