व्यंग्य / आलोकतन्त्र की कथा / वीरेन्द्र ‘सरल‘

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हमारे दादा जी लोक कथा एक्सपर्ट थे। उनकी जुबान पर लोक कथाएं ऐसे हुआ करती थी जैसे पुलिस के जुबान पर गाली और नेताओं के जुबान पर आश्वासन। उनकी ...

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हमारे दादा जी लोक कथा एक्सपर्ट थे। उनकी जुबान पर लोक कथाएं ऐसे हुआ करती थी जैसे पुलिस के जुबान पर गाली और नेताओं के जुबान पर आश्वासन। उनकी स्मृतियों में लोक कथा वैसी ही सुरक्षित थी जैसे जमाखोरों के गोदामों में माल। दादा जी को लोक कथाओं की सत्यता पर इतना विश्वास था जितना माननीयों को अपने चमचे और अपनी घोषणाओं पर होता है। जमीनी हकीकत क्या है इससे ना तो हमारे दादा जी को मतलब है और ना ही हमारे माननीयों को। हम दादा जी से एक कहानी सुनाने का आग्रह करते तो वे दस सुना देते थे। हम नहीं चाहते थे फिर भी जबरदस्ती सुना देते थे और ऊपर से हमें धमकाते भी थे कि कैसे नहीं सुनोगे बच्चू, मैं तो तुम्हारे बाप को भी सुना दिया करता था तो फिर तुम किस खेत के मूली हो। कभी-कभी तो दादा जी की छड़ी के डर से ही हमें कहानियाँ सुननी पड़ती थी।

एक दिन दादा जी ने मुझसे कहा-‘‘बेटा! आज मैं तुम्हें राजा आलोकतंत्र की कहानी सुनाता हूँ। चूंकि यह शब्द अपने लोकतंत्र से मिलता-जुलता है इसलिए इस कहानी को सुनने की मेरी जिज्ञासा बढ़ गई। पहले मैं अब तक के अपने इतिहास ज्ञान के आधार पर मन-ही-मन राजाओं की सूची में राजा आलोकतंत्र का नाम ढूँढता रहा पर इसका उल्लेख मुझे कहीं नहीं मिला। इस बारे में दादा जी से बहस करने की मेरी हिम्मत ही नहीं हुई क्योंकि वे दादा जी छड़ी धारण किये हुए थे। मैं बिना ना-नुकुर के दादा जी के सामने बैठ गया।

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दादा जी ने कहना शुरू किया कि बहुत पुरानी बात है। एक राज्य में आलोकतंत्र नामक राजा राज्य किया करता था। राजा बहुत ही विद्वान, न्यायप्रिय और प्रजापालक थे। धर्म पर उनकी श्रद्धा तो थी पर वे अंधभक्त नहीं थे। वे परहित को ही सबसे बड़ा धर्म और कर्म को ही पूजा समझते थे। जनता को जनार्दन समझ कर उनकी ही सेवा किया करते थे। इससे प्रजा बहुत खुश थी। राजा आलोकतंत्र के आलोक से पूरा राज्य आलोकित था। राज्य में प्रेम, एकता भाईचारा, समरसता, सहिष्णुता, साम्प्रदायिक सद्भाव का साम्राज्य था। राजा के दो बेटे थे। एक का नाम लोकतंत्र और दूसरे का नाम जोंकतंत्र था। दोनों जुड़वा और हमशक्ल। दोनों को पहचानना एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने के समान कठिन कार्य था। लोकतंत्र तो बिल्कुल अपने बाप पर गया था पर जोंकतंत्र ‘यथा नाम तथा गुण‘। एक बार किसी के बदन पर चिपक जाय तो फिर पूरा खून चूसे बिना छोड़ने का नाम ही नहीं लेता था।

राजपाट चलाते-चलाते राजा आलोकतंत्र की उम्र बीतने लगी थी। अब वे बूढ़े हो गये थे। राजा को चिन्ता होने लगी थी कि उसके मरने के बाद राज्य का उत्तराधिकारी कौन होगा। वे अपने दोनों बेटों के स्वभाव से भली-भाँति परिचित थे। लोकतंत्र राज्य और जनता के प्रति जितना जवाबदेह, नम्र, परोपकारी और सेवा भावी था, जोंकतंत्र उतना ही लापरवाह, उग्र और जनता को अपने हाल पर छोड़ने वाला। राजा कि चिन्ता यह थी कि यदि अपने जीते जी राज्य को योग्य हाथों में न सौंपा गया तो उनके मरने के बाद राज्य की जनता त्राहि-त्राहि कर उठेगी। जिससे उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी। खूब सोच-विचार कर राजा ने राजपुरोहित और जनता की राय से उचित अवसर देखकर राजकुमार लोकतंत्र का राज्याभिषेक कर दिया। राज्य सिंहासन पर विराजने से पहले राजा लोकतंत्र ने अपने पिता से हाथ जोड़कर कहा-‘‘पिता जी! आप मुझ पर विश्वास करके मुझे इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंप रहे है। पता नहीं मैं आपकी उम्मीदों पर खरा उतर पाऊँगा या नहीं? यदि आप मुझे एक योग्य मार्गदर्शक भी दे देते तो बड़ी कृपा होती। आलोकतंत्र ने मुस्कुराते हुए कहा-‘‘मैं जानता था, तुम यही कहोगे। इसलिए मैंने इसकी व्यवस्था पहले ही कर रखी है।‘‘ फिर आलोकतंत्र ने एक बहुत ही सुन्दर और मोटी किताब लोकतंत्र के हाथों में थमाते हुए कहा-‘‘ये रहा तुम्हारा मार्गदर्शक। ये सदैव तुम्हारा पथप्रदर्शन करेगा और तुम्हें तुम्हारे कर्तव्यों का बोध कराएगा।‘‘ राजा लोकतंत्र ने जिज्ञासावश पूछा-‘‘पिता जी! न केवल मेरे बल्कि हम सबके इस मार्गदर्शक का नाम क्या आप हमें बताना नहीं चाहेंगे?‘‘ आलोकतंत्र ने लोकतंत्र के सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा-‘‘इसका नाम संविधान है बेटा। तुम चिन्ता मत करो यह संविधान हमेशा तुम्हारा पथ प्रशस्त करेगा। आज से तुम मेरा स्थान ले रहे हो। मैं तुम्हें राजपाट सौंप रहा हूँ। तो इस शुभ अवसर पर मैं तुम्हें अपने आशीर्वाद के साथ ही एक कीमती उपहार भी देना चाहता हूँ। इससे ज्यादा कीमती मेरे पास और कुछ भी नहीं है। हम सबके जीवन से भी ज्यादा बहुमूल्य दौलत आज मैं तुम्हें देने जा रहा हूँ। जो हमारे पूर्वजों के त्याग, बलिदान, साहस और शौर्य की निशानी है। क्या तुम उसका नाम नहीं जानना चाहेंगे‘‘ राजा लोकतंत्र ने अपना दिल थाम कर सिर हिलाया। आलोकतंत्र ने कहा-‘‘इस बेशकीमती दौलत का नाम आजादी है बेटे। इसे बहुत सम्हालकर रखना। अपने बाद सुरक्षित इसे अपनी अगली पीढ़ी के योग्य हाथों में सौंप देना यही मेरे लिए तुम्हारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी, समझ गये?‘‘ लोकतंत्र ने पिता द्वारा दी गई उस अनमोल दौलत को अपने सिर-माथे पर लगाते हुए कहा-‘‘पिता जी, मैं आपके चरणों की सौगंध खाकर आपको वचन देता हूँ कि मैं अपने प्राणों की बलि चढ़ाकर भी आपके इस अनमोल नियामत की रक्षा करूँगा। पिता जी ने कहा-‘‘नहीं बेटे नहीं! मेरे चरणों की सौगंध खाने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम तो बस अपने मार्गदर्शक पर हाथ रखकर ही शपथ लेना कि मैं जो भी करूंगा अपने राज्य की एकता, अखंडता और प्रजा की खुशहाली के लिए ही करूँगा। इतना कहते-कहते  राजा आलोकतंत्र स्वर्ग सिधार गये।

कहानी सुनाते-सुनाते दादा जी की आंखों भर आई थी। वे सिसकने लगे थे। मैंने मासूमियत से पूछा फिर क्या हुआ दादा जी? दादा जी अपनी नम आंखों से आँसू पोंछते हुए बोले-‘‘इसके बाद कुछ दिनों तक लोकतंत्र ने राज्य किया। प्रजा खुश तो नहीं पर सन्तुष्ट जरूर थी। राज्य में प्रेम, एकता, भाईचारा और समरसता की भावना को अभी आँच नहीं आई थी। प्रजा के बीच लोकतंत्र की लोकप्रियता बढ़ रही थी। प्रजा को उम्मीद थी कि लोकतंत्र के शासनकाल में भी राजा आलोकतंत्र के शासन काल की तरह खुशहाली आयेगी।

इधर राजकुमार जोंकतंत्र को राजा लोकतंत्र की लोकप्रियता रास नहीं आ रही थी। वह लोकतंत्र को बेदखल करके स्वयं राजा बनकर धन कुबेर होना चाहता था। वैसे भी उसे प्रजा के दुःख-सुख से कुछ लेना-देना नहीं था। जोंकतंत्र का खुरापाती दिमाग हमेशा यह सोचता था कि आखिर राजा कैसे बना जा सकता है। प्रजा के बीच लोकतंत्र की गहरी पकड़ के कारण उसकी दाल नहीं गल रही थी। अन्ततः उसने एक खतरनाक फैसला लेते हुए राजा लोकतंत्र का अपहरण करवा दिया और उसे अपने स्वार्थ के विशाल काल कोठरी में कैद कर स्वयं राजा बन बैठा। जोंकतंत्र, राजा लोकतंत्र के मार्गदर्शक को भी हाशिये पर ढकेलने की कोशिश की। मार्गदर्शक के पास मूक दर्शक बनकर आँसू बहाने के सिवाय कोई चारा नहीं था। जोंकतंत्र, लोकतंत्र का हमशक्ल तो था ही। प्रजा उसे पहचान तक नहीं सकी और उसे ही अपना राजा समझ बैठी।

जोंकतंत्र ने शासन करने के लिए उस अंग्रेज अफसर की आत्मा का सहारा लिया जिन्होंने फूट डालो और राज्य करो का सूत्र दिया था। जोंकतंत्र निरकुंश होकर राज्य करने लगा। जोंकतंत्र के शासन काल का एक ही लक्ष्य था, प्रजा को जितना हो सके लूटो और उसके बदन से खून चूसो। खून चूसने वाली प्रजाति के सभी जीव-जंतुओं यथा खटमल, मच्छर, जूँ और पिस्सुओं के हितों की रक्षा करना ही जोकतंत्र के शासन काल का मुख्य उद्देश्य था। जोंकतंत्र न तो किसी की बात सुनता था और न ही प्रजा का ध्यान रखता था। उसे केवल प्रजा के बदन का खून चूसकर मोटे होने से मतलब था। अपना शौक पूरा करना, अपने और अपनों के लिए धन बटोरना, अपनों को लाभ के पद पर बिठाना, उन्हें उपकृत करना, अपने स्वार्थ के लिए प्रजा को आपस में लड़ाना फिर उनकी चिता की आग पर अपने स्वार्थ की रोटी सेंकना यही उसका मुख्य लक्ष्य था। जोंकतंत्र की एक ही नीति थी कि ‘स्व भवन्तु सुखिनः‘। उनके क्रिया-कलापों को देखकर राज्य के कुछ विद्वानों को संदेह जरूर होता था कि यह राजा अपना असली लोकतंत्र है या उसका हमशक्ल और जुड़वा भाई जोंकतंत्र? पर जोंकतंत्र के भय से कोई जुबान खोलने की हिम्मत नहीं करता था।

जब धीरे-धीरे जोंकतंत्र का अत्याचार बढ़ने लगा तब राज्य के प्रजा भी उन्हें संदेह की दृष्टि से देखने लगी। जोंकतंत्र अपने आपको लोकतंत्र साबित करने का भरपूर प्रयास करता था। मगर कहीं-कहीं से विद्रोह के स्वर फूटने लगे। जोंकतंत्र साम, दाम, दंड भेद का सहारा लेकर विद्रोह को दबाता रहा। फिर भी प्रजा उग्र होने लगी तब उन्होंने प्रलोभन का सहारा लिया, मुफ्त और छूट जैसी नीति अपनाइये। एक पुरानी और प्रसिद्ध कहावत है कि ‘सब्बल की चोरी और सुई का दान‘ अर्थात करोड़ों दबाओ और सैकड़ों बांटकर महादानी कहलाने का गौरव प्राप्त कर लो।  जुगाड़ तकनीकी से महादानी दधीचि तथा कर्ण का सम्मान भी झटक लो।

तभी उस राज्य में एक अनहोनी घटना हुई। एकांत के क्षणों में वहां की प्रजा को किसी की सिसकियों की आवाज सुनाई देती थी। आवाज किसकी है यह पता नहीं चलता था। सब एक -दूसरे को पूछते पर कोई बता नहीं पाता था। उस राज्य में एक चिन्तन नाम का बहुत विद्वान बुजुर्ग रहता था। राज्य के प्रजा की ओर से उन्हें ही सिसकने वाले आदमी की पता लगाने की जिम्मेदारी दी गई। चिन्तन नामक वह बूढ़ा अपनी बुद्धि का सफल प्रयोग करते हुए एक दिन राजा जोंकतंत्र के स्वार्थ के काल कोठरी तक पहुँच गया। रोने-सिसकने की आवाज उसी काल कोठरी से आ रही थी। जो राज्य के प्रजा के कानों तक पहुँचती थी। अंदर प्रवेश करना संभव नहीं था। उस बूढ़े ने दीवार से कान लगाकर पूछा-‘‘भैया आप कौन है और इस तरह से विलाप क्यों करते हैं जो पूरे राज्य की प्रजा को सुनाई देती है।‘‘ अंदर से आवाज आई कि मैं लोकतंत्र हूँ जो यहाँ कैद हूँ। अपने पिता को दिये हुए वचन को मैं निभा नहीं सका इसलिए रोता हूँ मगर तुम कौन हो और यहाँ तक कैसे पहुँच गये। यदि जोंकतंत्र को पता चल गया तो तुम्हारी खैर नहीं। वह तुम्हारी हत्या करा देगा। अपना भला चाहते हो तो तुरन्त लौट जाओ।

बूढ़ा उल्टे पैर लौट आया। प्रजा को इसकी जानकारी दी। प्रजा के बीच असंतोष फूट पड़ा। जोंकतंत्र के महल के सामने राज्य भर की प्रजा एकत्र हो गई। भीड़ से आवाज आ रही थी कि जोंकतंत्र हम तुम्हें पहचान गये हैं। हमें हमारा राजा लोकतंत्र चाहिए। तुम सिंहासन खाली करो। भीड़ की उग्रता देख जोंकतंत्र घबराया। तुरन्त राजमहल के भीतर राज कर्मचारियों के साथ उसकी एक गुप्त मंत्रणा हुई। सर्वसम्मति से एक निर्णय हुआ। फिर जोंक तंत्र मुस्कराते हुए शाही अंदाज में राजमहल के दरवाजे पर आया और भीड़ को संबोधित करते हुए कहने लगा कि यदि आप नहीं चाहते कि मैं राजा रहूँ तो मैं अभी सिंहासन खाली कर रहा हूँ। आज के बाद मैं नहीं बल्कि आप सभी राजा रहेंगे। अब कोई एक व्यक्ति राजा नहीं रहेगा।

भीड़ कुछ शांत हुई और आपस में कानाफूसी शुरू हो गई कि आखिर हम राजा कैसे हो सकते है। जोंकतत्र के होठों पर कुटिल मुस्कराहट आ गई। उन्होंने आगे कहा-‘‘राज्य में चुनाव की तैयारी शुरू की जा रही है। आप जिसे चुनेंगे वही आपका प्रतिनिधि होगा। भीड़ खुश होकर लौट गई।

जोंकंतंत्र के होठों की कुटिल मुस्कराहट और गहरी हो गई। भीड़ के लौटने के बाद वह राजमहल के उस गुप्त कक्ष में पहुँचा जहाँ उसके सगे-सम्बंधी, मंत्री-संतरी, चमचे आदि बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। सबके मन में बस एक ही जिज्ञासा थी कि जोंकतंत्र क्या कहने वाला है। उनके बिना पूछे ही जोंकतंत्र खुश होकर कहने लगा-‘‘ अब आप सब चुनाव के मैदान में उतरने की तैयारी कर लीजिए। प्रजा के पास कुआँ या खाई में से किसी एक को चुनने की मजबूरी होगी। हम सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। तुम सब शीघ्रता से अलग-अलग खेमे में बंटकर दो-चार दल बनाकर  चुनाव के मैदान पर उतर जाओ। अब हमारे पास इसके सिवाय कोई दूसरा चारा नहीं है। आखिर नेपथ्य में रहकर शासन तो मुझे ही करना है बस सामने तुम लोगों को रहना है, समझ गये। यहाँ समझदार को इशारा काफी का वाक्य बिल्कुल सटीक बैठा। कक्ष एक सामूहिक अट्टहास से गूँज पड़ा।

कुछ ही दिनों में राज्य में चुनाव भी सम्पन्न हो गया। किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। भगवानदास एंड संस तथा भरोसे लाल एंड पार्टी ने मिलकर सरकार बनाई। दोनों दल के प्रथम नाम को मिलाकर सरकार का नामकरण किया गया मतलब ‘भगवान भरोसे सरकार‘। भगवानदास भगवान के नाम पर प्रजा को लूटने में माहिर था और भरोसे लाल लोगों को भरोसा दिलाने में दक्ष था। सरकार अच्छी चल पड़ी। जोंकतंत्र अपनी योजना में कामयाब होकर राजमहल में आराम फरमाने लगा।

प्रजा बेचारी अब भी अपने हाल पर जी रही थी और लुट रही थी। भगवान भरोसे सरकार से ज्यादा उम्मीद करना भी बेमानी थी। प्रजा को कम-से-कम इस बात का संतोष था कि लूटने और चूसने वाले कोई गैर नहीं बल्कि हमारे अपने ही हैं। उन्हें चुनकर हमने उन पर कोई अहसान तो नहीं किया है। अपन पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के सिवाय जब कोई विकल्प न बचे तो प्रजा आखिर और क्या कर सकती है। ये सब बताते हुए दादा जी की आहें निकल पड़ी। कहानी खतम हो गई थी। दादा जी चुपचाप शून्य को निहारने लगे थे। मगर मेरी जिज्ञासा शांत नहीं हुई थी।

मैंने पूछा-‘‘दादा जी! राजा लोकतंत्र के मुक्ति संग्राम का क्या हुआ?‘‘ दादा जी ने कहा-‘‘क्या होगा बेटा! भगवान भरोसे सरकार बनने के बाद उस केस को ही ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और फाइल बंद कर दी गई। राजा लोकतंत्र आज भी जोंकतंत्र के उसी काल कोठरी में कैद है। कालकोठरी के बाहर जोंकतंत्र के सिपाही रात-दिन वहाँ पहरेदारी कर रहे हैं। अब तो उस काल कोठरी से लोकतंत्र की न केवल रोने की बल्कि चीखने-और चिल्लाने की आवाज भी राज्य के प्रजा को सुनाई देती है। वह रोज चिल्लाता है कि बचाओ, बचाओ। अरे! कोई है मुझे बचाने वाला? मगर उसकी आवाज कैदखाने के दीवारों से टकराकर दम तोड़ रही है। आखिर नक्कार खाने में तूती की आवाज कब तक गूँज सकती है।‘‘

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वीरेन्द्र ‘सरल‘

बोड़रा (मगरलोड़)

जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)

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व्यंग्य / आलोकतन्त्र की कथा / वीरेन्द्र ‘सरल‘
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