व्यंग्य / आत्माओं की ऑडिट / अरविन्द कुमार खेड़े

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कहीं कुछ भारी गड़बड़ हो गयी थी । इसलिए भगवान को खुद इस मर्त्य लोक में आना पड़ा । छोटी-मोटी गड़बड़ होती तो भगवान आते ही क्यों ? अपने किसी छोटे-...

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कहीं कुछ भारी गड़बड़ हो गयी थी । इसलिए भगवान को खुद इस मर्त्य लोक में आना पड़ा । छोटी-मोटी गड़बड़ होती तो भगवान आते ही क्यों ? अपने किसी छोटे-मोटे गण-दूत को न भेज देते । यहां आते ही एकाएक मुझसे भेंट हो गयी । कहा मुझसे, मैं भगवान हूं ।

                ‘‘भगवान ? भगवान का यहां क्या काम ? साश्चर्य मेरे मुंह से निकल गया ।

                ‘‘हां, सचमुच भगवान हूं । ?

                ‘‘चलिए ठीक है, इधर कैसे आना हुआ ?

मेरे  प्रश्न का उत्तर नहीं दिया, उल्टे मुझसे पूछ लिया,‘‘सचमुच आपने मान लिया कि, मैं भगवान हूँ ? मैंने तो सुना था कि, इधर कोई किसी को इतनी आसानी से मानता नहीं है । प्रमाण देने पड़ते हैं । पुष्टि करनी होती है । हत्यारा, अपने हाथ में इंसान की कटी गर्दन लटकाकार खुद थाने तलब होता है । बात को बतंगड़ बनाये बिना सीधा-सच्चा कहता है कि, यह मैंने खून किया है. मुझे अंदर करो । हाथ में कटी हुई गर्दन, खून सना देखकर भी थानेदार बिल्कुल सहज भाव से पचासों सवाल करता है । कब किया ? क्यों किया ? कैसे किया ? और इतनी तफसील के बाद फिर केसैट यहां अटक जाती है कि, कोई सबूत है कि जिससे ये लगे कि यह खून तुमने किया हो ? हत्यारा, हाथ में खून से सना खंजर लहराकर दिखता है, कटी हुई गर्दन हिला-हिलाकर दिखाता है । सुनकर थानेदार दीवार पर पिचकारी मारते कहता है कि और कोई सबूत हो तो बताओ । ऐसे खून सना खंजर लेकर हाथ में कटी गर्दन लेकर तुम्हारे जैसे रोज पचासों हत्यारें यहां माथा-पच्ची करने चले आते हैं । सभी का यही जुमला रहता है । यदि उनके कहने पर उन सभी को ऐसे ही अंदर करते रहे तो चुकी ड्यूटी ? हो चुका अपराधों पर नियंत्रण ? दिख जरूर रहा है, मगर ऐसा लग कहां रहा है कि, तुम सच कह रहे हो ? फिर मेरी ओर मुखातिब हुए, जहां सच बात के पक्ष में भी सबूत देने हो, वहां आपने मेरी बात पर इतनी सरलता से भरोसा कर लिया ?

                ‘‘हां बाबा...मैं जान गया हूं कि, आप भगवान ही हो ।

                ‘‘मगर कैसे ? मैंने तो भगवानों की तरह वेष भी धारण नहीं किया है । फिर आप कैसे जान गये ?

                ‘‘यही कि, आप भगवान नहीं होते तो कहते, मैं दरिद्र हूं, मैं दुःखी हूँ, मैं मजबूर हूं, मैं लाचार हूं, परेशान  हूं, परित्यक्त हूं, मैं भूखा हूं, प्यासा हूं, आदि-आदि अर्थात नेति-नेति । मगर आपने ऐसा कुछ नहीं कहा ।

                ‘‘चलिए, बैठे गाड़ी पर । देर न कीजिए । कहीं उठाईगिरियों के हाथ लग गये तो आपको अंधा-लूला-लंगड़ा बनाकर जिंदगी भर भीख अपनी जिंदगी को तो स्वर्ग बना लेंगे । तब हो चुकी आपकी स्वर्ग लोक वापसी ?

                ‘कहां ?

                ‘‘मेरे घर और कहां ?

भगवान शायद  डर गये थे, तत्काल बैठ गये । मैंने गाड़ी स्टार्ट करते हुए कहा, ‘‘ये तो, आपकी किस्मत अच्छी थी कि इस धरती पर उतरते ही मुझसे मिलना हो गया। और मजे की बात यह कि स्त्री-बच्चे ननिहाल गये हुए हैं । नो झंझट । दोनों  मजे करेंगे ।

                ‘स्त्री घर पर नहीं है और मजे करेगें ? क्या मतलब आपका ? मैंने जो जीवन की गाड़ी को साझा रूप में बनाई है । स्त्री के बिना पुरूष नहीं, पुरूष के बिना स्त्री नहीं ।

                ‘‘क्या भगवान आप भी ना...........इधर चार दिन स्त्री के साथ रह कर देख लीजिए । आपके अर्द्ध-नारीश्वर के सारे कांसेप्ट्स  क्लीयर हो जाएगें । सिर्फ चार दिन.......।

गाड़ी मैंने कॉलोनी की तरफ मोड़ ली थी । भव्य मकानों को देखते हुए भगवान बोले,इंसानों के ठाठ-बाट के सामने तो आजकल हमारा वैभव फीका पड़ जाता है ।

मैं चुपचाप गाड़ी चलाता रहा । कॉलोनी के अंतिम छोर पर अंतिम मकान के सामने मैंने  गाड़ी रोक दी थी । यहां से बस्ती शुरू  होती है । जिसे शहर वाले ‘‘स्लम एरिया के नाम से जानते हैं । बीस बाय चालीस का मकान था । जिसे मकान मालिक ने दस बाय चालीस के दो हिस्सों में बनाया था । दो कमरे, बीच में किचन लेट-बाथ  ।

घर में प्रवेश  करते हुए मैंने कहा,अच्छा, आप फ्रेश  हो लो । जब तक मैं कड़क मीठी चाय बनाता हूं । सुनते हुए भगवान घर का मुआयना करने लगे । आगे के कमरे में आधी जगह सोफे ने धेर ली थी । पास में स्टडी टेबल रखी थी । टेबल पर किताबें, बस्ते, समाचार पत्र और अन्य सामग्री बिखरी हुई स्थिति में पड़ी हुई थी । फिर अंदर किचन का मुआयना किया । मुझे किचन से बाहर आना पड़ा । फिर लेट-बाथ  फिर अंत में बेडरूम के नाम से विख्यात कमरे में धुसे । कमरे में बीचों-बीच तीन बाय छः के दो दिवान आपस में चिपके हुए लगे थे । एक कोने में चद्दर की चौकोर कोठी और कोठी पर बिस्तर । दूसरे कोने में आल्मारी और लोहे की रेक । रेक पर व्यवस्थित रखे गये कपड़े भी बेतरबीबी का परिचय दे रहे थे । उपर रेक पर किताबें, और घरेलू सामान शोभा पा रहा था । मुआयने पश्चात सोफे पर बैठ गये थे । मैंने भगवान को थोड़ा चिढ़ाते हुए कहा,अपने तो ठाठ है भगवन। भगवान ने मेरी तरफ देखा था । लग रहा था जैसे उनके कहीं कुछ अंदर कुछ घट रहा हो ।

चाय का कप उनकी ओर बढ़ाते हुए मैंने कहा,हांलाकि हमारा प्रेम विवाह है । लेकिन अक्सर रात को गुजरता हूं तो मुझे लगता है, प्यार करने को अदद दिल काफी नहीं होता, जब तक कि आपकी अंटी में माल न हो । जब भी स्त्री के मन को छूने की कोशिश करता हूं, लगता है दो कमरों का मकान कभी घर नहीं हो सकता । पर क्या करूं ? ज्यादा बड़ा घर,ज्यादा बड़ा किराया । छोटा घर, छोटा किराया ।

हांलांकि भगवान ध्यान से सुन रहे थे । अचानक मुझे लगा, आते ही मैंने भी ये क्या चेप्टर छेड़ दिया ? भगवान क्या सोच रहे होंगे ? यह सोचकर चुप हो गया ।

                ‘‘चाय बहुत अच्छी बनाते हो ।

चाय पी चुकने के बाद अब हम आमने-सामने थे ।

                ‘अच्छा बताइये भगवान, ऐसी क्या मुसीबत आन पड़ी कि, आपको स्वर्ग लोक से इस लोक में आना पड़ा ?

मेरे ठाठ-बाठ को देखकर भगवान अपनी चिंता को भूल बैठे थे, पूछा तो भूली हुई चिंता याद आ गयी, बोले,  हमें अभी-अभी ऑडिट रिर्पोट प्राप्त हुई है, जिसमें भारी गड़बड़ी का उल्लेख किया गया है ।

                ‘‘ऑडिट ? गड़बड़ी ?

                ‘‘हां, भई, हमें भी एक-एक आत्मा का हिसाब रखना पड़ता है । मजाल कि एक भी आत्मा इधर से उधर हो जाए । गड़बड़ी यह हुई कि, ‘‘भगवान ने पांच आत्माओं को बिना बुद्धि के मृत्यु लोक में भेज दिया है । आपत्ति पर हंगामा उठा तो जांच कराई । जांच कराई तो पता चला, आपत्ति जायज है । मेरे पास आत्माएं अंतिम चरण में आती है । उनमें बुद्धि डालने का काम मैंने अपने हाथों में ले रखा है । बुद्धि के मामले में मुझे किसी पर भरोसा नहीं है । हुआ यूं कि, एक दिन मृत्यु लोक में भेजने के लिए मेरे पास आत्माओं की खेप आयी । मैं उनमें बुद्धि डाल रहा था । चार-पांच आत्माएं शेष  रह गयी थी कि, अचानक घर से फोन आया, अर्जेन्ट । मैंने पांच मिनिट का समय चाहा था । लेकिन उधर से इमरजेंसी सुनकर दौड़ा-भागा । डयूटी पर उपस्थित मातहत को हिदायत देकर कि, इनमें अभी बुद्धि डालने का काम बाकी है । अभी इन्हें रवाना मत करना । मैं बस यूं गया और यूं आया ।

कुछ पल रूकर भगवान बोले, गया तो मैं बस यूं ही था, लेकिन यूं लौटना न हुआ । मातहत थोड़ी देर इंतजार करता रहा । फिर उसकी शिफ्ट का  समय समाप्त हो चुका था । घर जाने की हड़बड़ी में वह रिलीवर को बताना भूल गया, और रिलीवर ने यह सोचकर कि, भगवान ने इनमें बुद्धि डाल दी होगी, यह समझ कर रिलीवर ने उन पांच आत्माओं का भीडिलेवरी चालान काट दिया । अपनी बात समाप्त करते हुए भगवान ने कहा, मैं उन आत्माओं को वापस लेने आया हूं ।

एक गहरी सांस खींच कर इन चेतन आत्माओं के सवाल पर जड़वत होकर मैंने कहां,दुनियां में कईं देश  हैं, पता नहीं वे आत्माएं किस देश  में गयी होगी ? आप इतने भरोसे के साथ कैसे कह सकते हैं कि, वे आत्माएं इसी देश  में आयी है ?

भगवान थोड़ा हंसते हुए बोले, मुझे पक्का भरोसा है, वे आत्माएं इसी देश  में आयी होगी ?

                ‘‘इस भरोसे की कोई खास वजह ?

                ‘‘स्वर्ग लोक में हमने भी भारत की तारीफ सुन रखी है । भारत एक सहिष्णु देश है । एक उदार देश  है । अन्य देश  आधी-अधूरी आत्माओं को कभी बरदाश्त नहीं करते । अब तक तो वे कब के मार-काट के लौटा चुके होते ?

                ‘‘हां, ये बात तो है । अपने देश  की तारीफ सुन मेरा सीना चौड़ा हो गया । गर्व से सिर उठाया । और एक हिन्दुस्तानी होने का परिचय दिया । सीना इसलिए चौड़ा हुआ, सिर इसलिए गर्व से उठाया कि, देश  के मसले पर यदि देश भक्ति न दिखायी तो, उसे यहां सबसे बड़ा देशद्रोही माना जाता है । भले ही वह मन ही मन अपने देश  से प्यार करता हो । देश  पर गर्व करता हो । यदि सच्चे देश  भक्त हो तो जताओ, वरना जूते पड़ेगे ।

                ‘‘चलिए, मैं ढूंढता हूं उन आत्माओं को ।

                ‘‘मैं भी साथ में रहूंगा ।

                ‘‘आपको इस शहर की आबो-हवा का जरा-सा भी इल्म नहीं है । कब शहर में अफरा-तफरी मच जाए, कब बलवा हो जाए, कब आगजनी हो जाए, कब राहजनी हो जाए, दंगे भड़क उठे, कब एक्सीडेंट हो जाए ? कुछ कहा नहीं जा सकता ? आप इत्मीनान से घर में रहो, टीवी देखो, किताबें पढ़ो ।

                ‘‘तुम ड्यूटी पर नहीं जाओगे ?

                ‘‘मार्च एन्ड चल रहा है । सप्ताह भर की छुट्टी ले लूंगा । वैसे भी अफसर मुझे जबरिया छुट्टी पर भेजने वाला था । यदि न उतरता तो जबरिया छुट्टी का आदेश  घर पर चस्पा करने आ जाते ।

भगवान से मैंने उन आत्माओं का पूरा ब्यौरा लिया ।

तापमान एकदम से बढ़ गया था । गरम हवाएं चलने लगी हैं । घूप एकदम से तेज होकर चटक गयी है । ढूंढते-ढूंढते दोपहर हो गयी थी । कहीं पता न चला । चौराहे पर आकर गाड़ी रोक ली, फिर पास में गन्नेवाले के ठेले के पास जाकर टेक दी । एक गिलास रस का आर्डर दिया । मैं देख रहा हूं आवाजाही कम हो गयी है । सांय-सांय करते सन्नाटे में बीच चैराहे पर ट्रेफिक पुलिस का जवान मुस्तैदी से अपनी ड्यूटी कर रहा था । बीचों-बीच चैराहे पर बने गोल चबूतरे पर तनी छोटी-सी छतरी से सिर्फ उसकी गर्दन तक का हिस्सा ही छांव में आ पा रहा था । इतने में एक और गाड़ी मेरे पास आकर रूकी । खाली मुड्डा खींचते हुए गाड़ीवान ने दो गिलास रस का आदेश  दिया था । फिर उसने ट्रेफिक पुलिस वाले जवान से कहा,आओ हेड़ साब, कुछ ठंडा पी लो ।

हेड़ साब ने मंद मुस्कुराते हुए दोनों हाथ जोड़ते हुए कृतज्ञ भाव से नहीं कहा था और बाद में धन्यवाद भी । युवक ही उठा, एक हाथ में गिलास लिया और जवान के पास जाकर बोला,लो, पीओ साहब ।

पता नहीं क्या हुआ । जवान इस अनुरोध को ठुकरा नहीं सका ।

लौटकर मैंने पूछा, जान-पहचान के होंगे ?

                ‘‘नहीं, उसने संक्षिप्त उत्तर दिया ।

                ‘‘फिर ?

                ‘‘फिर क्या ? देख नहीं रहे हो, इतनी गर्मी में बेचारे की क्या हालत हो रही होगी ?

                ‘‘लेकिन यह तो उसकी ड्यूटी है ।

                ‘‘आपको सिर्फ उसकी ड्यूटी दिखाई दे रही है । वह अपनी ड्यूटी के साथ किसी प्रकार की कोई मक्कारी नहीं कर रहा है, यह नहीं देख पा रहे हैं आप ?

                ‘‘मक्कारी ?

                ‘‘चाहता तो वह चौराहे के आस-पास किसी दुकान, किसी गुमटी पर बैठकर दोहपरी की फरारी काट सकता था । लेकिन वह ऐसा नहीं कर रहा है । कहते हुए उसने दो गिलास रस के पैसे चुकायें और चलता बना ।

शाम को लौटा तो, एकाएक भगवान ने पूछा, क्या हुआ ? मिला ?

                ‘‘नहीं.. सोफे पर धंसते हुए मैंने कहा, लेकिन एक अजीब आदमी से आज पाला पड़ा ।

                ‘‘अजीब आदमी ?

मैंने भगवान को विस्तार से घटना बतायी थी । एकाएक भगवान के चेहरे पर मुस्कान तैर गयी । ‘‘पहला दिन और दो आत्माएं, भगवान अस्फुट स्वर में बुदबुदाए थे ।

दूसरे दिन भी दोपहर हो गयी थी । उन आत्माओं का अब तक कोई पता नहीं चला था । आगे जाकर देखा कि, बीच रास्ते पर भीड़ इकठ्ठा हो गयी है । रास्ता जाम हो गया था । गाड़ी साईड में खड़ी कर भीड़ को चीरते हुए मैंने देखा, एक आदमी जख्मी हालत में बीच सड़क पर लहुलूहान पड़ा हुआ है । पास में गाड़ी पड़ी हुई है । खून से लथपथ । जाहिर है एक्सीडेंट हुआ होगा । किसी ने ठोक दिया होगा । मैंने देखा, लोग पुलिस थाने, अस्पताल आदि को फोन लगाते चीख-पुकार रहे थे । अफरा-तफरी मची थी । लेकिन कोई सामने नहीं आ रहा था । इतने में एकाएक एक नवयुवक घुसा, जख्मी पड़े युवक को अपने दोनों हाथों में उठाया, ऑटो  बुलाया, और निकल पड़ा । कौतूहलवश  मैं भी उसके पीछे-पीछे हो लिया ।

वह उसकी जान बचाना चाहता था । इसलिए सरकारी अस्पताल छोड़ सीधा निजी अस्पताल पहुंचा । देखते ही अस्पताल वाले बोले,पुलिस केस है, पहले आप रपट लिखवाइये ।

                ‘‘आप इलाज शुरू कीजिए, मैं रपट लिखवाता हूं ।

                ‘‘कांउटर पर पैसे जमा करा दीजिए ।

                ‘‘कहीं आप-पास एटीएम है क्या ?

                ‘‘यहां से थोड़ी -सी दूर पर राइट साईड मुड़ जाइए ।

मैं मूकदर्शक देख रहा था । वह एटीएम से लौटा, तब तक पुलिस आ चुकी थी । पुलिस ने उस युवक से पूछा, तुम जानते हो ? तुम्हारा रिश्तेदार है ?

                ‘‘मैं तो जानता तक नहीं इसे । बीच सड़क पर जख्मी हालत में पड़ा था ।

                ‘‘जानते हो, तुम्हें गवाही आदि के लिए बार-बार कोर्ट-कचहरी आना होगा ? और यदि मामला वीआईपी हुआ तो फिर धौंस-धमकी ?

                ‘‘हां, जानता हूं । युवक ने दृढ़तापूर्वक और बेपरवाही पूर्वक कहा था ।

उस युवक ने भर्ती कराया, रपट लिखाई, और सगे-संबंधियों को बुलाया, तब कही जाकर वह युवक फारिग हुआ । इस चक्कर में मैं भी घर देर से पहुंचा । पहुंचते ही भगवान ने अपना सवाल दोहराया । मैंने भी अपना पुराना उत्तर इस बार फिर से दोहराया था, ‘‘कहां, भगवान ? आज तो गजब ही हो गया ? एक पागल आदमी से पाला पड़ गया ।

                ‘‘पागल आदमी ?

भगवान को मैंने अपना आंखों देखा पूरा हाल सुनाया था । एकाएक भगवान के चेहरे पर मुस्कान तैर गयी थी । दूसरा दिन और तीसरी आत्मा ? भगवान बुदबुदाये थे ।

अगले दिन इतवार था । मतलब इस दिन आराम से उठना, आराम से खाना पीना और दिन भर सोना, शाम को घूमने जाना और आकर फिर सो जाना । इतवार यानी पूरी छुट्टी । इतवार याने एक दिन निरर्थक बुढ़ाना, इतवार यानी उम्र को पकाना ।

अगले दिन भी जब खाली लौटा तो, भगवान निराश हो गये थे । इस दिन कोई घटना मेरी जानकारी में नहीं थी । लेकिन भगवान निराश  नहीं हुए थे, बोले,अच्छा बताओ, ऐसे किसी आदमी को जानते हो जो पागल हो....आई मीन....सनकी हो, निरे मूर्खो की तरह की तरह हरकतें करता हो ?

                ‘‘इसके लिए आपको दूर जाने की जरूरत नहीं । हमारे पड़ोस में रहने वाले मिस्टर गोपाल को ही ले लो । ऐसी हरकतें करते हैं, जैसे बुद्धि घास चरने गयी हो ।

                ‘‘कैसी हरकतें ?

                ‘‘अब देखो न ? वो सामने पीपल के पेड़ के नीचे कुतिया दिखाई दे रही है ना..... खिड़की के बाहर दूर इशारा  करते हुए मैंने कहा था ।

                ‘‘हां, साथ में पिल्ले भी दिखाई दे रहे हैं ।

                ‘‘अभी एक पखवाड़े पहले उस कुतिया ने चार-पांच पिल्ले-पिल्लियों को जन्म दिया था । मिस्टर गोपाल ने ताबड़तोड़ दलिया पिसवाई थी । करीब सप्ताह भर तक उस कुतिया को खिलाई । ऐसे तो सनकी हैं मिस्टर गोपाल ?

अचानक भगवान चहक उठे,मैं उनसे मिलना चाहता हूं ?

                ‘‘अभी वो घर पर नहीं हैं ।

                ‘‘कहां गये होगें ?

                ‘‘बाहर हैं, एक सप्ताह पहले उनके पुत्र का एक्सीडेंट हुआ था । पांव में रॉड  डली है । अस्पताल में हैं ।

                ‘‘ओह..सॉरी .....।

                ‘‘अब देखिये न , मिस्टर गोपाल के सनकी होने का दूसरा नमूना ?

                ‘‘दूसरा नमूना ?

                ‘‘न उन्होंने पार्टी के खिलाफ पुलिस थाने में न रपट लिखवाई है, न पार्टी से कोई पैसा ले रहे हैं । अस्पताल का सारा खर्चा खुद ही उठा रहे हैं । जबकि पार्टी दसियों बार मिन्नतें कर चुकी है ।

एकाएक भगवान के चेहरे पर मुस्कान तैर गयी थी । ‘‘चौथा दिन और चौथी आत्मा ? भगवान बुदबुदाए थे ।

खाना खाने के बाद ऐसी ही गपशप कर रहे थे कि, अचानक भगवान का फोन घनघना उठा, आपके चले जाने से इधर हाहाकर मचा हुआ है । सब काम ठप्प हो गया है । तुरंत चले आओ ।

                ‘‘लेकिन अभी एक आत्मा को ढूंढना बाकी है ।

                ‘‘आप तो आ जाओ बस.......इधर एक विशेष  सत्र बुलाया गया था । लगे हाथों इन आपत्तियों का भी निराकरण करा लिया गया है । आपत्तियां विलोपित करा ली गयी है । अब कोई दिक्कत नहीं है । तुरंत चले आओ ।

बात खत्म होते ही मैंने पूछा, क्या बात हो गयी भगवान ?

भगवान ने अपनी चर्चा का सार बताया । अब मुझे जाना होगा । चार आत्माओं का पता चल गया है । अफसोस रहेगा, एक आत्मा का पता नहीं चल पाया । भगवान ने इजाजत लेनी चाही थी । बात मेरी इजाजत पर आ गयी थी । इसलिए मैंने भी अपने अधिकार का फायदा उठाया । सुबह जाने को कहा था, और भगवान को मानना पड़ा था ।

फिर बातचीत का दौर चल पड़ा । मैंने कहा, अभी आपने कहा कि चार आत्माओं का पता चल गया है । आपने कैसे पता लगाया ? जबकि आप तो बाहर गये ही नहीं ? आप तो घर पर ही रहे थे ।

भगवान ने मेरी बात टाल दी थी । कहा, अरे ? इतने दिन तुम्हारे साथ रहा, तुमने मेरा ध्यान रखा, और मैने ये तो पूछा ही नहीं कि तुम करते क्या हो ?

                ‘‘मैं ? मैंने कहा, एक सरकारी दफतर में बाबू हूं । ?

                ‘‘बाबू हो ? और ये हाल .....भगवान ने बात अधूरी छोड़ दी थी ।

                ‘‘बाबू हूं और कवि भी हूं भगवान ।

                ‘‘कवि भी हूं से क्या मतलब ?

                ‘‘मतलब कि कवि सिद्धांतों के पक्के होते हैं । चाहे कितना भी संकट आ जाए चाहे कितनी भी विपत्ति आ जाएं, कभी अपनी आत्मा का सौदा नहीं करते ....कभी .अपने जमीर को कभी गिरवी नहीं रखते । ?

                ‘‘ऐसे होते हैं कवि ?

फिर भगवान ने उपकृत करना चाहा, खैर, तुम्हारी कोई ख्वाहिश  तो तो बताओ ।

                ‘‘मैं बहुत खुश  हूं भगवान । मैं बहुत छोटा आदमी हूं, और मेरी खुशियाँ भी छोटी-मोटी है, मेरी जरूरतें भी छोटी-छोटी है, मैं बड़े आराम से अपनी आवश्यकताओं को पूरी कर लेता हूं । मैं रात भर उकड़ू सो लेता हूं, लेकिन कभी अपने पांव चादर से बाहर नहीं फैलाता । मेरी कोई ख्वाहिश तो नहीं है, एक छोटी-सी गुजारिश है...........।

                ‘‘कैसी गुजारिश....?

                ‘‘बस इतनी कि.....अगली बार किसी को बाबू बनाओ तो उसमें कवि की आत्मा मत डालना....नहीं तो सारी जिंदगी बेचारे बाबू की स्त्री अपनी किस्मत को कोसती रहेगी ।

अचानक रात को मेरी नींद उचट गयी । उठकर देखा भगवान बिस्तर से गायब मिले । मतलब बिना बताए ही चले गये थे । इसलिए भगवानों पर कोई भरोसा नहीं करता । भगवान अपने वचन पर कायम नहीं रहते । कहते हैं, यदा-यदा ही धर्मस्य.............। कितना कुछ नहीं घट रहा है आजकल ? क्या-क्या मंजर देखने नहीं पड़ रहे हैं आजकल ? अपनी आंखें नोच लेने को दिल करता है । लेकिन कहां है भगवान ? कहां है उनका वचन ? मुझे कहा था, सुबह जाउंगा, रात में ही निकल लिये । चले ही गये होगे, सोचकर मैं फिर से सो गया ।

सुबह उठा तो देखा, टेबल पर कागज का एक टुकड़ा फड़फड़ा रहा था । मैंने ऊंघते हुए हाथों में लिया और पढ़ने लगा, तुम्हारे प्रश्नों  का उत्तर दे रहा हूं । इन चार दिनों में जिन चार लोगों का तुमने जिक्र किया, जरा सोचो, यदि इनमें जरा-सी भी बुद्धि होती, तो क्या ये बुद्धिमानों की तरह नहीं सोचते ? अपना स्वार्थ नहीं साधते ? तब तो हो चुकी दूसरों की भलाई ? हो चुकी दूसरों की मदद ? हो चुका परमार्थ ? तुम्हें जानकर खुशी होगी कि, मुझे पांचवीं आत्मा ? का भी पता चल गया है ।

                ‘‘पांचवीं आत्मा  ? अचानक मैं नींद से जागा ।

                ‘‘अब ये पांचवीं आत्मा किसकी है ?

फिर मैंने आगे पढ़ना जारी रखा, पृथ्वी पर की गयी मेरी यह, विजिट ? मेरे लिए बहुत मायने रखेगी । सोच रहा हूं, हजारों में से एक-आध आत्मा को बिना बृद्धि के पृथ्वी पर भेजा करूं ? देवताओं के सामने अपनी बात रखूंगा । देखो, क्या हो सकता है ?

ऐसा गजब न करना भगवान ? बेचारे वे दर-दर की ठोकरें खाते फिरेंगे, मारे-मारे जियेंगे, न मरेंगे , न जियेंगे, और इस भी तसल्ली न हुई तो बेचारे बेमौत मारे जायेंगे । खुद ही चौंक उठा, किससे कह रहा हूं मैं ? कौन है यहां , कौन सुन रहा है मुझे ?

-अरविन्द कुमार खेड़े

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परिचय-

नाम- अरविन्द कुमार खेड़े (Arvind Kumar Khede)

आत्मज-श्रीमति अजुध्या खेड़े / स्व.श्री रेवाराम जी खेड़े

वर्तमान पता- २०३ सरस्वती नगर, धार, जिला-धार, मध्य प्रदेश-४५४००१ (भारत)

जन्मतिथि- २७ अगस्त,१९७३  

शिक्षा-एम.ए.

सम्प्रति-शासकीय नौकरी.

विभाग- लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग मध्य प्रदेश शासन

पदस्थापना- कार्यालय मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी, धार जिला धार मध्य प्रदेश-पिन-४५४००१ (भारत)

प्रकाशन-

1-पत्र-पत्रिकाओँ में रचनाएं प्रकाशित.

2-कविता कोष डॉट कॉम एवं हिंदी समय डॉट कॉम में कविताएं एवं व्यंग्य सम्मिलित.

3-साझा कविता संकलनों में कविताएं प्रकाशित.

(समय सारांश का-संपादन-बृजेश नीरज/अनवरत भाग-२-संपादन-भूपाल सूद/काव्यमाला-संपादन -के.शंकर सौम्य )

4-व्यंग्य संकलन-भूतपूर्व का भूत-अयन प्रकाशन दिल्ली-२०१५

5-निकट भविष्य में एक व्यंग्य एवं एक काव्य संग्रह के प्रकाशन की सम्भावनाएं हैं

मोबाइल नंबर-९९२६५२७६५४

ईमेल- arvind.khede@gmail.com

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: व्यंग्य / आत्माओं की ऑडिट / अरविन्द कुमार खेड़े
व्यंग्य / आत्माओं की ऑडिट / अरविन्द कुमार खेड़े
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