ग़ज़ल पर रमेशराज के विविध विचारोत्तेजक आलेख - क्या सीत्कार से पैदा हुए चीत्कार का नाम हिंदीग़ज़ल है?

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क्षमा करें तुफैलजी! [ ग़ज़ल-संग्रह ‘चुभन’ की समीक्षा के बहाने एक बहस ] - रमेशराज -------------------------------------------------------...

क्षमा करें तुफैलजी!

[ ग़ज़ल-संग्रह ‘चुभन’ की समीक्षा के बहाने एक बहस ]

- रमेशराज

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तुफैलजी हास्य-व्यंग्य के साथ-साथ ग़ज़ल की उत्तम नहीं ‘सर्वोत्तम पत्रिका’ ‘लफ्ज़’ निकालते हैं। जाहिर है पत्रिका में प्रकाशित ग़ज़लें उत्तम नहीं, सर्वोत्तम’ होंगी। ग़ज़ल-संग्रहों की आलोचना भी सर्वोत्तम ही होगी। सम्पादकीय के अन्तर्गत उनकी बात अर्थात् ‘अपनी बात’ भी सर्वोत्तम न हो, ऐसा कैसे हो सकता है।

तुफैलजी ने ‘लफ्ज़’ के वर्ष-1 अंक-4 में अपने सर्वोत्तम सम्पादकीय में लिखा है-‘‘ग़ज़ल में उस्तादों को, परम्परा से ही मानक माना जाता है। मीर तकी मीर ने ‘सिरहाने’ को ‘सिराने’ बाँधा और हम इसे ग़लत होते हुये भी स्वीकार करने को बाध्य हैं... हम उन्हीं के पढ़ाये-सिखाये या बिगाड़े और नासमारे लोग हैं।’’

स्पष्ट है उस्तादों की परम्परा के तुफैलजी जैसे कायल या घायल लोग, उस्तादों की लीक से हटकर चलना नहीं चाहते। गलत परम्पराओं को बदलना नहीं चाहते। फिर भी उनके विचार उत्तम ही नहीं, सर्वोत्तम हैं, तो हैं। ग़ज़ल में इस तरह के पेचो-खम हैं, तो हैं।

परम्परा की दुहाई देकर ग़ज़ल का कीमा कूटने वाले भले ही ‘प्रेमपूर्ण बातचीत करती औरत’ के पेट से गाय की टाँग निकालने और टाँग का निचला भाग ऊँट के सर जैसा बनाने में माहिर हो गये हों [ ‘चुभन’ संग्रह की समीक्षा ‘लफ्ज़’, वर्ष-1, अंक-4 ] किन्तु हिन्दी में वे हिन्दी ग़ज़लकारों को ऐसा करने के खिलाफ यह हिदायत देते नजर आते हैं-‘‘आज भाषा काफी सँवर चुकी है। ये गोस्वामी तुलसीदासजी का काल नहीं कि एक ही क्रिया के लिये ‘करहूं’, ‘करहीं’,‘ करिहों’, कुछ भी चल जाये।’’ [ ‘लफ्ज’ वर्ष 1, अंक-4, पृ. 64 ]

तुफैलजी का यह कैसा सर्वोत्तम आलोचना-कर्म है कि वे मीर की तहरीर से तो अपनी तकदीर सँवारते हैं, किन्तु तुलसीदास का अनुकरण करने वाले हिंदी ग़ज़लकारों को धिक्कारते हैं। क्या तुफैलजी इस सच्चाई से वाकिफ नहीं हैं कि अगर ये काल तुलसीदास का नहीं है तो मीर के ग़ज़ल-मानकों के रास का भी नहीं है।

आचार्य भगवत दुवे के ‘चुभन’ ग़ज़ल संग्रह के बहाने इसी अंक में तुफैलजी का आलोचना-कर्म कितना सर्वोत्तम है, आइये इसे देखें-तुफैलजी की दृष्टि में, ‘‘पुस्तक ‘चुभन’ बढ़ई द्वारा मिठाई बनाने की कोशिश है, जो लौकी पर रन्दा कर रहा है। आलू रम्पी से काट रहा है। मावे का हथौड़ी से बुरादा बना रहा है। पनीर को फैवीकॉल की जगह प्रयोग करने के बाद प्राप्त हुई सामग्री को 120 रु. में बेच सकने की कल्पना कर रहा है।’’

तुफैलजी के इस सर्वोत्तम अलोचना-कर्म का हाल यह है कि उन्हें आचार्य भगवत दुवे की ग़ज़ल की दो पंक्तियों-‘‘ झेलना हम जानते हैं घाव अपने वक्ष पर, पीठ दुश्मन को कभी अपनी दिखायेंगे नहीं’’ में अश्लीलता नजर आती है। अश्लीलता उक्त पंक्तियों में है या तुफैलजी के मन में है? इस सवाल का उत्तर पाठकों या साहित्यकारों को उन्हें अवश्य देना चाहिए।

‘एक विचित्र किस्म का जीवंत जीव’ मानते हुये श्री श्याम सखा ‘श्याम’ ने ‘मसि कागद’ के अगस्त-दिसम्बर-09 में तुफैलजी को 12 ग़ज़लों के साथ प्रस्तुत किया है। इस प्रस्तुति से पूर्व उन्होंने तुफैलजी के उस सर्वोत्तम व्यवहार का भी जिक्र किया है जो चाहे जब जूतमपैजार का आदी है।

‘ग़ज़ल-सृजन, ग़ज़ल-आलोचना-कर्म और जूतमपैजार’ को किसी हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाले तुफैलजी के इस सुकर्म को नमन् करते हुये, ग़ज़ल के क्षेत्र में उनकी परस्पर विरोधी बातों का हुक्का भरते हुये, या यूँ कहें कि उनसे डरते हुये एक पाठक [ क्योंकि उनकी दृष्टि में मैं कवि या लेखक हूँ ही नहीं ] की हैसियत से ‘मसिकागद’ में प्रकाशित उनकी ग़ज़लों का मूल्यांकन करने का अदना-सा प्रयास, इस आशा के साथ कर रहा हूँ कि वे मेरी इस धृष्टता के लिये मुझे क्षमादान देंगे।

मीर तकी मीर की परम्परा का पोषण करते हुये मीर को भी अपनी आलोचना के तीर से घायल करने वाले तुपफैलजी के बारे में सही राय क्या बनायी जाये, जो सर्वोत्तम हो, मेरी समझ से परे है। फिर भी उनकी यह सलाह तो साहित्यकारों को सर-माथे लेनी चाहिये कि-‘‘अपने परों पर किसी दूसरे का बोझ मत ढोइये, एक स्वतंत्र व सतत उड़ान भरिये।’

तुफैलजी ग़ज़ल के क्षेत्र में कैसी स्वतंत्र और सतत् उड़ान भर रहे हैं, आइए उसका अवलोकर करें-

तुफैलजी की ‘मसि कागद’ में प्रकाशित ग़ज़लों में अनेक ऐसे शे’र हैं जो काबिले-दाद हैं। उनमें मार्मिक, तार्किक, ताजा और मौलिक कथन है। अनूठा बाँकपन है। ऐसे शे’र कहने के अन्दाज आज कम ही मिलते हैं। किंतु ग़ज़ल संख्या 10 के मतला में ‘समंदर’ की तुक ‘मुकद्दर’ से मिलाने और अगले शे’र में ‘तर’ काफिया लाने और बाद के शे’रों में ‘अंदर’, इसके बाद फिर ‘समंदर’ और ‘पत्थर’ तुकें निभाना अगर ग़ज़ल के क्षेत्र में स्वतंत्र और सतत् उड़ान भरना है तो ऐसी उड़ान पर अभिमान तुफैलजी कर सकते हैं। वे गुटरगूँ करते हुये ग़ज़ल के चाहे जिस दरबे में उतर सकते हैं। ग़ज़ल के मूलभूत नियमों के उल्लंघन को धीर-गम्भीर प्रयास बता सकते हैं। अगर यही कर्म कोई हिंदी ग़ज़लकार करे तो उसे गरिया सकते हैं।

तुफैलजी का यह कहना कि-‘‘ ग़ज़लकार, ग़ज़ल के आचार्यों को ही नहीं, समकालीन श्रेष्ठ रचनाकारों को भी नहीं पढ़ते।’’ [ लफ्ज़ वर्ष-1 अंक-4 पृ. 64 ] इसलिये हास्यास्पद जान पड़ता है क्योंकि ग़ज़ल के महान विद्वान होने के बावजूद, तुफैलजी की ग़ज़लों में भारी खामियाँ शुतुरमुर्ग की तरह सर उठाती, दूसरों को उल्लू बनाती देखी जा सकती हैं। ग़ज़ल संख्या-11 में तुक ‘डार’ भाषा के भौंडे खिलवाड़ को उजागर करती है।

तुफैलजी कहते हैं- ‘‘रदीफ-काफिये निभाने के लिये हम भाषा के साथ मनमर्जी खिलवाड़ नहीं कर सकते... रचनाकार को भिन्न दिखाने के लिये-‘हाथी रेंकता है’, ‘कुत्ता चिंघाड़ता है’, ‘शेर भोंकता है’, ‘गधा दहाड़ता है’, नहीं लिख सकते हैं।’’

क्षमा करें तुफैलजी! उपरोक्त ग़ज़ल की तत्सम या तद्भव तुकों ‘गुजार’, ‘पार’, ‘दार’, ‘शिकार’, ‘हार’ और इसकी निकृष्ट तुक ‘इश्तहार’ के बीच देशज शब्द की तुक ‘डार’ का प्रयोग उसी रोग की ओर इंगित करता है, जिससे ग्रस्त होकर ‘हाथी चिंघाड़ता नहीं रेंकता है’। ‘शेर दहाड़ता नहीं, भोंकता है’। ‘गधा रेंकता नहीं, दहाड़ता है’। दूसरों के रचनाकर्म पर शर्म की कालिख पोतने से पहले तुफैलजी अपने गरेबान में झाँक लेते तो बेहतर होता।

मेरा तुफैलजी के रचना-कर्म को लेकर कोई आग्रह या दुराग्रह नहीं है। मैं तो बस निवेदन करना चाहता हूँ कि काव्य के लिये किसी भी रचनाकार को दोमुँहे मापदण्ड नहीं बनाने चाहिए। काव्य के सृजन में देशज शब्द भी उतनी ही मिठास घोलते हैं, जितनी कि तत्सम या तद्भव। अतः विवाद भाषा में शब्द-प्रयोग को लेकर नहीं है। विवाद का विषय है- असंगत या भौंड़े शब्द-प्रयोग। इस स्थिति से हर रचनाकार को बचना चाहिये। इसी ग़ज़ल में शब्द ‘नदी’ के स्थान पर ‘नद्दी’ शब्द-प्रयोग भले ही ‘ग्रामत्व दोष’ से युक्त हो, लेकिन ‘किनारे बैठकर ही नदी को पार कराने में’ इसकी व्यंजना शब्द-शक्ति प्रबल है। इसलिये यह प्रयोग खामी के बावजूद सफल है।

“नींद सुविधा की रजाई में उन्हें आती नहीं’|

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‘एक दूजे पर कभी जब वक्त की गर्दिश पड़े’,

‘फर्ज तब अपना निभाती हैं बहिन की राखियाँ’ |

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‘जंगलों का शहर हो गया,

आदमी जानवर हो गया’ |

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झूठ, मक्कारी, कलह, नफरत, दगाबाजी, घृणा,

हर तरफ ये भाईचारे के हमें माने मिले’

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या ‘इनमें अपनी ही बहिन-बेटियाँ सिसकती हैं,

किसी तवायपफ की टूटी हुई पायल पढ़ना’|”

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आचार्य भगवत दुवे के ग़ज़ल-संग्रह ‘चुभन’ की समीक्षा करते हुये और इसी संग्रह की उपरोक्त पंक्तियों के उदाहरण देते हुए तुफैलजी भले ही इन मार्मिक पंक्तियों में सपाटबयानी, मात्रा-दोष, ग़ज़ल की मूल समझ का अभाव या कथ्य में घाव तलाशें, किन्तु तुफैलजी की ग़ज़लें भी दोषों से पाक-साफ हों, ऐसा कहना बेमानी होगा। सपाटबयानी का तीर चलाने वाले क्या ‘मैया मेरी मैं नहिं माखन खायौ’ जैसी सूर की विलक्षण पंक्ति पर सपाटबयानी का आरोप मढ़ सकते हैं? क्या कोई इस पंक्ति में व्यंजना, लक्षणा के प्रयोग कर इस पंक्ति के सपाटबयानी के दोष को दूर कर सकता है? गद्य को पद्य जैसी गरिमा ‘सूर’ जैसा ही कोई कवि प्रदान कर सकता है। अतः यह कहना असंगत या अतार्किक नहीं होगा कि तुफैलजी ने ‘चुभन’ संग्रह को खारिज करने की गरज से ही खारिज करने की कोशिश की है। अगर ऐसा नहीं है तो वे ‘मसिकागद’ में प्रकाशित ग़ज़लों का पुनः अवलोकन करें, सोचें-विचारें, अपने भीतर के अहंकार को मारें तो उन्हें साफ-साफ पता लग जायेगा कि ‘तारे सूर्य के आकार या उससे भी बड़े हैं। आग के विशाल गोले हैं। उन्हें तोड़कर लाया नहीं जा सकता’। मुहावरे को छोड़ असल धरातल पर उनका शे’र-

‘बहुत मुमकिन है तारे तोड़ लाये,

पता कुछ भी नहीं है आदमी का’|

अविज्ञानपरक, कोरी आतिशियोक्ति का जनक और एक ऐसा चकमक माना जायेगा जो आग नहीं, केवल निरर्थक ध्वनि उत्पन्न करेगा।

खुदकुशी का पत्ता चलाकर, किसी टूटते रिश्ते को जोड़ने की प्रक्रिया अधोमुखी ही नहीं, मानसिक दबाव के लिये किये गये अप्रत्यक्ष बलात्कार की द्योतक है। अतः तुफैजली का किसी को यह सलाह देना -

[ ‘वो रिश्ता तोड़ने के मूड में है,

मियां पत्ता चलो अब खुदकुशी का’ ]

बेबुनियाद ही नहीं, गलत है। धूर्त्तता और चालाकी से भरा कर्म है। गांधीवाद की कथित अहिंसा की कटार के प्रयोग भी जगजाहिर हैं। इनसे न किसी डायर का मन पसीजा और न कोई साइमन अत्याचार करने से चूका।

नदी को बाँध् बनाकर उसे झील बनाने और उसके बल समाप्त करने से जल ठहर जायेगा, जो न तो खेतों की सिंचाई के काम आयेगा और न किसी प्यासे कंठ की प्यास बुझायेगा। झील में गिरते जल में जो ठहराव आयेगा, नदी का पानी बदबूदार हो जायेगा। अतः तुफैलजी के शे’र-

[ बनाके बाँध तुझे झील करके छोडूँगा,

जरा-सा ठहर नदी तेरे बल निकालता हूँ’]

की समस्त क्रिया एक अधोमुखी चिन्तन का ही वमन बनकर रह जायेगी। किसी को दास बनाकर अत्याचार करने, अहंकार भरी हुंकार भरने से ही यदि ग़ज़ल सार्थकता ग्रहण करती है तो तुफैलजी को बधाई।

तुफैलजी की सातवीं ग़ज़ल के दूसरे शे‘र-

[ लौटेगी फिर देर से घर,

फिर बावेला होना है ]

में कर्त्ता कौन है, पत्नी, प्रेमिका या रखैल? शे‘र की मुक्कमलबयानी पर बट्टा लगाते उक्त शे’र के माध्यम से आखिर वे क्या कहना चाहते हैं? क्या दफ्तर के कामकाज से लौटी धर्मपत्नी को काव्य के पात्र के साथ कोई अन्य स्त्री हमबिस्तर मिलेगी, जिसे देखकर वह आग-बबूला हो जायेगी? या काव्य का पात्र दारू के नशे में धुत्त पड़ा होगा, जिसे वह आते ही फटकारेगी? अश्लीलता या अनैतिकता की पराकाष्ठा को ध्वनित करने वाला यह शे’र किस कोण से सार्थक अभिव्यक्ति का नमूना है? क्या तुफैलजी को ऐसे ही अपने स्वाभिमान के परों पर स्वतंत्र और सतत उड़ाने भरते हुये ग़ज़ल के सबसे ऊँचे और सर्वोत्तम आकाश को छूना है?

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हिंदीग़ज़ल में होता है ऐसा !

+रमेशराज

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‘हिन्दी-ग़ज़ल’ के अधिकांश समर्थक, प्रवर्त्तक , समीक्षक, लेखक और उद्घोषक मानते हैं कि -‘ग़ज़ल शब्द मूलतः अरबी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है-‘नारी के सौन्दर्य का वर्णन तथा नारी से बातचीत।’

‘नालंदा अद्यतन कोष’ में ग़ज़ल का अर्थ-[ फारसी और उर्दू में ] शृंगार रस की कविता’ दिया गया है। लखनऊ हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित ‘उर्दू हिन्दी शब्दकोष’ में ग़ज़ल का अर्थ ‘प्रेमिका से वार्तालाप है’। यह तथ्य ‘तुलसी प्रभा’ के अंक सित.-2000 में श्री विनोद कुमार उइके ‘दीप’ ने अपने लेख ‘हिन्दी ग़ज़ल-एक अध्ययन’ में स्वीकारे और उजागर किये हैं । ‘हिन्दी ग़ज़ल विशेषांक’ के रूप में प्रकाशित उक्त पत्रिका के इसी अंक में डॉ. नीलम महतो का भी मानना है कि-‘ग़ज़ल शब्द का अर्थ ‘सूत का ताना’ है। जब यह शब्द स्त्रियों के लिए प्रयुक्त होता है तो स्त्रिायों से प्रेम-मोहब्बत की बातचीत हो जाता है। उनकी सुन्दरता की तारीफ करना हो जाता है।’’

ग़ज़ल विधा के अनुभवी अध्येता चानन गोविन्दपुरी ग़ज़ल के उक्त रूप या चरित्र को यूँ परिभाषित करते हैं-‘‘ग़ज़ल वह सुन्दरी है, जिसे ढीली-ढाली पोशाक पसंद नहीं, उसे चुस्त लिबास ही भला लगता है। खूबसूरत सुन्दरी से मुराद, उसकी केवल मुख की सुन्दरता या शरीर की लम्बाई ही नहीं, जिस्म के सभी अंगों में एक आनुपातिक सुडौलता होनी चाहिए।’’

इसी हिन्दी ग़ज़ल विशेषांक के सम्पादकीय में श्री प्रेमचन्द्र मंधान लिखते हैं कि-‘ग़ज़ल की बुनियाद हुस्न-इश्क पर आधारित होने के कारण उर्दू और हिन्दी की ग़ज़लों में प्रेमालाप की सम्भावनाएँ अनंत हैं।’

उक्त सारे प्रमाण और तथ्य, इस सत्य को स्पष्ट रूप से उजागर करते हैं कि ग़ज़ल का विधागत स्वरूप, कथ्य अर्थात् उसके आत्म या चरित्र के आधार पर तय किया गया। ठीक इसी प्रकार कथ्य या चरित्र के आधार पर, अन्य विधाओं या उपविधाओं जैसे क़लमा, मर्सिया, ख्याल, कसीदा, हज़्ल, व्यंग्य, भजन, वन्दना, प्रशस्ति, अभिनन्दन, मजाहिया, कहमुकरिया, पहेली आदि का भी निर्माण हुआ। इस कथ्य या चरित्र को प्रस्तुत करने में शरीर [ शिल्प ] की भूमिका सदैव गौण रही या रहती है। अर्थात् किसी भी निश्चित छंद की भूमिका महत्वपूर्ण नहीं रही। उदाहरण के लिए ईश्वर के प्रति व्यक्त की जाने वाली भावना को भजन के रूप में-दोहा, रोला, कवित्त, सवैया, घनाक्षरी, चौपाई, सोरठा आदि अनेक छन्दों के माध्यम से व्यक्त किया जाता रहा है। ठीक इसी प्रकार की कथ्य सम्बन्धी विशेषताओं को लेकर कबीर के दोहों को साखी, सबद, रमैनी आदि कहा गया। बधाई, विनय, मंगलाचार, श्रद्धांजलि, पहेली, उलटबांसी, गारी, बन्ना, आरती, मल्हार, मान या कजैतिन के गीत आदि का भी जब हम शास्त्रीय विवेचन करते हैं तो ये विधाएँ या उपविधाएँ भी किसी शिल्प-विशेष या छन्द-विशेष के परिचय की मोहताज न होकर, हर प्रकार अपने कथ्य या चरित्र-विशेष को ही मुखरित करती हैं। यही चारित्रिक विशेषाताएँ इन विधाओं की स्पष्ट पहचान है।

ठीक इसी प्रकार के चरित्र को लेकर ग़ज़ल की स्थापना ‘प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत’ के संदर्भ में की गयी। इसके लिए कोई छन्द-विशेष न पहले प्रधान था, न आज है। ग़ज़ल अनेक छन्दों अर्थात् बह्रों में कही जाती है। ग़ज़ल में प्रयुक्त अनेक छंदों [ बह्र ] में से प्रयुक्त कोई छन्दविशेष अपनी निश्चित तुक-व्यवस्था या निश्चित पद-व्यवस्था के अन्तर्गत एक विशेष प्रकार के कथ्य को आलोकित करता है। इसी कथ्य के आलोक के संदर्भ में ग़ज़ल का ग़ज़लपन तय किया जाता रहा है। अतः ‘नालंदा शब्दकोष’ में ग़ज़ल को ‘शृंगार की कविता’, ‘उ.प्र. हिन्दी संस्थान’ की पुस्तक ‘हिन्दी-उर्दू शब्दकोश’ में-‘प्रेमिका से वार्तालाप’, डॉ. नीलम महतो की दृष्टि में- ‘सूत का ताना, जो कि स्त्रियों के संदर्भ में आमोद-प्रमोद करना है’ या चानन गोबिन्दपुरी की दृष्टि में-‘एक आनुपातिक सुडौलता’ के रूप में उभरता है तो ग़ज़ल की एक स्पष्ट और शास्त्रीय पहचान बनती हुई दिखाई देती है। ग़ज़ल का ग़ज़लपन तय होता हुआ परिलक्षित होता है। इसलिए प्रेमचंद मंधान का यह मानना कि-‘ग़ज़ल की बुनियाद हुस्न-इश्क पर आधारित है, अतः ग़ज़ल में प्रेमालाप की सम्भावनाएं अनंत हैं।’ मंधान यह कहकर ग़ज़ल के वास्तविक अर्थ और मूल स्वरूप की पकड़ करते हैं। उनकी इस बात में अजीब या अटपटा कुछ भी महसूस नहीं होता। लेकिन उनके द्वारा सम्पादित इसी अंक के आलेखों या कथित ग़ज़लों के स्वर जब इन्हीं तर्कों का उपहास करते हुए दिखाई देते हैं तो एक असारगर्भित,अशास्त्रीय अटपटानपन, प्रेत की तरह प्रकट होता है, जिसकी काली छाया में ग़ज़ल का स्वरूप, अर्थ और उसका ग़ज़लपन थर-थर काँपने लगता है।

श्री विनोद कुमार उइके ‘दीप’ के आलेख के अन्तर्गत डॉ. राही मासूम रजा की मान्यता है कि-‘ग़ज़ल केवल एक फार्म है और इस फार्म की शैली हिन्दुस्तान के सिवाय दुनिया में कहीं है ही नहीं। दो लाइनों पर आधारित यह फार्म दोहा है।’

डॉ. साहब ने यह बात सम्भवतः इस आधार पर कही होगी कि ग़ज़ल का हर शे’र बजाते-खुद-मुक़म्मल और दूसरे शेरों से बेनियाज होता है। फिर भी यहाँ विचाणीय तथ्य यह है कि-

1-अगर ग़ज़ल एक फार्म-भर है तो ग़ज़ल के चरित्र अर्थात् कथ्य सम्बन्धी पहलू पर ‘नालंदा’ और ‘उ.प्र. हिन्दी संस्थान’ के शब्दकोश क्यों जोर देते हुए ग़ज़ल को ‘प्रेमिका से वार्तालाप’ या ‘शृंगार की कविता’ घोषित करने पर तुले हुए हैं?

2-ग़ज़ल का शे’र यदि एक दोहा है तो फिर दोहा क्या है?

3- अगर यह मान भी लिया जाए कि ग़ज़ल में दो लाइनों पर आधारित यह फार्म दोहा ही है तो इसे शे’र कहने, मानने, मनवाने का औचित्य?

4-डॉ. राही मासूम रजा के इस बयान को यदि हम ‘दो पंक्तियों के माध्यम से कही गयी किसी सम्पूर्ण बात’ के संदर्भ में लें और शे’र तथा दोहे की इसी ‘मुकम्मल बयानी’ की विशेषता के साम्य को दृष्टि में रखते हुए विचार करें तो क्या इसी अंक में प्रकाशित ‘धरोहर’ के अन्तर्गत हरिश्चन्द्र ‘रसा’ की कथित ग़ज़ल [ जहाँ देखो वहाँ.. ] या कबीर की [ हमन है इश्क मस्ताना..] को ग़ज़ल की परिभाषाओं के अंतर्गत लाकर, इनका ग़ज़लपन तय कर सकते हैं? क्योंकि गौरतलब यह है कि ये रचनाएँ गीतात्मकता, कथ्य और भाव की एकरूपता को, सम्पूर्णता के साथ अपने में सँजोये हुए ही नहीं हैं, इनमें विनय और वन्दना के स्वर आदि से लेकर अन्त तक शृंखलाबद्ध तरीके से मौजूद हैं। अर्थात् ग़ज़ल के प्रत्येक शे’र से दोहे जैसी कथन की सम्पूर्णता या मुकम्मलपन पूरी तरह गायब है। ग़ज़ल या हिन्दी ग़ज़ल के समर्थक ऐसी रचनाओं को ग़ज़ल या हिन्दी-ग़ज़ल की श्रेणी में रखकर अगर खुश होते हैं तो होते रहें, ये रचनाएँ विनय या वन्दनाएँ हैं।

अतः काँटे का सवाल यह भी है कि-आज शे’र के कथ्य के मुकम्मलपन को दरकिनार कर ‘रसा’ और ‘कबीर’ की रचनाओं को ग़ज़ल के अन्तर्गत रखा गया है तो क्या भविष्य में ‘रत्नाकर’ के ‘उद्धव शतक’ को भी ग़ज़ल की श्रेणी में लाने का प्रयास होगा? क्योंकि ‘उद्धव शतक’ के कवित्तों में भले ही शे’र जैसा मुकम्मलपन मौजूद न हो, लेकिन रदीफ-काफियों को व्यवस्था ग़ज़ल की ही तरह मौजूद है।

कथित ग़ज़ल की टाँग-पूँछ के ही दर्शन कर उसे ग़ज़ल कहने, मानने या मनवाने वालों से कुछ सवालों के उत्तर और पूछे जाने चाहिए कि यदि ग़ज़ल एक फार्म-भर है तो इस फार्म में कोई सरस्वती, लक्ष्मी या अन्य किसी देवी-देवता की वन्दना करे तो उसे ‘वन्दना’ पुकारा जायेगा या ग़ज़ल? इसी शिल्प के अन्तर्गत कोई, गणेश, शिव, विष्णु, पार्वती आदि की आरती समाविष्ट करता है तो क्या ‘आरती’ के स्थान पर यह भी ग़ज़ल का एक नमूना बनेगा? ठीक इसी प्रकार के शिल्प में यदि कोई ‘बधाई’, ‘गारी’, ‘बन्ना’, ‘कजैतिन’ या ‘मान’ के गीतों को समाहित करता है तो क्या हम इन्हें उक्त विधाओं या उपविधाओं के स्थान पर ग़ज़ल कहकर ही संतुष्ट होंगे? क्या वे इसे भी ग़ज़ल की गौरवमय परम्परा का उत्कृष्ट नमूना बतायेंगे? ग़ज़ल के व्यामोह में फँसा हुआ ग़ज़ल-फोबिया का शिकार व्यक्ति ही, उक्त विधाओं के कथ्य या चरित्र को दरकिनार कर, इन्हें ग़ज़ल बतलाने का दुस्साहस अपने अन्दर पैदा कर सकता है।

अस्तु! यह ग़ज़ल या हिन्दी ग़ज़ल पर बयानबाजी का दौर है। ग़ज़ल के समर्थक, उद्घोषक, इधर हिन्दी में कुछ ज्यादा ही उपज रहे हैं। जिन्हें ग़ज़ल लिखने या कहने का सलीका या तरीका नहीं आता, वे ग़ज़ल पर आलेख-दर आलेखों की भरमार कर रहे हैं। ग़ज़ल के शिल्प और कथ्य को बीमार कर रहे हैं।

इसी विशेषांक में ग़ज़ल के विद्वान् लेखक अनिरुद्ध सिन्हा अपने आलेख ‘ग़ज़ल की समझ का विरोध’ के अन्तर्गत भले ही कितने भी असरदार या बज़्नदार तर्क देकर अपने तथ्यों को पाठकों के समक्ष रखते हों, लेकिन उनके इस लेख के साथ, इसी विशेषांक में पृ. 31 पर प्रकाशित, उनकी ही एक ग़ज़ल, उनकी ‘समझ की पोल’ खोलकर रख देती है। श्री अनिरुद्ध सिन्हा की ‘दूसरी ग़ज़ल’ पाँच शे’रों की है। इसमें प्रयुक्त छः काफ़ियों में से दो काफिये ‘शाम’ और ‘काम’ तो ठीक हैं। बाकी काफिये ‘नाम’ की बार-बार आवृत्ति के कारण काफिये के स्थान पर रदीफ की तरह प्रयुक्त हुए हैं, जो हर प्रकार ‘अशुद्ध प्रयोग’ का ही परिचय देते हैं। रदीफ की तरह काफियों को प्रयोग करने की यह ‘ग़ज़ल की समझ’, क्या ग़ज़ल के मूल स्त्रोतों पर आघात नहीं है?

श्री विनोद कुमार उइके ‘दीप’ अपने आलेख ‘हिन्दी ग़ज़लः एक अध्ययन’ के अन्तर्गत इस बात को खुले मन से स्वीकारते हैं कि ग़ज़ल का हर शे’र बजाते खुद मुकम्मल और दूसरे शेरों से बेनियाज होता है। लेकिन इस विशेषांक के पृ. 63 पर प्रकाशित उनकी प्रथम ग़ज़ल के समस्त शे’र उनके इन्हीं तथ्यों पर उपहास की मुद्रा में खड़े हैं। यह ग़ज़ल, ग़ज़ल के नाम पर ‘आइना-ए-अदल’, ‘कँवल’, ‘असल’ है या ‘छल’ है? यह कैसी ग़ज़ल है, जिसका प्रत्येक शे’र एक दूसरे का पूरक है। ऐसी अशास्त्रीय ग़ज़लों को डॉ. नीलम महतो यह कहकर श्रेष्ठ रचना-धर्मिता का नूमना बताती हैं कि-‘‘ग़ज़ल-गीत नाम से आने वाली ग़ज़ल में भावगत अलगाव यह है कि यह अपनी बुनावट में तो ग़ज़ल ही हैं परंतु इनकी आत्मा गीत-सी है। ऐसी ग़ज़लों के शे’र आपस में अनुस्यूत-से हैं, उनके पहले शे’र के भावों की पुष्टि ग़ज़ल का दूसरा शे’र करता है, जो नज्म का-सा रूप खींचता है। ठीक इसी प्रकार हिन्दी ग़ज़लगो शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने अपनी एक ग़ज़ल ‘मर्सिया शैली’ में कही है।’’

डॉ. नीलम महतो ने उक्त बातें इसी विशेषांक में प्रकाशित अपने आलेख-‘ग़ज़ल का उत्स और हिन्दी ग़ज़ल में प्रयोग की दिशाएँ’ के अन्तर्गत कही हैं। उनकी यह बातें कहाँ तक सही हैं, यहाँ भी सवालों की शृंखलाएँ उभर रही हैं-

1.क्या हिन्दी में ग़ज़ल के नाम पर ग़ज़ल के शास्त्रीय स्वरूप और उसके मूल स्त्रोतों को आघात देकर ही ‘हिन्दी ग़ज़ल’ कही जायेगी?

2.जैसा कि आजकल हिन्दी ग़ज़ल के समर्थक विभिन्न पत्रिकाओं के माध्यम से घोषणाएँ कर रहे हैं कि ‘हिन्दी में आकर ग़ज़ल ने अपने परम्परागत स्वरूप [ शिल्प और कथ्य ] से मुक्ति पा ली है’, तो यहाँ सोचने का विषय यह है कि इनमें ग़ज़ल जैसा क्या रह गया है, जिसे ‘ग़ज़ल’ के नाम से विभूषित किया जाये? क्या ऐसे ग़ज़ल-मर्मज्ञों को ‘ग़ज़ल की समझ’ या जानकारी है भी या नहीं?

3.अगर ऐसे विद्वान् तेवरी को भी ग़ज़ल का ही एक रूप मानने या मनवाने पर तुले हैं तो ऐसे मनीषियों को क्या कहा जाये?

4.अगर हिन्दी में आकर ग़ज़ल, गीत के निकट जा सकती है, तो क्या भविष्य में गीत भी ग़ज़ल के निकट जाकर कोई नया गुल खिलायेगा, क्या वह भी हिन्दी ग़ज़ल हो जायेगा?

5.आज ग़ज़ल, गीत और मर्सिया शैली में लिखी गयी है तो क्या वह भविष्य में वन्दना, बधाई, भजन, कसीदा, कलमा, मल्हार, मंगलाचार, अभिनन्दन और वन्दन शैली में भी लिखी जायेगी?

6.जैसा कि डॉ. नीलम महतो ने अपने आलेख में लिखा है कि-‘डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, जहीर कुरैशी, आभा पूर्वे की अनेक ग़ज़लें ‘दोहा-ग़ज़ल’ नाम से प्रकाश में आयी हैं।’ तो क्या ग़ज़ल की बह्र की हत्या कर, भविष्य में ग़ज़ल हिंदी-छंदों के नाम के साथ-चौपाई ग़ज़ल, रोला ग़ज़ल, घनाक्षरी ग़ज़ल, गीतिका ग़ज़ल, हरिगीतिका ग़जल, सोरठा ग़ज़ल आदि-आदि नामों से जानी जायेगी? आभा पूर्वे की इसी अंक में प्रकाशित दोहा ग़ज़लों में मुखरित छन्द सम्बन्धी दोष भी क्या हिन्दी ग़ज़ल की कोई विशेषता बनकर उभरेगा?

अस्तु, जब हिन्दी में आकर ग़ज़ल, अपने ग़ज़लपन, मूलस्त्रोतों, शास्त्रीयता अर्थात् समस्त प्रकार की विशेषताओं को खोकर ‘हिन्दी ग़ज़ल’ बनने का प्रयास कर रही है तो ऐसे में डॉ. कैलाश नाथ द्विवेदी ‘तुलसीप्रभा’ के इसी विशेषांक में प्रकाशित अपने आलेख में ‘हिन्दी कविता और ग़ज़ल’ के अन्तर्गत, हिन्दी कविता में ‘ग़ज़ल मिश्रित’ [ ग़ज़ल नहीं ] पंक्तियों के नमूने प्रस्तुत करने लगें और एक कवि ‘बेढ़ब’ के इसी तरीके से बने हुए ग़ज़ल के कथित हास्यास्पद रस को अमृत बताने लगें तो आश्चर्य कैसा? हिंदीग़ज़ल में होता है ऐसा!

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ग़ज़ल की नक़ल नहीं है तेवरी

+ रमेशराज

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तेवरी एक निश्चित अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था से बँधी एक ऐसी विधा है जिसमें सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना का आलोक है।

तेवरी क्या है, इसे समझाने का प्रयास करते हैं-

‘‘तेवरी गरीब की कमीज़ की सींता हुआ धागा और सुई है’।

तेवरी गरीब की जवान होती हुई ऐसी बिटिया है, जिस पर दानवों की पैशाचिक दृष्टि पड़ती है।

तेवरी बेटी के लिए दहेज न जुटा पाने वाले बाप की करुण-गाथा है।

तेवरी वसंत के उन्मादक रूप को नहीं निहारती, उस पर टिकी आशाओं को साकार रूप देती है।

तेवरी शान्त जल के ऊपर विहार करते हंसों का सौन्दर्य-बोध नहीं, बहेलिए के तीर से घायल हंस की आँखों की वेदना है।

तेवरी साकी के हाथ में लगा हुआ प्याला नहीं, शोषित, बलत्कृत नारी का आक्रोशमय बयान है।

तेवरी किसी शराबी के अंग-संचालन, परिचालन पर केन्द्रित चिन्तन नहीं, यह अपना सारा ध्यान उसकी विकृतियों पर केन्द्रित करती है।

तेवरी शमा और परवाने की दास्तान नहीं, गाँव और शहर के निर्धन, असहाय काका की झुर्रियों का इतिहास है।

तेवरी गुलाबी होठों का रसपान नहीं, दवा के अभाव में दम तोड़ते खुश्क होठों को भान है।

तेवरी आगे बढ़ती हुई सेना के जोश का बयान नहीं, धरती की सूनी होती हुई गोद का क्रन्दन है।

तेवरी अत्याचारी के खंज़र से टपकती हुई एक-एक खून की बूंद का हिसाब माँगती है।’’

[ तेवरीपक्ष-3, अरुण लहरी, पृ. 28 ]

तेवरी को स्पष्ट करने के लिए तेवरी के संदर्भ में, तेवरीपक्ष के प्रवेशांक में ही स्पष्ट घोषणा की गयी कि ‘कथित ग़ज़ल के शास्त्रीय और तकनीकी स्वरूप में जो रचनाएँ प्रेमिका के प्रणय-रूप, भोगवादी चरित्र या रोमानी संस्कारों को व्यक्त करने के बजाय घिनौनी व्यवस्था के प्रति आक्रामकता को ग्रहण किए हुए हैं, जिनमें सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विसंगतियों के बीच, मानव-मन में घुटन, सिसकन, सुबकन या क्रन्दन है, ऐसी रचनाएँ ग़ज़लें नहीं, तेवरी मानी जानी चाहिए, क्योंकि इनमें ग़ज़ल के मूल चरित्र के विपरीत आमूल परिवर्तन है। कथ्य के इसी परिवर्तन को दृष्टि में रखते हुए हमने जोर देकर कहा कि साहिर, फैज, कैफी या दुष्यन्त की कथित ग़ज़लें, ग़ज़लें नहीं, तेवरी हैं, क्योंकि इनके तेवर समकालीन व्यवस्था के प्रति असंतोष, विरोध, आक्रोश और विद्रोह से अभिसिक्त हैं।’ ग़ज़ल की कथित तकनीकी व्यवस्था के बावजूद, जिस प्रकार ग़ज़ल से कथ्य के आधार पर हज्ल को अलग किया गया, तेवरी भी अब उसी जायज माँग को दुहरा रही है।

ग़ज़ल-फोबिया के शिकार रचनाकारों ने हमारे इस प्रयास की आलोचना-सराहना कम, निन्दा ज्यादा की। उन्होंने एक सही बात को तर्क से कम, कुतर्क और दुराग्रह-भरे चिन्तन से काटने की अधिक कोशिश की। ग़ज़ल और हज्ल की सार्थकता को जानते, स्वीकारते, मानते हुए भी वे कटूक्तियों के हथियार लेकर तेवरी के समर्थकों पर हमला बोलने लगे। रमेश श्रीवास्तव ने कहा-‘‘ क्या यह तेवर कहानी, उपन्यास आदि में नहीं हैं, इस आधार पर तेवरी को ग़ज़ल से अलग कैसे करोगे?’’

श्री मुकुट सक्सेना ने सवाल जड़ा-‘‘ग़ज़ल में शे’र, रदीफ, काफिया आदि होते हैं अर्थात् हर विधा का एक छन्द-विधन होता है तो तेवरी का फार्मेट क्या है?’’

इस विषय में हमने बार-बार निवेदन किया कि ‘जब किसी वस्तु या विधा का कथ्य या चरित्र बदल जाता है अर्थात् वह वस्तु अपना मूल चरित्र त्यागकर, नया चरित्र अपनाती है तो नये चरित्र के अनुसार ही उसका मूल्यांकन किया जाता है और किया जाना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि इस नये चरित्र के अनुरूप उसे नया नाम भी दिया जाए। तेवरी में कहानी, उपन्यास की घुसपैंठ के सवाल या तेवरी की तकनीकी व्यवस्था का प्रश्न उठाने वालों से हमने सिर्फ इतना कहा कि-‘‘अगर ग़ज़ल का अर्थ प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत ही है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं तो क्या पूरा रीतिकालीन या छायावादी काव्य को इसकी परिधि में ले लेना चाहिए? शिल्प का अर्थ मात्र तुकान्त ही नहीं होते। कथ्य बदलने के बाद शिल्प में भी आमूल परिवर्तन आते हैं। उस विधा की रस-व्यवस्था, भाषा-शैली, मुहावरेदारी, प्रतीकात्मकता, आलंकारिकता भी बदल जाती है। तेवरी की तकनीकी व्यवस्था को ग़ज़ल की तकनीकी व्यवस्था सिद्ध करने वालों से निवेदन किया कि अगर यह तकनीकी व्यवस्था इतनी ही महत्वपूर्ण [ या सबकुछ ] है तो हज्ल के बारे में उनकी क्या राय है?

अस्तु! हमारा विरोध न हज्ल से है न ग़ज़ल से और न हम इन विधाओं की [ इनके ही संदर्भ में ] सार्थकता को संदिग्ध बना रहे हैं। हमारा विरोध तो कथ्य के संदर्भ में उस चरित्र के घालमेल से है, जिसमें भाले की चुभन, आलिंगन समझी जाती है। अनीति का विरोध, शृंगार का बोध बन जाता है। जिसमें ‘दुराचार के प्रति आक्रोश’ और ‘प्रेमिका से मिलने का तोष’ एक ही कहलाता है, जिसमें बलात्कारी-व्यभिचारी भी शृंगारी नजर आता है। जिसमें वार भी अभिसार ही बनकर उभरता है। जिसमें बहेलिए का तीर, प्रेम-वाण की तासीर लेकर पंछी की हत्या करता है।

चरित्रों के इस घालमेल को स्पष्ट करते हुए हमने बार-बार दुहराया कि माना स्त्री, स्त्री ही होती है, लेकिन उसे बाल्यावस्था में बालिका या बच्ची कहा जाता है, थोड़ी बड़ी होती है तो किशोरी बोली जाती है, अपनी परिपक्व अवस्था में वह युवती कहलाती है, बाद में वह प्रौढ़ा और वृद्धा बोली जाती है। जब उसका विवाह हो जाता है तो पत्नी के नाम से शोभा पाती है। बच्चों को जन्म देने के बाद माँ कहलाती है। प्रसव-पीड़ा से वंचित स्त्री ‘बाँझ’ का दर्जा पाती है।

माना औरत, औरत ही होती है लेकिन विभिन्न संदर्भों में चाची, ताई, मौसी, बूआ, मम्मी, ननद, सास, बहू क्यों कहलाती है? यह चरित्र की लीलाओं का ही कमाल है कि हम चरित्रहीन औरत को कुलटा, कलंकिन, डायन, नगर-वधू , गणिका, वैश्या, पांचाली आदि पुकारते हैं, जबकि सद्चरित्रा औरत, देवी, सती, सावित्री, मां स्वरूपा आदि-आदि संज्ञा-विशेषणों की हकदार बन जाती है। चरित्र विशेष के आधार पर दिये गये नाम क्या स्त्री के व्यक्तित्व को खंडित करने की साजिश माने जाने चाहिए? या चरित्र-परिवर्तन के बाद व्यक्तित्व के सही मूल्यांकन के आधार? एक समझदार चिंतक इस नाम परिवर्तन के सार्थकता को अवश्य समझेगा। लेकिन जिनके पास समझने के लिए कुछ है ही नहीं, वे ग़ज़ल और तेवरी में किये गये ऐसे अंतरों पर सही उत्तर देकर ओखली में अपना सर देना ही क्यों चाहेंगे?

तेवरी और ग़ज़ल में किये गये इस अंतर की सार्थकता और गंभीरता को न समझते हुए बडे़ ही अगम्भीर तरीके से एक कुतर्क हिंदी ग़ज़ल के विद्वान साहित्यकार श्री रतीलाल शाहीन ने दिया-‘‘नाम बदल देने से गुण या स्वभाव नहीं बदल जाते।’’

[आजकल, मार्च-2000, पृ0 21 ]

शाहीनजी के इस कथन में जब थन ही नहीं, तो तर्क का पौष्टिक दुग्ध् ढूंढने से फायदा ही क्या? माना नाम बदल जाने से गुण या स्वभाव नहीं बदल जाता। किंतु गुण या स्वभाव बदल जायें तो? ऐसे में चुंबन और क्रंदन में फर्क नहीं किया जाना चाहिए? क्या स्त्री को उसका विवाह होने के बाद ‘पत्नी’ न पुकारा जाये? क्या औरत संतान को जन्म देने के बाद ‘माँ’ कहलाने की हकदार नहीं? क्या परिपक्व अवस्था को प्राप्त स्त्री को बच्ची ही कहा जाए? एक ही पति की अवैध पत्नियाँ ‘सौतन’ या ‘रखैल’ नहीं कही जातीं? कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई, यदि प्यालों के स्थान पर तलवार थाम ले, तब क्या उसे वीरांगना कहना किसी अज्ञान का घोतक है?

वस्तुओं या विधाओं के परिवर्तन के बाद, इस परिवर्तन का सही मूल्यांकन न करना, एक अधोमुखी चिंतन नहीं तो और क्या है? तेवरी के भविष्य की चिंता करने के बजाय, ग़ज़ल के समर्थर्कों को ग़ज़ल की टांग-पूँछ की समझ में व्यापकता का समावेश करना चाहिए। उन्हें इस तथ्य की सार्थकता को पहचानना चाहिए कि ग़ज़ल की हू-ब-हू तकनीकी व्यवस्था को कायम रखते हुए भी हज्ल, ग़ज़ल से कैसे और क्यों अलग है? अगर ग़ज़ल का शिल्प ही महत्वपूर्ण होता तो ‘प्रेमपूर्ण बातचीत की शालीनता, प्रेमपूर्ण बातचीत की अश्लीलता’ का योग एक ही बोध को बोता। ग़ज़ल से हज्ल अलग हुई और उसे मान्यता भी मिली। इस प्रमाण पर ग़ज़लकारों के विचारों की चूल क्यों नहीं हिलीं?

ग़ज़ल से हज्ल अगर सिर्फ कथ्य के आधार पर पृथक हो सकती है तो तेवरी की ग़ज़ल से अलग पहचान क्यों नहीं हो सकती? इस विषय में अन्धे और सारहीन विरोध की झागदार वकालत से अलग कोई सार्थक तर्क या तथ्य क्यों नहीं सामने आ रहा है? हर कोई बस यह क्यों चिल्ला रहा है कि-‘‘अभी जुबां कटी नहीं [ तेवरी संग्रह ] की भूमिका में आग उगलता आक्रोश, ‘तेवरी’ को ग़ज़ल, हिन्दी ग़ज़ल से पृथक् नाम से, केवल कथ्य के आधार पर ही प्रतिष्ठित करने के लिए उतावला है जो कि अनुचित है, क्योंकि संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठकर कथ्य एवं कला शिल्प के बदलते तेवर की मूलभूत विशेषताओं की अवहेलनाओं को केन्द्र बनाकर किसी काव्य-विधा की बात नहीं की जा सकती है।’’ [ डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, प्रसंगवश फरवरी-94, पृष्ठ 37 ] या

‘‘तेवरी की स्थिति ऐसी ही है जैसे प्रयोगवाद के समय में ‘नकेनवाद’ या ‘प्रपद्यवाद’ की हुई थी। उन्होंने अपने को सही प्रयोगवादी माना और प्रयोग को ही साध्य घोषित किया। कुछ ही समय में इन कवियों का जिक्र हाशिये पर रह गया और आन्दोलन नष्टप्रायः।’’

[ डॉ. संतोषकुमार तिवारी, प्रसंगवश, फर. 94, पृ.45 ]

अगर कथ्य या शिल्प के आधार इतने ही अनुचित या संकीर्ण हैं, जैसा कि डॉ. सत्यप्रेमी बतलाते हैं तो चुटकुला से लघुकथा के अन्तराधारों में कौन-सी उदारता है? नाटक और एकांकी के अन्तर की सार्थकता क्या है? ग़ज़ल और हज्ल के अन्तर में कौन-सी संकीर्णता मुखर है?

एक सही मूल्य के, सही मूल्यांकन का प्रयास [ नकेनवाद और प्रयोगवाद या प्रपद्यवाद की तरह ] बकवास भले ही सिद्ध हो जाये, इसमें आश्चर्य और चिन्ता जैसी कोई बात नहीं होनी चाहिए। क्रान्तिकारियों को गांधीवादियों ने हमेशा ‘आतंकवादी’ कहा। एक सही राष्ट्रीय विचारधारा को आज भी वह स्थान नहीं मिला, जिस स्थान पर गांधीजी की विचारधारा फल-फूल रही है। अहिंसा के मंत्र आज भी जनता को अराजकता, शोषण, यातना के विरुद्ध भीरू और कायर बनाने में अपनी वीभत्स भूमिका का निर्वाह करने में लगे हैं। मार्क्सवाद, पूँजीवाद के सामने आज दम तोड़ रहा है। धर्म के पाखंडी, अधर्म को सार्थक और सारगर्भित ठहराने में कामयाब हो रहे हैं। क्या इस आधार पर भगतसिंह जैसे महापुरुषों का चिन्तन अप्रांसगिक हो जाता है? नहीं। इसलिए चिंता यह नहीं होनी चाहिए कि किस आन्दोलन का भविष्य क्या रहेगा? चिन्तन का विषय यह होना चाहिए कि हम वस्तुओं या उनके व्यवहार का मूल्यांकन क्या सही तरीके से कर रहे हैं अथवा नहीं ?

इन बातों को कहने का यह आशय कदापि नहीं डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी या डॉ. सन्तोष कुमार तिवारी पर हम किसी प्रकार की अज्ञानता या अपरिपक्वता का आरोप जड़ रहे हैं। हमारे लिए दोनों ही श्रद्धेय हैं। हमारा निवेदन बस इतना है कि तेवरी की धारा, ग़ज़ल की धारा के समान या उससे निकलती हुई-सी जरूर महसूस होती है, लेकिन यह धारा उन सूखे हुए खेतों की ओर जाती है, जो समूची मानवता के लिए अन्न, फल, फूल, वस्त्र और छप्पर देते हैं। इस धारा में शराबियों के लिए सुरा जैसी मादकता वाला पेय नहीं। रोगी मानसिकता का उपचार करने वाला सुजल है। यह कैसे ग़ज़ल की नकल है? कहीं से किधर से भी कोई सार्थक तथ्य अब तक क्यों सामने नहीं आ रहा है? हर कोई सिर्फ यह कहकर ही क्यों तेवरीकारों को गरिया रहा है कि-‘‘तेवरीकार स्वयं को महान साबित करने की कोशिश में तमाशगीर जमूरे की तरह चीख-चिल्लाकर भ्रामक, बचकाने बयान देकर भीड़ जुटा रहे हैं, जो ग़ज़ल की महफिल में इज्जत न बचा सके, वे तेवरी के मैदान में दौड़ लगाने लगे हैं... तेवरी का भविष्य अकविता, विचार-कविता, नवगीत की तरह अन्धकारमय ही है। परिणाम वही होगा, तेवरी, कमअक्लों, अनपढ़ों की बात के समान ही माननी होगी।

[ तारिक असलम तस्नीम, तेवरीपक्ष-3, पृ.9 ]

‘‘तेवरी पढ़कर हमारे भी तेवर बदल गये हैं, बस हाथों में ले लिया डंडा। अब आप बताइये किसके सर पर दे मारूं?’’

[ कालीचरण प्रेमी, तेवरीपक्ष-3,पृ.8 ]

‘‘समझदार हो गये हो तेवरी के साथ, सुधरने का क्या लोगे? पहले सामान्य आदमी बनो, साहित्यकार तो बन ही जाओगे।

[ नन्दल हितैषी, तेवरीपक्ष-7 ]

उपरोक्त सारे बयानों की विशेषता यह है कि इनमें तेवरी और ग़ज़ल के बीच किये गये भेद के आधारों पर तो कोई सार्थक बहस नहीं की गयी है और न यह बतलाया गया है कि ‘इन आधारों के कारण तेवरी ग़ज़ल ही है।’

लगता यह है कि ग़ज़ल के समर्थकों के पास तेवरीकारों को कोसने, उन्हें आदमी बनने की सलाह देने, डंडा उठाकर सर पर दे मारने के अतिरिक्त कोई तर्क है ही नहीं। अगर कथ्य के आधार पर ग़ज़ल से हज्ल का व्यक्तित्व, अस्तित्व पृथक किया जा सकता है तो तेवरी को ऐसे आधारों पर अलग किया जाना, भ्रामक, दुर्भाग्यपूर्ण, बचकानापन, जमूरापन या महान साबित करने का एक अन्ध जुनून कैसे हो गया? इसके लिए कोई तर्कसंगत उत्तर कभी समाने आयेगा? यह वैचारिक-स्खलन हमें कहाँ ले जायेगा?

ऐसे में हम पुनः जोर देकर एक ही बात कहना चाहेंगे कि-ग़ज़ल और तेवरी के बीच अन्तर करने का यह प्रयास, ग़ज़लपन को खारिज करने की कोई कोशिश न पहले थी, न अब है और न यह मुद्दा बहर, रदीफ-काफिये, मतला-मक्ता, शे’र की स्वच्छन्दता और निश्चित अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था की खींचतान का है। यह मुद्दा तो एक सही मूल्य के सही मूल्यांकन का है। ग़ज़ल किसी छन्द विशेष, तकनीकी विशेष या फार्म विशेष का नाम नहीं। अगर ऐसा होता तो ग़ज़ल से हज्ल कैसे पृथक की जाती? चिन्तन के इस बिन्दु पर अगर धीरेन्द्र शर्मा जैसे सुधी लेखकों या विद्वानों को अब भी यह शिकायत रहे कि-‘‘तेवरी, ग़ज़ल के फार्म में ही क्यों लिखी जा रही है?’’ तो इसमें बेचारे तेवरीकार कर ही क्या सकते हैं??

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तेवरी जन-जन की उस भाषा की अभिव्यक्ति है

जो सारे भारतीयों की ज़ुबान है

[ प्रमुख तेवरीकार रमेशराज से प्रसिद्ध ग़ज़लकार मधुर नज़्मी की अनौपचारिक बातचीत ]

रमेशराज, वैचारिक जमीन पर पोख्ता, ‘तेवरीपक्ष’ के तेजस्वी संपादक, लघुकथाकार, कथाकार, गीतकार, प्रमुख तेवरीकार, बेवाक वाग्मिता, स्पष्टवादिता, पत्र-पत्रिकाओं के साहित्यिक केनवस पर छाया हुआ एक सारस्वत नाम है। रमेशराज से साहित्यिक विषयों से लगायत राजनीतिक मुद्दों पर बातें करना, विषय की घुमावदार गहराई से गुजरना है। रमेशराज साहित्यिक मानसून का नाम होने की स्थिति में अपनी पारिवेशिक सांघातिक ‘पारिस्थितिकी’ से फिलहाल जूझ रहा है किन्तु उसका अक्षर-अवदान साहित्य के शिवाले में स्वागतेय है। एक ही रचनाकार में इतनी सारी घनीभूत खूबियों की समन्वित-संदर्भित साक्षात्कार का दस्तावेजी परिणाम है। रमेशराज से मेरी मुलाकात अलीगढ़ धर्म समाज कॉलिज में पहले-पहले, कवि कथाकार समीक्षक डॉ. वेद प्रकाश ‘अमिताभ’ द्वारा आयोजित कवि-गोष्ठी में हुई। फिर साक्षात्कारी प्रक्रिया समारोहोपरांत पूर्ण हो सकी। मेरे प्रश्न सहित उनके उत्तर टेपांकित होकर, संक्षिप्त रूप में, रसज्ञ पाठकों की वैचारिक अदालत में बगैर किंचित परिवर्तन के ज्यों के त्यों प्रस्तुत हैं-

+मधुर नज़्मी

मधुर नज़्मी-आप तेवरी विधा के जाने-माने हस्ताक्षर हैं। क्या आप बतलायेंगे कि ‘तेवरी आंदोलन’ की शुरुआत कब और किसने की?

रमेशराज- तेवरी आंदोलन की शुरुआत आठवें दशक के अन्त, नवें दशक के प्रारम्भ में हुई। इस विधा को ‘तेवरी’ नाम से अभिभूषित करने का श्रेय श्री ऋभ देव शर्मा देवराज और डॉ. देवराज को जाता है।

मधुर नज़्मी - आप तेवरी के विधागत स्वरूप को किस प्रकार स्पष्ट करेंगे?

रमेशराज-किसी भी विधा का संबंध उस विधान से होता है जिसके अन्तर्गत किसी भी प्रकार का चरित्र प्रस्तुत किया जाता है। विधाओं का निर्माण [ खासतौर पर कविता के संदर्भ में ] दो प्रकार से होता है। एक, वे विधाएँ जो छंद के आधार पर विकसित-निर्मित होती हैं- जैसे दोहा, चौपाई आदि। दूसरे प्रकार की विधाएँ कथ्य के आधार पर वर्गीकृत की जा सकती हैं- जैसे भजन, कलमा, मर्सिया, कसीदा आदि। जहाँ तक तेवरी के विधागत स्वरूप की बात है तो यह विधा कथ्य के आधार पर संज्ञापित की गई है। तेवरी के अंतर्गत उस तेवर [ चरित्र या भावभंगिमा ] को रखा गया है जो कुव्यवस्था के शिकार, लोक या मानव को [ शोषण, पीड़ा, यातना आदि के कारण ] असंतोष, आक्रोश, विरोध, विद्रोह आदि से सिक्त करता है।

मधुर नज़्मी- इसका अर्थ यह हुआ कि तेवरी में शृंगार-वर्णन वर्जित है। इस सदंर्भ में इसे ‘जनवादी’, ‘प्रगतिवादी’ मान्यताओं के अधिक निकट रखा जा सकता है। तब इसे [ तेवरी ] विधा के स्थान पर क्या नया काव्यवाद नहीं कहा जा सकता है?

रमेशराज- तेवरी कथित शृंगार की जरूर विरोधी है, क्योंकि इससे इस विधा पर व्यक्तिवाद के खतरे मँडलाने लगेंगे। मानव मूल्यों के खण्डित होने की संभावनाएँ बढ़ जायेंगी। लेकिन तेवरी में प्रेम या रति के औचित्य, सात्विकता का कहीं विरोध नहीं। दरअसल, तेवरी स्त्री या पुरुष को आगे के विकास की वस्तु मानकर नहीं चलती। इसके रिश्तों की सार्थकता, उस प्रेम-तत्त्व के भीतर देखी जा सकती है जो एक दूसरे के संघर्ष, सुख-दुःख के दायित्वबोध, साझेदारी और कर्त्तव्यों से जोड़ता है। इस संदर्भ में तेवरी जनवाद, प्रगतिवाद, मानवतावाद, साम्यवाद, यथार्थवाद जैसे किसी भी वाद से बँधकर चलने वाली विधा नहीं है। यह तो हमारे सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों की एक ऐसी रागात्मक प्रस्तुति है जिसके माध्यम से सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना की जा सकती है और अप-संस्कृति का वैचारिक विरोध। इसलिए तेवरी एक ऐसी प्रगतिशील विधा है जिसकी दृष्टि यथार्थोन्मुखी होने के साथ-साथ सत्योन्मुखी भी है।

मधुर नज़्मी शिल्प के आधार पर तेवरी और ग़ज़ल का स्वरूप एक ही जान पड़ता है, तब इसे तेवरी कहने का औचित्य क्या है?

रमेशराज- बड़ा ही महत्वपूर्ण सवाल उठाया है आपने। सतही तौर पर देखने से ऐसा जरूर लगता है कि तेवरी और ग़ज़ल का शिल्प एक जैसा है लेकिन यदि हम सूक्ष्मता के साथ विवेचन करें तो तेवरी और ग़ज़ल के शिल्प में मूलभूत अन्तर है। तेवरी मात्रिक व वर्णिक छन्दों में लिखी जाती है जबकि ग़ज़ल कुछ निश्चित बह्रों में कही जाती है। तेवरी में मतला, मक्ता, शे’रों की निश्चित व्यवस्था जैसा प्रावधान नहीं होता। कुछ लोगों को इसकी अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था ग़ज़ल के रदीफ-काफियों जैसी व्यवस्था की नकल जान पड़ती है। ऐसे लोगों से विनम्रतापूर्वक बस यही निवेदन है कि इस प्रकार की व्यवस्था आदिकालीन कवि चन्द्रवरदायी से प्रारम्भ होती है और इस तरह की परम्परा का निर्वाह सूर, तुलसी, कबीर से लेकर घनानन्द, विद्यापति, केशव, देव, ठाकुर, रत्नाकर आदि के काव्य में बखूबी मिलती है। तेवरी चूँकि हिन्दी की काव्य विधा है, इस कारण इसकी अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था में प्रस्तुत कथनभंगिमा किसी हद तक कथात्मक है जबकि ग़ज़ल में कथात्मकता शुरू से ही वर्जित है।

मधुर नज़्मी- तो इसका अर्थ यह हुआ कि तेवरी उर्दू विरोधी हिन्दी भाषा की विधा है?

रमेशराज-अरे! यह क्या कह रहे हैं आप? तेवरी में हिन्दी-उर्दू जैसा कोई विवाद नहीं। तेवरी तो जन-जन की उस भाषा की अभिव्यक्ति है जो मुसलमानों, हिन्दुओं, पंजाबियों से लेकर हम समूचे हिन्दुस्तानियों की जुबान है।

मधुर नज़्मी- आज तेवरीकार जिस प्रकार का कथ्य तेवरी में दे रहे हैं, इस प्रकार का कथ्य तो ‘साहिर’, ‘फिराक’, ‘फैज अहमद फैज’, दुष्यन्त कुमार आदि प्रगतिशील शायरों, कवियों की ग़ज़लों में भी मौजूद है लेकिन उन्होंने इस तरह की रचनाओं को कभी ‘तेवरी’ नहीं कहा ?

रमेशराज-नज्मीजी, ‘ग़ज़ल’ का कोषगत अर्थ ‘प्रेमिका से प्रेमपूर्वक बातचीत’ है। यह शृंगाररस की ऐसी विधा है जिसमें नारी को भोग-विलास की वस्तु मानकर कभी साकी के रूप में प्रस्तुत किया गया है तो कभी रक्कासा [ नर्तकी ] के रूप में। यदि साहिर, फैज जैसे प्रगतिशील शायरों ने नारी को इन भाव-भंगिमाओं से काटकर उसे एक आदर्श पत्नी, समाज-सेविका, वीरांगना आदि के रूप में प्रस्तुत किया किन्तु एक पत्नी और एक ‘रखैल’ या ‘रक्कासा’ में अन्तर न कर सके तो इसके लिए किसे दोषी माना जाये? इसका उत्तर आप आप भी भली-भाँति जानते होंगे।

मधुर नज़्मी- तो क्या आपकी दृष्टि में ग़ज़ल के इस बदले हुए स्वरूप को लेकर दिये गये नाम जैसे ‘गीतिका’, ‘अनुगीत’, ‘अवामी ग़ज़ल’, ‘हिन्दी-ग़ज़ल’ आदि में भी कोई सार्थकता अन्तर्निहित नहीं है?

रमेशराज-ग़ज़ल यदि अपने स्वरूप से कट जायेगी तो उसमें कितनी ग़ज़लियत रह जायेगी, जिसके कारण हम उसे ग़ज़ल कह सकें? यदि भजन से ईश्वर या आलौकिक शक्ति के प्रति की गई विनती काट दी जाये तो वह कितना ‘भजन’ रह जायेगा? यह विचारणीय विषय है। अतः मेरी दृष्टि में ग़ज़ल के पूर्व लगाये ‘अवामी’, ‘हिन्दी’ जैसे विशेषण निरर्थक ही हैं। साथ ही विशेषणों को लगने से ‘ग़ज़ल’ शब्द की मर्यादा मरती है। वह हास्यास्पद और अवैज्ञानिक हो जाती है। जब उर्दू, हिन्दी की एक बोलीमात्र ही है तो ग़ज़ल को हिन्दीग़ज़ल कहना कितना तर्कसंगत है। ठीक इसी प्रकार ग़ज़ल के साथ ‘अवामी’ विशेषण जोड़ना, प्रेम के व्यक्तिवादी चरित्र को अवाम के बीच संक्रामक रोग की तरह फैलाना है। इस विशेषण से कथ्य की जनसापेक्षता किसी भी स्तर पर परिलक्षित नहीं होती। ‘गीतिका’ एक छंद है। आदरणीय नीरजजी छंद की बात कर रहे हैं या इसके माध्यम से किसी विशेष प्रकार के चरित्र की। यह आज तक स्पष्ट नहीं हो सका है। यही बात ‘अनुगीत’ के प्रति भी लागू होती है। मेरी राय में ग़ज़ल को सिर्फ ग़ज़ल रहने दिया जाये तो अनुचित नहीं होगा।

मधुर नज़्मी- यदि मान लिया जाय कि ‘तेवरी’ आक्रोश-विरोध-विद्रोह से युक्त तेवर से नामित है, यह तेवर तो हमें उपन्यास, कहानी, लघुकथा, कविता के अन्य विधाओं में भी दिखाई देता है, तब हम उन्हें तेवरी क्यों न कहें?

रमेशराज-तेवरी एक निश्चित अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था से युक्त एक ऐसी काव्य विधा है जिसमें सत्योन्मुखी संवेदनशीलता अन्तर्निहित है। तेवरी की संदर्भित व्यवस्था को दृष्टिगत न रखते हुए, यदि आप उसकी घुसपैंठ उपन्यास, कहानी आदि साहित्य विधाओं में करना चाहेंगे, तब मैं आपके प्रश्न के प्रति आपसे भी एक प्रश्न करना चाहूँगा-यदि ग़ज़ल का अर्थ प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत है तो क्या समस्त शृंगारिक काव्य को ग़ज़ल में रखा जा सकता है?

मधुर नज़्मी- एक आखिरी सवाल और-कहीं तेवरी-आंदोलन भी अ-कविता, अगीत, अ-ग़ज़ल, आवामी ग़ज़ल, सहज कविता आदि की तरह लोप तो नहीं हो जायेगा? आपकी दृष्टि में तेवरी का भविष्य क्या है?

रमेशराज-नज़्मीजी हमारी दृष्टि फिलहाल तो तेवरी के प्रति संघर्ष पर टिकी है, परिणाम पर नहीं। तेवरी का भविष्य क्या रहेगा, यह तो आगामी समय ही बतला सकेगा।

[श्री हरिऔध् कला भवन, आजमगढ़ ]

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हिन्दी ग़ज़लः सवाल सार्थकता का?

+रमेशराज

ग़ज़ल अपनी सारी शर्तों, ;कथ्य अर्थात् आत्मरूप-

प्रणयात्मकता तथा शिल्परूप- बह्र, मतला, मक्ता, अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था में रदीफ काफिये, अन्य तकनीकी पक्ष जैसे शे’रों की निश्चित संख्या, हर शे’र का कथ्य अपने आप में पूर्णता ग्रहण किए हुए आदि-आदि के साथ ही लिखी जानी चाहिए। चाहे उसका सृजन हिन्दी, पंजाबी, गुजराती, बंगाली या उर्दू में हो, लेकिन पुकारी या कही जानी ग़ज़ल ही चाहिए। ग़ज़ल अपनी सारी शर्तों को पूर्ण किए बिना अपने अस्तित्व या चरित्र की रक्षा कैसे कर पायेगी या किस तरह ग़ज़ल कहलाएगी? बहस का मुख्य बिन्दु यही होना चाहिए। किसी वस्तु को परम्परा से काटकर उसका मूल्यांकन उसी परम्परा में करना अतर्कसंगत ही माना जाना चाहिए। होली के अवसर पर दीप जलाकर, लक्ष्मी का पूजन एवं पटाखे छोड़कर क्या हम होली की परम्परा को जीवित रख सकते हैं? या ऐसी परम्परा को ‘होली’ नाम से पुकार सकते हैं? जनसमूह तो नेताओं की सभाओं में भी होता है। वहाँ खाने-पीने से लेकर तरह-तरह के मनोरंजन की दुकानें भी लगाई जाती हैं। क्या इस प्रकार के एक राजनीति मंच को किसी मेले के रूप में पहचाना जा सकता है? हर स्थिति में एक विवेकशील मनुष्य इसका उत्तर ‘न’ में ही देगा। अपनी परम्परा, अपनी शर्तों से कटकर कोई वस्तु उसी परम्परा के साथ जीवित या सार्थक रह ही नहीं सकती है।

लेकिन ग़ज़ल के साथ यह कमाल या चमत्कार कम से कम हिन्दी में तो हो ही रहा है। ‘प्रसंगवश’ के ‘समकालीन हिन्दी ग़ज़ल विशेषांक फर.-1994’ में डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी का आलेख ‘आधुनिक हिन्दी ग़ज़लः रचना और विचार’ ग़ज़ल को ग़ज़ल की परम्परा या शर्तों से काटकर हिन्दी में ग़ज़ल कहलवाने अथवा मनवाने का एक ऐसा मायाजाल है जो किसी सार्थक हल की ओर पहुँचाता तो कम है, भटकाता ज्यादा है। डॉ. सत्यप्रेमी अपने मत के पक्ष में विभिन्न विद्वानों के अभिमत प्रस्तुत करते हुए यह कहकर भले ही आश्वस्त हो लें कि ‘‘ग़ज़ल की विषयवस्तु को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं और यह मतभेद ही ग़ज़ल के उर्दू ग़ज़ल और हिन्दी ग़ज़ल नामकरण की पृष्ठभूमि भी निर्मित करता है’’, लेकिन यह आश्वस्ति दीर्घकालिक या स्थायी इसलिए नहीं है क्योंकि उन्हीं के अनुसार विद्वानों में मतभेद हैं और हमारे हिसाब से आगे भी इसलिए रहेंगे क्योंकि इसका हमारे पास न तो कोई शास्त्रीय हल है और न हम किसी शास्त्रीय तरीके से इस मुद्दे को हल करना चाहते हैं। नीम को बबूल या बबूल को नीम मनवाने की यह जोर-जबरदस्ती मतभेदों को नहीं तो किसको जन्म देगी?

उक्त आलेख पर अगर हम [ विभिन्न विद्वानों के अभिमतों को डॉ. सत्यप्रेमी के मतों से मिलाते हुए ] क्रमशः अध्ययन, चिन्तन, मनन करें तो जिन मतभेदों की काली छाया से डॉ. सत्यप्रेमी शुरू से ही आतंकित होते हैं, वह काली छाया इस आलेख के अन्त में भी ज्यों की त्यों मौजूद रहती है। डॉ. सत्यप्रेमी फरमाते हैं कि-‘‘एस.एन. अहमद फारुख ने अपने लेख ‘हिन्दी उर्दू ग़ज़ल का स्वर [ युगधर्म, दीपावली विशेषांक-1978 ] में लिखा है कि ‘‘ग़ज़ल की यह विधा जब हिन्दी साहित्य में प्रवेश करती है.... तो इसके एक-एक शब्द से देशभक्ति, इन्सानी दर्द और कौमी बेदारी राष्ट्रीय [ चेतना ] टपकती-सी प्रतीत होती है।’’

अब डॉ. सत्यप्रेमी और एस.एन. अहमद फारुख साहब को यह तो कोई भाषा वैज्ञानिक ही समझा सकता है कि उर्दू और हिन्दी दो अलग-अलग भाषाएँ नहीं हैं, बल्कि उर्दू, हिन्दी की एक बोलीमात्र या हिन्दी ही है और इस भाषा वैज्ञानिक सत्य या वास्तविकता के कारण हिन्दी और उर्दू की यह सारी बहस ही अपने-आप बेमानी या खारिज हो जाती है।

बात आती है-ग़ज़ल के हिन्दी में इस तरह प्रवेश करने या कराने की, तो फारुख साहब से यह तो पूछा ही जा सकता है कि क्या वे ग़ज़ल की तर्ज पर ही हज़्ल को भी इसी तरह, हिन्दी में प्रवेश दिला सकते हैं, जिस तरह उन्होंने ग़ज़ल को हिन्दी में साकी, शराब मयखाने से मुक्ति दिलायी है।

खैर... इस तरह हज़्ल भी हिन्दी में आकर अपनी अश्लीलता से कुछ तो मुक्ति पायेगी। पर सोचना यह है कि ऐसे में हज़्ल कैसे हज़्ल कहलायेगी? हिन्दी और उर्दू के छद्म भेद पर टिका यह चिन्तन, निष्कर्ष के किसी पड़ाव तक इसलिये नहीं ले जा सकता है क्योंकि इसकी सारी की सारी प्रक्रिया अपाहिज होने के साथ-साथ जिधर मंजिल है या होनी चाहिए, ठीक उसके विपरीत दिशा में हाथ-पैर पटक रही है।

इसी आलेख में डॉ. सत्यप्रेमी, डॉ. जानकी प्रसाद के विचारों से इस तथ्य की पुष्टि करने की कोशिश करते हैं कि ‘‘वर्तमान समय में उर्दू भाषा का व्यवहार करने वाली जाति अखण्ड भारत का हिस्सा बन गयी है। ऐसी स्थिति में उर्दू भाषा के शब्द भी हिन्दी भाषा में अपनी मूल प्रकृति खोकर प्रयुक्त होते हैं तो यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। ग़ज़ल को हिन्दी कविता में उर्दू फारसी कविता की समीपता तथा भारतीय और इस्लाम संस्कृतियों के साहचर्य के संदर्भ में ग्रहण किया है। ग़ज़ल का हिन्दी में आगमन, एक साहित्यिक घटना ही नहीं है, यह एक सांस्कृतिक घटना भी है।’’

डॉ. सत्यप्रेमी के अनुसार जब स्थिति यह है कि यह सांस्कृतिक मेलमिलाप अपने स्वाभाविक प्रक्रिया को अपना रहा है, भाषा की दृष्टि से उर्दू और हिन्दी अभिन्न बनने की भरसक कोशिश कर रहे हैं, तब ग़ज़ल की दृष्टि से हिन्दी और उर्दू के भेद और क्यों गहराते जा रहे हैं? स्वाभाविकता में पैदा की गयी यह अस्वाभाविकता मतभेदों को नहीं तो किसको जन्म देगी। ग़ज़ल विभिन्न सांस्कृतिक एवं भाषिक मेलमिलाप जैसे अरबी-फारसी, उर्दू आदि के बीच ग़ज़ल ही रही लेकिन हिन्दी के साथ तालमेल बिठाने में उसे ऐसी दिक्कतों या झगड़ों का सामना क्यों करना पड़ रहा है जैसी कि दिक्कतें या झगड़े धर्म के नाम पर सम्प्रदाय पैदा कर देते हैं या कर रहे हैं। ऐसे मतभेदों को स्वीकारते हुए भी, इन्हीं मतभेदों को ऐसे आलेखों के माध्यम से और गहराते जाना कौन-सी समझदारी है?

जब सारा का सारा विवेचन कुतर्कों और अवैज्ञानिक सूझबूझ के सहारे चल रहा है तो डॉ. सत्यप्रेमी का इस प्रकार खीज उठना भी समझ से परे है कि ‘‘ इतना सब कुछ स्पष्ट हो जाने के पश्चात भी हिन्दी के स्वनामध्न्य आलोचक-समीक्षक विद्वान हिन्दी ग़ज़ल को आधुनिक युग की एक सशक्त विधा के रूप में स्वीकार नहीं कर पाते हैं और हिन्दी ग़ज़ल की पर आये दिन प्रहार करते ही रहते हैं।’’

जिसे डॉ. सत्यप्रेमी ‘इतना कुछ स्पष्ट’ कह रहे हैं उसमें ‘थोड़ा-सा ही ‘कुछ’ स्पष्ट हो जाता तो उन्हें यह ‘सब कुछ’ न कहना पड़ता और इस विरोध को अपने कुतर्कों के सहारे पूरी की पूरी भारतीय आलोचना/ समीक्षा के माथे पर कलंक के टीके की तरह नहीं मढ़ना पढ़ता? चाहे वे इस बात की लाख दुहाई दें कि-‘‘वास्तविक मूल्यांकन के साहसिक तथा यथार्थपरक दृष्टिकोण के अभाव में प्रत्येक सही कृति समीक्षकों के दायरे में कविता के सामान्य महत्व से भी वंचित रही। कबीर, भारतेन्दु, निराला, मुक्तिवोध, राजकमल चैध्री, धूमिल, दुष्यंत कुमार, अनिल कुमार तथा आज की कविता-अकविता के साथ यह दुर्घटना घटी।’’

इन सब बातों का उत्तर सिर्फ यह है कि यदि रचनाओं का धरातल ठोस, वास्तविक, शास्त्रीय और सत्योन्मुखी है तो आज नहीं तो कल उनका जादू सर पर चढ़कर बोलेगा ही। उपरोक्त नाम घने झंझाबातों के बावजूद आज भी प्रासंगिक हैं। जिन लचर और कमजोर रचनाओं ने जन-कविता का कभी भी गौरव पाया है तो आगे चलकर खोया भी है। इसलिये चिंता का विषय यह नहीं। चिन्ता तो यह है कि जब ‘नासमझी’ समझदारी का रूप ग्रहण कर ले, ‘तर्कहीनता’ तर्क बनने का प्रयास करे तो क्या किया जाये? जब तर्क के नाम पर ऐसे कुतर्क देकर किसी सार्थक मूल्यांकन की दुहाई दी जाये कि-‘‘पूर्व निर्धारित नियमों एवं उपनियमों को टटोलने से कविता की सच्चाई नहीं पायी जा सकती?’’

डॉ. सत्यप्रेमी ऐसा कहकर क्या संकेत देना चाहते हैं? सच पूछा जाये तो उनके या उन जैसे हिन्दी ग़ज़ल के पक्षधरों की कलई इसी बिन्दु पर आकर घुल जाती है। दरअसल ऐसे हिन्दीग़ज़ल के पक्षधर या विद्वान ग़ज़ल के नाम पर पाठकों को ऐसा बूड़ा-कचरा परोसना चाहते हैं, जिसे हिन्दी साहित्यकारों को आँख मूँदकर उनके गले उतारा जा सके। इसके पीछे छुपा स्वार्थ भानु प्रताप सिंह ‘भानु’ के शब्दों से पूरी तरह खुलकर सामने आ जाता है कि-‘‘उर्दू ग़ज़ल का ज्यों का त्यों अनुकरण हिन्दी कवियों को सफलता नहीं दे सकेगा। उर्दूग़ज़ल से भिन्नता होनी ही चाहिए अन्यथा हिन्दी और उर्दू ग़ज़ल में एक रूप होने से हिन्दीग़ज़ल का अस्तित्व पृथक् न रहेगा। दोनों भाषाओं की ग़ज़लों में एक विभाजन रेखा होना अत्यावश्यक है।’’

डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, श्री एस.एन. अहमद फारुख और श्री भानुप्रताप सिंह ‘भानु’ के इन निष्कर्षों के आधार पर आसानी से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ग़ज़ल के नाम पर एक बहुत बड़ी खाई हिन्दी और उर्दू के बीच खोदी जानी आवश्यक ही नहीं, परमावश्यक है। ऐसा करने पर ही हिन्दी ग़ज़ल का अस्तित्व कायम किया जा सकता है। हिन्दी में ग़ज़ल के अस्तित्व की रक्षा के लिये भले ही ग़ज़ल के चरित्र अर्थात आत्मा और शरीर [ नियम-उपनियम ] अर्थात् शिल्प की हत्या करनी पड़े, हिन्दी के ऐसे विद्वान ऐसा करने में चूकेंगे नहीं। ग़ज़ल की हत्या कर ग़ज़ल को प्राणवान घोषित करने की यह प्रक्रिया कितनी सार्थक और सारगर्भित है? इसका अनुमान बड़ी ही सहजता से लगाया जा सकता है। सच तो ये है कि हिन्दी ग़ज़ल के पक्ष में डॉ. सत्यप्रेमी का उक्त आलेख निर्जीव और आधारहीन सिद्धान्तों और तर्कों के सहारे खड़ा होने का प्रयास करता है। और यही वजह है कि अपनी लाख कोशिशों के बावजूद औंधे मुँह गिर पड़ता है। डॉ. सत्यप्रेमी लिखते हैं कि-‘‘ समकालीन हिन्दी ग़ज़ल पारम्परिक ग़ज़ल की काव्य रूढि़यों से मुक्त होने का प्रयास भी है तथा नये शिल्प एवं विषय का विकास भी इसमें परिलक्षित होता है।’’

डॉ. सत्यप्रेमी ने अगर थोड़े से तर्कों का भी सहारा लिया होता तो सबसे पहले परम्परागत ग़ज़ल की काव्य-रूढि़यों को बतलाते और इसके उपरांत हिंदी ग़ज़ल के उत्तरोत्तर विकास को समझाते। इस प्रकार परंपरागत ग़ज़ल की काव्य-रूढि़यों से मुक्ति पाने के प्रयास को पाठक आसानी से समझ लेते। लेकिन उन्होंने यह सब कुछ न समझाते हुए इन सवालों से पलायन करने में ही अपने समझदारी का परिचय दिया है। यह पलायन की प्रवृत्ति उन पर किस तरह हावी है इसका एक उदाहरण और प्रस्तुत है-

डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी फरमाते हैं-‘‘ हिन्दी ग़ज़ल के नामाकरण को लेकर भी इन दिनों विवाद की स्थिति निर्मित हो गयी है। डॉ. धनंजय वर्मा और डॉ. राजेन्द्र कुमार ने धर्मयुग ,16 नवम्बर 1980 में हिन्दी ग़ज़ल की सकारात्मक दृष्टि को कुंठित किया है और उर्दू और हिन्दी की भाषायी मामले को रेखांकित किया है। डॉ. राजेन्द्र कुमार ने हिन्दी ग़ज़ल की सार्थकता एवं औचित्य को बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से प्रतिपादित किया है।’’

यहाँ गौरतलब बात यह है कि डॉ. सत्यप्रेमी ने डॉ. वर्मा की बात को बिना कोई तर्क दिये हवा में उड़ाने की कोशिश की है। अगर डॉ. वर्मा को हिन्दी ग़ज़ल में साम्प्रदायिक बू महसूस हुई और उन्होंने हिन्दीग़ज़ल की सकारात्मक दृष्टि को कुंठित किया तो सत्यप्रेमी को यहाँ उनका पक्ष रखते हुए यह जरूर बताना चाहिए था कि हिन्दीग़ज़ल में ‘इन प्रमाणों’ के साथ कहा जा सकता है कि हिंदी ग़ज़ल में कोई साम्प्रदायिक बू नहीं है और डॉ. वर्मा ने ऐसे किया है हिन्दी ग़ज़ल की सकारात्मक दृष्टि को कुंठित। इसके साथ ही वह यह बताते कि हिन्दी ग़ज़ल की सकारात्मक दृष्टि क्या है? इन सब सवालों के जवाब न देकर, उन्होंने सीधे और सरल रास्ता इन सवालों से पलायन का अपनाते हुए डा. वर्मा की बात पाठकों या सुधीजनों की समक्ष न रखी। डॉ. राजेन्द्र कुमार के तथ्यों को ही सबके समक्ष रखने में अपनी वाहवाही समझी।’

डा. राजेन्द्र कुमार अपने लेख ‘हिन्दी ग़ज़ल कहना ही होगा’ में तर्क देते हैं-‘‘ अगर कोई ग़ज़ल को अपनी निजी परम्परा और निजी प्रतीकात्मक व्यंजना के नाम पर उसमें गुलो-बुलबुल, शमा-परवाना को यथावत बनाये रखने का हिमायती हो तब तो बेशक हिन्दी ग़ज़ल इस बात की गुनहगार है कि उसने इस परम्परा से हटकर अपने प्रयोग किये हैं लेकिन यह कहना कि ग़ज़ल की असली शक्ति तो उसकी कल्पनाशीलता और प्रतीकात्मकता में है, उसे ही ग़ज़लों ने छोड़ दिया है, ठीक नहीं है। छोड़ा है तो काल्पनिकता को छोड़ा है, कल्पनाशीलता को नहीं। अफसोस है कि कुछ लोग काल्पनिकता और कल्पनाशीलता के अंतर को, एक के मुकाबल दूसरे की महत्ता को महसूस करने से कतराते हैं। इसीलिये उन्हें ग़ज़ल की मूल प्रवृत्ति पर आघात होता नजर आता है।’’

अगर हम परम्परागत ग़ज़ल का ही विवेचन करें तो उसमें गुलो-बुलबुल, शमा-परवाना, साकी-शराब-मयखाना अपने अभिधात्मक, लक्षणात्मक, व्यंजनात्मक या प्रतीकात्मक रूप में प्रस्तुत हुए हैं। इसके अतिरिक्त भाषायी-विस्तार न हुआ हो, ऐसा कहना, सोचना, समझना, परम्परागत ग़ज़ल की परम्परा पर आँख मूँदकर बयान देने के अलावा कुछ नहीं। परम्परागत ग़ज़ल में वह सबकुछ भाषायी स्तर पर मौजूद है, जिसकी दुहाई परम्परागत ग़ज़ल को खारिज कर हिन्दीग़ज़ल की स्थापना को लालायित आज हिन्दी ग़ज़ल के पुरोधा दे रहे हैं। साथ ही यह बात भी दावे के साथ नहीं कहीं जा सकती है कि हिन्दी ग़ज़ल शमा परवाना, साकी-शराब, मयखाना, गुलो-बुलबुल से मुक्त हो गयी है। यदि इनके स्थान पर फूल, तितली, शलभ-लौ, मदिरा, मदिरालय, मेंहदी, अधर , चुम्बन, यौवन आदि ने ग्रहण कर भी लिया है तो यह कोई बहादुरी का कार्य इसलिये नहीं है क्योंकि इससे परम्परागत ग़ज़ल की न तो परम्परा टूट गयी है और न हिन्दी ग़ज़ल ने नये प्रतिमान स्थापित कर लिये हैं। बल्कि इससे तो परम्परा को हर प्रकार विस्तार ही मिला है। इस विस्तार को यदि हिन्दी ग़ज़ल कहकर प्रचारित किया जायेगा तो सोचना यह पड़ेगा कि उर्दू ग़ज़ल [ जिसे खुद हिन्दी वाले उछाल रहे हैं, उर्दू वाले नहीं ] क्या है? भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से तो उर्दू हिन्दी है’ ऐसे में हिन्दी-उर्दू का यह विवाद ग़ज़ल का विवाद न होकर भाषायी विवाद ज्यादा है। अगर भाषायी विवाद के आधार पर ही हमें विधाएँ या साहित्य को तय करना है, वह भी अवैज्ञानिक तरीके से, तो हम ऐसे आदरणीय विद्वानों से एक सवाल जरूर-यदि संज्ञा या संज्ञा विशेषणों मात्र के आधार पर ही कोई भाषा अपना भाषिक आधार खड़ा कर लेती है, भाषा के लिये यदि शब्दावली ही प्रमुख है तो हिन्दी में रेल, इन्जन, पिन, आलपिन, जंगल, टायर, ट्यूब, पंचर, बल्ब, होल्डर, साईकिल, स्टेशन आदि का विकल्प क्या है? ऐसे शब्दों का हिन्दी के सर्वनामों, क्रियाओं आदि के साथ बहुतायत से प्रयोग करने पर क्या ग़ज़ल हिन्दी की जगह ‘अंग्रेजी ग़ज़ल’ हो जायेगी?

बात आती है इन्हीं शब्दों के प्रतीकात्मक, व्यंजनात्मक प्रयोग के संदर्भ में तो डॉ. राजेन्द्र कुमार का यह कथन कि-‘‘ परम्परागत ग़ज़लें शमा-परवाना, गुलो-बुलबुल तक ही सीमित रही हैं और हिन्दी ग़ज़ल इस सीमा को तोड़कर बाहर खड़ी है?’’ यह धारणा ग़लत इसलिये है क्योंकि ग़ज़ल के इस प्रणयात्मक रूप का हिन्दी में आज भी प्रचलन खूब जोरों पर है। ज्यादा दूर न जायें तो इसका प्रमाण पंकज उदास, अनूप जलोटा जैसे ग़ज़ल-गायकों और सरिता, सुषमा आदि में छपने वाली गजलों तथा स्वयं ‘प्रसंगवश’ का यह हिन्दी ग़ज़ल विशेषांक इसका प्रमाण है। यह तो डॉ. राजेन्द्र कुमार खुद स्वीकारते हैं कि ग़ज़ल की तरह हिन्दीग़ज़ल में भी प्रतीकात्मकता और कल्पनाशीलता के तत्व विद्यमान हैं, बस छोड़ा है तो काल्पनिकता को। प्रश्न यह है कि हिन्दी में जो ग़ज़लें लिखी जा रही हैं, जब तक उनमें रूमानी संस्कार विद्यमान हैं, तब तक यह दावे के साथ कैसे कहा जा सकता है कि उसने काल्पनिकता से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया है?

अगर यह मान भी लिया जाये कि ग़ज़ल हिन्दी में आकर अपने परम्परागत संस्कारों से कटकर गुलो-बुलबुल की दास्तान नहीं रही है। डॉ. सत्यप्रेमी के अनुसार ‘अब इसमें अनास्था, निराशा, ऊब के साथ-साथ आक्रोश, विद्रोह और प्रतिकार के स्वर मुखर हो रहे हैं।’’

डॉ. महावीर के मत से-‘‘इसका सम्बन्ध इश्क और व्यक्तिगत भावों में न होकर सामाजिक जीवन की विसंगतियों से है।’’

प्रो.वी.एल. आच्छा की नजर में-‘‘हिन्दी ग़ज़ल ने उस मुहावरे को पकड़ने की पहल की है, जिसके केन्द्र में समकालीन जीवन के दर्दीले परिदृश्य हैं।’’

इन सब बातों का औचित्य तभी सिद्ध किया जा सकता है, जबकि मूल कृति और उसका चरित्र क्या है और परिवर्तन के बाद उस मूल कृति ने जो नया रूप या चरित्र ग्रहण किया है उसके अनुरूप उसका परम्परागत नाम या विशेषण उसे सार्थकता प्रदान करता है, अथवा नहीं? इस संदर्भ में अगर ग़ज़ल ने हिन्दी में आकर अपने परम्परावादी चरित्र को त्याग दिया है, वह साकी, प्रेयसी, नृत्यांगना [ कुल मिलाकर एक भोगविलासी औरत ] की जगह अब ऐसी औरत की भूमिका निभा रही है, जिसे हर प्रकार से राष्ट्रीय, सामाजिक, पारिवारिक दायित्वों का बोध है, तब प्रश्न यह है कि क्या हम उसे अब भी ‘भोगविलासी औरत’ कहकर पुकारें या इस चरित्र के अनुरूप उसे कोई नया नाम दें? इसी केन्द्र बिन्दु से इसी केन्द्र बिन्दु तक सारी की सारी बहस शुरू की जानी चाहिये। बहस के इस बिन्दु पर आकर हिन्दी ग़ज़ल के प्रवर्तकों , उद्घोषकों, पक्षधरों की सारी की सारी चिन्तनप्रक्रिया को लकवा क्यों मार जाता है? हिन्दी ग़ज़ल का राग अलापने वाले जब तक इस तरह की बहस में शरीक नहीं होंगे, तब तक ग़ज़ल में न तो हिन्दी तय की जा सकेगी और न हिन्दी में ग़ज़ल।

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तेवरी-आन्दोलन के प्रथम तेवरी-संग्रह-

‘ अभी जुबां कटी नहीं ‘ की भूमिका

- रमेशराज

आदि काल से शोषक वर्ग आम आदमी को लूटता, आम की तरह चूसता रहा है और यह शोषण का सिलसिला आज तक जारी है। शोषक वर्ग ने अपने को सुरक्षित रखने, वर्ग

विस्तार करने, अपना प्रभुत्व स्थापित करने, सुविधाएँ ऐशोआराम भोगने, सत्ता छिनने के खतरे से बचने, बाजीगरों की तरह चालाकी के साथ जनता की जेबें कतरने, अपने गोदामों को सोने-चाँदी से भरने, आदमी को नपुंसक, नाकारा, भाग्यवादी बनाने तथा शोषण को स्थायित्व देने के लिये, आम आदमी के खिलाफ एक षड्यन्त्र रचा, जिसका नाम था कथित धर्म, जिसका नाम था कथित ईश्वर।

इस षड्यन्त्र की नींव पड़ी वैदिक काल में और फिर धीरे-धीरे साम्राज्यवादी शक्तियाँ अपना प्रभुत्व जमाती चली गयीं। इस शक्तियों ने अपने को और ज्यादा शक्तिशाली बनाने के लिये कथित धर्मग्रन्थों का योजनाबद्ध तरीके से सृजन कराया और उसे जनता को अफीम की तरह चटा दिया, ताकि वह विचारलुंज, भाग्यवादी, अन्धविश्वासी होकर, हाथ पर हाथ रखकर सिर्फ अच्छे दिनों का इन्तजार करती रहे। पूर्वजन्म के पापों का प्रायाश्चित करती रहे। दूसरी तरफ राजा महलों में सुरासुन्दरी का स्वाद चखते रहें। जनता की खून-पसीने की कमाई खजाने में भरते रहें।

सम्राटों, सामन्तों की काली करतूतों, जनविरोधी नीतियों, अय्याशियों, साजिशों का पर्दापफाश न हो जाये, इसके लिये उन्होंने तत्कालीन कवियों को राजाश्रय देकर भाटों में तब्दील कर दिया, ताकि वे जनता के सामने सच्चाइयाँ न उगल कर सिर्फ ऐसे साहित्य का सृजन करें, जिससे साम्राज्यवादी शक्तियों को पुष्टिकरण मिले। कवियों की एक पूरी की पूरी जमात कुछ इसी तरह की साजिशों में संलग्न रही। जिसके परिणाम स्वरूप आम आदमी ‘होगा वही राम रचि राखा’, ‘सबहिं नचावत राम गुंसाई’, ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल’ जैसे अन्धविश्वासों की अफीम लगातार चाटता चला गया। पूर्वजन्म के पाप की धारणाएँ, दैवीय मान्यताएँ शोषकों को शोषण के लिये खुली छूट देती चली गयीं।

खैर.. यह बात थी उस समय के साहित्यकारों की। आधुनिक साहित्य की भी लगभग यह स्थिति रही है। कुछेक अपवादों को छोड़कर आज भी साहित्यकार सरकार की जीहूजुरी कर रहे हैं। इनाम पा रहे हैं। पुरस्कारों, उपाधियों से अलंकृत हो रहे हैं, पाठ्य-पुस्तकों में स्थान पा रहे हैं और ऐसे साहित्य का सृजन कर रहे हैं, जो जनघातक ही नहीं, जनहिंसक भी है।

जब भी साहित्य सामाजिक संदर्भों, हितों से हटकर या कटकर लिखा जाता है, वह अधिकांशतः सामाजिक अहित ही नहीं करता, सत्ताधारियों, जनविरोधियों की काली करतूतों पर पर्दा भी डालता है। आज की तथाकथित महान कविता के प्रवृत्तकों में चाहे छायावादी युगीन कवि हों या प्रतीकात्मक नयी कविता के जनक, सब के सब सत्ता की थैली के चट्टे-बट्टे रहे हैं, जिन्होंने साफगोई के खतरे न उठाकर सिर्फ पदक बटोरे, जमूरों वाली शैली अपनाकर सत्ता के बाजीगरों की जीहुजूरी की।

ऐसे साहित्य के साथ-साथ हर युग में एक ऐसे साहित्य का भी सृजन हुआ जो जनहितकारी था। कुसत्ताद्रोही था, जिसमें अभिव्यक्ति के खतरे उठाये गये थे। ‘कबीर’, महाप्राण ‘निराला’, धूमिल’, दिनकर, ‘नागार्जुन’ आदि-आदि कुछ ऐसे नाम हैं, जिन्होंने जनविरोधी शक्तियों के खिलाफ कान्ति की एक अमर मशाल जलाई। उसी मशाल को लेकर हम भी ‘तेवरी’ के माध्यम से शोषक, जनद्रोही प्रवृत्तियों के खिलाफ एक आन्दोलन, एक जनक्रान्ति, एक संघर्ष की शुरूआत कर रहे हैं। शोषित, सर्वहारा वर्ग के भीतर छुपी हुई विद्रोह की आग को तलाश रहे हैं। आदमी को आदमखोरों के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं।

इस भूमिका को पढ़ते-पढ़ते पाठक मन पर एक प्रश्न उभरना स्वाभाविक है-‘ आखिर ये ‘तेवरी’ है क्या’? इसे समझाने के लिये हम अपनी बात ग़ज़ल से शुरू कर रहे हैं। ग़ज़ल का अर्थ है- ‘प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत’। सामान्ती युग में राजा-महाराजाओं को खुश करने के लिये उर्दू शायर ग़ज़लों में औरत के जिस्म की खूबियाँ बखान कर राजमहलों में महफिलों की रौनक बढ़ाया करते थे, अशर्फियाँ बटोरा करते थे। कुल मिलाकर ग़ज़ल एय्याशों के लिए एक मनोरन्जन का साधन थी। साथ ही शायरों की रोजी-रोटी, धन-दौलत लूटने की एक चाटुकारी प्रवृत्ति। कहने का मतलब यह है, इसका आम आदमी की समस्याओं, सामाजिक यथार्थ या जनहित से कोई वास्ता नहीं था। इसी कारण यह विधा नंगी जाँघों के जंगल में भटक कर रह गई, जिसमें सुर्ख गालों पर चुटकियाँ थी। मख्मूर आँखों की मदिरा थी, बाँहों के झूले थे, शोखी थी, नजाकत थी। कुल मिलाकर आदमी को पथभ्रष्ट करने का पूरा साजो-सामान थी ग़ज़ल।

लेकिन उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अंग्रेजों के भारतीयों पर अत्याचारों, दमन, शोषण, कुशासन ने ग़ज़ल के तेवर बदलने शुरू कर दिये और यही से हुआ ‘तेवरी’ का जन्म, जिसने अंग्रेजों के खिलाफ, एक संघर्ष, एक इन्कलाब, एक व्रिदोह, एक जनचेतना की शुरुआत की। क्रांतिकारी ‘रामप्रसाद बिस्मिल’ की कथित ग़ज़लें कुछ इसी प्रकार की थीं, जिनसे तेवरीपन की एक बारूदी बू आती है-

‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है

देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है।।

इसके बाद तेवरी अनेक हाथों में पलकर बड़ी होती गई। स्व. दुष्यन्त कुमार ने तो आपातकाल में तेवरी के सीने में तिलमिलाते विद्रोह के ज्वालामुखी भर दिये। उसके हाथों में शब्दों के डाइनामाइट थमा दिये।

तेवरी जन्म के बाद लगातार जवान तो होती गई, लेकिन हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य यह रहा कि इसके नामकरण की आवश्यकता किसी भी कवि ने नहीं महसूसी। पाँच-छह दशक गुमनामी की जीवन जीते-जीते नवें दशक में इसका नामकरण हुआ ‘तेवरी’। इस सदर्भ में डॉ. देवराज एवं डॉ. ऋभदेव शर्मा ‘देवराज’ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय माना जा सकता है।

यह सत्य है कि तेवरी की जननी ग़ज़ल है और इसी कारण इसके बहुत से गुण जैसे छन्द, शिल्प आदि बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं। लेकिन यदि सन्तान को भी माँ के नाम से पुकारा जाये, यह कहाँ तक उचित है? या हम अपनी बात यूँ स्पष्ट करें, यदि एक विषभरी शीशी को खाली करके उसमें अमृत भर दिया जाये, मगर उसके ऊपर से विष का लेबल न छुड़ाया जाये, ऐसे में क्या लोग इस अमृत को अमृत का मानसिकता के साथ गले उतार सकेंगे? क्या उन्हें अमृत भी जहर नहीं दिखाई देगा? उत्तर स्पष्ट है-‘हां’। कुछ इसी तरह की दुर्गति ग़ज़ल के साथ जुड़ी हुई है। इसी कारण ग़ज़ल और तेवरी की स्पष्ट व अलग-अलग पहचान कराना नितान्त आवश्यक हो गया है।

तेवरी जिस जमीन पर पैदा हुयी, खड़ी हुयी, बड़ी हुयी-वह खुरदरी, पथरीली, कँटीली, विषमताओं, संत्रास, शोषण, घुटन, कुंठाओं की त्रासद पगडंडियों से भरी हुयी है, जहाँ पक्षियों का शोर सुनायी नहीं देता, नदियाँ कल-कल नहीं करतीं। फूल नहीं खिलते। वसन्त नहीं आता | बल्कि आदमी को खाकी बर्दियाँ बूटों से कुचलती हैं, टोपियाँ माँ-बहिनों की इज्जत पर डाके डालती हैं। बन्दूकें आग उगलती हैं। मजदूर का शोषण होता है। शोषक तोदें फुलाते हैं। मूछों पर ताव देते हैं। सुविधा के नाम पर आदमी की आँतों में भूख की आरी चलती है। तस्करी, राहजनी, लूटा-खसोटी होती है। पर सत्ता के कान पर ऐसी खबरों की जूँ तक नहीं रेंगती। बल्कि विधायक, सांसद स्वयं डकैतों, भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देते हैं। वसंत के नाम पर झूठे वादों की नागफनी के जंगल में भरमाते हैं। खुशबू के नाम पर सडाँध दे जाते हैं।

तेवरी इस जमीन पर खड़ी होकर आदमी के खिलाफ हो रही साजिशों से आँखें नहीं मूँदती। यातनाओं, अत्याचारों, त्रासदियों, हादसों से भरे रास्तों से कतरा कर नहीं चलती। बल्कि वह जंगलों को काटती-छाँटती हुयी आगे बढ़ती है। शोषक प्रवृत्तियों के खिलाफ जनचेतना लाती है। संघर्ष की बात कहती है। देखा जाये तो तेवरी आदमी की जि़न्दगी में घुली तल्खियत का एक ऐसा ब्यौरा है, जो पढ़ने या सुनने के बाद विचार और चिंतन के ऐसे बिन्दु पर ले जाता है, जहाँ से साजिशियों के खिलाफ आक्रोश की कुल्हाडि़याँ उछालना आवश्यक हो जाता है।

जबकि ग़ज़ल आरम्भ से लेकर अब तक मात्र एय्यायाशों, सामन्तों को खुश या पुष्ट करती रही है। अपना खूबसूरत जिस्म दिखाकर रिझाती रही है। काँच की हवेलियों में पायल खनकाती रही है। उसने कभी भी फुटपाथ पर झौंपड़ी की जि़न्दगी की तरफ झाँककर नहीं देखा और अगर वहाँ आयी भी है तो नंगी जाँघों का भूगोल पढ़ा गयी है। यही वजह है, तेवरी अपनी माँ ग़ज़ल से व्यवहार से लेकर चालचलन तक एक दम भिन्न है। उसके एक-एक शब्द में चाकू जैसी मार है। अन्धविश्वासों, सामाजिक विसंगतियों, विकृतियों, रूढि़यों, कुआस्था, गन्दी राजनीतिक चालों के खिलाफ आक्रोश है, विद्रोह है, आक्रामकता है, बारुद जैसा विस्पफोटक है, ब्लैड जैसी धार है, जो तन मन को आन्दोलित करती चली जाती है।

तेवरी गुस्सैल, आक्रामक, जुझारू, संघर्षशील अवश्य है, लेकिन वह अनुशासनप्रिय है और ऐसा कोई रास्ता अख्तियार नहीं करती, जो गलत हो, भ्रामक हो, विध्वंसक हो। तेवरी व्यर्थ का रक्तपात भी नहीं चाहती है। वह आदमी के लिये सुख-सुविधा माँगती है। जर्द चेहरों की खुशहाली चाहती है, भूखे को रोटी की माँग करती है, ठन्डाये चूल्हे को आग, दाल-भात माँगती है। लेकिन इसके लिये सरकारी सम्पत्ति का विनाश नहीं करवाना चाहती, बसें नहीं तुड़वाना चाहती। तेवरी लड़ाई तो लड़ती है, क्रान्ति तो करती है लेकिन हक की, शांति की, अहिंसा की। वह गुस्से को सार्थक सृजन में लगाती है, आदमी को आदमी बनाती है।

आज जबकि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक भयंकर उथल-पुथल शुरू हो गयी है। शोषक और शोषित का एक तीखा वर्गसंघर्ष संक्रामक रोग की तरह पनप रहा है, स्थापितों और विस्थापितों के राजनीतिक हथकंडे आदमी को एक तल्खियत से सराबोर कर रहे हैं। आदमी कुंठा, घुटन, संत्रास उत्पीड़न से पनपे आक्रोश को अपने भीतर कोढ़-सा महसूस रहा है। एक सडाँधभरी व्यवस्था में हम सब जिये चले जा रहे हैं। एक दिशाहीनता हम सब पर हावी होती चली जा रही है। नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक मूल्य टूट रहे हैं। आदमी को पूर्वजों से विरासत में मिले धार्मिक अंधविश्वास धर्म के ठेकेदारों के लिये शोषण, तस्करी, लूटाखसोटी के साधन बने हुये हैं। ईश्वर के नाम पर चकले चल रहे हैं। भ्रष्टाचार हो रहा है। शासक जनद्रोही हो गये हैं। समाजवाद की अच्छीखासी घोषणाओं के बावजूद आज़ादी के इन विगत सालों में समाजवाद न आ सका, जन खुशहाली न आ सकी। आजादी का अर्थ सिर्फ नौकरशाहों, भ्रष्टाचारियों, नेताओं के टुच्चे भाषण देने, जनता का पैसा डकारने, जनविरोधी विधेयक लाने, साम्प्रदायिक दंगे भड़काने, पुलिस द्वारा महिलाओं की इज्जत लूटने-लुटवाने, लाठीचार्ज कराने, तस्करी करने, गरीबी उन्मूलन के नारे देकर पूंजीवाद को बढ़ावा देने, कालाधन कमाने और कमवाने की आज़ादी बनकर रह गया, जिससे न सिर्फ सामाजिक मूल्य टूटे हैं, बल्कि वीभत्स-घिनौने होते चले गये। स्वार्थों के कुंड में स्वाहा होते चले गये। आदमी, आदमी न रहकर शैतान बन गया। ऐसे में प्रस्तुत संग्रह ‘अभी जुबां कटी नहीं’ के तेवरीकारों की तेवरियाँ जनविरोधी प्रवृत्तियों को बेनकाब ही नहीं करेंगी, उन्हें चौराहे पर घसीट कर उनकी असलियत भी खोलेंगी, साथ ही पाठकवर्ग को उनकी त्रासद स्थितियों से साक्षात्कार कराते हुये किसी हल की ओर मोड़ेंगी, ऐसा विश्वास है।

[ तेवरी-संग्रह ‘अभी जुबां कटी नहीं’ की भूमिका ]

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तेवरी-आन्दोलन के दूसरे तेवरी-संग्रह-

‘ इतिहास घायल है ‘ की भूमिका

+रमेशराज

यदि सामाजिक-परिवर्तन या घटनाक्रम को यथार्थवादी दृष्टिकोणों से जोड़कर मूल्यांकित किया जाये तो इतिहास के उस नेपथ्य की भी जानकारी होने लगती है, जहाँ जन-सेवी या समाजवादी व्यक्तित्व बदसूरत ही नहीं लगते, बल्कि एक ऐसे कुकृत्य में लिप्त पाये जाते हैं, जिसे जन-द्रोहिता कहा जाता है। इस संदर्भ में यदि हम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम और उसके बाद के इतिहास के नेपथ्य का अवलोकन करें तो पायेंगे कि अराजकता, शोषण और अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने वाले ही अनेक व्यक्तियों ने नेपथ्य से आम आदमी की पीठ में एक ऐसा छुरा घोंपा, जो दिखायी तो नहीं दिया किन्तु उसकी मार इतनी तीखी और विशाल थी कि उससे अप्रभावित हुए बिना कोई भी नहीं रह सका। शान्ति और अहिंसा के पुजारियों ने समूची मानवता की हिंसा की।

कमाल तो यह है कि नेपथ्य के षड्यंत्रकारी जब मंच पर हावी हुए तो उन्होंने मंच से सही और ईमानदार नेतृत्वकर्ताओं को धक्का ही नहीं दिया बल्कि उन्हें एक ऐसी स्थिति में लाकर पटक दिया जहाँ से उनकी आवाज एक पागलपन समझी जाने लगी। ऐसी त्रासद स्थितियाँ हमारे उन क्रान्तिकारियों ने भोगीं जो सच्चे अर्थों में जनता के हितैषी थे। ऐसे लोगों को उग्रवादी करार देने वाले वही लोग थे जो अंग्रेजों और भारतीय पूँजीपतियों के बीच दलालों की भूमिका निभा रहे थे। उसी दलाली के फलस्वरूप भारत में स्वतन्त्रता आम वर्ग को न मिलकर एक ऐसे वर्ग को मिली जिसका उद्देश्य शान्ति और अहिंसा के थोथे नारों के बल पर सत्ता हथियाना ही नहीं बल्कि जन सामान्य के मुँह का दाना और तन का कपड़ा छीनकर चन्द लोगों की सुख-सुविधा का साधन बनाना था। देश को एक ऐसी अराजक और भ्रष्ट अवस्था में ले जाना था, जिसमें खास वर्ग की तरह सामान्य वर्ग का भी इतना चारित्रिक पतन हो जाये कि कोई किसी पर अँगुली न उठा सके। ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ की परम्परा स्वतन्त्रता के बाद जन-सामान्य में इतनी फली-फूली कि शोषक और शोषित में अन्तर करना उतना ही मुश्किल हो गया है जितना कि इतिहास के नेपथ्य को समझना।

भारतीय स्वतन्त्रता के बाद जिन नेताओं ने भारत का नेतृत्व सम्हाला, उन्होंने लोकतन्त्र का इस्तेमाल लोकहित में न करके, सत्ता और नौकरशाही प्रवृत्तियों के नरभझी पौधों को पालने-पोसने में किया। परिणामस्वरूप समूची तंत्र-व्यवस्था शोषक, आदमखोर, अत्याचारी होती चली गयी।

शासक वर्ग ने सत्ता-स्थायित्व, अहंतुष्टि और कोरी वाहवाही लूटने के लिये ऐसे हथकन्डे अपनाने शुरू किये जो आम जनता को असहाय, पीडि़त और दरिद्र बनाने के साथ-साथ चरित्रहीनता की ओर धकेलते चले गये। सुविधा और विलासता की ललक के शिकार लोग अपनी स्वार्थ-पूति के लिये देश के साथ साम्प्रदायिकता, अलगाव, तस्करी, डकैती, बलात्कार, संगठित विद्रोह और भ्रष्टता की बेहूदी भूमिका निभाने लगे। उनकी इन करतूतों पर कोई उँगली न उठा सके, इसके लिये उन्होंने गांधीवाद का सहारा लिया। भारत के इतिहास में जिस तरह के व्यभिचार की जडे़ं धर्म के नाम पर पनपीं, ठीक उसी तरह का व्यभिचार गांधी के नाम पर विकसित हुआ।

शाषक वर्ग ने शिक्षा की उन्नति से धार्मिक अन्ध विश्वासों के पतन को देखते हुए जनता की मानसिकता को पुनः लुंज और गुमराह करने के लिये अपरोक्ष रूप से हिंसा और सेक्स प्रधान फिल्मों तथा घटिया उपन्यासों और अपराध् कथाओं को बढ़ावा इसलिये दिया ताकि आदमी सत्ता की करतूतों पर केन्द्रित होकर व्यवस्था परिवर्तन की माँग की रट लगाने के बजाय समाज के उन अंगों पर ही प्रहार करे जो उसके अपने हैं, क्योंकि शासक वर्ग को आजादी के बाद सबसे बड़ा खतरा जन-समर्थक पत्रकारिता और साहित्य से ही दिखाई दिया, जो गलत राजनीति की ओर संकेत-भर ही नहीं, बल्कि समाजवादी मान्यताओं को स्थापित करने के लिये एक संकल्प भी था, या है।

जनसमर्थक साहित्य के समानान्तर अश्लील साहित्य को स्थापित करने की साजिश के परिणामस्वरूप सामाजिक मूल्य और लगाव में कमी ही नहीं आयी बल्कि सेक्स, हिंसा, बलात्कार, व्यभिचार की घटनाओं में बढ़ोत्तरी होने लगी। समाज ‘सोच’ के धरातल पर अपने स्वार्थों की अंधी दौड़ में एक दूसरे को टंगी मारकर आगे बढ़ने लगा। दूसरी तरफ सत्ता का अपराधीकरण इसलिये किया गया ताकि गुण्डा-संस्कृति के बल पर आतंक और भय फैलाकर सत्ता को सुरक्षित रखा जा सके। कुल मिलाकर आज हमारा देश इस स्थिति में आ पहुँचा है कि गुण्डा-संस्कृति के बीच न तो जनता सुरक्षित है और न कोई राजनेता।

ऐसे में प्रस्तुत तेवरी संग्रह ‘इतिहास घायल है’ यदि शासक वर्ग के नेपथ्य को नंगा करने तथा समाजघाती तिलिस्मों को तोड़ने में थोड़ा बहुत भी सहायक होता है तो निस्संदेह यह हमारी उन मान्यताओं की सफलता रहेगी जो अन्ततः मानवीय मूल्यों से जुड़ती है।

[ ‘इतिहास घायल है’ तेवरी-संग्रह की भूमिका ]

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तेवरी-आन्दोलन के तीसरे तेवरी-संग्रह-

‘ कबीर ज़िन्दा है ‘ की भूमिका

+रमेशराज

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इतिहास गवाह है कविता का जब भी शोषक, जनविरोधी शक्तियों के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल हुआ है, भाषा में बारूद भरी गयी है तो उससे आदमखोरों के भीतर गुर्राता हुआ भेडि़यापन शब्दों की गोलियों से छलनी होकर सरे-आम दम तोड़ने लगा है।

इतिहास गवाह है, कविता जब-जब भी सामाजिक यथार्थ से कतराकर चली है, ईश्वर और मोक्ष के छद्मता से भरे रास्तों पर अध्यात्म के जंगल में भटकी है या एक अजीब स्वप्नलोक में विचरी है, तब-तब आम जनता की गर्दन पर पूँजीवादी ढाँचे के शोषण की तलवारें भरभरा कर टूटी हैं।

इतिहास गवाह है, कथित भारतीय स्वतन्त्रता के विगत वर्षों में पूँजीवादी शोषक व्यवस्था ने जिस तरह अपनी जड़ें जमायी हैं, गलत और भ्रष्ट मूल्यों ने आदमी के चरित्र में जिस तरह घुसपैंठ की है, धर्म, सुधार, योजना-परियोजना के नाम पर जिस तरह साजिशियों ने एक धोखे-भरा खेल खेला है, सत्ताधारी बहेलियों ने आपातकाल के दौरान जिस तरह अनुशासन, देशहित के कार्यक्रम के सब्जबाग दिखाकर जनतन्त्र की हत्या की है, उस कटुयार्थ को कविता ने देखा ही नहीं, भोगा ही नहीं, अपने सीने पर तलवार की तरह झेला भी है। यही कारण है कि स्वतन्त्रता के बाद कविता जझारू, संघर्षशील, आक्रामक होती चली गयी। उसमें एक ऐसी वैचारिक उग्रता भर गयी है, जिसमें इस कुव्यवस्था के खिलाफ कुछ कर गुजरने की ललक है।

तेवरी समकालीन कविता का एक ऐसा ही काव्य-रूप है, जिसके एक-एक तेवर में शोषितवर्ग की पूँजीवादी, सत्ताधारी वर्ग के खिलाफ सक्रिय मोर्चेबन्दी है।

तेवरी ने समकालीन व्यवस्था से संत्रस्त पात्रों की क्षोभातुर भावनाओं को रोमांसवादी तरीकों से बहलाकर शांत करने की कोशिश नहीं की, बल्कि उन्हें आक्रोश, एक आंदोलन, एक संघर्ष की मुद्रा में बदलने का प्रयास किया है।

तेवरी भयंकर हताशा के घटाटोप अंधेरे के बीच मजदूर के हाथ में लगी हुई लालटेन की तरह हमारे बीच आयी है, जिससे सही मार्ग की ओर कदम बढ़ सकें।

तेवरी मखमली गद्दों, आलीशान कोठियों से ऊब रही कविता को एक ऐसी बस्ती में ले आयी है, जहाँ कड़वे अनुभवों के इर्दगिर्द जीने की विवशता है। चेहरे की हँसी के पीछे दुःखद अर्थों की भरमार है।

तेवरी भूख, गरीबी, दमन, अन्याय के प्रति चुप्पी साधे हुए लोगों को उनके अधिकारों की खातिर लड़ाई लड़े जाने के लिए पुकारती ही नहीं, उन्हें एक ऐसे सोच के धरातल पर भी एकत्रित करती है, जहाँ आदमखोरों के चेहरे से आदर्शवादिता, जनसेवा, मानवता के घिनौने नकाब प्याज के छिलकों की तरह उचलने लगते हैं।

तेवरी पूँजीवादी व्यवस्था के पिंजरे में कैद शोषित वर्ग के सपनों को मुक्त कराने के लिये शब्दों का आरी की तरह इस्तेमाल करती है ताकि आम आदमी शोषण-मुक्त आकाश के तले चैन की साँस ले सके।

तेवरी अत्याचारियों को घेरे हुए भीड़ के बीच गुस्से से तनी हुई एक ऐसी मुट्ठी है जिसके भीतर यातना व अन्यायमुक्त समाज के सुखद संकेतों की शुरुआत है।

तेवरी खोखली और बुर्जुआ मानसिकता की किलेबन्दी तोड़ने के लिये जूझती है, थकती है, टूटती है, लेकिन लगातार प्रहार करती है।

तेवरी धर्म की अफीम में धुत पड़े हुए समाज की लुंज आत्मा में साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा थोपे गये अन्ध विश्वासों को जड़ से उखाड़ कर फैंक देने के लिये हल की तरह भीतर तक धंसती है और यथार्थ की जमीन को उर्वरा बनाकर उसमें सही मूल्यों, संस्कारों, संस्कृति के बीज बोती है।

तेवरी गालिब, मजाज, दाग, मीर आदि की ग़ज़लों की तरह अपने आस-पास के परिवेश से अनभिज्ञ कलात्मक सुरुचियों की पहचान नहीं बनाती। वह तो कबीर की कविता की तरह आम आदमी के घर-घर यात्रा करती है। उसके दुःख-दर्द में सहभोगा बनती है। हर स्तर पर पराजय का मुँह देखने वाली जनता को संघर्ष लड़ाई और क्रान्ति के लिये प्रेरित करती है। तेवरी संग्रह ‘‘कबीर जि़दा है’ की तेवरियां कुछ इसी प्रकार की हैं।

[ ‘कबीर जि़ंदा है’ तेवरी-संग्रह की भूमिका ]

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हिन्दी में ग़ज़ल की औसत शक़्ल?

+रमेशराज

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ग़ज़ल के ग़ज़लपन को विभिन्न दोषों के आघात से बचाने के लिये डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल अपनी सम्पादित पुस्तक ‘हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ ग़ज़लें’ की भूमिका में लिखते हैं कि-‘‘बात ध्यान देने की है कि क़ाफिये [तुक] में अधिक बल स्वरों की समानता पर दिया गया है। जैसे-‘बदन’ का ‘दन’ और ‘चमन’ का ‘मन’ समान स्वर है, जबकि ‘दिन’ और ‘गिन’ उससे भिन्न हो गये। इसी प्रकार ‘जलना’, ‘मलना’, ‘ढलना’ एक समान क़ाफिये हो सकते हैं, पर इनके साथ ‘हिलना’, ‘मिलना’, का प्रयोग वर्जित है। कुछ अन्य तुकों पर भी दृष्टि डालें तो ‘आकाश’ का क़ाफिया ‘विश्वास’ नहीं हो सकता, क्योंकि ‘श’ और ‘स’ की ध्वनियाँ भिन्न हैं। ‘आई’, ‘खाई’, के साथ ‘परछाईं’, ‘साईं’ या ‘राख’ के साथ ‘आग’ और ‘नाग’ अथवा ‘शाम’, ‘नाम’, ‘काम’ के साथ ‘आन’, ‘वाण’, ‘प्राण’ तथा ‘हवा’ के साथ ‘धुआँ’ क़ाफिया का प्रयोग निषिद्ध है।’’

वे आगे लिखते हैं कि-‘‘यदि मतले में ‘जलना’ का क़ाफिया ‘ऐसा’ से बाँध गया है तो वह अन्त तक ‘आ’ की पेरवी करेगा। यदि मतले में ‘जलना’ का क़ाफिया ‘गलना’ बाँध दिया है तो इसी की पाबंदी पर ‘छलना’, ‘ढलना’, ‘पलना’ आदि का प्रयोग करना होगा।’’

हिन्दी ग़ज़ल के पितामह दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों में आये दोषों पर वे टिप्पणी देते हैं कि-‘‘हो गयी है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए’’ नामक ग़ज़ल में ‘पिघलनी’ ‘निकलनी’ का क़ाफिया ‘हिलनी’ तुक से मिलाने का प्रयोग उचित नहीं है। एक अन्य ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार ने ‘नारे’, ‘तारे’ के साथ ‘पतवारें’, ‘तलवारें’, ‘दीवारें’, क़ाफियों का प्रयोग किया है। इसमें अनुनासिकता के कारण स्वर की भिन्नता हो गयी है, अतः इन क़ाफियों को स्वीकार नहीं किया जा सकता।’’

हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ ग़ज़लों को प्रस्तुत करने से पहले ग़ज़ल के शास्त्रीय पक्ष पर की गयी यह चर्चा इसलिए सार्थक है क्योंकि ऐसे ही नियमों-उपनियमों के द्वारा ग़ज़ल का ग़ज़लपन तय होता है। ग़ज़ल में रदीफ़-क़ाफियों की शुद्ध व्यवस्था का प्रावधान ग़ज़ल की जान होता है। लेकिन डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल की इन बातों की सार्थकता का तब क्या औचित्य रह जाता है, जब वे इसी पुस्तक की पृ. संख्या-59 पर अपनी एक ग़ज़ल में ‘आहों’,‘निगाहों’ की तुक ‘बाँहों’ से मिलाते हैं और ‘आहों’ क़ाफिए को इस ग़ज़ल के अगले शे’र की ‘निगाहों’ से एक अन्य शे’र की ‘निगाहों’ को अड़ाते हैं। इन्ही क़ाफियों के क्रम में वे ‘गुनाहों और ‘पनाहों’ क़ाफिये भी लाते हैं। ये ग़ज़ल की व्याख्याओं, व्यवस्थाओं और सृजन के बीच कैसे नाते हैं, जो स्वराघात, स्वरापात और अनुनासिक स्वर-भिन्न्ता के बावजूद हिन्दीग़ज़ल बन जाते हैं।

हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ ग़ज़लें कितनी [ श्रेष्ठ ही नहीं ] सर्वश्रेष्ठ हैं, आइये इसका भी जायजा लें-

श्री आत्मप्रकाश शुक्ल पृ. 25 पर ‘शयन’, ‘नयन’, ‘हवन’ के बीच तीन बार ‘मन’ क़ाफिया लाकर ‘अध्ययन’ करते हैं और इस प्रकार ‘मन’ में ‘यन’ की तुकावृत्ति के माध्यम से ग़ज़ल के भीतर हिन्दीग़ज़ल का स्वरालोक भरते हैं।

डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल की ही तरह हिन्दीग़ज़ल के महान उपदेशक, विवेचनकर्त्ता , डॉ. उर्मिलेश ‘मरता नहीं तो क्या करता’ की विवशता लादे हुए इसी संग्रह के पृ. 30 पर मतला के ‘दरबार’ में ‘हार’ कर ‘अंधियार’ का ‘त्यौहार’ मनाते हुए, हिन्दीग़ज़ल का ऐसा ‘उपहार’ देते हैं, जिसका ‘सत्कार’ तीन बार ‘हार’ के रूप में रदीफ की तरह होता है। कुल मिलाकर यह काफ़ियों का अनूठा ‘विस्तार’ ग़ज़ल की आँख भिगोता है।

हिन्दी ग़ज़ल-विद्यालय के हिन्दी प्रवक्ता डॉ. कुँअर बेचैन की ग़ज़ल के नैन वैसे तो कथ्य की विलक्षणता को संकेतों में कहने में बेहद माहिर हैं, लेकिन पृ. 47 पर उनकी ग़ज़ल के क़ाफिये का श्रवण बना ‘स्वर’, ‘काँवर’ के साथ सिर्फ ‘वर’ है, तो भले ही कुछ ‘अन्तर’ से ही सही, दशरथ बने स्वराघात के ‘मंतर’ से अपने ‘सर’ को खून से ‘तर’ करायेगा। हिन्दीग़ज़ल में क़ाफियों का जल-संचय करते इस बेचारे श्रवण को कौन बचायेगा?

श्री ओंकार गुलशन की ग़ज़ल की कहन में नवीनपन है किन्तु पृ. 38 पर मतला में ‘नाम’ से ‘बदनाम’ की तुक क़ाफिये को ही ‘गुमनाम’ कर देती है। आगे इसमें ‘राम’, ‘आराम’ करते हुए ‘घनश्याम’-से बाँसुरी बजाते हैं। हिन्दीग़ज़ल में क्या यही शुद्ध क़ाफिये कहलाते हैं?

हिन्दीग़ज़ल की रोशनी के हस्ताक्षर, मान्यवर जहीर कुरैशी इस पुस्तक के पृ. 78 पर अपनी ग़ज़ल के मतला के ‘अन्जान’ शहर में क़ाफिये की शुद्ध ‘पहचान’ करने में इतने ‘परेशान’ हैं कि ‘शमशान’ तक जाते हैं और वहां अपनी दूसरी ग़ज़ल में ‘जहीर’ की तुक ‘हीर’ से मिलाते हैं और पृ. 62 पर ‘कबीर’ कहलाते हैं।

श्री महेन्द्र भटनागर ‘चुराई’ की तुक ‘छिपाई’ से मिलाने के बाद अगर आगे की तुकों में ‘अपना’ ‘सपना’ लायें और ऐसी ग़ज़लें सर्वश्रेष्ठ न कहलायें, ऐसा कैसे हो सकता है, ऐसी ग़ज़लों की तुकें तो हिन्दीग़ज़लों की ‘धरोहर’ हैं लेकिन डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल के ‘आसरे पर’ हैं। इसलिये हिन्दी ग़ज़ल कहने की इस ‘होड़’ में श्री विनोद तिवारीजी पृ. 157 पर ‘जोड़’ की तुक यदि ‘दौड़ से मिलायें तो हम क्यों खेद जताएँ। हम ठहरे तेवरी की जेवरी बँटने वाले तेवरीकार, हमें क्या अधिकार जो काका हाथरसी की इसी पुस्तक में छपी हज्लों को हिन्दीग़ज़ल न बताएँ।

हिन्दी में ग़ज़ल की शक़्ल आजकल है ही ऐसी कि किसी से मतला अर्थात् सिर ग़ायब है तो कहीं तुकें सिसक रही हैं। कहीं छंद से लय का मकरन्द लापता है तो कहीं ग़ज़ल के नाम पर कोरी गीतात्मकता है। हिन्दी के ग़ज़लकार हैं कि ग़ज़ल के ग़ज़लपन से मुक्ति पाकर भी ग़ज़ल-ग़ज़ल चीख रहे हैं। कुछ मिलाकर ग़ज़ल के नाम पर में उत्पात ही उत्पात दीख रहे हैं।

‘बराबर’ हिन्दी पाक्षिक के मई-2002 अंक में श्री प्रदीप दुबे ‘दीप’ की पृ. 11 पर 6 ग़ज़लें प्रकाशित हैं। वे अपनी पहली ग़ज़ल के मतला में ‘खंजर’ की तुक ‘मंतर’ से बाँधते हैं और आगे की तुकें ‘अस्थिपंजर’ और ‘बंजर’ लाते हैं। तीसरी ग़ज़ल में वे ‘भारी’ और ‘हितकारी’ की तुक ‘उजियारी’, ‘तैयारी’, ‘यारी’ से मिलाते हैं। यह सब किसी हद तक झेला जा सकता है। लेकिन ग़ज़ल संख्या चार में ‘पहरे’ की तुक ‘सवेरे’ और फिर ‘चेहरे’ के साथ-साथ ‘गहरे’ और ‘मेरे’ से मिलती है तो ऊब पैदा होती है, खूब पैदा होती है। ग़ज़ल में सही तुकों का अभाव भले ही घाव दे, मगर क्या किया जा सकता है? हिन्दी में ग़ज़ल की औसत यही शक़्ल है।

अतः ऊबते हुए ही सही, प्रदीप दुवे ‘दीप’ की ग़ज़ल संख्या-6 का भी अवलोकन करें- इसके मतला में ‘गुल’ से ‘पुल’ की तुक बड़ी खूबसूरत तरीके से मिलायी गयी है, लेकिन इसके बाद की तुकें ‘दिल’ और ‘बादल’ कोई ‘हल’ देने के बजाय स्वराघात की उलझनें ही उलझन पैदा करती हैं, ग़ज़ल में मौत का डर भरती हैं।

ग़ज़ल की हत्या कर, ग़ज़ल को प्राणवान् बनाने के महान प्रयास में हिन्दी में ग़ज़लकार किस प्रकार जुटे हुए हैं, इसके लिये कुछ प्रमाण चर्चित कवि अशोक अंजुम द्वारा सम्पादित ‘नई सदी के प्रतिनिधि ग़ज़लकार’ नामक पुस्तक से भी प्रस्तुत हैं-

हिन्दी ग़ज़ल के महाज्ञाता, चन्द्रसेन विराट पृ.51 पर अपनी दूसरी ग़ज़ल के मतला के क़ाफिये में काफी ’ विकल’ रहते हुए बड़ी ही ‘सजल’ ‘ग़ज़ल’ लिखते हैं और इस ग़ज़ल में ‘सरल’, ‘विरल’ बार-बार दिखते हैं। स्वर का बदलना ‘सजल’ और ‘ग़ज़ल’ के बीच है या ‘सरल’, ‘तरल’ और ‘विरल’ के बीच या ‘विकल’ और ‘धवल’ के बीच? विराटजी की यह ग़ज़ल भले ही ‘विमल’ दिखे, किन्तु इसका ‘योगपफल’, ‘विफल’ ही है।

श्री शिवओम ‘अम्बर’ हिन्दीग़ज़ल के स्वर्णाक्षर हैं। उनकी ग़ज़ल की ‘साधना ’ तो ‘नीरजना’ ही नहीं ‘आराधना ’ है लेकिन इस पुस्तक के पृ. 131 पर प्रकाशित ग़ज़ल की तुकों के बीच यह कैसी ‘सम्भावना’ है, जिसमें स्वराघात देने वाली तुक ‘प्रस्तावना’ है, ‘आराधना ’ की तुक ‘आराधना’ है।

डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा ‘यायावर’ हिन्दी ग़ज़ल के एक कद्दावर फनकार हैं। उक्त संग्रह के पृ. 116 पर उनकी दूसरी ग़ज़ल के क़ाफिये अगर दो बार ‘खबर’ बनकर ‘मुखर’ होते हैं तो चार बार ‘सोचकर’, ‘झूमकर’, ‘भागकर’ छोड़कर’- अर्थात्, केवल ‘कर’ में मिटकर इतना अवसर ही नहीं देते कि स्वराघात से बचा जा सके और इन्हें शुद्ध क़ाफिया कहा जा सके।

आभा पूर्वे दोहों में ग़ज़ल कहती हैं। पृ. 25 पर छपी उनकी दोहाग़ज़ल की शक़ल यह है कि ‘प्राण’ की तुक ‘वरदान’ ही नहीं, तीन बार ‘मान’ भी है। यहाँ भी स्वराघात की मौजूदगी है।

ग़ज़ल की कहन का फन जिन ग़ज़लकारों को ख्याति के चरम तक ले गया है, ऐसे ख्याति प्राप्त ग़ज़लकार भी हिन्दीग़ज़ल में चमत्कार दिखला रहे हैं।

प्रो. शहरयाह की ख्याति, खुशबू की भांति विश्व के दरवाजों पर दस्तक दे चुकी है। कई अकादमियों के पुरस्कारों से उनकी शायरी सजी है। वे पृ. 128 पर अपनी पहली ग़ज़ल में ‘समझूंगा’ की तुक ‘रक्खूंगा’, ‘देखूंगा’, ‘लिक्खूंगा’ के रूप में मिलाते हैं और उसमें दो बार ‘बदलूंगा’ भी लाते हैं, तो ‘खूंगा’ से ग़ज़ल की पूरी तस्वीर हिलती है और गिरकर बेनूर हो जाती है। चकनाचूर हो जाती है। संयुक्त रदीफ क़ाफियों का यह प्रयोग, काफियों का भंग-योग बन जाता है।

इसी संग्रह के पृ. 125 पर विज्ञानव्रत की ग़ज़ल का रथ स्वराघात की कीचड़ इतना ‘लतपथ’ हो जाता है कि वह ग़ज़ल से खोये समांत [ रदीफ ] को चीख-चीख कर सहायता के लिये बुलाता है। धीरे-धीरे कीचड़ में पूरा का पूरा रथ डूब जाता है। ग़ज़ल के क़ाफियों का पता करने पर ‘केला’ हाथ लगता है जो ‘था’ ‘था’ ‘कहता’ हुआ, रदीफ के गायब हो जाने की समस्या पर बार-बार ‘झगड़ा’ करता है। ‘पता’ ‘केला’, ‘था’, ‘था’, कहता तुकांतों के बीच यह भी पता नहीं चल पाता है कि इस ग़ज़ल में रदीफ़ या क़ाफियों की व्यवस्था क्या है? हिन्दी ग़ज़ल में ग़ज़ल की यह अवस्था क्या है?

श्री तुफैल चतुर्वेदी इसी संग्रह के पृ. 86 पर ‘पल’ की तुक ‘घायल’ लाने के बाद ‘कोयल’ लाते हैं। ‘यार’ की तुक ‘यार’ से ही निभाते हैं। उनके ये क़ाफिये स्वर के आधार पर क्या बदलाव लाते हैं?

श्री निदा फाजली वैसे तो ग़ज़लें बहुत भलीभांति कहते हैं लेकिन मतला के क़ाफिये ‘जीवन’ और ‘उलझन’ यदि ‘बन्धन’ के साथ [इस संग्रह के पृ.94 पर] ‘ईंधन’ बन जायें तो इसका ‘धन’ काफ़िया होकर भी रदीफ-सा लगेगा और स्वर पर आघात जगेगा।

चर्चित प्रतिष्ठित कवि बशीर बद्र, काबिले कद्र हैं। उनकी प्रभा हिन्दी की हर सभा में छटा बिखेरती है। ग़ज़ल में विलक्षण प्रयोग के योग उनके साथ हैं। किन्तु पृ. 68 पर प्रकाशित उनकी दूसरी ग़ज़ल का मतला ‘हो’ से ‘खो’ की तुक मिलने के बाद दो बार फिर ‘हो’, ‘हो’ चिल्लाता है और अन्त में फिर ‘खो’ में खो जाता है। यह ग़ज़ल का हिन्दीग़ज़ल से कैसा नाता है?

श्री बेकल उत्साही इसी पुस्तक की पृ. सं. 69 पर विराजमान हैं। उनकी ग़ज़लों के क़ाफिये मौलिक और बेमिसाल हैं, जिनमें विलक्षण प्रयोगों के कमाल हैं। लेकिन यहाँ भी सवाल हैं-उनकी दूसरी ग़ज़ल के दस शे’रों की ‘चिट्ठियाँ’ चार बार ‘लियाँ’ ‘लियाँ’ की ध्वनि के साथ ‘रस्सियाँ’ बटती हैं और वे एक दूसरे के क़ाफियापन को उलटती-पुलटती हैं, अन्ततः एक रदीफ की तरह सिमटती हैं। ऐसा क्यों? उत्तर यों-

हिन्दी में ग़ज़ल के नियमों से छूट लेने की जो लूट मची हुई है, उससे ग़ज़ल का ग़ज़लपन नष्ट हो रहा है। ग़ज़लकार को जहाँ सजग रहना चाहिए, वहीं सो रहा है।

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क्या यही है हिन्दी-ग़ज़ल?

+रमेशराज

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तेवरी पर आये दिन यह आरोप जड़े जाते रहे हैं कि ‘तेवरी अनपढ़ और गँवारों का आत्मप्रलाप है। अपरिपक्व मस्तिष्कों की उपज है। यह ग़ज़ल की नकल का एक भौंडा नमूना है।’ यह आरेाप कितने दुराग्रहयुक्त या सार्थक हैं, इसका निर्णय तो समय ही करेगा। यहाँ सवाल दूसरा है-यदि तेवरी स्टंट या बकवास है तो क्या आज हिन्दी में लिखी जा रही कथित हिन्दी ग़ज़लें, ग़ज़ल के शास्त्राीय पक्ष और कथ्य का परिपक्व और विलक्षण नमूना प्रस्तुत कर रही हैं ? इसकी जाँच-पड़ताल के लिये ‘तुलसीप्रभा’ के हिन्दीग़ज़ल विशेषांक, सित-2000 की कुछ ग़ज़लों की थोड़ी बनागी प्रस्तुत है-

डॉ. अनिल गहलौत ‘हिन्दीग़ज़ल’ के चर्चित हस्ताक्षर हैं। उनका फिलहाल ही एक ग़ज़ल संग्रह ‘ सीप में समन्दर ‘ प्रकाशित हुआ है, जिसमें ग़ज़ल के शास्त्रीय स्वरूप को लेकर बड़ी-बड़ी बातें कही गयी हैं। अपनी गम्भीर बातों को लेकर वे स्वयं कितने गम्भीर है?आइये परखें-

तुलसीप्रभा के ग़ज़ल विशेषांक के पृ.29 पर छपी अपनी प्रथम ग़ज़ल में वे ‘कटा’, ‘अटपटा’ की तुक [ काफिया ] ‘बँटा’ से मिलाते हैं। उनकी दूसरी ग़ज़ल में ‘अनुबन्ध’ की तुक ‘सम्बन्ध’, ‘प्रतिबन्ध’ और ‘तटबन्ध’ से जुड़ी है। यह काफियों का कैसा नमूना है? क्या इसी तरह हिन्दी ग़ज़ल को ऊँचाइयाँ छूना है? ऐसे में इसी अंक में प्रकाशित श्री प्रदीप कुमार ‘रोशन’ की इन पंक्तियों को गुनगुनाने में कुछ ज्यादा ही आनंद आने लगता है-

बड़ी कशमकश में पड़ी है ग़ज़ल

अदब से बिछड़ के खड़ी है ग़ज़ल।

डॉ. अश्वघोष ने हिन्दी साहित्य में अच्छी-खासी ख्याति अर्जित की है। निस्संदेह वे एक सार्थक रचनाकार हैं, किन्तु पृ.30 पर प्रकाशित उनकी ग़ज़ल के काफिये का ‘धुआं’ ‘पगडंडियाँ’, खिड़कियाँ’ तय करते हुए ‘बयाँ’ होता है और ‘सुर्खियाँ’ बन जाता है। यह काफियों का कैसा शास्त्रीय नाता है? ऐसे में इस अंक के सम्पादक श्री प्रेम मंधान के स्वर में ही अपना स्वर सम्मिलित करते हुए, उनकी ही एक ग़ज़ल के शे’र के माध्यम से ‘हिन्दी ग़ज़ल के प्रति अपना दृष्टिकोण रखना चाहूँगा-

प्रेम हमारे मतभेदों का कारण बस इतना-सा है

हम कहते हैं ग़ज़ल कही है, वो कहते झक मारी है।

ग़ज़ल के क्षेत्र में ‘झक मारने की कला’ में माहिर हिन्दी ग़ज़लकारों का ग़ज़ल के मूल स्त्रोत, चरित्र [ कथ्य ] और शास्त्रीयता से पिण्ड छुड़ाकर ग़ज़ल कहने का यह हिन्दी अन्दाज अब बह्रों की हत्या कर, हिन्दी छन्दों के साथ प्रस्तुत होने पर आमादा है। इसमें ग़ज़ल के ग़ज़लपन का एहसास कम, उपहास ज्यादा है।

श्री पुरुषोत्तम यकीन भी हिन्दी ग़ज़ल के एक चर्चित हस्ताक्षर हैं। ग़ज़ल की ग़ज़लियत की हत्या करना कोई इनसे सीखे! इसी विशेषांक के पृ.47 पर उनकी एक ‘दोहा ग़ज़ल’ प्रकाशित है, जिसने हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में छन्दों के नाम के आधार पर ग़ज़ल के अनेक नामकरणों के द्वार खोल दिये हैं और अब लग रहा है कि हिन्दी ग़ज़ल के नाम पर चौपाई ग़ज़ल, गीतिका ग़ज़ल, सोरठा ग़ज़ल, पीयूषवर्ष ग़ज़ल, घनाक्षरी ग़ज़ल, कवित्त और सवैया ग़ज़ल आदि-आदि ग़ज़लें सामने आयेंगी जो ग़ज़ल के क्षेत्र में निस्संदेह एक नया इन्कलाब लायेंगी।

श्री पुरुषोत्तम यकीन की यह ‘दोहा ग़ज़ल’ प्रथम तो दोहा छन्द का निर्वाह करने में ही असफल है। इसकी दूसरी पंक्ति के प्रथम चरण में जहाँ अल्पविराम लिया जाता है, वहाँ ‘मेरे’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसमें दोनों मात्राएँ दीर्घ हैं, जबकि यहाँ लघु के बाद दीर्घ स्वर की व्यवस्था होनी चाहिए। हिन्दी ग़ज़ल के कुछ विद्वान इसे उर्दू वालों की तरह मात्रा या स्वर गिराकर ‘मिरे’ पढ़ना-लिखना चाहें तो यह पंक्ति मात्रा के अपने ऐब को ढँकने में सफल हो सकती है। हिन्दी ग़ज़ल के होहल्ला के इस दौर में ऐसे विद्वान ऐसा करेंगे भी, एक चतुर सुनार की तरह सोने में पीतल भरेंगे भी, ऐसा विश्वास है। यही तो ग़ज़ल का अनुप्रास है, मधुमास है। इसलिए यकीनजी की इस ग़ज़ल के दूसरे पहलू पर आते हैं। इस ग़ज़ल में ‘के दीप’ की पुनरावृत्ति यह कहती है कि यह इस ग़ज़ल का रदीफ है। चलो हम भी माने लेते हैं, किन्तु इसकी दूसरी पंक्ति से ‘के’ का दीप के आगे से गायब हो जाना यह सिद्ध करता है कि रदीफ का इस ग़ज़ल में सफल निर्वाह नहीं हो पाया है। ग़ज़ल में यह कैसी प्रेत-छाया है? इस कथित ग़ज़ल में काफियों की व्यवस्था क्या है? ‘के दीप’ रदीफ से पूर्व ‘आखों’, ‘गरीब’, ‘सोने’, ‘खुशियों’ और ‘ग़ज़ल’ शब्द आये हैं। इन शब्दों के द्वारा कौन-सी उत्कृष्ट, उत्कृष्ट नहीं तो निकृष्ट तुक बनती है? क्या यहाँ भी तुकों की भाँग छनती है? इस भाँग का आनन्द लेते हुए ‘यकीनजी’ के आखिरी शे’र के कथन में आइए हम भी मन लगायें और गुनगुनायें-

आया लुत्फ यकीन जी, सुने करारे शे’र

दोहे के घर में जले, खूब ग़ज़ल के दीप।’’

ग़ज़ल की मातमपुर्सी करते हुए ग़ज़ल के दीप जलाने की यह फनकारी आजकल हिन्दी ग़ज़ल वालों के बीच पूरे शबाब पर है, लेकिन ग़ज़ल की सिसकन, सुबकन से हिन्दी ग़ज़लकार बेखबर हैं।

साथी छतारवी अच्छे गीतकार हैं। उनके ‘विषैले गीत’ संग्रह की गीतात्मकता असंदिग्ध है। किंतु उनकी ग़ज़ल पर जोर आजमाइश उनके भीतर छुपे कुशल रचनाकार को प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर देती है। पृ.85 पर वे ‘डर’ की तुक ‘जड़’ और ‘धड़’ से मिलाते हैं। उनकी दूसरी ग़ज़ल में ‘ग़ज़ल’ की तुक ‘शक़ल’ से अगर ठीक है तो ‘नकल’ ‘सकल’, ‘अकल’ में काफिया सिसकता हुआ महसूस होता है और ग़ज़ल की आँख को ‘सजल’ कर देता है। उन्हीं के शब्दों में ग़ज़ल के प्रति उनकी असमर्थता यूँ व्यक्त होती है-

जैसी आयी, मन में आयी, मित्र ग़ज़ल लिख दी

कभी न देखी-भाली उसकी किन्तु शक़ल लिख दी।

बिना शक़ल देखे ग़ज़ल लिखने की यह प्रक्रिया, निराकार को साकार में बदलने का उपक्रम है। अतः निराकार का यह साकार रूप अगर हिन्दी ग़ज़ल है तो ऐसी ग़ज़लें, हिन्दी ग़ज़ल को नये आयाम जरूर देंगी, अब न सही आगे चलकर नूर देंगी।

श्री नूर मोहम्मद ‘नूर’ ने भी हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में खूब नूर बिखेरा है। तुलसी प्रभा के पृ. 80 पर मतला शे’र में ‘सदी’ की तुक ‘नदी’ से मिलाने के बाद वे ‘रोशनी’ की ‘खलबली’ बड़ी ‘बेदिली’ के साथ करते हुए ‘शाइरी’ का आभास देते हैं। मतला शे’र में ही काफिया तंग होने के कारण सब तुकें ‘दलदली’ हो जाती हैं। ग़ज़ल के इस दलदल के बीच वे अनायास इस सच्चाई को उजागर कर बैठते हैं-

हारी-हारी ग़ज़ल, कारी-कारी ग़ज़ल

आजकल कहूँ मैं ढेर सारी ग़ज़ल।

तुम सुनो, मत सुनो, ‘नूर’ को मत गुनो

वह कहेगा मगर उम्र सारी ग़ज़ल।

पृ. 82 पर डॉ. पांडेय आशुतोष अपनी पहली ग़ज़ल में ‘एक’ का ‘अभिषेक’ करते हुए इतनी ‘दिलफैंक’ तुकों का ‘अभिलेख’ प्रस्तुत करते हैं कि सम्पूर्ण ग़ज़ल की तुकान्त व्यवस्था खस्ता बन जाती है। दूसरी ग़ज़ल में मतला शे’र गायब है, पर यह हिन्दी ग़ज़ल है इसलिए सफल है? इस ग़ज़ल में ‘वंचना’ की तुकें ‘चना’, ‘याचना’, ‘आलोचना’, कुल मिलाकर ‘चना’, घना प्रकाश फैलाने के स्थान पर, अंधकार ही अन्धकार फैलाती हैं। ग़ज़ल के नाम पर ग़ज़ल के काफियों को खाती है।

ग़ज़ल के प्रखर व्याख्याता श्री अनिरुद्ध सिन्हा की पृ. 31 पर प्रकाशित दूसरी ग़ज़ल के छः काफियों में ‘शाम’ और ‘काम’ को छोड़कर ‘नाम’ काफिया चार बार आया है। काफिया के रूप में ‘नाम’ की यह तुक क्या स्वर परिवर्तन का सही आधार खड़ा कर सकती है? यह उनके ही लेख ‘ग़ज़ल की समझ के विरोध’ को कैसे दबा सकती है? उसे बस बड़ा कर सकती है।

डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल हिन्दी ग़ज़ल के चर्चित हस्ताक्षर ही नहीं, ग़ज़ल के एक अच्छे प्रवर्त्तक और उद्घोषक हैं। ग़ज़ल की हिन्दी में चर्चा कराने का श्रेय भी काफी हद तक उनके हिस्से में हैं। लेकिन पृ.76 पर प्रकाशित उनकी दूसरी ग़ज़ल के मतला में ‘चाँदनी’ की तुक ‘रोशनी’ से मिलने के बाद आगे चलकर ‘आदमी’, और ‘नदी’ की ‘फुलझड़ी’ बन जाती है। यह ग़ज़ल इस प्रकार सुबकते हुए काफियों के बीच ‘हिन्दी ग़ज़ल’ कहलाती है।

पृ. 56 पर रसल विश्वामित्र हिन्दी ग़ज़ल से ‘रदीफ’ गायब कर ग़ज़ल को एक नया आयाम देते हैं। ‘रदीफ’ से मुक्ति का यह प्रयास आगे चलकर हिन्दी ग़ज़ल की शास्त्रीयता का शायद कोई मान बन जाये, पहचान बन जाये तो आश्चर्य कैसा? हिन्दी ग़ज़ल में होता है ऐसा। ‘जि़न्दगी’ से ‘आशिकी’, ‘रोशनी’, ‘आदमी’, ‘रागनी’ आदि ‘शायरी’ के लिये अनुकूल तुकें हो सकती हैं, लेकिन ग़ज़ल में रदीफ के बिना इनका औचित्य समझ से परे है। संयुक्त रदीफ- काफिये की यह ग़ज़ल कैसा कमाल करे है?

पृ. 51 पर ग़ज़ल के महारथी श्री महेश अनघ विराजमान हैं। उनकी ग़ज़लों की तुकें उत्कृष्ट हैं। लेकिन प्रथम ग़ज़ल कौन-सी बह्र में कही गयी है? इसकी हर पंक्ति मात्रादोष और लय-भंगता की शिकार है। हिन्दी ग़ज़ल का यह कैसा चमत्कार है। मूँगफलियाँ खा चुकने के बाद ‘जन गण मन’ सुनने का कथन प्रभावशाली है-मौलिक है। परेशानी बस यह इक है-

यह दौरे-ग़ज़ल है नरेद्र, दौरे-ग़ज़ल में

बेवज्न तवाजुन की बह्र देखते चलो।

‘आजकल’ मासिक के मार्च-2000 अंक में श्री आलम खुरशीद की दूसरी ग़ज़ल के काफिये ‘बरसते’ ‘तरसते’ ‘दस्ते’, ‘गुलदस्ते’ से मिलाये गये हैं। ये कैसे निभाये गये हैं?

इसी अंक में ग़ज़ल के विद्वान कवि ज्ञानप्रकाश विवेक की पृ. 24 पर दूसरी ग़ज़ल में ‘तर’ से ‘कर’ की तुक पांच बार मिलायी गयी है। क्या ग़ज़ल में शुद्ध काफियों का निर्वाह हुआ है? विवेकजी ने इस ग़ज़ल में कौन-सी तकनीकी को छुआ है?

सार यह है कि बेवज़्न बह्रों, मतला के अभावों, काफियों के अशुद्ध प्रयोगों, रदीफों या काफियों का ग़ज़लों से गायब हो जाना, मक्ता से मुक्ति, बह्रों के स्थान पर हिन्दी के छन्दों की त्रुटिपूर्ण घुसपैंठों अर्थात् ग़ज़ल के शिल्प की हत्या कर, मरी हुई ग़ज़ल को ओजस्-प्राणवान बतलाना, अपने इस कर्म पर मंत्रमुग्ध होते हुए तेवरीकारों को गरियाना, उन्हें पाकिस्तानी, खालिस्तानी, हरिगढ़ी या हरिपुरी बतलाना, अगर हिन्दी ग़ज़लकारों की यही समझदारी है तो यह निस्संदेह मानसिक बीमारी है, तेवरी के खिलाफ आँख मूँदकर बयान देने की तैयारी है।

हिन्दी ग़ज़लकारों ने सिर्फ ग़ज़ल के ही शिल्प की हत्या की हो और यहीं अपनी यह शिल्प-क्रिया रोक ली हो, ऐसा नहीं। ये ग़ज़ल की आत्मा [ कथ्य ] पर भी लगातार चोट कर रहे हैं। मूल चरित्र की हत्या करने में इन्हें आनंद का अनुभव हो रहा है। श्री अनुरुद्ध सिन्हा अपने ‘ग़ज़ल की समझ का विरोध’ आलेख में फरमाते हैं कि ‘‘ मैं मानता हूँ कि ग़ज़ल हुस्नो-इश्क से ताल्लुक रखती है। यह इसका अपना सौन्दर्यबोध है, साथ ही जीवन का एक अहम् पक्ष भी। मगर दूसरी ओर जीवन का कटुपक्ष भी इसके हिस्से में आता है।’’

मतलब यह कि अब ग़ज़ल प्रणयात्मकता के साथ-साथ समकालीन विकृतियों, विसंगतियों और शोषण के प्रति आक्रामकता का आभास भी देती है। श्री अनिरुद्ध सिन्हा या उन जैसे ग़ज़ल के समझदारों की दृष्टि में ऐसे तर्क इसलिये सही हैं क्योंकि इनके लिये सूपनखा और सीता में कोई फर्क नहीं है, हैं तो दोनों स्त्रिायाँ ही। ऐसे विद्वानों के हिसाब से तो किसी की पत्नी किसी गैरमर्द के साथ बार-बार सो सकती है। वह तो ‘पत्नी’ ही कहलायेगी, ‘रखैल’ कैसे हो जायेगी? ऐसे विद्वान, सचिवालय, विद्यालय, मदिरालय, पुस्तकालय और वैश्यालय के अन्तर को आखिर समझने की कोशिश करें तो क्यों करें, आखिर हैं तो सब ये ‘आलय’ ही। माँ, भाभी, बुआ, दादी, चाची, मौसी, बहिन, बेटी कहकर ऐसे सुधी लोग स्त्री के व्यक्तित्व को खण्डित करने का प्रयास क्यों करें? स्त्री अन्ततः स्त्री ही है। गुण्डे और शरीफ, अध्यापक और विद्यार्थी, शासक और शासित, भोगी और योगी में ये विद्वान भेद मानें तो क्यों मानें? ये सब भी तो ‘आदमी’ के ही रूप हैं। इनकी दृष्टि में यदि कोई ‘हत्यारा’ दुधारा त्यागकर ‘बुद्ध’ बना है तो उसे शुद्ध मानकर विवाद को क्यों बढ़ायें। अतः उसे हत्यारा ही बतायें, क्योंकि था तो हत्यारा, क्या हुआ जो त्याग दी दुधारा?

ग़ज़ल के पाँवों से घुँघरू छीनकर, लबों से शराब का स्वाद हटाकर, उसके हाथों में क्रान्ति की मशाल और तलवार थमाने वाले हिन्दी ग़ज़ल के समझदारों को इतना तो बताना ही चाहिए कि ‘सहवास के चुम्बन’ और ‘बलात्कार के क्रन्दन’ में क्या कोई फर्क नहीं होता? अगर नहीं तो ग़ज़ल की हू-ब-हू टैक्निक में रची गयी ‘हज़्ल’, ग़ज़ल से अलग कैसे हो गयी? ‘प्रेमपूर्ण बातचीत की शालीनता’ और ‘अश्लीलता’ एक ही फार्म में ‘ग़ज़ल’ और ‘हज़्ल’ को मान्यता प्रदान करने वाले विद्वान क्या मानसिक रूप से विक्षप्त थे?

उक्त बातों, तथ्यों या चरित्र की सही पहचान को ध्यान में रखते हुए ही यदि तेवरीकारों ने तेवरी को ग़ज़ल से अलग किया तो यह अलीगढ़ को हरीगढ़ बनाने की साजिश कैसे हुई? इसके लिये क्या कोई सतर्क तथ्य सामने नहीं आना चाहिए? तेवरी से ग़ज़ल को अलग करने की यह मंशा अगर कोई साजिश मानी जायेगी या मानी जा रही है तो ऐसी ही साजिश की दुर्गन्ध इन ग़ज़ल-भक्तों को आरती और वंदना, नाटक और एकांकी, ‘चुटकुला और लघुकथा, उलटबाँसी और बारहमासी, दोहा और साखी, खण्ड काव्य और महाकाव्य के साथ-साथ प्रेम और वासना आदि में अन्तर करने वाले अभिप्रायों में भी आयेगी, लेकिन यहाँ वे चुप ही रहेंगे, बस तेवरीकारों को ही साजिशी कहेंगे।

चुम्बन और बलात्कार के क्रन्दन को एक ही आत्मा के खाने में ठूँसकर ग़ज़ल को ‘परम-आत्मा’ का स्वरूप प्रदान करने वाले ये ग़ज़लकार अगर शराब के स्थान पर ग़ज़ल के हिस्से में यातना, बेबसी, लाचारी, तल्खी को लाते हैं और इस तरह ग़ज़ल के कथन चाकू की तरह तन जाते हैं, लेकिन यह आक्रोश, विरोध, विद्रोह और असंतोष की अनुभावमय शक़ल फिर भी ग़ज़ल कहलाती है तो ऐसे ग़ज़ल के परमात्माओं के समक्ष अनुनय-विनय का अर्थ और असमर्थ ही होना है। फिर भी निवेदन के साथ कुछ बात-अगर ग़ज़ल के हिस्से में प्रणात्मकता के साथ-साथ आक्रामकता भी आती है तो क्या भजन के हिस्से में नेताजी के चमचों के व्याख्यान भी आ सकते हैं? क्या विनय, अग्निलय बनकर ‘विनय’ का ही परिचय दे सकती है? वन्दना के हिस्से में क्या उल्लू निन्दा आ सकती है?

उक्त सारी दलीलों को ‘ग़ज़ल के कथ्य के परिवर्तन की तर्ज’ पर क्या ग़ज़ल के कथित पंडित अपने गले उतार सकते हैं? ग़ज़ल जैसा अलौकिक कारनामा [ जिसमें चरित्र तो बदला हो लेकिन नाम नहीं ] ग़ज़ल को छोड़, कहीं और गिना सकते हैं? क्या वे हज़्ल को ग़ज़ल बता सकते हैं? श्री रतीलाल शाहीन [ आजकल मार्च-2000 ] तेवरी की सार्थकता को खारिज करते हुए कहते हैं कि-‘‘नाम बदल लेने से गुण या स्वभाव नहीं बदल जाता।.....ग़ज़ल का तेवरी नाम ऐसा ही लगता है जैसे अलीगढ़ को कोई हरिपुर कहे।’’

अलीगढ़ को हरिपुर में बदलने के पीछे जो साम्प्रदायिक दुर्गन्ध छुपी हुई है, उसे शाहीनजी नहीं महसूसते तो इसमें तेवरीकारों का क्या दोष? अगर इस दुर्गन्ध को वे तेवरीकारों के मत्थे मढ़ना चाहते हैं तो ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल बनाने वाले ग़ज़लकार पहले अपने अन्दर की साम्प्रदायिक दुर्गन्ध को महसूस करें। दूसरों की आँख में टेंट देखने से पहले इस प्रश्न का उत्तर दें- ‘माना नाम बदलने से गुण या स्वभाव नहीं बदल जाता, पर गुण या स्वभाव बदलें तो... और कुछ हो न हो ग़ज़ल कैसे हज़्ल हो जाती है?

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हिंदीग़ज़ल की गटर-गंगा

+रमेशराज

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श्री यादराम शर्मा हिन्दी में ग़ज़ल के चर्चित हस्ताक्षर हैं। उनका ‘कहकहों में सिसकियां’ नाम से ग़ज़ल संग्रह भी प्रकाशित हुआ है। वे अपने इस संकलन में ‘जैसा मैंने पढ़ा’ भूमिका के अन्तर्गत ग़ज़ल के शिल्प पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि-‘‘ग़ज़ल की बह्र पर विशेष ध्यान दिया जाये। इसके अतिरिक्त अन्य बिन्दुओं पर भी ध्यान देना जरूरी है-जैसे मतला, मक्ता, शे’र, रदीफ एवं काफिया।’’

रदीफ और काफियों को वे ग़ज़ल की प्राणवायु बताते हुए कहते हैं-‘‘यह जानना आवश्यक होता है कि रदीफ पूरी ग़ज़ल में एक ही रहता है। काफिया, तुकान्त का प्रतीक होता है, यह स्वरांत भी हो सकता है जैसे ‘हवा’ के साथ ‘लगा’ और ‘हुआ’ या ‘गयी’ के साथ ‘सदी’, ‘सगी’ और ‘सभी’ आदि।

श्री यादराम शर्मा की कही हुई बात को ही यदि थोड़ा-सा विस्तार दें तो अगर रदीफ पूरी ग़ज़ल में बदलता नहीं है तो काफिये का समान स्वर में आये बदलाव के आधार पर ही निर्धारण या निर्वाह करते हैं। ‘अ’ की तुक ‘आ’ या ‘इ’ की तुक ‘ओ’ या ‘ई’ से किसी भी प्रकार नहीं मिला सकते। काफिया तभी काफिया है, जबकि वह समान स्वर के आधार पर निरंतर बदलाव का संकेत दे। ग़ज़ल के मतला शे’र से ही यह निर्धारित किया जाता है कि स्वर के बदलाव का आधार किस स्थान पर या किस प्रकार किया जाये। मतला में यदि ‘नदी’ की तुक ‘सदी’ से मिलायी गयी है तो ‘दी’ दोनों में समान होने के कारण ‘न’ और ‘स’ बदलाव के आधार बनेंगे, अतः आगे की तुक ‘बदी’ या ‘लदी’ आदि ही हो सकती हैं। इन तुकों के स्थान पर अगर कोई ग़ज़लकार ‘सभी’, ‘रखी’, ‘बची’ आदि तुकों का प्रयोग करता है तो हर प्रकार अशुद्ध हैं। यदि मतला ‘सदी’ की तुक ‘सभी’ से मिलाकर कहा गया है तो ग़ज़ल के आगे के शे’रों के क़ाफिये ‘बची’, ‘बानगी’ ‘रोशनी’, ‘जी’, ‘चली’ आदि के साथ हर प्रकार शुद्ध होंगे। लेकिन इसमें ध्यान देने की बात यह है कि मतला में आयी ‘सदी’ और ‘सभी’ तुकें आगे के शे’रों में ‘सभी’, सदी, ‘नदी’ ‘कभी’ आदि के रूप में नहीं आ सकतीं, वर्ना स्वर बदलने के आधार ही खत्म हो जायेंगे। अतः एक तुक का एक बार निर्वाह करने के बाद उसी तुक का दूसरी बार प्रयोग में लाना भी त्रुटिपूर्ण है। संयुक्त रदीफ-काफियों की ग़ज़ल के अन्तर्गत यदि मतला में ‘कहां’ की तुक ‘जहां’ है तो ‘धुआं’, ‘निशां’, ‘बयां’ आदि तुकें आगे के शे’रों में किसी प्रकार सम्भव नहीं। ऐसी ग़ज़ल में सिर्फ ‘हां’ को तुक के रूप में प्रयोग करना, इस बात का संकेत है कि कवि ने इस ग़ज़ल से रदीफ़ को ही ग़ायब कर डाला है। ऐसी रचना ग़ज़ल नहीं कही जा सकती।

ग़ज़ल कहने या लिखने के लिये ग़ज़ल के शास्त्रीय सरोकारों, मूल स्त्रोतों, नियमों-उपनियमों अर्थात् ग़ज़ल की शिल्प सम्बन्धी व्यवस्था में रद्दो-बदल करने की छूट किसी भी रचनाकार को नहीं है। ग़ज़ल कहने का अर्थ ही यह है कि ग़ज़ल की मूल संरचना की पकड़ की जाये। जैसे दोहे की दोनों पंक्तियों में 24-24 मात्राएं होती हैं और इन पंक्तियों के अन्त में ‘दीर्घ’ के बाद ‘लघु स्वर’ आता है। इन पंक्तियों से 24-24 मात्राओं की संख्या घटा या बढ़ा दी जाये अथवा अन्त के [ दीर्घ के बाद लघु स्वर ] क्रम को बदल दिया जाये तो दोहा, दोहा नहीं रहता, ठीक इसी प्रकार ग़ज़ल अपनी छन्द सम्बन्धी संरचना की मूलभूत विशेषताओं से कटकर, अपने ग़ज़लपन को खो देती है। अतः ग़ज़ल के छन्द में मात्राएँ बढ़ाकर और उन्हें गिराकर पढ़ने या लिखने का आधुनिक तरीका भले ही मान्य होता जा रहा है लेकिन यह तरीका हर प्रकार त्रुटिपूर्ण होने के साथ-साथ इस बात का भी संकेत देता है कि एक छंद में दूसरे छंद का द्वंद्व अन्तर्निहित है।

आजकल हिन्दी में ग़ज़ल लिखने का चलन, फैशन की तरह रचनाकारों पर सवार है। जिसे देखो, उसे ही ग़ज़ल का बुखार है। ग़ज़ल के शिल्प की हत्या करते हुए ग़ज़ल लिखने का अन्दाज आज कोढ़ में खाज पैदा कर रहा है। जिन लोगों को ग़ज़ल कहते समय ग़ज़ल के शास्त्रीय सरोकारों का निर्वाह करने में कठिनाई हो रही है, वे इसे सरल बनाने के हास्यास्पद तरीके गिना रहे हैं और गर्व से बता रहे हैं कि-‘‘ग़ज़ल में मतला और मक्ता के प्रयोग, शे’र की स्वतंत्रता, रुमानी कथ्य, सीमित बह्र और गेयता का निषेध होना चाहिए।’’

अर्थ यह कि ग़ज़ल और हिन्दीग़ज़ल में कुछ तो भेद होना ही चाहिए। यह सब बातें ‘प्रसंगवश’ पत्रिका के हिन्दीग़ज़ल विशेषांक 1994 में साक्ष्य के रूप में मौजूद हैं। ग़ज़ल से हिन्दी ग़ज़ल में भेद करने की यह लालसा ग़ज़ल के शिल्प में कितने छेद करेगी, इसकी चिन्ता न करते हुए और हिन्दी ग़ज़लकारों में नया जोश भरते हुए श्री महेश अनघ समझाते हैं कि-‘‘कथ्य की विभिन्नता रहते कभी-कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि एक शे’र के कथ्य को दूसरा शे’र काट देता है, अतः जरूरी यह है कि एक पूरी ग़ज़ल में जिस कथ्य को उठाया जाय, अन्त तक उसका निर्वाह किया जाये।’’

तेवरी को अपरिपक्वता का जामा पहनाने वाले श्री महेश अनघ जैसे रचनाकार इस प्रकार ग़ज़ल के ग़ज़लपन की हत्या कर, ग़ज़ल को कौन-सा परिपक्वता का जामा पहना रहे हैं, यह बात सहज तरीके से व्याख्यायित की जाये तो इतनी भर है कि हिन्दी में ग़ज़ल के नियमों से इसलिये छूट ली जा रही है ताकि ग़ज़ल की गटर-गंगा को भी महिमा-मंडित किया जाये। हिन्दी में औसत ग़ज़ल-विशेषांकों से ‘प्रसंगवश’ का यह हिन्दी ग़ज़ल विशेषांक भले ही सारगर्भित है और इसकी उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता है। लेकिन हिन्दी में ग़ज़ल के नियमों से छूट लेने की लूट भी इसमें दृष्टिगोचर होती है। इस अंक में शेरजंग गर्ग ‘रूठे’, ‘झूठे’, ‘अंगूठे’ की तुक सीना ठोक कर ‘फूटे’ ही नहीं ‘मूठें’ से भी मिलाते हैं और इस प्रकार हिन्दी ग़ज़लकार कहलाते हैं।

पद्मश्री गोपालदास ‘नीरज’ ख्याति प्राप्त गीतकार, होशियार और समझदार रचनाकार हैं, उनके हिस्से में सरकारी पुरस्कार हैं। अतः वह मतला में ‘चलाया’ की तुक ‘बनाया’ से मिलाने के बाद ‘बुलाया’ और फिर ‘बुलाया’ जैसी स्वर पर ही आघात करने वाली तुकों को अमल में लायें तो उन्हें टोक कौन सकता है? रोक कौन सकता है?

प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामदरश मिश्र हिन्दी साहित्य के प्रकाशवान नक्षत्र हैं। उनके मौलिक लेखन-कर्म के चर्चे सर्वत्र हैं। श्री वशिष्ठ अनूप इस विशेषांक के पृ. 66 पर मिश्रजी की तारीफ करते हुए कहते हैं कि-‘‘ इन शे’रों में परिवर्तन की चिन्गारी है, परोपकार की भावना भी और एक अच्छे इन्सान की ख्वाहिशें भी।’’

लेकिन उनके द्वारा उद्घृत ग़ज़ल में ‘हवा’ की तुक ‘छुवा’, ‘नवा’, ‘गंवा’ के बाद ‘दुआ’ तक पहुँचते-पहुँचते इस कदर स्वाराघात करने लगती है कि ग़ज़ल के शुद्ध क़ाफियों का बोध् शोध का विषय बन जाता है, यह ग़ज़ल का हिन्दी ग़ज़ल से कैसा नाता है?

श्री चन्द्रसेन विराट की दूसरी ग़ज़ल के मतला में ‘दरबार’ की तुक ‘हुंकार’ से मिली है। आगे यह ग़ज़ल ‘हुंकार’ को त्यागकर ‘मक्कार’, ‘बदकार’, ‘सरकार’, की ‘फटकार’ और ‘ललकार’ को भी गले लगाने से आनाकानी नहीं करती। ‘दरबार’ की परिधियों में कैद इस ग़ज़ल के अन्य क़ाफियों से यह ‘पुकार’ उभरती है कि क़ाफियों की बेतुकी ‘मार’ ‘यार’ हम क्यों झेलें ? ऐसे में विराटजी से यह कहने की हिम्मत कौन जुटाये कि ‘विराटजी अगर ग़ज़ल ही लिखनी है तो सही तुकें ले लें’।

श्री राजेन्द्र तिवारी की कलाकारी आज हिन्दी में खुशबू की तरह जारी है, इनके हिस्से में ग़ज़ल की झण्डेबरदारी है। इस विशेषांक के पृ.85 पर वे तुकों के रूप में ‘कलमकारों’ को ‘कारों’ में बिठाते हुए, इनको ‘अखबारों’ को ‘दरबारों’ तक ले जाते हैं वहां ‘दीवारों’ पर तुकों के रूप में ‘बंटवारों’ के नारे लगाते हैं। इस प्रकार इस ग़ज़ल के सबकेसब क़ाफिया सिसकते हैं।

श्री नित्यानंद तुषार अर्थात् हिन्दी के प्रतिनिधि ग़ज़लकार की इसी विशेषांक के पृष्ठ 89 पर छपी ग़ज़ल की शक़ल बिना रदीफ के ‘ई’ स्वर के आधार पर ‘गी’,‘नी’, ‘मी’, ‘दी’, ‘डी’ के माध्यम से बदलाव का सही आधार ज़रूर खड़ा करती है लेकिन इन्हीं तुकों में दो बार ‘भी’ आने से [ रदीफ के गायब हो जाने के साथ-साथ ] सही क़ाफियों के गायब होने का प्रमाण भी मिलता है। इसतरह हिन्दीग़ज़ल में कौन-सा गुल खिलता है?

डॉ. मोहदत्त साथी पृ. 109 पर अपनी ग़ज़ल में ‘दुमदार’ की तुक ‘असरदार’, ‘किरदार’, ‘सरदार’ से मिलायें और उसमें ‘दरबार’ और ‘सरकार’ को भी निबाहें अर्थात् ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल बनायें तो असहमति कैसी, दुर्गति कैसी?

श्री अंसार कम्बरी की जल्वागरी भी पृ. 90 पर यूँ उतरी है। इस पृष्ठ पर वे तुक ‘मत’ से ‘स्वागत’ और ‘दलगत’ निभाते हैं और इस प्रकार हिन्दीग़ज़लकार हो जाते हैं।

श्री शिवओम अम्बर की दूसरी ग़ज़ल में ‘आचरण’ का क़ाफिया ‘वैयाकरण’ से मिलने के बाद ‘अन्तकरण’ के ‘संस्करण’ की किस शुद्धता में खिला है, क्या यह भी ग़ज़ल के हाथों में प्याले की जगह मशाल थमाने का सिलसिला है?

श्री महेश अनघ जब ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल बनाने के साथ, छंद, तुक, लय के हर परिचय के सदाशय को रूमाल दिखाकर विदा करने पर ही उतावले हैं तो उन्हें यह कौन समझायेगा कि ‘तोड़ेगा’ की तुक ‘तोड़ेगा’ या ‘छोड़ेगा’ की तुक ‘छोडे़गा’ अशुद्ध हैं। यह बताने का अर्थ है कि उनका हिन्दी ग़ज़ल की स्थापना का महान सपना टूट जायेगा।

तेवरी भले ही अनपढ़ों के गढ़ों में कैद हो लेकिन हिन्दीग़ज़ल के पंख आसमान को छूने के लिये जिस प्रकार फड़फड़ा रहे हैं, इस तथ्य को इस विशेषांक में श्री मलखान सिंह सिसौदिया इस प्रकार बता रहे हैं- श्री सिसौदिया की ग़ज़ल की चाल-ढाल में ऐसा कमाल है कि समांत [ रदीफ ] ‘मुझे क्या हुआ’ से पहले अगर चार बार ‘पाता’ आता है तो दो बार ‘बताते’ क़ाफिया बनने का प्रयास करता है और कुल मिलाकर यह क़ाफियों का मिलान ‘घूमता हूं’ के स्वर में भुस की तरह बिखरता है।

अगर हम यादराम शर्मा की बात को पुनः उठायें और यह बतायें कि रदीफ और क़ाफिया ग़ज़ल की प्राणवायु होते हैं तो उल्लेखित ग़ज़लों से यही प्राणवायु फरार है। कुल मिलाकर औसत हिन्दी ग़ज़ल बीमार है। पर हिन्दी ग़ज़लकार है कि डॉ. राकेश सक्सेना [ प्रसंगवश, हि.ग.वि.पृ.114 ] के रूप में मतला में ‘मचलने’ की तुक ‘संभलने’ से मिलाने की बाद आगे के नये क़ाफिये ‘गड़ने’ ‘झगड़़ने’ और ‘लड़ने’ भी गढ़ रहे हैं और यह कहकर हिन्दी ग़ज़ल के क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं कि-

गंगाजली में तुलसी, पीपल की छाँव से

ऋषियों की भाव-भूमि में पलने लगी ग़ज़ल।

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क्या सीत्कार से पैदा हुए चीत्कार का नाम हिंदीग़ज़ल है?

+रमेशराज

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ग़ज़ल हिन्दी या उर्दू, किसी में भी लिखी जाये, लेकिन अपने शास्त्रीय सरोकारों के साथ लिखी जाये। ग़ज़ल के ग़ज़लपन को समाप्त कर ग़ज़लें न तो कही जा सकतीं हैं, न लिखी जा सकती हैं। इसे हिंदी साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि ग़ज़ल के नियमों, उपनियमों की हत्या कर हिंदी में ग़ज़ल को प्राणवान बनाये जाने का कथित सुकर्म आज युद्धस्तर पर जारी है। काव्य-कृति ‘सीप में संमदर’ भी एक ऐसी कृति है जिसमें शिल्पगत कमजोरियों को ग़ज़ल की खूबी बताकर ‘हिंदीग़ज़ल’ घोषित किया है। इस ग़ज़ल संग्रह के रचयिता ग़ज़ल के क्षेत्र के ख्याति प्राप्त ग़ज़लकार डॉ. रामसनेहीलाल ‘यायावर’ हैं।

इस संग्रह की भाषा, शिल्प और कथ्यगत कमजोरियों को पुष्ट करते हुए संग्रह की भूमिका में डॉ. उर्मिलेश लिखते हैं कि-‘डॉ. यायावर ने उर्दू ग़ज़ल के पारंपरिक मिथक को तोड़ते हुए अलग हटकर काम किया है। मसलन, उर्दू ग़ज़ल में हर शे’र स्वतंत्रा सत्ता रखता है, लेकिन डॉ. यायावर की अधिसंख्यक ग़ज़लों के शे’र एक ही विषय को आगे बढ़ाते हैं।...डॉ. यायावर की ज्यादातर ग़ज़लें मात्रिक छंद में लिखी गयी हैं। उर्दू में ग़ज़लें कही जाती हैं। डॉ. यायावर ने ग़ज़लें लिखी हैं। इस प्रक्रिया में उनका गीतकार-रूप परोक्ष रूप से हावी रहा है।’’

डॉ. उर्मिलेश के तथ्यों की रोशनी में यदि इन कथित ग़ज़लों का मूल्यांकन करें तो ग़ज़लों से ग़ज़ल का प्राण-तत्त्व कथ्य [ प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत ] तो गायब है ही, ढाँचे [ शिल्प ] की पहचान वाली वे विशेषताएँ भी लुप्त हैं , जिनसे ग़ज़ल का ग़ज़लपन पहचाना जा सकता है। पारंपरिक मिथक को इस कदर तोड़ा गया है कि ग़ज़ल की मुख्य विशेषता-‘हर शे’र के कथ्य की स्वतंत्र सत्ता’ को भी तहस-नहस कर डाला गया है। गीत-शैली में लिखी गयीं इन कथित ग़ज़लों में ग़ज़ल की तो बात छोडि़ए, ग़ज़लांश कितना है, यह भी शंका की गिरप्फत में है।

प्रथम ग़ज़ल के मतला-‘कुछ धरती कुछ अम्बर बाबा, माया और मछन्दर बाबा’ के माध्यम से कवि क्या संदेश देना चाह रहा है, बिल्कुल अस्पष्ट है। भाई ‘धरती, अंबर, माया और मछंदर हैं तो हैं, इसमें बाबा क्या कर सकते हैं?

ग़ज़ल की एक विशेषता और होती है-उसका बह्र-बद्ध होना। डॉ. उर्मिलेश के मतानुसार तो यह विशेषता भी इस ग़ज़लों से लुप्त है क्योंकि ये मात्रिक छंदों में ‘कही नहीं, ‘लिखी गयी’ हैं। क्या ग़ज़ल ‘कहने’ के स्थान पर ‘लिखने’ से उर्दू ग़ज़ल के स्थान पर हिंदी ग़ज़ल हो जाती है? हिंदी में ग़ज़ल के सिद्दांतों की ये कैसी जलती हुई दीपक-बाती है जो ग़ज़ल के नाम पर ग़ज़ल का घर जलाती है।

ग़ज़ल इस तर्क के साथ कि-‘‘भूख और प्यास से मारी हुई इस दुनिया में इश्क ही हकीकत नहीं, कुछ और भी है..’’ [ डॉ. रामनिवास शर्मा ‘अधीर’, सीप में समंदर, पृ.6 ], यदि नयी हकीकत-‘‘व्यवस्था के ठेकेदारों के विरुद्ध कलमबंद बयान [ सीप में समंदर, डॉ. यायावर ] से रु-ब-रू हो सकती है तो इसी संग्रह के पृ. 26 पर प्रकाशित ग़ज़ल का ‘प्रेमिका को बाँहों में भरने का ‘जोश’, कौन-से आक्रोश की हकीकत या अभिव्यक्ति है? ‘होश में हैं फिर भी पैमाना हमारा क्यों नहीं/ हम हैं, साकी है, ये मयखाना हमारा क्यों नहीं है?’ के माध्यम से डॉ. यायावर आखिर कहना क्या चाहते हैं? क्या मयखाने में बैठकर शराब के जाम पर जाम गले में उतारते हुए छैनी-हथोड़े की बात करना वैचारिक मैथुन के अतिरिक्त किसी और रूप में स्वीकृत किया जा सकता है? प्रेमिका को बाँहों में भरकर व्यवस्था के विरुद्ध की गयी तलवारबाजी क्या एक साथ दो-दो मोर्चों पर सफल हो सकती है? क्या सीत्कार से पैदा हुए इस नकली चीत्कार का ही नाम हिंदीग़ज़ल है? ग़ज़ल से उसकी मूल आत्मा उसके शिल्प अर्थात् उसकी काया को भी क्षत-विक्षत करके हिंदीग़ज़ल को बनाना है तो ऐसी काया पर आत्ममुग्ध हिंदी के ग़ज़लकारों या इसके पक्षधरों के समक्ष कोई तर्क रखना ही बेमानी है।

‘सीप में समंदर’ ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लें चीख-चीख कर इस बात का प्रमाण देती हैं कि इनमें ग़ज़ल का ग़ज़लपन सिसक रहा है। यथा-पृ. 30 पर ग़ज़ल के मतले से काफिया ही गायब है तो अन्य काफिये ‘मौन’ को ‘मौन’ और ‘कौन’ को ‘कौन’ से मिलते हुए हाँफते हुए नजर आते हैं। ग़ज़ल में काफियों की निकृष्ट व्यवस्था देखिए-

या तो संवादों में विष है, या फिर केवल मौन है,

प्रश्नाकुल है आज समय का यक्ष, युध्ष्ठिर मौन है।

या तो जब-जब सुने आपने या निर्जन में दुहराये,

वरना अपने इन गीतों को सुनने वाला कौन है?

कातिल बोला है चिल्लाकर किया हुआ दुहराऊँगा,

डरकर सहमे उड़े कबूतर किंतु अदालत मौन है।

कोई कमरे में खिड़की से चुपके-चुपके कूद गया,

कुर्सी पूछ रही है यारो! दरवाजे पर कौन है।

पृ. 95 पर ‘श्रीमान’ की तुक ‘प्राण’, पृ. 71 पर ‘भूमिष्ठ की तुक ‘उच्छिष्ट’, पृ.57 पर ‘मादा’ की तुक ‘राधा’ या ‘आधा’, पृ.50 पर ‘सुलाया’ की तुक ‘लाया’, पृ. 47 पर ‘जलता’ की तुक ‘घुलता’, पृ.39 पर ‘तमाशा’ की तुक ‘भाषा’ या ‘आसा’ आदि यदि उत्कृष्ट काफियों के नमूने बन सकते हैं तो हिंदी ग़ज़ल के ऐसे समर्थक ग़ज़ल के नाम पर जितना चाहें उतना तन सकते हैं। जहाँ तक इन ग़ज़लों में बह्र के स्थान पर मात्रिक छंदों के प्रयोग का सवाल है तो इससे भले ही ग़ज़ल के ग़ज़लपन का एक और अंग भंग और बदरंग होता हो, किंतु इन ग़ज़लों में मात्रिक छंदों का प्रयोग भी शुद्ध हुआ हो, यह भी संदिग्ध है। पृ. 73 पर प्रकाशित ग़ज़ल के दूसरे शे’र के दूसरे मिसरे के साथ-साथ ऐसी कई अन्य ग़ज़लें भी इस तथ्य की गवाह हैं कि हिंदी-छंदों के नाम पर भी एक रोग का योग है। अस्तु ‘सीप में समंदर’ ग़ज़ल संग्रह भले ही अपने कथ्यात्मक ओज के लिये प्रशंसनीय है किंतु इन ग़ज़लों में ग़ज़लपन कितना है, इसे लेकर कुहरा घना है।

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ग़ज़ल के क्षेत्र में ये कैसा इन्क़लाब आ रहा है?

+रमेशराज

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ग़ज़ल को प्रधानता से छापने वाली पत्रिका ‘लफ्ज़-2’ सम्मुख है। पत्रिका का आलोक, बिना किसी रोक-टोक अन्तर्मन की गहराइयों को ऊर्जावान बनाता है। पत्रिका पढ़ते-पढ़ते एक जादू-सा छा गया। अनेक ग़ज़लों का कथन, मौलिकपन के साथ संवाद करता हुआ उपस्थिति होता है। सहज-सरल विधि से कही गयी अनेक ग़ज़लों का विमल स्वरूप, जाड़े की धूप-सा प्रतीत होता है। इन ग़ज़लों में प्रशंसनीय और वन्दनीय ‘बहुत कुछ’ है।

इस अंक में एक ओर जहाँ ग़ज़लों के उत्तम नमूने अपनी सुन्दर छटा बिखेरते हैं, वहीं कई ग़ज़लें ऐसी भी हैं, जिनसे प्राणवायु [ रदीफ और काफिया ] अनुपस्थित हैं। श्री अहमद कमाल की ग़ज़ल [ पृ. 37 ] के मतला में ‘आया’ और ‘हुआ’ तुकों का निर्वाह हुआ है। रदीफ की अनुपस्थिति में कही गयी इस ग़ज़ल ने कौन-सी ऊचाईयों को छुआ है? इस ग़ज़ल में आगे चलकर काफिये की सुव्यवस्था भी तब बिखर जाती है, जब ‘आया’ की तुक ‘आया’ की माया [ काफिये को खोकर ] रदीफ की काया बन जाती है। इस प्रकार यह ग़ज़ल अपने ही ग़ज़लपन के विरुद्ध चाकू की तरह तन जाती है।

ठीक इसी प्रकार की सही तुकों की लाचारी या बीमारी का क्रम, परवेज अख्तर, कैसर-उल-जाफरी, विकास शर्मा ‘राज’, सरफराज, शाकिर, महेश जोशी, शशि जोशी, शारिक कैफ़ी और कई अन्य की ग़ज़लों को बेदम किये है। क्या समांत और स्वरांत अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था की हत्या कर, ग़ज़ल को प्राणवान बनाया जा सकता है? क्या तुकों के इस प्रयोग को सार्थक ठहराया जा सकता है?

इसी अंक में ग़ज़ल का एक दूसरा पक्ष भी यक्ष की तरह खड़ा है, जिसका हर सवाल ग़ज़ल के वक्ष में काँटे की तरह गड़ा है। श्री शहरयार की ग़ज़ल के घटक ‘फाइलातुन, फाइलातुन, फाइलुन’ हैं। इन्हें मिलाकर ही सम्भवतः यह रचना छन्दबद्ध और लयबद्ध की गयी है। इस ग़ज़ल के चौथे शे’र की पहली पंक्ति [ रेत फैली और फैली दूर-दूर ] के ‘दूर-दूर’ शब्द ‘फाइलुन’ घटक द्वारा व्यक्त किये गये हैं। ‘फाइलुन’ के अनुसार क्या शब्दों की मात्रा गिराकर इन्हें ‘दर-दूर’ या ‘दूर-दर’ पढ़ा जायेगा? इस पंक्ति को लयभंगता से कौन बचायेगा?

श्री अशरत रजा की ग़ज़ल के घटक ‘फाइलातुन, मफाइलुन, फेलुन’ हैं। इस ग़ज़ल के दूसरे शे’र की तीसरी पंक्ति [ वह है जैसा कुबूल है यारो ] के प्रारम्भ में ही ‘वह है जैसा’ शब्दों के बीच ‘फाइलातुन’ घटक बुरी तरह घायल हो जाता है। यह पढ़ने वाले पर निर्भर है कि वह यहाँ किस शब्द या अक्षर को गिराता है। ठीक इसी प्रकार छन्द की लय का मकरन्द शारिक कैफी की ग़ज़ल के चौथे शे’र की दूसरी पंक्ति [ हाँ इक उम्मीद सही, हमेशा थी ] में ‘हाँ- इक उम्मीद’ के बीच कसैला होकर उभरता है।

ग़ज़ल में मात्राएँ क्यों गिरायी जाती हैं? क्या बिना मात्रा गिराये ग़ज़ल नहीं कही जा सकती? घटक या घटक समूह के अनुरूप ही शब्दों को सँजोना थोड़ा दुष्कर कार्य अवश्य है, लेकिन घटक या घटक-समूह के अनुरूप निर्मित शब्द विन्यास ग़ज़ल के लयात्मक सौन्दर्य में वृद्धि ही करता है। ओज ही भरता है।

उर्दू में ग़ज़ल को कहे जाने के लिए अगर बह्र का प्रयोग घटकों के योग से सम्पन्न होता है तो हिन्दी में इसी प्रकार के घटक, गण के रूप में प्रयोग किये जाते हैं, जैसे जगण, तगण, सगण, मगण आदि। इधर अगर घटक ‘फैलुन’ है तो उधर ‘सगण’ के रूप में ‘सलगा’ है। संत तुलसीदास की एक पंक्ति प्रस्तुत है- उक्त पंक्ति में सगण के रूप में ‘सलगा’ घटक का मात्राओं के क्रम [ लघु लघु दीर्घ ] के अनुसार बिना मात्रा गिराये सफल निर्वाह हुआ है, जिसका विभाजन [ तक़्ती ] इस प्रकार किया जा सकता है-

पुर ते, निकसीं, रघुवी, र वधू , धरि धी , र दये, मग में, डग द्वै।

सलगा, सलगा, सलगा, सलगा, सलगा, सलगा, सलगा, सलगा।

वर्णिक छन्दों के अतिरिक्त हिन्दी में मात्रिक छंद भी हैं, जिनमें मात्राओं की गिनती कर छन्द पूरा किया जाता है। मात्रिक छंदों में [ वर्ण के अनुरूप ] घटक या घटक-समूह का प्रयोग नहीं होता। उर्दू में घटक या घटक-समूह का ही प्रयोग होता है, किंतु इन घटकों के प्रयोग का अर्थ तब व्यर्थ अनुभव होता है, जब घटक के वर्ण या अक्षर के अनुरूप प्रयोग नहीं मिलते। प्रयोग के अनुरूप की तो बात छोड़ें, चाहे जब-चाहे जहाँ मात्रा गिराने का चलन, एक फैशन बनता जा रहा है। ग़ज़ल के क्षेत्र में ये कैसा इन्क़लाब आ रहा है?

हिन्दी में यदि घटक ‘सलगा’ के माध्यम से ‘पुर ते, निकसीं, रघुवी, ‘र वधू ’ आदि शब्द-समूह ज्यों के त्यों बनाये जा सकते हैं तो उर्दू में घटक ‘फेलुन’ के समान शब्द-समूह जैसे ‘आ अब’, ‘ले मत’, ‘ है नम’ के स्थान पर ‘रख-अब’ ‘रख जा’, ‘सुन ले’, शब्द समूह बनाया जाना क्या घटकों की उठापटक को दर्शाना नहीं हैं? बह्र का एक मात्रिक छंद बन जाना नहीं हैं?

इन तब तथ्यों को प्रस्तुत करने के पीछे मेरा उद्देश्य न तो यह दर्शाना है कि मैं कोई साहित्य का महान पंडित हूँ या हिन्दी और उर्दू कविता के किसी विशेष ज्ञान से महिमामंडित हूँ। मैं तो साहित्य का एक बालक मात्र हूँ और निरंतर कुछ न कुछ सीखने की प्रक्रिया में हूँ। अपने अल्पज्ञान या अज्ञान को सहज स्वीकारता हूँ। मेरा उद्देश्य यह भी नहीं है कि हिन्दी और उर्दू की सांस्कृतिक साझेदारी को नष्ट किया जाये। इस पहचान का योग ही तो हिन्दुस्तान या भारतवर्ष है, इस बात को कहते हुए मुझे कोई विषाद नहीं, हर्ष ही हर्ष है। यह तो एक विचार-विमर्श है, जिसकी मिठास में कड़वेपन का आभास उत्पन्न नहीं होना चाहिए।

अतः आइए-इस सांस्कृतिक साझेदारी के एक अन्य पहलू पर भी विचार करें- इसी अंक में ‘आपके खत’ के अंन्तर्गत अशोक अंजुम, राजेन्द्र रहबर के पत्र और उन पर सम्पादक एवं श्री नौमान शौक का स्पष्टीकरण भी पढ़कर लगा कि श्री नौमान शौक विद्वान आलोचक हैं, इसलिये उनकी हर बात का अर्थ, समर्थ न हो, ऐसा कैसे हो सकता है? शब्दों के तद्भव और देशज रूपों से चिढ़ रखने का उनका अभ्यस्त मन, शब्दों की तत्समता में ही अन्ततः रमता है। तभी तो उनकी आलोचना का शब्दों के मूल उद्गम से कुछ अधिक ही नाता है। किन्तु यह कैसी विषमता है कि इसी अंक में प्रकाशित उनकी ग़ज़ल के बदन में [ मन में नहीं ] भटकी सदा जब गुंजायमान होती है तो यह पता ही नहीं चलता कि उन्होंने इस अंक में प्रकाशित अपनी ग़ज़ल में ‘जिसको’ भी पहन रखा है, ‘उसे’ पैंट की तरह पहन रखा है या शर्ट की तरह पहना है या यह कोई गहना है? इस बारे में हम जैसे मंदबुद्धि को कुछ नहीं कहना है। अतः स्वीकारे लेते हैं कि ‘किसी को इस प्रकार पहन कर किया गया, उनका यह अलौकिक कर्म, लौकिक रूप से सुन्दर दिखने का ही प्रयास होगा।

उनकी ग़ज़ल के इस सौन्दर्य-बोध के मध्य यदि ‘रखा’ शब्द ‘रक्खा’ [ रक्षा-बंधन की ‘राखी’ का बड़ा रूप ] को भी ध्वनित करने लगे तो चलेगा। तत्सम शब्द ‘प्रस्तर’ के स्थान पर ‘पत्थर’ भी भलेगा [ भला लगेगा ]। इस मौन स्वीकृति के उपरांत, यदि शौकजी जैसा ही कोई सम्भ्रांत आलोचक अपने सवाल में यह मलाल दर्शाने लगे कि कवि या शायरों को तत्सम् शब्द ही अपनाने चाहिए तो बात अटपटी अनुभव होती है।

हिन्दी और उर्दू वाले समान रूप से अपनी कविताओं में ‘अचरज’, ‘अनमोल’, ‘अँगूठा’, ‘कीड़ा’, ‘काठ’, ‘कोयल’, ‘नींद’, ‘छाता’, ‘नाम’, ‘गाँव’, ‘गधा’, ‘दाँत’, ‘घिन’, ‘बड़ा’, ‘डंक’, ‘आम’, ‘आसरा’, ‘आँसू’, ‘नंगा’, ‘आग’, ‘इकट्ठा’, ‘तिनका’, ‘थल’, ‘जमुना’, ‘काम’, ‘जीभ’, ‘खेत’, ‘नैन’, ‘नाच’, ‘गिद्ध’, ‘दूध’ आदि शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं, जबकि इनका तत्सम रूप क्रमशः ‘आश्चर्य’, ‘अमूल्य’, ‘अंगुष्ठ’, ‘कीट’, ‘काष्ठ’, ‘वृह्द’, ‘दंश’, ‘आम्र’, ‘आश्रय’, ‘अश्रु’, ‘नग्न’, ‘अग्नि’, ‘एकत्र’, ‘तृण’, ‘स्थल’, ‘यमुना’, ‘कार्य’, ‘जिव्हा’, ‘क्षेत्र’, ‘नयन’, ‘नृत्य’, ‘गृद्ध’, और ‘दुग्ध’ है। इन तत्सम रूपों को हिन्दी या उर्दू वाले कितना प्रयोग कर रहे हैं? इन सवाल पर दोनों के मुख पर ताले जड़ रहे हैं।

अस्तु! शब्द, ‘मोहब्बत’ और ‘मुहब्बत’ या ‘महब्बत’, ‘हालात’ और हालातों’ या ‘बचपनी’ की बहस में उलझे यह विद्वान क्या बतलाने का कष्ट करेंगे कि उर्दू में ‘चट्टानें’ का ‘चटानें’ [इब्राहीम अश्क, पृ. 40] ‘नदी’ का ‘नद्दी’ [खालिद किफायत, पृ. 48] ‘खण्डहर’ का ‘खंडर’ [राही, पृ. 41] ‘एक’ का ‘इक’ [शारिक कैफी,पृ.52] ‘चन्द्र’ का ‘चाँद’ [रईस, पृ.48], ‘ऋतुओं’ का ‘रुतें’ [इब्राहीम, पृ. 40], ‘रावण’ का ‘रावन’ [अतीक इलाहाबादी, पृ. 40], ‘सिरहाने’ का ‘सिराने’ [मुहम्मद अली मौज, पृ. 45] शब्द के रूप में प्रयोग करना किस कोण से उचित है? जबकि यह सर्वविदित है कि ये शब्द तत्सम न होकर या तो तद्भव है या देशज। अरबी-फारसी शब्दों के तत्सम रूप के प्रयोग पर बल देने वालों को हिन्दी के तत्सम रूपों के प्रयोग पर भी बल देना चाहिए। नहीं तो ऐसे निरर्थक विवाद खड़े करने पर भी पूर्ण-विराम लेना चाहिए।

‘लफ्ज़’ के इसी अंक की ग़ज़लों का थोड़ा और अवलोकन करें तो ‘सिर’ को ‘सर’ ‘सर्प’ को ‘साँप’, ‘फुल्ल’ को ‘फूल’, ‘दुःख’ को ‘दुख’, ‘उच्च’ को ‘ऊँचा’, ‘रहना’ को ‘रहियो’, ‘पृष्ठ’ को ‘पीठ’, ‘समुद्र’ को ‘समन्दर’, ‘अग्नि’ को ‘आग’, ‘पक्षी’ को ‘पंछी’, ‘सूर्य’ को ‘सूरज’, ‘आश्रय’ को ‘आसरा’, ‘हस्त’ को ‘हाथ’, ‘योग’ को ‘जोग’, ‘मुख’ को ‘मुँह’, ‘गौरी’ को ‘गोरी’, ‘कण्टक’ को ‘काँटा’, ‘रात्रि’ को ‘रात’, ‘अधर’ को ‘अधरा’ बनाकर कविता में प्रयोग करने पर जब हिन्दी और उर्दू वालों में एक मीठी सहमति बन सकती है तो अरबी या फारसी शब्दों के तद्भव या देशज रूप पर असहमति की एक पृथक अँगीठी क्यों सुलगती है? यदि ‘पानी’ को ‘पानियों’ [फिराक जलालपुरी, पृ.42] बनाकर बहुवचन का आभास दिया जाना कोई सार्थक कर्म है तो ‘हालात’ से ‘हालातों’ या ‘बचपन’ से ‘बचपनी’ का निर्माण कैसे अधर्म है? क्या यहाँ भी कोई हिन्दी या मुस्लिम मर्म है? जिसकी साम्प्रदायिकता के बीच सामान्यजन [आम आदमी] की बोलचाल की भाषा का रक्तरंजित होते जाना ही उसकी नियति है। यह कैसा स्थायी भाव रति है, जिसका रस परिपाक ‘विरोध’ को जन्म देता है। हिन्दी और उर्दू के बीच अवरोध को जन्म देता है।

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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ-202001

मो.-9634551630

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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