हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता - 6 (अंतिम भाग) / शेषनाथ प्रसाद

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भाग छः -

सोलहवाँ अध्याय     

  [कृष्ण कहते हैं कि प्रकृतिभेद से संसार में जैसी विचित्रता उत्पन्न होती है उसी तरह मनुष्यों में भी दो भेद दैवी सम्पद वाले और आसुरी सम्पद वाले होते हैं. वह  उनके कर्मों का वर्णन कर बताते हैं कि उन्हें कौन सी गति प्राप्त होती है.]

दैवी संपदा को प्राप्त और आसुरी संपदा को प्राप्त मनुष्यों के लक्षण अलग- अलग होते हैं. दैवी संपद प्राप्त मनुष्यों के लक्षण हैंः

                            श्री भगवान ने कहा
     अंतःशुद्धि  अभीति निरंतर  ज्ञान योग में दृढ़ स्थिति 
     यज्ञ दान इंद्रिय-दम   तप स्वाध्याय  हृदय-मन- आर्यव ।1।
     सत्य  अहिंसा  क्रोधरहितता  मन की  शांति  अनिंदा
     दया  प्राणियों पर  लज्जा मृदुता  अलोभ  अचपलता ।2।
     धृति  अंतर्मन  शुद्धि  अमानिता  क्षमा  तेज  अद्रोही
     ये लक्षण  उनके हैं भारत!  प्राप्त  दैव-सम्पद   जिन्हें ।3।

आसुरी संपदा प्राप्त मनुष्यों के लक्षण हैंः    

     पार्थ!  दंभ  अभिमान  दर्प  अज्ञान  क्रोध  निष्ठुरता
     अविवेकी  होना  ये  लक्षण  प्राप्त-असुर-सम्पद  के ।4।

पांडव! तुम दैवी संपद प्राप्त हो, यह मुक्ति के लिए है.

     दैवी  सम्पद  मुक्ति  के लिए  बंधन दे आसुरी  कहा
     प्राप्त हुए दैवी सम्पद को पांडव! किंचित शोक न कर ।5।

 

70 : अ-16 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता      

                                                      
लोक में सृष्टि भी दो प्रकार की हैः

     द्विविध प्राणि-स्वभाव लोक में  दैवी और आसुरी हैं 
     दैवि कहा विस्तरशः  मैंने  पार्थ! सुनो  आसुरी अब ।6।
     आसुर हों  किसमें प्रवृत  हों किससे निवृत न जानें
     उनमें न तो वाह्य शुद्धि न श्रेष्ठ आचार सच पालन ।7।
     कहते हैं वे जग असत्य है  बिन आश्रय बिन ईश्वर
     स्वतः  उत्पन्न स्त्री-पुरुष से काम हेतु  हेतु क्या और ।8।
     इस दृष्टि  का आश्रय ले  जो तुच्छबुद्धि  नष्टात्मन
     होते  जग के शत्रु  नाश का कारण  और  उग्रकर्मा ।9।
     आश्रित हो दुष्पूर  कामना के  मद मान दंभ में चूर
     अशुचिव्रती   मोहवश  गह आचार भ्रष्ट जग-विचरें ।10।
     मरने तक  रहने वाली  अति चिंताओं का आश्रित 
     तत्पर काम-भोग में मानें- यह जो कुछ आनंद यही ।11।
     अतः बँधे शत आश-पाश में काम  क्रोध  परायण             
     कामभोग के लिए अनीति  से धन-बटोर  में लगते ।12।
     इसे आज  पा लिया  मनोरथ  कल कर  लेंगे पूरा
     इतना धन  पास  है ही  हो  जाएगा  फिर  इतना ।13।
     मारा  गया  शत्रु  वह  हमसे  और  अन्य  मारेंगे 
     मैं ही सर्वसमर्थ बली हॅू  मैं ही सुखी सिद्ध  भोगी ।14।
     मैं कुटुंबवाला  धनाढ्य मैं  अन्य कौन है मेरे सम 
     यज्ञ  करेंगे  दान मौज  भी  यों अज्ञान से मोहित ।15।
     तरह तरह से  भ्रमित-चित्त व फँसे  मोह-फंदा में
     कामभोग-आसक्त लोग ये  अशुचि नरक में गिरते ।16।


                    अ-16 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 71        

       
     मान स्वयं को श्रेष्ठ धमंडी  चूर अर्थ मान-मद में
     विधि से रहित  दंभ से पूजें  नाममात्र के यज्ञों से ।17।
     अहंकार बल दर्प कामना  और क्रोध के आश्रित
     स्व पर में  स्थित मुझमें  रख दोषदृष्टि  द्वेष रखें ।18।
     ऐसे  क्रूरस्वभाव अशुचि उन  द्वेषी नराधमों  को 
     बारंबार गिराता  जग  में  मैं आसुरी  योनियों में ।19।
     मूढ़ जन्म  जन्मान्तर में  आसुरी  योनि को  पाए
     प्राप्त न हों कौंतेय!  मुझे  वे पाते और अधोगति ।20।
     काम क्रोध लोभ  ये तीनों  द्वार `त्रिविध  नरक के
     करते  नाश आत्मा का ये  उचित त्याग दें इनको ।21।
     इन  तमरूप नरक-द्वारों से रहित हुआ  पुरुष जो
     करता है  मंगल अपना  कौंतेय!  परमगति  पाता ।22।
     जो तज शास्त्र-विधान आचरण मनमाना करता है
     वह न सिद्धि सुख ही पाता है और न ही परमगति ।23।
     तेरे लिए प्रमाण शास्त्र कर्तव्यअकर्तव्य व्यवस्था में 
     जान योग्य  कर्म करना है जग में  शास्त्रविधी से ।24।


       दैवासुरसंपद्विभागयोग नाम का सोलहवाँ अध्याय समाप्त                                            
                                                                                                        

 

72 : अ-17 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता  
 
                  

सत्रहवॉ अध्याय

   [कृष्ण के इस वचन पर कि उसे (अर्जुन को) कर्तव्य अकर्तव्य के निर्णय में शास्त्र को प्रमाण मानना चाहिए. उसे समझ कर उसी के अनुसार कर्म करना चाहिए, अर्जुन के संशयी मन में प्रश्न उठा कि श्रद्धा से युक्त जो लोग शास्त्र में बताई विधि को छोड़कर पूजन करते हैं तो उनके मन की स्थिति कैसी होती है. इसी का उत्तर कृष्ण अब दे रहे है]

                         अर्जुन ने पूछा                                  
     छोड़  शास्त्र्विधि कृष्ण! करे जो देवयजन श्रद्धा से 
     उनकी निष्ठा कौन है फिर तो सत्व रजस या तामस ।1।
   
                       श्री भगवान ने कहा
     श्रद्धा  होती है मनुष्य की तीन  स्वभाव से उपजी
     वे सात्विकी  राजसी  व  तामसी उन्हें  सुन मुझसे ।2।
     अंतःकरणरूप  होती  है श्रद्धा  सब  मनुजों  की  
     भारत! यह मनुष्य श्रद्धामय  जस स्वरूप तस श्रद्धा ।3।
     सात्विक पूजें  देवजनों को  राजस यक्ष व  राक्षस
     और अन्य  तामस-जन  पूजें  भूतों  प्रेतगणों  को ।4।
     बिना शास्त्रविधि के ही करते जो जन घोर तपस्या 
     और अहं बलयुक्त काम आसक्ति दंभ से भर कर ।5।
     जो  देहस्थ  पंचभूतों  व  मुझ  शरीर-स्थित को
     कर देते कृश उन मूढों  को जान असुर-निष्ठा का ।6।
     भोजन भी होता है सबको तीन तरह का प्रियकर
     वैसे ही  तप यज्ञ दान भी  तीन  भेद  सुन उनके ।7।


                            अ-17 : हिंदी में  पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 73   


     आयु सत्व आरोग्य बुद्धि बल सुख प्रसन्नता वर्द्धक
     चिकने सुथिर मनोज्ञ रसीले प्रिय आहार सात्विक के ।8।
     अति कटु उष्ण रुक्ष खारे अति  तीक्ष्ण दाहकर खट्टे
     दुख  शोक  व रोगजनक  ये प्रिय आहार राजस के ।9।               
     जो  भोजन  रसरहित  सड़ा जूठा  दुर्गंधित  बासी   
     अपवित्र भी हो  प्रिय होता  तमस-वृत्ति वालों को ।10।
     करना ही कर्तव्य यज्ञ का मन का समाधान यों कर
     मुक्तफ्फलेच्छा करते जो  विधिनियत यज्ञ सात्विक है ।11।
     दंभ  दिखाने  हेतु यज्ञ  जो  होते  फ्फल- इच्छा से    
     भरतश्रेष्ठ!  जान तू  वह  ही राजस  यज्ञ  कहाता ।12।
     विधिविहीन दक्षिणा बिना  बिन अन्नदान बिन मंत्रों
     श्रद्धा  बिना  किए जाते  जो तामस  यज्ञ  कहाते ।13।
     जीवनमुक्त  देव गुरु द्विज  की पूजा शौच सरलता   
     ब्रह्मचर्य अहिंसा का व्रत  ये  सब  कायिक तप हैं ।14।
     मन को जो उद्विग्न करे न प्रिय यथार्थ हित-भाषण
     व अभ्यास को स्वाध्याय के  वाणी- तप कहते हैं ।15।
     मन-प्रसन्नता  शांत भाव  सौम्यता  पूर्ण मन-निग्रह
     भावों  की संशुद्धि  सभी ये  कहलाते  मानस तप ।16।
     फल-इच्छा से  रहित  परम  श्रद्धायुत मनुजों द्वारा
     जो तप तीन किए जाते वे  सात्विक  तप कहलाते ।17।
     तप  जो होता  मान पूज  सत्कार  दिखाने को व
     वह तप है राजस देता फल अध्रुव और अनिश्चित ।18।
     जो तप मूढ़  भाव से हठ से  अपने को  पीड़ा दे 
     पर के दुख के हेतु  किया जाता तप  होता तामस ।19।


74 : अ-17 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता 

              
      दान देना कर्तव्य समझ  जो दान अनुपकारी को        
      देश काल पात्रानुसार ही दिया जाय वह सात्विक ।20।
      प्रति-उपकार में पुनः दान  जो कष्ट झेल देते हैं
      फ्फल पाना  उद्देश्य बनाकर  राजस दान कहाता ।21।
      दिया  जाए  जो दान बिना  सत्कार अवज्ञापूर्वक
      पात्र अपात्र  कुदेश-काल में दान तामसी  है वह ।22।
      ॐ तत् सत् इन  तीन नाम से  निर्देशित परमात्मा
      सृष्टि-आदि में रचित उसी से वेद यज्ञ ब्राह्मण हैं ।23।        
      अतः क्रियाऍ  यज्ञ दान तपरूप  ब्रह्मवादियों की  
      वेद-नियत जो होती हैं आरंभ  सदा ॐ ध्वनि से  ।24।
      तत्रूप  ब्रह्म  का ही  सब मान सभी  मेाक्षार्थी
      यज्ञ दान   तपरूप क्रियाएँ  करते बिना फ्फलेच्छा ।25।
      सत् नाम होता प्रयुक्त है सत्य श्रेष्ठ भाव में और
      पार्थ! यह जोड़ा जाता अच्छे  प्रशंसनीय कर्मो से ।26।
      यज्ञ ज्ञान तपरूप  क्रिया में  निष्ठा भी सत् ही है 
      व परमात्मा के निमित्त जो कर्म करें सत् वह भी ।27।
      अश्रद्धा से किया हवन तप तपा दत्त दान किया   
      जो कुछ असत् पार्थ!  न फ्फल दे यहॉ न मृत्युपरे ।28।


          श्रद्धात्रयविभागयोग नाम का सत्रहवाँ अध्याय समाप्त
    


                            अ-18 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 75               

 

अठारहवाँ अध्याय

                       
  
   [अर्जुन ने कृष्ण से अनेक प्रश्न पूछे. कृष्ण ने उनके उत्तर भी दिए. पर अर्जुन के मन को समाधान नहीं मिला. संन्यास और कर्मयोग को लेकर उनके मन में उलझन बनी ही रही. कृष्ण ने उनसे जो भी कहा उसमें सन्यास और कर्मयोग दोनों की बातें हैं. किंतु उसमें संन्यास की अपेक्षा कर्मयोग को अपनाने पर अधिक जोर है.  
    अपनी उलझन को दूर करने के लिए अर्जुन ने कृष्ण से संन्यास और कर्मयोग के तत्वों को अलग-अलग जानना चाहा. अर्जुन ‘त्याग’ का तत्व पूछकर वस्तुतः कर्मयोग का तत्व पूछ रहे हैं.
    कृष्ण ने बताया कि कई जाननेवाले काम्य-कर्मों के त्याग को संन्यास और कई कर्म- फलों के त्याग को कर्मयोग कहते हैं. कई संन्यास में कर्ममात्र को त्याग देने को कहते हैं पर कई कहते हैं कि कर्मयोग में यज्ञ, दान, तप जैसे कर्म त्यागने नहीं, करने चाहिए.
    कर्म-त्याग के इन फर्कों को कृष्ण बड़े ही तार्किक ढंग से समझाते हैं, त्याग को तीन प्रकार का बतलाकर. इन तीनों में कर्मों के प्रति आसक्ति और फल पाने की इच्छा का त्याग ही सच्चा अथवा सात्विक त्याग है. क्योंकि प्रकृतितः कर्म किसीसे छूटते नहीं हैं. कर्म के प्रति आसक्ति और फल पाने की कामना छूट सकती है.
    यहॉ पूरी गीता का उपसंहार दिखाई देता है. यहाँ अर्जुन को त्याग और संन्यास के तत्वों को बताने के पश्चात कृष्ण ने कर्म और मनुष्य के भिन्न प्रकार के भेद बता कर पुनः कर्म से अलिप्त रहने की विधि को स्पष्ट किया है.
    अंततः कर्म अकर्म का पूर्णतः ज्ञान हो जाने पर अर्जुन कृष्ण के कहने से नहीं अपनी इच्छा से युद्ध में प्रवृत हो गए] 
                      
                            अर्जुन ने पूछा  
    महाबाहु!  जानना  चाहता मैं  संन्यास का  तत्व तथा    
    तत्व त्याग का केशिनिसूदन! हृषीकेश हे! अलग अलग ।1।

                     श्री भगवान ने कहा
    कितने बुध जानें  संन्यास को त्याग काम्य कर्मों  का   
    और कई  सब  कर्म-फ्फलों का  त्याग त्याग हैं कहते ।2।
76 : अ-18 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता    
     कई  मनीषी कहें दोषवत  कर्म  छोड़ देना ही ठीक
     कई कहें तप यज्ञ  दान  के कर्म त्यागना  ठीक नहीं ।3।
      मेरा यहॉ भरतसत्तम! सुन त्याग-विषय में निश्चय
      कहा गया  है पुरुषव्याघ्र! है  त्याग तीन तरह का ।4।
      यज्ञ दान तपरूप कर्म हैं त्याज्य नहीं करने लायक
      तीनों ही तप यज्ञ दान  शुचि करते  मनीषियों  को ।5।
      इन्हें तथा अन्य कर्मों को  त्याग आसक्ति फलेच्छा 
      पार्थ! चाहिए करना  मत है मेरा श्रेष्ठ  सुनिश्चित ।6।          
      निश्चित  किए हुए कमरे का त्याग उचित नहीं है 
      करना  त्याग मोह से उसका  तामस त्याग कहाता ।7।
      दुखसम  जान कर्म जो भी डर देह-कष्ट से त्यागे 
      पाता नहीं त्याग का फल यह रजसत्याग करके भी ।8।
      करना है  कर्तव्य जान  जो नियत  कर्म हैं  होते 
      तज आसंग फलेच्छा अर्जुन! त्याग वही सात्विक है ।9।
      जिसे न द्वेष अश्रेयकर्म से श्रेयकर्म में सक्ति नहीं 
      बुद्धिमान  संदेहरहित  त्यागी  स्वरूप- स्थित  है ।10।

त्याग की स्थिति स्पष्ट कर भगवान अर्जुन को अब कर्म की स्थिति स्पष्ट कर रहे हैं.

      संभव नहीं  देहधारी  का सारे  कर्म त्याग देना   
      अतः कर्मफल-त्यागी ही है सच त्यागी कहलाता ।11।
      अच्छा बुरा  मिश्र कर्मफल  होते सकामियों को
      मृत्युबाद भी, किंतु न पाता कभी कर्मफ्फलत्यागी ।12।
      महाबाहु! जान मुझसे वे हेतु  पाँच कर्म जिससे  
      होते सिद्ध  सांख्यशास्त्र में कहे गए हैं विधिवत ।13।

                            अ-18 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 77   


      कर्ता करण अधिष्ठान हैं  इसमें विविध तरह के 
      अलग अलग  चेष्टाएँ नाना  दैव पॉचवा कारण ।14।
      करता शुरू मनुष्य कर्म जो देह चित्त  वाणी से 
      शास्त्रविरुद्ध  शास्त्रानुसार या पॉच हेतु ये उसके ।15।
      होते हुए  हेतुओं के इन  लखे जो आत्मा कर्ता
      दुर्मति नहीं ठीक देखता  सही नहीं बुद्धि उसकी ।16।
      भाव न जिसमें मैं कर्ता का बुद्धि लिप्त न होती
      मार युद्ध में  लोगों को भी मारे नहीं  न बॅधता ।17।

भगवान बताते हैं कि ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता के जुड़ने से प्राणियों में कर्म प्रवृत होता है. फिर वह कर्म-संबंधित कर्ता, बुद्धि, धृति, सुख के सत, रज, तम से तीन-तीन भेद बताते हैं.

       ज्ञान ज्ञेय  ज्ञाता तीनों जुड़  कर्म-प्रवृत  करते हैं
      कर्ता करण  कर्म  तीनों से कर्म-संग्रहण  होता ।18।
      गुण-भेदों से  त्रिधा भेद हैं  ज्ञान कर्म कर्ता के
      कहे गए सांख्यानशास्त्र  में उन्हें यथार्थ सुन मुझसे ।19।
      जिससे देखे बॅटे प्राणि में  एक भाव अविनाशी-     
      अविभक्त सत्ता-जानो तू  उस ज्ञान को सात्विक ।20।
      जिस ज्ञान से सभी प्राणियों में अनेक भावों को 
      अलग-अलग देखे मनुष्य वह जान ज्ञान राजस है ।21।
      और ज्ञान जो कार्य-देह में हो आसक्त  पूर्णजैसा
      युक्तिरहित तत्वार्थरहित जो जान ज्ञान वह राजस ।22।
      शास्त्रनियत  कर्ताभिमान से  रहित कर्म जो और
      रागद्वेषबिन किया फलेच्छामुक्त पुरुष से सात्विक ।23।


78 : अ-18 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता                
      पर जो कर्म भोग-इच्छा या  अहंकार से श्रम से
      जाते किए  मनुज द्वारा  वे राजस  कर्म  कहाते ।24।
      बिना विचारे पौरुष हिंसा हानि व परिणामों को
      किया कर्म आरंभ मोह से  तमस कर्म कहलाता ।25।
      अहंवचन से शून्य  राग से रहित  धीर उत्साही
      कर्ता सिद्धअसिद्ध कार्य में निर्विकार सात्विक है ।26।
      रागी कर्मफलेच्छु लुब्ध जो  हिंसा भरा अशुचि है
      हर्ष  शोकयुक्त  कर्ता वह  कहलाता  है राजस ।27।
      असावधान  अशिक्षित दंभी  धूर्त कृतघ्न  विषादी 
      और  आलसी  दीर्घसूत्रि जो  तामस कर्तृ  कहाते ।28।
        गुणानुसार हैं तीन तरह के  भेद बुद्धि  धीरज के
      अलग अलग सुन उसे धनंजय! पूर्णरूप मैं कहता ।29।
      जो जाने भय अभय प्रवृत्ति  निवृत्ति मोक्ष व बंधन
      व कर्तव्य  अकर्तव्य को  बुद्धि पार्थ! है सात्विक ।30।
      धर्म अधर्म अकार्य कार्य का ज्ञान नहीं हो जिससे  
      ठीकतरह से पार्थ! बुद्धि वह राजस बुद्धि कहाती ।31।
      जो समझे अधर्म धर्म को  पार्थ! घिरी तमगुण से
      समझ उलट देती  सबमें  वह बुद्धि तामसी होती ।32।
      ध्यानयोग  से धारे  नर जिस  असंचारी  धृति से
      इंद्रिय-मनः प्राणकर्म को पार्थ! सात्विकी धृति वह ।33।       
      मनुज फलेच्छा संगयुक्त जो अर्जुन! धारण करता
      धर्म अर्थ काम जिस धृति से पार्थ! राजसी है वह ।34।
      जिससे भय विषाद नींद मद चिंता पार्थ! ये सारे
      नहीं  छोड़ता  दुष्टबुद्धि  नर धैर्य तामसी  है वह ।35।

                            अ-18 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 79               
      सुख भी  तीन तरह के  सुन तू मेरे से भरतर्षभ!  
      जिसमें  हो साभ्यास रमण व अंत दुखों का होता ।36।
      विष-सा लगे आदि में फल में लगे अमृत-सा जो 
      आत्मबुद्धि-प्रसाद  से पैदा  ऐसा सुख सात्विक है ।37।
      जो सुख इंद्रिय-भोग-योग से  पूर्व  सुधा-सा भासे
      फल में विष-सा लगे सुख वह कहलाता है राजस ।38।
      जो सुख शुरू काल में फल में मोहग्रस्त करता है
      उपजा आलस नींद प्रमाद से  कहा गया है तामस ।39।
      पृथ्वी में या स्वर्गलोक में  देवों में या अन्य कहीं
      जीव नहीं ऐसा प्रकृतिज जो  बंचित है त्रिगुणों से ।40।

फिर बताते हैं कि वर्ण के कर्म स्वभावतः पैदा हुए हैं. ये त्रिगुण के आधार पर विभक्त किए गए हैं. सभी कर्म सदोष होते हैं. अतः सरल कर्म को भी त्यागना ठीक नहीं है.

      ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र के  कर्म स्वभावतः पैदा
      गुण आधार पर  किए गए हैं  ये विभक्त परंतप! ।41।
      ब्राह्मण के स्वभाव-कर्म हैं क्षांति शौच मन-निग्रह
      आस्तिकबुद्धि ज्ञान तप दम भी व विज्ञान सरलता ।42।
      शौर्य  तेज  चतुराई धीरज  पीठ न फेरे  रण में
      स्वामी-भाव दान  स्वाभाविक कर्म  क्षत्रियों के हैं ।43।
      गोपालन  खेती  व्यापार  स्वभाव-कर्म  वैश्यों के
      ऐसे  ही  शूद्रों  का है स्वाभाविक  कर्म  सुसेवा ।44।
      अपने अपने कर्मों में रत  परम सिद्धि  नर  पाता
      कैसे होता प्राप्त सिद्धि  को वह प्रकार सुन मुझसे ।45।
 

80 : अ-18 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता       

         
      जिससे हैं उत्पन्न प्राणि ये व्याप्त जगत यह जिससे
      पूज उसे  अपने कर्मों से  मनुज सिद्धि  पा जाता ।46।      
      श्रेष्ठ स्वधर्म गुणरहित पूर्णतः धर्म अनुष्ठित पर के
      कर स्वकर्म  स्वभावज होता प्राप्त  नहीं पापों को ।47।
      त्याग नहीं कौंतेय!  ठीक ॠजु दोषयुक्त कर्मों का
      धुऑ-घिरी अग्नि जैसा ही होते हैं सब कर्म सदोष ।48।
      मति जिसकी  सर्वत्र अरागी  स्पृहारहित  अंतर्जित 
      प्राप्त परम नैष्कर्म्य सिद्धि को  हो संन्यास के द्वारा ।49।

भगवान बताते हैं कि मनुष्य किस प्रकार निष्कर्मता प्रान्त कर सिद्धि प्राप्त कर सकता है.

      सिद्धिप्राप्त मनुष्य ब्रह्म को निष्ठा परा ज्ञान की जो
      जिसप्रकार हो प्राप्त उसे तू  थोड़े में कौंतेय! सुनो ।50।
      शुद्ध बुद्धि से युक्त धैर्य से नियमन कर इंद्रिय को
      त्याग शब्द आदि  विषयों को राग द्वेष को तजकर ।51।
      मित आहारी  निर्जनसेवी वश कर तन मन वाणी  
      नित्य परायण ध्यानयोग के  व वैराग्य आश्रित हो ।52।
      अहंकार बल दर्प परिग्रह  काम क्रोध को तजकर
      ममतारहित  प्रशांत  मनुज है पात्र  ब्रह्म का होता ।53।
      ब्रह्मरूप  प्रसन्नमन  साधक शोक न करे न इच्छा
      सभी प्राणि में सम  हो मेरी  परा भक्ति पाता है ।54।
      उस सुभक्ति से मुझे तत्वतः  जो जितना हॅू जाने  
      और तत्व से जान मुझे  तत्क्षण प्रविष्ट हो मुझमें ।55।
      भक्त परायण हो मेरे नित  सभी कर्म करके भी  
      अव्यय  अविनाशी पद पाता  पाकर मेरा अनुग्रह ।56।

                        अ-18 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता : 81     

                           
भगवान कहते हैं कि अर्जुन तू समबुद्धि का आलंबन कर मुझमें मनवाला हो अपना सब कर्म मुझे अर्पण कर दे. तू यह युद्ध नहीं करेगा तो तेरी प्रकृति तुझसे यह करा देगी.

      मन से सभी कर्म अर्पण कर  मुझमें मेरे परायण
      आलंबन कर साम्यबुद्धि   का  मुझमें हो मनवाला ।57।
      मुझमें  मनवाला  पा मेरी  कृपा तरे  सब संकट
      सुनी न  मेरी बात अहंवश  प्राप्त पतन को होगा ।58।
      अहंकारवश  मान  रहा  जो युद्ध  नहीं  करूँगा 
      व्यर्थ तेरा यह निश्चय तूसे प्रकृति करा लेगी तेरी ।59।
      निज  स्वभावजन्य  कर्मों से  कुंती-पुत्र  बँधा तू  
      युद्ध जो करना चाह रहा न प्रकृतिवशी तू करेगा ।60।
      सभी  प्राणियों  के अंतः में  रह ईश्वर माया से      
      प्राण्मिात्र को घुमा रहा चढ़  देह-यंत्र पर अर्जुन! ।61।   
      अतः सर्वभाव से भारत!  जा तू शरण  उसी की
      होगी प्राप्त कृपा से उसकी शाश्वत शांति परमपद ।62।
      यह अति गूढ़  गूढ़तर मैंने ज्ञान कह दिया तुझसे
      इसपर तू पूरा  विचार कर  करो हो इच्छा जैसी ।63।
      फिर भी सुन तू गोपनीय इस परम वचन को मेरे
      तू  है मेरा इष्ट मित्र  मैं अतः  तेरे हित  कहता ।64।
      भक्त मेरा हो पूजक हो  मुझमें मनकर नमो करो
      सत्य प्रतिज्ञा कर कहता मैं   तू प्रिय मुझे मिलेगा ।65।
      छोड़ सभी धर्मों का आश्रय केवल मेरी शरण हो
      चिंता न कर मुक्त कर दूँगा तुझे तेरे सब अघ से ।66।
      कभी न कहना उसे वचन यह जो अभक्त सुने न
      और जो नहीं तपस्वी, रखता दोषदृष्टि नित मुझमें ।67।

82 : अ-18 : हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता      

 
      जो मुझमें रख  प्रेम परम  यह गूढ़ वचन  कहेगा
      भक्तों में मेरे  वह होगा प्राप्त  निशंक   मुझे ही ।68।
      कोई नहीं  मनुष्यों  में है उस सम  प्रियकर  मेरा
      उसके सम  प्रियतर मेरा है अन्य न कोई  भू पर ।69।
      हम दोनों का धर्म-संवाद  यह जो अध्ययन करेगा
      उससे ज्ञान- यज्ञ  से  पूजित  होऊँगा  मत  मेरा ।70।
      सुन भी लेगा  जो श्रद्धा से  इसे बिना  दोष ढूँढ़े
      पाएगा  शुभलोक मुक्त  हो  प्राप्त पुण्यकर्ता को ।71।
      सुन तो लिया न एकचित्त हो  पार्थ! कहा जो मैंने
      नष्ट हुआ कि नहीं  धनंजय!  मोह तेरा  अज्ञानज ।72।               
 
                      अर्जुन ने कहा
        मोह गया स्मृति पाया मैं अच्युत! तेरी कृपा से
        मैं  हूँ अब  संशयविहीन  आज्ञा  तेरी मानूँगा ।73।
 
                       संजय ने कहा    
       इसप्रकार  श्री  वासुदेव व पार्थ महात्मा का  मैं
       रोमांचित कर देने वाला अद्भुत वह संवाद सुना ।74।
       व्यास-कृपा से सुना परम इस  गोपनीय गीता को 
       मैंने कृष्ण  योगेश्वर को  साक्षात स्वयं ही कहते ।75।
       राजन! यह संवाद अनोखा  पूत कृष्ण अर्जुन का 
       कर-करके  स्मरण  हो रहा  बार बार मैं हर्षित ।76।
       अतिविचित्र रूप वह हरि का कर स्मरण मुझे है
       बहुत बड़ा आश्चर्य  हो रहा  बार बार हर्षित हॅू ।77।
       जहाँ योगेश्वर कृष्ण  और हैं  जहाँ पार्थ धनुर्धर
       वहीं जीत श्री अचल नीति है व विभूति मेरे मत ।78।


          मोक्षसंन्यासयोग नाम का अठारहवाँ अध्याय समाप्त           

(समाप्त)            


 

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रचनाकार: हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता - 6 (अंतिम भाग) / शेषनाथ प्रसाद
हिंदी में पद्यान्वित श्रीमद्भगवद्गीता - 6 (अंतिम भाग) / शेषनाथ प्रसाद
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