बुंदेली कहानी - अब का हुइए / वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

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रमलू मौं फुलायें बैठो तो, काएसें ऊके लौरे भइया छुटकू के लाने नये उन्ना आ गए ते, जबकि रमलू के उन्ना छुटकू के उन्नन सें जादा फटे चिथे और पुरा...

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

रमलू मौं फुलायें बैठो तो, काएसें ऊके लौरे भइया छुटकू के लाने नये उन्ना आ गए ते, जबकि रमलू के उन्ना छुटकू के उन्नन सें जादा फटे चिथे और पुराने हते । रमलू की बाई परबतिया ने उए समझाओ कै-‘‘बेटा छटकू अबे हल्को है तुम ऊकी बराबरी नइं करो और फिर अगले मइना तुमाईअई तो बारी है, तुमइं खाँ पइसा दै दैबी सो अपने मन के लै आइयो ।’’ बाई कौ आस्वासन पाकें रमलू उठो औ घर से बायरें निकर गओ ।

परबतिया अनपढ़, भौतई पूजा पाठ करबे वारी पुराने जमाने की रूढ़ीवादी एक निम्न वर्ग की औरत हती । ऊके चौथे नंबर की संतान रमलू अब 13 साल कौ हतो। छुटकू ऊसें 3 साल लोरो हतो । रमलू सें बड़ी ऊकी तीन बैनें हतीं । एक को ब्याव हो गओ तो, दो अबे कुआंरी हतीं । परबतिया विधवा हती । दो साल पैंलइं खेत पे काम करत ऊके मुन्सेलू गंगुआ पै गाज गिर गईती । तेरइं होबे के बाद गांव के जाने माने पंडित गोपीनाथ ने परबतिया खाँ समझाओ-‘‘देख री खेती को काम बड़ो कर्रो है तोरे बस कौ तौ अब है नइयां, और फिर रमलू हल्कौ है । परबार कैसें चलहै? तें भोतइ हैरान हो जैहे । ऐंसो कर खेत बेंच कें एक दो भैंसें लै ले, कौनउं तरां सें गुजारौ तो होइ जैहै ।’’

‘‘जैसी अपुन काव महराज, अब तौ बस अपुन सबइ जनन कौ सहारौ है।’ परबतिया की आँखें फिर गीली हो गईं तीं । ‘तें रो न, आखिर गंगुआ हमाओ जजमान हतो, तोरी जमीन जो कउं कोउ न लै है तो मैं लै लेहों ।’’ पंडित गोपीनाथ की आंखन में लालच तैर रओ तो । आखिर गंगुआ की तीस-चालीस हजार सें जादा की जांगा पंडित गोपीनाथ ने ऊ विधवा सें दस हजार में हतया लईती ।

परबतिया के घरे दो बड़ी मस्त भैंसें आ गई तीं । बा दिनभर उनकी सेवा-सुसमा में लगी रात ती । घर कौ काम ऊकी दोउ बिटियाँ समारें रात तीं । हरां हरां भैंसन की देखभाल को सबरौ काम रमलू सोउ सीख गओ तो । परबतिया खाँ दूध बेंचबे के लाने कऊं आबे जाबे की जरूरत नइँ परत ती । छक्कीं अहीर जौन दूध-घी को धंदो करत तो ऊके घर सें दूध खरीद लै जात तो । दूध की बिक्री सें परबतिया खाँ इतने पइसा मिल जात ते कै कोनउ तरा परबार को भरन पोसन हो जात तो । अब बा भौत राहत महसूस कर रई ती । आज परबतिया के इते सत्तनारान की कथा हती । ऊकी टूटी फूटी दालान मुहल्ला-गांव भरे के जनी मान्सन औ बाल बच्चन सें भरी हती । पंडित गोपीनाथ ने खूबई मन सें कथा सुनाई परसाद पाकें गांव मुहल्ला के सब जने चले गए । परबतिया ने कछू संकोच करकें अपनो हाँत पंडित जू के सामू करत भए पूछो-‘‘महराज अब कोनउ परेसानी तौ न आहे? ‘’ ‘‘अब परेसानी की न पूँछ, बस तें तौ ऐंसई दान पुन्न करत राओ कर, भगवान सब साजो करहैं ।’’ परबतिया के हाँत पे एक नजर डारत भए पंडित गोपीनाथ ने उत्तर दओ ।

‘सई-सई बताओ महराज, संकोच न करौ’-परबतिया ने कहो ।

‘‘हम तुमसें कै रये न कौनउं परेसानी नइयां ’’-पंडित जू ने बनावटी गुस्सा दिखाउत भए कई। ’‘अच्छा महराज ।’‘ परबतिया ने चैन की सांस लई ।

‘‘तो हम चलें’’- पंडितजी उठन लगे । ‘‘भोजन पाकें जइयो महराज’, सामने वारे सुकल महराज सें बनवाये दै रये।’’ परबतिया ने बिनती करी ।

‘‘अरे नँईं रमलू की बाई नँईं मोय तनक उलात है, तें ऐंसो कर सीदौ दै दे मैं बनाउत-खात रैहों।’’ गोपीनाथ बोले ।

परबतिया ने बड़े खुले हाँत सें सीदौ बाध दओ । जो सीदौ चार-पाँच जनन लौ खाँ पूरो हतो । पंडित जी सीदौ लेकें चले गये । परबतिया रमलू औ छुटकू खाँ खाबे परसन लगी । इतनई में मुहल्ला को 16-17 साल को एक लरका बिटईं भगत भगत आओ औ हाँपत हाँपत चिल्याकें परबतिया सें बोलो-‘‘अरी काकी तुमाईं दोउ भैंसें एक जीप सें भिड़ गयीं और मर गयीं ।’’ नईं, नईं............परबतिया चिल्यानी और धड़ाम सें धरती पे गिर परी । रमलू ने तुरतईं रोड की तरफ गदबद लगा दई । जमुना, पुनिया मताई खां बेहोश देख कें जोर जोर सें रोन लगीं । बिटईं कुल्ल समजदार हतो फौरन चिल्लयाओ-‘ए छुटकू जल्दी पानी तौ ल्या’ । छुटकू रोउत रोउत दौरो और एक कटुरिया में पानी ले आओ । बिटईं ने फौरन परबतिया के चेहरा पै पानी के छींटा मारे औ कछू पानी ऊके मौं में डार दओ ।

होश में आउतनईं परबतिया दहाड़ मार कें रोन लगी-‘‘हे भगवान अब का हुइये, कैसें पलहै हमाओ परबार । अब हम का करें.................।’’ दोऊ भैंसियन की लासें सड़क के किनारें डरीं तीं । तौ लौ कुल्ल जनें भैसियन के चारउ तरपे इकट्ठे हो चुके ते । परबतिया करम ठोक कें रोबे लगी ती । रमलू, पुनिया और जमुना उये मौगाउत भये खुदइ सिसक रए ते । छुटकू चुपचाप एक तरप ठांड़ो तो । ऊके बगल में ठांड़े चार-छै जने घटना के बारे में खुसर-पुसर कर रये ते । जे बे मान्स हते जोन घटना के बखत कौनउं न कौनउं काम सें रोड के ऐंगर-पास हते ।

सरियां बोलो-‘‘मौत हती सो ई तरपै आई, नईं तो दिन भर ढिली रात ती औ खिलईं के घर के ऐंगर बारे मैदान सें आगूं न बढ़त ती ।’’

धुरियां ने अपनी बात कई-‘‘अरे सीदी सीदी इन सबइ जनन की लापरवाई है । आखर ढोर-बछेरूअन कौ ख्याल करो जात कै नईं । दूध निचो लओ औ छुट्टां छोर दए ।’’

सत्तू कछू जादईं तेज विचारन कौ हतो, बोलो-‘अरे जे सहर के बड़े बाहन बारे अपने खाँ जानें का समजत सारे दारू पी कें गाड़ी चलाउत । इनखां तौ इतने जूता मारे जायें कै मूड़ में एकउ बार न बचें ।’

‘‘कोउ का करै । मेन रोड के किनारे के गांवन में तौ एई दिक्कत आ होत।’’ जग्गू ने अपनी बात कई ।

जग्गू के बगल में एक सीदो सादो सो ज्वान माधौ प्रसाद ठाड़ो तो । अबे दो-तीन मइना पैलेंइं ऊ प्राइमरी मास्टर बन कें ई गाँव में आओ हतो औ ऐंगरइ के सहर कौ रैबे वारो तो। जब जा घटना घटी तब ऊ रोड के किनारे के एक मात्र चाय के टपरा में बैठो चाय पी रओ तो । माधौ प्रसाद खाँ ई घटना की सबरी जानकारी हती । सब कछू ओई के आँखन के सामूं घटो तो । जौन जीप सें भैंसें मारी गईं तीं ऊके मालिक खां सोउ वो चीनत तो पै सन्ट हतो । कोउ ने ऊसें कछू पूछोई न हतो ।

परबतिया अबउं रोये जा रई ती । दियालू सुभाव के माधौ प्रसाद की सबर अब जवाब दै चुकी ती । ऊ परबतिया के ऐंगर गओ और बोलो-‘‘अरे बाई रोओ न, सबर सें काम लेओ, मैं कोसिस करहों कै तुमें फिर सें भैंसें लैबे के लाने पइसा मिल जाएँ । गल्ती जीप चलावे वारे की है । जीप चालक समेत जीप में सवार सबई आदमी चुनाव प्रचार के मद में ऐंसे चूर हते कै उने कछू दिखइयइ नईं दे रओ तो। गनीमत है कै उनने कोनउ मानस नईं कुचरो । खैर हम जीप मालिक सें भैंसियन के मुआवजे की माँग करहैं ।’’

‘‘काये खाँ झूटी तसल्ली देत भइया, जौ कैसे पतौ चलहै कै कौन नासमिटो चढ़ा गओ जीप, उकी ठठरी बंधे, इतनी बड़ी बड़ी भैंसियां नईं दिखानीं ऊ खाँ ।’’ परबतिया बड़बड़ाई ।

‘‘मैं जानत हौं बाई जीप प्रेमी मातों की हती, उनइं कौ लरका तौ चला रओ तो ।’ माधौ प्रसाद ने बात साफ करी ।

प्रेमी मातों ! ऐंगर ठाड़े मान्स चौंक गये । ‘बेई जौन चुनाव लड़ रए ?

सत्तू ने कछू याद करत भये कओ । ‘हाँ हाँ बेई प्रेमी मातों जोन विधायकी कौ चुनाव लड़ रये हैं, तुमाव गाँव तौ सोउ उनइं के चुनाव क्षेत्र में है ।’ माधौ प्रसाद ने ऐंगर ऐंगर ठाड़े लोगन की संका कौ निवारन करो ।

‘‘देखौ तौ भइया कोउ तौ चुनाव जीतबे के लाने पइसा-मइसा, कम्बल-अम्बल और दारू-मारू वोटरन में बंटवाउत औ एक जे हैं कै इनैं भैंसिया-गइयां मार मार कैं आ चुनाव जीतनें ।’’ सत्तू लाल ने व्यंग्य कसो ।

‘‘प्रेमी मातों अच्छे मान्स हैं, ओई सहर कौ होबे के नाते तनक-भौत तौ मैं उनें जानतइ हौं और फिर समाचार पत्रन में अक्सर मैंने उनकी बड़वाई पढ़ी हैं।’मोखां भरोसो है कै वे ई बाई के संगे जरूर न्याय करहैं और जो कऊं उनने हमाई न सुनी तौ हम अदालत कौ दुआरो खटखटाबी । अपुन सबइ जने मोरो संग दैहो न? ’’ माधौ प्रसाद ने जानबो चाहो । सत्तू लाल और खिलईं ने हामी भरी । बांकी जने चुप्प रये, काये चुप्प हते? ई तरफ माधौ प्रसाद कौ ध्यान नईं हतो । पै असली बात जा हती कै जे मान्स मरी भैंसियन कौ मुआवजा बसूलवो धरम के विरूद्ध काम मानत ते, दूसरे दिना जब परिबतिया और ऊको लरका रमलू माधौ प्रसाद के संगे प्रेमी मातों सें मिलवे की गरज सें सहर जा रये ते तब ई बात कौ खुलासा सोउ हो गओ तो । गैल में सरिया ने परबतिया खां टोको तो-‘‘देखो रमलू की मताई जौन नुकसान होने तो सो ऊ होई गओ । अब तुम मरी भैंसियन के पइसा बसूल करकें उनकी हत्या अपने मूड़ पै काये खाँ लेतीं, मायें ब्याड़ै जान दो । सबरे गाँव की मन्सा तो एई है, अब तुम मानो तो मानो, नई तौ जैसो दिखाए सो करो ।’’

माधौ प्रसाद भौत खुस हतो, काएसें ऊ बिना कोनउ अदालती कार्यवाही के परबतिया खाँ भेंसियन कौ मुआवजा दिवाबे में सफल हो गओ तो। ऊ केऊ दिनन सें मनई मन प्रेमी मातों को गुनगान कर रओ तो-‘सांसउं कितने सरल आदमी हैं प्रेमी मातों जी । तनकउ घमंड नइयां । कितने मन सें मिले ते और कितनी सहजता सें उनने भैंसियन के मुआवजे के रूप में दस हजार रूपइया दै कें परबतिया खाँ एक नओ जीवन दै दओ तो । आज राजनीति खाँ ऐसई नेतन की जरूरत है । एंसई लोग देस की सेवा कर सकत हैं । परबतिया खाँ रूपइया देत बखत प्रेमी मातों के मौं सें निकरे जे शब्द बार बार माधौ प्रसाद के दिमाग में गूंजत भये ऊखाँ खुशी दै रये ते-‘‘देख बाई भैंसियन के मरवे में ऊंसें तो हमाये लरका कौ कौनउ दोस नइयां, भैसियां एकदम सें सामूं आ गईं हुइयें, ऐंसे में ऊ करतोई तो का करतो, मैं ई बहस में सोई परबो नईं चाउत कै तोरी भैंसियां पांच पांच हजार बारीं हतिअई कै नईं । कायेंसें तोरी हालत बाकई खराब है, ईसें जा समज के जे दस हजार रूपैया मैं तोय दान-धरम समज कैं दै रओ हों, जा लै जा, अपनौ परबार पाल, कबउं कौनउं और जरूरत परे तौ बताइये ।’’ परबतिया सोउ भौत खुस हती । जैसई उये प्रेमी मातों को ख्याल आउत तो बा मनइ मन उनें प्रनाम कर लेत ती ।

पंडित गोपीनाथ परबतिया सें भौत खफा हते बोले-‘‘मैं ऊ दिना गाँव सें बायरें का गओ, तेनें अनरथई कर डारो । तें बेमतलब में ऊ मास्टर के कैबे में आ गई और मरी भैंसियन के मुआवजे के रूप में पाप ढो ल्याई । वो मास्टर तो अबे लरका है, धरम करम का जाने? ऊ मूरख नें भैसियन की हत्या कौ पाप तोरे मूड़ पै धरवा दओ । तें भैंसियन के पइसा न बसूलती तो हत्या कौ सबरो पाप जीप डिराइवर पै होतो ।’’ आंगू बोले ‘‘धरम कौ मानवे वारो कोनउ तोरे ई काम खाँ साजो न केहे । विसवास न होय तो पूरे गाँव में कोउ सें पूंछ ले । कोनउं तोय सई कै दे तो मैं पंडिताई छोड़ दौं ।’’

गोपीनाथ ने तुरतइं ऐंगर पास के तीन-चार समजदार माने जाबे बारे मान्सन खाँ रमलू सें बुलवाओ औ अपनी बात पुष्ट कर दई । जौ काम कोनउ मुस्किल न हतो, काय सें पांच-छै हजार की आबादी वारो जो गाँव अबउँ घोर रूढ़ीवादी हतो ।

‘‘हमें कौन पतो हतो महराज, अब का हुइये । गलती तौ होइ गई ।’’

आखिर परबतिया ने अपनो दोस मान लओ । ‘‘कछू उपाव तौ हुइये महराज।’’ परबतिया ने घबरा कें पूंछो ।

‘‘है काये नइयां पै तैं कर न पैहे ।’’ पंडित गोपीनाथ ने अविस्वास व्यक्त करो । ‘‘काये न कर पाबी, अपुन किरपा करकें बताओ तो ।’’ परबतिया ने विनती करी ।

‘‘तें भैंसियन को मुआवजा जीप मालिक खाँ लौटा आ और पाँच पंडितन को भोज कराकें श्रद्धा अनुसार दच्छिना दै दे, सब निवारन हो जैहै, भगवान सब साजौ करहें ।’’ आखिर पंडित जी ने अपने मतलब की बात कैई डारी ।

‘‘हम पइसा फेर दैहें तो हमाये बाल बच्चा कैसें पलहैं, भैंसियां काये में आहें महराज।’’ परबतिया ने संका जताई ।

‘‘अब चाय तें परवार की चिंता कर ले, चाय धरम निभा ले । राजा हरिश्चंद ने तो धरम निभावे के लाने राज पाठ, परवार सबइ दाँव पे लगा दओ हतो और तें...........। मान्सन खाँ धरम की चिंता करो चाइये, घर-परवार की चिंता करबे तौ ऊ ऊपर वारो बैठोई है ।’’ गोपीनाथ ने तर्क दओ ।

‘‘तोये सई बताओं परबतिया! तोरे ई संकट के बारे में मोये कथई के दिना जब तैंनें हांत दिखाओ तो न, तबइ पतो चल गओ तो पै मैं तोये दुखी करबो नइं चाउत तो सो कछू नइं बताओ, बैसें जौ तोरे दान पुन्न कौई फल आय कै तो पै एक भौत बड़ौ संकट आबे बारो हतो जौन ई छोटे से संकट के बहाने टर गओ, एई सें मैं तो कात तें भगवान पे भरोसो रख और अपनौ धरम निभा।’’ गोपीनाथ ने अपनो पांडित्य बगारो ।

‘‘हम कलई नेताजू के पइसा लौटा आबी, अब जौन हुइये सो देखो जैहै ।’ परबतिया बोली । ‘‘बिल्कुल, पाप जित्ती जल्दी टरे, उतनोई साजौ । औ हाँ ऊ मास्टर खाँ पतो न चलै, नईं तो ऊ फालतू में टाँग अडै़ ।’’ पंडित गोपीनाथ ने शंका व्यक्त करी ।

‘‘बे तो दो-तीन दिना सें गाँव में नइयाँ । उनें कैसें पतो चलहे ।’’ परबतिया बोली ।

परबतिया के घर की हालत अब भौत दैनीय हो गई ती । घर में एक पइसा नईं हतो, जौन थोड़ौ-भौत दाना-पानी हतो ऊ ब्राह्मण-भोज और दान-दच्छिना में चलो गओ । भैंसियन के मुआवजे के दस हजार रूपइया परबतिया लौटाई चुकी ती । अब मजदूरी करबे के अलावा कौनउ चारो नईं हतो । पंडित गोपीनाथ ने एक ठेकेदार सें कै कें रमलू , जमुना औ पुनियां खों गाँव सें 6-7 किलोमीटर दूर एक कस्बा में मजदूरी दिबा दई ती । परबतिया सियानी बिटियन खाँ घर सें इत्ती दूर भेजबे के लाने तैयार न हती, पै का करती मजबूर हती । कैसउ पेट तो भरनेई तो । परबतिया खुदई मजदूरी करन चाउत हती पै बिटियन ने नईं करन दई । पंडित गोपीनाथ ने सोउ ऊये समझाओ तो-‘‘उतै कछू बैठे बैठे के पइसा नईं मिलत, बड़ी मैनत करने आउत, ई उमर में तोसें ऊसी मैनत नई हो सकत। मैं गाँवइ में तोरे लाक कोनउं काम बतैहों, तैं फिकर न कर ।’’

जमुना, पुनिया और रमलू कलेबा बांध कैं बड़े सबेरें घर सें निकल जात ते, काये कै आठ बजे सबेरे सें उतै काम शुरू हो जात तो और छै बजे शाम लौ चलत तो । दो सें ढाई बजे लो खाबे की छुट्टी होत ती, बाकी टैम में मई की चिलचिलात दुपारी में ईंट-पथरा ढोबे, गड्ढा खोदबे और गारा बनाबे को कठिन काम । कर्री मैनत औ धूप नें रमलू खाँ आठई दिनन में टोर कैं धर दओ हतो । आज उयै तेज बुखार हतो । ऊ काम पै नईं जा सको । दूसरे दिना रमलू की हालत और बिगर गयी । धीरे धीरे दस दिना बीत गये पै रमलू की हालत में कोनउं खास सुधार नईं भओ, जबकि गाँवइं के एक डाक्टर की दबाई बराबर चल रई हती । पूरे परवार को पेट काट कें चल रई हती । जमुना औ पुनिया बराबर काम पै जाती रईं, बिगरे हालात नें उनैं भौत मजबूत बना दओ हतो ।

कात हैं जब मुसीबत आउत है तो चारउ तरफें सें आउत है । लेओ परबतिया पै एक नई मुसीबत आ गई । भओ का? ओई पुरानो किसा । जमुना पै ठेकेदार की नियत डोल गयी । ऊने जमना खाँ अपने कमरा में बुलाओ और फिर...।

जमुना खीज गयी-‘‘देखो ठेगेदार साब, हम गरीब हैं सो का भई, हमाएँ सोई इज्जत है, जो सब न चलहै । अब कबऊँ ऐंसी गलती न होबै, नईं ता अच्छो न हुयै ।’’ जमुना की ऐसी गलती खाँ ठेकेदार भला काए माफ करतो, ऊने जमुना और पुनिया दोईयन खाँ काम सें निकार दओ ।

परबतिया की समज में नईं आ रओ तो कै बा का करे । रमलू बीमार, दबाई खाँ पइसा नईं, घर में खाबे खाँ एक दाना नईं, कमाई को कछू जरिया नईं ।

परबतिया ने छुटकू खाँ पंडित गोपीनाथ के घर भेजो, कछू रूपइया उदार मँगाये हते । छुटकू लौटो तो ऊने बताओ कै पंडित जी गाँव में नइंयाँ कऊँ बाहर गये ।

छुटकू खाँ उधारी के लाने एक-दो जांगा और भेजो गओ, पै वो खाली हाँतइ लौटो । परबतिया रो परी और करती भी का ? ऐंसे बुरये दिन ऊने कभउँ न देखे हते । उयै आज ई बात कौ ऐसास हो रओ तो कै भैंसियन कौ मुआवजा लौटा कें ऊने भौत बड़ी गलती करी । परबतिया पंडित गोपीनाथ औ ठेकेदार खों मनई मन कोस रई ती कै तबई दुआरे की सांकर खटकी । छुटकू ने दुआरौ खोलो तो माधौ प्रसाद मास्साब घर में दाखिल भये ।

‘‘भौत दिनन में दरसन भये अपुन के’’ परबतिया ने कओ ।

‘‘हओ बाई 1 मई सें स्कूल की छुट्टी हो गईं तीं, सो मैं घरै चलो गयो

तो’’ माधव प्रसाद ने उत्तर दओ ।

जब माधौ प्रसाद ने परबतिया सें खुशी-खैरियत पूंछी तौ ऊने रोउत भये अपनी सबरी किसा सुना डारी ।

‘‘बाई मैं जो तो नईं जानत कै भैंसियन की हत्या को पाप किये लगै, पै इत्तो जरूर जानत हों कै तैं कै तोरे परवार को कौनउ सदस्य भूख सें मरो तो ऊको पाप तोरे ऊ नालायक पांेगा पंडित के मूड़ पैई जैहे ।’’ माधौ प्रसाद ने आक्रोश व्यक्त करो । ‘‘खैर जो हो गओ सो हो गओ, तुम जे कछू रूपैया धर लो, काम आहें औ हाँ कल प्रेमी मातों जी सें मिलबे मोरे संगे शहर चलो। उनें साफ-साफ ई नालायक पंडित की करनी बतइओ, सब करो-धरो ओई कौ आय । भगवान ने चाओ तो सब ठीक हो जैहे ।’’ माधौ प्रसाद ने उम्मीद जताई ।

‘नेता जू नाराज न हुहैं, हमनें उनके दये रूपइया लौटा कें उनको अनादर नईं करो? परबतिया ने शंका जताई ।

‘अनादर तो तुमने उनको करोई है पै बे भले मान्स हैं, तुमाई मजबूरी समजइ लै हैं और तुमें माफ सोउ कर दैहें, जो मोये पक्को भरोसौ है ।’ माधौ प्रसाद बोलो ।

प्रेमी मातों विधायक बन चुके ते । उनसें मिलबो अब उतनो सहज नईं तो जितनो माधौ प्रसाद समझ रओ तो । ‘विधायक जी भोपाल में हैं’ के उत्तर के संगे माधौ प्रसाद और परबतिया को उनसें मिलबे कौ चौथो प्रयास सोउ आज असफल हो गओ तो, पै माधव प्रसाद ने हिम्मत न हारी । पांचवों प्रयास बेकार नईं भओ-‘विधायक जी इतईं हैं’ को द्वारपाल कौ उत्तर सुनकें माधौ प्रसाद और परिबतिया के चेहरन सें निराशा के बादल छटन लगे ।

झिझकत भये माधौ प्रसाद नें सारी व्यथा-कथा जल्दी जल्दी कै डारी । पूरी बात सुन कें मातों जी ने व्यंग्यात्मक मुस्कान छोड़ी और सूत्र रूप में भाषा कौ इस्तेमाल करत भये बोले-‘कौन गाँव, कौन भैंसें, कैसो एक्सीडेंट, कौन परबतिया, कौन माधौ प्रसाद, कैसी मदद, कैसो मुआवजा? तुम दोई कऊँ पागलखाने सें भग कैं तो नईं आये? सियात ऐंसोई है । अरे दंगल सिंह इन पागलन खाँ इतै सें बायरें निकारो । जे भीतर घुस कैसें आये? तुम औरें कछू देखत-दाखत नइयां । चलो जल्दी तौ करो।’

दंगल सिंह कछू प्रयास करे ईसें पैलेंई माधौ प्रसाद औ परबतिया बायरें कड़ गये ।

‘‘मालिक का अपुन नें सांचउं उन लोगन खाँ नईं चीनो ।’’ परबतिया औ माधौ प्रसाद के बायरें चले जाबे पै दंगल सिंह नें प्रेंमी मातों सें पूंछो ।

‘‘तें पूरौ गधा है, अरे चुनाव के बखत उन जैसन खाँ न चाउत भये भी चीनने परत है, पै अब तो चुनाव भये ढाई मइना हो गए हैं, अब उनें चीनवे की का जरूरत।’’ विधायक जी ने कई ।

‘‘हओ मालिक कछू जरूरत नईयां ।’’ दंगल ने हामी भरी ।

प्रेमी मातों आंगूँ बोले-‘ऊ बखत मैंने परबतिया खाँ भैंसियन के मुआवजे के दस हजार रूपैया ईसें दै दये ते कै ऊके गाँव के मान्स हमसें अच्छी तरा सें परभावित हो जायें औ हमईं हाँ वोट दैं । मैंने बे रूपैया चुनाव कौ खर्चा मान कें परबतिया खाँ दये हते, मैं उनें उगाबे थोड़ेई जातो, पै जब वे रूपइया बिना कछू करें धरें लौट आए तो दुबारा बिना मतलब उनें गंवा देबौ तो मूर्खता न हुये । भगवान की किरपा सें सब कछू कितनो साजो भओ । पइसा एक न देने परो औ अखबारन में लगै लगै छपत रये मोरी दियालुता के किस्सा ।’

‘‘को छपवाउत रओ जू’’- भीतर सें बरामदे में आउत भये श्रीमती मातों ने पूछो ।

‘‘अरे ओई माधौ प्रसाद, जौन ऊ परबतिया के संगे आओ हतो । ऊ समाज सेवक मास्टर ने हमाओ खूबई प्रचार करो ।’’ मातों जी ने कओ और जोर सें हँस परे ।

परबतिया और माधौ प्रसाद मौन साधे बस स्टैण्ड की तरपें चले जा रये ते । अचानक परबतिया रूक गयी औ जोर जोर सें रोन लगी-‘‘जी खाँ हम देवता समजत ते ऊ ठठरी को बरो तौ पूरो राक्षस निकरो । जबै वोट चाने हते सो कैसें प्रेम सें बोलो तो नासमिटो ।’’ रोत भये परबतिया बड़बड़ाई ।

‘‘अब कौनउ हाँ का कओ जाए, सब गलती तो तुमाई है । हाथ आए पइसा लौटाबे की का जरूरत हती।’’ माधौ प्रसाद ने कओ ।

‘‘करम फूटे हते हमाए, भइया करम फूटे हते, हमाई मत मारी गयी हती, तबई तौ ऊ नासमिटे पंडित के कये में आ गये, अब का हुइये भइया, अब का हुइये’’ कहत भए परबतिया धड़ाम सें जमीन पै गिर परी ।

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वीरेन्द्र खरे 'अकेला'

परिचय
जन्म : 18 अगस्त 1968 को छतरपुर (म.प्र.) के किशनगढ़ ग्राम में
पिता : स्व० श्री पुरूषोत्तम दास खरे
माता : श्रीमती कमला देवी खरे
पत्नी  : श्रीमती प्रेमलता खरे
शिक्षा :एम०ए० (इतिहास), बी०एड०
लेखन विधा : ग़ज़ल, गीत, कविता, व्यंग्य-लेख, कहानी, समीक्षा आलेख ।
प्रकाशित कृतियाँ :
1. शेष बची चौथाई रात 1999 (ग़ज़ल संग्रह), [अयन प्रकाशन, नई दिल्ली]
2. सुबह की दस्तक 2006 (ग़ज़ल-गीत-कविता), [सार्थक एवं अयन प्रकाशन, नई दिल्ली]
3. अंगारों पर शबनम 2012(ग़ज़ल संग्रह) [अयन प्रकाशन, नई दिल्ली]
उपलब्धियाँ :
*वागर्थ, कथादेश,वसुधा सहित विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं रचनाओं का प्रकाशन ।
*लगभग 22 वर्षों से आकाशवाणी छतरपुर से रचनाओं का निरंतर प्रसारण ।
*आकाशवाणी द्वारा गायन हेतु रचनाएँ अनुमोदित ।

*ग़ज़ल-संग्रह 'शेष बची चौथाई रात' पर अभियान जबलपुर द्वारा 'हिन्दी भूषण' अलंकरण ।
*मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन एवं बुंदेलखंड हिंदी साहित्य-संस्कृति मंच सागर [म.प्र.] द्वारा कपूर चंद वैसाखिया 'तहलका ' सम्मान
*अ०भा० साहित्य संगम, उदयपुर द्वारा काव्य कृति ‘सुबह की दस्तक’ पर राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान के अन्तर्गत 'काव्य-कौस्तुभ' सम्मान तथा लायन्स क्लब द्वारा ‘छतरपुर गौरव’ सम्मान ।

सम्प्रति :अध्यापन

सम्पर्क : छत्रसाल नगर के पीछे, पन्ना रोड, छतरपुर (म.प्र.)पिन-471001

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: बुंदेली कहानी - अब का हुइए / वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’
बुंदेली कहानी - अब का हुइए / वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’
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