आलेख / सरल बनाने के नाम पर हिन्दी का विद्रूपीकरण / डॉ. रामवृक्ष सिंह

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हमारे देश की सर्वव्यापी समस्या है, अच्छे परिणाम की आशा तो करना, किन्तु उसके लिए यथेष्ट प्रयास से जी चुराना। जब हिन्दी को संघ और विभिन्न राज...

हमारे देश की सर्वव्यापी समस्या है, अच्छे परिणाम की आशा तो करना, किन्तु उसके लिए यथेष्ट प्रयास से जी चुराना। जब हिन्दी को संघ और विभिन्न राज्यों की राजभाषा घोषित किया गया तो उसे लोकप्रिय बनाने और सरकारी कामकाज में प्रचलन में लाने के उद्देश्य से यह नारा भी दिया गया कि हिन्दी में काम करना आसान है, शुरू तो कीजिए। नारे के पीछे धारणा यह थी कि जो काम सरल होता है, उसे लोग अपेक्षाकृत अधिक तीव्रता से अपने व्यवहार में उतार लेते हैं। लेकिन वास्तविक स्थिति इसके ठीक विपरीत थी। हिन्दी की वर्णमाला बहुत बड़ी है, हालांकि उसके स्वरों और व्यंजनों का संयोजन बहुत तर्कबद्ध है। एक बार तर्क समझ में आ जाए तो हिन्दी वास्तव में सरल हो जाती है, खासकर हिन्दी-भाषियों के लिए। किन्तु तर्क समझने के लिए जो थोड़ा-सा श्रम अपेक्षित है, वह भी हम सरलता-पसंद लोग नहीं करना चाहते। कारण? हमारे मन में यह बैठा दिया गया है कि हिन्दी सीखना और उसमें काम करना आसान है। यह किसी ने नहीं बताया कि तर्क-संगत तरीके से सीखने की प्राथमिक बाधा को पार कर लेने के बाद बेशक हिन्दी आसान है, किन्तु वह प्राथमिक बाधा तो हमें पार करनी ही होगी।

यह स्थापित सत्य है कि सरल लिखना भी सरल नहीं है। सरल और कठिन का भेद तो उसके लिए है जो अपनी जानकारी और विद्वत्ता के स्तर पर इतना सक्षम है कि संकल्पना के दोनों, या उससे भी अधिक विभिन्न आयामों को एकाधिक रूप में आपके सामने पेश कर सके। यदि कोई व्यक्ति एक ही संकल्पना के प्रकटीकरण के एकाधिक विकल्प प्रस्तुत करने की स्थिति में नहीं है, तो उसके लिए क्या सरल और क्या कठिन! उसका तो सरल भी वही है और कठिन भी वही।

पिछले दिनों मैं उत्तर प्रदेश के एक राष्ट्रीय राजमार्ग पर जा रहा था। पूरे रास्ते सूचनाएं लगी थीं- कृपया धीरें चलें। मैं किसी भी तर्क के आधार पर यह नहीं समझ पाया कि 'धीरे' को 'धीरें' क्यों लिखा गया। जब तक किसी व्यक्ति को पैदाइशी नजला न हो या उसकी नाक बन्द न हो, वह धीरे को धीरे ही बोलेगा न कि धीरें। तो लिखने वाले ने बेमतलब की बिन्दी लगाकर ऐसी इबारत क्यों लिखी, जिसके कारण पूरे राजमार्ग पर प्रदर्शित सैकड़ों सूचनाएं राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के अधिकारियों की भाषिक अल्पज्ञता का इश्तहार बन गईं?

बहुप्रचलित शब्दों की त्रुटिपूर्ण वर्तनियाँ लिखने की यह स्थिति सभी हिन्दी प्रान्तों में और गाँव-शहर हर जगह है। लखनऊ के अशोक मार्ग पर दो बड़ी इमारते हैं- जवाहर भवन और इन्दिरा भवन। इनमें लगभग पचास से अधिक सरकारी विभाग और कई हजार कर्मचारी कार्यरत हैं। दोनों भवनों में कर्मचारी कल्याण निगम की दुकानें हैं, जहाँ खाने-पीने का सामान और घरेलू उपकरण वैट-मुक्त दरों पर बिकते हैं। इस आशय की सूचना के लिए जगह-जगह बोर्ड लगे हैं। बोर्डों पर लिखा है- यहाँ बांशिग मशीन... आदि वस्तुएँ वैट-मुक्त दर पर मिलती हैं। बहुत देर तक मुझे समझ ही नहीं आया कि 'बांशिग मशीन' किस उपकरण का नाम है? फिर पता चला कि यह तो वॉशिंग मशीन का सरलीकृत हिन्दी संस्करण है! उत्तर प्रदेश सरकार में जिस किसी ने यह इबारत लिखी होगी, वह अनपढ़ या अल्पशिक्षित तो नहीं ही होगा। निश्चय ही वह अच्छा पढ़ा-लिखा और काबिल कर्मचारी अथवा अधिकारी होगा। फिर इस पूरे कार्य में मेकर-चेकर व्यवस्था का निर्वाह भी हुआ होगा। तो क्या कारण है कि हम 'वॉशिंग' को 'बांशिग' लिख गए और दसियों बोर्डों पर छपवाकर इस गलत इबारत लिखी सूचना को पूरे परिसर में टंगवा भी दिया।

ग़ौर करने की बात है कि गलत या सही, जो भी इबारत लिखी या छापी जाती है, उसकी एक नहीं, बल्कि हजारों और कई बार लाखों प्रतियाँ बनती हैं। इस प्रकार एक त्रुटि लाखों जगह प्रचारित-प्रसारित हो जाती है। वह लाखों आँखों से होकर गुजरती है। ज़ाहिर है कि किसी एक बिन्दु पर की गई त्रुटि लाखों लोगों में भाषा का एक नया कुसंस्कार भी पैदा करती है। अपने यहाँ शब्द को ब्रह्म कहा गया। इस प्रपत्ति की दार्शनिक व्याख्या चाहे जो हो, भाषा के नज़रिए से देखने पर मुझे ऐसा लगता है कि एक बार जो सही या गलत वर्तनी आपने लिख दी, वह लंबे समय तक, बल्कि अनन्त काल तक के लिए पूरे भाषिक परिवेश में व्याप जाती है। फिर उसे ठीक करना लगभग असंभव हो जाता है। यों तो ठीक और गलत की अपनी-अपनी परिभाषाएँ हो सकती हैं, किन्तु सार्वजनिक जीवन में जो थोड़ी-सी चीज़ें नियमों पर आधारित हैं, उनमें भाषा भी एक है। भाषा को आप अराजक तत्वों के हवाले नहीं कर सकते। सरलता के नाम पर तो कतई नहीं, क्योंकि सरल का अभिप्राय गलत और त्रुटिपूर्ण नहीं होता।

19 नवम्बर को देश की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री स्वर्गीया इंदिराजी का जन्म दिन होता है। इस उपलक्ष्य में इंदिरा मैराथन आयोजित की गई। प्रतियोगिता के पुरुष वर्ग में बनारस के मूल निवासी और भारतीय सेना में कार्यरत धावक सँवरू यादव ने प्रथम स्थान हासिल किया। लखनऊ के अमर उजाला ने 20 नवम्बर 2016 अंक में खेल पृष्ठ पर इस खबर को प्रमुखता से छापा, किन्तु विजेता का नाम सँवरू के बजाय सन्वरू कर दिया। टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे SHANVARU छापा। भारतीय नामों के लिप्यंतरण में रोमन की अपनी सीमाएँ हैं और सही उच्चारण व लेखन तभी किया जा सकता है, जब हम रोमन की सीमा लाँघकर, शब्द के स्थानिक उच्चारण की सम्यक समझ रखते हों। दुर्भाग्य से इस देश में भाषा का बहुत बड़ा कार्य-व्यापार रोमन के माध्यम से हो रहा है। हो सकता है कि मैराथन की यह खबर पहले अंग्रेजी में तैयार की गई हो। धावकों के नामों की प्रविष्टियाँ रोमन में दर्ज़ हुई हों और खेल-पत्रकार ने वहाँ से खबर उठाई हो। किन्तु पाठक की आत्मा तक पहुँचने के लिए खबरों और उनमें प्रयुक्त नामों आदि की जो प्रामाणिक जानकारी पत्रकार को होनी चाहिए, क्या वह जानकारी हासिल करने की कोशिश आज का हिन्दी पत्रकार करता है? या वहाँ भी सरलता के नाम पर प्रयत्नलाघव की डंडी मार ली जाती है?

हिन्दी की वर्णमाला सिखानेवाली पाठ्य-पुस्तकों में ङ के बजाय ड़ छपना, रोड के बजाय रोड़ लिखा जाना और ऐसी अनेक भौंडी त्रुटियों को सरलीकरण के नाम पर आँख मूँदकर स्वीकार कर लिया जाना, हिन्दी के प्रचार-प्रसार में कितनी सुविधा दे रहा है, यह अपने-आप में शोध का विषय हो सकता है। लेकिन दिक्कत यह है कि हिन्दी भाषा और साहित्य के तथाकथित विद्वान, शोधार्थी आदि भी ऐसी ही न्यूनताओं से ग्रस्त हैं। विश्वविद्यालयों व कॉलेजों में ऐसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर बनने के लिए विश्वविद्यालयीन एवं महाविद्यालयीन शिक्षक जिस तरह की भाषा अपने शोध-पत्रों के लेखन के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, उसे देखकर भी बहुत आश्वस्ति नहीं होती। विद्रूपित हिन्दी के हजारों उदाहरण दिए जा सकते हैं। हिन्दी की चिन्ता करनेवालों को वे ज्ञात भी हैं। इसलिए उनका उल्लेख करना यहाँ समीचीन नहीं है।

सरलीकरण की माला जपनेवाले सरकारी नौकरों ने हिन्दी में काम न करने का यह अच्छा बहाना खोजा है। चूंकि उनके तईं हिन्दी सरल नहीं है, इसलिए वे हिन्दी में काम नहीं करेंगे, गोया हम भारतीयों के लिए अंग्रेजी बहुत सरल है! हिन्दी को सरल बनाने पर ज़ोर देनेवाले सरकारी नौकरों से पूछा जाना चाहिए कि क्या आप अंग्रेजी में इसलिए काम करते हैं कि वह सरल है? कहीं ऐसा तो नहीं कि अंग्रेजी में काम करके आपको गौरव का बोध होता है और हिन्दी में काम करके हीनता का?

सन् 2012 में राजभाषा विभाग ने वार्षिक कार्यान्वयन कार्यक्रम जारी करते हुए हिन्दी को सरल बनाने का एक रेडीमेड नुस्खा सुझाया। जहाँ-जहाँ हिन्दी शब्द हैं, वहाँ-वहाँ अंगरेजी शब्द डाल दीजिए। इस नुस्खे के पीछे यह धारणा थी कि देश के लोग अंगरेजी शब्दों से अधिक परिचित हैं और संस्कृत के तत्सम शब्दों से कम। क्या यह वाकई सच है? जिस देश की लगभग चालीस प्रतिशत आबादी निरक्षर हो, और अपनी-अपनी मातृभाषा को भी लिख-पढ़ न सकती हो, उस देश में किसी विदेशी भाषा के शब्दों की भर्ती के ज़रिए हिन्दी को सरल बनाने का यह नुस्खा सुझाने वाला कोई महापण्डित भाषाविद् ही हो सकता है!

हिन्दी के सरकारीकरण ने उसका और भी बण्टाधार किया है। राजभाषा-कर्मियों के नाम पर एक बड़ी जमात ऐसे लोगों की आ गई है, जो केवल नौकरी के लिए इस पेशे से जुड़े हैं। उनका मन हिन्दी के साथ नहीं है। चूंकि और कोई नौकरी नहीं मिली और राजभाषा वाली मिल गई, इसलिए वे इधर चले आए। एक बार नौकरी में आने के बाद इनमें से ज्यादातर लोग कुछ भी नया नहीं सीखते। अपने ज्ञान और कौशल में कोई इज़ाफा भी नहीं करते। ऐसे लोगों ने हिन्दी का एक नया मुहावरा गढ़ा है, जिसे कार्यालयीन हिन्दी कहा जाता है। पता नहीं, अँगरेजी या अन्य भाषाओं का भी कोई कार्यालयीन, दुरूह और बेतुकी व्याकरणिक संरचना वाला रूप विद्यमान है या नहीं! किन्तु हिन्दी का तो है! यदि हमें हिन्दी को उसके स्वाभाविक स्वरूप में जीवित रखना है तो सबसे पहले इस मिथ्या धारणा पर चोट करके उसे पूरी तरह तोड़ना होगा। विरूपित हिन्दी का जो यह रक्तबीज राजभाषा-कर्मियों और अयोग्य अनुवादकों ने पैदा किया है, उसे जितनी जल्दी निर्मूल कर दिया जाए, उतना ही हिन्दी के लिए हितकर होगा।

चूंकि सरकार ने हिन्दी की प्रतिष्ठा का जिम्मा लिया है, अतः उसका यह दायित्व है कि वह इस काम के लिए सुयोग्य व समर्पित विद्वानों की नियुक्ति करे। विद्वान यानी अपने क्षेत्र की सांगोपांग समझ रखनेवाले वास्तविक विद्वान, न कि हिन्दी न जानते हुए भी पदक्रम में ऊपर चढकर पदासीन हुए विभागीय नौकरशाह। हिन्दी का काम मिशनरी उत्साह और समर्पण भावना की माँग करता है। इसे नौ से पाँच के खाँचे में नहीं किया जा सकता। उठते-बैठते, जागते-सोते हर समय केवल हिन्दी के हित और उसके प्रचार-प्रसार की चिन्ता करनेवाला व्यक्ति ही इसका सही हितू हो सकता है। जो लोग ऐसे नहीं हैं, वे हिन्दी को कठिन बताते रहेंगे और उनमें से कुछ उसे सरल करने के नाम पर विद्रूपित करते रहेंगे। ऐसे छद्म हिन्दी-सेवियों से हमें हिन्दी की रक्षा करनी चाहिए।

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आलेख / सरल बनाने के नाम पर हिन्दी का विद्रूपीकरण / डॉ. रामवृक्ष सिंह
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