कहानी / मदहोश / बलराज सिंह सिद्धू / अनुवाद: सुभाष नीरव

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कहानी मदहोश -बलराज सिंह सिद्धू   अनुवाद: सुभाष नीरव नित्य की तरह आज भी चन्नी समय से कालेज से पढ़कर लौटी थी। रोज़ की तरह ही वह नहाई-धोई ...

कहानी

मदहोश

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-बलराज सिंह सिद्धू

 

अनुवाद: सुभाष नीरव

नित्य की तरह आज भी चन्नी समय से कालेज से पढ़कर लौटी थी। रोज़ की तरह ही वह नहाई-धोई थी। पहले की तरह ही उसने कपड़े बदले थे और रोज़ाना की भाँति ही वह रसोई में रोटी खाने बैठ गई थी। पर आज जबसे वह कालेज से लौटी है, स्वाभाविक तौर पर हँसने-खेलने की अपेक्षा गंभीर और गुमसुम-सी है। अभी तक उसने रोटी की पहली बुरकी ही तोड़ी है और वह भी मुँह में नहीं डाली है। ऐसा लगता है मानो किसी गहरी सोच में डूबी हो। वह इतना मग्न होकर सोच रही है कि उसने एक बार भी आँखें नहीं झपकाईं।


चन्नी सोच रही है कि कल पता नहीं क्या होगा ? उसको तो बस आने वाले कल की ही चिंता है। धैर्य रखना उसके लिए बहुत कठिन हो रहा है। समय की गति यदि उसके हाथ या वश में होती तो तुरंत वह कालचक्र घुमाकर मनचाहा वक्त कर लेती। आज पूरी जि़न्दगी में पहली बार उसका दिल इतनी रफ्तार से धड़क रहा है, इतनी तेज़ मानो वह भागकर कोई दौड़ प्रतियोगिता जीतना चाहता हो। इस तीव्रता और गति के साथ तो उसका यह दिल उस समय भी नहीं धड़का था जब परसो उसको इंग्लैंड का कोई लड़का देखने के लिए आया था।


चढ़ता यौवन, छुरी की धार जैसे नैन-नक्श, गोरा आकर्षक रंग, पतला छरहरा शरीर, लंबा कद, नखरा, फितूर। अति दर्जे़ की सुंदर नार में पाये जाने वाले सभी गुण चन्नी में मौजूद हैं। उसकी शारीरिक बनावट के अनुसार हर अंग का आकार, उतार-चढ़ाव सब कुछ सही अनुपात में होने के कारण वह और भी अधिक दिलकश लगती है। पर इस सारी सुंदरता के बावजूद आकर्षण का केन्द्र उसकी आँखें हैं। उसके नयन हैं तो साधारण, पर कोई विशेष शक्ति है जिसके कारण उसके चंचल नयनों में देखने वाले को खुमार हासिल होने का अनुभव होता है। वह अजीब और न उतरने वाले नशे का सोता लगती हैं। अनोखी-सी कशिश है उनमें। देखने वाले का उसकी सलौनी अँखियों में आँखें डालकर निरंतर देखते रहने को ही मन करता रहता है।


जवानी का भूचाल आते ही चन्नी के हुस्न की सिफ्त, बाँध तोड़कर खुद-ब-खुद बहने वाले बाढ़ के पानी की तरह, इधर-उधर के गाँवों तक पहुँच गई थी। जानलेवा हुस्न की मालकिन होने के कारण वह हर वर्ग में चर्चा का विषय बनी हुई थी। चन्नी बखूबी जानती थी कि सिर्फ़ उसके अपने गाँव के ही नहीं, बल्कि आसपास के गाँवों-शहरों के लड़के भी उसके रूप के कद्रदान हैं। हर समय लोगों की ललचाई नज़रें उसको घूरती रहतीं।


चन्नी का पिता गुलजार सिंह अपने समय का बहुत बड़ा ऐबी व्यक्ति था। यद्यपि आयु के लिहाज से अब उसमें परिवर्तन आ गया था, पर अभी तक लोगों में उसकी दहशत उसी प्रकार कायम थी। अब उसका सियासी बंदों के साथ ताल्लुक और पुलिस के ऊँचे ओहदेदार अफ़सरों के साथ उठना-बैठना था। गुलजार सिंह के डर के कारण कोई चन्नी के साथ सीधी छेड़खानी करने का साहस न करता। परंतु सभी लड़के अप्रत्यक्ष रूप में चन्नी का दिल जीतने के लिए अपनी अपनी किस्मत आजमाई अवश्य करते। उसके घर से कालेज और फिर कालेज से घर लौटने तक के सफ़र के दौरान अनेक आशिक राहों में प्रेम की खैरात मांगते नज़र आते। चन्नी कोई ऐसी-वैसी लड़की नहीं थी कि किसी ऐरे-गैरे नत्थू खैरे के साथ प्रीत कर बैठती। परंतु उसने किसी दिलावर लड़के के छेड़ने का कभी बुरा भी नहीं मनाया था। बल्कि जब कोई गबरू उसके साथ छेड़खानी करता तो वह उसको झूठे मन से झिड़क कर, मन के अंदर खुशी और गर्व अनुभव करती थी। उसका अपने रूप-सौंदर्य पर मान और ज्यादा बढ़ जाता था।


गगन चन्नी की जि़न्दगी में पहला पुरुष था जिसको उसका सौंदर्य प्रभावित नहीं कर सका था। वह चन्नी के गाँव का था, शहर में उसके साथ उसी के कालेज में पढ़ता था और संयोग से उसका सहपाठी भी था। गगन ने चन्नी को कभी आँख भरकर भी नहीं देखा था। गगन के बारे में सोचकर चन्नी को अपने रूप के जादू के खत्म हो जाने का अहसास होता था।


मुझ पर तो सभी लड़के मरते हैं, फिर गगन क्यों नहीं आशिक होता ? इस सोच ने चन्नी के दिल में गगन के प्रति प्रेम के जज़्बे को जन्म दे दिया था। उसकी गोरी बांहें गगन के गले का सिंगार बनने के लिए उतावली रहने लगी थीं। हवस में डूबी चन्नी हर समय गगन के साथ प्रेम-पींगे झूलने की जुगतें सोचती रहती थी। वह नित्य अदाओं के नश्तर तीखे करती थी। कालेज में अपने पहने जाने वाले कपड़ों का चयन अधिक सचेत होकर करती थी। और अधिक सुंदर दिखने के लिए विशेष रूप से बन-संवर कर रहती थी। उसने गगन को मोहित करने के लिए ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया था। वह हर हाल में उसके साथ रिश्ता कायम करना चाहती थी। गगन था कि किसी तरह भी उस पर रीझता नहीं था। वह अक्सर गगन को कन्नी पकड़ने के मौके मुहैया करती रहती। पर गगन आगे बढ़ने की अपेक्षा कटड़े की तरह पीछे हट जाता था।


सहज ही फिसल जाने वाली शै का नाम ही तो मर्द है। मर्दजात का ध्यान खींचने के लिए दीवार पर औरत शब्द लिखा होना ही पर्याप्त है। बदसूरत से बदसूरत, कुरूप से कुरूप स्त्रियाँ भी मर्दों को उंगलियों पर नचा लेती हैं। क्या गगन मर्द नहीं था ? या चन्नी चाँद का टुकड़ा नहीं थी ? पता नहीं, गगन किस मिट्टी का बना हुआ था कि वह चन्नी की ओर कतई ध्यान नहीं देता था। चन्नी न जाने क्या क्या सोचती दिन रात तड़पती रहती थी। जब चन्नी का कोई तीर नाकाम हो जाता था तो वह और अधिक मचल जाती थी। पर चन्नी ने कभी हिम्मत का दामन नहीं छोड़ा था।


लक्ष्य ठीक हो, रास्ता सही हो और आदमी डटकर चलता रहे तो कौन-सी मंजि़ल है जो इन्सान सर नहीं कर सकता ? औरत जब अपनी आई पर आ जाए तो सब उलट-पुलट कर देती है। मेनका ने ऋग्वेद के गायत्री मंत्र के रचयिता विश्वामित्र का भी तप भंग कर दिया था। चन्नी जैसी जवान और सौंदर्य की रानी के आगे गगन जैसी मामूली लड़के की हस्ती ही क्या थी ? चन्नी के ताज़ा सान पर लगे हुस्न और मेहनत ने रंग दिखाया था। धीरे-धीरे समय पड़ने पर गगन भी उसकी खूबसूरती से बुरी तरह से कीलित हो गया था। चन्नी के समक्ष उसने अभी प्रेम को स्पष्ट तौर पर तो नहीं स्वीकारा था, पर बातों बातों में संकेत देते हुए गगन वो सब कुछ कह जाता था, जिसे उसके मुँह से सुनने की चन्नी लालायित थी। चन्नी के कान शुरू से ही प्रशंसा सुनने के आदी थे। पर जो प्रशंसा गगन उसकी, विशेष तौर पर उसके नशीले नयनों की करता था, वह सारे जहान से अलग थी।


चन्नी को जब विश्वास हो गया कि गगन भी दिल के किसी कोने में उसके प्रति प्रेम भावनाएँ छिपाये बैठा है तो उसकी गगन को अपनाने की प्रबल कामना और तेज़ हो उठी थी।
दोनों ही उम्र के नाजुक दौर से गुज़र रहे थे। एक दूसरे पर अपना सबकुछ लुटा देने पर तत्पर थे। अंदर ही अंदर एक-दूजे को अथाह इश्क करते थे। पर पहल करने से दोनों ही झिझकते थे। चन्नी को उसका औरतपना अपनी हसरतें प्रकट नहीं करने देता था और गरीब गगन को अमीर लड़की के साथ मुहब्बत करने का परिणाम, अरमानों की भाप बाहर निकालने से रोके रखता था।
खामोशी के पैरों पर चलने वाली मुहब्बत जब नाजुक परिस्थितियों की डगर पर से गुज़रती है तो उसका दम घुटने लग जाता है। यदि उसको जिन्दा रहने के लिए अनिवार्य शब्दों की नकली साँसें सही समय पर न मिलें तो मुहब्बत मर जाती है।


दोनों द्वारा कबूल किए जाने में फंसी चन्नी और गगन की प्रीत कब से न्यूटरल अवस्था में खड़ी थी।
आज अन्तिम पीरियड के दौरान चन्नी के कान में एक सहेली ने फुसफुसा कर कहा कि वो सारे जहान की खुशिया ढेरी कर देगा। यह सुनते ही चन्नी को पंख लग गए, पर छुट्टी के बाद जब वह घर आ रही थी तो उसे ख़याल आया कि कभी उसने उसके सामने प्रकट भी तो नहीं किया था। चन्नी को चिंता हुई कि कहीं उसके घर वालों को न बता दे। इस प्रकार के अनेक संशय अब चन्नी को तोड़ तोड़कर खा रहे थे।
अप्रैल फूल तो बारह बजे से पहले होता है। कौन पूछता है ? लोग सारा दिन ही मनाते रहते हैं। शायद सब सच हो। सोच की किश्ती में सवार हुई चन्नी कहीं की कहीं पहुँची हुई थी।
चन्नी की माँ उसको रोटी देकर कपड़े धोने लग गई थी। कपड़ों पर बजती थापी की थाप ने चन्नी को झकझोर दिया। उसका रोटी खाने को बिल्कुल ही मन नहीं करता था। उसने जबरन रोटी की बुरकियाँ गले से नीचे उतारी थीं। फिर चन्नी किताब उठाकर पढ़ने का ढोंग करने बैठ गई। जो पन्ना उसने एक बार खोल लिया था, उसी पन्ने को लेकर ही कितनी देर बैठी रही।
वह अभी तक एक अक्षर भी पढ़ नहीं सकी थी कि पता चला रात हो गई। पुस्तक एक तरफ फेंक वह अपनी माँ के साथ भोजनादि तैयार करने में सहयोग करने लगी। चन्नी की माँ रसोई का काम उसके जिम्मे करके खुद दूध दूहने चली गई।


चन्नी का पिता बाहर से आवारागर्दी करके लौट आया था। वह आते ही सीधा दूध दुहती अपनी पत्नी के पास गया। बातें करते हुए कभी कभार वह चन्नी की तरफ भी देख लेता। उन्होंने आपस में काफी देर तक खुसर-फुसर की। लाख कान खड़े करने पर भी रसोई में बैठी चन्नी को उनकी बातचीत सुनाई नहीं दे रही थी। इस यथार्थ को चन्नी ने सहज की स्वीकार कर लिया। यही कारण था कि वह घबराये जा रही थी। चन्नी को उसके अंदर का पाला मार रहा था।
पहले तो चन्नी से दाल नीचे लग गई। फिर या तो रोटी कच्ची रह जाती या जल जाती। क्योंकि उसका काम में ज़रा भी ध्यान नहीं था। जब उसकी माँ दूध निकालकर आई तो उसने चन्नी को एक तरफ कर दिया और बाकी की रोटियाँ खुद उतारने लग पड़ी।


  “बीबी, मैं पढ़ लूँ ?“ चन्नी ने वहाँ से उठने की अनुमति मांगी।
  “छोड़ परे अब पढ़ाई लिखाई, बहुत पढ़ लिया। आज से बंद तेरी सारी पढ़ाई-लिखाई।“
उसकी माँ की जुबान में यद्यपि ज़रा भी गुस्सा नहीं था, पर फिर भी चन्नी का सीना दहल गया। वह डर से काँपने लग गई, ‘कहीं गगन ने ही न बापू को बता दिया हो ? उफ्फ ! पहली चोरी, पहला फंदा !’ वह स्वकथन करती खौफज़दा होकर माँ के पास ही चूल्हे-चौके में घुटनों और ठोड़ी के बीच बांहें रखकर बैठी रही।
सही समय देखकर उसकी माँ ने बात चलाई, “वो जो लड़का...।“
चन्नी घबरा उठी, “कौन सा लड़का ?“ वह एकदम अपना अंजाम जानना चाहती थी।


  “वही विलैतिया जो तुझे देखने आया था।“
  “कौन ?“ चन्नी को सिवाय गगन और अपने उस हस्तलिखित खत के और कुछ भी याद नहीं था।
  “क्या था भला-सा नाम उसका ? अरे हाँ, सुख।“ चन्नी की माँ ने जोगियों की पिटारी में से साँप निकालकर बच्चों को दिखाने की तरह बात कहने की चाल बहुत ही आहिस्ता रखी।
इतना भर जानने के बाद चन्नी समझ गई थी कि उस पर वो कोप अभी तक तो नहीं आया, जिसको लेकर वह भयभीत है। उसको कुछ ढाढ़स आया। पल पल बढ़ती उत्सुकता के कारण वह खामोश और अडोल बैठी माँ से उस नई सनसनीखेज ख़बर के नस्र होने की प्रतीक्षा करती रही।


  “उसने तुझे पसंद कर लिया है। आज ही ‘हाँ’ की है। आते इतवार को शादी मांगते हैं। तेरे बापू ने हामी भर ली। तुझे पसंद है न ?“ उसकी माँ ने बिना जवाब की प्रतीक्षा किए कहना जारी रखा, “बड़े ही सज्जन बंदे हैं। कहते थे देना-लेना कुछ नहीं चाहिए। चार बंदे आएँगे बारात लेकर और चुन्नी चढ़ाकर ही लड़की ले जाएँगे। लड़का वैसे भी कुछ नहीं खाता-पीता, पूरा वैष्णों है। बहुत ही अच्छी है तेरी किस्मत, राज करेगी इंग्लैंड जाकर।“


उसकी माँ अपनी सारी अधूरी इच्छाएँ चन्नी से पूरी होती देख रही थी। उसको अपनी जवानी के समय का देखा हुआ सपना अब किसी अन्य रूप में साकार होता प्रतीत हुआ।
यह खुशख़बरी थी या दुखों भरे जीवन के लेख की भूमिका, चन्नी को कुछ पता नहीं था। वह तो सिर्फ़ इतना जानती थी कि इस समाचार ने उसका कलेजा खींचकर बाहर निकाल लिया था। जि़न्दगी ने एक इम्तिहान में घिरी हुई को दूसरे इम्तिहान में फंसा दिया था।

असमंजस में डूबी चन्नी को इस संकट से बचने का कोई उपाय न सूझा। लोकलाज और अक्खड़ पिता के डर से चन्नी ने चुपचाप हालातों का संताप झेल लिया। उसकी मासूम मुहब्बत की कोंपलें फूटने से पहले ही उन पर शादी नाम की खुशीनाशक और इच्छाओं को मारने वाली दवाई छिड़क दी गई। सब कुछ इतनी शीघ्रता में घटित हुआ कि उसको कुछ सोचने का भी समय नहीं मिला था। उसको पता ही नहीं चला था कि क्या हो रहा था। गगन से एक बार मिलना और उसके दर्शन करने भी नसीब नहीं हुए थे।


चन्नी का पति सुख विवाह करवाकर मुश्किल से एक सप्ताह ही उसके पास रहा। फिर वापस इंग्लैंड लौट गया। पर जितने दिन उसने चन्नी के साथ व्यतीत किए, उतने दिन वह नयनों की दुनाली से ज़ख़्मी ही रहा। यद्यपि सुख पास में नहीं था, फिर भी चन्नी जितनी देर इंडिया में रही, वह अपने सास-ससुर के पास अपनी ससुराल में ही रही। उसके मन में इतनी कड़वाहट भर गई थी कि अपने मायके वाले गाँव जाने को उसकी घायल रूह भी राजी न होती। उसको गगन से सामना हो जाने का डर था। कुआंरे होते स्थिति दूसरी थी। उसको गगन के कभी न कभी मिल जाने की उम्मीद तो होती थी। विवाह के बाद गगन उसकी पहुँच से इतनी दूर हो गया था कि उसकी चाहत करना भी अब चन्नी के लिए व्यर्थ था। ऐसी हालत में मायके में आती भी तो किसके पास आती ? उसके माँ-बाप ही जाकर उससे मिल आया करते थे।
विवाह के पश्चात चन्नी के दिन ग़मगीन और रातें शोकमयी हो गईं। हर समय आँसू उसकी पलकों का बाँध तोड़कर बाहर आने को होते। इंग्लैंड आकर तो वह कुछ अधिक ही उदास रहने लगी। हर समय वह अपने आप में खोयी खोयी रहती।


सुख ने सोचा, शायद चन्नी को माता-पिता से जुदा होने का दुख है। विवाह के उपरांत ससुराल घर आई हर लड़की का प्रायः यही दुखांत होता है। इसलिए चन्नी ने तो बाबुल का घर छोड़ने के साथ साथ अपना देश भी त्यागा था। इसलिए उसका कुछ उदास होना स्वाभाविक था। सुख ने सोचा, रफ्ता -रफ्ता सब ठीक हो जाएगा। सुख हर तरह से चन्नी को बहलाने के यत्न करता रहता। उसको विलायत में दर्शनीय स्थलों की सैर करवाता। सिनेमा ले जाता। पार्कों में घुमाता और रेस्टोरेंटों में भोजन करवाता।
पर चन्नी सुख के आगे दिल की कोई बात न खोलती। सुख की कोई हरकत उसको खुशी प्रदान न करती। लाख कोशिशों के बाद भी गगन के ख़यालों को चन्नी अपने से अलग नहीं कर सकी थी। उसके दिल पर गगन की यादों की अमिट छाप अंकित हुई पड़ी थी। चाबी खत्म होने पर रुककर खड़ी हो गई घड़ी की सुइयों की तरह चन्नी की सोच गगन पर अटक कर रह गई थी। गगन को न प्राप्त कर सकने का दुख उसको अंदर ही अंदर घुन की भाँति खाये जाता।


जब चन्नी को खुश करने के सुख के सभी यत्न असफल हो गए तो सुख के मन में चन्नी को नौकरी पर लगाने का विचार आया। खुद की अच्छी तनख्वाह होने के कारण धन-दौलत की सुख को कोई लालसा नहीं थी। वह तो चाहता था कि चन्नी का दिल बहले। इसलिए सुख ने घर के निकट ही विंडमिल स्नैक्स फैक्टरी में चन्नी को उसकी योग्यता के अनुसार काम पर लगवा दिया।
नौकरी में ध्यान बँटने से चन्नी ने कुछ राहत अनुभव की। घर में तो सोच-विचारों का कीड़ा सदैव उसके दिमाग को चाटता रहता था। चन्नी जितना अधिक से अधिक ओवरटाइम लगता, लगा लिया करती। उसने अपना तन, मन काम की भट्ठी में झोंक दिया। वह तो चाहती थी कि जितना भी अधिक से अधिक समय हो सके, वह बस काम ही काम करती रहे ताकि उसको घर से दूर रहने का अवसर मिल सके। घर हमेशा चन्नी को कै़दखाने के समान लगता था। सारा दिन अंदर घुसी वह अजीब सी घुटन और उमस का शिकार हुई रहती थी।


चन्नी को सुख के साथ न नफ़रत थी और न ही प्यार। यदि कुछ था तो इन दोनों के बीच का कोई बेनाम-सा जज़्बा था। चन्नी ने विवाह तो करवा लिया था, पर रिश्ता दिल से नहीं स्वीकारा था। उसके लिए लावों-फेरों के चार मामूली से चक्कर से अधिक कोई महत्व नहीं था। यदि चन्नी की मदमस्त आँखों को देखकर मस्ती में झूमता हुआ सुख कभी जिस्मानी भूख मिटाने की इच्छा प्रकट करता तो चन्नी चुपचाप आत्म समर्पण कर देती। चन्नी ने एक दिन भी सिर दुखने का बहाना करके सुख को तरसाया नहीं था। कभी ‘मूड ठीक नहीं’ जैसा स्त्रियों वाला कोई नखरा नहीं किया था और न ही कभी क्रिया का मज़ा लिया था। काले ताजमहल (शहजादा अपनी कब्र के लिए सफेद के बराबर काला ताजमहल बनवाना चाहता था, पर पुत्र की बगावत के कारण यह तामीर नहीं हो सका था) की तरह गगन के प्यार की भी चन्नी के दिल में नीवें धरी की धरी रह गई थीं। उन नीवों पर किसी अन्य के इश्क का महल कैसे बन सकता था ?


ताली दोनों हाथों से ही बजा करती है। एक से तो चुटकी ही बजाई जा सकती है। एकतरफा प्रेम भी चुटकी की तरह होता है। चुटकी ! जिसका थोड़ा खड़का होता है। सुख रोज़ चुटकियाँ बजाता बजाता ऊब गया। चन्नी के व्यवहार से सुख ने अंदाजा लगाया कि चन्नी उसको पसंद नहीं करती, क्योंकि वह चन्नी के मुकाबले थोड़ा-सा कम सुंदर था। उसको अपने चन्नी के साथ संबंधों में से लुत्फ़ आना बंद हो गया। वह अधिक से अधिक वक्त चन्नी से दूर रहने का प्रयास करता। बस, कभी कभार ही उसके करीब आता।
चन्नी के जीवन में घुलते ज़हर की मात्रा में दिनों दिन वृद्धि हो रही थी। वह जि़न्दगी से बेहद मायूस हो गई थी। किंग-साइज़ पलंग उसको एक वीरान तपता हुआ मरुस्थल लगता जिसमें अपनी प्यास बुझाने के लिए वह सारी रात गगन...गगन... पुकारती भटकती रहती।


हर समय चिंताओं में घिरी रहने के फलस्वरूप चन्नी के चेहरे की चमक गायब हो गई। उसके हुस्न को ग्रहण लग गया प्रतीत होता। चन्नी काम पर भी मौन धारण किए रहती। एक दो स्त्रियाँ, सुपरवाइज़र और परमिंदर के अलावा किसी अन्य के साथ वह बिल्कुल नहीं बोलती थी।
मध्यम कद, सुडौल शरीर, गेहुंये रंग और तीखे नयन-नक्श का मालिक परमिंदर बचपन में ही इंग्लैंड आ गया था। उसका स्वभाव बहुत मिलनसार था। परमिंदर का बातचीत करने का अनूठा ढंग ही अधिकतर लोगों को उसके प्रति आकर्षित करता था। वह खालिस अंग्रेजी या ठेठ पंजाबी में हमेशा चिकनी-चुपड़ी बातें करके दूसरे के पेट में घुस जाता। भूरी, गोरी, काली, सब तरह की स्त्रियाँ उस पर मरती थीं। जहाँ जवान लड़कियाँ उसके साथ खड़ी होकर, सटकर दिल बहलातीं, वहीं अधेड़ भी उसके साथ बातचीत में अपनी ठरक की पूर्ति कर लिया करती थीं। पंजाबिनें तो उसके साथ लुच्ची फिकरेबाज़ी तक ही सीमित रहतीं। पर गोरी, काली स्त्रियाँ उसके गले लगकर उसको आलिंगन में भी ले लेतीं। वैसे भारतीय स्त्रियों से वह कुछ झिझकता था। दिलनशीं चेहरे और मजाकिया बातों का सुमेल वाला परमिंदर पहले दिन से ही चन्नी के दिल को छू गया था। इसकी एक वजह यह भी थी कि परमिंदर की शक्ल बहुत हद तक गगन से मिलती थी।


यदि गगन दाढ़ी-केश हटा दे या परमिंदर दाढ़ी-केश रख ले तो दोनों हू-ब-हू एक-से लगेंगे। मानो जुड़वा भाई हों। परमिंदर की आँखों के आगे आते ही चन्नी ऐसा सोचने लग जाती। परमिंदर की चाल ढाल, बोल-बाणी, मजाक-मसखरी, हर शोखी, हर आदत चन्नी को गगन की याद ताज़ा करवा देती।
नव विवाहित स्त्री के मुँह पर नूर की बजाय पीलापन होना, इसका तो एक ही अर्थ हो सकता है, और परमिंदर उस अर्थ को जानते हुए उसका पूरा पूरा लाभ उठाना चाहता था। करीब से गुज़रते हुए वह हमेशा चन्नी को बुलाकर ही आगे बढ़ता।


एक दिन परमिंदर को चन्नी के पास काम करने का अवसर मिला। उसने इस सुनहरी अवसर का सही इस्तेमाल करने के लिए चन्नी का दिल खंगालना शुरू किया, “सयाने कहते हैं, खुशी बाँटने से बढ़ जाती है और दुख बाँटने से कम हो जाते हैं।“
  “मुझे तो कोई दुख नहीं।“ चन्नी ने चेहरे पर बनावटी मुस्कान लाते हुए कहा।
  “चलो फिर खुशी ही साझी कर लो।“ परमिंदर ने मछली पकड़ने के लिए कुंडी फेंकी।
चन्नी ने बात को दबाने के लिए ज़रूरत भर हँसना ही काफी समझा।


बातचीत की लड़ी टूटती देख परमिंदर बोला, “तो फिर इंडिया की याद आती होगी ?“
चन्नी चैंक गई। परमिंदर ने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था। चन्नी परमिंदर की आँखों में झांकी तो उसको पता चला कि परमिंदर की भी दायीं पुतली पर तिल है। इससे पहले चन्नी आँखों मंे तिलों वाले दो मर्दों को जानती थी और वे दोनों उसके चेहते थे। एक तो गगन जिसकी वह मुरीद थी और दूसरा हिंदी फिल्म अभिनेता सन्नी दिओल जिसकी वह फैन थी।
आज ग़ौर से देखते हुए चन्नी को परमिंदर सन्नी दिओल जैसा ही प्रतीत हुआ। वह कन्वेयर बैल्ट पर सारा दिन एक साथ खड़े बातें करते रहे। परमिंदर स्नेह और सहानुभूति का मरहम लगाता रहा। जि़न्दगी के रेगिस्तान में खड़ी चन्नी को वह नखलिस्तान की तरह लगा। जहाँ चन्नी परमिंदर के सुंदर व्यक्तित्व पर बुरी तरह फिदा थी, वहीं वह उसकी मीठी मीठी बातों पर भी वह मोहित थी। शाम तक परमिंदर ने चन्नी को छल्ली के दाने की तरह पूरी तरह उधेड़ लिया। चन्नी ने दिल खोलकर अपनी सारी वेदना परमिंदर को बताई। रोते हुए को हँसाने की कला में निपुण परमिंदर चन्नी के मन के अंदर खंजर की भाँति धँसता चला गया।
परमिंदर की आमद चन्नी के जीवन में अहम परिवर्तन ले आई। अब चन्नी को नींद भी आने लग गई थी और सपने भी। चन्नी को परमिंदर का साथ अच्छा लगता। परमिंदर के साथ बातचीत करके उसकी तबीयत प्रसन्न हो जाती। परंतु एक विवाहित स्त्री का पराये गबरू लड़के के साथ हर समय बातें करते रहना जायज़ नहीं। किसी को शक हो जाने के परिणाम से वे दोनों भलीभाँति परिचित थे। इसलिए उन्होंने फैक्टरी से बाहर मिलने की संभावना खोजी।


चन्नी को सवेरे सात बजे क्लाक-इन (काम पर आना) करना होता था, पर घर से वह सवा छह बजे ही चल पड़ती। रास्ते में परमिंदर पहले ही प्रतीक्षा कर रहा होता। नुक्ताचीन आँखों से दूर, मुख्य सड़क पर स्थित लव-बर्ड्स पब के पिछवाड़े बनी कार पार्किंग में कार खड़ी करके वे आधा-पौना घंटा कार में ही बैठे रहते। दिसंबर महीने में ठंड पूरे यौवन पर होने के कारण धुंध पड़ी होती। धुंध में करीब खड़े आदमी को देखना भी कठिन होता है। फिर उनकी सड़क से सौ गज़ की दूरी पर खड़ी सलेटी रंग की कैवलीयर का किसी को दिखाई देना तो बिल्कुल ही असंभव था। पब खुलने का समय न होने के कारण कोई पूछताछ होने का भी खतरा नहीं होता था। कार इंजन के बंद होते ही उनके मुँहों से निकलती भापों के कारण शीशे अपारदर्शी बन जाते और वे अपने आप को और भी अधिक सुरक्षित अनुभव करते। यदि कार किसी को दिख भी पड़ती तो देखकर दूसरा सहज ही अनुमान लगा लेता कि कोई व्यक्ति रात में अधिक पी लेने के कारण गाड़ी वहीं छोड़कर चला गया होगा।


रोज़ की गुप्त मुलाकातों ने उनके अंदर की दूरी कम कर दी। वे एक-दूसरे के काफ़ी करीब आ चुके थे। परमिंदर पूर्ण रूप में चन्नी का विश्वास जीत चुका था और चन्नी भी हर बात उसके साथ बेझिझक होकर करने लग पड़ी थी। एक दिन लोहा गरम देखकर परमिंदर ने चोट करनी चाही। उसने पैसेंजर सीट पर बठी चन्नी को बांहों में भर लिया।
चन्नी चैंक उठी। उसने तो अपना ग़मखार मानकर परमिंदर के साथ दोस्ती की थी। उसने परमिंदर को धकेलकर खुद को उसकी जकड़ आज़ाद किया। वह उसकी नीयत ताड़ गई थी।
  “परमिंदर आय एम सारी... मैं अपने हसबैंड के साथ धोखा नहीं कर सकती।“ बेचारगी की मूरत बनी बैठी चन्नी ने अपनी बेबसी बताई।
हूँ ! धोखा नहीं कर सकती, बड़ी सती-सावित्री बनती है। यहाँ बैठी क्या करती है फिर ? यह धोखा नहीं ? परमिंदर ने मन में उपजे इस विचार को व्यक्त करना मुनासिब न समझा।
  “मुझसे तेरी दूरियाँ झेली नहीं जातीं। तेरे बग़ैर मर जाऊँगा चन्नी। मैं तुझे बहुत प्यार करता हूँ।“ परमिंदर ने चन्नी को हवा देने की कोशिश की।
  “अगर तू मुझे प्यार करता है तो मैं भी तुझे बहुत चाहती हूँ। पर जो तू चाहता है, वह नहीं कर सकती।“ चन्नी ने तर्क दिया।


  “एवरीथिंग इज़ फेयर इन लव एंड वार। ये बेकार के औरतों वाले नखरे छोड़।“ परमिंदर ने उसे बहलाने के लिए आखिरी हथियार आजमाना चाहा।
  “नहीं, मैं नहीं। सारी !“ चन्नी ने टके-सा जवाब दे दिया।
  “लै जाणगें जिन्हां ने दम खरचे, तेरा की ए ज़ोर मितरा !“ परमिंदर ने किसी पुराने लोकगीत की पंक्तियाँ गाकर चन्नी के साथ ताने भरी मसखरी की।
  “तुम समझते क्यों नहीं।“ इस बार चन्नी कराह उठी।
  “ओ के भई, ओ के। जैसी तेरी इच्छा।“ परमिंदर के हाथ खड़े हो गए।


उनके बीच चुप्पी पैदा हो गई। काम का वक्त होने वाला था। कुछ देर खामोश रहने के बाद बाद वे दोनों अलग अलग रास्तों से फैक्टरी की ओर रवाना हो गए।
उसके बाद दो तीन दिन परमिंदर चन्नी से नज़रें चुराता रहा। चन्नी उसके साथ बात करने के लिए मछली की भाँति तड़प रही थी। चन्नी को परेशानियों के घेरे में से बाहर निकलने का एकमात्र द्वार नज़र आया था और वह भी अब दृष्टि से ओझल होता जा रहा था। परमिंदर का हाथों से निकल जाने का डर उसके मन को लगा हुआ था। डर था कि परमिंदर कहीं मिलने, दुख-सुख साझा करने से सदैव के लिए ही न हट जाए। चन्नी उसकी आदी हो चुकी थी। आदतन चन्नी रोज़ उसको कार पार्क में देखकर आती। परमिंदर की कार न होती। उसको परमिंदर की तलब हो रही थी। परंतु परमिंदर चन्नी के पास न फटकता।
एक दिन ब्रेक के समय चेजिंग रूम की ओर परमिंदर को अकेला जाता देख चन्नी दौड़कर उसके साथ मिल गई।


  “अब मिलता क्यों नहीं ? मैं रोज़ तुझे कार पार्क में देखती हूँ।“ चन्नी के शब्दों में मासूमियत थी।
  “बस सवेरे सुबह जल्दी आँख नहीं खुली, अलार्म नहीं चला। लेट हो गया था। मुश्किल से काम पर पहुँचा था।“ परमिंदर ने घड़े-घड़ाये बहाने सुना दिए।
  “प्लीज, कल ज़रूर मिलना। मुझे बहुत सारी बातें करनी हैं।“ चन्नी ने मिन्नत की।
परमिंदर ने बग़ैर कुछ बोले ‘हाँ’ में सिर हिला कर रजामंदी दी।
  “प्लीज... मैं वेट करूँगी।“ चन्नी ने एक बार फिर ताकीद की।


अगली सवेरे परमिंदर की गाड़ी खड़ी देखकर चन्नी का मुरझाया चेहरा ताज़ा गुलाब की तरह खिल उठा। चन्नी ने गाड़ी में बैठकर परमिंदर से हाल-चाल पूछा, मौसम के बारे में दो-चार रस्मी-सी बातें कीं। फिर इधर-उधर की बातों को छोड़कर एकदम गंभीर होते हुए अर्थपूर्ण और गंभीर बात छेड़ दी।
  “मुझे इंग्लैंड में आकर यदि कुछ अच्छा लगा है तो वह तू है परमिंदर।“ चन्नी के शब्दों में तड़प साफ़ थी।
परमिंदर ने चन्नी की तरफ देखा। उसको चन्नी का मुखड़ा बहुत ही खूबसूरत लगा, “मेरा भी तेरे बिना कहीं ओर जी नहीं लगता। दिल करता रहता है, तुझे हर समय देखता रहूँ। तेरे साथ बातें करता रहूँ। तेरी समुंदर-सी गहरी आँखों में टाइटैनिक जहाज की तरह डूबा रहूँ।“
चन्नी को परमिंदर की आवाज़ किसी सुरीले साज़ में से निकले संगीत जैसी लगी। चन्नी ने परमिंदर के कंधे पर सिर रखते हुए अपने सीने में अवैध हथियार की तरह छिपाकर रखा हुआ गहरा भेद खोला, “अगर तू न होता तो मैं अब तक तो कुछ खाकर मर गई होती।“


परमिंदर ने उसके मुँह पर हाथ रखते हुए कहा, “तुझे मेरी कसम है, अगर दुबारा मरने वरने की बात की तो।“
इतना कहकर परमिंदर ने चन्नी को बांहों में कस लिया। चन्नी को बड़ा सुकून मिला। उसने अपने आपको जन्नत में पहुँचा हुआ अनुभव किया। चन्नी ने भी अपनी बांहें परमिंदर के इर्दगिर्द लपेट लीं।
उसने परमिंदर की छाती से लगे लगे पब की चिमनी की तरफ देखा। चन्नी को यूँ लगा जैसे लव-बर्ड्स की विशाल इमारत उससे मुखातिब होकर कह रही हो - ‘तुम बेखौफ़ होकर इश्क फरमाओ। मेरे होते तुम्हें कोई नहीं देख सकता। मैं तुम्हारी प्रीत की पहरेदार हूँ।’
तभी परमिंदर ने बांहों की पकड़ कुछ ढीली की।
“न छोड़ न, मुझे ज़ोर से कस ले अपनी बांहों में।“ चन्नी इस आनंदमयी स्थिति का भरपूर आनंद लेना चाहती थी।
परमिंदर ने अपनी बांहों की जकड़ मजबूत की।
“ज़ोर से दबा !“ चन्नी ने आहिस्ता से परमिंदर के कान में सरगोशी की।
परमिंदर ने सीधा होकर चन्नी का जिस्म और ज़ोर से अपनी बांहों में कस लिया।
“और कस... और दबा...और...और...और...।“ कई बार चन्नी के होंठ फड़के।


जब तक चन्नी के मुँह से ‘और...और...’ की आवाजें आनी बंद न हो गई, तब तक परमिंदर अपनी बांहों के घेरे को कसता रहा। ज्यों ज्यों वह अपने आलिंगन को कसता गया, त्यों त्यों चन्नी खिसकती गाँठ की तरह खुली चली गई। रौ में बहकर चन्नी को पता ही न चला कि कब वह समाज की खींची मर्यादा की रेखा पार कर गई।
यद्यपि अब तक उनकी तेज़ तेज़ दौड़ती साँसें सम पर आ चुकी थीं, पर फिर भी चन्नी ने परमिंदर को अपनी बांहों में जकड़ा हुआ था। मानो उसको डर हो कि यदि उसने छोड़ा तो परमिंदर कहीं भाग ही न जाए। चन्नी का दिल करता था कि वह सारी उम्र इसी प्रकार परमिंदर का बोझ अपने नाजुक बदन पर उठाये रखे। परमिंदर की गरम साँसों की टकोर से आज चन्नी के सारे दुख ही टूट गए थे। हंसों की तरह परमिंदर ने चन्नी के नयनों के मानसरोवर में से सारे आँसू रूपी मोती चुग लिए थे।
परमिंदर ने घड़ी देखी। सात बजने में तीन मिनट शेष थे। चन्नी ने पिछली सीट पर से बैग उठाकर कंधें में डाला और फटाफट कार में से बाहर निकली। जल्दी जल्दी हाथों से जूड़ा ठीक करती हुई फैक्टरी की ओर दौड़ी।


चन्नी आज इतनी खुश थी कि उसके होंठों से हँसी संभल नहीं रही थी। वह खुशी में बांवरी हुई फिरती थी। उसको देखकर यूँ लगता था मानो मूर्तिकार के तराशने के बाद बेजान पत्थर की मूर्ति में जान पड़ गई हो। वह फैक्टरी में ही सबके साथ हँसने-खेलने और मजाक करने लग गई।
चन्नी का घर फैक्टरी के नज़दीक (पैदल बमुश्किल पाँच मिनट का रास्ता) होने के कारण परमिंदर के साथ मिलने का सूर्य शीघ्र ही अस्त हो जाता। शाम के चार बजे फैक्टरी बंद होने से लेकर सवेर के सात बजे फैक्टरी के खुलने तक के लम्हे चन्नी को सदियों समान लंबे महसूस होते। विरहा के पलों में कुछ कटौती करने के लिए परमिंदर के कहने पर चन्नी ने इवनिंग क्लासों में अंग्रेजी सीखने के लिए प्रवेश ले लिया। इस प्रकार छह से आठ बजे तक रोज़ दो घंटे और मिल गए उन्हें, अपने इश्क के लिए। पढ़ाई की आड़ में रोज़ाना चन्नी ने मर्यादा और सामाजिक कानून का उल्लंघन करना प्रारंभ कर दिया। परमिंदर ने बहला-फुसलाकर चन्नी का ब्रेनवाश करके उसमें अपनी उल्फ़त भर दी।


चन्नी ने आशावादी सोच अपनाकर हर वस्तु के नये अर्थ तलाशने प्रारंभ कर दिए। अब उसको कायनात का हर जर्रा हसीन दिखने लग पड़ा। उसकी जीवनबाड़ी में दुखों की विषैली बूटियों की जगह सुखों के फूल, बेल-बूटे उग आए। उसके चेहरे की लाली लौट आई। जि़न्दगी पुनः सुखद हो जाएगी कभी, यह बात भी चन्नी की सोच के दायरे से बाहर थी। पर परमिंदर ने तो इसको अमली जामा पहना दिया था। अब सदा ही चन्नी को परमिंदर के इश्क का उत्साह रहता।
घड़ी टिक...टिक करती रही। चन्नी के दिन त्यौहारों की तरह बीतते गए।
एक दिन फैक्टरी में परमिंदर की नौकरी से महीने भर की छुट्टियाँ लेकर इंडिया जाने की ख़बर गरम हो उठी। पहले तो चन्नी को सुनकर यकीन नहीं आया था। उसने उसको सिर्फ़ एक शोशा समझा था। परंतु जब अफ़वाह सच साबित हुई तो उसको काफी शाॅक लगा क्योंकि परमिंदर ने उससे इस बात का जिक्र तक नहीं किया था। फैक्टरी मालिकों को छोड़कर अन्य किसी को भी परमिंदर के जाने का पता नहीं था। फैक्टरी में परमिंदर ने जाने से सिर्फ एक दिन पहले बताया और वह काम पर उसका अन्तिम दिन था। सारा दिन काम के ज़ोर के कारण चन्नी को परमिंदर से पूछने का अवसर नहीं मिल सका। उस दिन बारिश भी हो रही थी। चन्नी ने सोचा, शाम को लिफ्ट के बहाने परमिंदर के साथ बात कर लेगी। परमिंदर हमेशा फैक्टरी के मर्दों-औरतों को अपनी कार में लिफ्ट दिया करता था। शाम को छुट्टी हुई और चन्नी परमिंदर की कार की ओर बढ़ने ही लगी थी कि उसको सुख लेने आ गया। जिस कारण परमिंदर से कुछ पूछने का अवसर जाता रहा।
वह इंडिया क्यों गया है ? मुझे पहले क्यों नहीं बताया ? ऐसे अनेक प्रश्न चन्नी के मन की सलेट पर नित्य उभरते।


शायद उसको कोई इमरजैंसी हो गई होगी। या किसी रिश्तेदार का विवाह वगैरह होगा। इस प्रकार हर उठते सवाल का जवाब भी चन्नी स्वयं ही घड़ लेती।
जब परमिंदर इंडिया से वापस लौटकर आया तो उसने इंडिया जाने के मंतव्य के बारे में स्पष्टीकरण दिया कि वह विवाह करवाकर आ रहा है। चन्नी सहित सारी फैक्टरी ने उसको विवाह की बधाई दी।
परमिंदर और चन्नी फैक्टरी में आवश्यक-सी ही बातचीत करते और सीमित-सा एक-दूसरे की तरफ देखा करते थे ताकि किसी को शक न हो। ऐसे व्यवहार के कारण ही वह दुनिया की पत्थरमार निगाहों से बचे हुए थे। कभी इश्क और मुश्क भी छिपाये छिपते हैं ? मुहब्बत के मामले में बेशक वे बहुत ही चौकन्ने थे, हर कदम फूंक फूंककर रखते थे, पर फिर भी एक-दो बूढ़ी औरतों को उनकी आशनाई की भनक थी। साथी वर्करों का मुँह मीठा करवाने के लिए जब ब्रेक के समय परमिंदर ने मिठाई का डिब्बा लाकर कैंटीन में रखा तो उन औरतों की निगाहें चन्नी पर ही केन्द्रित हो गईं।


चन्नी ने मिठाई सभी को खुद ही बाँटकर, उनके दिल में फैलते शक के ज़हर को प्रभावहीन कर दिया। चन्नी के चेहरे पर से कुछ न पढ़ सकने के कारण वे औरतें निराश-सी हो गईं।
अगले दिन पुराने मुलाकात वाले स्थान पर परमिंदर चन्नी से मिला। चन्नी बड़े जोश में उससे मिली। चन्नी ने बिना बताये चले जाने का गिला करने की अपेक्षा परमिंदर के विवाह करवाने पर प्रसन्नता का दिखावा किया।
“मेरे कारण तेरी पत्नी के प्यार में कमी न आए। उसको पूरा प्यार देना ताकि उसको कभी शक न हो।“ चन्नी ने परमिंदर की गाल पर हल्का-सा मुक्का मारते हुए आँख दबाकर कहा।
परमिंदर सोचता था, बात कहाँ से आरंभ करे। उसने हौंसला करके कहना प्रारंभ किया, “चन्नी, मैं यही कहना चाहता हूँ कि अब तक अपनी अच्छी निभी है, अब अब...।“
“हूँ...?“ चन्नी ने खत्म हो चुकी बात का हुंकारा भरा और अगली बात के लिए बेसब्री दर्शायी।


“अब भलाई इसी में हैं कि हम अपने अफ़ेयर को यही फुल स्टॉप लगा दें।“ परमिंदर ने हिचकिचाते हुए वाक्य पूरा किया।
“पर क्यों ? नई बन्नो के चाव में क्या अब तेरा मेरे से जी भर गया है ?“ चन्नी का सब्र का प्याला तिड़क चुका था।
“पहले बात और थी। मैं छड़ा था, अकेला था। अब मेरे सिर पर जिम्मेदारियाँ हैं। मेरे अपनी पत्नी के प्रति भी कुछ फजऱ् बनते हैं। तेरा पति है, तू उसको प्यार दे। मैं...।“ परमिंदर ने अपने आप को चन्नी की नज़रों में दुनिया का सबसे बेहतरीन और वफ़ादार खाविंद साबित करने की कोशिश की।
“मैंने तुझे यह तो नहीं कहा कि तू पूरा मेरा ही बनकर रह। मैं तो सिर्फ़ चाहती हूँ कि तू मेरी बेरंग जि़न्दगी में अपने प्रेम के रंग से दो चार ब्रश मारकर सिर्फ़ दो चार रंगीन स्वतंत्र लकीरें खींच... सिर्फ़ दो-चार...।“ चन्नी ने शब्दों में अपनी सारी पीड़ा घोलकर कहा।


“मेरे घर में वह बहुत सुंदर है। मुझे बहुत प्यार करती है। मैं अपनी विवाहित जि़न्दगी को किसी प्रकार के खतरे में नहीं डालना चाहता।“ परमिंदर चन्नी से किसी न किसी तरह पीछा छुड़ाना चाहता था।
“मैं भी तो विवाहित हूँ। मुझे भी तो उतना ही रिस्क है। मैं तेरे बग़ैर नहीं रह सकती। मैं तेरी हूँ परमिंदर।“ बेसब्री और बौखलाहट से वाक्य पूरा करके चन्नी सिसकने लग पड़ी।
बदहवासी में परमिंदर के मुँह से निकल गया, “जब तू अपने खसम की नहीं बनी, मेरी कहाँ से बनेगी ? मैं तेरी तरह अपने जीवन साथी से दगा नहीं कर सकता।“
चन्नी को लगा जैसे परमिंदर ने मुँह से शब्दों की बजाय आग उगली हो।


“पर तू तो कहता था मेरी आँखें तुझे बहुत शराबी लगती हैं। तू सारी उम्र मेरी जुल्फों में कै़द रहना चाहता है... मैं...मैं... मैंने तुझे अपनी इज्ज़त लुटाई है।“ चन्नी ने लड़खड़ाती जुबान से बमुश्किल शब्द रोके। चन्नी की एक ज़ोरदार रूलाई फूट पड़ी और वह इस प्रकार ज़ोर ज़ोर से रोने लगी जैसे कोई बच्चा खिलौना छीन लिए जाने पर या उसके टूट जाने पर रोता है।
“चुप कर ! साली, तेरा कौन सा इंजन बैठ गया कि नए सिरे से बनाना पड़ेगा ?“ आज परमिंदर के होंठों पर दिलासों की जगह गुस्सा था।
चन्नी का पूरा शरीर झिंझोड़ा गया। उसको अपना आप उस पतंग की भाँति लगा जिसको उड़ाने वाले से बेकाबू होता देख किसी दूसरे ने काटकर अपनी बना लिया हो। दिल बहलावे के लिए उड़ाया, ठुनके मारे और मन भर जाने पर डोर तोड़कर हवा के सहारे छोड़ दिया। चन्नी के वहीं के वहीं होंठ सिल गए।


तड़पती, आँसू पोंछती चन्नी कार में से निकली। सपनों के संसार में से हकीकत की दुनिया में उसने पहला कदम रखा। उसके पैर उसके अपने जिस्म का बोझ उठाने में असमर्थ थे। चन्नी को लगा मानो पैरों में बेडि़याँ पड़ी हों। वह शिथिल हुई टाँगों को घसीटती, गिरती, ढहती बड़ी कठिनाई से फैक्टरी पहुँची।
दिन भर चन्नी ने परमिंदर की ओर आँख उठाकर भी न देखा। शाम को परमिंदर नौकरी से इस्तीफ़ा देकर सबसे हमेशा के लिए अलविदा कहकर यह बहाना मार गया कि उसको कहीं और अधिक वेतन पर काम मिल गया है।


चन्नी को परमिंदर की जुदाई का अहसास बिल्कुल गगन के वियोग जैसा लगता था। जिस्म के किसी अंग के काटे जाने जैसी उसके दिल में दर्द उठता था। जिन पंखों पर वह उड़ी फिरती थी, ऊँची ऊँची उड़ाने भरने के ख्वाब देखे बैठी थी, वे झड़ गए प्रतीत हुए। चन्नी ने अपने आप को अपाहिज हुआ अनुभव किया। उसके लिए जि़न्दगी एकदम से फिर जहन्नुम बन गई।
परमिंदर काम पर से जा चुका था, पर चन्नी की घोर उदासी नहीं गई थी। बल्कि पैर गाड़कर खड़ी हो गई थी। परमिंदर के जाने से फैक्टरी को कोई अन्तर नहीं पड़ा था। यकीनन परमिंदर पर भी कोई असर नहीं पड़ा होगा। लेकिन चन्नी की जि़न्दगी में तो खलबली मच गई थी।


चन्नी की ड्यूटी प्रोडेक्शन लाइन से बदलकर पैकिंग टेबल पर लग गई थी। परंतु उसकी चोर निगाहें बार बार एंड आफ दा लाइन(उस जगह जहाँ अक्सर परमिंदर खड़ा होकर काम करता था) की ओर उठ जाती। यद्यपि मैनेजमेंट ने उस जगह पर नया चेहरा, नया व्यक्ति खड़ा कर दिया था, पर चन्नी को उस स्थान पर से अभी भी परमिंदर के अस्तित्व का अहसास होता और उसके जिस्म की महक आती थी।
परमिंदर के स्थान पर आए लड़के का नाम नरिंदर था। ज़रूरत से ज्यादा चन्नी की निगाह अपनी ओर घूमती देखकर नरिंदर ने सोचा कि शायद चन्नी उसमें दिलचस्पी ले रही है। इसलिए वह पहले तो चन्नी के आसपास चक्कर काटने लगा और फिर सुपरवाइज़र से कहकर उसने अपनी बदली चन्नी के पास करवा ली। नरिंदर ने निकटता हासिल करने के लिए बातचीत का सिलसिला शुरू किया। उसने बातों के माध्यम से चन्नी को प्रभावित करने का पूरा ज़ोर लगाया।


मंझदार में फंसी चन्नी को नरिंदर किनारे जैसा प्रतीत हुआ। उस साहिल जैसा जिस तक पहुँचने पर ही जान की सलामती थी। चन्नी को नरिंदर की बातों में तपिश और अपनत्व की खुशबू आई। चन्नी का दिल चाहता था कि नरिंदर उसके सम्मुख प्रेम का प्रस्ताव रखे और वह झट स्वीकार कर ले। नरिंदर को प्राप्त करने के लिए उसका दिल मचल उठा। बातों में व्यस्त चन्नी और नरिंदर को तेज़ी के साथ गुजरते वक्त का ज़रा भी ज्ञान न रहा कि कब चार बज गए।
फैक्टरी में से अपनी शिफ्ट खत्म करके घर को जा रही चन्नी को आज गगन बिसर चुका था, सुख याद नहीं था और परमिंदर को उसने भुला दिया था। उसके दिमाग के सूने कोनों में नरिंदर के ख़याल हावी थे। नरिंदर द्वारा अपने नयनों की प्रशंसा में की गई टिप्पणी को याद करके चन्नी का अंग अंग महक उठा। उसका मन अंदर से नरिंदर के लिए प्रेम से लबालब भर उठा।
सभी एक जैसे तो नहीं हुआ करते। चन्नी का डोलता हुआ मन तराजू के भारी पल्ले की भाँति नरिंदर की ओर झुक जाना चाहता था।
नहीं ! यदि इसने भी वैसा ही किया। फिर ? यदि इसने भी परमिंदर की तरह मुझे इस्तेमाल करके मेरी ख़बर न ली तो ? मैं कोई डोरमैट (पायदान) हूँ जो हर किसी के नीचे बिछती फिरूँ ? तुरंत ही चन्नी के चैकस दिमाग ने कल्पना की। चन्नी को पुनर्विचार करने के लिए विवश होना पड़ा।


सोच के बवंडरों में धूल का कण बनी चन्नी घर पहुँचते ही अपने कमरे में जाकर लेट गई। सुख जब नौकरी से लौटा तो कमरे की बत्ती जलाते ही अँधेरे में पड़ी चन्नी को देखकर उसे चिंता हो आई।
“चन्नी ? ठीक तो है ? कोई तकलीफ़ तो नहीं ?“ सुख ने चन्नी के करीब बैड पर बैठते हुए उसके माथे पर हाथ रखकर ताप देखा। माथा ठंडा था।
“नहीं, ठीक हूँ।“ चन्नी ने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।
“फिर लेटी क्यों है ?“ सुख के सहानुभूति भरे शब्द चन्नी के सीने के आरपार निकल गए।
“यूँ ही ज़रा थक गई थी।“ चन्नी ने सुख से विपरीत दिशा में करवट बदल ली।
सुख स्नान करने चला गया। चन्नी बैडरूम में पड़ी अपनी जि़न्दगी की उलझी तांतों को सुलझाने का यत्न करती रही।
सुख ने गुसलखाने में से आवाज़ दी, “चन्नी...।“


चन्नी ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसको कुछ सुना ही नहीं था। उसका अचेत मन कमरे में से कोसों दूर कहीं गुम हुआ पड़ा था।
“चन्न ?“ सुख ने और ऊँची आवाज़ में पुकारा।
इस बार सुख की आवाज़ चन्नी की तंद्रा को तोड़ने में सफल हो गई, “जी ?“
“चन्न डार्लिंग...मैं टॉवल भूल गया। ज़रा पकड़ा दो।“ सुख ने विनती की।
“अभी लाई।“


चन्नी ने फुर्ती से अल्मारी में पड़ा हुआ तौलिया उठाया तो उसके हाथ सने होने के कारण सफेद तौलिये पर दाग पड़ गए। नौकरी पर काम से हटने के बाद वह हाथ धोने भूल गई थी। उसने तौलिया बैड पर रखकर टिशू पेपर से अपने चिकनाई वाले हाथ पोंछकर साफ़ किए। टिशू कूड़ेदान में फेंकते हुए वह टिशू पेपर की तकदीर को लेकर सोचने लग पड़ी। उसको कमज़ोर टिशू की किस्मत की अपेक्षा जानदार तौलिये का मुकद्दर श्रेष्ठ लगा। इस्तेमाल दोनों को ही लगभग एक जैसे कामों के लिए किया जाता है। अंतर सिर्फ़ इतना है कि टिशू पेपर को एक बार इस्तेमाल करके फेंक दिया जाता है और तौलिये को कई दफा उपयोग में लाया जाता है। जब तौलिया दागी और गंदा हो जाता है तो उसको पानी, साबुन, सर्फ़, सोडे आदि से धोया, खंगाला, मला और कूटा जाता है। मैलमुक्त करके उसके स्वच्छ रूप को फिर से प्रयोग में लाया जाता है और तब तक बार बार साफ़ करक उपयोग में लाया जाता है जब तक तौलिया फट-फटा नहीं जाता। खुद एक मूर्खता करके चन्नी भी एक तौलिये से टिशू पेपर बनकर रह गई थी।


सुख दुबारा पुकारे इससे पहले ही चन्नी तौलिया उठाकर हमाम की ओर बढ़ी। अंदर से कुंडी न लगी होने के कारण दरवाज़ा चन्नी के डोर हैंडिल पर हाथ रखते ही खुल गया। चन्नी अंदर दाखि़ल हुई। सुख बाथ टब में अलफ नंगा आँखें मूंदे खड़ा था। फुव्वारे का सारा पानी सुख के सिर पर से गिरता और फिर पानी की धारें उसके जिस्म के हर हिस्से को गीला करती र्हुइं ड्रेन की ओर बह जातीं।
सुख की पत्नी होने के कारण चन्नी ने अक्सर उसके साथ वस्त्रहीन रातें गुज़ारी थी और अनगिनत बार उनके शारीरिक सम्पर्क हुए थे। पर आज तक चन्नी ने कभी भी सुख का नंगा जिस्म इतने ग़ौर से नहीं देखा था। गरम पानी बदन पर पड़ने से सुख के शरीर से उठती भाप में वह अर्श से उतरा कोई फरिश्ता ही प्रतीत होता था। चन्नी ने सुख के हर एक अंग को तटस्थ होकर बड़ी तसल्ली और हसरत से देखा।
सुख ने आहिस्ता आहिस्ता आँखें खोलीं तौलिया पकड़ने के लिए हाथ आगे बढ़ाया। चन्नी ने उसकी आँखों में आँखें डालकर देखा और कुछ पलों के लिए दोनों ने पलकें न झपकाईं। दोनों मंत्रमुग्ध हुए एक-दूसरे को देखते रहे। यानी हिप्नोटाइज़ हो गए हों और इससे बाहर देखना उसके वश के बाहर की बात हो। चन्नी को उसकी निगाहों में छलकती वासना नज़र आई। चन्नी को सुख की इस प्रकार की दृष्टि से लगा कि मानो सुख उसको काम के लिए निमंत्रण दे रहा हो। चन्नी के जिस्म में सिहरन दौड़ गई। उसके चुम्बकीय अंगों ने उत्तेजना के लोहे को खींचकर पकड़ लिया।


सुख ने उसको बाजुओं से पकड़कर बाथ में फुव्वारे के नीचे खींच लिया। पानी से भीगकर चन्नी के कोमल जिस्म से चिपटा गुलाबी रंग का सूट, सुख को अपना दुश्मन प्रतीत हुआ। वेग में आकर उन्होंने एक दूसरे को बेसब्री से चूमना शुरू कर दिया। सुख ने चन्नी का जंफर नितम्बों से ऊपर उठाया। चन्नी ने तीव्रगति से अपने सारे कपड़े उतारकर नीचे फेंक दिए। और वे बाथरूम के फर्श पर ही एक-दूसरे में समा गए। सुख के साथ आलिंगनबद्ध हुई चन्नी आज अगली-पिछली सारी कमियाँ पूरी कर लेना चाहती थी।
दोनों नीचे ही निढाल हुए पड़े, छत की ओर देखे जा रहे थे। कुछ समय बाद सुख ने पसरी हुई चुप को तोड़ते हुए कहा, “यार, आज जितना पहले कभी एन्जाय नहीं किया।“
“चलो, उठें।“ चन्नी मंद मंद मुस्कराई।


सुख ने उठकर जापानी डोल जैसी चन्नी को अपनी गोद में उठा लिया। चन्नी का तन मन तृप्त हो गया था। वह हल्की हो गई थी। सुख की बांहों में चन्नी किसी बच्चे की तरह लगती थी। सुख उसको लेकर बैडरूम में आ गया और दोनों जन बैड पर गिर पड़े।


चन्नी को प्यार को समझ आ आई थी। अब उसके दिल के अंदर रिश्ते-नातों की अहमियत जाग उठी थी। चन्नी को अपने गलती का अहसास हो गया था कि कभी उसने सुख को प्रेम करके देखा ही नहीं था। सुख की बजाय गगन, परमिंदर और नरिंदर में वह प्रेम खोजती रही थी। यह सोचते ही चन्नी को अपनी मूर्खता पर पश्चाताप हुआ। उसकी आत्मा एक भारी बोझ तले दब गई।
चन्नी ने सुख की आँखों में झाँका। चन्नी को नशा-सा हुआ। उसको जि़न्दगी में आज प्रथम बार किसी मर्द की आँखें नशीली लगी थीं उसको सुख दुनिया की कुल मर्दों की खूबियों का निचोड़ और प्रेम की मूर्ति प्रतीत हुआ। चन्नी कुछ पल के लिए उसकी आँखों में देखती रही और फिर उसने अपने हाथ से ढककर सुख की पलके बंद कर दीं। चन्नी के लिए इतना भर नशा ही उसको कम से कम जीवन भर मदहोश रखने के लिए पर्याप्त था। शराबी होने के बाद अपनी आँखों को मूंदती हुई वह सुख के धड़ से लिपट गई।

 

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: कहानी / मदहोश / बलराज सिंह सिद्धू / अनुवाद: सुभाष नीरव
कहानी / मदहोश / बलराज सिंह सिद्धू / अनुवाद: सुभाष नीरव
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