स्वतंत्रता आन्दोलन में भगत सिंह / वीरेन्द्र त्रिपाठी

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" आजादी आन्दोलन में भगत सिंह " भारत में जब अंग्रेज़ों द्वारा शोषण उत्पीड़न चरम पर था और आजादी के लिए लाखों लोग संघर्ष के पथ पर आ...

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" आजादी आन्दोलन में भगत सिंह "

भारत में जब अंग्रेज़ों द्वारा शोषण उत्पीड़न चरम पर था और आजादी के लिए लाखों लोग संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ रहे थे , तब उनकी मुक्ति की तीव्र कामना को अभिव्यक्त करते हुए गैर समझौता वादी धारा के क्रांतिकारी आगे आए। ऐसे समय में उस संघर्ष को सबसे सशक्त और वैचारिक अभिव्यक्ति दी शहीद- ए-आज़म भगत सिंह ने जिनको राजगुरु व सुखदेव के साथ 23मार्च 1931 को फांसी दी गई। उनका सपना एक ऐसे भारत का था जहां किसी को अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए तरसना न पड़े, जहां मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण न हो।

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भगतसिंह केवल नाम ही नहीं है। उनका नाम न केवल क्रांति की भावना का सूचक है बल्कि आज़ादी आंदोलन की समझौतावादी धारा के खिलाफ़त का भी पर्याय है। जलियांवाला बाग नर संहार के समय वे छात्र थे। इस जघन्य हत्याकांड से सारा देश कांप उठा। भगतसिंह को भी इस घटना ने झकझोर दिया था। विशाल संख्या में की गई हत्याओं तथा अंग्रेजी हुकूमत द्वारा अपनाये गए घृणित तौर -तरीकों और निहत्थे आम लोगों पर हुए इस बर्बर अत्याचार के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा करने में समझौतावादी धारा की विफलता आदि के कारण भगतसिंह क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी बनने की ओर उन्मुख हुए। भारतीय आजादी आंदोलन शुरू से ही दो विपरीत धाराओं में विकसित हुआ। गांधीजी एवं उनके समर्थकों के नेतृत्व में समझौतावादी धारा विकसित हुई जिसके तौर-तरीके शांतिपूर्ण एवं अहिंसात्मक प्रकृति के थे। दूसरी ओर थी गैर समझौता वादी धारा जिसकी शुरूआत खुदीराम बोस के संघर्ष से हुई और महाराष्ट्र, बंगाल, पंजाब, उप्र आदि में गौरवपूर्ण संघर्षों से यह धारा विकसित होते हुए नेताजी के नेतृत्व में आईएनए द्वारा अंग्रेजों से लड़े गए ऐतिहासिक युद्ध के रूप में शिखर पर पहुंची। इस धारा के सेनानी क्रांतिकारी तौर-तरीके और सशस्त्र संघर्ष के रास्ते में विश्वास रखते थे। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की दोनों धाराएं न केवल साथ-साथ विकसित हुई बल्कि कुछ मौकों पर उनमें सीधा टकराव भी हुआ। भगतसिंह के शहादत के समय आपस का यह टकराव पूरी तीव्रता से प्रकट हुआ। भगतसिंह और उनके साथियों के शहादत से हजारों युवाओं के क्रांतिकारी आंदोलन की ओर आकर्षित होने की प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए गांधी जी ने कहा था " भगतसिंह की पूजा ने देश को अत्यधिक नुकसान पहुंचाया है और पहुंचा रही है। जहां भी यह जारी है अराजकता और गिरावट के फैलने का कारण बन रही है। " दूसरी ओर पूरे राष्ट्र की भावना को वाणी देते हुए नेताजी ने कहा था " भगतसिंह देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैली विद्रोह की भावनाओं के प्रतीक है। इस भावना द्वारा प्रज्ज्वलित लपटें अब कभी बुझेगी नहीं। " दरअसल इन दो धाराओं में मतभेद मात्र व्यक्तिगत विश्वासों या धारणाओं के कारण नहीं था बल्कि यह मतभेद अंतर्निहित सामाजिक एवं ऐतिहासिक कारणों से था।

भगतसिंह ने अपने साहस, बहादुरी और बुलन्द इरादों से अत्यंत छोटी उम्र में ही राजनीतिक परिपक्वता हासिल कर क्रान्तिकारियों में विशिष्ट स्थान हासिल कर लिया था। उन्होंने पूरे स्वतंत्रता संघर्ष का मूल लक्ष्य क्या हो और इसे किस जरिए से हासिल किया जाए, इस बारे में सटीक अवधारणा देने की कोशिश की। शोषित - पीड़ित के प्रति उनके दिल में गहरा प्यार और स्नेह ही उन्हें क्रांतिकारी संघर्ष में खींच लाया था। भूखे , नंगे , निरक्षर शोषितों के प्रति गहरे लगाव ने उन्हें शोषण करने वालों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष में शामिल होने हेतु प्रेरित किया था। इसलिए उन्होंने कहा था " क्रांति से हमारा अभिप्राय व्यक्तिगत हिंसा नहीं है और न ही खून खराबा हमारा उद्देश्य है। यह बम और पिस्तौल की पूजा नहीं है। क्रांति से हमारा आशय है कि शोषण और अन्याय पर आधारित मौजूदा व्यवस्था का आमूलचूल परिवर्तन होना चाहिए। "

श्रमिकों , किसानों , शोषित जनता की मुक्ति के लिए स्वतंत्रता आंदोलन को क्रांतिकारी रूप देने का उन्होंने पूरा प्रयास किया था। मानव को हर तरह के शोषण से मुक्त करने के प्रयासों में वे, उस समय मौजूद दोनों धाराओं , राजनैतिक और दार्शनिक फलितार्थों को समझने के प्रयास में जुटे और उन्होंने क्रांतिकारी राजनीतिक दर्शन और वर्ग संघर्ष के साथ जुड़कर एक उच्चतर संस्कृति तथा नीतिशास्त्र की नींव रखी।

दिल्ली के सेशनकोर्ट में उन्होंने श्रमिक हितों एवं समाजवाद के बारे में कहा था, " श्रमिक ही समाज के सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्से है एवं उत्पादन शक्ति है, परन्तु उनके श्रम को शोषक लूट रहे हैं और उन्हें मूलभूत अधिकारों से भी वंचित कर देते है। पूरे समाज के लिए फसल उगाने वाले किसानों के परिवार भूखों मरते हैं। तमाम दुनिया के बाजारों के लिए सूत जुटाने वाला जुलाहा अपना और अपने बच्चों का तन ढकने के लिए पूरा कपड़ा नहीं जुटा पाता, शानदार महल खड़े करने वाले राजमिस्त्री , लुहार एवं बढ़ई झोपड़ियों में गुजर बसर करते और मर जाते है। दूसरी ओर पूंजीपति शोषक, परजीवी अपनी सनकों पर ही करोड़ों रुपए बहा देते है। ...समाज में मौजूद यह भयावह विषमताएं और जबरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है। यह स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रह सकती है और आज का धनिक समाज एक भयानक ज्वालामुखी के मुंह पर बैठ कर रंगरेलियां मना रहा है।"

एक बार भारतीय गदर पार्टी के नेता बाबा सोहन सिंह भकना ने भगतसिंह से उनके रिश्तेदारों के बारे में पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया ,"बाबाजी मेरा खून का रिश्ता तो शहीदों के साथ है ,जैसे खुदीराम बोस और करतार सिंह सराभा ,हम एक ही खून के है।हमारा खून एक ही जगह से आया है और एक ही जगह जा रहा है।दूसरा रिश्ता आप लोगों से है,जिन्होंने हमें प्रेरणा दी और जिनके साथ कालकोठरियों में हमने पसीना बहाया है।तीसरे रिश्तेदार वे होंगे जो इस खून-पसीने से तैयार की हुई जमीन में पैदा होंगे और इस मिशन को आगे बढ़ाएंगे।"आज भगतसिंह की निगाहें अपने उस तीसरे रिश्तेदार को ढूंढ रही है।

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वीरेन्द्र त्रिपाठी , लखनऊ

मो : 9454073470

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रचनाकार: स्वतंत्रता आन्दोलन में भगत सिंह / वीरेन्द्र त्रिपाठी
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