प्राची-अप्रैल 2017–हास्य-व्यंग्य विशेषांक : व्यंग्य / बवाल / महेश चन्द्र द्विवेदी

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अ मेरिका में चल रहे राष्ट्रपति चुनाव के दौरान एक प्रत्याशी, जिसके अन्य अस्त्र बूमरैंग होकर उल्टे उसी पर प्रहार कर रहे थे, को पता चला कि भारत...

मेरिका में चल रहे राष्ट्रपति चुनाव के दौरान एक प्रत्याशी, जिसके अन्य अस्त्र बूमरैंग होकर उल्टे उसी पर प्रहार कर रहे थे, को पता चला कि भारत में आजकल बवाल नामक अस्त्र राजनीति सहित अनेक क्षेत्रों में बड़ा लोकप्रिय हो रहा है. अतः उसने समाजशास्त्र के एक अमेरिकी शोधार्थी को गोपनीय ढंग से फण्ड्स देकर इस अस्त्र के विषय में जानकारी एकत्रित करने लखनऊ विश्वविद्यालय भेज दिया. उसने यहाँ आकर समाज-शास्त्र के विभागाध्यक्ष से पूछा, ‘‘अमेरिका में चर्चा है कि इंडिया में जुगाड़ का जमाना समाप्त हो रहा है, उसके बजाय बवाल बड़ा लोकप्रिय हो रहा है. अतः न्यूयॉर्क स्टेट यूनिवर्सिटी के समाज-शास्त्र विभाग ने मुझे बवाल पर शोध करने यहां भेजा है. जुगाड़ का मतलब तो मैं समझता हूँ. प्रेसीडेंट क्लिंटन के मांगने पर अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें इसे देने से मना कर दिया था और कहा था कि जुगाड़ से ही तो वह अपनी 13 दलों की सरकार चला रहे हैं. पर मैं बवाल के विषय में कुछ नहीं जानता हूँ. क्या आप बताने की कृपा करेंगे?’’

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प्रोफेसर साहब विश्वविद्यालय में छात्रों, कर्मचारियों, नेताओं एवं अध्यापकों द्वारा नित्यप्रति मचाये गये बवाल को झेलते रहते थे, अतः उनका विषय ज्ञान केवल किताबी न होकर अनुभवजनित भी था. वह एक विशेषज्ञ की भांति बोले, ‘‘यह सही है कि जुगाड़ू सरकारों की अक्षमता और भ्रष्टाचार से तंग आकर जनता अब केंद्र व प्रदेशों में एक दल की सरकार बनवाने लगी है. तब से सरकार में जुगाड़ की आवश्यकता कम हो गई है. इसके अतिरिक्त विदेशी उत्पादों से यहाँ के बाजार पट जाने के कारण मशीनों को भी जुगाड़ करके चलाने की आवश्यकता नहीं रह गई है. अब लोग जर्जर मशीनों को जुगाड़ से चलाने के बजाय नई मशीन क्रय कर लेना अधिक लाभप्रद समझने लगे हैं. भारत के लोगों का काफी समय पहले जुगाड़ करने में व्यतीत हो जाता था, परंतु अब कुछ दिनों से उन्हें न पर्याप्त व्यस्तता रहती थी और न उनकी मानसिक कसरत हो पाती थी. अतः अब उन्होंने जुगाड़ के बजाय बवाल करने को धंधा बना लिया है. इसे करके उन्हें सुरा-सेवन जैसा सुरूर मिलता है और उनका स्वार्थ भी परिपूर्ण होता है. वैसे आप को किस प्रकार के बवाल की जानकारी चाहिये?’’ प्रोफेसर ने प्रश्न किया?

‘‘क्या बवाल के अलग अलग प्रकार भी होते हैं?’’
शोधार्थी ने अज्ञानता स्वीकारते हुए पूछा.

‘‘यह भारतवर्ष है. बवाल करना यहाँ का राष्ट्रीय शौक पहले भी रहा है पर आजकल तो यह आकाशीय ऊंचाइयाँ छू रहा है. इसलिये छोटे-बड़े, ऊंचे-नीचे, अहिंसक-विध्वंसक हर प्रकार के बवाल यहाँ गली-कूचे में होते ही रहते हैं.’’

शोधार्थी मन ही मन प्रसन्न हुआ कि इस विषय पर तो आसानी से थीसिस लिखी जा सकेगी. मुस्कराकर बोला- ‘‘सर, मैं सब के विषय में जानना चाहूंगा.’’

तभी प्रोफेसर साहब को फोन आया, ‘‘परीक्षा कक्ष में नेता टाइप के कुछ छात्रों द्वारा ‘नकल के जन्मसिद्ध अधिकार’ के निरावरोध प्रयोग हेतु बवाल किया जा रहा है.’’ अतः बोले, ‘‘अभी मैं जल्दी में हूँ. अगर आप विस्तार में जानना चाहते हैं, तो शाम को घर पर मिलना. फुरसत में समझा दूंगा. अभी मैं छात्रों द्वारा नकल की आजादी हेतु किये जाने वाले बवाल से निपटने जा रहा हूँ. बवाल की आंखों देखी जानकारी लेना चाहें, तो आप भी साथ चल सकते हैं.’’

प्रोफेसर और शोधार्थी जब तक पहुंचे, तब तक छात्र बवाल मचाकर तिरोहित हो चुके थे. कक्ष निरीक्षक द्वारा नकल करने से रोकने के छात्र विरोधी आचरण पर वे उत्तर-पुस्तिकायें फाड़कर फेंक चुके थे, कुर्सी मेज को हाथ-पैर विहीन बना चुके थे, और कक्ष निरीक्षक का थोबड़ा बिगाड़ कर नारे लगाते हुए अपने घरों को जा चुके थे. अमेरिकी शोधार्थी के लिये बवाल की यह प्रथम बानगी कल्पना से परे की स्थिति थी और वह हतप्रभ होकर कभी कक्ष को और कभी प्रोफेसर को देख रहा था.

सायंकाल तक अपने को संयत कर जब वह अमेरिकी शोधार्थी प्रोफेसर साहब के घर पहुंचा, तो प्रोफेसर साहब को पूर्णतः निर्विकार देखकर आश्चर्यचकित भी हुआ और आश्वस्त भी. वह अपने गिलास में दूसरा पेग उंडेल चुके थे. अतिथि सत्कार की भारतीय परम्परा के अनुसार उसके लिये भी गिलास में सोमरस उंडेलकर कहने लगे- ‘‘बवाल के अनगिनत कारण एवं अनगिनत प्रकार हो सकते हैं, परंतु अधिकांश बवालों को मुख्यतः छः समूहों में बांटा जा सकता है- राजनैतिक बवाल, पारिवारिक बवाल, सामाजिक बवाल, ट्रैफिक बवाल, धार्मिक बवाल, बेमतलब के बवाल. आजकल उत्तर प्रदेश में सबसे जनप्रिय बवाल तो यहाँ के स्वयम्भू समाजवादियों का पारिवारिक बवाल है- यह राजनैतिक-पारिवारिक की मिश्रित श्रेणी का बवाल है. इसकी लोकप्रियता के दो कारण हैं कि एक तो यह राजनैतिक प्रतिद्वंद्विता का मामला है, और दूसरे इसमें अकूत काली-कमाई के वितरण का प्रश्न फंसा हुआ है. रोज-रोज की जूतमपैजार के कारण इन दिनों यह इतना उफान मार रहा है कि जिस शाम टी. वी. पर यह जूतमपैजार देखने को न मिले, लोगों को लगता है कि आज का दिन व्यर्थ गया. आजकल का दूसरा राजनैतिक बवाल है एक दलित-दल की चुनावी टिकट की नीलामी का बेस-रेट एक करोड़ रुपये हो जाना. इससे घबराकर अनेक दिग्गज नेता उस दल से भागकर उसकी बखिया उधेड़ने का बवाल मचा रहे हैं. इनके अतिरिक्त एक राजकुमार को खरहरी खाट पर लेटकर खाट-सभा करने का शौक चर्राया है, जिसके समाप्त होते ही खाट-लूट का बवाल प्रारम्भ हो जाता है. पर कुछ दिनों से इस खाट-लूट बवाल की आवृत्ति में कमी दृष्टिगोचर हो रही है. लोगों का कहना है कि राजकुमार अपनी पुरानी आदत के अनुसार कुछ दिनों के लिये अंतर्धान हो गये हैं. उत्तर प्रदेश में चुनाव निकट होने के कारण मंदिर-मस्जिद का बवाल भी उठना प्रारम्भ हो गया है, जिसके चुनावी सरगर्मी के साथ शीघ्र ही पूरे उफान पर आने की सम्भावना है.’’

प्रोफेसर के रुकते ही शोधार्थी बोला, ‘‘ये सभी तो राजनीति से उत्पन्न बवाल हैं, जो आजकल मुझे अमेरिका में भी डोनल्ड ट्रम्प और हिलेरी के बीच प्रतिदिन देखने को मिलते थे. कृपया कुछ दूसरी प्रकार के बवालों के विषय में भी बतायें.’’

प्रोफेसर साहब को इस प्रकार टोका जाना अच्छा नहीं लगा, पर शोधार्थी के श्वेत रंग के प्रभाव में संयत रहकर कहने लगे, ‘‘यहाँ सामाजिक बवाल भी बड़े लोकप्रिय हैं और हर जगह होते रहते हैं, पर गांवों में अधिक प्रचुरता से पाये जाते हैं. इन्हें खड़ा करने में लोग ऐसे दक्ष हैं कि इसके लिये किसी तर्कसम्मत परिस्थिति का उपलब्ध होना आवश्यक नहीं होता है. यदि तुम चाहो, तो तुम भी इसे खड़ा कर सकते हो.’’

‘‘वह कैसे?’’

‘‘अपने धर्म व जाति के बाहर की किसी लड़की के प्रेम में पड़कर देख लो. लड़की के माँ-बाप, भाई-बहिन, मामा-चाचा, बुआ-फूफा, बाबा-दादी और उसकी जाति के तमाम लोगों की नाक ऐसी ‘कट’ जायेगी, कि तब तक नहीं जुड़ेगी जब तक या तो आप दोनों आत्महत्या न कर लें अथवा वे आप की हत्या न कर दें. यह बात अलग है कि उसी लड़की, जिसकी इज्जत के नाम पर पुरुष बवाल काटेंगे, को आते-जाते वे रोज छेड़ते रहते हों अथवा चोरी-छिपे उसे अपनी वासना का शिकार भी बना लेते हों.’’

एक अमेरिकन के लिये प्रेम के प्रकरण पर आत्महत्या अथवा हत्या अनोखी बात थी, क्योंकि उसके यहाँ तो वयस्क लड़के या लड़की की कोई गर्लफ्रेंड-ब्वॉयफ्रेंड न होने पर माता-पिता को चिंता होने लगती है कि उसमें कोई शारीरिक दोष तो नहीं है. अतः वह आश्चर्यचकित होकर पूर्ण तन्मयता से प्रोफेसर की बात सुन रहा था. प्रोफेसर साहब भी तन्मय होकर आगे बोले-

‘‘यदि संख्या और जन-धन की हानि के मापदंड से देखें तो हमारे देश में सबसे शीर्ष स्थान ट्रैफिक बवालों का है. यदि आप नेता, नेता के बेटे या चमचे हैं अथवा कलेक्टर, जज या कप्तान हैं, अथवा नामी गुंडे हैं, तो किसी सामान्य नागरिक की गाड़ी आप की गाड़ी से आगे निकल जाने पर आप के गनर, ड्राइवर आदि का मौलिक कर्तव्य बन जाता है कि वे उस सामान्य नागरिक को गाली-गलौज करने का बवाल करें और प्रतिकार करने पर उसकी पिटाई कर दें. यदि आप शासक दल के हैं अथवा सत्ताधारी जाति के हैं, तो किसी टोल-बैरियर के कर्मचारी द्वारा आप से टोल-टैक्स मांगने पर आप के साथियों को टोल-बैरियर को तोड़-फोड़ देने, उपलब्ध कैश को लूट लेने और कर्मचारियों की पिटाई करने का सत्ताजनित अधिकार प्राप्त हो जाता है. यदि आप की कार के नीचे कोई व्यक्ति आ जाये, चाहे आत्महत्या के उद्देश्य से कूदा हुआ ही हो, तो वहां उपस्थित भीड़ को भीषण बवाल करने, सड़क पर जाम लगा देने, आने-जाने वाले ट्रकों-बसों को स्वाहा कर देने और मृतक के परिवार को जब तक लाखों का मुआवजा और नौकरी का आश्वासन न मिल जाय तब तक सड़क घेर कर जाम लगाये रहने का अधिकार ‘जनहित’ में उपलब्ध हो जाता है. अपनी जाति को आरक्षण दिलाने हेतु सप्ताहों तक सड़क और रेल-लाइन पर बवाल करना और रेलगाड़ियों को जला देना हमारे संवैधानिक अधिकारों के अंतर्गत आता है.’’

प्रोफेसर साहब सांस लेने के लिये रुके. फिर एक लम्बा घूंट लेकर कहने लगे-

‘‘अब मुख्य श्रेणी में केवल बेमतलब के बवाल और धार्मिक बवाल बचते हैं. हमारे गांवों में यह परम्परा रही है कि कुछ निठल्ले किस्म के लोग अपने जीने का उद्देश्य येन केन प्रकारेण बवाल खड़ा कर दूसरे का काम बिगाड़ देना ही मानते रहे हैं- जैसे यदि किसी की लड़की का विवाह तय हो रहा है तो ये उस लड़की में कुछ खोट बताकर एक बेनामी चिट्ठी लड़के वालों को डाल देंगे, यदि किसी को नौकरी मिल रही है तो किसी आपराधिक मामले में उसके विरुद्ध पुलिस रिपोर्ट लिखा देंगे, और यदि कोई झगड़ा-झंझट से दूर रहकर शांति से जीना चाहता है तो उसकी छत पर अपना परनाला बहा देंगे या प्रत्येक बार जुताई के दौरान उसके खेत की मेंड़ इंच-दर-इंच काटकर अपने खेत में मिलाते रहेंगे. निर्दोष व्यक्ति को एस.सी./एस.टी. ऐक्ट अथवा दहेज ऐक्ट में फंसाकर बवाल पैदा करना नेता किस्म के ग्रामीणों की मानसिक मजबूरी होती है, क्योंकि किसी प्रकार का बवाल पैदा किये बिना उन्हें अपना दिन सार्थक प्रतीत नहीं होता है.’’

‘‘और धार्मिक बवाल क्या हैं?’’- प्रोफेसर द्वारा सोमरस के घूंट का स्वाद देर तक लेते रहने पर शोधार्थी ने याद दिलाया.

‘‘यहां दुनिया के सभी अधर्मी कार्यों हेतु धार्मिक बवाल उत्पन्न किये जाते हैं. सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा करने के लिये सड़क किनारे हनुमान जी की मूर्ति को प्रकट कर देना अथवा मजार बनवा देना, अधिक ख्याति और अधिक चढ़ावा प्राप्त करने हेतु मंदिरों में रात-रात भर दुंद काटना, मंदिरों-मजारों में भक्तों को धमका कर धन चढ़वाना, ताजिये की ऊंचाई बढ़ाकर दूसरों के पेड़ कटवाने का बवाल करना, गाय या सुअर का मांस मंदिर-मस्जिद में डालकर साम्प्रदायिक बवाल करवाना, आदि अनगिनत बवाल इस श्रेणी में आते हैं. हाल में कतिपय मुस्लिम महिला संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय में तीन-तलाक एवँ चार-बीवी जैसे मानवाधिकारों का हनन करने वाले प्रावधानों को समाप्त करने हेतु याचिका दायर की है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने विचार प्रारम्भ कर दिया है. इन संगठनों का एक प्रबल तर्क है कि अनेक इस्लामिक देशों में भी ये प्रथायें समाप्त कर दी गई हैं. तब से मौलवियों, मुतवल्लियों और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे अनेक पुरुष वर्चस्व वाले संगठनों ने बवाल काट रखा है कि चाहे कुछ भी हो जाये, वे भारत में कोई प्रगतिशील कदम नहीं उठाने देंगे.’’

अमेरिकन जनतंत्र में पला-बढ़ा शोधार्थी यह सुनकर आश्चर्यचकित होकर पूछने लगा, ‘‘इन संविधान-विरोधी गतिविधियों पर सरकार कठोरता से प्रतिबंध क्यों नहीं लगाती है?’’

प्रोफेसर साहब बस इतना कह सके.

‘‘काश, हमारे नेता स्वयं बवाली न होते, तब तो वे बवाल की राजनीति के दबाव में न आकर मानवता की धर्मनीति पर अडिग रह पाते.’’

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रचनाकार: प्राची-अप्रैल 2017–हास्य-व्यंग्य विशेषांक : व्यंग्य / बवाल / महेश चन्द्र द्विवेदी
प्राची-अप्रैल 2017–हास्य-व्यंग्य विशेषांक : व्यंग्य / बवाल / महेश चन्द्र द्विवेदी
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