राग मारवा / कहानी / ममता सिंह / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1

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ममता सिंह राग मारवा जिंदगी किसी मुफलिस की कबा तो नहीं कि जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं। - फैज पारुल की खुशी छलक-छलक पड़ रही है।...

ममता सिंह

राग मारवा

जिंदगी किसी मुफलिस की कबा तो नहीं

कि जिसमें हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं।

- फैज

पारुल की खुशी छलक-छलक पड़ रही है। उसका मन आसमान में उड़ा जा रहा है। रूई के फाहों सरीखे बादल उसके ऊपर से उड़ रहे हैं। बादलों का ठंडा स्पर्श मन में पुलक पैदा कर रहा है। इतने सालों तक किराए के घर में मकान मालिक के बनाए नियमों के मुताबिक रहना पड़ता था। फटी दरी जिसमें पैबंद लगे थे, सीलन से कमरे में खास किस्म की गंध पसरी होती थी, जिसे पारुल आज इस खुशी के मौके पर याद नहीं करना चाहती। लेकिन अभावों और परेशानियों में जिया हुआ इतना लंबा समय भला कोई कैसे भूल सकता है। फटी दरी की जगह कालीन बिछ गया है। अब जाकर अपना घर हुआ। खस के पर्दे की जगह ब्लाइंड्स लग गये हैं। सजावट से घर की खुशहाली नजर आ रही है। आज वो ‘अपने’ घर में है। अब उसे बार बार किराए का घर नहीं बदलना होगा।

मेहमानों का आना शुरू हो गया है। पारुल के पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे हैं। वह पंख लगाकर आसमान में उड़ रही है। इस कमरे से उस कमरे तक जाती है, बरामदे में नए सजाए गमले को घुमाकर ठीक कर देती है, उसे होश नहीं है। खुशी के मारे अपनी सुध-बुध खो बैठी है।

'मुबारक हो पारुल, कितनी नसीब वाली हो। कितना आलीशान घर मिला है तुम्हें। देर आयद- दुरूस्त आयद' —फूलों का गुलदस्ता थमाती हुई रज्जो बोली। शुक्लाइन चाची ने भी सुर मिलाया। 'भई सास हो तो पारुल की सास जैसी, नहीं तो ना हो। इस बुढ़ापे में भी अपने बहू-बेटे का लालन-पालन कितनी कुशलता से कर रही है बेचारी। — सचमुच बड़े दिल और जांगर वाली है तुम्हारी कुसुम जिज्जी। अपने शौहर के दम पर तो कभी नहीं खरीद सकती थी इतना आलीशान घर— अस्फुट स्वर में बोलती है—नंबर

एक का शराबी...... बेचारी कुसुम जिज्जी इस बुढ़ापे में भी कितना खटती है इन लोगों के लिए। ऐसा करमजला बेटा किसी को ना मिले, फुसफुसाते हुए रज्जो बोली। बहू कम से कम कुसुम जिज्जी के साथ तो लगी रहती है।

कोई प्यार में नहीं लगी रहती— स्वार्थ से....कुसुम जिज्जी के गाने का प्रोग्राम वही सेट करती है- 'कुसुम जिज्जी गायेंगी तो झोला भर के पैसा आयेगा घर में और इनकी रोजी रोटी चलेगी। इस उम्र में गाना उनके लिए कितना तकलीफदेह होता होगा। इस बुढ़ापे में जब आराम की जरूरत है तो बुढिय़ा सबका पेट पाल रही है।’ —शुक्लाइन चाची बोलीं।

पारुल के कानों में ये अस्फुट बातें जा रही थीं। ये तल्ख अलफाज पारुल पर कटार जैसे वार कर रहे थे। मन का कसैलापन चेहरे पर ना झलके, इस प्रयास में दोनों होठों को आपस में रगडक़र वो लिपस्टिक ठीक करने की कोशिश कर रही है। जबर्दस्ती मुस्कुराती हुई साड़ी के पल्लू को आगे कर कमर में खोंसने लगी और दूसरे मेहमानों से मुखातिब हो गयी। लेकिन शुक्लाइन चाची कहां मानने वाली थीं। रस लेकर बताने लगीं—‘पता है रज्जो, इस घर को पाने के लिए इसकी बुढिय़ा सास ने ऐड़ी-चोटी का पसीना बहाया है। समाज-सेवियों के चक्कर काटे। नेताओं से सिफारिश की। फिल्मी कलाकारों की चिरौरी की। गिड़गिड़ायी कि मैं इतनी बड़ी गायिका हूं। इतने सारे कंसर्ट किए, मैंने बड़ी-बड़ी महफिलों में गाया, लेकिन हमारे पास घर नहीं है, वगैरह वगैरह। किसी नेता ने जोड़ तोड़ करके दिलवाया है यह घर। शुक्लाइन चाची की बातें ललाइन चाची अपने मुंह को रूमाल से ढंके ऐसे आश्चर्य से सुन रही थीं मानो दुनिया का आठवां आश्चर्य बयां किया जा रहा हो सचमुच ये औरतें बातों में इतनी माहिर हैं कि गुड़ रस मलाई बन जाए और रसगुल्ला करेले के रस में बदल जाए। कुसुम जिज्जी के बारे में इस तरह विमर्श हो रहा था, जैसे उन्होंने कोई बुरा काम किया हो।

कुसुम जिज्जी खुश हैं कि नये घर में अब एक कमरा उनका होगा जिसमें वो तितली की तरह उड़ेंगी, सपने बुनेंगी। संगीत के सागर में तैरेंगी। हारमोनियम, तबला, तानपुरा सब उनके आसपास रहेगा। जब चाहे छेड़ेंगी कोई सुर...उन सुरों में फिर उगेंगे ख्वाबों के अंकुर। उन सुरों में पकेगी-घुलेगी फिर से वो चाशनी, जिसका ज़माना कभी कायल हुआ करता था। ख्वाबों के कई अंकुर अभी भी फूटने बाकी हैं। बहुत-सी मुरादें कभी पूरी नहीं होतीं। ख्वाबों के वो अंकुर अब यादों के सिक्कों में तब्दील हो गए हैं।कुछ ख्वाब स्टील के बक्से में आज भी बंद हैं, जिसमें पुरानी तस्वीरें, अखबारों की कतरनें, कई एल.पी. रिकॉर्ड और सीडीज हैं।

वो गरमी की सुस्त दोपहर थी। सीलन भरे कमरे को पुराने फर्नीचर से नए सलीके से सजा रखा था। पुराना बड़ा-सा टेबल, जिसके पाए दीमक के खाने से खोखले हो रहे थे...उसी के एक कोने पर ग्रामोफोन रखा रहता था, जो उनके उत्कृष्ट गायन पर किसी कद्रदान ने उपहार-स्वरूप दिया था। गरमी की वो ऐसी उमस भरी, अलसाई दोपहर थी, जब धूप भी छांव का इंतजार कर रही हो। कुसुम जिज्जी चटाई को पानी से बार-बार भिगो रही थीं, ताकि कमरे में सुकून और ठंडक कायम रहे। वैसे उन्हें हर तरह से सुकून तब मिलता है जब वो अपनी पसंद का संगीत सुनती हैं। उस्ताद बड़े गुलाम अली खां उनके पसंदीदा गायक हैं और उनके लिए तालीम की तरह हैं। ग्रामोफोन पर बड़े गुलाम अली खां की ठुमरी मांड बज रही है....

याद पिया की आए, ये दुख सहा ना जाए...

बाली उमरिया, सूनी सेजरिया... जीवन बीतो जाय, हाय राम...

ये बंदिश उस्ताद जी ने अपनी पत्नी के गुजर जाने के बाद बनायी थी। किस कदर दर्द रचा-बसा है उनकी आवाज में। कुसुम जिज्जी का मन सुरों के झरने से भीग रहा है। उसी के साथ वे ताल दे रही हैं मंद-मंद मुस्कुरा रही हैं... एक ताल और चार ताल में उन्हें बड़ा संशय होता था। स्कूल के जमाने में ‘धिन धिन, धागे तिरकिट, तूना कत्ता’ की जगह पर वो ‘धा धिन, धिन धा, किट धा, धिन धा’ कर देती थीं और टीचर की डांट मिलती थी। लेकिन बाद में उनका यही एक ताल और चार ताल एकदम पक्का हो गया था। क्लास की टेबल या चौके के बर्तनों पर भी वो एक ताल को दुगुन, तिगुन, चौगुन में बजाया करती थीं। बहरहाल.. उस्ताद गुलाम अली खां को सुनते हुए कुसुम जिज्जी किसी और ही दुनिया में पहुंच गयी थीं, जहां संगीत की इबादत होती है'..तभी इस तपती भीषण गरमी में बिन मौसम बरसात आ गयी। बड़ी जोर से बादल गरजे। गडग़ड़ाहट से कुसुम जिज्जी के कान झनझना गये। ग्रामोफोन की सुई खट से रिकॉर्ड से हटा दी गयी थी। चलता रिकॉर्ड दीवार पर फेंक दिया गया था। 78 आर पी एम का रिकॉर्ड दीवार से टकराकर तड़ाक से टूट गया था और कुसुम जिज्जी का दिल चकनाचूर हो गया थी।

‘‘ये लो एक नई सौगात, तुम्हारे उस आशिक का नया पैगाम।‘‘

‘‘ओह, गुरुजी ने भेजा?’’

‘‘गुरू-शिष्य परंपरा को तुम जैसी दो कौड़ी की गायिकाओं ने बदनाम किया है। मत कहो गुरूजी... तुम जैसी गायिकाओं को वो स्टेज पर नहीं ले जायेंगे तो समाज को क्या जवाब देंगे कि बरसों अपने आगोश में बिठाकर क्या सिखाया। इसी बहाने वो अपना नाम भी तो रोशन कर लेते हैं।

‘‘उफ!’’

‘‘उस्ताद रहमत खां, उस्ताद सलामत खां... कितने उस्तादों का जी बहलाओगी।’’

नीले रंग के गिफ्ट रैपर में से छोटा-सा ट्रांजिस्टर झांक रहा था, जिसे देखकर दर्द के इस अंधेरे में भी कुसुम जिज्जी के लिए जैसे चिराग जल उठा। कुसुम जिज्जी ने आंसुओं से भीगी आंखों को कस के झपकाया, मिचमिचाया, पलकों में बंद दो-तीन बूंदें गालों पर ढुलक गयीं। इसी रेडियो ने कुसुम जिज्जी को सुरों की पालकी पर बैठाया था। रेडियो ने ही सुरों के पंख लगाकर उन्हें उडऩा सिखाया था। स्कूल कॉलेज के उन्हीं दिनों में विविध भारती से जब संगीत-सरिता कार्यक्रम प्रसारित होता था तो कुसुम जिज्जी अपनी कॉपी और कलम लेकर बैठ जातीं। रागों के गायन का समय, वादी-संवादी, शुद्ध और कोमल स्वर'सब कुछ बाकायदा नोट करतीं और जो राग जिस प्रहर में गाया बजाया जाता है, उसका अभ्यास वो उसी प्रहर में करतीं। संगीत सरिता सुन-सुनकर उन्होंने आकाशवाणी बनारस के शास्त्रीय-संगीत के ऑडीशन की तैयारी की। ऑडीशन पास किया तो अपनी सहेलियों को लड्डू खिलाया। बी ग्रेड और फिर टॉप ग्रेड आर्टिस्ट बनीं। उनकी गायकी के कई टेप तैयार हुए और वो एक प्रतिष्ठित गायिका बन गयीं। उनकी ‘सुर सरिता’ जब पहली बार विविध भारती के एक बड़े और लोकप्रिय कार्यक्रम ‘अनुरंजिनी’ में बही- तो कई दिन तक वो सुरों की बारिश में भीगती रहीं। इस तरह ट्रांिजस्टर कुसुम जिज्जी के जिगर का टुकड़ा बन गया। जहां जातीं साथ में एक ट्रांिजस्टर और उसकी बैटरी जरूर ले जातीं। रेडियो से ही उनकी शोहरत की शुरूआत हुई। गम और तन्हाई के पलों में उनका हमदम भी बना रेडियो। तन्हाई के लम्हों में ली गयी अपनी सिसकियों को कुसुम जिज्जी ने रेडियो और अपनी गायकी से ही तो बांटा। इस पल भी जब पूरे घर पर गम की बदली छायी है, उनका अपना ही जीवन-साथी जब उनका कलेजा छलनी बना रहा है... ये देखकर कुसुम जिज्जी एक बार फिर जिंदगी की सलवटों को मिटाने के लिए बेतहाशा दौड़ पड़ीं।

लेकिन वह ट्रांिजस्टर उनके लिए उस दिन खुशी की सौगात नहीं बल्कि ऐसी आंधी लेकर आया था, जो कई महीनों तक शांत नहीं हुई। गानों के कई मौके हाथ से निकल गये। पंडित जसराज की प्रस्तुति के बाद उनकी प्रस्तुति का मौका जाता रहा। मुंबई में फैज अहमद फैज की गजलें गानी थीं, वो मौका छूटा। ऐसे कई सुनहरे मौके उन्हें अपने घरेलू विवादों के कारण छोडऩे पड़े।

वक्त कभी एक जैसा नहीं रहता। आंधियां चलती हैं, थमती भी हैं। कुसुम जिज्जी की जिंदगी में भी बहार आयी और पतझरों की दस्तक कम हो गयी। बनारस से मुंबई की सुखद यात्रा और बस कुसुम जिज्जी का सुर कोयल-सा कूकने लगा।

नेहरू सेन्टर का भव्य हॉल, स्टेज के किनारे किनारे फूलों के वंदनवार सजे थे। मौका था विदूषी गिरिजा देवी और उस्ताद अमजद अली खां की कजरी और सरोद की जुगलबंदी की प्रस्तुति का..

‘झिर झिर बरसे सावन,

रस बुंदिया की आई गइले ना

अब बहार की... आई गइले ना’।

राग मिश्र मांड में दादरा ताल में निबद्ध इस कजरी की जुगलबंदी पर दर्शक झूम रहे थे जैसे सावन की बयार हो। कुसुम जिज्जी का मन बादलों के बीच उड़ चला था। कजरी की तान पर खूब ऊंची ऊंची पींगे भर रही थीं। उनके मन का झूला आसमान में उड़ा जा रहा था। होंठ इस कजरी के साथ गुनगुना रहे थे। पंडित अच्छेलाल तबला संगत कर रहे थे। ‘धा धी ना, धा तू ना, धा धी ना, धा तू ना’ दादरा ताल के ठाह, दुगुन और त्रिगुन की ताली के साथ-साथ मन ही मन उनका सोलो गायन भी चलने लगा था। इसी कजरी के बाद तो कुसुम जिज्जी को भी ठुमरी गानी थी। पहली बार उन्हें इतना बड़ा मौका मिला था। वो आहिस्ता आहिस्ता मंच की सीढिय़ां चढ़ रही थीं, होठों से मुस्कान के मोती झर रहे थे, लाल चौड़े पाड़ वाली क्रीम कलर की साड़ी के पल्लू को सलीके से आगे सरकाती हुई मंच पर जब वो बैठीं, और लंबी नाक में चमचमाती हीरे की लौंग पर जैसे ही रोशनी पड़ी-मानो दिये जल उठे। बनारसी पान की ललाई उनके होठों पर ऐसे फब रही थी कि उसके सामने ब्रांडेड लिपस्टिक का रंग भी फीका लगे। आंखों में गहरा काजल, माथे पे लाल बिंदी उनकी खूबसूरती में चार चांद लगा रहे थे। तानपूरे और तबले के मिलान के बाद जब उन्होंने बोल-आलाप लिया तो दर्शक हवा में इठलाती टहनी की तरह झूमने लगे थे। उन्होंने जब बोल-बनाव की ठुमरी गायी, तो रसिकों के बीच से आवाज आई-‘वाह खटका और मुरकी का कैसा अदभुत समन्वय है’। उनकी गायकी से, राधा-कृष्ण के प्रेम और नोंक झोंक का दृश्य तिलस्म पैदा कर रहा था।

बारिश हो या कड़ी धूप, हर मौसम में कुसुम जिज्जी के गायन के कंसर्ट में हॉल खचाखच भरा रहता। हॉल में पिन-ड्रॉप-साइलेन्स बना रहता था शुरू से आखिर तक। कुसुम जिज्जी के पास स्मृतियों का विराट समुद्र है, जिसमें अकसर ही वो गोते लगाती हैं। कई बार तो वो ये भी चाहती हैं कि इन सुरीली यादों की बूंदों से उनके घर वाले भी भींगें। खासतौर पर वो पारुल को बहुत कुछ बताना चाहती हैं क्योंकि पारुल उनके साथ परछाईं की तरह रहती है। लेकिन पारुल के तो अपने ही जोड़-घटाव हैं। कुसुम जिज्जी के करीब बस उतना ही रहना चाहती है, जब तक उसे फायदा पहुंचता रहे। पारुल का बस चले तो कुसुम जिज्जी की यादों के सिक्कों को या तो बाजार में भुनाए या फिर ‘फिक्स डिपॉजिट’ करके दोगुना होने तक इंतजार करे। लेकिन स्मृतियां किसी तिजोरी में भला कहां कैद होती हैं, वो तो मन की वादी में हमेशा भटकती हैं तो कुछ स्मृतियां इंसान के जीने का मकसद बन जाती हैं। आज जब भी पारुल कुसुम जिज्जी के कंसर्ट के लिए कोई सिटिंग रखती है, तो उनका दिल खुद से विद्रोह करता है...और विद्रोह के उन पलों में उनका तनाव और दर्द जैसे किसी एकालप की तरह बहने हैं। ...दरअसल जब उम्र का सूरज ढलता है तो सपनों के रंग फीके पड़ जाते हैं। पूरी दुनिया बेनूर लगने लगती है। आवाज में कशिश तब आती है, दिल में खुशी की धूप खिली हो... लेकिन मेरी दुनिया में तो हमेशा ही बदली छायी रही, इतना गहन अंधेरा है कि किसी का चेहरा पहचान नहीं आता। बहू, बेटे, पोते सब अदृश्य हैं। उम्र के इस पड़ाव में इतनी अकेली हूं जैसे पहाड़ी किले में कोई मंदिर। कोई भूला-भटका आकर फूल चढ़ा जाता है। मेरे लिए समय जैसे अविरल बहाव है जिसमें ना कोई तारीख है, ना कोई समय, ना ही कोई पर्व है। फिर भी पारुल सिटिंग करती है, तारीख तय करती है और मैं गाने को तैयार हो जाती हूं..... अब और नहीं.... आखिर उम्र के इस ढलान में मैं क्यों गाऊं...किसके लिए गाऊं... गाकर क्यों इनका पेट पालूं, जबकि मेरे इस परिवार में मुझे सिर्फ कांटे ही कांटे दिये हैं। पिछली बार जब मैं बीमार होकर बिस्तर पर थी, झूठ-मूठ को भी कोई मेरे पास नहीं फटकता था, जैसे-तैसे बोझ की तरह पारुल दो वक्त खाना पटक जाती थी, वो खाना मैंने खाया या नहीं, ये देखती भी नहीं थी... और मैं अपना कांपता हाथ तकिये के नीचे ले जाकर टटोलती थी, दवा का पत्ता ढूंढती थी और दवा निगल लेती थी। पोते को मेरे करीब इसलिए नहीं आने दिया जाता था कि मेरी बीमारी से उसे इंफेक्शन ना हो जाए। मेरे कान तरस गये, इस वाक्य के लिए-‘मां बस करो, तुम अब आराम करो'तुम्हें कुछ चाहिए तो नहीं’। लेकिन कहां.... इस घर के लिए तो मैं सिर्फ ए.टी.एम मशीन हूं। पर क्या कहूं अपने मन को, ये भी बड़ा अजीब है। नहीं गाती हूं तो भी चैन नहीं मिलता। बचपन से आज तक गायकी जैसे रगों में घुली मिली है। बिना गाए तो मैं जी भी नहीं सकती। ये गाना ही तो है, जिसने मुझे जिंदगी की कड़ी धूप में ठंडी छांह दी है।

‘बाजूबंद खुल-खुल जाये सँवरिया रे... कैसा जादू डारा रे

जादू की पुडिय़ा भर-भर मारी रे... क्या जाने बैद बेचारा रे...’

राग भैरवी की ये बंदिश उन्हें बहुत पसंद हंै। अपनी तन्हाई में कुसुम जिज्जी गाने के तरह -तरह के प्रयोग करती हैं। अभी वो दीपचंदी ताल की इस बंदिश को कहरवा ताल में बदलने की कोशिश कर रही हैं.... धागे नाती नाक धिन...

जैसा मीठा गला, वैसा ही ठसकदार कुसुम जिज्जी के गाने का अंदाज। गरीब परिवार में पली-बढ़ी कुसुम जिज्जी अपनी दम पर कामयाब हुईं। पिता ने उन्हें इस डर से नहीं पढ़ाया कि वो पढ़-लिखकर कर भाग जायेंगी। घर में उनके गाने का जमकर विरोध हुआ। लेकिन कुसुम जिज्जी कहां मानने वाली थीं। गायकी उनकी रग-रग में, सांसों में बसी थी। जब वो छोटी थीं, तो गाना सीखने के लिए उन्होंने जिद ठान ली, -‘गाना सिखाओ वरना कुंए में कूदकर जान दे दूंगी’। घर वाले उनकी जिद के आगे लाचार हुए और उस्ताद रहमत खां से गंडा बंधवा दिया और उन्हें गाने की तालीम दिलवाई गयी। इस तरह शुरू हुआ था, उनके गाने का सफर। उन्हें गाने और तारीफ बटोरने का इतना शौक था कि शुरूआती दौर में जब वो मंच पर गातीं, तो सहेलियों और रिश्तेदारों से कह देतीं, कि मैं रहूँगी मंच पर, तुम लोग तालियां बजाने आना। धीरे-धीरे सिलसिला बढ़ता गया और गायिका के रूप में वो मशहूर होने लगीं।

गायकी तो जैसे उनके लिए कुदरत की एक अनमोल नेमत थी। दर्शकों में बैठे वो लोग, जो पेशे से व्यापारी थे- लेकिन थे संगीत के कद्रदान, कुसुम जिज्जी के शो के बाद उन्हें दंडवत प्रणाम करते और उपहार स्वरूप सोने चांदी के गहने और रुपए देते थे। गायकी के इन्हीं पैसों और उपहारों से कुसुम जिज्जी के भाई-बहनों की परवरिश हुई। कुसुम जिज्जी बड़ी सरल मिजाज की थीं। जिन्होंने कभी अपने लिए जीना नहीं सीखा। हर कोई उनसे बेपनाह मोहब्बत करता। जब जिसे जरूरत पड़ती वो उनसे पैसे वसूल ले जाता था। आज के जमाने में ऐसी मदर टेरेसा कहां मिलेंगी भला। ठसकदार रोबीले व्यक्तित्व को लोग आज भी नमन करते हैं। मजाल है कि उम्र में छोटे लोग उनसे नजर मिलाकर बात करें। बावजूद इसके कुसुम जिज्जी अपनी सरलता और मासूमियत से वो पेशेवर ऊंचाई नहीं छू पायीं जिसकी वो हकदार थीं। अपनी काबलियत से उन्हें शोहरत तो खूब मिली, पर दौलत नहीं मिल पायी, जो उनके ठाट-बाट को रौनक कर सके। लेकिन हां, अपनी गायकी के दम पर उन्होंने अपने बेटी-बेटे को अच्छी परवरिश दी। बेटी तो ब्याहकर चली गयी ससुराल, लेकिन बेटा हो गया नालायक। जब तक पति साथ थे, गाने में अड़चनें ही पैदा करते थे। उस जमाने में औरतों का स्टेज पर गाना निचले दर्जे का माना जाता था। उनके पति को कतई गवारा नहीं था कि उनकी धर्म-पत्नी उस जमाने की मशहूर गायिकाओं की तरह कुसुम-बाई के नाम से विख्यात हों। बहरहाल, कुसुम जिज्जी की जिंदगी में परेशानियों की धुंध भी छायी, कामयाबी की रोशनी भी हुई। अंधेरे और उजाले के इस संघर्ष में धीरे-धीरे कुसुम जिज्जी के पास कामयाबी के तमगे आते चले गये। लेकिन उनकी निजी जिंदगी में अंधेरा गहराने लगा। एकाकीपन बढ़ता गया। लेकिन वो थकी नहीं, उम्र की इस दहलीज पर ना आराम है, ना दिली सुकून, ना ही अब वो शोहरत रही। किसी आयोजक का एक फोन आता है, तो पारुल दसियों फोन करती है- और जुगाड़ करके एक स्टेज प्रोग्राम फिक्स करवा ही लेती है। और उसके बाद कुसुम जिज्जी की सिफारिश शुरू कर देती है। फिर तो उनकी सेवा में कोई कमी नहीं रहती। कुसुम जिज्जी को मिश्री डालकर गरम पानी देती है। तुलसी और काली मिर्च का काढ़ा बनाकर देती है। इस डर से कि कहीं उनका गला ना खराब हो जाए। पारुल की इस एहतियात से कुसुम जिज्जी का गला बिलकुल दुरुस्त रहता है। भले ही शरीर उनका जर्जर हो, लेकिन उनका मन और गला कभी नहीं बिगड़ता।

'‘दादी दादी, आपकी फोटो फट गयी.......ये अखबार’

‘अरे ये तो मेरे सम्मान की तस्वीर है रे।’

‘लेकिन दादी इस अखबार में भेल वाला भेल बेच रहा था। मैंने देखा तो उससे माँगकर ले आया।’

कुसुम जिज्जी अवाक रह गयीं' जैसे अखबार की तरह उनके दिल के भी कई टुकड़े हो गया हों। दर्द जैसे छाले में बदल गया......तन्हा मन उदासी के उस जंगल में चला गया, जहां कोई ऐसा पौधा नहीं जिसमें हरापन हो... शुष्क बेजान.... ठूँठ पेड़ों में मैं खोज रही हूं रिश्तों की बीर बहूटी। जब यहां मिट्टी ही नहीं है, सिर्फ कंकड़-पत्थर वाली बंजर धरती है, तो बीज कैसे रोपे जाएंगे.... कहां से जड़ पकड़ेगी... ये घर तो दूर तक फैला निर्जन मरूस्थल है जिसमें सिर्फ रेत के टीले हैं, जो भरभराकर कब के गिर चुके हैं। मुझे ये पता है, फिर भी मैं झूठी उम्मीद पर जी रही हूं। इस घर में मेरी अहमियत सिर्फ एक ग्रामोफोन जितनी है, जब चाहा बजा लिया, फिर एक कोने में सजा दिया। लेकिन अब मैं इनकी जरूरत नहीं पूरी करूंगी। हर बार तो सोचती हूँ, अब नहीं गाऊँगी... पर गाने का मोह छूटता भी कहाँ है... पारुल कोई न कोई स्टेज शो मैनेज कर ही लेती है और मैं.... कभी अपने लिए तो कभी इनके लिए....

‘दुल्हन तुमने ये क्या किया’

‘जिज्जी वो रखने की जगह नहीं थी ना। अब नये घर में ये कूड़ा-कबाड़ कहां रखा जाए। इसलिए मैंने रद्दी वाले को दे दिया। हां एक कॉपी रख ली है। बस इतना काफी है ना।’

‘दुल्हन, तुम्हें याद है। इससे भी छोटा घर था, जब रौनक पैदा हुआ था। उसका एक-एक खिलौना, एक एक कपड़ा मैंने संभाल कर रखा था जिसे झाड़-पोंछकर तुम अब भी इस्तेमाल करती हो।’

पारुल जा चुकी है... कूड़ा कबाड़! ये रद्दी, ये कूड़ा-कबाड़ ही मेरे जीवन का आसरा है। इसी ने मेरे भीतर सुरों की सरिता प्रवाहित की है। फांस की तरह चुभ गया यह शब्द कुसुम जिज्जी के भीतर। कुसुम जिज्जी का मन पीड़ा से आद्र्र हो गया है। ये कागज के टुकड़े, ये तस्वीरें, संगीत की नोट-बुक, बंदिशों की स्वर-लिपियां, पुरानी डायरी' ये तो मेरी यादों के दस्तावेज हैं... मेरी तन्हाइयों के हमसफर... नोटबुक के पन्नों में मुरझाए फूल मेरे आंसुओं से मुस्कुराने की फरियाद करते हैं। डायरी के पन्नों में कुछ शब्द हैं, कुछ भाव हैं, अंजुरी भर सरगम है जिसके सहारे मैं जीती हूं, वरना इतनी सारी बीमारियों को ओढक़र मैं कब की मर चुकी होती। मैं अपने ही कोखजने बेटे और बहू पर बोझ बन गयी हूं। ये मेरी लाचारी का फायदा उठाते हैं। मेरे दुख, मेरी पीड़ा उन्हें दिखायी नहीं देती। इन लोगों को मुझसे सिर्फ पैसों का सरोकार है। शायद मैं जिस दिन पैसों का जरिया ना रहूं, उस दिन ये लोग मुझे निकाल फेकेंगे घर से। चश्मे की डंडी टूटी है। कई दिनों से एक हाथ से डंडी पकडक़र काम चला रही हूं। मैं इनके लिए भला क्यों गाऊं। अब मैं नहीं गाऊंगी। मैं क्यों इतना कष्ट सहूं इनके लिए। अब तो कुर्सी पर बैठते भी नहीं बनता... कमर और घुटनों में असह्य पीड़ा होती है। लेकिन करूं क्या... दुल्हन फिर रोना रोएगी... आप गाएंगी नहीं तो आपके पोते की पढ़ाई का खर्च कहां से आएगा, हमारे लिए ना सही, उसके लिए तो गाइये। मैं इनके दिए दुखों से रोज तार-तार होती हूं फिर भी पारुल की एक चिरौरी पर गाने को तैयार हो जाती हूं.....

‘...पारूल मेरे तानपूरे का तार टूटा है। कितनी दफे कहा, ठीक करवा दो।’

... मेरे ब्लाउज की तुरपाई भी नहीं की ना...लोग क्या कहेंगे कि मैं इतनी बड़ी गायिका और उधड़ा हुआ ब्लाउज... हर प्रोग्राम के बाद जब पैसे मिलते हैं तो सोचती हूं अपने लिए दो-चार साड़ी-ब्लाउज खरीद लूंगी, लेकिन उससे पहले ही तुम्हारी जरूरत की चीजों की लंबी लिस्ट तैयार हो जाती है... चाह के भी नहीं कह पाती हैं कुसुम जिज्जी और कराहती हुई धीरे-धीरे अपने शरीर के बोझ को उठाने की कोशिश करती हैं.... सुई में धागा डालने की कोशिश करती हैं... सुई के चुभने से रिस आई खून की कुछ बूंदों से बेखबर...

नए घर के हॉल में लोगों की भीड़ जमा है। कुसुम जिज्जी के पिछले कंसर्ट के पैसों से आए नए म्यूजिक सिस्टम की तेज आवाजों से कमरा गूँज रहा है। म्यूजिक बंद होने पर लोगों की हँसी और कहकहे छन-छनकर भीतर वाले कमरे तक चले आते हैं, जहां बैठी हैं कुसुम जिज्जी। चारों ओर संगीत का शोर है। चहल-पहल है। लेकिन कुसुम जिज्जी के भीतर एक खोह है, जहां सिर्फ खालीपन है, वीरानी है और है इक दश्त। उनकी घुटनों की तकलीफ बढक़र ऑस्टियोपोरोसिस में बदल गयी है। बिना सहारे के वे उठ भी नहीं सकतीं। पारुल हाथ में उपहारों का बंडल लिए कमरे में दाखिल हुई, जल्दी-जल्दी आलमारी में रखकर बाहर निकल ही रही थी कि कुसुम जिज्जी ने आवाज लगाई- ‘दुल्हन-दुल्हन, भूख लग आयी है। खाना ले आओ।

‘अं.. हां जिज्जी। ‘

‘गोली खाने का वक्त हो गया है दुल्हन। ‘

‘आई जिज्जी’ कहती हुई पारुल कमरे से जो बाहर गयी तो पलटकर नहीं आयी।

जब किसी कंसर्ट की तारीख तय होती है तो दुल्हन कैसे दौड़-दौडक़र मेरी सेवा करती है। कुसुम जिज्जी मन ही मन बुदबुदाईं..... उसे तो मिल गया है नया घर। अब फिलहाल मेरी जरूरत नहीं है। प्रोग्राम खत्म तो कुसुम जिज्जी की देखभाल भी खत्म। रद्दी की टोकरी में पड़े बेकार सामान की तरह मैं घर के एक कोने में पड़ी रहती हूं.......वॉश-रूम जाना है। सालों से डायबिटीज की पीड़ा से जूझ रही हैं। बिना सहारे के वॉश-रूम नहीं जा सकती हूं... पारुल को ये बात अच्छी तरह पता है... लेकिन वो अपनी खुशियों में मस्त है, उसे तमाशे और नाच के सिवा कुछ नहीं दिखायी दे रहा। मस्त रहें मस्ती में, आग लगे बस्ती में।

बेटे को जब पैसों की जरूरत होती है, तब उसे अपनी मां यानी कुसुम जिज्जी याद आती हैं। शाम से अब रात हो चली है। पार्टी का शोर मद्धम होता चला जा रहा है और कुसुम जिज्जी के भीतर का अकेलापन लगातार गहरा... ठसकदार शख्सियत, एक मशहूर गायिका घर के एक कोने में बैठी खाने का इंतजार कर रही है। उसकी भूख शांत हो, तो वो दवा खाए। कोई आकर सहारा दे तो वो वॉश-रूम जाएं। अब तो उनकी साड़ी भी गीली हो चुकी है। ऑस्टियोपोरोसिस की तकलीफ इन दिनों इतनी बढ़ गयी है कि डॉक्टर की दवा भी कभी-कभी काम नहीं करती है। एक की बजाय कई बार दर्द की दो गोलियां लेनी पड़ती हैं। थोड़ी राहत और फिर तकलीफ शुरू। कमाल की बात तो ये है कि कुसुम जिज्जी का शरीर तो जर्जर हो गया है लेकिन आवाज आज भी ताजा है, गला उनका आज भी जवान है। आवाज में पहले जैसी बुलंदी, लोच और कशिश बरकरार है। शरीर की तकलीफ मन को भी बेचैन करती है। एक कलाकार बेहद बेचैनी के पलों में अपनी कला से इश्क फरमाता है। जहां सारे दर्द, दर्द की सीमा से ऊपर हो जाते हैं। इश्क में दर्द का अहसास मीठा लगता है। अकसर कुसुम जिज्जी के साथ भी ऐसा ही होता है। जब वो कराहने लगती हैं - तो अपने साज उठाती हैं। छेड़ती हैं कोई राग, सुरीले आलाप और तान के बाद......गाती हैं विलंबित और द्रुत ख्याल की बंदिश। और फिर अपनी इस प्रिय ठुमरी में डूब जाती हैं...

‘भर भरी आयीं मोरी अंखियां पिया बिन...

घिर घिर आयी कारी बदरिया..

धडक़न लागी मोरी छतियां।’

अतीत के सबसे ऊंचे पहाड़ पर चढ़ रही हैं कुसुम जिज्जी। यादों की मीठी बारिश में आज फिर भींग रही हैं वो। मन के आईने में कामयाबी के भूले-बिसरे चित्र आज फिर उभरे चले आ रहे हैं...

कुसुम जिज्जी बैठे-बैठे ही अपना घुटना मोडक़र घिसट कर थोड़ा आगे तक सरकीं तो तिपाई तक हाथ पहुंच गया। तानपूरे का ऊपरी सिरा हाथ आया, उसे अपनी ओर खींचा। बूढ़े-झुर्रीदार हाथों में इतनी ताकत नहीं बची कि तानपूरे को सही पो़जीशन में लाकर अपने सामने खड़ा कर सकें। तानपूरा आधा लेटा कर उसका कवर हटाया, साड़ी के पल्लू से उस पर जमी धूल साफ की। और फिर धीरे-धीरे खुलता गया, उनके मन का भीतरी परदा। यादों के साज पर पड़ी गर्द भी साफ होती गयी। उस पार ठहरा अतीत, आंखों के सामने झिलमिलाने लगा। अपने गाने पर हॉल में बज रही तालियों की गूंज, उनकी गायकी की लहरों से सराबोर होते दर्शक-श्रोता, ग्रामोफोन कंपनियों के लिए गाना, एल-पी रिकॉडर््स का रिलीज होना, दुनिया भर में मशहूर होना, अपना दमकता हुआ जवान चेहरा, रिकॉर्ड के कवर पर छपा अपना श्वेत श्याम चित्र, रिलीज के बाद की पार्टी और रेडियो-पत्र-पत्रिकाओं में इंटरव्यू—चलचित्र की तरह आंखों के सामने घूमने लगे। सरपट भागती ट्रेन की तरह गुजर गये वो दिन। और बचा रह गया पटरियों का धडक़ना। कुसुम जिज्जी इस वक्त सवार हैं यादों की ट्रेन पर। अनगिनत स्टेशन आ रहे हैं यादों के। वर्षा-चौमासा के चार दिनों का बहुत बड़ा आयोजन था, जिसमें कजरी, चैती, टप्पा, ठुमरी गाकर खूब शोहरत पायीं और पहली बार उन्होंने आयोजकों के सामने पैसों के लिए जबान खोली थी। उन्हें मुंह-मांगी रकम मिली भी थी। उन्हीं पैसों से बेटे के लिए गाड़ी खरीदी। किराए पर चलवाई। लेकिन 'पूत सपूत तो का धन संचय, पूत कपूत तो का धन संचय'। यादों के समंदर में गोते लगाती कुसुम जिज्जी ने जब तानपूरे के तार को छेड़ा, तो अहसास हुआ कि तार तो कब के ढीले पड़ गये....तानपूरा अब बेसुरा हो गया है, लेकिन एक कलाकार की जिद के सामने साज को अपनी जिद छोडऩी पड़ती है। आखिरकार तानपूरा मिलाया और कुसुम जिज्जी को अहसास ही नहीं हुआ कि उनके कंठ से ठुमरी के ये बोल फूटने लगे हैं......

'घिर आयी कारी बदरिया,

राधे बिन लागे ना मोरा जियरा.....

बदरा बरसे, नैना बरसे,

घन और श्याम की लागी है होड़वा,

राधे बिन लगो ना मोरा जियरा’।

इस ठुमरी के साथ, बोल-आलाप और बोल-तान कुसुम जिज्जी गा रही हैं। कहीं भी उनका सुर भटक नहीं रहा है। बाकायदा खटका-मुरकी, गमक और मीड़ का वैसा ही प्रयोग जैसा वो मंच पर पहले करती उनके गाने का वही ठसकदार अंदाज आज भी कायम है। जब मंच पर वो गाती थीं तो हॉल में तालियों की गूंज होती थी। हालांकि अब कुसुम जिज्जी सिर्फ दौलत के लिए मजबूरी में गाती हैं, बेटे-बहू की जरूरतों के लिए... पोते को एम बी ए कराना है ' बेटे को दुकान खरीदनी है... दुल्हन को हर महीने ब्यूटी पार्लर जाने के लिए पैसे चाहिए। सब्जियों, फलों और अनाज के दाम आसमान छू रहे हैं। जिनके घर में हर सदस्य कमाता है, वहां भी किल्लत मची है। यहां तो ढंग से कमाने वाला कोई है भी नहीं। कुसुम जिज्जी के भीतर पकता फोड़ा टभकता है बेतरह... गाती हूं मैं, गाने के पैसे लेती है पारुल, उन्हीं पैसों से आत है घरेलू सामान, पकती है रोटी। यही रोटी रोज मुझे सबके खाने के बाद मिलती है।

'कुसुम जिज्जी, कुसुम जिज्जी, सुनिए तो, गजब हो गया, अपने तो भाग खुल गये'... ये पारुल थी, जिसकी आवाज सुनकर कुसुम जिज्जी की ठुमरी का स्वर वहीं रुक गया।

‘हुआ क्या दुल्हन, तुम्हें कब से आवाज दे रही हूं। भूख से मेरा कलेजा मुंह को आ रहा है। कमर-घुटने ऐसे अकड़ गये हैं कि बैठे नहीं जा रहा है। कमर दर्द सहा नहीं जा रहा है। गाना शुरू किया तो दर्द जरा कम हुआ'’ पारुल ने तानपूरा जिज्जी के हाथों से लगभग छीनते हुए जल्दी जल्दी उसे प्रणाम किया, जैसे तानपूरा ही उसकी सांस हो। उसे तिपाई पर खड़ा कर दिया।

‘क्या कर रही हो दुल्हन, मेरा तानपूरा कहां हटा रही हो। बड़ी मुश्किल से मैंने इसके तार ठीक किये हैं।’ पारुल की आवाज ने जैसे कुसुम जिज्जी को सबकुछ बता दिया है... जरूर किसी कार्यक्रम का गुगाड़ कर आई है... अब वह इस तानपूरे के एक-एक तार को बेचेगी' एक-एक तार की कीमत वसूलेगी...

पारुल की आवाजों को जैसे पंख लग गए हैं... -कुसुम जिज्जी, इस बार तो आपके लिए नया तानपूरा खरीद लायेंगे, यही नहीं सितार, गिटार, ढोलक, मजीरा, हारमोनियम सब खरीद देंगे। अब हम अपनी दुकान खरीद सकेंगे। एक बार जो दुकान चल पड़ेगी, तो फिर आपको हम मसनद पर बिठा कर रखेंगे। आप सिर्फ कंठी-माला लेकर राम नाम जपियेगा। बस एक आखिरी बार हमारे लिए गा दीजिए मंच पर’। कुसुम जिज्जी की एक न सुननेवाली पारुल अचानक ही उनकी चिरौरी पर उतार आई है...

'दुल्हन, आंखें थक गयीं इंतजार करते-करते। भूख से अंतडिय़ां अंदर घुस गयी हैं...’ सूखे होठों पर जीभ फेरते-फेरते कुसुम जिज्जी की आंखों में अटके मोती गालों पर ढुलक आए हैं।

एल.ई.डी. लाईट की तेज रोशनी में भी कुसुम जिज्जी के सामने स्याह अंधेरा छा गया। दिमाग चक्कर खाने लगा। जैसे अब वो गिर पड़ेंगी। हॉल से छन-छन कर आता शोर कुसुम जिज्जी के कानों को चोट पहुंचा रहा है... कुंडी मत खटकाओ राजा, सीधा अंदर आओ राजा’- पारुल इन बेढब बोलों के साथ सुर मिलाती हुई, झूमती कुसुम जिज्जी के गले में हाथ डालकर झूल गयी। कुसुम जिज्जी का नथुना तेज दुर्गंध से भर जाता है। और वो झटके से अपना मुंह दूसरी तरफ फेर लेती हैं। उनका रुका हुआ बांध टूट जाता है। दर्द बेतरह फट पड़ता है। शरीर और मन जार-जार रोने लगते हैं। उन्हीं की कमाई से ये घर आबाद हुआ है और वही घर के एक कोने में... उनकी साड़ी अभी और गीली हो गयी है... घर के दूसरे हिस्से से आता शोर और तेज हो गया है... ले ले रे सेल्फी ले ले रे'

मेहमान जा चुके हैं। जश्न का शोर भी थम चुका है... पारुल कुसुम जिज्जी को बच्चों की तरह बहलाने की कोशिश करती है। उसने कुसुम जिज्जी का रेडियो ऑन कर दिया है... उन्हें सहारे से उठाकर वॉशरूम ले जाती है। 'सरगम ग्रुप वाले एक बहुत बड़ा स्टेज प्रोग्राम कर रहे हैं। उन्हें कल ही एक प्रोग्राम के लिए दुबई जाना है इसलिए वो लोग आपसे इसी वक्त मिलना चाहते हैं। चलिए जिज्जी आपको हाथ मुंह धुलाकर खाना खिला देती हूं। फिर ये नयी साड़ी पहन लीजिए। तैयार हो जाइये। वो लोग अभी आयेंगे और आपसे मिलेंगे। एडवांस पचास हजार का चेक देने का वादा कर गये हैं। लगता है हमारे भी अच्छे दिन आ गये हैं जिज्जी'।

पारुल खुशियों के समंदर में डुबकी लगा रही है। कुसुम जिज्जी उदासी से तार-तार झीनी हुई जा रही हैं। पारुल हाथ में साड़ी लिए खड़ी है। कुसुम जिज्जी साड़ी की तह खोल कर उसमें पड़ी शल ठीक कर रही हैं। पारुल उन्हें हाथों से सहारा देती है। दोहरी हुई कमर के दर्द से कुसुम जिज्जी चीत्कार कर उठती हैं.... ‘उफ......घुटने तो सीधे ही नहीं हो रहे दुल्हन... यूं ही पहना दो ना साड़ी...’

पारुल ने साड़ी अपने हाथों में ले ली है... स्नरू पर चल रहे शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम के बीच एक विज्ञापन आ रहा है' पुरानी चीजों को मत फेंकिए... ओ एल एक्स पर बेचिए... कुसुम जिज्जी की कराह और इस विज्ञापन के शब्द आपस में घुल-मिल से गये हैं... और अब'

'सखी मोरी कोई ना जाने पीर

मोरे नैना बहाए नीर

सांवरिया मोरा दरस दियो ना

लागे हृदय में तीर.....'

ढलती रात के सन्नाटे में राग मारवा की यह बंदिश कुसुम जिज्जी के कलेजे में टीस पैदा कर रही है' ना तो इस रात का कोई अंत है, ना उनकी पीड़ा का।

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संपर्क:

801,  Casa Bellisimo

Plot no 9. Gorai 3

Behind Gorai Bus Depot

Borivali west

Mumbai- 400092 MH

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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रचनाकार: राग मारवा / कहानी / ममता सिंह / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
राग मारवा / कहानी / ममता सिंह / रचना समय जन.फर. 2016 - कहानी विशेषांक 1
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