रमेशराज के व्यंग्य

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------------------------- [व्यंग्य] पुलिस बनाम लोकतंत्र +रमेशराज -------------------------------------------------- लोकतंत्र में पुलिस क...

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[व्यंग्य]

पुलिस बनाम लोकतंत्र

+रमेशराज

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लोकतंत्र में पुलिस की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। अब आप कहेंगे कि लोकतंत्र से पुलिस का क्या वास्ता! है क्यों नहीं साहब! अजी पुलिस का डंडा और लोकतंत्र का झंडा एक दूसरे के ऐसे पूरक हैं जैसे देशी घी में चर्बी। पुलिस की कर्तव्यनिष्ठा, लगन और ईमानदारी पर आपके शक करने का अर्थ, लोकतंत्र के साथ विश्वासघात करना है। इसलिये पुलिस चाहे गंगाजल परीक्षण के अन्तर्गत आपकी आंखों का कोफ्ता बनाकर लोकतंत्र की भेंट चढ़ा दे या वर्दी का डकैती में इस्तैमाल कर आपके सीने पर गोलियों के ठप्पे लगाये। खून की होली खेले या थाने की चार-दीवारी की भीतर किसी बेबस नारी के तन पर शराब के भभकों के साथ बलात्कार का काला इतिहास लिख दे, आपको यह सब चुप रहकर लोकतंत्र की रक्षा के लिये हंसते-हंसते झेलना है | आपके माथे की एक भी नस तनने का अर्थ होगा कि आप फासिस्ट हैं, देशद्रोही हैं, नक्सलवादी हैं। गांधीजी के सपनों की हत्या कर रहे हैं।

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लोकतंत्र की रक्षा के लिये आपका कर्तव्य पुलिस-तंत्र को फलने-फूलने के पूर्ण अवसर देकर उसे सुदृढ़ बनाना है। भले ही पुलिस लोकतंत्र की दूबिया जड़ों को मट्ठा डालकर खोखला कर दे।

मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि आप लोकतंत्र में विश्वास नहीं रखते। अगर आप विश्वास रखते होते, तो जब भी पुलिस आपकी किसी बेटी का शील-भंग करती तो आप उसे अपनी दूसरी बेटी भी सौंप देते और तपाक से अहिंसावादी होने का तमगा ले लेते। लेकिन आप हैं कि बेटी की तो बात छोडि़ये, किसी दूसरे की बहू-बेटी के साथ यदि कोई पुलिसवाला मुंह काला कर ले तो आपके सीने का शांत ज्वालामुखी धधकने लगता है। आप थाने पर पथराव और प्रदर्शन की बातें सोचने लगते हैं। न्याय के लिये अदालत के दरवाजे खटखटाना शुरु कर देते हैं | जबकि पुलिस है कि ऐसी विकट परिस्थितियों में भी आपके साथ लोकतान्त्रिक तरीके अपनाते हुये, आपको सिर्फ बन्द करने की धमकी देती है। जबकि वह चाहे तो ऐसे नाजुक मौकों पर लोकतंत्र की रक्षा के लिये, जज साहब से मिलकर या उनके लाख विरोध के बावजूद आपको भरी अदालत से उठवा सकती है, थाने में बेलन चढ़ा सकती है। बिजली के तारों से चिपका सकती है। किसी भी ऐरे-गैरे नत्थू खैरे से आपको मुंह में पेशाब करा सकती है। भले ही आप शहर के कितने ही बड़े तुम्मनखां व्यापारी हों, समाजसेवी हों, पत्रकार हों या कोई और।

मैं पूछता हूं आपसे-अगर आपके यहां चोरी हो जाती है तो आप थाने में रपट लिखाने जाते ही क्यों है? हो सकता है आपकी सामान्य-सी रिपोर्ट थाने में दर्ज होने पर लोकतंत्र खतरे में पड़ जाये। अगर आपके यहां डकैती पड़ गयी है तो थाने या लोकतंत्र में तो डकैती नहीं पड़ गयी कि जिसके लिये दरोगाजी चिन्तित हों और वे सुरा-सुन्दरी के जायके को किरकिरा कर डकैतों का पता लगाने के लिये आपके साथ दौड़-धूप शुरू करें और छानबीन के बाद उन्हें पता चले कि जिसने डकैती डाली थी, वह व्यक्ति यह सब कुछ लोकतंत्र की रक्षा के लिये कर रहा है। तब आप ही सोंचे कि दरोगाजी लोकतंत्र की रक्षा करने वाले व्यक्ति को गिरफ्तार करके क्या अलोकतांत्रिक कहलाना पसंद करेंगे? क्या पुलिस में बग़ावत फैलाना चाहेंगे?

अगर आपको कोई चाकू मार दे तो भाई डाक्टर किसलिये हैं? आप उनके पास जायें, टांके लगवायें, मरहमपट्टी कराएं। लेकिन आप हैं कि रिक्शे में बैठकर पहुंच गये थाने और लगे रिपोर्ट लिखाने। आखिर आप क्यों तुले हैं दरोगाजी और लोकतंत्र की मिट्टी पलीद करने और कराने। हो सकता है जिस वक्त आप रिपोर्ट लिखाने पहुंचे हों, उस वक्त आपको चाकू मारने वाला, दरोगाजी की जेब गरम करके लोकतंत्र की जेबें गरम करने के सारे प्रयास कर चुका हो।

मैं फिर कहूंगा कि आपसे लोकतंत्र की रक्षा हो ही नहीं सकती? अगर आप लोकतंत्र की रक्षा कर रहे होते तो किसी खालसा, बोड़ो, गोरखा, कश्मीरी आन्दोलन से जुड़ गये होते और फिर संविधान की प्रतियां जलाकर, बड़े-बड़े पुलिस अधिकारियों को अपनी लोकतांत्रिक बंदूक से भूनकर, रेल की पटरियां तोड़कर, लोकतंत्र का झंडा थामे होते। आप किसी देश-भक्त के पाजामे होते।

आप कोई नेता भी तो नहीं, जो सीमेन्ट, चावल, तोप, पाइपलाइन, चारा, यूरिया, तहलका, ताबूत आदि में घोटाला कर जायें और पुलिस विभाग आपके इस लोकतांत्रिक ढंग की हृदय से प्रशंसा करे और आपको गिरफ्तार करने से डरे। अजी आप तो ठहरे निरीह जनता। आपसे लोकतंत्र का कुछ नहीं बनता।

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रमेशराज, 15/109 ईसानगर, अलीगढ़-202001, mob.-9634551630

[व्यंग्य ]

विमोचन एक हिन्दी पुस्तक का

+रमेशराज

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यूं तो हमारे देश में कई हिन्दी पुस्तकों के भव्य और विशाल विमोचन पांचतारा होटलों से लेकर महाविद्यालयों के सुसज्जित प्रांगणों में बड़े-बड़े हिन्दी प्रवक्ताओं के मक्खनबाजी से भरे पर्चों और अध्यक्ष की कराहती हुई तकरीर के मध्य सम्पन्न हुए हैं! किन्तु जिस पुस्तक-विमोचन की चर्चा यहां की जा रही है, वह एक ऐतिहासिक कवि की, ऐतिहासिक कृति का, ऐतिहासिक पुरुष द्वारा ऐतिहासिक विमोचन है, जिसके पीतप्रकाश में प्रतिभाओं का टिमटिमाना साफ दिखने लगता है। तो लीजिए हम आपको ऐसे ही एक ऐतिहासिक विमोचन का ‘आखों देखा हाल’ सुनाने के लिये ले चलते हैं, एक महाविद्यालय के उस प्रांगण में जहां हमारी मातृभाषा को अक्सर सिसकना पड़ता है।

फूलमालाओं से सुसज्जित स्वागत-द्वार पर ये जो तीन ऐतिहासिक महानुभाव खड़े हैं, पहले मैं आपको इनका ऐतिहासिक परिचय दे दूं। दायें से सबसे पहले फूलमालाएं लिये खड़े हैं, डॉ. अचरजलाल। इन्हें आज तक इस बात पर अचरज है कि ये हिन्दी विभाग में प्रवक्ता कैसे बन गये? क्योंकि हिन्दी का एक-एक शब्द बोलने में इनकी जीभ लड़खड़ाने लगती है और ये तब तक सामान्य नहीं हो पाते, जब तक कि चार छः वाक्य अंग्रेजी के नहीं बोल लेते या हिन्दी को सौ गालियां नहीं दे लेते। इनके बारे में मजेदार बात यह भी है कि ये अब हिन्दी पुस्तकों के एक कर्मठ और समर्पित प्रकाशक के रूप में अपनी जड़ें जमाते चले जा रहे हैं।

इनके बराबर अर्थात् मध्य में प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्री ज्ञानराम गांधी मुस्करा रहे हैं, लेकिन मुआफ कीजयेगा, ये न तो गांधीजी के कोई संबंधी हैं और न इनका गांधीजी से कोई दूर-दूर तक का वास्ता है। हां इतना जरूर है कि ये ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के दौरान भारत छोड़कर विदेश जा बसे। वहां इन्होंने घोर शृंगारिक कविताएं लिखीं। जिन पर हमारी भारतीय सरकार ने राष्ट्रीय पुरस्कार देकर इन्हें सम्मानित किया। इन्होंने इसे अमूल्य राष्ट्रीय सेवाओं का पारश्रमिक समझ सहज स्वीकार लिया।

तीसरे स्थान पर ये हें वो साहसी और स्वाभिमानी कवि डॉ. सेवक नाम ‘अधीर’, जिन्होंने अपनी प्रेरक रचनाएं बड़ी-बड़ी व्यावसायिक पत्रिकाओं में छपवाने के लिए क्या-क्या पापड़ नहीं बेले। सभी सुरी-आसुरी प्रथाओं का तन-मन से पालन करते हुए, एक कविता संग्रह ‘अंतर्यात्रा से गुजरते हुए’ प्रकाशित कराया है। संग्रह अंर्तयात्रा से कितना गुजरा है, इसका अन्दाजा आप डॉ. अधीर के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की देहरी पर माथा रगड़ने पर पड़ी खरोंचों से आसानी के साथ लगा सकते हैं। अब स्थिति यह है कि व्यावसायिक पत्रिकाओं के सम्पादकों से इनके सम्बन्ध स्वामी और सेवक जैसे हो गये हैं।

अभी-अभी स्वागत द्वार के ठीक सामने जो विदेशी कार से उतरे हैं, ये हैं हिन्दी अधिकारी माननीय भारत कुमार। अब आपको इस ऐतिहासिक पुरुष का भी थोड़ा परिचय दे दूं--दक्षिण में हिन्दी-विरोधी लहर के दौरान, हिन्दी के विराध में इन्होंने कई आम सभाएं आयोजित कीं, भारी तोड़फोड़ और हिंसा में शरीक रहे। इनकी राष्ट्रभक्ति से खुश होकर सरकार ने इन्हें हिन्दी अधिकारी के पद की शोभा बढ़ाने को कहा। और ये सांप की तरह कुंडली मारकर तुरन्त कुर्सी पर बैठ गये। मगर बिडम्बना देखिए कि जब इन्होंने हिन्दी के प्रचार-प्रसार की सुधि ली तो इन पर साम्प्रदायिक होने का गम्भीर आरोप लगाया गया। जिससे क्षुब्ध होकर इन्हें अंतरराष्ट्रीय भाषा अंग्रेजी का दामन थामना पड़ा, जो इनके साथ एक मजबूरी की तरह आज तक चिपका हुआ है।

दुल्हन की तरह सजा मंच, ऊँची-ऊँची गद्देदार कुर्सियां और ऐसे सुगन्धित वातावरण में [ जो किसी नाट्यशाला का आभास दे रहा है ] ये चारों विभूतियां देव प्रतिमाओं-सी विराजमान हैं और श्रोता दीर्घा में बैठे हैं स्थानीय कवि, पत्रकार एवं प्रकाशक महोदय के कुछ व्यावसायिक मित्र।

लीजिए विमोचन कार्यक्रम अब शुरू होने जा रहा है। जिसमें प्रकाशक महोदय की व्यावसायिक सफलता का सारा दारोमदार निहित है। इसलिये मुख्य अतिथि डॉ. भारत कुमार के प्रति बोले जाने वाले सम्मानसूचक शब्द भी बड़ी मेहनत और लगन से संजोये गये हैं। प्रकाशक महोदय, [ जो विमोचन कार्यक्रम का संचालन भार संभाले हुए हैं ] के मुंह से निकला एक-एक शब्द कुकुरमुत्ते की तरह फूटकर मुख्य अतिथि पर सम्मान की छतरी तान रहा है। इस वक्त यह बात ध्यान देने योग्य है कि प्रकाशक महोदय ने स्वयं स्वीकार किया है कि वे किसी भी तरीके से व्यावसायिक नहीं होना चाहते। यह अलग बात है कि व्यक्तिगत सम्बन्धों के आधार पर उन्हें पुस्तकों का भारी आर्डर सरकार के हिन्दी संस्थान से मिल जाये तो इसमें बुरा मानने की क्या बात है?

डॉ. भारत कुमार के करकमलों से पुस्तक का विमोचन होने के उपरांत, प्रकाशक महोदय ने मुख्य अतिथि के मुखारबिन्द से कवि और पुस्तक के प्रति बोले गये शब्द इस समय ध्यान देने योग्य हैं- ‘‘लेडीज एण्ड जैन्टल मैन, आई एम सो मच ग्लैड, दैट यू हैव इनवाइटेड मी...|’’ जी हां चौंकिए नहीं, हम बता चुके हैं कि डॉ. भारत कुमार हिन्दी कार्यक्रम में साम्प्रदायिकता जैसी छूत की बीमारी से बचना चाहते हैं, इसी कारण वे अंतर्राष्ट्रीय भाषा का सहारा ले रहे हैं, वर्ना टूटी-फूटी हिन्दी तो ये अब भी बोल लेते हैं। लीजिए श्रोता दीर्घा से इस मुद्दे पर आपत्तियां उठना शुरू हो गयीं हैं। और अब प्रकाशक महोदय स्थिति संभालने की कोशिश में जुटे हैं- ‘‘ भाइयो! शान्त हो जाइये, हिन्दी जैसे गैरजरूरी मसले को उठाकर माहौल को तनावग्रस्त बनाने की कोशिश न करें। अरे भाई हिन्दी अधिकारी के पद पर एक अहिन्दीभाषी क्या हमारी सरकार की उदारवादी और असाम्प्रदायिक नीति का परिचायक नहीं है....।’’

खैर, हम इस विवाद में आपको उलझाना नहीं चाहते। हम पुनः डॉ. भारत कुमार की ओर आपको आकृष्ट कराना चाहेंगे और प्रकाशक महोदय की महत्वाकांक्षाओं को फूलने-फलने का अवसर देंगे। मुख्य अतिथि प्रकाशक महोदय की मक्खनबाजी से तर होकर अब ‘अंतर्यात्रा से गुजरते हुए’ कविता संग्रह पर हिन्दी में थोड़ा-सा प्रकाश डाल रहे हैं-

‘‘ इस कविता संग्रह के बारे में क्या कहूं? इस समय बस इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि गेटअप बेहद आकर्षक है, इसमें सरकारी काग़ज़ के बजाय काफी महंगा काग़ज़ लगा है, संग्रह का मूल्य पांच सौ रुपये है, जोकि प्रकाशक की अव्यावसायिक मानसिकता का द्योतक है| यदि समय मिला तो घर पर इसे कभी पढूंगा और बाद में अपने विचारों से अवगत भी कराऊँगा, फिलहाल यह मान लेने में मुझे कोई हिचक या दिक्कत अनुभव नहीं हो रही है कि संग्रह अच्छा और स्वागत योग्य है| जैसा कि प्रकाशक के एक वरिष्ठ साथी ने इशारे से कहा है, मैं इस पुस्तक की विक्री का अपने विभाग की ओर से पूरा आश्वासन देता हूं।’’

डॉ. भारत कुमार के आश्वासन पर कुछ साहित्यकार एवं प्रकाशक महोदय के मित्र प्रांगण को तालियों की गड़गड़ाहट से भरने का अभूतपूर्व प्रयास कर रहे हैं।

लीजिये अब मुख्य अतिथि जलपान गृह की ओर प्रस्थान करने जा रहे हैं। जलपान गृह बनाम् सोमकक्ष का आंखों देखा हाल प्रस्तुत करने में हम असमर्थ हैं। हां संकेत के रूप में बस इतना ही कह सकते हैं कि कुछ अस्फुट से ठहाकों, बोतल खुलने तथा गिलास टकराने का स्वर यदाकदा सुनायी-सा पड़ रहा है। भविष्य में यदि कोई ऐसा ही ऐतिहासिक विमोचन कार्यक्रम हुआ तो उसका ‘आंखों देखा हाल’ बताने को पुनः आपकी सेवा में उपस्थित होऊँगा, तब तक के लिये ‘जय हिन्द’।

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+रमेशराज, 15/109 ईसानगर, अलीगढ़-202001, mob.-9634551630

[ व्यंग्य ]

साक्षात्कार एक स्वास्थ्य मंत्री से

+रमेशराज

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आज हम आपको जिस स्वास्थ्य मंत्री से साक्षात्कार करा रहे हैं, इनका स्वास्थ्य पिछले वर्षों में महाजन के सूद की तरह दिन दूना और रात चौगुना बढ़ा है। इनके स्वास्थ्य [ तोंद ] की क्रांतिकारी प्रगति को देखकर हमारी इच्छा हुई कि क्यों न इनके स्वास्थ्य के रहस्य पर अपनी लेखनी की जांच-आयोग बिठाकर, उसकी रिपोर्ट सूखकर छुहारा होती हुई जनता के समक्ष पेश की जाये। तो प्रस्तुत है एक स्वास्थ्य मंत्री से रोमांचक साक्षात्कर-

हम मंत्रीजी के वातानुकूलित कक्ष में जैसे ही प्रविष्ट हुये तो वहां इन्द्र के अखाड़े जैसा माहौल देखकर भौचक्के रह गये और यह भूल गये कि हम उनसे उनके स्वास्थ्य का रहस्य जानने आये हैं। क्षण-भर को हमें अपना ब्रह्मचर्य भी डांवाडोल होता महसूस हुआ। बड़ी मुश्किल से अपने पर काबू किया और कुर्सी खींचकर उनके समक्ष बैठ गये। वे बड़ी मादक मुस्कान से हमारी ओर देखते हुये बोले-‘‘ कहिये पत्रकार जी! मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं?’’

‘‘ जी, हम आपसे कुछ स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रश्न पूछने आये हैं?’’

‘‘ अजी क्या पूछना चाहते हैं आप हमारे स्वास्थ्य के बारे में। आजकल विरोधियों ने मिट्टी खराब कर रखी है हमारे स्वास्थ्य की।।’’

मंत्रीजी के इस गोल-गोल उत्तर पर हम भला आसानी से उनका पीछा कैसे छोड़ सकते थे। हमने पुनः एक और प्रश्न दागा-

“सरकार! अपनी इस क्रांतिकारी स्वास्थ्य-वृद्धि के बारे में कुछ तो बताएं जनता को?’’

क्रांतिकारी शब्द पर मंत्रीजी थोड़ा-सा चौंके और फिर संयत होते हुये बोले-‘‘ क्रांतिकारी स्वास्थ्य! अरे भाई नहीं-नहीं, मेरा स्वास्थ्य तो पूरी तरह लोकतांत्रिक है। अगर आप जानना ही चाहते हैं मेरे स्वास्थ्य का रहस्य... तो सुनिये...मगर छापियेगा नहीं।’’

यह कहते-कहते मंत्रीजी के चेहरे पर एक रहस्यमय मुस्कान फैल गयी, उनकी तोंद में लगातार का उतार-चढ़ाव आने लगा। उन्होंने कसमसाहट के साथ एक ठण्डी आह भरी और मेज पर हमारी ओर झुकते हुये बोले- ‘पिछले पांच सालों से हजारों वादे और आश्वासनों का निशास्ता सुबह नाश्ते में ले रहा हूं। शुरू-शुरू में तो मुझे इसे पचाने में काफी तकलीफ होती थी, लेकिन बाद में हाज़मे की राजनैतिक गोलियों से वह परेशानी भी खत्म हो गयी। अब आप अच्छी तरह समझ सकते हैं कि मेरे स्वास्थ्य का राज़ क्या है?’’

मंत्रीजी के स्वास्थ्य का रहस्य जानने के बाद हमें उनसे जनता के स्वास्थ्य के बारे में जानने की जिज्ञासा भी उत्पन्न हुयी और पूछ ही लिया-‘‘मान्यवर! आजकल जनता का स्वास्थ्य थर्मामीटर के पारे की तरह गिर रहा है, इसका क्या कारण है?’’

यह सुनते ही वे कसमसाकर बोले-‘‘ आपने तो मुंह का जायका ही खराब कर डाला। खैर, जब पूछ ही लिया है आपने तो हम भी बताए ही देते हैं कि जनता को जो कुछ मिलता है, उस पर संतोष नहीं करती, बल्कि उसकी निगाह हमारे खान-पान और चेहरे पर बढ़ती हुयी लालामी पर टिकी रहती हैं। आप तो जानते ही होंगे कि किसी कवि ने कहा है-‘रूखा-सूखा खाय के ठंडा पानी पीव, देख परायी चूपड़ी मत ललचावै जीव’, अगर जनता कवि की इस बात को गांठ बांध ले तो रोना किस बात का? मगर सच जानिये उसे तो दूसरे की थाली में झांकने की आदत-सी हो गयी है। उस पर तुर्रा ये कि सरकार हमें खाने को कुछ नहीं देती। उसे तो इस बात पर संतोष करना चाहिये कि उसे पेट भरने को दो वक़्त की सूखी रोटी तो मिल जाती है। मुझे देखिये, हफ्तों मेवे और फलों पर गुज़ारा करना पड़ता है। कभी-कभी पानी भी नसीब नहीं होता, बल्कि प्यास बुझाने के लिये विदेशी शराबों पर निर्भर रहना पड़ता है। जबकि जनता चुंगी के नलों के नीचे यदि अपना बर्तन लगा दे तो बेशक बूंद-बूंद ही सही, सुबह से शाम तक भर तो जाता है। अब आप बताइए! ऐसे सुविधाभोगी लोगों का यदि स्वास्थ्य गिर रहा है तो मैं क्या कर सकता हूं? उनके स्वास्थ्य के लिये तो मैं अपना स्वास्थ्य खराब करने से रहा।’’

जनता के प्रति मंत्रीजी की उदारता देखकर हमने मन ही मन उन्हें सैकड़ों बार नमन किया और गद्गद् होते हुये हम अनायास उनसे बोले-‘‘ नहीं.. नहीं मंत्रीजी आपको जनता के स्वास्थ्य की बिल्कुल चिन्ता नहीं करनी चाहिये। जनता तो आपकी प्रजा है | प्रजा आपकी बराबरी कैसे कर सकती है? वो तो कुछ सिरफिरे हैं जो आपको जनता का सेवक बताते हैं | हमें तो बस यह चिन्ता जरूर है कि जनता का स्वास्थ्य किस गति से गिर रहा है, भविष्य में जब भी चुनाव होंगे तो जनता मतदान केन्द्रों तक आपको वोट डालने कैसे आयेगी?

यह सुनते ही मंत्रीजी रूष्ट होकर बोले-‘‘ अजी कैसे पत्रकार हैं आप! इतना भी नहीं समझते कि जनता कभी अपनी इच्छा से वोट डालने नहीं आती। उसे तो मतदान केन्द्रों तक अदृश्य सरकारी प्रयत्नों से लाना पड़ता है। इसलिये जनता के स्वास्थ्य जैसे छोटे-मोटे पचड़े में हम कभी नहीं पड़ते।’’

मंत्रीजी से साक्षात्कार का समय भी समाप्त होता जा रहा था और हमारे प्रश्नों के सभी मोहरे लगातार पिट चुके थे, फिर भी हमने चलते-चलते अपना अन्तिम मोहरा आगे बढ़ाया-‘‘मंत्रीजी! जनता के स्वास्थ्य के प्रति भविष्य में आपकी कुछ तो योजनाएं होंगी?’’

अंतिम प्रश्न को सुनकर मंत्रीजी के चेहरे पर असंतोष और उकताहट के भाव और भी गहरे हो गये। वे हमें टालने की मुद्रा बनाते हुये बोले-‘‘ अजी योजनाएं तो हर साल बनकर हमारे कार्यालय से निकलती हैं, मगर पता नहीं किन अज्ञात कारणों से रास्ते में भाप बनकर उड़ जाती हैं। हो सकता है इसके पीछे किसी विरोधी दल या विदेशी संस्था का हाथ हो।... अभी और कुछ पूछना बाकी रह गया हो तो जल्दी से पूछ लो। ज्यादा समय तक चर्चा करने से मेरा स्वास्थ्य खराब होना लगता है।’’

‘‘नहीं साहब! अब कुछ नहीं पूछना। सब कुछ जान गये हैं। अब आज्ञा चाहेंगे?’’

हमने विनम्रतापूर्वक मंत्रीजी के स्वागत-कक्ष से प्रस्थान किया। अभी हम बाहर निकल ही रहे थे कि मंत्रीजी के मंद स्फुटित शब्द हमारे कानों में जबरदस्ती उतर गये-‘‘ स्साले पत्रकार कहीं के..।’

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रमेशराज, 15/109 ईसानगर, अलीगढ़-202001, mob.-9634551630

[ व्यंग्य ]

माया फील गुड की

+रमेशराज

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‘फील गुड’ मुहावरे का इतिहास बहुत पुराना है। आदि देव शिव ने अनेक राक्षसों को इसका अनुभव कराया। भस्मासुर ने तो शिव से वरदान प्राप्तकर इतना फील गुड किया कि शिवजी को ही फील गुड कराने लगा। वह उनके पीछे हाथ धोकर पड़ गया। आदि देव शिव भस्मासुर को तो फील गुड कराना चाहते थे, लेकिन भस्मासुर के फील गुड के सामने वह घबरा गये। अपने फील गुड को बचाने के चक्कर में उन्हें भस्मासुर के साथ-साथ उसके फील गुड का भी अन्त करना पड़ा।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने सुग्रीव को फील गुड, उसी के भाई बाली की हत्या कर कराया। उनके स्वयं के फील गुड पर जब एक धोबी ने शंकाओं के वाण दागे तो वे तिलमिला उठे। वे अपनी प्रिय और अभिन्न सीता को ‘राज-निकाला’ देकर ही अपने फील गुड के बचा सके।

महायोगी श्रीकृष्ण भी राधा और गोपियों को बांहों में भरकर फील गुड कराते रहे, किन्तु जब मथुरा के राजा बन गये तो उन्होंने रुक्मिणी के साथ-साथ कुब्जा को भी फील गुड कराया। उस समय उन्होंने वियोग में तड़पती राधा को, फील गुड के दूसरे रूप ‘निराकार’ से उद्धव के द्वारा परिचित कराया। पर बेचारी राधा की समझ में यह रूप नहीं आया।

गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन को फील गुड करना चाहते थे, इसके लिये उन्होंने एकलव्य का अंगूठा मांग लिया और अर्जुन यह देखकर फील गुड-फील गुड चिल्लाने लगा।

मौहम्मद गौरी ने जब भारत पर हमला किया तो पृथ्वीराज चौहान ने फील गुड कराने के चक्कर में अनेक बार उसे छोड़ दिया। वह पृथ्वीराज चौहान के फील गुड फैक्टर से इतना अभिभूत हुआ कि चौहान की गिरफ्तार करने के बाद ही उसके फील गुड के स्थान पर फील बैस्ट किया।

राजा मानसिंह ने जोधाबाई जब अकबर की अर्धांगिनी बनायी तो अकबर के मन में फील गुड की फसल लहलहायी।

गांधीजी अंग्रेजों के फील गुड फैक्टर से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें सारे के सारे क्रांन्तिकारी, आतंकवादी नज़र आने लगे। वे अंग्रेजों के फील गुड के चक्कर में जलियां वाले बाग के खूंखार किरदार ओडायर की खुलकर भर्त्सना करना भी भूल गये।

अंग्रेज, नेहरूजी को अपनी सत्ता सौंप गये। नेहरू जी भी भला किसी से क्या कम थे? उन्होंने गोरे सेठों के स्थान पर आये, काले सेठों से कहा-‘फील गुड |” काले सेठ गुड फील करते हुए इस देश का दोहन करने में जुट गये। नेहरू यहीं शान्त नहीं बैठे। उन्होंने फील गुड के लिए ‘हिन्दू-चीनी भाई-भाई’ का नारा देकर अपनी अन्तर्राष्ट्रीय पहचान बनायी और माउंटवेटन से रिश्तेदारी निभायी।

इन्दिराजी का फील गुड फैक्टर बेहद प्रबल साबित हुआ। जब लोहियाजी के अनुयायी जयप्रकाश नारायण ने इन्दिराजी के फील गुड फैक्टर की हवा निकालनी चाही तो इन्दिराजी ने आपात-काल लगाकर पूरे देश से फील गुड करने को कहा। इन्दिराजी के फील गुड से प्रभावित होकर उनके सुपुत्र संजय गांधी ने नसबन्दी का अभियान चलाया।

युवा प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी फील गुड के चक्कर में अपने नाना की तरह, अपनी अन्तर्राष्ट्रीय पहचान बनाकर महान हो जाना चाहते थे। अतः उन्होंने श्रीलंका में शान्ति सेना को पठाया, पर लिट्टे को उनका यह सराहनीय कदम नहीं भाया। लिट्टे में मानव बम चलाया।

नरसिंह राव जब प्रधानमंत्री बने तो फील गुड करते हुए इतने तने कि अपने चार कदम भ्रष्टाचार के काले सूरज की ओर बढ़ा दिये। सी.बी.आई. ने उन पर कई केस लगा दिये।

अमरीका ने हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री माननीय अटल बिहारी वाजपेयी को इतना फील गुड कराया कि वे पाकिस्तानी आतंकवादी गतिविधियों के भारत में पुख़्ता प्रमाण मिलने के बावजूद, उससे शान्ति वार्ता करने में जुटे रहे। संसद और अक्षरधाम पर हुए हमलों का मलाल उन्हें फिलहाल नहीं रहा। उन्हें शेयर दलालों और मल्टीनेशन कम्पनियों की चिन्ता रही। उनके शासन में फील गुड करते हुए जार्ज फर्नान्डीज, जूदेव, तेलगी जैसे अनेक नायक, महानायक बनते गये और फील गुड-फील गुड चिल्लाये।

भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटलजी का फील गुड फैक्टर आज भी नौकरशाही पर इतना हावी है कि जनता का दोहन या उत्कोचन करने में न तो उसे शर्म आती है और न वह भय खाती है। नौकरशाही के लिये फील गुड के द्वारा बनाया गया भयमुक्त शासन का समाज, आज बाज का शक्ल ग्रहण करता हुआ, जनता के भविष्य पर झपट्टा मार रहा है। आम आदमी बेदम, निर्धन और बदहाल हैं पर कमाल है कि उससे सूखे खेतों में नयी आर्थिक-नीतियों के रंगीन सपने बोने और कंगाली में भी फील गुड होने को कहा जा रहा है।

बहरहाल भारतीय जनता हालीवुड-वालीवुड की अश्लील फिल्मों से फील गुड कर रही है। कर्जे में डूबते हुए कार और मोटरसाइकिल खरीद रही है। नयी आर्थिक-नीति पर गीद रही है।

भारत-उदय का यह नया दौर है, जिसमें न तो आम पर बौर है, न सरसों फूली है और न नये कुल्ले फूटे हैं, किन्तु हर राजनेता कोयल की तरह गा रहा है और बता रहा है कि आप माने या न माने फील गुड का वसंत आ रहा है।

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+रमेशराज, 15/109 ईसानगर, अलीगढ़-202001, mob.-9634551630

[ व्यंग्य ]

दास्ताने-कुर्ता पैजामा

+रमेशराज

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काफी दिनों से खादी का कुर्ता-पजामा बनवाने की प्रबल इच्छा हो रही है। इसके कुछ विशेष कारण भी है, एक तो भारतीय-बोध से जुड़ना चाहता हूं, दूसरे टेरीकाट के कपड़े पहनते-पहनते जी भी ऊब गया है।

सच कहूं, मैं आपसे सरासर झूठ बोल रहा हूं | दरअसल अब मेरी जेब में इतना पैसा ही नहीं है कि टेरीकोट के नये कपड़े सिलवा सकूं, अगर हैं भी तो उससे अपनी अपेक्षा बच्चों के लिए यह सब ज्यादा आवश्यक समझता हूं, क्या करूं? बच्चे टेरीकाट पहने बिना कालिज ही नहीं जाते। पप्पू और पिंकी दोनों जिद पर अड़े हुए है- ‘‘पापा जब तक आप हमें अच्छे कपड़े नहीं सिलवायेंगे, हम कालिज नहीं जाऐंगे | हमारे इन सूती कपड़ों को देखकर हमारा मज़ाक उड़ाया जाता है। हमें हीनदृष्टि से देखा जाता है, पापा हमें भी टेरीकाट के कपड़े सिलवा दो न।’’

क्या जवाब दूं इन बच्चों कों? कुछ भी तो समझ नहीं आता, मंहगाई दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है | तनख्वाह वही हज़ार रूपल्ली | किस-किस को पहनाऊं टेरीकाट?

खैर.... जो भी हो, बच्चों के लिए टैरीकाट, अपने लिए खादी का कुर्ता पाजामा ले आया हूं, और लो भाई उसे अब पहन भी लिया।

‘‘देखो तो! केसा लगता हूं!

‘‘क्या खाक लगते हो.... जोकर दिखायी देते हो जोकर.... किसी अन्य चीज में कटौती कर लेते... क्या जरूरत थी इस तरह खुद को तमाशा बनाने की..... बच्चे सूती कपड़े पहनकर नहीं जा सकते.... दो दो तमाचे पड़ जायें तो सीधे भागेंगे कालिज...|’’

पत्नी के चेहरे के भावों को पढ़कर तो यही लगता है। ओफ्फोह... कभी-कभी पत्नी की खामोशी भी कितनी भयावह होती है...

पत्नी से आगे बिना कोई शब्द कहे मैं चुपचाप दफ्तर खिसक आया हूं। आज तो बड़ी हैरत से देख रहे हैं ये लोग मुझे।

‘‘आइए! नेताजी आइए!’’

‘अरे भाई जल्दी करो हमारे नेताजी को ‘नगर पालिका और भ्रष्टाचार’ विषय पर भाषण देना है... बदतमीजो अभी तक मंच भी तैयार नहीं हुआ।’’

बड़े बाबू मुझ पर चुटकियां लेते हुए बोलते हैं । दफ्तर में ठहाकों की एक बौछार हो जाती है..। ‘‘क्या फब रहे हो यार!’’ एकाउन्टेन्ट अपनी पेन्ट ऊपर खिसकाते हुए एक और चुटकी लेता है। मैं एक खिसियानी सी हंसी हंसता हूं।

‘‘अबे ! झूठ क्यों बोलता है?... शेखचिल्ली लग रहा है शेखचिल्ली!! बीच में एक और कर निरीक्षक की आवाज उमरती है।

‘‘चुप बे! असली व्यक्तित्व तो कुर्ते पाजामे में ही झलकता है’’ बड़े बाबू पुनः चुटकी लेते हैं।

कटाक्ष-दर-कटाक्ष, व्यंग्य दर व्यंग्य, चुटकी-दर-चुटकी सह नहीं पा रहा हूं मैं | सोच रहा हूं- ‘‘क्या इस भारतीय परिधान में सचमुच इतना बे-महत्व का हो गया हूं....!!! इन बाबुओं को तो छोड़ों, ये साला चपरासी रामदीन कैसा खैं खैं दांत निपोर रहा है.. जी में आता है कि साले की बत्तीसी तोड़कर हाथ पर रख दूं... कुर्ता पजामा पहनकर क्या आ गया हूँ, सालों ने मज़ाक बना लिया।‘‘ ढेर सारे इस तरह के प्रश्न और विचार उठ रहे है। मन ही मन मैं कभी किसी को तो कभी किसी को डांट रहा हूं।

वार्ड उन्नीस की फाइल मेरे हाथों में है, पर काम करने को जी नहीं हो रहा है.. मैं अन्दर ही अन्दर जैसे महसूस कर रहा हूं कि प्रत्येक बाबू की मुझ पर टिकी दृष्टि मेरे भीतर अम्ल पैदा कर रही है और मैं एक लोहे का टुकड़ा हूं।

आज इतवार का अवकाश है। घर पर करने को कोई काम भी नहीं है। जी उचाट-सा हो रहा है। मीनाक्षी में शोले लगी है, बिरजू कह रहा था अच्छी फिल्म है। सोच रहा हूं देख ही आऊं | लो अब मैं वही कुर्ता-पजामा पहन कर फिल्म देखने घर से निकल आया हूं और एक रिक्शे में बैठ गया हूं।

‘‘बाबूजी! आखिर इस देश का होगा क्या?’’ रिक्शेवाला पैडल मारते हुए बोलता है।

‘‘क्यों? मैं एक फिल्म का पोस्टर देखते-देखते उत्तर देता हूं।’’

‘‘जिधर देखो उधर हायतौबा मची हुई है... भूख.... गरीबी.... अपराध....भ्रष्टाचार.... हत्याओं से अखबार भरे रहते है |’’ मैं उसे कोई उत्तर नहीं देता हूं बल्कि एक दूसरे पोस्टर जिस पर हैलेन की अर्धनग्न तस्वीर दिख रही है, उसे गौर से देखता हूं।

‘‘आजकल बलात्कार बहुत हो रहे हैं बाबूजी वह भी थाने में....|’’

‘‘क्या यह सब पहले नहीं हुआ भाई...|’’

‘‘हुआ तो है पर.... अकालियों को ही लो... हमारी प्रधनमंत्री कहती हैं....|” रिक्शेवाला एक ही धुन में बके जा रहा है-..... बाबूजी इन नेताओं ने तो.... खादी के कपड़े पहनकर वो सब्जबाग दिखाये हैं कि पूछो मत....|’’

‘अच्छा तो ये हजरत मेरा कुर्ता-पजामा देखकर मुझे नेता समझ कर अपनी भडांस निकाल रहे हैं’, यह बात दिमाग में आते ही मेरी इच्छा होती है कि इन कपड़ों को फाड़कर फैंक दूं और आदिम मुद्रा में यहां से भाग छूटूं।

‘‘चल चल ज्यादा बकबक मत कर’’ मैं उस पर बरस पड़ता हूं। रिक्शे वाला रास्ते भर मुझसे बगैर बातचीत किए मीनाक्षी पर उतार देता है |

‘‘ बड़ी भीड़ है.... उफ् इतनी लम्बी लाइन... क्या सारा शहर आज ही फिल्म देखने पर उतर आया है.... कैसे मिलेगी टिकट....?’’’ मैं लाइन से काफी अलग खड़े होकर सोचता हूं।

‘‘भाईसाहब टिकिट है क्या? 50 रुपये ले लो... एक फर्स्ट क्लास...|” एक युवक मेरे पास आकर बोलता है।

‘‘मैं क्या टिकिट ब्लैकर लगता हूं जो....|’’ मैं उसे डांट देता हूं।

‘‘अजी छोडि़ए इस हिन्दुस्तान में नेता क्या नहीं करते, चुपचाप टिकिट निकालिए.... पन्द्रह रुपये और ले लीजिए.... हमें तो आज हर हाल में फिल्म देखनी है।’’ वह ढ़ीटता भरे स्वर में बोलता है।

‘‘जाते हो या पुलिस को....’’ मैं उसे धमकी देता हूं।

‘‘पुलिस! हां हां क्यों नहीं.. आजकल तो वह आपके इशारों पर नाचती है ।’’ वह बीड़ी सुलगाते हुए बोलता है।

‘‘केसे बदतमीज से पाला पड़ गया |’’ मैं आवेश में चीख पड़ता हूं।

‘‘ साला! गाली देता है... बहुत देखे हैं तुझ जेसे खद्दरधारी |’’ वह भी तैश में आ जाता है।

मैं हाथापाई पर उतर आया हूं, वह भी हाथापाई पर उतार आया है... लोगों ने बीच-बिचाव कर दिया है... मेरा मूड बेहद खराब हो चला है।

मैं पिक्चर देखे बगैर घर लौट आ गया हूं... और अब बिस्तर पर पड़ा-पड़ा सोच रहा हूं-‘‘ सुबह होते ही यह कुर्ता-पाजामा किसी भिखारी को दे दूंगा.. जब तक नये टेरीकाट के कपड़े नहीं बन जाते, यूं ही फटे पेन्ट-शर्ट में दफ्रतर जाता रहूंगा...।

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+रमेशराज, 15/109 ईसानगर, अलीगढ़-202001, mob.-9634551630

[ व्यंग्य ]

चचा बैठे ट्रेन में

+रमेशराज

वैसे मैं न तो बीमा ऐजेन्ट हूँ और न किसी बीमा कम्पनी वाले का रिश्तेदार | फिर भी अपनी सफेद दाड़ी और नकली दांतों के अनुभव के आधार पर इतना जरूर कहूंगा कि आप किसी महाजन से कर्ज लें, डकैती डालें, चोरी करें या अपने घर के सारे बर्तन बेच दें, लेकिन बीमा जरूर करायें | अरे भाई! बीमा हर कोई कराता है, चाहे काला चोर हो या सफेद व्यापारी, सरकारी तंत्र का अंग हो या अपंग हो, पैदल चलता हो या बैलगाड़ी में, रेल में यात्रा करता हो या हवाई जहाज में।

अब आप कहेंगे कि मैं न तो बीमा एजेन्ट हूं और न बीमा कम्पनी का कोई रिश्तेदार, फिर बीमा कम्पनी की इस तरह पैरवी क्यों कर रहा हूं | अरे भाई! हुआ यह कि सौभाग्यवश एक दिन हमें ट्रेन में सफर करने का मौका मिला | हम मारे खुशी के अपने चरमराते ढांचे से और हिलती हुयी गर्दन को लेकर डिब्बे में तुरन्त घुस गये | अभी एक कोने में टिक ही पाये थे कि एक मनचले युवक की आवाज हमारे कानों में पड़ी-’’ रामगढ़ गये तो यूं समझो कि रामगढ़ गये |” हमने कुछ घबराकर उस युवक से कहा-’’ बेटे! तुम्हें ऐसी बात नहीं करनी चाहिये |’’ मेरा यह कहना था कि युवक ने तपाक से एक और डायलाग उगल दिया, “चचा! जिन्दगी एक सफर है सुहाना, यहां कल क्या हो किसने जाना |’’ यह सुनते ही हमारा जर्जर शरीर झुनझुने की तरह बज उठा | हमने थोड़ा संयत होते हुए उस युवक में पूछा-’’ बेटे तुम करते क्या हो ?’’ यह सुनकर वह युवक मुस्कराते हुए बोला- चचा! मैं लोगों का जीवन-बीमा करता-फिरता हूँ | आपने अपना बीमा कराया कि नहीं |”

“ बेटे! मैं तो साठ से ऊपर का हो रहा हूं | अब बीमा कराकर करूंगा क्या?”

मैं इतना कह ही पाया था कि पूरे डिब्बे में हड़कम्प मच गया | मारे भय के किसी ने अपनी आंखे बन्द कर लीं तो कोई हनुमान चालीसा का जाप करने लगा | तभी हमें मालूम पड़ा कि इसी लाइन पर तेज गति से एक और एक्सप्रेस आ रही है और एक्सी-डेन्ट की सम्भावना है | उस समय हमारी स्थिति ठीक वैसी ही हो गयी जैसे किसी मरीज को पेन्सिलिन का इंजेक्शन रिएक्शन कर गया हो | जाने कौन-सी शुभ घड़ी थी कि दुर्घटना होते होते टल गयी वरना...|

वह युवक पुनः एक फिकरा कसने लगा....’’ इब्तिदा-ए-इश्क है रोता है क्या? आगे...आगे देखिए होता है क्या?’’ उस युवक का इतना कहना था कि गाड़ी झटके के साथ रूक गयी, जबकि वहां न कोई स्टेशन था और न दूर तक कोई शहर दिखलायी दे रहा था | घने भयावह जंगल के बीच यकायक गाड़ी रुकने का सबब हमारी समझ में नहीं आया | हमने उसी युवक से जिज्ञासा जाहिर करते हुए पूछा-“बेटे! अब क्या हुआ ?’’ उस युवक ने उत्तर देने के बजाय मुस्कराते हुए फिर एक नया फिकरा कसा-“अब तो प्रतिपल घात है चाचा, दर्दों की सौगात है चाचा | ‘‘

उस युवक की बेतुकी लेकिन भय से सराबोर कर देने वाली बातों से हमें लगने लगा कि यह युवक कोई साधारण युवक नहीं, कोई पहुंचा हुआ ज्योतिषि मालूम पड़ता है | हम आगे होने वाली दुर्घटना से आतंकित होकर थर-थर कांपने लगे| हमारे दिमाग पर हर बार एक ही प्रश्न हथौड़े की तरह पड़ रहा था- “प्रभु! अब क्या होगा?”

तभी एक कड़कदार आवाज हमारे कानों में पड़ी- ‘बुड्डे क्या है तेरे पास, चल जल्दी से निकाल |”

दो नकाबपोश हमारे सामने चाकू लेकर खड़े थे | उन्हें देख हमें मानो काठ मार गया | हमने अपनी जेब से चार आने के खरीदे चने, एक अठन्नी और रामगढ़ का टिकिट उन्हें चुपचाप भेंट कर दिया | वे खिसियाकर यह कहते हुए दूसरी सवारियों की ओर बढ़ गए- ‘‘साला बुढ्डा मजाक करता है |’’

हमने चैन की सांस ली और अपनी बूढ़ी आंखों पर जोर डालते हुए चारों तरफ निगाह मारी | लेकिन फिकरा कसने वाले युवक का कहीं पता न था | डकैत सवारियों का माल लूटकर चले गए | तभी वह युवक शौचालय से निकला और जैसे ही गाड़ी आगे बढ़ी, उस युवक ने पुनः एक नया फिकरा कसा-’’ चोर माल ले गये, लोटा थाल ले गये, सूटकेस अटैची धोती शाल ले गये | और सब डरे-डरे ट्रेन में खड़े-खड़े चाकू की चमकती हुयी धार देखते रहे |’’

एक तरफ जहां पूरे डिब्बे में मातम जैसा माहौल बना हुआ था, वहीं वह युवक ऐसे जुमले कस रहा था कि हमारी इच्छा होने लगी कि या तो उस युवक के मुंह पर टेप जड़ दें या अपनी दाढ़ी नोंच लें | लेकिन अपने देश की कानून व्यवस्था की तरह हम उस युवक और अपने साथ न्याय करने में कहीं न कहीं कतरा रहे थे।

अभी गाड़ी व मुश्किल से दो किलो मीटर आगे बढ़ी होगी कि झटके के साथ पुनः रूक गयी | गाड़ी के रुकने के साथ-साथ अब हमें लग रहा था कि हमारे जीवन की गाड़ी भी रुकने वाली है | लेकिन वह कमबख्त युवक था कि अब भी गुनगुना रहा था ‘समझौता गमों में कर लो, जिदंगी में गम भी मिलते हैं |”

सूरदासजी ने लिखा है- ‘मेरो मन अनत कहां सुख पावै, जैसे उड़ जहाज को पंछी जहाज पै आवै।‘ वैसी ही स्थिति हो रही थी हमारी | हमें उस युवक की जुमलेबाजी पर इतना गुस्सा आ रहा था कि हम उससे बात भी नहीं करना चाहते थे लेकिन हमारी मजबूरी की हमें मिमियाते स्वर में उस युवक से पूछना ही पड़ा’’ बेटे! अब की बार गाड़ी क्यों रूक गयी’’?

‘‘कुछ नहीं चचा कुछ देशभक्तों ने पटरियों के नट वोल्ट खोल दिए हैं और अब गाड़ी पर पथराव की योजना बना रहे हैं |’’ उस युवक ने यह बात जितने सहज ढंग से कही, हम उतने ही असहज हो गये | तभी एक पत्थर हमारे माथे पर लगा | हम गश खाकर बेहोश हो गये | जब होश आया तो गाड़ी रामगढ़ में प्रवेश कर रही थी और वह युवक हमारी ओर मुस्कराते हुए हमसे कह रहा था- ‘‘जान बची लाखों पाए, लो चाचा रामगढ़ आए |’’

रामगढ़ आते ही हमने अपना चश्मा ठीक किया, लाठी उठायी और आनन-फानन में ट्रेन से बाहर कूद पड़े | वह युवक जोर-जोर से चिल्लाते हुए अब भी हमसे कह रहा था- ’’ चचा आपने अपना जीवन बीमा नहीं कराया तो कोई बात नहीं... अपने बच्चों का जीवनबीमा जरूर करा लेना....|”

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+रमेशराज, 15/109 ईसानगर, अलीगढ़-202001, mob.-9634551630

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रचनाकार: रमेशराज के व्यंग्य
रमेशराज के व्यंग्य
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