प्राची - सितम्बर 2016 / सत्यमेव जयते / कहानी / विवेक प्रियदर्शी

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कहानी विद्यालय के कार्यालय में मेरे प्रवे श करते ही सभी शिक्षकों ने मुझे सस्पेंशन हटने की बधाई दी. ज्योंहि मैं कुर्सी पर बैठा कि विलास बा...

कहानी

विद्यालय के कार्यालय में मेरे प्रवेश करते ही सभी शिक्षकों ने मुझे सस्पेंशन हटने की बधाई दी. ज्योंहि मैं कुर्सी पर बैठा कि विलास बाबू ने मेरी ओर ‘पुनर्स्थापन पत्र’ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लीजिए पाण्डेजी अपना लेटर, और बताइए कि आप हमलोगों को दावत कब दे रहे हैं?’’

‘‘रविवार को.’’ कहते हुए जब विलासबाबू के हाथ से मैं लेटर ले रहा था, तभी मेरी दृष्टि बरबस ही उनके पीछे की दीवार पर, उनके सिर से ऊपर टंगे फ्रेम पर चली गई, जिसपर बड़े-बड़े सुनहले अक्षरों से लिखा था, ‘‘सत्यमेव जयते.’’

सत्यमेव जयते

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विवेक प्रियदर्शी

रामपुर प्रखण्ड पहुंच कर मैंने एक व्यक्ति से राजकीय मध्य विद्यालय के बारे में पूछा, तो उसने छूटते ही कहा, ‘‘हमको नहीं मालूम. आगे देखिए.’’ आगे बढ़कर जब मैंने एक वृद्ध से अपना प्रश्न दुहराया, तो उसने भी यही कहा, ‘‘हम नहीं जानते बेटा, आगे देखो.’’ उस वृद्ध की बात सुनकर अचानक ही मेरे मस्तिष्क में मृत्यु शैय्या पर पड़े बाबूजी की बातें झनझना उठीं. बाबूजी ने मेरी दाईं हथेली को अपनी दोनों हथेलियों के बीच भरकर, अपनी छाती पर रखते हुए कहा था, ‘‘जो सुख-सुविधाएं मैं तुम्हें दे नहीं पाया, उसका कभी शोक मत करना, क्योंकि तुम्हारे दुःखी होने से बीता समय लौट कर आ नहीं जाएगा, जिसे तुम अब सुधार सको. जीवन में पीछे मुड़कर देखने से बड़ी बेवकूफी कुछ भी नहीं, इसलिए हमेशा आगे देखो.’’ और यह ‘आगे देखने’ का ही तो फल था कि हाथ में राजकीय मध्य विद्यालय, रामपुर में सहायक शिक्षक के पद पर नियुक्ति का पत्र लिए, आज मैं अपना स्कूल ढूंढ़ रहा था.

फिर किसी तरह पूछते-पूछते, मैं सड़क से तकरीबन चार किलोमीटर अन्दर अवस्थित, गोरमिन्ट स्कूल के नाम से मशहूर अपने विद्यालय पहुंचा. उस समय स्कूल में एक शिक्षिका और दो शिक्षक मौजूद थे. वे छात्रों को खेलने की छूट देकर खुद ऑस्ट्रेलिया में होने वाले क्रिकेट विश्व कप में भारतीय टीम की संभावना पर जोरदार बहस कर रहे थे. जब मैंने उन्हें अपना ज्वाइनिंग लेटर दिया, तो उनमें से एक ने कहा, ‘‘आपको भी यह बियाबान ही मिला है नौकरी करने के लिए?’’ तब तक दूसरे ने कहा, ‘‘आपका ज्वाइनिंग तो हेड सर (हेडमास्टर) ही लेंगे, लेकिन आज वे हैं नहीं. उनके घर कोई काम था, इसलिए वे बारह बजे ही चले गए. आप कल आइए.’’

चार-साढ़े-चार किलोमीटर पैदल चलने की थकान के कारण मैं वहीं कुर्सी पर बैठ गया और सुस्ताने के क्रम में स्कूल को निहारने लगा. दो कमरों वाले उस स्कूल की हालत बिल्कुल ही खस्ता थी. बिना रंगाई-पुताई की जगह-जगह से उखड़ी प्लास्टर वाली दीवारें, बिना छड़ों की खिड़कियां, मरियल से दरवाजे और गड्ढों से भरी फर्श.

यह देखकर मुझे अपने स्कूली दिनों की याद आ गई. हालांकि मैं पला-बढ़ा और पढ़ा शहर में था, परन्तु मेरे कस्बानुमा शहर के उस सरकारी स्कूल की स्थिति भी, इस विद्यालय की स्थिति से भिन्न न थी. उन दिनों जब मैं अपने हमउम्र रिश्तेदारों को सुन्दर यूनिफॉर्म, टाई तथा ब्लैक शूज पहने, बड़े-बड़े स्कूल बैग पीठ पर लादे, नित्य नए खुल रहे अंग्रेजी

माध्यम वाले प्राइवेट स्कूल जाते देखता, तो मेरा भी मन करता, कि काश मैं भी उन्हीं महंगे स्कूलों में पढ़ता और फिर ‘बाइन्ड’ की हुई सुन्दर किताबों से अपना होमवर्क करता. आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण बाबूजी, बाजार से सबसे बड़े कृष्ण भैया के लिए सेकेन्ड हैन्ड किताबें लाते थे, जिससे कृष्ण भैया के बाद मंझले कुलदीप भैया, कुलदीप भैया के बाद शिल्पी दीदी और फिर मुझे पढ़ाई करनी होती थी. बात मुझ पर ही आकर नहीं थमती थी, बल्कि उन्हीं किताबों से मेरे बाद की दोनों बहनों पिंकी और छोटी को भी पढ़ना होता था. यानि एक सेकेन्ड हैन्ड किताब हम छः भाई-बहनों का बेड़ा पार लगाती थी. मुझे यह भी याद आया, कि एक बार सिलेबस बदल जाने के कारण, पिंकी और छोटी की किताबों के लिए घर में किस कदर तनाव पसर गया था. होली और दशहरे के पर्व पर ही नए कपड़े सिलवाने वाले हमारे परिवार में, कई बार तो नए कपड़ों के रूप में ‘स्कूल यूनिफॉर्म’ ही सिलवा दिया जाता था. दरअसल हमलोग उच्च जाति के गरीब थे, जिनके प्रति न तो समाज में कोई संवेदना होती है, और न सरकार के पास ही कोई योजना.

वैसे यह सच है कि समाज में अकेले हमलोग ही गरीब नहीं थे. और लोग भी थे, जो गरीबी में जिन्दगी बसर कर रहे थे. कई लोगों की हालत तो हमलोगों से भी दयनीय थी, परन्तु परेशानी यह थी कि मेरे मन में जाने कितनी महत्वाकांक्षाएं पल रही थीं और मेरी स्वप्नदृष्टा आंखें जाने कैसे-कैसे सपने देखती रहती थीं. अगर मेरे सपने भी हमारे तबके के अन्य लोगों की तरह समझौता करना सीख जाते, तो मैं भी औरों की तरह संतुष्ट जीवन जीता, परन्तु मेरी महत्वाकांक्षाएं थीं कि हमेशा फन फैलाए तनी रहतीं. मेरा मन खुद को किसी से कमतर आंकता ही नहीं था. और खुद को कमतर आंकता भी कैसे? हमारे तमाम रिश्तेदारों में एक मैं ही तो था, जिसे मेधावी छात्रवृति के लिए चुना गया था. मुझे आज भी याद है कि बाबूजी को जब छात्रवृति की बात ज्ञात हुई थी, तो उन्होंने किस तरह से मुझे अपने सीने से लगा लिया था. छात्रवृति के पैसों से बाबूजी को किताबें और नोटबुक खरीदने में बहुत मदद मिलती थीं.

सेकेन्ड डिविजन से मैट्रिक करने के उपरान्त, कृष्ण भैया ने कॉलेज में नाम तो लिखवा लिया था, परन्तु पढ़ाई-लिखाई से उनका मन उचट चुका था. इंटर की परीक्षा देते-देते वे ईंट-बालू-छर्री के काम से जुड़ गए और धीरे-धीरे इस धंधे को ‘पार्ट टाईम’ की जगह ‘फुल टाईम जॉब’ के रूप में अपना लिए. जीवन में पहली बार हाथों में आते पैसे को देखकर, युवावस्था में कदम रख चुके भैया के पांव फिसलने लगे थे. रात को जब वे घर लौटते, तो पान खाए होने के बावजूद उनके मुंह और हाथों से सिगरेट की

गन्ध आ ही जाती, जिसपर मां-बाबूजी की कटूक्तियों से घर का वातावरण दमघोंटू हो जाता. लेकिन होली के दिन तो कृष्ण भैया ने भी हद ही कर दी, जब वे शराब के नशे में धुत्त कीचड़ से लथपथ घर लौटे थे. यह देखकर बाबूजी आग बबूला हो गए, ‘‘किस जनम में मैंने ऐसा पाप किया था, जो ये चांडाल मेरे घर पैदा हो गया. एक भी गुण नहीं है इस हरामजादे में ब्राह्मण का. सब लोग अभी तक तक पंडितजी कहकर मेरा गोड़ लगते (पांव छूते) हैं, लेकिन अब इस कुलंगार के चलते मुझे ‘दरूपीहवा’ का बाप बोलेंगे.’’

नशे की झोंक में भैया भी आपे से बाहर हो गए, ‘‘पांडेगिरी (पंडिताई) का गुण चाहिए भी नहीं हमको, क्योंकि आपके जैसा दरवाजे-दरवाजे जाकर पच्चीस, पचास रुपया खातिर, हमको घंटा भर सत्यनारायण कथा नहीं बांचना है.’’

‘‘अरे हरामी, पूजा पाठ का मजाक उड़ाता है? सीधे नरक जाएगा.’’

‘‘तो अभी ही कौन सा स्वर्ग में हैं? गरीबियो से बड़ा भी कोई नरक होता है क्या? परवचन झाड़ने में जिन्दगी बिता दी, तो आप ही को कौन सा बैकुण्ठ मिल गया या घर का दलिद्दर दूर हो गया? अपने तो गरीबी में मरबे किए, हमको भी वही नरक में झोंक दिए.’’

कृष्ण भैया के चुभते अर्द्धसत्य से भावुक चित्त-वृति वाले बाबूजी बुरी तरह आहत हो गए थे और उस दिन के बाद से उन्होंने भैया को कुछ भी कहना छोड़ दिया. भैया कभी-कभार बाबूजी के लिए कुछ लाते भी, तो बाबूजी उसे छूते तक नहीं थे. भैया भी अपनी ऐंठ में रहे और उन्होंने कभी बाबूजी से अपने बर्ताव के लिए क्षमायाचना नहीं की. शायद उन्हें ऐसा लगता था कि उन्होंने जो कुछ भी किया, वो बिल्कुल सही था, इसलिए तो अक्सर वे अपने ग्राहकों से कहते, ‘‘गलत बात हम अपने बाप का तो बर्दाश्त किए ही नहीं, तो दूसरों का क्या करेंगे?’’ बाबूजी ने खुद भी कई बार इन बातों को सुना, परन्तु उन्होंने भैया से कुछ नहीं कहा. यहां तक कि जब प्रदीप मामा ने एक कुटुम्ब से भैया की शादी फाइनल करने के लिए दबाव देना आरंभ किया, तो बाबूजी ने उनके लिए जैसे सारा मैदान ही खुला छोड़ दिया. फलतः मामाजी की ही अगुवाई में भैया की शादी हुई. भैया के दहेज के पैसों को भी बाबूजी ने न तो खुद हाथ लगाया और न मां को ही लेने दिया. सारे पैसे भैया के पास ही रहे.

दहेज में आए टी.वी. के कारण भी घर में कई बार अशान्ति का माहौल बना. मां यदि ‘संस्कार चैनल’ देखतीं, या पिंकी-छोटी कोई फिल्म देख रही होती थीं, तो तेज तर्रार रोहिणी भाभी रिमोट से चैनल बदल कर कोई सीरियल लगा देतीं. उन्होंने शुरुआती दिनों में ही स्पष्ट कर दिया था कि उनकी टी.वी. पर उनकी मर्जी ही चलेगी. भाभी तो मां-बाबूजी तक का लिहाज नहीं करती थीं. पलट कर जवाब देना, झल्लाहट दिखाना या स्वयं को बहुत ऊंचा समझना, यह भाभी की फितरत थी. मां जब भैया से इसकी शिकायत करती, तो भैया उल्टे मां पर ही उखड़ जाते, ‘‘उस बेचारी की तो किस्मत ही फूटी थी, जो ऐसे घर में उसकी शादी हुई.’’

फिर कुछ ही दिनों में भैया के लिए भाभी ही सब कुछ हो गईं और हम सभी तो जैसे हिंसक पशु बन गए, जिससे भैया स्वयं को बचाए चलते. हमलोगों से सीधे मुंह बात करना तो वे जैसे भूल ही चुके थे. धीरे-धीरे बात यहां तक पहुंच गई कि भाभी अगर उन्हें किसी के खिलाफ कुछ सिखाती-पढातीं, तो भैया तुरन्त हमलोगों से लड़ने-भिड़ने को तत्पर हो जाते. हमारी दूरियां इस कदर बढ़ गईं, कि जून में जब कुलदीप भैया के इन्टर और शिल्पी दीदी के मैट्रिक का रिजल्ट आया, तो भैया ने उन्हें मिठाई तक नहीं खिलाई.

शादी के साल लगते-लगते भैया ने घर के छोटे होने का बहाना कर, अपने लिए जब किराए का अलग घर लिया, तब भी बाबूजी चुप्पी साधे रहे. मां के कहने का जब पहले ही भैया पर कोई असर नहीं हुआ था, तो अब क्या होता? मां लाख बाबूजी के बुढ़ाते शरीर का हवाला देकर उन्हें बड़े बेटे का फर्ज समझाती रहीं, लेकिन भैया टस से मस नहीं हुए. फिर जब मां ने कहा, ‘‘शिल्पी को देख. हमें साल-दो साल में उसका ब्याह भी तो करना है. बड़े भाई होने के नाते तुम्हारा भी कुछ फर्ज बनता है कि नहीं?’’ तो छूटते ही भैया बोले, ‘‘तुमलोगों को तो ऐसा लग रहा है, जैसे मेरे पास कोई खजाना पड़ा हुआ है. ये समझ में नहीं आ रहा है कि हमको भी अपनी गृहस्थी संभालनी है...’’ अभी भैया की बात पूरी हुई भी नहीं थी कि भाभी बोल पड़ीं, ‘‘तो क्या ये तीन-तीन बेटियों की फौज इन्हीं के भरोसे खड़ी है कि इनकी कमाई से उनकी शादी होगी?’’ बस, फिर तो जैसे घर में भूचाल ही आ गया. इतने दिनों से भाभी की जली-कटी बातों से सबके अन्दर जो लावा उबल रहा था, वो एकबारगी बाहर आ गया. जिसका परिणाम यही हुआ कि अगले दिन जाने वाले कृष्ण भैया, उसी रात को हम सभी से सारे रिश्ते-नाते तोड़कर, अपने दहेज के सारे सामान सहित, अपने नए मकान में शिफ्ट हो गए. बाद में मां ने बाबूजी को इस घटना पर चुप्पी साधने के लिए जब आड़े हाथों लिया, तो बाबूजी ने भरे कण्ठ से कहा, ‘‘जिनको मैं डांट सकता था, वे लोग ही सही थे और जो गलत थे, उन्हें डांटने का अधिकार नहीं था मुझको.’’ उस दिन पहली बार मैंने बाबूजी को इतना व्यथित देखा था.

दो साल बाद कुलदीप भैया बी.ए. पास होने के बाद, नौकरी की तलाश में जो दिल्ली गए तो फिर वहीं के होकर रह गए. उन्हें एक प्राइवेट फर्म में नौकरी मिल गई थी और कभी-कभार उनके फोन-मैसेज आ जाया करते थे. फिर जब मैंने इंटर और पिंकी ने मैट्रिक पास किया, तो हमदोनों के आगे की पढ़ाई के लिए भैया ने ही पैसे भेजे. दीदी बी.ए. पास कर घर ही में रहने लगी थीं लेकिन दो-ढाई साल होते-होते कुलदीप भैया के भी फोन आने बन्द से हो गए और हमारी जरूरतों के बारे में पूछना, तो उन्होंने जैसे छोड़ ही दिया था. दिल्ली में ही काम करने वाले हमारे पड़ोसी महेन्द्र भैया जब छुट्टियों में घर आए, तो उन्होंने बताया, ‘‘कुलदीप तो एक पंजाबी लड़की के चक्कर में पड़ा हुआ है.’’ यह बात हमारे लिए एक बड़े सदमे की तरह थी. फिर जबतक मां इन बातों को संभालने के लिए, दिल्ली जाने के लिए पैसों का जुगाड़ कर ही रही थीं, तब तक पता चला कि कुलदीप भैया ने उस लड़की से ब्याह भी रचा लिया है, क्योंकि वो उनके बच्चे की मां बनने वाली थी. बाबूजी के लिए यह मौत से भी बदतर स्थिति थी, क्योंकि गरीबी के बावजूद उनमें जातिगत श्रेष्ठता और शुद्धता का अतिशय अभिमान था. वे हमेशा ही से वर्ण-संकरों (दोगलों) के मुखर

विरोधी रहे थे, और आज किस्मत ने उन्हें यह दिन दिखा दिया कि उनके ही घर में एक ‘दोगले’ का जन्म होने वाला है. दो दिनों तक बाबूजी से खाना भी नहीं खाया गया. वे अन्दर से पूरी तरह टूट चुके थे. एक रात में मां से बिलखते हुए वे बोले, ‘‘सच में गरीबी बहुत बड़ा अभिशाप है. इसी गरीबी ने मेरे दो-दो बेटे मुझसे छीन लिए...’’

सारी बिरादरी में हमारे परिवार की जबरदस्त थू-थू हुई. ऐसे में जहां भी दीदी की शादी की बात शुरू करने की कोशिश की जाती, तो हमारी बदनामी हमसे पहले वहां पहुंचकर, हमारा रास्ता रोक देती. बाबूजी तो जब-कभी मुझे भी संदेह से देखते, ऐसे में मेरा दिल रो पड़ता.

सदमे के कारण बाबूजी का आत्मबल ही खत्म हो गया था और वे दिनोंदिन शारीरिक तौर पर कमजोर पड़ते जा रहे थे. इसके कारण उनकी ‘पुरोहिताई’ कम होती जा रही थी. घर की स्थिति देखते हुए मैंने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और धनोपार्जन की विवशता, धीरे-धीरे ट्यूशनों की संख्या बढ़ाती गई. सुबह शाम ट्यूशन पढ़ाने के कारण, मैं किसी भी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी नहीं कर पा रहा था, लेकिन इसके सिवा मेरे पास कोई और उपाय भी तो न था. पढ़ना और पढ़ाना यही मेरी दिनचर्या बन गई थी. ट्यूशन के पैसों और बाबूजी के कुछ यजमानों की मदद से, हमने नजदीक के शहर वाले एक सामान्य खाते-पीते परिवार में दीदी को ब्याह दिया. दीदी का ‘गौना’ होते-होते मैंने हिन्दी में एम.ए. कर लिया. कस्बाई शहर में एम.ए. करनेवाले मुट्ठी भर छात्रों में से एक होने के कारण लोग मुझे अत्यंत प्रतिभाशाली और विद्वान समझते, परन्तु पढ़ने की मेरी विवशता कोई नहीं समझ पाता था. वैसे पी.जी. की डिग्री हासिल करने के बावजूद मेरी आर्थिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया. प्रतियोगिता के इस युग में सिर्फ डिग्री के दम पर सरकारी नौकरी मिलती नहीं थी, और बिना बी.एड. किए किसी प्रतिष्ठित प्राइवेट स्कूल में नौकरी के बारे में सोचना भी मूर्खता थी. गली-कूचों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए स्कूलों में स्पष्ट कहा जाता, ‘‘हम सिर्फ ‘अनमैरेड गर्ल्स’ को रखते हैं, क्योंकि वे दो-ढाई हजार रुपये माहवार पर ईमानदारी से मन लगाकर खटती भी हैं और डेढ़-दो साल में शादी कर चली जाती हैं, इससे न उन्हें परमानेन्ट करने का झंझट होता है और न कभी तनख्वाह बढ़ाने की झिकझिक.’’

लेकिन एक स्कूल के सेक्रेटरी ने भलमनसाहत दिखाते हुए कहा, ‘‘पंडी जी, आप भले हिन्दी के बिदवान हों, लेकिन आज के टाईम में हिन्दी-फिन्दी का कोई भैलू (वैल्यू) नहीं है. आप अंगरेजी-उंगरेजी या सांइस मैथ पढ़ाते, तो हम साढ़े चार-पांच हजार तक देइयो देते, लेकिन हिन्दीवालन को हम चार हजार से ज्यादा नहीं देते हैं. आप सोच लीजिए.’’ अब इसमें सोचना क्या था? दिन भर के समय का सदुपयोग करने के लिए मैंने स्कूल ज्वाइन कर लिया. मेरे भाषा ज्ञान का स्कूल में जमकर शोषण हुआ और बोर्ड लिखाने से लेकर फीस कार्ड तक की ड्राफ्टिंग भी मेरे भरोसे छोड़ दी गई. वैसे यह दुर्दशा मेरे अकेले की नहीं थी. आर्ट टीचर प्रमोद बाबू को तो झण्डी बनाने से लेकर, गमले तक की रंगाई-पुताई करनी होती थी. हमारी मेहनत के कारण स्कूल की प्रसिद्धि बढ़ती ही जा रही थी, लेकिन उसका कोई लाभ हम शिक्षकों को नहीं मिलता था. स्कूल के 500 बच्चे औसतन दो लाख रुपये प्रतिमाह बतौर फीस देते थे, जिसमें से मात्र 50 हजार रुपयों में हम सभी शिक्षकों-कर्मचारियों को निपटा दिया जाता था. ऊपर से कुछ अघोषित नियम तो हमारे गले में फांस की तरह थे. हमारे स्कूल जाने का समय तो निश्चित था, परन्तु आने का नहीं. छुट्टी के बाद भी आधा-पौन घंटा स्कूल में काम करना तो जैसे रोज की ही बात थी. यही नहीं, रोज के इस ओवर टाईम या छुट्टियों में भी स्कूल आने का कोई पुरस्कार भले न मिलता हो, लेकिन वर्किंग डे में एक भी दिन अनुपस्थित होने पर, एक दिन का वेतन जरूर कट जाता था.

फिर जब मैंने सुना कि यू.जी.सी. ने घोषणा की है कि पीएच.डी. करनेवालों को ‘लेक्चरशीप’ के लिए लिखित परीक्षा नहीं देनी होगी और वे सीधे इंटरव्यू देंगे, तो मैंने पीएच.डी. करने की सोच ली. जीजाजी की पहचान के एक ‘पहुंच’ वाले प्रोफेसर जितेन्द्र साहब ने कहा, ‘‘आप पच्चीस-तीस हजार ढीला कीजिएगा, तो घर बैठे आप को पीएच.डी. करवा देंगे.’’ अब इससे आसान भला क्या होता? बाबूजी को बताए बिना मैंने जितेन्द्र बाबू के ‘अंडर’ रजिस्ट्रेशन करवाया और चार किश्तों में उन्हें पच्चीस हजार रुपये पहुंचा दिया. उन्होंने भी अपनी बातों को पूरे तौर पर निभाया और थीसिस बनाने से लेकर टाईप कराने की जवाबदेही भी उन्होंने ही निभाई. तीन साल बाद मुझे सिर्फ थीसिस जमा करना पड़ा और इंटरव्यू के समय आए ‘एक्सटरनल’ महोदय के लिए ‘दारू-मुर्गा’ का इंतजाम करना पड़ा. बस कुछ ही दिनों के बाद मेरे नाम के साथ ‘डॉक्टर’ शब्द जुड़ गया. मेरे पीएच.डी. करने पर बाबूजी की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा. अर्से के बाद वे इतने हर्षित, हर्षित नहीं बल्कि प्रफुल्लित हुए थे.

मेरे पीएच.डी. करने की बात सारे शहर में देखते ही देखते फैल गई. बाबूजी के मित्र राहुल चाचा ने कहा, ‘‘डॉक्टर रंजन पाण्डेय के लिए प्राइवेट स्कूल सही मुकाम नहीं है. कल ही गोवर्धन कॉलेज ज्वाइन कर लो. वहां मैंने तुम्हारे बारे में बात कर रखी है. और ये भी जान लो कि छः-आठ महीने के भीतर ही उसे यूनिवर्सिटी से मान्यता मिलने वाली है.’’

कॉलेज में पढ़ाने की कल्पना से ही मन में असीम आनन्द भर आया. मैंने अगले ही दिन स्कूल रिजाइन कर, बहुत ही उछाह से कॉलेज ज्वाइन कर लिया. परन्तु कुछ ही दिनों में कॉलेज की असलियत भी सामने आ गई. ये प्राइवेट कॉलेज वाले नाम के साथ ‘लेक्चरर’ शब्द का तमगा जरूर लटका देते थे, परन्तु वेतन के नाम पर अंगूठा दिखा देते. आय के लिए ‘परीक्षा में गार्डिंग करने’, ‘कॉपी जांचने’ या ‘टेबुलेशन वर्क’ में शामिल होने की जुगत भिड़ानी पड़ती थी. कई बार मन में आया कि वापस स्कूल ज्वाइन कर लूं. कम से कम हरेक माह एक निश्चित आय तो होगी. परन्तु यहां सामाजिक प्रतिष्ठा आड़े आती, कि प्रोफेसर (शहर के निन्यानबे फीसदी लोग मुझ लेक्चरर को भी प्रोफेसर ही कहते थे) से वापस टीचर? यह तो थूक कर चाटने जैसी बात होगी. वैसे कॉलेज में टिके रहना भी आसान नहीं था. इसके लिए कॉलेज के सेक्रेटरी के पोते-पोतियों को फ्री में ट्यूशन पढ़ाने से लेकर, उनके पारिवारिक समारोह तक में मुस्तैद रहना पड़ता था. कॉलेज में आने का एक फायदा मुझे यह मिला कि मेरी मैत्री सुकेश बाबू से हो गई. इतिहास के व्याख्याता सुकेश बाबू बड़े धुरंधर किस्म के आदमी थे और कॉपी जांचने से लेकर हरेक मामले में मनोनुकूल सेटिंग करने की उनकी दक्षता का मैं कायल था. यह उन्हीं का कमाल था कि इस बार हम दोनों को बी.एड. कॉलेज में दाखिला मिल गया था.

इधर कॉलेज में लोग दिलासा देते, ‘‘बस, कुछ दिन और...इस कॉलेज को एफ्लिएशन मिल ही जाएगा.’’ इसी आस के सहारे इस कॉलेज में तीन लोग तो पिछले सात वर्षों से, यानि कॉलेज खुलने के समय से ही पढ़ाए जा रहे थे. मैंने भी उन्हीं लोगों के विश्वास पर विश्वास करके, बी.एड. पूरा होने के बाद भी, एक साल कॉलेज में ही गुजार दिया. बाबूजी बार-बार विवाह के लिए कहते, ‘‘अपनी उम्र देखो, तीस पहुंचने को हो.’’ लेकिन मैं आय के निश्चित न होने का बहाना बनाकर, उनकी बातों को टाल जाता, क्योंकि मेरे दिमाग में पिंकी और छोटी की चिन्ताएं घर कर रही थीं. ये दोनों भी 25 की देहरी लांघ चुकी थीं. समाज के निठल्ले चिन्तन में स्वजातीय लोग, इनके ब्याह को लेकर गंभीरतापूर्वक माथा पच्ची करते और रोज ही बाबूजी और मेरे प्रति निन्दा प्रस्ताव पारित करते कि हम तो अपने कानों में तेल डालकर कुंभकर्णी निद्रा में पड़े हुए हैं. हमें इनकी शादी की कोई चिन्ता ही नहीं है. गोया सारी चिन्ताएं उन्हीं टुच्चे लोगों के सिरों पर लाद दी गई थीं, जो करने के नाम पर केवल निन्दा कर सकते थे, या देने के नाम पर सिर्फ ताने दे सकते थे.

इधर मैंने तीसवें वर्ष में पग धरा ही कि परमात्मा ने बाबूजी को अपने पास बुला लिया. बाबूजी के देहावसान की सूचना पाकर बड़े भैया भी आए, परन्तु मां ने उन्हें बाबूजी को हाथ लगाने तक नहीं दिया. आर्थिक मदद देने की उनकी पेशकश को भी मां ने दो टूक शब्दों में अस्वीकार कर दिया. शायद भैया के वर्ताव को मां अबतक क्षमा नहीं कर पाईं थीं. बाबूजी का सारा क्रिया-कर्म मुझे अपने ही बूते पर करना पड़ा. जब भी श्राद्ध के किसी कार्य में मुझे बाबूजी का स्मरण करने को कहा जाता, तो मेरे मस्तिष्क में बरबस ही बाबूजी की वो बातें और चेहरा घूम जाता, जो उन्होंने कुलदीप भैया के शादी कर लेने के कुछ दिनों बाद, मुझसे कहा था, ‘‘ऋग्वेद में लिखा है कि मनुष्य परम्परा प्रिय है, अनुकरणशील है, परन्तु यदि वह नया पग उठाए, तो अपने अन्दर से नया सूर्य पैदा कर सकता है. अनुगामी न बनकर अग्रणी बन सकता है. इसलिए तुम अपने बड़े भाइयों का अनुसरण कभी मत करना, जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए परिवार के प्रति अपने दायित्वों से मुंह मोड़ लिया. साथ ही कभी उनलोगों के मार्ग पर न चलना, जो झूठ और बेईमानी के भ्रष्ट तथा अनैतिक मार्ग पर चलते हैं. एक बात हमेशा याद रखना कि सत्य का मार्ग भले कठिन प्रतीत होता हो, परन्तु अंततोगत्वा वही मार्ग लक्ष्य तक पहुंचता है और यश तथा विजय दिलाता है. मुण्डक उपनिषद में लिखा भी है, सत्यमेव जयते, नानृतं...’’

क्रिया कर्म की सामाजिकता को निभाने के क्रम में ही मेरी भेंट, दिल्ली रिटर्न अपने उन मित्रों से हुई, जो बी.ए. करने के उपरान्त दिल्ली जाकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी का चोंचला कर, अपने पिताओं की भावनाओं और पैसों का, संभावनाओं के अन्तिम बिन्दु तक दोहन कर चुके थे. इन लोगों ने क्लर्क बनना नहीं चाहा, और काबिलियत के अभाव में कलेक्टर बन नहीं पाए. फलतः ग्रेजुएशन, प्रीपरेशन, कम्पीटीशन और फिर फ्रस्ट्रेशन को चरितार्थ करते हुए, वे ‘लौट के बुद्धू घर को आए’ हो चुके थे.

उधर चुनावी वर्ष को ध्यान में रखते हुए सरकार ने अचानक हम शिक्षित बेरोजगारों की सुधि ली और प्राइमरी तथा मिडिल स्कूल के लिए 25 हजार शिक्षकों की रिक्तियां घोषित कीं. अपने मानापमान की परवाह किए बगैर अपने मित्रों के साथ मैंने भी फॉर्म भर दिया और उन्हीं के सहयोग के कारण, मैं इस प्रतियोगिता में उत्तीर्ण होकर अपना योगदान देने यहां आया था.

अगले दिन जब मैंने अपना नियुक्ति-पत्र हेड सर को दिया, तो वे व्यंग्य में बोले, ‘‘आप पीएच.डी. करके मिडिल स्कूल में क्यों मरने चले आए? आपको तो कहीं प्रोफेसरी करना चाहिए था.’’ मैंने कोई जवाब नहीं दिया.

छात्रों से परिचय के बाद जब मैं क्लास लेने गया, तो मुझे खासी परेशानी हुई. अजीब हिसाब था यहां. कमरे दो, शिक्षक पांच और कक्षाएं सात. उन्हीं दो कमरों में से एक में ऑफिस का भी कार्य चलता था. अतः दो कक्षाएं बरामदे में चला करती थीं. हेड सर को क्लर्की के काम तथा मध्याह्न भोजन की व्यवस्था करने से फुर्सत नहीं थी. उनका समय राशन, सब्जी की खरीद से लेकर भोजन बनवाने और उनके वितरण में ही बीत जाता था. रसोइए की गलती का खामियाजा चूंकि शिक्षकों को ही भुगतना पड़ता था इसलिए हेड सर का उस काम में मुस्तैद रहना लाजिमी ही था. इसलिए दो-तीन कक्षाएं ‘कंबाइन्ड’ रूप से चलती थीं. वैसे इस स्कूल की संस्कृति ही विचित्र थी. यहां न तो शिक्षक पढ़ाना चाहते थे, और न छात्र ही पढ़ना. प्रत्येक कक्षा के रजिस्टर में 40-50 लड़कों के नाम दर्ज थे, जबकि वास्तव में उनमें 12-15 लड़के ही थे. क्लास के दौरान जब मैंने छठीं कक्षा के छात्रों से गांधीजी का पूरा पूछा, तो उन्होंने तपाक से तीन नाम गिना दिए, ‘‘सोनिया

गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी.’’ पूरे स्कूल में एक भी ऐसा छात्र नहीं था, जिसे राष्ट्रीय चिह्व के बारे में ज्ञान हो, या फिर जिसे राष्ट्रगान पूरी तरह याद हो. शर्म की तो बात यह थी, कि सहायक शिक्षक विनय बाबू तक को राष्ट्रगान पूरे तौर पर याद नहीं था. जब मैंने इस बात का जिक्र हेड सर से किया, तो वे हिकारत भरे स्वर में बोले, ‘‘आप पीएच.डी. किए हैं, तो यह मत समझ लीजिए, कि केवल आप ही पढ़े लिखे और जानकार हैं. हम लोग भी पढ़ लिख कर ही यहां आए हैं. और जहां तक बात ‘जन गन मन’ की है, तो कॉलेज में हम भी गीतांजलि पढ़े थे. आपको शायद मालूम भी नहीं होगा कि गीतांजलि में अगर ‘जन मन गन’ गीत नहीं होता, तो टैगोर बाबू को नोबेल प्राइज भी नहीं मिलता.’’ हेड सर की ऐसी ‘एक्सक्लूसिव जानकारी’ से मैं तो अवाक् ही रह गया. वे विजयी मुद्रा में मुझे और हतप्रभ सा मैं उन्हें निहारता रहा. फिर जब शेष शिक्षक भी लंच करने वहां आ गए, तो मैं बाहर बरामदे में चला आया. तभी विनय बाबू की बात मुझे सुनाई पड़ी, ‘‘आज के युग में पीएच.डी. बेवकूफ लोग ही करते हैं. क्रीम स्टूडेन्ट तो ग्रेजुएशन के बाद ही नौकरी पकड़ लेते हैं.’’ इस पर दूसरे शिक्षक अक्षय बाबू बोले, ‘‘और नहीं तो क्या, मुझे ही देखिए, बी.ए. किए साल भर भी नहीं हुआ था, कि यहां मेरी बहाली हो गई. अब पी.जी. और पीएच.डी. के चक्कर में दिमाग क्यों चटाएं?’’

अगले दिन तो स्कूल में जैसे तमाशा ही हो गया. दिन भर में गांव के पांच-सात लोग अपने-अपने परिवार के मरीजों को लेकर स्कूल चले आए कि जो डॉक्टर साहब आए हैं, उनसे इलाज कराना है. मुझे यह समझाने में खासी परेशानी हुई, कि मैं चिकित्सा करने वाला डॉक्टर नहीं हूं.

मुझे रोज पूरे लगन और परिश्रम से पढ़ाते देखकर, सप्ताह भर बाद हेड सर बोले, ‘‘आप भी खूब मेहनत कर रहे हैं लड़कों पर, लेकिन क्या आप कभी यह सुने हैं, कि गधों को खूब नहला-

धुला देने से वे घोड़े बन जाते हैं?’’

‘‘इसका तात्पर्य?’’

‘‘स्पष्ट है. आप क्या समझते हैं कि इन देहातियों पर आपके इतना मेहनत करने से कोई क्रान्ति आ जाएगी? ये गंवार लड़के कलेक्टर बन जाएंगे?’’

अक्षय बाबू भी वक्तव्य देने से नहीं चूके, ‘‘पाण्डेजी, आप ही सोचिए कि अगर सारे कुत्ते काशी चले जाएंगे, तो यहां जूठा पत्तल कौन चाटेगा?’’

लेकिन मेरे मन में कुछ और बात ही घर कर गई थी. मुझे अपने बचपन के वो दिन याद थे, जब लोग प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को ज्यादा प्रतिभाशाली और सरकारी स्कूल में पढ़ने वालों को ‘बोका’ समझते थे. मैंने मन ही मन ठान लिया था कि कुछ भी क्यों नहीं हो जाए, मैं इस स्कूल को बौद्धिक स्तर पर प्राइवेट स्कूलों के बराबर ला खड़ा करूंगा. सहकर्मियों के व्यंग्य और असहयोग के बावजूद मैं अपने काम में लगा रहा. मैंने स्कूल में लड़कों को झाड़ू लगाने से लेकर, देश के प्रतीकों तक के बारे में सिखा दिया. बच्चे अब न सिर्फ लय-ताल में, वरन् समय सीमा में राष्ट्रगान गाने लगे थे. बच्चों को रोज मैं एक महापुरुष के बारे में बताता और जिनकी भी तस्वीर बाजार में उपलब्ध रहती, उसे अपने पैसों से खरीद कर स्कूल में टांग देता. फिर अपने राष्ट्रीय चिह्व को बताने के लिए ही नहीं, बल्कि बच्चों में आदर्श का बीज बोने के लिए, मैंने ‘‘सत्यमेव जयते’’ का फ्रेमिंग किया पोस्टर ऑफिस में टांग दिया. मेरी इस भावना और कृत्यों को मेरे सहकर्मी उपहास की नजरों से देखा करते, लेकिन इससे मुझपर कोई फर्क नहीं पड़ा. स्कूल के सभी बच्चों को सही मायने में शिक्षित करने की जिम्मेवारी, मैंने स्वेच्छा से और बहुत ही प्रसन्नता के साथ अपने कंधे पर उठा रखी थी. समय पर स्कूल आने के लिए, मैंने बाबूजी की पुरानी साइकिल की अच्छी तरह से मरम्मत करा ली थी और अब घर से स्कूल तक के 12-13 कि.मी. का सफर, मैं साइकिल से ही तय करने लगा.

देखते ही देखते एक माह बीत गया और वेतन का दिन आ गया. हेड सर 1 बजे ट्रेजरी से हम सभी की तन्ख्वाह लेकर आनेवाले थे. मेरी धड़कन कल से ही बढ़ी हुई थी, कि मुझे एक साथ पंद्रह हजार रुपए मिलेंगे. यह पहला अवसर था, जब इतनी बड़ी राशि अपने हाथ में, मैं अपने लिए पकड़ने वाला था.

हेड सर साढ़े बारह बजे ही आ गए और जब मैं अपना क्लॉस पूरा कर ऑफिस वाले कमरे में गया, तब तक मेरे तीनों सहकर्मी-सहकर्मिणी अपना वेतन लेकर वहीं गिन रहे थे. पंद्रह हजार तीन सौ सत्ताइस रुपए के सामने सटे रसीदी टिकट पर हस्ताक्षर करने के बाद, जब मेरी हथेली पर मेरी तन्ख्वाह आई, तो जाने क्यों एकबारगी मेरा शरीर कांप सा गया. तभी हेड सर ने कहा, ‘‘आप भी गिन लीजिए पाण्डे जी, पैसे का मामला है. पूरे पंद्रह हजार एक सौ सताइस रुपये हैं. बिल बनाने से लेकर, पास कराने तक की दौड़-धूप और ट्रेजिरी में बाबू लोग को चढ़ावा देने में जो खर्च होता है, उसके लिए सारे शिक्षक दो-दो सौ रुपये कॉन्ट्रीब्यूट करते हैं.’’

तभी एक सज्जन आए, और उन्होंने भी हमारी तरह ही हस्ताक्षर कर वेतन लिया. उनसे मेरा परिचय कराते हुए हेड सर बोले, ‘‘पाण्डे जी, ये हैं रामविलास सिंह जी. इसी स्कूल के शिक्षक.’’

‘‘इस स्कूल के शिक्षक?’’ मैं हैरान था, ‘‘लेकिन ये तो कभी स्कूल ही नहीं आते.’’ मेरे प्रश्न पर हेड सर चिढ़कर बोले, ‘‘ये शिक्षक संघ के नेता हैं. इनके पास स्कूल में झख मारने के लिए फालतू टाईम नहीं है.’’ तभी रामविलास बाबू मुझसे सम्बोधित हुए, ‘‘अच्छा आप ही हैं डॉक्टर पाण्डेय! आपके बारे में मैंने सुना है कि सभी के बदले आप अकेले ही लड़कों को पढ़ाया करते हैं.’’

‘‘अरे विलास बाबू, ये सालों प्राइवेट स्कूल में पढ़ाए हैं. वहां पर खटने वाली आदत तो धीरे-धीरे ही छूटेगी.’’ बीच में टपक पड़े अक्षय बाबू, लेकिन मैंने विलास बाबू को देखते हुए कहा, ‘‘हां, आखिर सरकार हमें पढ़ाने के लिए ही तो वेतन देती है. यहां एक-एक शिक्षक को जितने पैसे मिलते हैं, उतना पैसा तो वहां स्कूल के सारे शिक्षकों को मिलाकर भी नहीं मिलता. फिर भी वहां लोग अपने काम को ईमानदारी और निष्ठा से निभाते हैं.’’

‘‘पाण्डे जी’’, विलास बाबू बोले, ‘‘प्राइवेट स्कूलवालों से हमारी तुलना ही क्या करनी? एक कुली दिन भर बदन तोड़ मेहनत करके भी रोजाना दो-ढाई सौ रुपया कमाता है, जबकि इंजीनियर साहब गद्देदार कुर्सी पर बैठ कर भी पचास-साठ हजार रुपये प्रतिमाह वेतन उठाते हैं.’’

विनय बाबू भी भला क्यों चुप रहते, ‘‘खटने वाले दो ही जानवर होते है, बैल और गधे. आप तो सिर्फ नाम के डॉक्टर हैं, लेकिन कभी सच के डॉक्टरों को देखिए, कि वे लोग नब्ज पकड़ते हैं और पांच सौ रुपया झटक लेते हैं. अब आप ही बताइए, कि क्या पांच सौ रुपये के लिए डॉक्टर लोग मरीजों से कुश्ती लड़ें?’’

‘‘सच्चाई यह नहीं है जो आपलोग मुझे समझाने का प्रयास कर रहे हैं बल्कि सच तो यह है कि प्राइवेट स्कूलों में शिक्षक जवाबदेह होते हैं, इसलिए वहां की पढ़ाई यहां से बेहतर होती है.’’

‘‘किसने कह दिया, कि वे जवाबदेह होते हैं? हमें भी उनकी असलियत की जानकारी है,’’ हेडसर बोले, परन्तु इससे पहले कि वे प्राइवेट स्कूल की कोई एक्सक्लूसिव जानकारी देते, विलास बाबू बोल पड़े ‘‘अरे छोड़िए भी सर, नया रंगरूट ज्यादा कदमताल करता ही है. ये सोचते होंगे कि ऐसे खटकर ये कोई तीर मार लेंगे, लेकिन इन्हें नहीं पता कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता.’’ इस पर तत्क्षण मैंने कहा, ‘‘लेकिन अकेला चिराग पूरे घर को रौशन कर देता है.’’

‘‘मान लिया भाई, आप ही सही हैं.’’ विलास बाबू हथियार डालते हुए बोले, ‘‘आज वेतन मिला है तो अच्छे मूड में रहिए. बेकार की बहस में उलझने से क्या फायदा? आप बस यही जान लीजिए, कि प्राइवेट स्कूलों में मैनेजमेन्ट प्रेत की तरह भयावह होता है, जबकि सरकारी स्कूलों में सब कुछ ‘मैनेज’ हो जाता है.’’ कहकर वो उपस्थिति बही में पिछले माह भर की उपस्थिति दर्ज करने लगे.

शाम में जब मैं मिठाई लेकर घर पहुंचा, तो सभी की खुशियों का ठिकाना न रहा. बाबूजी आए दिन यजमानों के घर पूजा पाठ करवाते थे, तो प्रसाद की मिठाइयों के कारण घर में कभी मिठाइयों की कमी नहीं हुई. परन्तु आज पहली बार घर में न सिर्फ खरीदी हुई मिठाई आई थी, बल्कि पहली बार घर में आय व्यय का बजट भी बना. मां ने स्पष्ट कहा, ‘‘हम छः-सात हजार में घर चला लेंगे, बाकी के पैसे तुम पिंकी के नाम पर जमा करो, जिससे साल डेढ़ साल में हम इसे ब्याह सकें.’’

मैं पिंकी और छोटी के लिए दो-एक अच्छे ड्रेस खरीदना चाहता था, परन्तु इस मामले में बहनों ने ही मेरा साथ नहीं दिया. वे भी सर्वोच्च प्राथमिकता की बातें करने लगीं. शायद लंबे अर्से तक छाई रही गरीबी के कारण, उनकी आंखों ने स्वप्न बुनना ही छोड़ दिया था.

अगले माह हमारी सहकर्मिणी श्रीमती शर्मा का तबादला उनके पति की पोस्टिंग वाले शहर में हो गया. उन्हें ‘फेयरवेल’ देने के लिए हेड सर ने सभी छात्रों से 25-25 रुपये लेकर आने को कहा, परन्तु इसके कारण अधिकांश बच्चे अगले दिन स्कूल ही नहीं आए. जब कुल चार सौ रुपये ही जमा हुए, तो हेड सर ने चिढ़कर कहा, ‘‘एकदम भिखमंगों की बस्ती है ये. आप ही बताइए पाण्डेजी कि इतने पैसे में हम चाय-मिठाई मंगवाएं या मिसेज शर्मा को कोई गिफ्ट दें? इससे पहले मैं जहां था, वहां फेयरवेल के समय छात्रों ने वी.आई.पी. का ब्रीफकेस, शर्ट पैन्ट का कपड़ा, छाता, शॉल, दीवाल घड़ी और ढेर सारी छोटी मोटी चीजें मुझे दी थीं.’’

‘‘छात्रों ने दी थीं, या शिक्षकों ने ली थीं?’’ इसपर हेड सर ने जलती नजरों से मुझे घूरा और फिर उठकर दूसरी ओर चले गए. अब तो विद्यालय में पढ़ाने वाले हम तीन शिक्षक ही बचे थे. विलास बाबू कभी कभार आते और एकाध क्लास लेकर हम पर एहसान कर देते. इधर मेरे प्रयासों को देखते हुए विनय बाबू एवं अक्षय बाबू की आत्मा भी कुछ जाग-सी गई और अब वे भी पढ़ाने में दिलचस्पी लेने लगे, जिससे स्कूल की पढ़ाई का स्तर बेहतर होता जा रहा था. इस तरह से पढ़ाई को सुधरे अभी दो माह भी नहीं हुआ था, कि सरकारी चिट्ठी आ गई, कि तीनों शिक्षकों (रामविलास बाबू का नाम नहीं था उसमें) को पशु गणना के कार्य में लगा दीजिए.

अब हम बजाय छात्रों को पढ़ाने के, गांव में घूम-घूमकर बकरी, सूअर आदि की गणना करते चलते. एक पखवारे के उपरान्त जब हमने स्कूल वापस ज्वाइन किया, तो पाया कि अब तक की सारी मेहनत पर पानी फिर गया है. हेड सर अकेले क्या-क्या करते? बस लड़के पुराने ढर्रे पर वापस लौट आए थे. हम फिर से गाड़ी को पटरी पर लाने की कोशिश कर ही रहे थे, कि विधान सभा के आसन्न चुनाव के कारण, हमें मतदाता सूची का पुनरीक्षण काम थमा दिया गया. गोया सरकार की नजरों में शिक्षण कोई कार्य था ही नहीं.

पखवारे भर इसमें भी हम व्यस्त रहे. फिर जब हमने स्कूल ज्वाइन किया, तो वार्षिक परीक्षा का समय आ गया. लड़के परीक्षा में क्या लिखे होंगे, यह हम सभी जानते थे, परन्तु सरकारी निर्देश ‘‘किसी को फेल न किया जाए’’ के तहत हमने सभी को पास कर दिया.

गर्मी छुट्टी के बाद स्कूल खुले अभी चार ही दिन हुए थे कि शिक्षक-कर्मचारी संघ वालों ने हड़ताल की घोषणा कर दी. पढ़ाई फिर से ठप्प पड़ गई थी. विनय बाबू की सलाह पर मैंने हड़ताल के समय का पूरा सदुपयोग किया और दौड़ धूप कर बैंक में क्लर्क युवक के साथ पिंकी की शादी फाइनल कर दी. पिंकी की सुन्दरता और बड़े जीजाजी से रिश्तेदारी के कारण सौदा सस्ता ही पट गया. दिसम्बर में शादी का डेट रखा गया. मेरे सभी शुभेच्छुओं ने मदद का वचन दे रखा था.

लगभग डेढ़ माह के बाद हड़ताल समाप्त हुई, और हम वापस स्कूल आए. डेढ़ माह में साइकिल पर मैंने एक बार भी

ध्यान नहीं दिया था, जिसका नतीजा यह हुआ कि मुझे रास्ते में कई बार उतर कर ठेल-ठाल करना पड़ा. स्कूल में सभी सहकर्मी समझाने लगे, कि अब मुझे लोन पर बाइक ले लेना चाहिए, लेकिन पिंकी की शादी को देखते हुए मैंने उनकी बातों को टाल दिया. आज स्कूल में दो बजे के लगभग रामविलास बाबू भी आए और उन्होंने सूचना दी, गर्मी छुट्टी से लेकर हड़ताल की अवधि तक, ऊपरी आय में कमी की भरपाई के लिए, एरिया अफसर और डी.एस.इ. आज से शिकार पर (इंस्पेक्शन पर) निकलने लगे हैं और एक-दो दिन में इधर भी आएंगे. अतः सभी लोग समय की पाबन्दी रखें.’’ इस पर हेड सर ने विनय एवं अक्षय बाबू से कहा, ‘‘सभी लोग का मतलब मेरे और आप दोनों से ही है, क्योंकि पाण्डेजी तो पौने दस बजे ही आ जाते हैं. कल से आप लोग भी टाइम्ली आइए, नहीं तो लेने के देने पड़ जाएंगे.’’

वापसी के समय जैसे ही मैं पक्की सड़क पर पहुंचा कि साइकिल का पिछला ट्यूब पंक्चर हो गया. मैंने भगवान को अनेकों धन्यवाद दिया, कि यदि यहां से एक-दो किलोमीटर आगे या पीछे यह हुआ होता, तो मुझे मीलों तक निर्जन में कोई और पंक्चर बनाने वाला भी नहीं मिलता. साइकिल का टायर ट्यूब खोलने के बाद पंक्चर बनाने वाले ने कहा, ‘‘मास्टर जी, ये टायर-ट्यूब दोनों ही हड़ास (बेकार) हो चुका है. बढ़िया होगा कि नया लगवा लीजिए, नहीं तो रोज-रोज लफड़ा होते रहेगा.’’

नए टायर-ट्यूब का अर्थ था, सात-आठ सौ का खर्च, सो मैंने कहा, ‘‘अभी इसी को बना दो. बाद में बदलवा लूंगा.’’ उसने वही किया, परन्तु साइकिल के ठीक होने के बावजूद, मुझे वहीं रुके रहना पड़ा, क्योंकि तब तक बारिश पूरे जोरों से बरस पड़ी थी. लगभग डेढ़ घंटे के बाद जब बारिश थमी, तब जाकर मैं घर आया.

अगले दिन रोज की तरह नौ बजे जब मैं घर से निकला, तो बारिश के अंदेशे से अपना रेनकोट साथ में ले लिया. मेरा अनुमान सही साबित हुआ और डेढ़-दो कि.मी. चलते ही मैं तेज बारिश में घिर गया. तेज हवाओं के साथ प्रचण्ड वर्षा में मेरा रेनकोट भी मेरी रक्षा कर पाने में असमर्थ सिद्ध हो रहा था. अभी मुश्किल से मैंने एक कि.मी. का सफर और तय किया होगा कि साइकिल का पिछला ट्यूब फिर से पंक्चर हो गया. इस आकस्मिक विपदा पर मैं परेशान हो उठा, क्योंकि यहां से मीलों तक कोई पंक्चर बनाने वाला भी नहीं था. विवशता में भीगते हुए मैं साइकिल के साथ पैदल ही स्कूल की ओर चल पड़ा. रास्ते में एक ट्रैक्टर वाला गुजरा तो जरूर, पर वो पूरी तरह भरा होने के कारण साइकिल ढोने से साफ इंकार कर गया. अब इस जंगल में साइकिल को मैं कहां छोड़ता? इसलिए पैदल 4 कि.मी. चलकर एक पंक्चर बनाने वाले की दुकान पर पहुंचा, तो पता चला कि बारिश के कारण अभी तक वो आया ही नहीं है. घड़ी में दस बज चले थे और साथ ही मेरी धड़कनें भी बढ़ गईं थीं. वहां साइकिल छोड़कर मैं पैदल बढ़ना चाह रहा था कि बारिश फिर तेज हो गई और मैं वहीं रुका रहा. ग्यारह बजे के लगभग जब बारिश की रफ्तार कुछ कम हुई, तो पंक्चर बनाने वाला आ गया. साढ़े ग्यारह बजे उसने मुझे साइकिल पकड़ाई और मैं रोज की अपेक्षा दोगुने तेजी से विद्यालय पहुंचा.

विद्यालय के प्रांगण की मिट्टी पर जीप के टायरों के ताजे निशान देखकर मेरा जी धड़कने लगा. अभी मैं बरामदे में साइकिल खड़ा कर ही रहा था कि अंदर से हेड सर आ गए, ‘‘पाण्डेजी, आपको आज ही देर होना था? घड़ी देखिए बारह बजने जा रहे हैं.’’ घबराहट के मारे मेरे मुंह से बोली नहीं निकल रही थी. हेड सर ने आगे कहा, ‘‘अभी डी.एस.इ. और स्कूल इंस्पेक्टर दोनों आए थे, और वे स्कूल से सारा रजिस्टर ले गये हैं. आप पर उनका ‘रिमार्क’ बहुत ही बुरा था.’’ तभी विलास बाबू भी बाहर आए, ‘‘अरे यहां खड़ा मत रहिए. तुरन्त लक्ष्मीबाई कन्या स्कूल जाइए. वे लोग वहीं गए हैं. जाकर उनसे माफी मांग लीजिए और कुछ ले-देकर ‘मैनेज’ कर लीजिए, नहीं तो गड़बड़ हो जाएगा.’’

‘घूसखोरी’ की बात सुनकर मन कसैला तो हुआ, परन्तु ‘कुसमय’ को देखते हुए मैंने चुप्पी साध ली. फिर साइकिल से लक्ष्मीबाई कन्या स्कूल चल पड़ा, जो मेरे विद्यालय से तकरीबन 5-6 किलोमीटर दूर था. बरसात के कारण गीली कच्ची सड़क में साइकिल के चक्के बार-बार फंस जा रहे थे, जिससे मैं तेजी से चल भी नहीं पा रहा था. जब मैं लक्ष्मीबाई कन्या विद्यालय पहुंचा, तो पता चला कि वे लोग वहां से भी निकल चुके हैं. इस तरह से मैं एक स्कूल से दूसरे स्कूल दौड़ लगाता रहा, परन्तु जीप में दौड़ती बदकिस्मती, को मेरे सामर्थ्य की साइकिल पकड़ नहीं पाई.

शाम को जब मैंने डी.एस.इ. महोदय के आवास सह कार्यालय पहुंचकर, बड़े बाबू को अपना परिचय दिया, तो उन्होंने बहुत ही हेय नजरों से मुझे देखते हुए कहा, ‘‘तो आप ही है पाण्डे जी? आपका तो सस्पेंशन लेटर टाईप हो रहा है.’’

‘‘सस्पेंशन लेटर? बिना स्पष्टीकरण मांगे सस्पेंशन?’’

‘‘रेड हैन्ड पकड़ा कर भी बोकराती छांट रहे हैं. फकैती मारते समय यह सब आपके दिमाग में नहीं आया था कि जब

धराएंगे, तो क्या होगा?’’

‘‘देखिए प्लीज, मैं फकैतों में से नहीं हूं. मेरे बारे में किसी भी मास्टर से पता कर लीजिए....’’

‘‘हां वो तो पता चल ही गया. जब गलत करते हैं, तो सजा भोगने का दम भी रखा कीजिए.’’ फिर कुछ देर तक मुझे यूं ही अपमानित करने के बाद वे खुले, ‘‘देखिए पाण्डे जी, सस्पेंड होना और बचना, दोनों आपके ही हाथ में है. नथिंग इज इम्पॉसिबल अंडर द ब्लू स्काई? चलिए, कल सुबह दस बजे तक आप तीस हजार का डोनेशन दीजिए तो सस्पेंशन और बेइज्जती दोनों से बच जाइएगा.’’

‘‘तीस हजार? ये तो बहुत ज्यादा है. मैं घर परिवार वाला आदमी हूं.’’ अपनी अंतरात्मा को दबाते हुए मैंने कहा.

‘‘तो क्या हम निरबंस (निःवंश) हैं? हमारा बालबच्चा नहीं है या हमारा पेट नहीं है. पाण्डेजी, ये बहस का टाईम नहीं है. दो-दो अफसर थे, यह भी तो सोचिए. तीस हजार से कम का तो गुंजाइश ही नहीं है.’’

‘‘लेकिन इतना पैसा मैं नहीं दे सकता.’’

‘‘पैसा नहीं दे सकते हैं, तो लेटर लेने को तैयार रहिए.’’ हिकारत भरे स्वर में बोले बड़े बाबू, ‘‘कोर्ट में सफाई देते रहिएगा. भलाई का तो जमाना ही नहीं रहा.’’

मैं चुपचाप घर लौट पड़ा. मेरे मन में बार-बार बात आती, ‘‘ये किरानी मुझे डरा कर पैसे ऐंठना चाह रहा है. भला बिना स्पष्टीकरण मांगे सस्पेंड कैसे किया जा सकता है?’’ वैसे मेरे अन्तर्मन में कहीं न कहीं यह विश्वास भी था कि मैं हमेशा ही सत्य के मार्ग पर चला हूं, इसलिए मेरे प्रति नियति इतनी क्रूर नहीं हो सकती.

अगले दिन जब मैं स्कूल पहुंचा, तो सारे शिक्षक मुझे घेर कर पूछने लगे कि ‘सौदा’ कितने में पटा? अब तक मैं काफी नॉर्मल हो चुका था, अतः मैंने उन्हें सारी कहानी कह सुनाई. मेरी बातों से उनके चेहरे पर तनाव पसर गया कि जाने अब क्या होगा? परन्तु यह सवाल ज्यादा देर अनुत्तरित नहीं रहा. टिफिन के समय ही डी.एस.इ. ऑफिस का एक कर्मचारी, मेरा सस्पेंशन लेटर लेकर पहुंच गया. ‘निलंबन पत्र’ पढ़ते ही मेरा कलेजा बैठ गया और आंखों के सामने अंधेरा सा छा गया. मेरा सारा आत्मबल, सारी स्फूर्ति और सारी ऊर्जा क्षण भर में ही लोप हो गई और मन में गहरी व्यथा और वेदना फूट पड़ी. सारे सहकर्मी मुझे दिलासा देने लगे, परन्तु मुझ पर उसका जैसे कोई असर ही नहीं हो रहा हो. जीवन भर सत्य और ऊंचे आदर्शों का अनुसरण करने वाले इन्सान के लिए, यह स्थिति कल्पनातीत थी. नियति के निष्ठुर थपेड़ों ने मुझे भी भ्रष्ट और बेईमानों के बीच ला पटका था.

मेरे सस्पेंड होने की बात देखते ही देखते समाज में चर्चा का विषय बन गई. मुझे इस बात से गहरा सदमा लगा कि अधिकांश लोग यह मान चुके थे कि मुझे सही कारणों से दण्ड मिला है. मेरे रिश्तेदार तक मुझे सुनाकर कहते, ‘‘आदर्श बघारना एक बात है, लेकिन उस पर चलना और बात है. सौ दिन का चोर एक न एक दिन पकड़ाता ही है.’’ तो कोई कहता, ‘‘जब पाप का घड़ा फूटता है, तो आदमी कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहता.’’ कुछ लोग तो मर्मवेधी बात कह जाते, ‘‘अपने को तो सुधार ही नहीं सका, तो लड़कों को क्या सुधारता? हराम में तनख्वाह चाहिए सब को. ऐसे ही मास्टरों के कारण आजकल सरकारी स्कूलों में पढ़ाई खत्म हो गई है. नहीं हो हमारे जमाने में मास्टरों का एक चरित्र था, समाज में उनका एक रुतबा था...’’

ऐसे में मुझे घर से निकलने में भी संकोच होने लगा कि जाने कब और कहां कोई व्यंग्य कस दे. मेरा आत्मबल इतना क्षीण हो गया था कि किसी को हंसता देखकर मैं ये सोचने लगता कि वो मुझे देखकर ही हंस रहा है.

मैं रोज सिर झुकाए ऑफिस जाता और शाम को घर लौट कर बिछावन पर पड़ जाता. इधर पिंकी की शादी की तारीख भी नजदीक आती जा रही थी, जिससे मेरी धड़कनें बढ़ती जा रही थीं.

अगले माह के 5 तारीख को तन्ख्वाह के समय हेड सर ने मेरा हालचाल पूछने के बाद कहा, ‘‘आप पढ़ लिख कर भी बेवकूफ ही रह गए. अरे महाराज, आप विलास बाबू को पकड़िए. वो बोले थे न, कि यहां सब कुछ ‘मैनेज’ हो जाता है, तो उनसे मिलकर मैनेज कीजिए. वे कुछ ले-देकर आपका काम करवा देंगे, नहीं तो कोर्ट-कचहरी के चक्कर में सालों ऐसे ही लटके रह जाइएगा.’’

घर पहुंचकर अभी मां को मैं सस्पेंशन के कारण मिला अपना आधा वेतन दे ही रहा था कि शिल्पी दी सपरिवार आ गईं, जिससे घर का वातावरण ही जीवन्त हो उठा. पिंकी तो चाय पानी की व्यवस्था में लग गई, जबकि छोटी, क्षितिज (हमारे एकलौते भांजे) के साथ खेलने लगी. खेलने के क्रम में क्षितिज की दृष्टि बाबूजी की तस्वीर पर टंगी माला पर गई, तो वो उसे पाने को मचल उठा. परन्तु नन्हें कद के कारण उसके हाथ बाबूजी की तस्वीर तक नहीं पहुंच पा रहे थे.

शाम होते-होते पिछले कुछ दिनों की तरह आज भी बारिश शुरू हो गई. बारिश के शुरू होते ही मां भी शुरू हो गईं, ‘‘रोज कह रही थी न, कि मजदूर बुलाकर छत की मरम्मत कराओ, लेकिन तुम एकदम चिकने घड़े हो गए हो. अब रात को सोना आंगन में.’’ बात यह थी कि हमारे घर के तीन कमरों में से एक की छत टपकने लगी थी, परन्तु चूंकि उससे अभी कुछ अनर्थ नहीं हो रहा था, क्योंकि मां और बहनें बड़े कमरे में और मैं बगल वाले कमरे में सोया करता था, इसलिए मैंने तत्परता नहीं दिखाई. आज चूंकि मेरे कमरे में शिल्पी दी को ठहराया गया था, अतः मां मेरी चिन्ता में गुस्सा कर रही थीं. आखिरकार जब छोटी ने मेरे लिए एक फोल्डिंग कॉट बड़े कमरे में लगा दिया, तब जाकर मां शान्त हुईं.

खाना खाकर जब मैं बिस्तर पर आया, तो मेरे दिमाग में एक द्वंद सा छिड़ा हुआ था. हेड सर की बातें दिमाग में घुमड़ रहीं थीं और मुझे इस बात से भारी दुःख हो रहा था कि लोग अनैतिक आचरण की सलाह देकर मुझे अब सच में भ्रष्ट बनाने पर तुले हुए हैं. मेरे ऐसे सत्य के अनुयायी को, अपनी सच्चाई साबित करने के लिए, एक बेईमान और भ्रष्ट आदमी का सहारा लेना पड़े, इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी? मन में एक बार पिताजी की बातें याद आती, ‘‘सत्य का मार्ग कठिन अवश्य होता है, परन्तु विजय सत्य की ही होती है.’’ तो फिर हेड सर की बातें गूंजती, ‘‘सत्य तो सतयुग के लिए था. इस कलयुग में छल-कपट और झूठ का ही राज है. मुकदमा लड़कर हो सकता है कि आप पांच-सात साल में जीत भी हासिल कर लें, लेकिन क्या उतना समय है आपके पास? अभी जो ढाई-तीन महीने बाद बहन की शादी होनेवाली है, उसके बारे में भी तो सोचिए.’’

मेरा मन उद्भ्रान्त हो रहा था और मैं किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहा था. रात को एक बजे तक जब नींद नहीं आई, तो मैं बिछावन पर उठकर बैठ गया और दीवार पर पीठ टिकाकर सामने वाली दीवार पर लगी बाबूजी की तस्वीर को देखने लगा. ऊंचे आदर्शों के प्रतीक बाबूजी की तस्वीर भी ऊंची ही लगी थी, और उनके ठीक नीचे जीवन की सच्चाइयों के रूप में, यथार्थ के कठोर धरातल पर टिकी खाट पर पिंकी सो रही थी. ऊपर ऊंचा आदर्श था और नीचे मुंह बाए सच्चाई खड़ी थी. मुझे उनमें से किसी एक को ही चुनना था.

मेरे जेहन में नन्हें क्षितिज का प्रयास कौंध गया और लगा कि क्षितिज की जगह पर मैं हूं और मेरे हाथ भी बाबूजी को नहीं छू पा रहे हैं. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आदर्श हमेशा इतना ऊंचा क्यों होता है जिसे यथार्थ के धरातल पर खड़ा मेरे जैसा आदमी, चाहकर भी छू नहीं पाता.

अन्दर से असहज महसूस करने और अपनी आत्मा के विरोध के बावजूद, पारिवारिक हितों की खातिर अगली सुबह मैं विलास बाबू से मिला. जब मैंने उनसे मदद की आस जताई, तो वे ठठाकर हंस पड़े, ‘‘अरे पाण्डेजी, हम तो हैं ही सभी की सहायता के लिए. आप का काम तो कब का चुटकी बजाते हो गया होता, लेकिन आप ही तो सच्चाई और आदर्श के चोंचले में फंसे हुए थे. खैर, आज बारह बजे तक आप बीस हजार रुपयों का इंतजाम कीजिए. हम आपका काम आज ही हाथों हाथ करा देंगे.’’

मैंने वैसा ही किया. जैसे ही मैंने उन्हें पैसे थमाए, तो उन्होंने मुझे आश्वस्त किया, ‘‘समझ लीजिए आपका काम हो गया. कल आप दस बजे स्कूल चले जाइएगा, वहीं आपको पुनर्स्थापन की चिट्ठी मिल जाएगी. अब आप निश्चिन्त होकर घर जाइए.’’

मैं कुनमुनाया ‘‘लेकिन वो मुकदमा वगैरह?’’

इसपर वो मुस्कराए ‘‘अरे भाई, टेंशन क्यों लेते हैं? सब ‘मैनेज’ हो जाएगा न.’’

दोपहर में ही घर आया देखकर मां ने कारण पूछा, तो मैंने बहाना बना दिया. वैसे घर में भी मैं अनमनस्क ही रहा. मैं सोच नहीं पा रहा था कि परिवार के प्रति दायित्वों के निर्वाहन के लिए, परिस्थितियों के अनुरूप निर्णय लेकर मैंने सही किया, या तात्कालिक स्वार्थ के लिए असत्य और अधर्म का मार्ग अपनाकर गलत? मन में बात आती कि व्यक्तिगत गौरव से परिवार का हित अधिक महत्वपूर्ण होता है, और मैंने जो कुछ भी किया, वो मेरे परिवार के हित के लिए अपरिहार्य हो गया था. लेकिन फिर मन में बात आती कि परिवार से बड़ा तो समाज होता है, और मैंने अपने पारिवारिक हितों की खातिर, उन लोगों का दामन थाम लिया, जो सभ्य समाज के लिए जीवन्त अभिशाप हैं.

अगले दिन सवा दस बजे जब मैं अपने विद्यालय पहुंचा, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि वहां अन्य शिक्षकों के साथ विलास बाबू भी मौजूद हैं. विद्यालय के कार्यालय में मेरे प्रवेश करते ही सभी शिक्षकों ने मुझे सस्पेंशन हटने की बधाई दी. ज्योंहि मैं कुर्सी पर बैठा कि विलास बाबू ने मेरी ओर ‘पुनर्स्थापन पत्र’ बढ़ाते हुए कहा, ‘‘लीजिए पाण्डेजी अपना लेटर, और बताइए कि आप हमलोगों को दावत कब दे रहे हैं?’’

‘‘रविवार को.’’ कहते हुए जब विलासबाबू के हाथ से मैं लेटर ले रहा था, तभी मेरी दृष्टि बरबस ही उनके पीछे की दीवार पर, उनके सिर से ऊपर टंगे फ्रेम पर चली गई, जिसपर बड़े-बड़े सुनहले अक्षरों से लिखा था, ‘‘सत्यमेव जयते.’’

सम्पर्कः न्यू एरिया, पहली गली,

हजारीबाग (झारखण्ड)

डवइपसम रू 9431152619ए 9835754519

म्.उंपस रू चतपलंकंतेीपअपअमा/लींववण्बवउ

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रचनाकार: प्राची - सितम्बर 2016 / सत्यमेव जयते / कहानी / विवेक प्रियदर्शी
प्राची - सितम्बर 2016 / सत्यमेव जयते / कहानी / विवेक प्रियदर्शी
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