प्राची - जून 2016 / धरोहर कहानी / अंगूठे का दाग / स्नेहमयी चौधरी

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धरोहर कहानी अबकी मुझसे एकदम सटकर मिस खरे बोलीं-तो फिर आप मुझसे डर क्यों गयीं? सच, आपने कैसे जाना कि...मैंने अमर से प्रेम किया और उसकी पत्...

धरोहर कहानी

अबकी मुझसे एकदम सटकर मिस खरे बोलीं-तो फिर आप मुझसे डर क्यों गयीं? सच, आपने कैसे जाना कि...मैंने अमर से प्रेम किया और उसकी पत्नी बेद को दवा में धीरे-धीरे विष देती रही? सच बताइए, आपने कैसे जाना?

अब वह मेरे और निकट आ गयीं. मैं एकदम सहम और उनको छोड़ अलग खड़ी हो गयी. वह एकदम बिलख कर रो दीं-फिर...आपने मुझ पर विश्वास क्यों खो दिया? कैसे समझा कि मैं आपको

भी...

अंगूठे का दाग

स्नेहमयी चौधरी

थर्मामीटर मुंह से निकालते हुए मैंने पूछा-यह शोर कैसा है?

टेम्परेचर देख, दवा की शीशी में थर्मामीटर डालते हुए, नर्स ने मुस्कराकर जवाब दिया-लगता है, पड़ोस के वार्ड में मिस खरे और मरीजों के बीच बहस जोरों पर है.

-मिस खरे कौन?

-हमारी कोलीग हैं एक.

-ओह, नर्स होकर मरीजों के साथ इतनी तेजी से बात करती है?

-अस्पताल जगह ही ऐसी है, बहन. यहां आकर किसका दिमाग ठीक रह पाता है! -कहती हुई नर्स मेरे पास से हट गयी.

मैंने उससे कहना चाहा, पर तुम तो बिल्कुल ठीक मालूम होती हो. लेकिन फिर मैंने सोचा कि यह क्या कोई कहने की बात है? संभव है, यह भी उतनी ही चिड़चिड़ी हो या आगे चलकर हो जाय. अभी तो नयी-नयी मालूम होती है यहां.

वार्ड में सब-कुछ पुराना-पुराना-सा था, फिर भी झाड़-पोंछकर साफ किया हुआ, शांत ठहरा-ठहरा सा वातावरण था. इधर-उधर भटकती हुई मेरी निगाह बाहर लॉन पर टिक गयी. वहां थोड़ी हरियाली थी...

शाम बीत चली थी. मरीजों से मिलनेवाले कब के जा चुके थे. सिर्फ नर्सें और दाइयां आ-जा रही थीं. शायद आपरेशन-रूम में कोई नयी मरीज आयी हो.

-उठिए, दवा पी लीजिए,-किसी की स्थिर-शांत आवाज सुनकर मैंने आंखें खोलीं. तकिये के सहारे उठते हुए मैंने अनुमान लगाया, मिस खरे होंगी. फिर न जाने क्यों, शब्दों में कोमलता उंडेलते हुए मैंने पूछा-क्या इस वार्ड में भी आपकी ड्यूटी रहती है, सिस्टर?

जी, हां, शुक्रिया!-कहकर वह मानो अपने-आपसे बात करने लगीं-चलिए, किसी ने पूछा तो! यहां तो सब अपनी-अपनी परेशानी अलापते रहते हैं!

....हमारा जीवन तो महज दूसरों के लिए है, अपनी क्या कहें? लीजिए, टेम्परेचर लीजिए!

बड़ी रुखाई और उदासीनता से एक ही सांस में यह सब कहती हुई वह थर्मामीटर मुंह के पास ले आयीं. जितनी देर थर्मामीटर मुंह में रहा, मैं उन्हें निरंतर देखती रही.

फिर बोली-कितनी सर्दी है आज और कितना अकेलापन! डर नहीं लगता आपको?

-डर, सर्दी और गर्मी हम लोगों के लिए नहीं बने, बहनजी!-कहती हुई एक लंबी सांस ले वह शीघ्रता से कमरे के बाहर हो गयीं.

उनके चेहरे पर पड़ती हुई बरामदे की हलकी रोशनी में मैंने देखा और पहचाना, कुछ रेखाएं खिंच आयी थीं; रूखे और स्थिर चेहरे पर काफी उतार-चढ़ाव था.

दूसरे दिन सुबह जब डाक्टर राउन्ड करती हुई हमारे वार्ड में आयीं, तो मैंने देखा कि उनके साथ मिस खरे भी हैं. मैं उठकर बैठ गयी. डॉक्टर ने मेरा हाथ अपने हाथ में ले लिया और नब्ज देखने लगीं. फिर बोलीं-मिस खरे, यह तो तुम्हारी सहेली बेदी की तरह है, वैसी ही बड़ी-बड़ी आंखें, वही गोरा रंग.

-अरे हां, मैं भी यह देख रही थी. आज मुझे इनको देख अचानक उसकी याद हो आयी...सुनिए, आपका नाम क्या है?-उन्होंने बड़ी उत्सुकता से मुझसे पूछा.

-मेरा नाम तो नलिनी है. पर क्या मेरी शक्ल आपकी सहेली से मिलती है? वो हैं कहां?

-बेचारी!...वेदी...यहीं तो थी...बीमार होकर आयी थी...बची ही नहीं...-डाक्टर ने हाथ धोकर तौलिये से पोंछते हुए जवाब दिया.

मिस खरे ऊपर से नीचे तक कांप गयीं. उनका सफेद मुंह एकदम पीला पड़ गया. मुझे लगा, डॉक्टर ने असमय ही यह बात छेड़ दी थी.

-शायद बहुत घनिष्ट सहेली थीं आपकी?-मैंने सहानुभूति प्रदर्शित करते हुए चाहा कि उनका दुःख बंटा लूं, पर उनकी आंखों में आंसू भर आये.

-हे भगवान, शांति दे!-उन्होंने आंखें बंद कर दोनों हाथ जोड़ लिये, फिर उन्हें ऊपर किसी अज्ञात शक्ति की ओर उठाये हुए थोड़ी देर तक मौन खड़ी रहीं.

-आइए, चलिएगा नहीं? अभी बहुत-से मरीज देखने हैं. -डॉक्टर की आवाज से उनका ध्यान टूटा और वह उनके पीछे हो लीं. पर उनके शांत चेहरे पर खीझ और कटुता फिर उभर आयी थी.

दो-एक दिन बाद की बात है. मिस खरे की ड्यूटी शाम की थी. आते ही बोलीं-आप मुझे बहुत अच्छी लगती हैं? नलिनीजी!...आप बिल्कुल मेरी सहेली बेदी की तरह हैं, जरा भी अंतर नहीं. आंखें देखकर लगता है, एकदम वही आंखें हैं! मैं आपको बेद कहूं तो बुरा तो नहीं मानेंगी आप?

मैंने ध्यान से देखा, उनके मुख पर आज हर दिन से भिन्न मुद्राएं खिंची हुई थीं.

-अरे क्यों नहीं? बड़ी खुशी से! तब तो मैं भी आज से आपको अपनी सहेली ही समझूंगी. है न ठीक? मैंने अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ाया और चाहा कि उनसे मिला लूं, पर उनके चेहरे पर उभरती रेखाएं देखकर मैंने अपना हाथ खींच लिया और धीरे से पूछा-आप सुस्त क्यों हो गयीं? शायद मैंने सहेली की याद दिलाकर अच्छा नहीं किया.

-नहीं-नहीं, यह बात नहीं! मैंने सोचा था कि एक को खोकर अब कोई भी सहेली न बनाऊंगी, पर आपको देख जाने कहां से मन में प्रेम उमड़ पड़ता है. सारी खीझ और झुंझलाहट दूर हो जाती है. मन होता है कि आपके पास ही बैठी रहूं!-उन्होंने रुकते-रुकते अपना वाक्य पूरा किया. फिर दवा देती हुई बोलीं-बातों में मैं अपना काम तो भूल ही गयी थी. लीजिए, दवा पी लीजिए. आज बड़ी देरी हो गयी.

हड़बड़ाकर वह चल दीं. मैं पीछे से उनको जाते हुए देखती-देखती अपने मन में उनके सरल और खीझ-भरे, दोनों चेहरों की तुलना करती रही.

अगले रोज, दिन-भर मिस खरे से मुलाकात नहीं हुई. लेकिन रात में आठ बजे के करीब, मैंने खाने की थाली अपनी ओर खिसकायी ही थी कि वह शाल में लिपटी हुई मेरे पास आकर खड़ी हो गयीं.

-ओहो, सिस्टर! आज दिन-भर मैं आपको याद करती रही, पर आप दिखायी ही नहीं दीं?- मैंने कहा.

-तभी तो आ गयी,-वह धीरे से बोलीं.

-आइए, खाना खाइए!-मैंने सभ्यतावश कहा.

फीकी हंसी हंसकर वह बोलीं-आप शुरू कीजिए, बहन. मेरा एक तो खाना खाने का मन नहीं. दूसरे, पूजा करके भी नहीं चली थी.

मैं उनके मुंह की ओर देखने लगी. आज वह और दिनों से अधिक कोमल लग रही थीं. चेहरे पर खीझ और झुंझलाहट का नाम न था. रूखापन और पीलापन भी न था. मानो दुखते हुए जख्म पर किसी ने मरहम लगाकर दर्द को खींच लिया हो.

मैंने उत्सुकता से पूछा-तो आप पूजा करती हैं? यह अच्छा है. लेकिन ईश्वर के किस रूप की?

वह कुछ देर सोचकर बोली-रूप कोई भी हो. मैं तो मूर्ति की पूजा करती हूं. उतनी देर बड़ी शांति मिलती है. लेकिन उसके बाद फिर वही जलन...पीड़ा...असंतोष!

-पीड़ा और पूजा में भला क्या संबंध?-मैंने मुस्कराकर कहा.

-क्यों? सबंध क्यों नहीं हैं?...लगता है, आप ईश्वर को नहीं मानतीं. मेरी वेद भी नहीं मानती थी.-उन्होंने कहा.

कहीं नाराज न हो जायं, इसीलिए मैं धीरे से बोली-नहीं, ईश्वर को तो मैं मानती हूं. लेकिन अपनी सेवा-शुश्रुषा से इतनी सारी मानव-आत्माओं को आप जो सुख देती हैं, वह क्या परमात्मा की किसी पूजा से कम है?

-तो आप व्रत, नेम पूजा आदि को ईश्वर को पाने में सहायक नहीं मानतीं?-उन्होंने बड़ी सरलता से पूछा.

-जी, नहीं, मेरा तो विश्वास है कि व्रत-नेम से इन्द्रियों का जितना अधिक दमन कीजिए, उतनी ही तीव्रता से वे अपनी पूर्ति का मार्ग खोजती हैं. इससे विकृतियां उभर आती हैं. रोली-चावल लेकर केवल मूर्ति को पूजने से तो मन में जड़ता ही भरती है. जहां तक मैं समझ पायी हूं, मिस खरे, परमात्मा इस धरती की आत्माओं में ही है और प्रेम-द्वारा उसे पाया जा सकता है.

मिस खरे एकटक मुझे देख रही थीं.

-और जो व्यवहार को रूखा बना दे, अपने को कसनेवाले ऐसे धर्म के किसी भी मार्ग पर मेरी आस्था नहीं जम पाती. प्रेम ही ईश्वर है. हां, वह एक व्यक्ति या स्थान में केन्द्रित न होकर सबकी ओर विस्तृत हो. मानवता के प्रति प्रेम ही सबसे बड़ा धर्म है.

उन्होंने व्यग्र होकर मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा-तो, सच, प्रेम पाप नहीं है? ईश्वर कहीं और नहीं है?

-बिल्कुल नहीं, मिस खरे. प्रेम से ही सोयी आत्मा जागती है. ईश्वर हमसे कोई भिन्न प्राणी है, यह मानने को मैं तैयार नहीं. मनुष्य की सारी शक्तियां स्वयं उसी में छुपी हैं, उससे अलग कोई देवी शक्ति है, इस पर मेरा विश्वास नहीं टिक पाता. लेकिन, मिस खरे, आप व्यर्थ में इस-सबमें क्यों उलझ रही हैं?

अबकी बार वह मौन रहीं. शायद यह उनके लिए ईश्वर की एकदम नयी व्याख्या थी.

वह बड़ी देर तक योंही स्थिर बैठी रहीं. मैं उनके चेहरे के उतार-चढ़ाव देखती रही. अब वह दोनों हाथ मुंह के आगे लगाकर सिसक रही थीं. मैंने चाहा कि उन्हें चुप कराऊं, पर मेरी निगाह उनके हाथों से आगे बढ़ती हुई उनके अंगूठे पर ठिठक गयी. मेरी हिम्मत न पड़ सकी कि उनसे कुछ कहूं. मैं केवल उनके चेहरे को ढंकनेवाले उनके दोनों हाथों को देखती रह गयी.

अपने-आप ही उनका रोना जब कम हुआ, तो उठकर वह चुपचाप कमरे से बाहर चली गयीं. उनके जाते ही मुझे लगा कि सर्दी अचानक बढ़ गयी है और मैंने कम्बल को अपने चारों ओर कसकर लपेट लिया.

दूसरे दिन जब वह दवा देने आयीं, तो उनका चेहरा सूजा हुआ था. लग रहा था, रोकर आ रही हैं. कोई भी भाव उनके मुख पर न था. मैंने दवा लेकर रख ली. वह मौन ही कमरे से वापस हो गयीं. उनके जाते ही मैंने दवा एक ओर फेंक दी और डॉक्टर से कहला दिया, कोई दूसरी नर्स मेरे लिए नियुक्त की जाय तो बेहतर है.

मिस खरे को न आते आज तीसरा दिन था. मैं दोपहर की धूप-सेंक कर कमरे के भीतर आयी, तो सामने मेरे बिस्तर के पास वह खड़ी थीं.

उनको देखते ही मेरे पैर जहां-के-तहां रुक गये. मैं ऊपर से नीचे तक सिहर उठी. फिर भी सारा साहस बटोरकर मैंने कहा-बैठिए.

वह एकदम से मेरे पैरों के पास बैठकर बड़ी जोर से रो पड़ीं. मैंने पीछे हटते हुए अपने पैर छुड़ाने को कोशिश करते हुए पूछा-अरे, यह क्या करती हैं, मिस खरे? आपकी तबीयत तो ठीक है न? उठिए!

पर वह जोर से रो रही थीं और अस्फुट स्वर में कह रही थीं-देखिए, मैं वही-सब तो करती हूं, जो आप कहती हैं. सबसे प्रेम करती हूं. पर सच बताइए, क्या प्रेम पाप है? आज मुझे एकदम सच-सच बताइए!

मैंने घबराते हुए कहा-अरे, आज आपको हो क्या गया है? यह सब आपसे किसने कह दिया?

-आप कहती हैं, आप! मैंने अपनी बेद को आप में पाना चाहा था. पर आपने भी तो मेरे प्रेम पर शक किया!

ड्यूटी बदला दी. सच बतलाइए. क्या आप भी मुझसे डर गयीं?-उनका रोना और बढ़ता गया.

मेरा मन ग्लानि से भर उठा. मैंने कह दिया-अरे, यह नहीं, आप क्या कह रही हैं? मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा. भगवान के नाम पर थोड़ी देर के लिए चुप होइए.

वह चीख पड़ीं-फिर आपने भगवान का नाम लिया? अब मैं भगवान को नहीं मानती. प्रेम को भी नहीं मानती. प्रेम झूठ है, पाप है. ईर्ष्या, घृणा और बदला! मैं बस यही जानती हूं!-बोलते-बोलते उनका चेहरा क्रोध से लाल हो उठा.

मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था. फिर भी मैंने कहा-आप क्या कह रही हैं, स्पष्ट कीजिए न! प्रेम तो झूठ नहीं, पाप नहीं; वह तो स्वयं है. पर आप कहना क्या चाहती हैं, यह बताइए!

अबकी मुझसे एकदम सटकर मिस खरे बोलीं-तो फिर आप मुझसे डर क्यों गयीं? सच, आपने कैसे जाना कि...मैंने अमर से प्रेम किया और उसकी पत्नी बेद को दवा में धीरे-धीरे विष देती रही? सच बताइए, आपने कैसे जाना?

अब वह मेरे और निकट आ गयीं. मैं एकदम सहम और उनको छोड़ अलग खड़ी हो गयी. वह एकदम बिलख कर रो दीं-फिर...आपने मुझ पर विश्वास क्यों खो दिया? कैसे समझा कि मैं आपको भी...

वह सिसकती हुई रोये जा रही थीं मैं मौन ग्लानि और भय से उनके दाहिने हाथ के अंगूठे के दाग को देख रही थी, जिसके बारे में किसी ने कभी मुझसे कहा था कि यह हत्यारे के अंगूठे पर होता है.

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रचनाकार: प्राची - जून 2016 / धरोहर कहानी / अंगूठे का दाग / स्नेहमयी चौधरी
प्राची - जून 2016 / धरोहर कहानी / अंगूठे का दाग / स्नेहमयी चौधरी
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