कहानी / जरासंध / सतीश चन्द्र श्रीवास्तव

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देवेन बाबू आज दफतर से जब लौटने लगे तो काफी खिन्न हो गए। रह-रह कर कभी नौकरी को कोसते तो कभी प्रशासन को। आखिर ऐसा कौन सा पहाड़ टूट रहा था, जबकि...

देवेन बाबू आज दफतर से जब लौटने लगे तो काफी खिन्न हो गए। रह-रह कर कभी नौकरी को कोसते तो कभी प्रशासन को।

आखिर ऐसा कौन सा पहाड़ टूट रहा था, जबकि उन्होंने सिर्फ एक दिन की कैजुअल लीव ही तो मांगी थी। लेकिन नहीं मिली । कहते हैं ऊपर से आदेश आया है कि कल की छुट्टी नहीं मिलेगी। अजीब पशोपेश में पड़ गए देवेन बाबू।

सीधे साधे व अपने काम से काम रखने वाले देवेन बाबू एक बार घुड़क दिए जाने के बाद चुप ही हो गए। दुबारा छुट्टी के लिए कुछ कह ही नहीं सके। हलांकि भीतर ही भीतर कुढ़ने के कारण काफी तनाव ग्रस्त हो गए थे कहते हैं ऊपर से आदेश आया है कि कल की गए थे देवेन बाबू।

आए दिन होने वाले बन्द से बहुत परेशान हो चुके थे देवेन बाबू। अभी भारत बन्द, कभी प्रदेश बन्द तो कभी शहर बन्द। मानो बन्द न हो टी.वी.सीरियल के बीच आने वाले विज्ञापन हो, जिनका आना कार्यक्रम के आने से अधिक महत्वपूर्ण हो और और सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि किसी भी प्रकार का बन्द हो, छुट्टी सबसे पहले बन्द हो जाती है। रजिस्टर ठीक साढ़े नौ बजे ही चेक होना शुरू हो जाता है।

मगर इस बार को मुसीबत तो एकदम अलग ढंग की थी। दिवाकर बाबू कह रहे थे कि इस बार तो छात्र कर्फ्यू है। कि इस बार तो छात्र कर्फ्यू है। सारे शहर में दिन भर सन्नाटा रहेगा। कोई भी वाहन सड़क पर नहीं चलेगा और अगर कोई निकला तो लड़कों से बच पाना बहुत मुश्किल है। सोच-सोच कर देवेन बाबू के दिल की धड़कने जैसे बढ़ने लगी।

परेशानी के आलम में जो भी दफतर में दिखायी देता उसी से चर्चा करने लगते और उनकी और उनकी ऐसी हालत देख कर लोग चुहल करने से बाज न आते। कोई कहता, देवेन बाबू कल स्कूटर से मत आइयेगा। नहीं तो आप ही का तेल होगा और आप का ही स्कूटर। कोई कहता - ऐसा क्यों नहीं करते देवेन बाबू कि कल का खाना लेकर आज रात को ही आ जाइये, कोई झंझट ही नहीं रहेगा।

लोगों की बात सुन-सुन कर देवेन बाबू और भी परेशान होने लगे। उन्हें लगने लगा कि लोग उन्हें सलाह नहीं दे रहे हैं, बल्कि मजा ले रहे हैं। हालांकि कल कमोवेश सभी को उस स्थिति का सामना करना है। पर अभी सभी मजाक के मूड में हैं। नौजवान है न, इसलिए कल की फिकर नहीं करते है। मन ही मन सोचने लगे देवेन बाबू।

और आखिरकार उन्होंने एक निर्णय ले ही लिया। घर में पहुंचते ही कह दिया कि कल वे दफतर जल्दी जायेंगे। पत्नी के पूछने पर उन्होंने स्पष्ट किया कि कल शहर में छात्र कर्फ्यू लगा है और वे पैदल ही आफिस जायेंगे।

अगले दिन पूरी सावधानी के साथ निकलें देवेन बाबू। सुरक्षा की दृष्टि से उन्होंने गली का रास्ता पकड़ा अभी उन्होंने थोड़ा सा ही रास्ता तय किया होगा कि उनका दिल धक-धक करने लगा। गली में भी जबरदस्त सन्नाटा छाया था। वे प्राय: इस गली से जाया करते थे। किन्तु आज उन्हें यह गली नितान्त अपरिचित सी महसूस हो रही थी । लगा जैसे किसी दूसरे के घर में घुस आए हो। दिल चोर का सा हो गया। इक्का दुक्का आदमी उन्हें दिखायी भी दे जाता किसी को भी अपनी ओर आते देख संशकित हो उठते थे। वे सबके चेहरे को देखते। अनुमान लगाते कि वह सवर्ण है या पिछड़ा । मगर वह सफल नहीं हो पाते। क्या माप दण्ड बनाये सभी तो बढि़या कपड़े पहने हैं, सभी क्लीन शेव है। तो क्या रंग से पहचानें। नहीं यह भी ठीक नहीं है।

अपनी धुन में गुम, चले जा रहे थे देवेन बाबू। कहीं भी तीन चार लड़के दिखायी पड़ जाते तो उन्हें अपनी धड़कने दौड़ती सी महसूस होने लगती। विश्वास व आस्था की डोर थामे बढ़ते रहे देवेन बाबू। क्या फजीहत है। मन ही मन बड़बड़ाते हैं वे।

अब वे गली के करीब - करीब बाहर पहूँच रहे हैं। तभी एक कर्कश आवाज उनके कानों से टकरायी- ऐ बुडढे इधर आ” वे देखते है कि गली के बाहर दो खाकी वर्दी धारी सिपाही बैठे हैं। “अब ये क्या बला है।” सोचते हैं वे। जैसे ही सिपाहीयों के निकट पहुँचे, उनमें से एक बोला- “झोले में क्या है बे।” उस सिपाही की भाषा सुनकर एक पल को वे किंकतव्‍​र्यविमूढ़ हो गए। दिल जैसे रूऑंसा सा हो उठा। थोड़ा जोर लगा कर बोले - खाने का टिफिन है।”

टिफिन है।” साले हमी को चूतिया बना रहे हो। चलो खोलो। यत्रंवत हो देवेन बाबू ने पहले झोला खोला और फिर टफिन।

बलात्कार के बाद जैसे बलात्कारी सन्तुष्ट होता है, कुछ वैसी ही सन्तुष्टि के साथ सिपाही बोला- अच्छा जाओ।” लुटी हूई औरत जैसे अपना ऑचल ठीक करती है, कुछ वैसे ही देवेन बाबू ने अपने मन और झोले को व्यवस्थित किया।

सड़क पर पहुँचते ही उन्होंने सड़क के दोनों ओर ताका। यही पर वे अक्सर सब्जी लेने आते थे। तब कितनी भीड़ रहा करती थी। अपने को बचा कर चलना पड़ता था। मगर आज ......... आज जिधर चाहो उधर चलो। सड़क पार कर वे फिर गली में आ गए।

थोड़ी दूर ही निकले होंगे कि एक आवाज ने उन्हें फिर चौंका दिया। चाचा जी नमस्ते।” नजर घुमायी तो देखा चार-पॉच लड़के एक साथ खड़े थे। एक बार तो फिर उनका कलेजा मुंह को आने लगा। लड़के नजदीक आ गए। उनमें से एक बोला, - चाचा जी आप ठीक तो हैं। अं, हॉ .....हॉ .....ठीक हॅू, बिल्कुल ठीक हूँ। घबराहट और उत्तेजना में शब्द साथ नहीं दे पा रहे थे। चाचाजी मैं आपका नाम कुछ भूल सा रहा हूँ ....... क्या नाम है ....।

पहले वाले लड़के ने ही फिर प्रश्न किया। थोड़ा सा संयम हो बोले - मैं ..... मैं देवेन श्रीवास्तव हूँ। क्यों भई कोई काम है क्या?” मगर लगता है उनमें से किसी ने भी उनका पूरा जवाब सुना ही नहीं। आंखों - आंखों में ही इशारे हुए। किसी ने पीछे से धक्का दे दिया। अभी वह आगे पूरा गिर भी नहीं पाये थे कि आगे वाले ने पीछे ठोकर मारी। दोनों तरफ से धक्का खा कर देवेन बाबू अपने को सम्भाला । झूले की सी स्थिति में आकर वहीं गिर पड़े देवेन बाबू।

घुटने, बाजू, हथेली कई जगह से छिल गये थे। जगह-जगह खून छलक आया था। बहुत अति हो चुकी । बहुत सह ली मनमानी। अब किसी को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। कहते चिल्लाते वे सब वहॉ से निकल गए। रह गए देवेन बाबू और उनका क्षत विक्षत शरीर।

देवेन बाबू ने ऑंखे खोली। आंसुओं से सराबोर आंखें सिवाय धुंधलाहट के और कुछ न देख सकी। शरीर की शक्ति खत्म हो चुकी थी। शरीर से अधिक उनका मन, उनकी आत्मा लहुलुहान हुई। मगर फिर भी साहस करके उठने लगे। पीड़ा के कारण पूरा शरीर दुख रहा था। चलने में असहाय थे मगर शरीर को किसी तरह ढकेलने लगे। देवेन बाबू जल्द से जल्द रास्ता पार कर लेना चाह रहे थे। मगर रास्ता था कि द्रौपदी के चीर की तरह बढ़ता ही जा रहा था।

फिर सामने सड़क आ गयी। जितनी तेजी से वे चल सकते थे, चल कर सड़क पार की। जख्मों पर पसीना का खारा पानी जलन पैदा करने लगा।

अतः काफी नजदीक पहुँच रहे थे देवेन बाबू । रास्ते में किसी के मकान में एक जीर्णशीर्ण हनुमान मन्दिर था। जल्दी - जल्दी में सिर नवाया देवेन बाबू ने और मन ही मन अपनी कुशलता की मन्नत भी मना डाली।

जैसे ही गली के मुहाने पर पहुँचे। देवेन बाबू ने कुछ लोगों का झुण्ड गलीमें घुसते देखा। एक क्षण को वह भयभीत हो गए। अन्जाने में ही वह वापस मुड़ कर जाने लगे। चाह कर भी वह अपनी चाल में तेजी नहीं ला सके।

अरे भाग रहा है। जरा देखो तो कौन है” उन लड़कों में से एक चिल्लाया। दूसरा ने दौड़कर देवेन बाबू का कालर पकड़ कर खींच लिया। एक पल को उन्हें लगा, इतनी बेइज्जती से तो अच्छा था कि कोई उन्हें गोली मार देता। इतना अपमान, इतनी पीड़ा तो न झेलनी पड़ती।

ज्यादा देर तक नहीं सोच पाते देवेन बाबू। एक कड़कती हुई आवाज उनके कानों में पड़ती है- कहॉ जा रहे हो।”? आफिस” किसी तरह बोल पाये देवेन बाबू। आफिस जा रहे हो, पता नहीं क्या आज कर्फ्यू लगा है। बड़े देशभक्त की औलाद बनने निकले हो। कौन बिरादर हो।” सारा दु:ख, पीड़ा और अपमान को झेलते हुए बोले देवेन बाबू - मुझे मत मारना, मुझे मत मारना। मैं भी तुम्हारी तरह एक इंसान हूँ। एक बूढ़ा आदमी हॅूं।” कसाई के सामने लाए बकरे की सी हालत हो गयी थी देवेन बाबू की। पर उनका प्रलाप जैसे किसी ने सुना ही नहीं।

तड़ातड़ ..... तड़ ....... धम्म ..... । बस यही आवाज रह गयी थी। स्साला .... इंसान की औलाद है। इसे इतना भी पता नहीं कि आदमी था तो सवर्ण होता है या पिछड़ा।

देवेन बाबू के कानों में अस्पष्ट से शब्द पड़ रहे थे। आंखों के सामने अंधेरा छाता जा रहा था। रक्त जगह-जगह से बह रहा था। पैंट,शर्ट खून से कई जगह भीग रहा था। कोई पहचान कर बताये तो कि वह पिछड़ा खून है या सवर्ण। कोई बताये तो कौन उनकी मदद को आया। गुहार तो उन्होंने हर एक के सामने लगायी मगर कौन आया उनकी मदद को।

सड़क पर गिरा हुआ अचेत शरीर धीरे-धीरे जरासंघ में तब्दील हो गया। आधा सवर्ण आधा पिछड़ा ।ऐसा नहीं कि इससे पहले उन्हें मारने की कोशिश नहीं की गयी। लेकिन शायद अभी तक उन्हें किसी ने बीचों बीच से नहीं फाड़ा था। मगर आज राजनीति के भीम ने सवर्ण और पिछड़े से बने इंसानियत के जरासंघ को चीर डाला।

सड़क पर पड़ा शरीर कभी जरासंध का हो जाता तो कभी देवेन बाबू का।

देवेन बाबू ने पूरी शक्ति से उठने की कोशिश की लेकिन कामयाब न हो सके।

 

॥ इति

सतीश चन्द्र श्रीवास्तव

5/2ए, रामानन्द नगर

अल्लापुर, इलाहाबाद।

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रचनाकार: कहानी / जरासंध / सतीश चन्द्र श्रीवास्तव
कहानी / जरासंध / सतीश चन्द्र श्रीवास्तव
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