समीक्षा / दबे-कुचलों की आवाज को बुलंद करती पत्रिका 'लोकतंत्र का दर्द' / उमेश चन्द्र सिरसवारी

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'' लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका के एक वर्ष पूर्ण करने पर विशेष रिपोर्ट''   'लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका को प्रकाशित ...

''लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका के एक वर्ष पूर्ण करने पर विशेष रिपोर्ट''

 

'लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका को प्रकाशित होने से पूर्व मैं टी. पी. सिंह को जानता नहीं था। टी. पी. सिंह से मेरे मिलने की कहानी बड़ी दिलचस्प है। बात 2006 की है, तब हमारा जिला मुरादाबाद ही था। 2006 में मेरे दिमाग में लिखने और छपने का कीड़ा कुलबुला रहा था। अमर उजाला, दैनिक जागरण के सम्पादकीय पृष्ठ पर पाठकों के पत्र प्रकाशित होते थे। लिखना शुरू किया लेकिन छप नहीं पा रहा था। मैं इन समाचार पत्रों के सम्पादकीय कॉलम नियमित पढ़ता था, जिसमें मुरादाबाद, अमरोहा, गजरौला, चन्दौसी के युवा लगातार छप रहे थे। राजनीति, समाज, शिक्षा और दलित, दबे-कुचले लोगों पर हुए अत्याचारों पर लगातार प्रतिक्रियाएं इन पत्रों में होती थीं। शुरू-शुरू में दिक्कत आई लेकिन मैं भी उसमें छपना शुरू हो गया। चन्दौसी से सतीश कुमार अल्लीपुरी लगातार अपनी जगह बनाए हुए थे और अमरोहा से तेजपाल सिंह। इनके बीच में जब मैं छपा तो बड़ा अच्छा लगा। सतीश जी को मुझसे मिलने की बेहद उत्सुकता थी, ऐसा उन दिनों एक साइबर कैफे चालक की बातों से पता चला। सतीश जी को पहले से ही यह शौक रहा है कि जो लिख रहे हैं वे आपस में मिलें और एक दूसरे के विचारों का आदान-प्रदान हो। टी. पी. सिंह अमरोहा से, सुनील कुमार चौहान बदायूँ से, विनीत कुमार चक-गजरौला आदि से मिलवाने में सतीश जी का ही हाथ रहा है, जिनके विचारों ने मुझे बेहद प्रभावित किया। जीवन में जिसके विचारों से प्रभावित हों और उनसे मिलकर उनके साथ चलना बड़ा सुखद होता है। इसी क्रम में एक दिन सतीश जी का मेरे पास फोन आया। उन्होंने कहा कि हमारे मित्र टी. पी. सिंह जो अमरोहा से हैं, वे एक पत्रिका निकालना चाहते हैं। उन्हें मदद करनी है। वे अलीगढ़ आएंगे, उनसे मिलना। इत्तेफाक से टी. पी. सिंह दो बार अलीगढ़ आए और अपने कार्य की व्यस्तता के चलते मैं उनसे नहीं मिल पाया। उन्होंने तुरन्त सतीश जी से शिकायत कर दी, भाई... उमेश जी तो बहुत बड़े आदमी हैं। उन्होंने मिलना तक उचित नहीं समझा। यह सुनकर मुझे बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई, अपनी गलती का एहसास हुआ और मैंने खुद टी. पी. सिंह को फोन किया, बुलाया और मुलाकात की। इस तरह से टी. पी. सिंह से मेरी पहली मुलाकात हुई। पत्रिका का प्रवेशांक हाथ लगा। पढ़ने के बाद मुँह से निकला... वन्दे में दम है। फिर मुलाकातों का यह सिलसिला यूँ ही, आज तक जारी है.......।

प्रवेशांक, अगस्त 2015

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'लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका के प्रवेशांक में 13 आलेख, दो कविताएँ, एक कहानी और दो लघु कथाएँ हैं। पत्रिका का जैसा नाम 'लोकतंत्र का दर्द' है वैसे ही आलेखों का चयन किया गया है। इस अंक में लिखे गए सम्पादकीय में संपादक टी. पी. सिंह ने गुरदासपुर में हुए आतंकी हमले पर फोकस किया है और सवाल उठाया है कि आखिर हमारी सरकारी एजेंसियां क्यों हर हमले के बाद ही जगती हैं ? सरकारें कोरे बयानबाजी से आखिर क्या साबित करना चाहती हैं। आगे चर्चा करते हुए देश की एकता-अखण्डता को समझते हुए सम्पादक जी कड़े कदम उठाने की बात करते हैं। 'लोकतंत्र का दर्द' नाम से एडवोकेट मुनेश त्यागी का लिखा गया आलेख विचरणीय है। वे 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज के भारत के हालात की बेबाकी से पड़ताल की है। इसी अंक में समाजशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान प्रो. योगेन्द्र सिंह का आलेख 'किसानों की हुंकार' अपनी ओर ध्यान खींचता है, तो वहीं पत्रिका के संपादक टी. पी. सिंह के आलेख 'पुलिस का जनविरोधी चेहरा' और 'दबाब समूह की आवश्यकता' भी शामिल हैं। इन आलेखों के जरिए संपादक ने एक तरफ पुलिस की बर्बरता की कहानी और उसका खौफनाक चेहरा उजागर किया है तो दूसरे आलेख में समाज में दलितों की स्थिति का जायजा लिया है। पत्रिका के इसी अंक में एक विशेष रिपोर्ट '1987 की वो रात' बहुत ही मार्मिक है। एक शहर में दंगा होने के बाद वहां के लोगों पर क्या गुजरती है, और इसमें उन्होंने क्या-क्या खोया, यह उनका दर्द है। हर शहर की कहानी को बयां करता यह आलेख इस अंक की जान है। एड. दिनेश अग्रवाल का आलेख 'लोकतंत्र में संवादहीनता' विचरणीय है। मोहित कुमार गुप्ता का आलेख 'मेहनतकश लोगो बंटो नहीं, संगठित हो' बहुत कुछ कहता नजर आता है। संध्या नवोदिता का आलेख 'जनता में फूट डालो राज करो' शत-प्रतिशत बात कहता प्रतीत होता है। आज राजनीति में नेताओं का यही चरित्र बन गया है। भारत की राजनीति का विश्लेषण करता यह आलेख बहुत शानदार लगा। सतीश कुमार अल्लीपुरी का आलेख 'विकसित बनने की अवधारणा और लोकतंत्र' भी पठनीय है। इस अंक की कविताएं भी पत्रिका का जैसा नाम है वैसी कथा बयां करती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि संपादक टी. पी. सिंह जिस उद्देश्य को लेकर पत्रकारिता जगत में आए हैं, उस पर सौ प्रतिशत खरा उतरने का प्रयास किया है।

अंक-2, सितम्बर 2015

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नागा साधुओं के चित्र के साथ इस अंक का भी कवर पृष्ठ बहुरंगी और आकर्षक है। इस अंक में कुल 11 आलेख, एक बाल कहानी और पांच कविताएं हैं जो समाज के विभिन्न मुद्दों को लेकर लिखी गई हैं। पत्रिका समाज के जिस मुद्दे को लेकर चल रही है, उस मुद्दे को पत्रिका टीम ने इस अंक में भी बरकरार रखा है। जहां सम्पादकीय में सम्पादक ने राज्य सरकार की नीतियों को लेकर सवाल उठाया है, वहीं उन्होंने सरकार को जनता के हित के फैसले लेने पर जोर दिया है। आज बेरोजगारी प्रदेश की सबसे बड़ी समस्या बन गई। सम्पादक के ही शब्दों में यदि कहें कि मंहगाई की तरह बेरोजगारी बढ़ती जा रही है और सरकार रोजगार देने में विफल रही है तो कुछ अनुचित न होगा। अब वक्त आ गया है कि सरकार को कठोर कदम उठाते हुए निष्पक्ष तरीके से युवाओं को रोजगार उपलब्ध कराना चाहिए, अन्यथा जनता जिस तरह नेताओं को कुर्सी पर बिठाना जानती है उसी तरह उतारना भी जानती है। मुनेश त्यागी अपने लेख 'क्रान्ति यानि इंकलाब' एकदम आज की स्थिति को बयां करता है। सरदार भगतसिंह की बहादुरी का लेखा-जोखा लेखक ने इस लेख में किया है जो काबिलेतारीफ है। सम्पादक का आलेख 'धर्मान्धता के विरुद्ध' आलेख अंधविश्वास की ओर बढ़ते इक्कीसवीं सदी के आजाद भारत की स्थिति को बयां करने के लिए काफी है। आज विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है, फिर भी भारत के कई हिस्सों में आज भी लोग अंधविश्वास में जी रहे हैं। पंडे-पुजारियों की पोल खोलता टी. पी. सिंह का यह आलेख पठनीय है। 'रोबोटिक इंसान की दुनिया' आलेख के माध्यम से हिंदी की शोध छात्रा कुसुमलता जी ने युवाओं में बढ़ते असंतोष को सुन्दर अभिव्यक्ति दी है। उत्तराखण्ड के साहित्यकारों में एक प्रसिद्ध नाम है, कैलाश जोशी। उनका भी आलेख 'एक दर्द यह भी' इस अंक में है जिसमें भारत की वर्तमान स्थिति को लेकर गहन चिन्ता जाहिर की है। वे चर्चा करते हुए कहते हैं कि हमारे क्रान्तिकारियों ने सीने पर गोलियां खाईं, लाखों यातनाएं सहीं, जेल गए, हजारों जानें गईं, तब जाकर हमें यह आजादी मिली, जिस भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता है आज उसी भारत की स्थिति बद से बदतर हो गई है और इसके लिए जिम्मेदार हैं हमारे राजनेता। आजादी के साठ साल बाद भी भारत की स्थिति जस की तस बनी हुई है।

भारत में नारी सदैव पूजनीय रही है। नारी के बिना परिवार की कल्पना नहीं की जा सकती। नारी समाज का अभिन्न अंग है। इसी की एक पड़ताल करता उमेशचन्द्र सिरसवारी का आलेख 'यह सोच बदलनी चाहिए' के माध्यम से लोगों को नारी के प्रति सोच बदलने का आह्वान करता है। इसी अंक में चन्दौसी के वरिष्ठ नेता सतीश प्रेमी का साक्षात्कार भी है जिसमें सम्पादक टी. पी. सिंह ने समाज में हो रहे जातीय भेदभाव को लेकर उनसे जबाब तलब किए हैं। सतीश प्रेमी ने उसी बेबाकी से जबाब दिए, सतीश प्रेमी चन्दौसी के दलित नेता है और भारत सरकार के राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के उत्तर प्रदेश कोर्डिनेटर हैं।

इसी अंक में मोहित कुमार गुप्ता का आलेख 'शिक्षा : बाजारीकरण के दौर में' विचरणीय है। आज जिस तरह से शिक्षा का बाजारीकरण हुआ है वह सोचनीय है। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए और कठोर कदम उठाने चाहिए। शोध छात्रा मंजू कुमारी का आलेख 'डॉ. भीमराव अम्बेडकर : संघर्षगाथा' पठनीय है। इस आलेख में उन्होंने बताया है कि डॉ. अम्बेडकर ने अपने जीवन में तमाम कठिनाईयों का सामना किया और देश के संविधान का निर्माण किया जिससे आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं। आज युवाओं को डॉ. भीमराव अम्बेडकर से प्रेरणा लेनी चाहिए।

निष्पक्ष आवाज देश के युवाओं को एकत्र करने का काम करती है। सम्पादक टी. पी. सिंह एक जोशीले युवा हैं, मुझे उनकी आँखों भारत के दबे-कुचले, सताए लोगों का दर्द साफ दिखता है। इसी को आधार बनाकर आज का सबसे बड़ा हथियार फेसबुक पर चर्चा की, जिसको युवाओं के विचारों के साथ अगले कॉलम में प्रकाशित किया है और राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान उठाए हैं। अगला आलेख है 'विश्वास खोती नौकरशाही'। इस आलेख ने मुझे बेहद प्रभावित किया। इसमें लेखक ने भ्रष्टतंत्र की पोल खोलकर रख दी है। इस विशेष लेख के लिए मैं टी. पी. सिंह को साधुवाद देता हूँ और अनुरोध करता हूँ कि आज भ्रष्टतंत्र में पिस रहे युवाओं की आवाज उठाएं और इस तरह के आलेख अवश्य ही प्रकाशित करें। सहारनपुर की दीपिका मित्तल का आलेख 'संघर्ष से मिलती है स्थायी सफलता' बेहद रोचक और अनुकरणीय है। यह उन युवाओं के लिए संदेश है जो जीवन से हार मानकर खुद को खत्म मान लेते हैं। उन्हें इससे प्रेरणा लेनी चाहिए और जीवन के उद्देश्य को समझना चाहिए। राजेश कुमार तिवारी की कविता 'गुण्डे हुए निजात हमारी बस्ती में' आज के लोकतंत्र के लिए सबक है, वहीं युवा रचनाकार सतीश कुमार अल्लीपुरी की बाल कहानी 'चुनमुन की दुनिया' प्रेरणादायक कहानी है। हिमांशु चौधरी की कविता 'औरत... पर देवी', प्रेमचन्द की कविता 'सुनो कहानी भारत की' और नफ़ीस बेगाना, रतन कुमार श्रीवास्तव 'रतन' की गज़लें पठनीय और रोचक हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सम्पादक टी. पी. सिह 'लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका के पहले अंक से जो तेवर के साथ प्रकाश में आए वह तेवर दूसरे अंक में बरकरार रखते हुए शत-प्रतिशत खरे उतरते नजर आए हैं और साहित्य जगत में एक धमक पैदा की है, पाठकों में जगह बनाई है, इसके लिए टीम को साधुवाद।

अंक- 03, अक्टूबर 2015

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'लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका का तीसरा अंक प्राप्त हुआ। अक्टूबर माह में हिन्दूओं का प्रसिद्ध त्योहार विजयदशमी आता है। इस दिन कई जगहों पर रामलीला का आयोजन होता है और बड़े से मैदान में बुराई के प्रतीक रावण के पुतले का दहन किया जाता है। बुराई पर अच्छाई की जीत, और साथ ही रावण के पुतले के दहन को लेकर 'लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका का कवर पृष्ठ आकर्षित करता है। सच में, इस रावण के जलाने से पहले हमें अपने अन्दर के रावण को जलाना चाहिए। इसी कवर पृष्ठ पर नीचे देशभर में लुट रही बेटियों की आबरू पर ध्यान देने की कोशिश पत्रिका ने की है। हम हर साल रावण का दहन करते हैं लेकिन अपनी बहन-बेटियों को सुरक्षित नहीं रख पा रहे हैं। हर रोज बेटियां दरिंदो का शिकार हो रही हैं। इस अंक के कवर पृष्ठ ने अपने अन्दर बहुत सवाल उजागर किए हैं जिस पर लिखना खत्म नहीं होगा लेकिन पृष्ठ कम पड़ जाएंगे।

इस अंक में सोलह आलेख एक कहानी, दो व्यंग्य और चार कविताएं हैं। सम्पादकीय में टी. पी. सिंह ने पिछले दिनों हरियाणा प्रदेश में दो मासूमों को मारे जाने पर चिंता व्यक्त की है और सरकार का ध्यान इस घटना की ओर खींचा है। वास्तव में आजादी के 65 वर्षों में भी कुछ नहीं बदला है, हालात वहीं के वहीं हैं, बस दलितों पर अत्याचार करने के तरीके बदल गए हैं। किसी न किसी तरह दलितों का शोषण किया जा रहा है और सरकार कुछ नहीं कर पा रही हैं। अगला आलेख अजान अख़्तर का 'वोट बनाम नोट और शराब' बेहद महत्वपूर्ण है। इसमें अजान साहब ने नेताओं के कारनामों का काला चिट्ठा खोला है। आरती लाल जाटव का संस्मरणात्मक आलेख 'सपनों की हकीकत' बेजोड़ और रोचक भी है। आरती लाल जी ने अपने जीवन के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की और उन्होंने बड़े अनोखे अंदाज में युवाओं को सीख दी है कि हमारी युवा पीढ़ी जितना प्रयास सरकारी नौकरी के लिए रात-दिन एक कर देती है, यदि वही जोश अपना स्वरोजगार, अपना व्यवसाय करने में जुट जाए तो इससे निश्चित ही देश की तकदीर बदल सकती है, इस पर चर्चा करते हुए यह भी स्वीकार करते हैं कि यदि सभी रोजगार में आ गए तो सरकारी व्यवस्था अनाथ हो जाएगी। इस बात से निष्कर्ष यही निकलता है कि अभिभावकों को भी बच्चों की भावनाओं को जान लेना चाहिए, कि उसे किस क्षेत्र में भविष्य बनाना है। 'कब तक आतंक की फैक्ट्री चलाएगा पाक' कल्पना यादव अपने आलेख में पाकिस्तान के नापाक इरादों से अवगत कराती हैं, तो वहीं डॉ. पृथी सिंह का आलेख 'बाल श्रमिकों के सवाल' बाल श्रमिकों की दशा को इंगित करता है। देशभर में होटलों, ट्रेन तथा सार्वजनिक स्थलों में मासूम बच्चों में भीख मंगवाना, बंधक बनाकर काम कराने का धंधा खूब फल-फूल रहा है, सरकार को बाल श्रमिकों की ओर ध्यान देना चाहिए। एडवोकेट दिनेश अग्रवाल का आलेख 'मानवता को शर्मसार करने का जिम्मेदार कौन ? बेहद मार्मिक और चिंतनीय आलेख है। कानून वगैर अपराध साबित हुए किसी को भी अपराधी नहीं ठहराता, समाज को ऐसे .त्यों से बाज आना चाहिए। कैलाश जोशी का आलेख 'जनता हेतु जनता का राज' बेहद उम्दा और पठनीय आलेख है। जोशी जी ने अपने इस आलेख की शुरुआत 'जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता के शासन का नाम ही लोकतंत्र है' से की है और संविधान में राजनीतिज्ञों के लिए शासन चलाने के लिए क्या प्रावधान किए गए और हमारे राजनेता कितने खरे उतरे हैं ? इसकी खास पड़ताल करता है। 'पड़ गए हैं 'बादशाह' जब से, 'दुक्कियों के चक्कर में। 'बेगमें' भी 'गुलामों' की हुए जा रही हैं और 'इक्के' भी आवारा हो गए हैं'' पंक्तियां आज भारत की तस्वीर को बयान करती हैं। इस आलेख के लिए मैं कैलाश जी को बधाई देता हूँ।

उमेशचन्द्र सिरसवारी का आलेख 'लोकतंत्र में जनप्रतिनिधियों की जिम्मेदारी' है जिसमें नेताओं की जिम्मेदारी को बताने का प्रयास किया है और नेता उस पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं। सतीश कुमार अल्लीपुरी का जानकारी परक आलेख 'सांप : विष भी है अमृत' बेहद रोचक है और सांपों को लेकर पाठकों का भ्रम दूर करने का काम करता है। मोहित कुमार गुप्ता का आलेख 'हिंदुत्व का एजेंडा' पठनीय है। इस आलेख में हिंदूवादी संगठनों के कार्यों पर सवाल उठाए हैं। रामसिंह बौद्ध का आलेख 'ठगी के दौर में', एड. मुनेश त्यागी का आलेख 'हिन्दू-मुस्लिम एकता में शहीदों का अविस्मरणीय योगदान' बहुत ही अच्छे और सुन्दर संदेश देते हैं। .ष्ण कुमार का आलेख 'ये डिजीटल इंडिया, क्या बला है' में लेखक ने नरेन्द्र मोदी सरकार पर सवाल दागे हैं, वे हजम नहीं होते। यहां मैं एक टिप्पणी करना चाहूँगा कि यदि नरेन्द्र मोदी सही काम नहीं कर रहे हैं तो साठ साल में कांग्रेस सरकार ने कौन-सी देश को ऊँचाईयां दी हैं। लेखक को एकपक्षीय कभी नहीं होना चाहिए। हां, जिस तरह इस आलेख में लेखक ने नरेन्द्र मोदी सरकार की बखिया उधेड़ी है, उसी तरह पूर्व सरकार के कारनामों का चिट्ठा खोलते तो आलेख जरूर पठनीय बन पड़ता। आज के हालात के लिए अकेली भाजपा या नरेन्द्र मोदी दोषी नहीं हैं। अपनी निजी टिप्पणी को आधार बनाकर एक नेता पर भड़ास निकालना अच्छे लेखक की निशानी नहीं है।

सुमिता जी का आलेख 'हर समर्थ आदमी अपने से कमजोर का सहायक बने' में सुमिता जी ने एक-दूसरे के काम आने, एक-दूसरे का सहयोग करने पर जोर दिया है। कुसुमलता जी की कहानी 'मूंछ की इज्जत' बड़ी ही प्यारी और सुन्दर कहानी है। इसके लिए लेखिका को बधाई। विशाल प्रताप सिंह का व्यंग्य 'आपकी सेवा में', 'काश ! मैं प्रधानमंत्री होता' बेहद रोचक हैं। डॉ. अशोक गुलशन का गीत, प्रेमचन्द की कविता भी गुनगुनाने योग्य हैं। अन्त में अरुण तिवारी की 'एक चिठ्ठी, धर्माचार्यों के नाम' पठनीय है। इसमें उन्होंने पंडे-पुजारियों का काला चिठ्ठा खोला है, इससे जनता को सबक लेना चाहिए। अन्त में पिछले अंक की ही भांति इस अंक में भी फेसबुक बहस का कॉलम शामिल किया गया है जिसमें मंहगाई पर विशेष चर्चा की गई है। कुल मिलाकर मैं कह सकता हूँ कि टी. पी. सिंह की टीम के तेवर तीसरे अंक में भी बरकार हैं।

अंक- 04/05, नवंबर-दिसंबर 2015

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'लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका, नवंबर-दिसंबर 2015 का यह अंक संयुक्तांक है। इस अंक में 13 आलेख, 5 कविताएं और एक कहानी है। इस संयुक्तांक के संपादकीय में शराब को लेकर संपादक टी. पी. सिंह ने सवाल उठाए हैं। वास्तव में राज्य में पंचायत चुनावों में शराब सरबत की तरह बांटी जाती है। इससे घर बर्बाद हो रहे हैं। मैं संपादक की बात से सौ फीसदी सहमत हूँ। शराब पर प्रतिबंध लगना चाहिए, साथ ही इसके जरिए एक मुद्दा और उठाता हूँ कि अब समय आ गया है कि ग्राम पंचायत चुनाव भी बंद होने चाहिए। मेरी बात अटपटी जरूर लगेगी लेकिन ऐसा होना चाहिए। आज पंचायत चुनाव के चलते गांव राजनीति के अड्डे बन गए हैं। चुनावी रंजिश में परिवार के परिवार कत्ल कर दिए जाते हैं। ग्राम पंचायत चुनावों से प्यार, मौहब्बत, मेल-जोल की संस्.ति गुम हो गई है। इस महत्वपूर्ण मुद्दे को उठाने के लिए, मैं संपादक को बधाई देता हूँ।

अगला आलेख है याशिर अशरफ़ का 'हिन्दुस्तानी मुसलमान : महज सोच या हकीकत' बेहद उम्दा और भाईचारे की मिशाल पेश करता है। इस अंक का बेजोड़ आलेख 'जनकल्याण की नीतियां ही है विकल्प' है। एडवोकेट मुनेश त्यागी ने अपने इस आलेख के माध्यम से नेताओं को दुत्कारा है और देशहित में विकास और जनकल्याण के कार्य करने की नेताओं को नसीहत दी है। संपादक टी. पी. सिंह का आलेख 'मरघट में चुनाव' बहुत कुछ सोचने पर विवश करता है। नेता वोट लेने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं, लेकिन उन्हें जनता के दुख-दर्द से कोई लेना-देना नहीं। इस आलेख के जरिए टी. पी. सिंह ने जनता की आँखें खोलने का काम किया है। 'नेपाल का दर्द' और 'बाजारवाद की गुलामी में जकड़ता भारत' बेहद उम्दा आलेख हैं। गरीबों के प्रकार, विश्व चिंतन में आजीवक का मौलिक योगदान, आलेख पठनीय हैं। कुसुमलता जी की कहानी 'मसान' प्रेरणादायक कहानी है। इस अंक की कविताएं भी पठनीय हैं। कुल मिलाकर यह अंक भी सही है और अपना रास्ता बरकरार रखा है।

अंक- 06, जनवरी 2016

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'लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका का जनवरी 2016 का अंक इसलिए विशेष है क्योंकि कानून की देवी इसके मुखपृष्ठ पर है। इस अंक में कुल १२ आलेख, एक व्यंग्य, एक कहानी और पाँच कविताएँ हैं। बसपा के मुरादाबाद के जोनल कोर्डिनेटर ग्रीश चन्द का साक्षात्कार भी इस अंक में शामिल है। लोकतंत्र में न्यायपालिका का महत्वपूर्ण योगदान है। इसी पर आधारित संपादक टी. पी. सिंह ने अपने सम्पादकीय में बात कही है। उन्होंने कानून पर सवालिया निशान उठाते हुए अदालतों में अटके मुकद्दमे पर सही निर्णय लेने और बच्चों के अपराधी बनने वाली बातों पर प्रकाश डाला है। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए।

शोधार्थी विपिन कुमार का आलेख 'लोकतंत्र की सार्थकता' पठनीय है। लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए बड़े ही सुन्दर ढंग से न्यायपालिका की जिम्मेदारी को बताया है। यह आलेख सच में शोध करके ही लिखा गया है। अगला आलेख है कैलाश जोशी का 'तारीख पर तारीख'। यह प्रसिद्ध पंक्तियां सन्नी देओल की फिल्म दामिनी से लिया गया है। न्याय के यहाँ देर है अंधेर नहीं, पंक्तियों के साथ जोशी जी न्यायपालिका में भरोसा जताते हैं, लेकिन नसीहत भी देते हैं कि कोर्ट में चल रहे मामले पर तारीख, बेल खत्म होनी चाहिए और अपराधी को सजा मिलनी चाहिए जिससे अपराधियों में खौफ हो। वे सिस्टम को दुरस्त होने की बात करते हैं और आगाह करते हैं कि यदि समय रहते स्थिति नहीं सुधरी तो परिणाम भयंकर होंगे। उमेशचन्द्र सिरसवारी का आलेख '...तो ढूँढते रह जाएँगे लड़कियाँ' आज के समाज को नसीहत दे रहा है। समाज में जिस तरह से बेटियों को कोख में ही मारा जा रहा है वह निन्दनीय है। इसमें उन्होंने अपने गाँव की सच्ची घटना का जिक्र किया है जिसमें एक तांत्रिक ने अपने स्वार्थ के लिए तीन वर्ष की बच्ची को मार दिया था, मामला खुलने पर भी पुलिस कुछ नहीं कर सकी। यह स्थिति भयावह है।

संपादक टी. पी. सिंह का 'टूटती न्याय की आस' बेजोड़ आलेख है। इस आलेख में टी. पी. सिंह ने लोकतंत्र की आँखें खोलने का काम किया है। डॉ. स्नेहवीर पुण्डीर का व्यंग्य 'क्रिकेट कथा' मजेदार है तो वहीं डॉ. डीके भास्कर का आलेख 'सामाजिकता और अपराधिकता का सामंजस्य' आज के भारत की स्थिति को बयान करने के लिए काफी है। जहाँ राजनीति और अपराध का गठजोड़ हो जाता है वहां की जनता कभी सुखी नहीं रह सकती। ऐसा ही भारत में हो रहा है। यहाँ राजनीति ने अपराध को चुंगुल में लेकर देश पर राज कर लिया है। लोग अपराध में पिसे जा रहे हैं। इस सार्थक लेख के लिए डीके भास्कर जी को बधाई।

एएमयू के हिंदी विभाग के शोधार्थी सालिम मियां का आलेख 'सामाजिक न्याय की दरकार' बहुत सोच समझकर लिखा गया है। उन्होंने इसमें सही तथ्यों को प्रस्तुत किया है जो सच में भारत में हो रहे अपराधों पर नियंत्रण और न्याय की आशा करते हैं, इसको इंगित करता है। बसपा के नेता ग्रीश चन्द का टी. पी. सिंह द्वारा लिया गया साक्षात्कार में ग्रीश चन्द ने प्रदेश में आए अपराधों का जिक्र किया है। लेकिन अपने साक्षात्कार में वे युवाओं के मामले को बड़ी ही होशियारी से टाल गए। मुझे उनके साक्षात्कार में कुछ छूटा सा नजर आया। भारत युवा प्रधान देश है और आज देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का युवा बेरोजगार घूम रहा है। वर्तमान प्रदेश सरकार ने नौकरियों में भेदभाव करते हुए नियुक्तियां की हैं। पूर्व विधायक को इन पर भी कुछ बोलना चाहिए था जिससे युवाओं को राहत मिलती।

कुसुमलता जी की कहानी 'हैवानियत' पढ़कर मैं सिर पकड़ कर बैठा गया। आज की भारतीय नारी की दशा को बयान करती इस मार्मिक कहानी को मैं 100 में से 100 नंबर दूँगा और कुछ कहने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं...। ऐसा ही आलेख मदनलाल आजाद का 'मैं सचमुच अपने पहले प्यार का कत्ल कर देना चाहती थी' है। यह आलेख आज के भारत की दशा को बयान करने के लिए काफी है। .ष्ण कुमार रामानन्दी का आलेख 'जनप्रतिनिधियों को शिक्षित तो होना ही चाहिए' राजनेताओं को सीख देता है। अपराध करो, कत्ल करो, फिर पुलिस पीछे पड़ जाए तो चुनाव लड़कर नेता बन जाओ। आजकल यही नेताओं का चरित्र बन गया है। इन सब पर लगाम लगनी चाहिए और नियम बनना चाहिए कि लोकसभा, राज्यसभा में पहुँचने वाला हर जनप्रतिनिधि पढ़ा-लिखा हो। देश की व्यवस्था पर सवाल उठाती सुमिता मिश्रा रामानन्दी ने भी 'क्या यूँ ही चलती रहेगी देश की व्यवस्था' आलेख में यही व्यथा कही है। वे देश को लेकर चिंतित हैं और कट्टरता पर सवाल खड़े करती हैं। प्रेमचन्द की कविता 'बचपन', दुष्यन्त कुमार की कविता 'किस-किस को वोट दूँ', डॉ. रामगोपाल भारतीय की कविता 'गरीबों की बेटियां', देवेन्द्र देव की कविता 'आदमी' और राजेश कुमार तिवारी कविता 'दगाबाज' बहुत ही सुन्दर और आज के दौर में प्रासंगिक कविताएँ हैं।

मैं इस अंक पर कहना चाहूँगा कि न्यायपालिका को सर्वोपरि बताते हुए, नेताओं को नसीहत देते हुए इस अंक के सभी आलेख पठनीय और विचरणीय हैं। यह अंक भी अपनी लोकप्रियता को बरकरार रखते हुए श्रेष्ठ अंक साबित हुआ है।

अंक- 07, फरवरी 2016

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पिछले दिनों हैदराबाद में वेमुला आत्महत्या कांड को लेकर देशभर में तीखी प्रतिक्रिया देखी गई। 'लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए फरवरी 2016 का अंक का कवर पृष्ठ रोहित वेमुला को समर्पित किया है। रोहित वेमुला आत्महत्या कांड से देशभर में उबाल आ गया था।

इस अंक में कुल 13 आलेख, एक कहानी, दो कविताएँ हैं। इस अंक के सम्पादकीय में टी. पी. सिंह ने भारतीय आजादी को लेकर सवाल खड़े किए हैं। उनका मत है कि आजादी के 65 वषरें में में भी भारत में कुछ नहीं बदला है। सब जस का तस है। नेता देश को लूटने में मगशूल हैं। उनकी चिंता जायज है। टी. पी. सिंह का ही आलेख 'तुम्हारी शहादत को सलाम' आलेख रोहित वेमुला को समर्पित है। इस आलेख में संपादक ने सरकारी तंत्र और दलितों पर हो रहे अत्याचारों पर तीखी प्रतिक्रिया दी है।

केएम संत का आलेख 'श्रीराम कहाँ पैदा हुए' गले नहीं उतरता। केएम संत पूर्व आईएएस अफसर रहे हैं, और 'लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका के माध्यम से धार्मिक ग्रन्थों के पीछे पड़े हैं। हमारा भारत विश्व का सबसे मजबूत लोकतंत्र है। यहां विभिन्न मतों को मानने वाले लोग रहते हैं। भारतीय संविधान ने सबको समानता का अधिकार दिया है। किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करने की इजाजत तो हमारा संविधान भी नहीं देता है। इस आलेख का मैं बहिष्कार करता हूँ और इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं करूँगा।

'भारत-पाक के बर्फीले संबंध' विपिन कुमार का आलेख पाकिस्तान को करारा जबाब है तो वहीं आर. पी. सिंह का आलेख 'बुद्ध की ओर' पठनीय है। महात्मा बुद्ध ने समाज को जो राह दिखाई वो ग्रहण करने योग्य है। यह आलेख बहुत पसंद आया। अज़ान अख़्तर का आलेख 'कराहती दुनिया' आज के भारत की दुर्दशा को बयान करता है। इस अंक में 'ब्रेकिंग न्यूज' लेकर आए हैं कैलाश जोशी। परन्तु मैं यहां असमंजस में रहा कि यह संस्मरण है, आलेख है, कहानी है... पत्रिका को इस बात का भी उल्लेख करना चाहिए अन्यथा पाठकों में भ्रम की स्थिति पैदा होती है। आर. पी. सिंह का आलेख 'समानता का सिद्धांत' बेहद उम्दा है। देवेन्द्र देव की कहानी 'बदलता रूप' मार्मिक कहानी है। कुसुमलता जी अपने आलेख 'वृद्धों को सम्मान और सहारे की जरूरत है' में बुजुगरें का समाज में स्थान निर्धारित करती हैं। बुजुर्ग हमारे समाज की अहम कड़ी हैं। आखिर इस जगह सबको पहुँचना है। अक्सर देखने और सुनने को मिलता है कि हमारे युवा अपने माता-पिता को बुजुर्ग होने के पश्चात उन्हें सम्मान नहीं दे पा रहे हैं। इस आलेख के माध्यम से कुसुमलता जी ने पाठकों को सुन्दर संदेश दिया है, इसके लिए उन्हें बधाई।

'गरीब जनता के धनी भगवान' आलेख टी. पी. सिंह का है। यह आलेख पढ़कर बहुत दुख हुआ। वास्तव में मंदिरों में सोने-चांदी का क्या काम ? यह महज दिखावा है। सरकार को जल्द ही इस पर संज्ञान लेते हुए इसे देशहित में लाना चाहिए। .ष्ण कुमार रामानन्दी के आलेख 'विकलांगों का कल्याण जरूरी' और 'राजनीतिक गणित की आत्महत्याएँ' सोचने पर विवश करते हैं। इस लेख के माध्यम से लेखक ने उस पक्ष को उजागर किया है जो आज का सबसे संवेदनशील मुद्दा है। 'खुली सोच दिखाती है विकास का रास्ता' सुमिता मिश्रा और प्रदीप कुमार एडवोकेट का आलेख 'आंतरिक युद्ध के कगार पर देश' बेहद उम्दा बन पड़े हैं।

अंत में इस अंक पर कहना चाहूँगा कि पत्रिका के गिरते ग्राफ को संपादक और .ष्ण कुमार रामानन्दी, कुसुमलता, सुमिता मिश्रा और प्रदीप कुमार एडवोकेट ने स्थिति को संभालने का काम किया है। इसके लिए इन रचनाकारों को मेरी विशेष बधाई।

अंक- 08, मार्च 2016

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आन्दोलन को धार देता 'लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका का मार्च 2016 का अंक 08 मिला। इसी पृष्ठ पर देश विरोधी नारों से चर्चा में आए जेएनयू छात्र कन्हैया को भी स्थान दिया है। इस अंक में जेएनयू की देश विरोधी नारों पर आलेखों में चर्चा की गई है। मैं विवादित मुद्दों पर अपनी राय कम ही देता हूँ लेकिन इस मुद्दे पर इतना ही कहना चाहूँगा कि जो देश बांटने की बात करेगा वह हमें कतई स्वीकार नहीं है। ऐसे में मैं कन्हैया का यहां पर अपना विरोध दर्ज कराता हूँ।

सम्पादकीय में संपादक टी. पी. सिंह ने आरक्षण को लेकर चर्चा की है। उन्होंने अपने सम्पादकीय में गहन अध्ययन के साथ सवाल खड़े किए हैं, जो विचरणीय हैं। इस अंक में 13 आलेख, एक कहानी, एक लघु कथा और 9 कविताएँ और सरदार भगतसिंह का ऐतिहासिक पत्र भी इस अंक में शामिल है। विभिन्न क्षेत्रों में अपनी कामयाबी का झंडा बुलंद करने वाले युवाओं को लेकर संपादक टी. पी. सिंह ने परिचर्चा की है जो युवाओं के लिए खास संदेश हैं।

एडवोकेट मुनेश त्यागी का आलेख 'भ्रष्टाचारी संस्.ति का खात्मा जरूरी' बेजोड़ है। सरकारी तंत्र में पनप रहे भ्रष्टाचार को उजागर करते हुए वे इसके खात्मे पर जोर देते हैं। डॉ. राजाराम का आलेख 'संविधान निर्माण एवं डॉ. अम्बेडकर' आलेख विचरणीय है। भारतीय संविधान और भारत को दिए डॉ. अम्बेडकर के योगदान को याद करते हुए कार्य को सामने लाने का प्रयास इस लेख में किया गया है। कैलाश जोशी का आलेख 'नारी मुक्ति के सवाल' आज के दौर में प्रासंगिक है। बाजार ने जिस तरह से नारी को उपभोक्तावादी संस्.ति से जोड़ दिया है, वह निंदनीय है। 'संविधान के विरोधाभास' आलेख में ग्रीश अंजान ने इसके विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की है। 'अनोखी शादी' कुसुमलता का आलेख सोचने पर विवश करता है। महीपाल सिंह का आलेख 'इक तरफा प्यार के साइड इफेक्ट' प्रशंसनीय है, जिसमें युवाओं को सीख देने का काम लेखक ने किया है। 'गरीबों के मन की बात' आलेख में विपिन कुमार ने गरीबों की दशा पर मंथन किया है। सुमिता मिश्रा रामानन्दी का आलेख 'समानता में स्त्री दशा' बहुत कुछ सोचने पर विवश करता है। मुनेश त्यागी की कविता 'गरीबों के मन की बात', आरती सिंह की कविता 'माटी का दीया', निर्मल गुप्त की कविता 'रोटी का सपना', ललित शौर्य की कविता 'हे बलिदानी वीरो' प्रेरणादायक और पठनीय हैं। डॉ. हिमांशु की कविता 'आजकल', राजेश कुमार की कविता 'घुड़चढ़ी', सतीश सुमन की कविता 'देशभक्ति', डॉ. रामगोपाल भारतीय की कविता 'मैं तो जग में रहा अजनबी की तरह', बब्लू सागर की कविता 'ऐसा है अत्याचार' कविताएँ भी पठनीय और प्रशंसनीय हैं।

अंक- 09, अप्रैल 2016

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लोकतंत्र का दर्द पत्रिका का अप्रैल 2016 का अंक संविधान के निर्माता डॉ. भीमराव अम्बेडकर को समर्पित है। अप्रैल माह की 14 तारीख को दलित, पिछड़े-कुचले लोगों के मसीहा डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्मदिन आता है, इस महत्ता को समझते हुए पत्रिका टीम ने सराहनीय कार्य किया है। इसके अंक के सम्पादकीय को भी डॉ. भीमराव अम्बेडकर को समर्पित किया है जिसमें प्रधानमंत्री के बयान को कोट किया है 'डॉ. अम्बेडकर नहीं होते तो मैं प्रधानमंत्री नहीं बन पाता'। लुभाने के लिए ही सही, लेकिन उनकी टिप्पणी में सच्चाई है। कुछ विशेष लोगों ने जिन पदों पर कब्जा कर रखा था, यह संविधान के कारण की संभव हो पाया है। इसके साथ ही सम्पादकीय में डॉ. अम्बेडकर के जीवन संघर्ष को रेखांकित करते हुए आज की परिस्थितियों पर चर्चा की है।

इस अंक में कुल 14 आलेख, एक व्यंग्य और चार कविताएँ हैं। अपने पहले आलेख 'भारतवासी एक हृदय हों' में कैलाश जोशी ने भारत के टुकड़े वाले बयान जो जेएनयू में दिए गए थे, को रेखांकित करते हुए लोगों को बयानबाजी से बाज आने की नसीहत दी है। मैं कैलाश जी बात से सौ फीसदी सहमत हूँ कि 'हर व्यक्ति को अभिव्यक्ति की आजादी है, इसका मतलब यह नहीं है कि इस तरह के बे-सिरपैर की बातें करके स्वयं को महान क्रान्तिकारी मानने लगो।' मैं इस लेख को पत्रिका के 09 अंकों में अब तक का सर्वश्रेष्ठ घोषित करता हूँ। जिस तरह से कैलाश जी ने नसीहत दी है, व ग्रहण करने योग्य है। डॉ. अम्बेडकर विशेष अंक में इस आलेख ने सुन्दरता बढ़ाने का काम किया है। .ष्ण कुमार रामानन्दी का आलेख 'शहीदों का सपना पूर्ण आजादी का था' से मैं पूरी तरह से सहमत हूँ। लेखक ने देश की आजादी से लेकर आज तक की भारत की स्थिति का अवलोकन बारीकी से किया गया है, जो काबिले तारीफ है। पत्रिका को ऐसे ही आलेखों की दरकार है। डॉ. राजाराम का आलेख 'क्या संविधान डॉ. अम्बेडकर ने बनाया' सही लिखा गया है। उन्होंने पूरा विश्लेषण तथ्यों के साथ किया है। 'पत्रिकारिता के प्रकाश स्तंभ गणेश शंकर विद्यार्थी' शोध के लिए महत्वपूर्ण है। इसमें जुटाए गए तथ्य शोधार्थियों के लिए पठनीय और संग्रहणीय हैं। इसके माध्यम से मुनेश त्यागी ने पत्रकारों की भूमिका का स्थान का निर्धारण किया है। अगला आलेख मुजाहिद चौधरी एडवोकेट का 'सर्वस्वीकार्य जननायक डॉ. अम्बेडकर' जानकारी से परिपूर्ण है। इसमें एक महत्वपूर्ण आलेख संपादक टीपी सिंह का है 'अम्बेडकर जयन्ती के बहाने'। टी. पी. सिंह ने गाँव में होने वाली छोटी-छोटी बातों पर राजनीति पर बड़े ही रोचक ढंग से वर्णन किया है और लोगों को जागरूक करने का काम किया है। इस अंक में प्रकाशित कविताएँ भी स्तरीय हैं। कुल मिलाकर कहना चाहूँगा कि फरवरी अंक से पत्रिका के स्तर में गिरावट आई, जिसे दो-तीन रचनाकारों ने संभालने का भरपूर प्रयास किया है। हालाँकि संपादक ने भी पत्रिका को बेजोड़ बनाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी है। लेकिन कुछ अपवादों, जैसे केएम संत के लेख और कुसुमलता जी का भारत माता की खिल्ली उड़ाना हजम नहीं होता। मैं मानता हूँ कि लेखकों के विचार स्वतंत्र होते हैं, इसका संपादक से लेना-देना कुछ नहीं होता है। फिर भी पत्रिका में क्या छप रहा है, किस उद्देश्य को लेकर चला जा रहा है, यह बात संपादक के लिए मायने रखती है।

अंक- 10, मई 2016

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भारतीय मजदूरों के दर्द को बयान करता 'लोकतंत्र का दर्द' का मई 2016 का अंक मिला। हमारा भारत .षि प्रधान देश है, वहीं अधितर जनता मजदूरी पर ही निर्भर है। लेकिन आज मजदूरों को उनका वाजिव हक नहीं मिल पा रहा है। देश के मजदूरों को समर्पित मई के इस अंक का कवर पृष्ठ लुभावना है। इस अंक में कुल 15 आलेख, एक व्यंग्य, एक कहानी और तीन कविताएं, साक्षात्कार भी शामिल है। संपादकीय में टी. पी. सिंह ने श्रमिकों के दर्द को उठाया है। इसकी जितनी प्रशंसा की जाए कम है। मई माह में ही मजदूर दिवस आता है, इस दृष्टि से यह सम्पादकीय और महत्वपूर्ण है। डॉ. राजाराम का आलेख 'राज्य समाजवाद की जरूरत' सही लिखा है लेकिन यह मुनासिव नहीं है। नेताओं को जनता की फिक्र कहां है ? चुनाव जीतने के बाद वे अपनी झोली भरने में लग जाते हैं। अपने दमदार आलेखों के जरिए साहित्य जगत में पहचाने जाने वाले कैलाश जोशी का आलेख 'जाती हुई व्यवस्था है जाति, इसे जाने दो' महत्वपूर्ण आलेख है। इसमें उन्होंने जिन मुद्दों को उठाया है वह विचरणीय हैं। संपादक टी. पी. सिंह का आलेख 'सरकारी बाबू' सरकारी बाबूओं की पोल खोलता नजर आया। केएम संत फिर एक बार विवादित आलेख के साथ 'कुटिल राजनितिज्ञ थे श्रीराम' हैं। मुझे उनके इस लेख में उनकी हताशा नजर आई। मुझे लगता है भगवान श्रीराम ने उनके साथ बड़ी ज्यादती की है जिसका बदला वे धार्मिक ग्रन्थों से चुन-चुनकर, उनकी आलोचना करके ले रहे हैं। इस आलेख का पत्रिका के नियमानुसार इसमें कोई औचित्य नहीं है। यदि आप जानते हैं कि एक चीज बेकार है तो उसके अच्छे-बुरे की चर्चा की ही नहीं जानी चाहिए और यदि आप जानबूझकर चर्चा कर रहे हैं तो आप मानते हैं कि इसमें दम है। मेरा संपादक जी से आग्रह है कि ऐसे आलेखों को पत्रिका में जगह नहीं दी जानी चाहिए।

सुनील कुमार का आलेख 'लोकतंत्र बनाम जनतंत्र' पठनीय है। .ष्ण कुमार रामानन्दी का आलेख 'उदारीकरण के दौर में मजदूर' मजदूरों की व्यथा को इंगित करता है। भूदेव सिंह भगलिया का आलेख 'गाँव से शहर की ओर' भी बहुत सुन्दर आलेख है। विपिन कुमार का आलेख 'बुलंद भारत की ग्रामीण तस्वीर' और 'सरकारें राष्ट्रहित में सोचें' विचरणीय आलेख हैं। इस अंक की अन्य रचनाएं भी सुन्दर बन पड़ी है। जनवरी अंक से पत्रिका के ग्राफ में जो गिरावट शुरू हुई थी वह एक कदम और आगे बढ़कर बरकरार रही है। समय के चलते संपादक को इस ओर ध्यान देना होगा।

अंक- 11, जून 2016

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लोकतंत्र का दर्द पत्रिका का यह जून 2016 का अंक मिला परन्तु इस अंक के कारण मुझे मित्रों के सामने शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा। दरअसल हुआ यह कि व्हाट्स एप पर 'बाल साहित्य प्रसार संस्थान' के नाम से एक ग्रुप है जिसमें बच्चों से संबंधित सामग्री ही डाली जाती है। इत्तेफाक से इस अंक में मेरे द्वारा लिखित बाल पत्रिकाओं की समीक्षा प्रकाशित हुई थी। मैंने वगैर कुछ देखे, वगैर सोचे मुखपृष्ठ सहित ग्रुप में पोस्ट कर दिया। लेकिन बाद में जब मित्रों ने बताया कि इस पत्रिका के मुखपृष्ठ पर 'वेदों में कामुकता' नाम से पंक्ति है, ऐसी पत्रिका में बच्चों की सामग्री नहीं छपनी चाहिए। यदि हम बच्चों को पढ़ने के लिए देंगे तो वो 'वेदों में कामुकता' आलेख पढ़कर क्या सोचेंगे ? उसके चरित्र पर क्या असर पड़ेगा ? मैं बहुत शर्मिंदा हुआ ? मैंने पोस्ट हटाई और सार्वजनिक रूप से माफी मांगी। इसलिए मैं इस अंक पर अब कुछ और कहने की दिशा में नहीं हूँ।

अंक- 12, जुलाई 2016

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लोकतंत्र का दर्द पत्रिका का जुलाई 2016 का अंक बसपा प्रमुख के चित्र के साथ पाठकों के बीच उपस्थित है। इस अंक ने खरी-खरी कहने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। एक-दो अपवाद को छोड़ दिया जाए तो इस अंक ने पिछले अंकों से आ रही गिरावट को संभालने की भरपूर कोशिश की है। संपादकीय में टी. पी. सिंह ने बसपा को आईना दिचााने का काम किया है, अब यह अलग बात है कि उन्होंने कितना इस सच को माना है ? या स्वीकार किया है ? मदनलाल आजाद का आलेख 'भारत पूर्ण गुलामी की ओर' गले नहीं उतरता। पता नहीं लेखक ने किस विना पर शीर्षक दिया है भारत पूर्ण गुलामी की ओर। नीतियों का विरोध करना हर व्यक्ति का संवैधानिक अधिकार है लेकिन भारत अब गुलाम नहीं होगा, वरना ज्वालामुखी दहक उठेंगे।

टी. पी. सिंह का आलेख 'पलायन के तीर से राजनीति का शिकार' एकदम सटीक और नेताओं की काली करतूतों को उजागर किया गया है। 'अपनों की अनदेखी के परिणाम' सुनील कुमार का आलेख बेजोड़ है। नेताओं को इससे सबक लेना चाहिए। .ष्ण कुमार रामानन्दी का आलेख 'काशीराम नहीं होते तो अम्बेडकर भुला दिए गए होते' सच्चाई को बयान करता है। एडवोकेट प्रदीप कुमार का आलेख 'सेल्फी के क्रेज में गुम होती जिंदगी' शत-शत प्रतिशत खरा उतरता है। आज युवाओं में जिस तरह से सुल्फी का बुखार चढ़ा है वह निन्दनीय और खतरनाक भी है। इस अंक की कवर स्टोरी के रूप में 'शराब का लती एक गाँव' विचरणीय है। इस आलेख को पढ़कर बेहद दुख हुआ कि लोग कैसे शराब में अपनी जिंदगी तबाह कर रहे हैं। कैलाश जोशी का आलेख 'आओ मिलकर रहना सीखें' बेजोड़ है। सतीश कुमार अल्लीपुरी की लघु कथा 'समाजसेवा' अच्छी लगी। प्रो. योगेन्द्र सिंह का आलेख 'कुपोषण से निदान को बुनियादी कदम जरूरी' सामाजिक आलेख है। समाजशास्त्र में शोध करने वालों के लिए यह महत्वपूर्ण आलेख है। प्रो. सिंह द्वारा दिए गए तथ्य सटीक और भारत की तस्वीर को बयान करते हैं। भूदेव सिंह भगलिया का आलेख 'मोदी को देश स्मार्ट बनाने की चुनौती' और अच्छे दिनों की हकीकत' में सटीक जानकारी देने की कोशिश की गई है। इस अंक की अन्य रचनाएं भी स्तरीय हैं लेकिन मार्च 2016 के अंक से पत्रिका में प्रूफ रीडिग की कमियां आनी शुरू हुई जो जुलाई अंक में और गहरा गईं। साथ ही सम्पादक जी से अनुरोध है कि बाल साहित्य की गरिमा को समझते हुए इस पत्रिका में बाल साहित्य का कॉलम बंद कर दिया जाना चाहिए।

अंक- 13, अगस्त 2016

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'लोकतंत्र का दर्द' पत्रिका का यह अंक-13, अगस्त 2016 का अंक मिला। देश को समर्पित और जन-आन्दोलन को दर्शाता इसका कवर पृष्ठ लुभावना है। 'यह आजादी झूठी है' की चर्चा के साथ संपादक ने संपादकीय में अपने मन की बात कही है। इस अंक में इंजीनियर यशपाल सिंह की कवर स्टोरी 'विषमता से उपजे सवाल' पठनीय और आज की सच्चाई बया करता है। सतीश कुमार कौशिक का आलेख 'अक्ल के अन्धे' बहुत बड़ी सीख देता प्रतीत होता है। डॉ. विशेष कुमार गुप्ता का आलेख 'राष्ट्रीय जागरण में युवाओं की भूमिका' शोध कर रहे छात्रों के लिए महत्वपूर्ण आलेख है। इसी पृष्ठ पर अविनाश मिश्र 'अवि' की कविता 'वक्त तूने क्या किया' समय के महत्व को दर्शाती है। डॉ. प्रमोद कुमार का आलेख 'गंगा में प्रदूषण-एक गंभीर समस्या' विचरणीय है। टी. पी. सिंह का आलेख 'माता की आड़ में' सही लिखा गया है। इसी पृष्ठ पर एएमयू की शोध छात्रा नीरज शर्मा की कविता 'हालात' आज देश में हो रही स्त्रियों की दशा, उन पर हो रहे अत्याचारों को बयान करती है। इस अंक में पेशे से पत्रकार और मृदुभाषी रुचि शुक्ला की प्यारी कहानी 'मरहम' सुन्दर कहानी बन पड़ी है। परिवार के सुन्दर दृश्य इसमें उभर कर आए हैं और पारिवारिक मेल-जोल को दिखाया है। इसी अंक में कुसुमलता जी की कहानी 'दरिन्दगी' दिल को छू गई। इस अंक से शोधार्थियों के शोध आलेख भी प्रकाशित किए गए हैं लेकिन प्रूफ की अधिक गलतियां होने से पत्रिका में स्थान नहीं बना पाए हैं। लगातार कमजोर होती जा रही पत्रिका के कुछ आलेखों और कहानियों ने उसकी भरपाई करने का काम किया है।

और अंत में कहना चाहूँगा कि मुझे लगता है अब इस पत्रिका का काम केवल ऐतिहासिक ग्रन्थों की आलोचना करना या देश के संवेदनशील मुद्दे को छेड़ना भर रह गया है। गरीबी, बेरोजगारी, देश की विभिन्न समस्याएँ रचना का माध्यम हो सकती हैं। संपादक को इस ओर ध्यान देना होगा कि किसी की भावनाओं को आहत नहीं किया जाए, ऐसी सामग्री से टीम को परहेज करना होगा। संपादक के ही शब्दों में कहना चाहूँगा 'फसलों की बर्बादी, सरकारों की बेरुखी, किसानों का दर्द, आदिवासियों का दर्द, कुपोषित बचपन, आबादी, बेरोजगारों का दर्द, अशिक्षितों, दलितों का दर्द, शोषितों का दर्द, जातिवाद का दर्द, आतंकवाद, सम्प्रदाायिक दंगे, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट आदि षपथ को 'लोकतंत्र का दर्द' के रूप में शामिल कर पत्रिका का आन्दोलन चला था उसके पहिए धार्मिक ग्रन्थों की आलोचना, और भारत माता के टुकड़े करने वालों के पक्षीय आलेख ने पत्रिका की रीढ़ पर प्रहार करने का काम किया है। मैं सवाल करता हूँ कि आपके घोषणा पत्र में जब किसी की धार्मिक चर्चा का जिक्र ही नहीं है, किसी की भावनाओं को आहत करने की बात नहीं है तो इतनी कट्टरता क्यों ? एक धर्म को लेकर तीखपन, एक को लेकर नरमी... यह बात हजम नहीं होती। इससे ना सिर्फ पत्रिका के स्तर को धक्का लगा है बल्कि पाठक वर्ग में असंतोष भी पैदा हुआ है। मैंने खुद कई आलेखों पर प्रतिक्रिया लोगों की जाननी चाही तो उनकी चर्चा बेहद निराश करने वाली थी जिसका मैं यहाँ जिक्र नहीं करूँगा। इसलिए पत्रिका अपने भटके कदमों को समय रहते संभाले और अपने कार्य को गति दे, मेरी शुभकामनाएँ।

दिनाँक 23/08/2016

'लोकतंत्र का दर्द' मासिक पत्रिका

संपादक- टी. पी. सिंह

एक अंक का मूल्य- 25 रुपये

वार्षिक मूल्य- 300 रुपये

पता- 2, सी-401, आवास विकास कालोनी प्प्, अमरोहा (उ.प्र.)

Email-tpwriter@gmail.com

समीक्षक- उमेशचन्द्र सिरसवारी clip_image026

पिता- श्री प्रेमपाल सिंह पाल

ग्रा. आटा, पो. मौलागढ़, तह. चन्दौसी

जि. सम्भल, (उ.प्र.)- 244412

ईमेल- umeshchandra.261@gmail.com

+919410852655, +919720899620, +918171510093

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: समीक्षा / दबे-कुचलों की आवाज को बुलंद करती पत्रिका 'लोकतंत्र का दर्द' / उमेश चन्द्र सिरसवारी
समीक्षा / दबे-कुचलों की आवाज को बुलंद करती पत्रिका 'लोकतंत्र का दर्द' / उमेश चन्द्र सिरसवारी
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