बिना जूते ओलम्पिक पदक / व्यंग्य / एम्.एम्.चंद्रा

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एक फिल्मी गाना शादी-विवाह में आज तक चलाया जाता है “जूते दे दो पैसे ले लो” लगता था यह जूते वाला खेल बस घर तक ही सीमित है, लेकिन जब एक फिल्म ...

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एक फिल्मी गाना शादी-विवाह में आज तक चलाया जाता है “जूते दे दो पैसे ले लो” लगता था यह जूते वाला खेल बस घर तक ही सीमित है, लेकिन जब एक फिल्म आयी “भाग मिल्खा भाग” तो यह जूता घर से बहार निकल कर खेल के मैदान तक पहुँच गया. उसे देख कर लगता था कि मिल्खा सिंह बिना जूते दौड़ा और अपना पैर घायल करवा लिया . हमें तो यही लगा की शायद उस समय भारत एक गरीब देश होगा, जिसके पास अपने खिलाड़ियों को देने के लिए जूते तक नहीं थे.

कुछ दिनों बाद जूते की महिमा चारों तरफ गाई जाने लगी और वह घर और खेल की दुनिया से निकल कर राजनीति तक पहुंच गया. यह इसका गुणात्मक विस्तार और गहराई में बहुत से लोग डूब रहे थे. जूते का राजनीति में आना और उसका भरपूर प्रयोग होना यह कोई अकस्मात घटना नहीं है. पहले से ही जूते का प्रयोग होता रहा है. अब बहुत से लोगों को अपनी राजनीति चमकाने का बहुत अच्छा हथियार मिल चूका है. कम से कम अब छर्रे वाली बन्दूक का इस्तेमाल करके राजनीति तो नहीं करनी पड़ेगी.

पूरी दुनिया में जूते फेंकने की परम्परा थोड़ी-सी नयी जरूर है, लेकिन समय, देश-काल के अनुसार यह अपने में परिवर्तन जरूर कर रही है . आज पूरी दुनिया में इसका प्रचलन बड़े पैमाने पर शुरू हो गया है. जिसका प्रारम्भ अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश की प्रेस कांफ्रेंस से हुआ. यहाँ एक इराकी पत्रकार ने उन पर एक के बाद एक दो जूते फेंके। पहला जूता फेंकते ही जैदी ने बुश से कहा कि “ये इराक़ी लोगों की ओर से आपको आख़िरी सलाम है.” अर्थात सलाम करने के काम भी जूता काम आ रहा था. उसने तुरंत ही दूसरा जूता फेंकते हुए कहा कि “ये ईराक की विधवाओं, अनाथों और मारे गए सभी लोगों के लिए है.” अर्थात शोक सन्देश देने के का भी काम जूता ही करने लगा. जार्ज बुश मुस्कराये! लेकिन इस घटना को गंभीरता से नहीं लिया. वे अच्छी तरह से जानते थे कि ये उनके सम्मान में फेंका गया अनमोल तोहफा है . अब कोई भी इस तोफे से बचने वाला नहीं है.

चीन ने देखा की जूते फेंकने की परम्परा बहुत तेजी से विकसित हो रही है तो उसने तुरंत ही पूरी दुनिया का बाजार सस्ते जूतों से पाट दिया. जूते फेंकने का विस्तार हो ही रहा था. एक साल बाद ही चीनी प्रधानमंत्री वेन जिया बाओ लंदन गये और उन्होंने जैसे ही कैंब्रिज विश्वविद्यालय में भाषण देना शुरू किया,अचानक एक व्यक्ति उठ खड़ा हुआ और चिल्लाया कि इस तानाशाह को और इसके झूठ के पुलिंदों को आप लोग कैसे बर्दाश्त कर पा रहे हैं। अर्थात तानाशाह को जूते मारने और जूठ बोलने वाले का भी स्वागत जूतों से किया जा सकता है.

ये बहुत अच्छी खबर थी कि कम से कम भारत में तो कोई तानाशाह नहीं है न ही यहाँ जूते फेंकने की नौबत आती थी क्योंकि यहाँ के नेता तो फेंकने में विश्वगुरु है ही. भारत में जूते फेंकने की परम्परा नहीं है ....सीधे जूते मारने की परम्परा रही है ...जूते फेंकने की इस परम्परा ने भारत की प्राचीन संस्कृति को चुनौती दे डाली .

लेकिन भारत तो भारत है. वो हर चीज का जुगाड़ कर लेता है. यहाँ के लोगों ने भी पश्चिम वालो की तरह जूता फेंकने की परम्परा को स्वीकार कर लिया और जूते फेंकने में विश्व गुरु बनने की रह पार चल पड़ा. जिसमें पहला सम्मान चिदंबरम पर जूता उछाल कर किया गया. पत्रकार जरनैल सिख विरोधी दंगों के मामले में दोषी जल्दी न्याय मिलने की खुशी सबको बता रहा था. अर्थात जब किसी को न्याय मिले या न मिले सबको जूता फेंकने की आजादी है.

मनमोहन सिंह , नीतीश कुमार, अरविन्द केजरी वाल जैसे न जाने कितने नेता इस सम्मान का हक प्राप्त कर चुके अब जूतों की भारत में कोई कमी नहीं है. बड़ी से बड़ी कम्पनी छोटी से छोटी कम्पनी का व्यापार अचानक बढ़ गया है. यह सब जूते का राजनीति में आने से हुआ है, वरना जूते की औकात सबको पता थी. पैर की जूती किसको समझा जाता है, ये भी सबको पता है. खैर सबके दिन फिरते है अब सिर्फ जूते वालो के दिन है.

लेकिन बुनकर की बेटी दुती चंद ने अपने लिए रियो ओलम्पिक में दौड़ने के लिए अच्छे जूते मांग कर भारतीय राजनीति और लोकतंत्र का अपमान किया है. उसे अपने फटे जूतों से ही गोल्ड मेडल प्राप्त करके देश का नाम रोशन करना चाहिए था. मेडल कोई याद नहीं रखता लेकिन 'प्रेम चन्द के फटे जूते' आज भी सबको याद है.

खेल मंत्रालय इस बार क्या नहीं कर रहा है. कोई देखे तो सही? इस बार भारत अपना सबसे बड़ा दल ओलम्पिक भेज रहा है. मेडल के लिए प्रचार भी बहुत खूब हो रहा. करोड़ों रुपये “लहरा तिरंगा” स्लोगन में लगाया जा चूका है. इन सब कामों से लगता है कि इस बार सारे पदक भारत की झोली में ही आने वाले है. सबसे ज्यादा उम्मीद हमें उन खिलाड़ियों से है, जो बिना संसाधन के खेलने वाले है.

यह दुःख की बात है कि ओडिशा के बुनकर दंपत्ति की बेटी ने तमाम प्रतिबंधों को झेलते हुए दुती चंद, जिसने 100 मीटर की दौड़ के लिए रियो ओलंपिक में स्थान बना लिया, वह जूते की मांग करे. जूते की जरूरत सबसे ज्यादा किसको है? उन खिलाड़ियों को जो रोज करोड़ों पैसा कमाते है या उन खिलाड़ियों को जो मात्र कई दशकों बाद कोई बड़ा काम करे. फिर यह कोई अनोखी घटना तो है नहीं. इससे पहले भी पीटी उषा यह काम कर चुकी है.

दुती चंद खुशी को तो खुशी होनी चाहिए कि यह पल उसकी जिन्दगी का यादगार पल है. वह 36 साल बाद भारतीय महिला ओलंपिक खेलों की 100 मी. फर्राटा दौड़ के लिए क्वालिफाय करने में सफल रही. यह एक बड़ी उपलब्धि है. अच्छे जूते मांग कर अपने को दुःख न पहुंचाये. उसे सिर्फ ओलम्पिक पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए.

दुती चंद रियो ओलंपिक में देश की उम्मीद को जिन्दा रखने के लिए प्रार्थना और दुआ जरूरत है न कि दौड़ लिए अच्छे जूतों की. दुती चंद को सिर्फ दुनिया की सबसे कमजोर धाविकाओं से ही तो मुकाबला करना है. उसके लिए उसके फटे जूते ही बहुत है.उसे नये जूते की क्या जरूरत है.

दुती चंद को आगाह किया जाता है कि राज्य सरकार से निवेदन निवेदन न करे कि मुझे ट्रैक सूट और एक जोड़ी दौड़ने वाले जूते दिए जाएं। देश के लिए अपमान की बात है कि वह भिखारियों की तरह सरकार से जूते मांगे. वैसे सरकार को इस तरफ ध्यान ही नहीं रखना चाहिए. किसी को भी समय से जूते चपल नहीं मिलने चाहिए वरना राजनीति में जूतों का प्रयोग बंद हो जायेगा.

तमाम नेताओं की तरह मुख्यमंत्री ने उसे शुभकामनाएं और आशीर्वाद दिया है, अब उसके पदक जितने की सम्भावना बढ़ गयी है.

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रचनाकार: बिना जूते ओलम्पिक पदक / व्यंग्य / एम्.एम्.चंद्रा
बिना जूते ओलम्पिक पदक / व्यंग्य / एम्.एम्.चंद्रा
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