मेरी स्मृतियों में मेरे व्यंग्य गुरू-''विनोदशंकर शुक्ल'' / वीरेन्द्र 'सरल'

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(वीरेन्द्र सरल) कक्षा आठवीं में ही परसाई जी की टार्च बेचने वाला पढ़कर व्यंग्य का चस्का लग गया था जो शरद जोशी की जीप पर सवार इल्लियां से इतना...

(वीरेन्द्र सरल)

कक्षा आठवीं में ही परसाई जी की टार्च बेचने वाला पढ़कर व्यंग्य का चस्का लग गया था जो शरद जोशी की जीप पर सवार इल्लियां से इतना प्रगाढ़ हो गया कि व्यंग्य पढ़ना मेरा सबसे बड़ा शगल हो गया। विद्यार्थी जीवन में आर्थिक तंगी के कारण व्यंग्य की किताबें खरीदकर पढ़ने का शौक तो पूरा नही कर पाया मगर स्थानीय अखबारों और मुफ्त मिली किताबों को पढ़कर यह शौक जरूर पूरा करता। महाविद्यालयीन शिक्षा के बाद एक छोटी से नौकरी मिल गई। आत्मनिर्भरता आने पर यह शौक और परवान चढ़ता गया। फिर क्या था जब भी मौका मिलता व्यंग्य की किताब खरीदकर जरूर पढ़ता। पढ़ने का यह शौक कब लिखने में बदल गया मुझे पता ही नहीं चला। मेरी भी कुछ व्यंगय रचनाएं स्थानीय अखबारों में छपने लगी तो मुझे भ्रम होने लगा कि अब मैं भी व्यंग्य लेखक बन गया। इसी बीच रायपुर के एक बुक स्टाल पर मेरी नजर डायमंड पाकेट बुक्स दिल्ली से प्रकाशित एक व्यंग्य संग्रह पर पड़ी जिसका नाम थाः मेरी इंक्यावन श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं लेखक विनोद शंकर शुक्ल। विनोद जी को पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों पर तो पढ़ता ही था पर संग्रह में उनको पढ़ना और उनकी रचना धर्मिता से परिचित होने का यह पहला अवसर था। मैने वह किताब खरीद ली और पढ़ी। शुक्ल जी के इस संग्रह को पढ़कर मुझे यही अनूभूति हुई जो पहाड़ के नीचे से गुजरने के बाद ऊँट को होती है। मुझे अपनी अल्पज्ञता पर हँसी आई। मैं सोचने लगा अरे! जिसे मैं अपना व्यंग्य लेखन समझ रहा था वह तो हास्य की रम्य रचना के सिवाय कुछ है ही नहीं। शुक्ल जी की व्यंग्य भाषा, शैली और विषय वैविध्य, कथ्य और शिल्प का जादू मेरे सिर चढ़कर बोलने लगा। व्यंग्य क्यों, कैसे और किसके लिए यह समझ में आया। व्यंग्य का मूल और उत्स क्या होता है। ये मैंने शुक्ल जी के इस संग्रह को पढ़कर समझने की कोशिश करने लगा। मैंने अपनी पुरानी रचनाएं नष्ट कर दी और नये सिरे से व्यंग्य लेखन का प्रयास करने लगा। कुछ नई रचनाओं का प्रकाशन जब पत्र-पत्रिकाओं में हुआ तो कुछ प्रब़ुद्ध पाठकों की सकारात्मक प्रतिक्रियाएं मिलने लगी। मेरा हौसला बढ़ा। इस तरह से मैंने एक संग्रह के लायक व्यंग्य रचनाएं लिख ली। पर दिमाग में फिर यही विचार कौंधने लगा कि मेरा लेखन व्यंग्य की कसौटी पर कितना खरा उतर पा रहा है। इसे तो कोई उच्चकोटी का व्यंग्यकार ही समझा सकता है। मनोंमस्तिष्क पर बार-बार शुक्ल जी का ही नाम आने लगा। कारण शुक्ल जी रायपुर निवासी है और मैं रायपुर से मात्र अस्सी किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव से हूँ। रायपुर से ही मेरी महाविद्यालयीन शिक्षा सम्पन्न हुई थी इसलिए यह शहर मेरे लिए अपरिचित नहीं हैं। पर अब तक शुक्ल जी के कृतित्व से परिचित होने का न अवसर मिला था और न ही व्यक्तित्व से परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। कोई सम्पर्क सूत्र भी नहीं था जिसके माध्यम से शुक्ल जी तक पहुँच सकूँ। अकेले मिलने की हिम्मत नहीं थी। मन में एक अंजाना भय समाया हुआ था कि इतने बड़े व्यक्त्वि कहीं मिलने से ही इंकार न कर दे या मेरी रचना पढ़कर डांट या झिड़क न दे।

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मैं महीनों तक इसी असमजंस में था। इसी बीच मैंने रायपुर के ही कवि अग्रज चेतन भारती से इस संबंध में बात की। उन्होंने कहा ठीक है अपनी पाण्डुलिपि मुझे दे दो। मैं शुक्ल जी को दे दूंगा। मैंने अपनी पाण्डुलिपि भारती जी को दे दी और शुक्ल जी की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगा।

मुझे अच्छी तरह याद है, दो सितम्बर दो हजार ग्यारह की बात है। मैं उस समय एस सी आर टी रायपुर में बाल साहित्य लेखन कार्यशाला में शामिल था। उस दिन लगभग संध्या चार बजे मेरे मोबाइल पर एक अंजान नम्बर से कॉल आया। मैं रिसीव करते हुए केवल हैलो ही कह पाया था कि आवाज आई 'क्या मेरी बात वीरेन्द्र 'सरल से हो रही है। मेरे हाँ कहते ही आवाज आई, मैं विनोदशंकर शुक्ल बोल रहा हूँ, आप तो बहुत अच्छा व्यंग्य लिख रहे हैं भाईं। कभी आना यार! रायपुर, फिर बैठकर व्यंग्य पर चर्चा करेंगे। मैंने कहा-''सर! मैं अभी रायपुर में ही हूँ तो उन्होने कहा-अरे! ये तो और भी अच्छा संयोग है पार्टनर। समय है तो आ जाओ। मैं भी घर पर ही हूँ। मुझे लगा मेरी लाटरी लग गई। जिन खोजा तिन पाइंया की उक्ति मुझ पर अक्षरसः चरितार्थ हो रही थी। मैंने तुरन्त अपने युवा रंगकर्मी मित्र हेमन्त वैष्णव को फोन करके बुलाया और बाइक पर सवार होकर हम शंकर नगर रायपुर से पैंतीस संस्कृति, मेघ मार्केट , रायपुर की ओर निकल पड़े।

शुक्ल जी के निवास पर पहुँचकर मैंने डोरबेल बजाई। कुछ ही समय में एक दबंग व्यक्ति ने दरवाजा खोला। उन्नट ललाट, गौरवर्ण, चेहरे पर तेजस्विता। मुझे लगा कहीं हम अंजाने ही किसी फौजी अफसर के घर तो नहीं पहुँच गए? फिर मुझे लगा कि मैं अपनी जगह सही हूँ। शुक्ल जी भी तो एक सिपाही ही हैं बन्दूक की न सही, कलम का सिपाही। देश और समाज की विकृतियों, विद्रुपताओं और विसंगतियों पर अपनी कलम की धार से वार करने वाला कलमकार भी समाज का एक सिपाही ही होता है। सामने खड़े शुक्ल जी होंठो पर मधुर मुस्कान और मिश्रीघुली वाणी से स्वागत करते हुए कह रहे थे-आइये, मैं आपका ही इंतजार कर रहा था। मैं शुक्ल जी के चरण स्पर्श करने के लिए जैसे ही झुका उन्होंने हाथ पकड़कर गले लगाते हुए कहा-अरे! नहीं पार्टनर, पैर मत छुओ। गले लगो यार! हम परंपरा भंजक लोग हैं एक ही पथ के राही। आखिर अपनी साहित्यिक विरासत आप जैसे युवाओं को ही देना है हमें। शुक्ल जी मुझे हाथ पकड़े-पकड़े कमरे पर लाए और सोफे की ओर इंशारा करते हुए बोले-आप लोग बैठिए। हम लोग बैठ गए। मैंने देखा, शुक्ल जी के कमरे के एक कोने पर टेबल है जिस पर टेबल लैम्प जल रहा है। पेन के नीचे कागज के कुछ पन्ने दबे हुए है। मुझे समझते देर नहीं लगी कि शुक्ल जी अभी भी व्यंग्य की साधना में ही डूबे हुए थे।

तब तक शुक्ल जी स्वयं दो गिलास पानी और मिठाई का डिब्बा हमारी ओर बढ़ाते हुए कह रहे थे-लीजिए मुँह मीठा कीजिए। मैं अचंभित था। उपलब्धियों के फलों से लदे हुए विशाल वृक्ष की डालियां कितनी झुकी हुई होती है, इसे साक्षात देख रहा था। मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं, कबीरा खड़ा चुनाव में, अस्पताल में लोकतंत्र, इंक्यावन श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएं, जित देखू तित व्यंग्य के रचियता, एक बटे ग्यारह, विविधा, गद्यरंग व्यंग्यशती के संपादक, मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से वागीश्वरी सम्मान, सृजन सम्मान, वसुंधरा सम्मान से विभूषित, शासकीय छत्तीसगढ़ स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय रायपुर के हिन्दी और पत्रकारिता के सेवानिवृत विभागाध्यक्ष की विनम्रता और आत्मिय व्यवहार से मैं अभिभूत था। सादा जीवन उच्च विचार के आदर्श का साकार स्वरूप मेरे सामने था। मैं शुक्ल जी की सादगी और विनम्रता का मुरीद हो गया। बातचीत के दौरान शुक्ल जी मुझे बार-बार आप सम्बोधित कर रहे थे। मैं असहज महसूस कर रहा था। मैंने निवेदन किया, सर मैं तो आपका स्नेहाकांक्षी हूँ। उम्र और अनुभव की दृष्टि से भी बहुत छोटा हूँ। यदि आप मुझे आप के बजाय तुम कहेंगे तो मुझे ज्यादा अच्छा लगेगा।

शुक्ल जी ने ठहाका लगाते हुए कहा, चलो मैंने आपकी बात मान ली। फिर मेरे चेहरे पर आये हुए भावों को देखकर कहा-यार! लगता है तुम बहुत जल्दी नाराज हो जाते हो? अच्छा चलो अब हम अनौपचारिक हो जाते है, ठीक है? फिर मेरे व्यंग्य लेखन पर, व्यंग्य की भाषा, शिल्प और शैली पर लगभग दो घंटे तक बातचीत हुई। शुक्ल जी ने हास्य और व्यंग्य का अंतर समझाते हुए मुझसे कहा कि हास्य फिल्म कामेडियन है और व्यंग्य फिल्म का नायक। कामेडियन केवल तात्कालिक मनोरंजन करता है और नायक बुराइयों से लड़ता है। समाज में जागरूकता लाकर बुराइयों से लड़ने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। व्यंग्य में हास्य का समावेश सब्जी में नमक जितना ही किया जाना चाहिए। मुझे प्रसन्नता है तुम व्यंग्य की आत्मा को समझकर लिख रहे हो। मैं तुम्हारी किताब की भूमिका जरूर लिखूंगा, कब तक लिखना है बस मुझे इतना ही बता दिए रहो। एकाध माह चल जायेगा ना? यह शुक्ल जी से मेरी पहली मुलाकात थी।

इसके बाद तो मुलाकातों का सिलसिला ही चल पड़ा। उन्होंने मेरी किताब की न केवल भूमिका ही लिखी बल्कि नाम भी सुझाया 'कार्यालय तेरी अकथ कहानी' इस किताब को यश प्रकाशन दिल्ली ने प्रकाशित किया और मुझे देश के वरिष्ठ व्यंग्यकारों के बीच पहचान दिला दी। हिन्दी व्यंग्य जगत में मेरी भी उपस्थति दर्ज हो गई। इससे मुझसे ज्यादा शुक्ल जी को खुशी हुई। वे बार-बार कहा करते थे पार्टनर तुम तो यार एक ही किताब से चर्चा में आ गए। तुम लगातार अपनी लेखनी को माँजते रहना। व्यंग्यकार गूंगी प्रजा का वकील होता है भाई। उनकी पीड़ा को वाणी देना ही व्यंग्य का धर्म है और करूणा व्यंग्य का मूल, समझ गये? मैं तुममे में काफी संभवनाएं देख रहा हूँ। मेरा स्नेह और आशिर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है। इसके बाद तो मैं जब भी रायपुर जाता शुक्ल जी मुलाकात जरूर करता। यदि व्यस्तता ज्यादा होती तो शुक्ल जी फोन पर बातचीत से बता देते, वीरेन्द्र भाई! आज मैं बाहर हूँ यार। मुलाकत नहीं हो पायेगी। फोन पर लगातार हमारा संबंध बना रहा।

मेरी स्मृतियों में मेरे व्यंग्य गुरू की बहुत सारी यादें है पर सब को लिखने से यह लेख एक किताब की शक्ल अख्तियार कर लेगा। बस इस दीपावली के दूसरे दिन की यादें साझा कर रहा हूँ। उन्होने मुबंई से एक अलग नम्बर से फोन किया और कहा-वीरेन्द्र भाई! में गंभीर क्ष्प् से अस्वस्थ्य हो गया हूँ। मेरे हार्ट की बायपास सर्जरी हुई है। घाव भर नही रहा है इसलिए बेटे के पास मुबंई में रहकर अपना इलाज करा रहा हूँ। मुझे पता है तुम दीपावली में मुझे विश करने के लिए बहुत याद किए होवेगे और मेरा नम्बर लगा नहीं होगा। बेटे ने मेरे लिए दूसरा नम्बर ले लिया । अब इसी से हमारी बात होगी इसे सुरक्षित कर लेना। और क्या चल रहा है तुम बताओ। मैंने विश्वगाथा के व्यंग्य विशेषांक के प्रकाशन और प्रकाशन स्थल, संपादक और अतिथि संपादक के बारे में विस्तार से जानकारी दी। तब शुक्ल जी ने कहा-अरे वाह! अहिन्दी भाषी क्षेत्र से हिन्दी पत्रिका निकालने वाला तो कोई जीवट हिन्दी सेवी ही हो सकता है यार। पंकज जी को मेरा नमस्कार कहना और मेरी भी कोई पुरानी रचना भेज देना नही ंतो इस बार मैं चूक जाऊँगा पार्टनर। मैंने शुक्ल जी की एक पुरानी रचना 'झांकी झूठ न बोले' टाइप करके अर्चना जी को मेल की और मेल मिलने की जानकारी ली। सन्तुष्ट होने के बाद शुक्ल जी को फोन किया तो शुक्ल जी किसी बच्चे की तरह प्रसन्न हो गए और बोले तुमने अच्छा किया भाई। जहां भी इस तरह विशेषांक निकले अपनी पंसद पर मेरी रचना भी भेज दिया करना। मैं बहुत जल्दी रायपुर आ रहा हूँ। आते ही तुमको फोन करूंगा तुम आना फिर दोनो भाई बैठकर खूब सारी बातें करेगे। बहुत याद आ रही है रायपुर और अपने मित्रों की। अभी तुमसे बस एक बात कह रहा हूँ -वीरेन्द्र भाई! कभी व्यंग्य का दामन छोड़ना मत यार पार्टनर। मेरा आशिर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है। मुझे क्या पता था कि यह वाक्य मेरे व्यंग्य गुरू का दिया हुआ अंतिम गुरू मंत्र है। जब से पता चला कि शुक्ल जी हम सबको अलविदा कह गए तो उनकी कही हुई बातें याद आती है। लगता ही नहीं कि शुक्ल जी अब नहीं रहे।

मेरे व्यंग्य गुरू का स्नेह मेरी धरोहर, आशिष मेरा संबल, सुझाव मेरी प्रेरणा और बातें मेरी लेखनी की उर्जा। शुक्ल जी को अपनी अश्रुपूरित श्रद्धांजली अर्पित करते हुए भी जाने क्यों मुझे ऐसा लगता है कि मेरी स्मृतियों में बार-बार आकर शुक्ल जी मुझसे कहेंगे-वीरेन्द्र भाई! व्यंग्य का दामन कभी छोड़ना मत यार पार्टनर। मेरा आशिर्वाद सदैव तुम्हारे साथ है।

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वीरेन्द्र'सरल'

बोड़रा ( मगरलोड़)

जिला-धमतरी ( छत्तीसग) मो-07828243377

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रचनाकार: मेरी स्मृतियों में मेरे व्यंग्य गुरू-''विनोदशंकर शुक्ल'' / वीरेन्द्र 'सरल'
मेरी स्मृतियों में मेरे व्यंग्य गुरू-''विनोदशंकर शुक्ल'' / वीरेन्द्र 'सरल'
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