व्यंग्य / विज्ञापनिस्तान की सैर / वीरेन्द्र 'सरल'

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अहा! क्या मनोरम दृश्य है। अखबारों पर उगे हरे-भरे, घने जंगल। फाइलों पर फैलता विकास। झाँकियों से झाँकती खुशहाली और समृद्धि। पोस्टरों पर पोषित...

अहा! क्या मनोरम दृश्य है। अखबारों पर उगे हरे-भरे, घने जंगल। फाइलों पर फैलता विकास। झाँकियों से झाँकती खुशहाली और समृद्धि। पोस्टरों पर पोषित मजदूर और किसान। आँकड़ों में कम होती महंगाई और गरीबी। दीवारों पर झूमती और लहलहाती फसलें। यह सब देखकर बड़ा मजा आ रहा था। मैं अपने आप में मस्त इन सबको निहारते हुए आगे बढ़ रहा था। तभी मेरी नजर एक होर्डिंग पर पड़ी जहाँ एक ओर किसी सिने तारिका की अर्ध नग्न तस्वीर थी और दूसरी ओर नारों में शासकीय योजनाओं को महिमा मंडित किया गया था। मैं उस होर्डिंग की परिक्रमा कर दोनों पक्षों का विश्लेषण करने लगा और अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार अंतिम रूप से इस निष्कर्ष पर पहुँचा, शायद यही नारों में नग्न आम जनता के जीवन की सच्चाई है। दिमाग में यह बात आते ही मेरी आँखें नम हो गई और मन एकदम बोझिल हो गया। में थके -हारे कदमों से फिर बढ़ने लगा तभी एक दूसरी होर्डिंग पर नजर टिक गई। उसमें धवल वस्त्रों से सुशोभित, सौम्य मुस्कुराहट के साथ हाथ जोड़े हुए एक जनसेवक की तस्वीर थी। ऐसा लगा मानों वह विनम्रता की मूर्ति साकार होकर बोल उठेगी। तस्वीर के नीचे सुनहरे अक्षरों में किसी वाशिंग पाउडर का विज्ञापन लिखा था 'सफाई इतनी की दाग ढूँढते रह जाओगे। मैं अपनी मूर्खता से मजबूर उस होर्डिंग के पीछे को भी देखने का मोह नहीं त्याग पाया और उसके पीछे चला गया। पर यह क्या, पीछे तो एकदम काला रंग पुता हुआ है, सफेदी का कहीं नामो-निशान नहीं है। शायद यह होर्डिंग जनसेवकों के कथनी और करनी को स्पष्ट कर रहा था। मैं नहीं कह सकता कि यह महज संयोग था या पेन्टर की दूरदर्शिता जो इस श्वेत और श्याम पक्षों के माध्यम से किसी अमूर्त कला के द्वारा चित्र और चरित्र की असमानता को व्यक्त कर रहा था। मैं बहुत देर तक उस होर्डिंग को गौर से देखकर मन-ही-मन इस कलाकारी पर मुग्ध होता रहा। तभी किसी की कड़कदार आवाज-''कौन हो तुम और कहाँ से आये हो? किससे अनुमति लेकर इस तस्वीर को इतनी गौर से देख रहो हो।'' मैं पीछे मुड़ कर देखता उससे पहले ही चार-पाँच हट्टे-कट्टे नौजवान मुझे घेर कर खड़े हो गये। मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। मैं मुश्किल से बस इतना ही कह पाया कि क्या यहाँ इन्हें देखने के लिए कोई टिकिट खरीदनी पड़ती है या कोई टैक्स पटाना पड़ता है।

फिर वही कड़क आवाज गूँजी-''बकवास बंद करो और चुपचाप अपने आप को हमारे हवाले कर दो वरना अंजाम बहुत बुरा होगा। डर के मारे मेरे हाथ तो क्या रोंगटे तक खड़े हो गये। मैं बिना कोई विरोध के आत्म समर्पण की मुद्रा में यथास्थान खड़ा रहा। वे मुझे धकियाते हुए एक गाड़ी के पास लाये और उसमें मुझे जबरदस्ती बिठाकर आगे बढ़ गये।

कुछ समय बाद हम एक आफिसनुमा कमरे में थे। मेरे सामने एक रौबदार चेहरे वाला खतरनाक टाइप का आदमी बैठा हुआ था। उसकी गिद्ध जैसी आँखें मुझे ऐसे घूर रही थी मानो पूरे शरीर की सोनोग्राफी कर रही हो। शायद वे लोग मुझे कोई घुसपैठिया, जासूस या कोई अन्य संदिग्ध व्यक्ति समझ रहे थे। मेरा दिल 'धक-धक करने लगा, मोरा जियरा डरने लगा' के अंदाज में धड़क रहा था। बहुत समय तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा जिसे तोड़ते हुए वह रौबदार आदमी गुर्राया-''सच-सच बताओ तुम कौन हो? पासपोर्ट, वीजा तथा अन्य कागजात तुरन्त दिखाओ वरना---।

कागजात के नाम पर मेरे पास मेरी पाकेट डायरी, एक पेन और कुछ रूपयों के सिवा और कुछ भी नहीं था। मैं मिमयाया-''सर! आप क्या कह रहें हैं, मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। मैं खुद नहीं जानता कि यहाँ कैसे आ गया। कौन मुझे यहाँ इस हालत में छोड़ गया। मुझ पर दया कीजिए। मुझे छोड़ दीजिए। यदि मैं समय पर घर नहीं पहुँचा तो मेरी बेगम रो-रोकर बेदम हो जायेगी। आपके चक्कर में कहीं ऐसा न हो कि घर पहुँचने पर मेरे हिस्से में केवल गम ही आये। प्लीज सर! मुझे जाने दीजिए, मैं वह नहीं हूँ जो आप समझ रहें हैं।

वह रौबदार आदमी कुछ कहता उससे पहले ही उसके बाजू में खड़े एक सिपाही नुमा आदमी शायराना अंदाज में बोला-'' सच्चाई छिप नहीं सकती बनावट के उसूलों से बच्चू! बिना वीजा के क्या नतीजा निकलेगा, पता है तुझे? यहाँ समाजवाद है कोई भाई-भतीजावाद नहीं जो तू बचकर निकल जायेगा। सब कुछ सच-सच साहब को बता दे, इसी में तेरी भलाई है, समझा? इतना कहकर वह मुझे 'अब तेरा क्या होगा रे कालिया' के अंदाज में घूरने लगा।

वे मुझे धमकाते हुए तरह-तरह से मेरी जाँच-पड़ताल करते रहे। उनके हाथों न कुछ लगना था न लगा। मेरी डायरी में कविता की कुछ पंक्तियां पढ़कर जाँच करने वाले एक आदमी ने कहा-''सर! लगता है यह सिरफिरा कोई लेखक है। कुछ लिखने-पढ़ने का वाहियात काम करता है। इसे इसका पता लिखे लिफाफे में बंदकर डाक खाने में डाल देते हैं। डाक विभाग की कृपा होगी तो दो-चार साल में अपने घर पहुँच जायेगा और नहीं तो डाक वाले इसे किसी कबाड़ में डाल देगें। कम से कम अपने सिर से तो बला टलेगी। वरना इसके चक्कर में अपनी ही मुसीबत बढ़ जायेगी। लोग कहते हैं कि ये लेखक नाम का प्राणी बड़ा विचित्र जीव होता है जिसके पीछे पड़ जाता है उसे लेखक बना के ही छोड़ता है।

मैं महंगाई कम करने की आशा में सरकार की ओर निहारती हुई आम जनता की तरह उस रौबदार आदमी को देख रहा था। उसके होठों पर थोड़ी मुस्कराहट और चेहरे पर कुछ सौम्यता देखकर मेरा भय कुछ दूर हुआ। मैंने कहा-''सर! यदि गुस्ताखी माफ हो तो क्या मैं आपसे पूछ सकता हूँ कि आखिर अभी मैं धरती के किस स्थान पर हूँ?''

अब की बार उन्होंने जरा नरमी से जवाब दिया, ''महाशय आप गलती से विज्ञापनिस्तान अर्थात विज्ञापनों के देश की धरती पर घुस आये है। अभी आप विज्ञापस्तिान के एक सैनिक छावनी में हैं। हमने आपकी जाँच-पड़ताल पूर्ण कर ली है और हमें विश्वास हो गया है कि आप किसी देश के एक सभ्य और जिम्मेदार नागरिक हैं। इसलिए अब आपको हमसे डरने की आवश्यकता नहीं है। 'अतिथि देवो भवः' के आदर्श के आधार पर हम स्वयं आपको इस देश के चारोंधाम की यात्रा कराने तथा आपको सकुशल आपके घर तक पहुँचाने की व्यवस्था करायेंगे। पर ध्यान रहे यहाँ से भागने की कोशिश करना बेकार है। इस कोशिश में पकड़े गये तो अंजाम बहुत भयानक होगा। हम वो नहीं हैं कि कोई हमारे देश को अरबों-खरबों का चूना लगाकर या घपला-घोटाला करके भाग जाय और हम मुट्ठी बाँधे देखते रहें या साँप के निकल जाने के बाद लकीर पीटते रहे। यहाँ से यदि चींटी भी शक्कर का एक दाना लेकर सीमा पार करने की कोशिश करती है तो उसे भी सख्त से सख्त सजा दी जाती है, समझ गये? अब आप बिल्कुल निर्भीक होकर आज यहाँ आराम करें। कल किसी गाइड के माध्यम से आपको भ्रमण करा जायेगा।''

मुझे कुछ डर तो लगा कि ये कहीं चारों धाम की यात्रा का लालच देकर मुझे परम धाम ही न भेज दे पर मरता क्या नहीं करता। मेरी मजबूरी थी। मैं देखने के सिवाय और क्या कर सकता था। अब वे लोग बिना डराये-धमकाये मुझसे सामान्य ढंग से बातचीत कर रहे थे तो मेरा भी डर समाप्त हो गया था। सुपरफास्ट ट्रेन की धड़धड़ाती मेरी धड़कन अब सामान्य होकर शासकीय योजनाओं की तरह कछुआ चाल से चल रही थी।

मैंने उस रौबदार आदमी से पूछा-''साहब! आप इस स्थान को सैनिक छावनी बता रहे हैं इसका मतलब ये हुआ कि आप सब सैन्य अधिकारी हैं पर आपके बदन पर न तो वर्दी है और न ही हाथों में बन्दूक? बिल्कुल सामान्य कपड़ों में आप कैसे फौजी है। मुझे तो शक है कि आप फौजी नहीं बल्कि मनमौजी है।''

मेरी इस बचकानी टिप्पणी से वह रौबदार आदमी जोरदार ठहाका लगाया और ठंड रख के अंदाज में बोला-''समझाता हूँ, समझाता हूँ। जरा धैर्य रखो भाई। बाबाओं को जानते हो? अरे वही जो आपके यहाँ टी वी के माध्यम से अपना धंधा चलाते है।'' मैंने सहमति में सिर हिलाया तो उसने आगे कहा-''ऐसे ही एक त्रिकालदर्शी बाबा जी यहाँ रक्षा विभाग के मुखिया हैं और सहायक बाबाओं को देश की सरहदों में तैनात किया गया है। अब वे तो भूत, भविष्य, वर्तमान सब कुछ जानते हैं। वे ही अपनी दिव्यदृष्टि से देखकर हमें बताते हैं कि कहाँ घुसपैठ की कोशिश हो रही है। कहाँ हमारे खिलाफ षडयंत्र रचे जा रहे है। कहाँ आतंकवादी हमला होने वाला है और कहाँ दुश्मनों की छावनी या उनका प्रशिक्षण शिविर है। कहाँ पर विस्फोटक तैयार किये जा रहे है। कहाँ पर बम छिपाकर रखे गये है। वे समय से पहले ही इन सब बातों की सूचना हमें दे देते है। बाबा जी की दिव्य दृष्टि की कृपा से हमें न तो किसी खुफिया एजेंसी की आवश्यकता पड़ती है और न ही किसी आधुनिक दूर संचार के माध्यमों की। हमें सारी जानकारी रेडीमेड उपलब्ध हो जाती है और हम दुश्मनों की सब चाल नाकाम करके या तो उन्हें मार गिराते है या उन्हें पकड़ लेते हैं। विषम परिस्थितियों में हमारी सहायता के लिए बाबाओं की फौज भी तो साथ होती है। अब सारी बातें समझ में आ गई है कि और कुछ पूछना है आपको?''

मैंने कहा-''यदि आप बुरा न माने तो लगे हाथ यह भी बता दीजिए कि बिना हथियार के आखिर आप दुश्मनों का मुकाबला कैसे कर लेते है? वह रौबदार आदमी 'लो करलो बात' के स्टाइल में अपने बाजू खड़े हुए कनिष्ठ सैन्य अधिकारी को इशारा किया।

कनिष्ठ अधिकारी पहले मुझे जी भर के घूर कर देखा। शायद सोच रहा था, किस मूरख से पाला पड़ गया। उसके हाव भाव से लग रहा था, वह मुझसे बिल्कुल भी बातचीत नहीं करना चाहता था। पर उसके सामने उच्च अधिकारी के आदेश को मानने की मजबूरी थी। इसलिए उसको बताना पड़ा। उसने कहा- ''देखो भाई! जो हथियार हमारे पास है वह विश्व के किसी भी सेना के पास नहीं है।'' फिर उसने अपने गले में लटके हुए एक गोल ताबीज की ओर इशारा करते हुए कहा, ''यह एक विशेष चालीसा रक्षा कवच है। इसके रहते हमें दुश्मनों की गोली तो क्या, गोला भी लग जाय तब भी हमारा कुछ नहीं बिगड़ने वाला है। यह रक्षा कवच जब भूत-प्रेत, पिशाच से रक्षा कर सकता है तो साधारण दुश्मनों की क्या औकात। इसके रहते न तो हमें भूख लगती है न प्यास। न मरीजों को मल्टी विटामिन्स की गोलियां देनी पड़ती है न ही ग्लूकोस की बोतलें चढ़ाना पड़ती है। यदि आपके यहाँ भय, भूख और भ्रष्ट्राचार से मुक्त शासन व्यवस्था है तो हमारे यहाँ भोजन, पानी और दवाई मुक्त शासन व्यवस्था है। यहाँ किसी भी व्ही आई पी को एक्स, वाई या जेड श्रेणी सुरक्षा नहीं दी जाती। सबके गले में यही रक्षा कवच लटकाया जाता है। यहाँ कोई मरीज ही नहीं है। यहाँ के विशेषज्ञ डाक्टर फेरी वाले की तरह गली-गली, घर-घर जाकर चिल्ला रहे हैं। इलाज करा लो इलाज--। पर कोई मरीज मिले तब ना। इस रक्षा कवच से शरीर को इतनी शक्ति और ऊर्जा मिलती है कि भोजन-पानी की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। इसलिए यहाँ खेती नहीं होती। हमारे देश की राजधानी में इन यंत्रों के बनाने के बड़े-बड़े कारखाने हैं। जहाँ विपुल मात्रा में इनका निर्माण होता है। यहाँ किसी गरीब के लिए न तो गरीबी रेखा कार्ड बनता है और न ही किसी मरीज के लिए स्मार्ट कार्ड। यहाँ बहुत पहले ही प्रत्येक गरीब परिवार को सरकार के द्वारा लक्ष्मी-कुबेर यंत्र की निःशुल्क सप्लाई की गई थी। सब उस यंत्र को अपने घरों में स्थापित करके पूजा करते है। इसलिए हमारे देश में कोई गरीब नहीं, सबके सब धन्ना सेठ है। भूल से यहाँ के नेताओं और अधिकारियों को हाई पावर के अत्याधुनिक लक्ष्मी-कुबेर यंत्र की सप्लाई हो गई थी। इसलिए समय-समय पर उनके पास से अरबों-खरबों की अनुपातहीन और बेनामी सम्पत्ति निकल आती है। वे कुबेरों के भी कुबेर हो गये है। अब तो हमारे देश की स्थिति ये हो गई है कि जब भी लक्ष्मी और कुबेर को लोन की आवश्यकता होती है तो वे यहीं के नेताओं और अधिकारियों से लेते है। यहाँ हर राज्य के वित्त मंत्रालय में इसी यंत्र को स्थापित किया गया है। जिसके कारण राज्यों की आर्थिक स्थिति इतनी खतरनाक है कि सरकारों को सूझती नहीं कि इस खजाने को कहाँ, किस विकास कार्य में खर्च करें। जब खर्च ही नहीं है तो बेचारे क्या करें। मजबूरी में उन्होंने इस खजाने का बहुत सारा धन विदेशी बैंकों में जमा कर दिये हैं। अब इनमें उनकी क्या गलती है भाई। ये तो जनता ही नासमझ है जो काला धन, काला धन चिल्लाती रहती है। अरे! लक्ष्मी कुबेर यंत्र की कृपा से जो विपुल धन आपके पास है पहले उसको तो खर्च करो, उसके बाद कर लेना कालेधन की बात। पर यहाँ की जनता को कौन समझाये भैया! इनकी तो मति ही मारी गई है।

विज्ञापनिस्तान की सुदृढ़ अर्थ व्यवस्था, सुरक्षा व्यवस्था, खुशहाली और समृद्धि को देख-सुनकर मुझे चक्कर आ गया, मैं धड़ाम से गिर पड़ा।

पता नहीं मैं कितने समय तक बेहोश रहा। चेहरे पर पानी के बूंदों की ठंडकता महसूस कर मुझे होश आया। परिवार वाले मुझे घेर कर खड़े थे। टी वी पर अभी भी चालीसा सुरक्षा कवच और लक्ष्मी-कुबेर यंत्र की महिमा बतलाई जा रही थी। परिवार वाले मुझसे बार-बार पूछ रहे थे, क्या हुआ? कुछ तकलीफ तो नहीं हो रही है? मैंने मुस्कराते हुए कहा-अरे! नही भाई, चिन्ता की कोई बात नहीं है। मैं विज्ञापनिस्तान के माया जाल से सकुशल निकल आया हूँ।

वीरेन्द्र 'सरल'

बोड़रा (मगरलोड़)

जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)

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रचनाकार: व्यंग्य / विज्ञापनिस्तान की सैर / वीरेन्द्र 'सरल'
व्यंग्य / विज्ञापनिस्तान की सैर / वीरेन्द्र 'सरल'
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