ऐतिहासिक कथा / मुण्डमाल / आचार्य शिवपूजन सहाय

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आज उदयपुर के चौक में चारों ओर बड़ी चहल-पहल है । नवयुवकों में नवीन उत्साह उमड़ उठा है । मालूम होता है कि किसी ने यहां के कुओं में उमंग की भंग ...

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आज उदयपुर के चौक में चारों ओर बड़ी चहल-पहल है । नवयुवकों में नवीन उत्साह उमड़ उठा है । मालूम होता है कि किसी ने यहां के कुओं में उमंग की भंग घोल दी है । नवयुवकों की मूछों में ऐंठ भरी हुई है । आँखों में ललाई छा गई है । सब की पगड़ी पर देशानुराग की कलगी लगी हुई है । हर तरफ से वीरता की ललकार सुन पड़ती है । बाँके लड़ाके वीरों के कलेजे रण-भेरी सुनकर चौगुने होते जा रहे हैं । नगाड़ों से तो नाकों में दम हो चला है । उदयपुर की धरती धौंसे की धुधुकार से डगमग कर रही है। रणरोप से भरे हुए घोड़े डंके की चोट पर उड़ रहे हैं । मतवाले हाथी हर ओर से काले मेज की तरह उमड़े चले आते हैं । धंटों की आवाज से समूचा नगर गूँज रहा है । शस्त्रों की झनकार और शंखों के शब्द से दसों दिशाएँ सरस शब्दमयी हो रही हैं । बडे अभिमान से फहराती हुई विजय-पताका राजपूतों की कीर्ति-लता-सी लहराती है । स्वच्छ आकाश के दर्पण में अपने मनोहर मुखड़े निहारनेवाले महलों की ऊँची-ऊँची अटारियों पर चारों ओर सुन्दर सुहागिनियाँ और कुमारी कन्याएं भर-भर अंचल फूल लिये खड़ी हैं । सूरज की चमकीली किरणों की उज्ज्वल धारा से धोए हुए आकाश में चुभनेवाले कलश, महलों के मँडेरों पर मुस्किरा रहे हैं । बन्दी-वृन्द विशद विरुदावली बखानने में व्यस्त हैं

महाराज राजसिंह के समर्थ सरदार चूड़ावत जी आज औरंगजेब' का दर्प-दलन करने और अन्धा-धुन्ध अन्धेर का उचित उत्तर देने वाले हैं । यद्यपि उनकी अवस्था अभी अठारह वर्ष से अधिक नहीं है तथापि जंगी जोश के मारे थे इतने फूल गये हैं कि कवच में नहीं अँटते, उनके हृदय में सामरिक उत्तेजना की लहर लहरा रही है । घोड़े पर सवार होने के लिए वे ज्यों ही हाथ में लगाम थामकर उचकना चाहते है, त्यों ही अनायास उनकी दृष्टि सामने वाले महल की झँझरीदार खिड़की, पर, जहां उनकी नवोढा पत्नी खड़ी है, जा पड़ती हैं ।

हाडा-वंश की सुलक्षणा सुशीला और सुन्दरी सुकुमारी कन्या से आप का ब्याह हुए दो-चार दिनों से अधिक न हुए. होंगे ।। अभी नवोढ़ा रानी के .हाथ का कंकण हाथ ही की शोभा बढ़ा रहा है । अभी कजरारी आंखें अपने ही रंग में रँगी हुई हैं । पीत पुनीत चुनरी भी अभी धूमिल नहीं होने पाई है, सोहाग का सिन्दूर दुहराया भी नहीं गया है । फूलों की सेज छोड्‌कर और कहीं गहनों की झनकार भी नहीं सुन पड़ी है । अभी पायल की रुन--झुन ने महल के एक कोने में ही बीन बजाई है । अभी घने पल्लवों की आड़ में ही कोयल कुहकती है । अभी कमल-सरीखे कोमल हाथ पूजनीय चरणों पर चन्दन ही भर चढ़ा पाये हैं । अभी संकोच के सुनहरे सीकड़ में बँधे हुए नेत्र लाज ही के लोभ में पड़े हुए हैं । अभी चाँद बादल ही के अन्दर छिपा था, किन्तु नहीं, आज उदयपुर की उदित विदित .शोभा देखने के लिए धन-पटल में से अभी-अभी वह प्रकट हुआ' है ।

चूड़ावतजी, हाथ में लगाम लिये ही, बादल के जाल से निकले हुये उस पूर्णचन्द्र पर टकटकी लगाए खड़े हैं । जालीदार खिड़की से छन-छनकर आनेवाली .चांद की चटकीली चांदनी ने चूड़ावत-चकोर को आपे से बाहर कर दिया है! हाथ की लगाम हाथ ही में है,'मन की लगाम खिड़की में है, नये प्रेम-पाश का प्रबल बन्धन प्रतिज्ञा-पालन का पुराना बन्धन ढीला कर रहा है । चूडावतजी का चित्त चंचल हो चला । वे झटपट चन्द्र-भवन की ओर चल पड़े । वे भी यद्यपि चिन्ता में चूर हैं पर चन्द्र-दर्शन की चोखी चाट लग रही 'है । वे संगमर्मरी सीढ़ियों के सहारे चन्द्र-भवन पर चढ़ चुके; पर जीभ का जकड़ जाना जी को जला रहा है । हृदयहारिणी हाड़ा रानी भी हिम्मत .करके, हलकी आवाज से बोली, 'प्राणनाथ मन मलीन क्यों है? मुखारविन्द क्यों मुर्झाया है? मैं न तन में तेज ही देखती हूँ, न शरीर में शांति ही; ऐसा क्यों? भला उत्साह की जगह उद्वेग का क्या काम है? उमंग में उदासीनता ?

कहा से चू पड़ी ? क्या कोई शोक-संवाद सुना है जबकि सभी सामंत- सूरमा संग्राम के लिए सज-धजकर आप ही की आज्ञा की आशा में अटके हुए हैं, तब: क्या कारण है कि आप व्यर्थ व्याकुल हो उठे । उदयपुर के बाजे-, गाजे के तुमुल शब्द से दिगदिगन्त डोल रहा है । वीरों के हुंकार से कायरों के. कलेजे भी कड़े हो! रहे हैं । भला ऐसे अवसर पर आपका चेहरा क्यों उतरा हुआ है । लड़ाई की ललकार सुनकर लगड़ों-इलों को भी लड़ने की लालसा लग जाती है । फिर आप तो क्षात्र-तेज से भरे हुए क्षत्रिय हैं । प्राणनाथ, इसे को: शिथिलता नहीं शोभती । क्षत्रिय का छोटा-मोटा छोकरा भी क्षण-भर में शत्रुओं को छील-छालकर छुट्टी कर देता है । परन्तु आप प्रसिद्ध पराक्रमी होकर क्यों पस्त पड़ गए हैं ?''

चूड़ावतजी चंद्रमा में चपला की-सी चमक-दमक देख, चकित होकर बोले, ''प्राणप्यारी! रूपनगर के राठोर-वंश की राजकुमारी को दिल्ली का बादशाह बलात ब्याहने आ रहा है । उसके पहले ही वह राजकन्या हमारे माननीय राणाजी को वर चुकी है । कल पौ फूटते ही राणाजी रूपनगर की राह लेंगे । हम बीच ही में बादशाह की राह रोकने के लिए रण-यात्रा कर रहे हैं । शूर-सामन्तों की सैकडों सजीली सेनायें साथ में हैं तो सही, परन्तु हम लड़ाई से अपने लौटने का लक्षण नहीं देख रहे है' । फिर कभी भर-नजर तुम्हारे चन्द्र-बदन को देख पाने की आशा नहीं है । इस बार घनघोर युद्ध छिडेगा । हम लोग मन मनाकर जी-जान से लड़ेंगे । हजारों हमले हड़प हो जायेंगे । समुद्र-सेना भी मथ डालेंगे । हिम्मत भी हजार गुनी है मगर मुगलों से. मुठभेड़ में महज' मुट्ठी-भर मेवाड़ी वीर क्या कर सकेंगे? तो भी हमारे ढलैत,. कमनौत और बानैत ढाढ़स बांधकर डट जायेंगे । हम सत्य की रक्षा' के लिए' पुर्जे-पुर्जे कट जायेंगे-प्राणेश्वरी । किन्तु हमको केवल तुम्हारी ही चिन्ता बेढब सता रही: है । अभी चार ही दिन हुए कि तुम-सी सुहागिन दुलहिन हमारे हृदय में उजेला करने के लिये आई है । अभी किसी दिन तुम्हें इस तुच्छ। संसार की क्षणिक छाया में विश्राम करने का भी अवसर नहीं मिला है । यह, किस्मत की करामात है एक ही गोटी में सारा खेल मात है । किसे मालूम था कि, एक तुम-सी अनूप रूपा कोमलांगी के भाग्य में: ऐसा भयंकर लेख होगा! अचानक रंग में भंग होने की आशा सपने मैं, भी न थी! किन्तु ऐसे अवसरों पर क्षत्रियों की परीक्षा हुआ करती है । संसार के सारे सुखों की तो' बात ही क्या, प्राणों की भी आहुति देकर क्षत्रियों को अपने कर्त्तव्य का पालन करना पड़ता है ।''

हाड़ा रानी हृदय पर हाथ धरकर बोली, ''प्राणनाथ सत्य और न्याय रक्षा के लड़ने जाने के समय, सहज-सुलभ सांसारिक सुखों की बुरी वासना को मन में धर करने देना आपके समान क्षत्रिय-कुमार का काम नहीं. है । आप अपने मनोहर सुख के फंदे में फँसकर अपना जातीय कर्त्तव्य मत. भूलिये । सब प्रकार की वासनाओं और व्यसनों से विरक्त होकर इस समय केवल वीरत्व धारण कीजिये । मेरा मोह छोड़ दीजिये । भारत की महिलाएँ स्वार्थ के लिये सत्य का' संहार करना नहीं चाहतीं । आर्य महिलाओं के लिये समस्त संसार की सारी सम्पत्तियों से बढ़कर 'सतीत्व ही अमूल्य धन है!' जिस दिन मेरे तुच्छ सांसारिक सुखों की भोग-लालसा के कारण मेरी एक प्यारी बहन का सतीत्व-रत्न लुट जायगा' उस दिन मेरा जातीय गौरव-अरावली-- शिखर चकनाचूर हो जाएगा । यदि नव-विवाहिता उर्मिलादेवी ने वीर शिरो-- मणि लक्ष्मण को सांसारिक सुखोपभोग के लिए कर्त्तव्य-पालन से विमुख कर दिया होता, तो क्या कभी लखनलाल को अक्षय यश लूटने का अवसर मिलता? वीर-बहूटी उत्तरादेवी ने यदि अभिमन्यु को भोग-विलास के भयंकर बन्धन में जकड़ दिया होता तो क्या वह दुर्लभ गति को पाकर भारतीय क्षत्रिय नन्दनों मैं अग्रगण्य होते? मैं समझती हूँ कि, यदि तारा की बात मानकर बाली भी, घर के कोने में मुँह छिपाकर डरपोक जैसा छिप गया होता, तो उसे वैसी पवित्र मृत्यु कदापि नसीब न होती । सीतादेवी कीं सतीत्व-रक्षा के. लिए जरा-जर्जर जटायु ने अपनी जान तक गँवाई जरूर, लेकिन वह कीर्ति कमाई और बधाई पाई, जो आज तक किसी कवि की कल्पना में नहीं समाई । वीरों का यह रक्त-मांस का शरीर अमर नहीं होता बल्कि उनका उज्जवल यशोरूपी शरीर ही अमर होता है । विजय-कीर्ति ही.. उनकी अभीष्ट-दायिनी कल्पलतिका है । दुष्ट शत्रु का रक्त ही उनके लिए शुद्ध गंगाजल से भी बढ़कर है । सतीत्व के अस्तित्व के लिए रणभूमि में ब्रजमण्डल की-सी होली मचाने वाली खड़ग-देवी ही उनकी सती सहगामिनी है । आप सच्चे राजपूत हैं; इसलिए सोत्साह जाइये और जाकर एकाग्र मन से अपना कर्त्तव्य पालन कीजिए । मैं भी यदि सच्ची राजपूत-कन्या हूँगी तो शीघ्र ही आप से स्वर्ग जा मिलूंगी । अब विशेष विलम्ब करने का समय नहीं है ।''

चूडावत जी का चित्त हाडा रानी के हृदय रूपी हीरे को परख कर पुलकित हो उठा। प्रफुल्लित मन से चूड़ावत जी ने रानी को बार-बार गले लगाया, पारस के ही हृदयों के आलिंगन से मिट्टी की काया भी कंचन हो जाती है । चूड़ावत जी आप-से-आप कह उठे, ''धन्य दैवी । तुम्हारे विराजने के लिए वस्तुत: हमारे हृदय में बहुत ही ऊंचा सिंहासन हे । अच्छा अब हम मरकर अमर होने जाते हैं । देखना प्यारी! कहीं ऐसा न हो कि,'-कंठ गद्‌गद् हो गया ।

रानी ने फिर उन्हें आलिंगित करके कहा-'प्राणप्यारे! इतना अवश्य ध्यान रखिए कि छोटा बच्चा चाहे आसमान छू ले, सीपी में संभवत': समुद्र समा जाय, हिमालय हिल जाय तो हिल जाय पर भारत की सती .देवियाँ अपने प्रण से तनिक भी नहीं डिग सकतीं ।

चूड़ावत जी प्रेमभरी नजरों से एकटक रानी की ओर देखते-देखते सीढ़ी से.उतर पड़े, रानी सतृष्ण नेत्रों से ताकती रह गईं ।

चूड़ावत जी घोड़े पर सवार हो रहे हैं । डंके की आवाज घनी होती जा रही है । घोड़े फड़क-फडककर अड़ रहे हैं । चूड़ावत जी का प्रशस्त ललाट अभी तक चिंता की रेखाओं से कुंचित है । रतनारे लोचन-ललाम रण-सरर में पगे हुए हैं ।

उधर रानी विचार कर रही हैं, ''मेरे प्राणेश्वर का मन मुझ में ही -यदि लगा रहेगा तो विजयलक्ष्मी किसी प्रकार उनके गले में जयमाला नहीं डालेगी । उन्हें मेरे सतीत्व पर संकट आने का भय है । कुछ अंशों में यह स्वाभाविक भी है ।'' इसी विचार-तरंग में रानी दूबती-उतराती है । तब तक चूड़ावत जी का अन्तिम संवाद लेकर आया हुआ एरक प्रिय सेवक विनम्र भाव से कह उठता है, चूड़ावत जी चिन्ह चाहते हैं, दृढ़ आशा और अटल विश्वास का । संतोष होने योग्य कोई अपनी प्यारी वस्तु दीजिये । उन्होंने कहा है कि ''तुम्हारी ही आत्मा हमारे शरीर में बैठकर हमें रण-भूमि की ओर लिए जा -रही है । हम अपनी आत्मा तुम्हारे शरीर में छोड़कर जा रहे हैं ।''

स्नेह-सूचक संवाद सुनकर रानी अपने मन में विचार रही है- ''प्राणेश्वर का ध्यान जब तक इस तुच्छ शरीर की ओर लगा रहेगा तब तक निश्चय ही ये कृतकार्य नहीं होंगे ।'' इतना सोचकर बोली, अच्छा खड़ा रह, मेरा सिर लिए जा ।

जब तक सेवक हाँ! हाँ! कह कर चिल्ला उठता है; तब तक दाहिने हाथ में नंगी तलवार और बाएँ हाथ में लच्छेदार केशों वाला रानी का धड़, विलास मन्दिर के संगमर्मरी फर्श को सती रक्त से सींचकर पवित्र -करता हुआ, धड़ाम से धरती पर गिर पड़ा ।

बेचारे भय-चकित सेवक ने यह दृढ़ आशा और अटल विश्वास '-का चिन्ह काँपते हुए हाथों से ले जाकर चूड़ावत जी को दे दिया । चूड़ावत जी प्रेम से पागल हो उठे । वे अपूर्व आनन्द में मस्त होकर ऐसे फूल गये कि -कवच की कड़ियाँ तड़ातड़ कड़क उठीं ।

सुगन्धों से सींचे हुए मुलायम बालों के गुच्छों को दो हिस्सों में चीर कर चूड़ावत जी ने उस सौभाग्य-सिंदूर से भरे हुए सुन्दर शीश को गले में 'लटका लिया । मालूम हुआ मानो स्वयं भगवान रुद्रदेव भीषण भेष धारण कर वायु का नाश करन जा रहे हैं । सबको भ्रम हो उठा कि गले में काले नाग -लिपट रहे हैं या लम्बी-लम्बी लटाकार लटें हैं । अटारियों पर से सुन्दरियों ने भर-भर अंजली फूलों की वर्षा की मानो स्वर्ग की मानिनी अप्सराओं ने पुष्प-दृष्टि की हो । बाजे-गाजे के शब्दों के साथ घहराता आकाश झाड़ने -बाला एक गंभीर स्वर चारों ओर से गूंज उठा । धन्य मुण्डमाल!

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रचनाकार: ऐतिहासिक कथा / मुण्डमाल / आचार्य शिवपूजन सहाय
ऐतिहासिक कथा / मुण्डमाल / आचार्य शिवपूजन सहाय
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