समाज का आमूलचूल निरीक्षण करने वाली कहानियाँ(समीक्षा) --प्रतीक श्री अनुराग

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डा. मनोज मोक्षेंद्र का चौथा कहानी संग्रह 'संतगिरी' में तेरह कहानियाँ हैं जो समाज के विभिन्न परिप्रेक्ष्य में लिखी गई हैं। मोक्षेंद्र...

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डा. मनोज मोक्षेंद्र का चौथा कहानी संग्रह 'संतगिरी' में तेरह कहानियाँ हैं जो समाज के विभिन्न परिप्रेक्ष्य में लिखी गई हैं। मोक्षेंद्र उत्साही और प्रयोगधर्मी कथाकार हैं और उनकी पैनी दृष्टि से परिवार, समाज, राजनीति, धर्म और विभिन्न संप्रदायों और वर्गों में व्याप्त आपत्तिजनक और भ्रष्ट तत्व बचे नहीं रह सकते। यह कहना सच होगा कि अपराधी और भ्रष्टाचारी जातक अपनी ख़ैर मनाएं क्योंकि मोक्षेंद्र की धारदार कलम उन पर घातक प्रहार करने से कभी पीछे नहीं हटेगी। अस्तु, वे इस संग्रह में प्रमुखतया पारिवारिक, राजनीतिक और धार्मिक समस्याओं पर अधिक ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। जहाँ तक इस दौर में कथाकारों द्वारा पारिवारिक कहानियाँ लिखे जाने का संबंध है, उन्हें ऐसी कहानियाँ लिखना रास नहीं आ रहा है। पर, मोक्षेंद्र ने पारिवारिक परिवेश वाली कहानियाँ लिखकर जो दृष्टिकोण सामने रखा है, वह अनुकरणीय, सराहनीय और मिसालिया है। अत्यंत प्रासंगिक तो हैं ही।

मोक्षेंद्र अपने इस संग्रह की भूमिका में स्वयं लिखते हैं कि 'इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस विस्फ़ोटक दौर में समाज में उत्पन्न हो रही विकृतियों के मद्देनज़र परिवार के दांपत्य जीवन और संतान के साथ माँ-बाप के संबंधों पर बड़ा विघटनकारी प्रभाव पड़ रहा है। मौज़ूदा एकल पारिवारिक व्यवस्था में इने-गिने सदस्यों के बीच बातचीत तथा क्रिया-व्यापार में संवेदनहीनता और भावना-शून्यता ही प्रमुखता से दृष्टिगोचर हो रही हैं। जिसे हम व्यस्त सदस्यों वाला परिवार मानते हैं, वहाँ व्यस्तता सिर्फ़ आर्थिक गतिविधियों में ही नज़र आ रही है, मानवीय और पारस्परिक व्यवहार के उदात्तीकरण में नहीं। पुरुषों को इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उनकी कामकाजी पत्नियों के अनैतिक संबंध उनके बॉस या कुलीग़ के साथ बन चुके हैं। घरेलू स्त्रियों को भी अपने-अपने पतियों के ग़ैर-स्त्रियों के साथ नाजायज़ संबंधों के बारे में जानकारी होती है; लेकिन, चूंकि वे लाखों रुपए उपार्जित करके एक-दूसरे को निहाल करते हैं, इसलिए वे ऐसे संबंधों को मामूली घटनाएं मानकर अपनी दिनचर्या का निष्पादन करते रहते हैं। पश्चिमीकरण के नाम पर ऐसे संबंधों का साधारणीकरण तो होता ही जा रहा है तथा गर्ल-फ़्रेंड और ब्वॉय-फ़्रेंड न रखने वालों पर 'पिछड़ी मानसिकता' की फ़ब्तियाँ कसी जा रही हैं।'

मोक्षेंद्र विकासोन्मुख मध्यम वर्ग में स्त्रियों की बढ़ रही प्रभुता से आए सामाजिक बदलावों को रेखांकित करते हैं और यह संकेत करते हैं कि सामाजिक विकास के लिए यह कोई सकारात्मक लक्षण नहीं है जबकि बात-बात में स्त्री-पुरुष समानता की मुखालफत की जा रही है। वे संग्रह की पहली कहानी 'पुअर लेनिन, हिटलर को डिनर पर बुलाओ!' में मिसेज़ भंडारी के अनुचित रूप से परिवार के सदस्यों पर हावी रहने का दिलचस्प ब्योरा बड़े ही चुटीले अंदाज़ में प्रस्तुत करते हैं। मिसेज़ भंडारी के पति 'आरके' आधुनिक पत्नी-प्रलोभक पुरुष के भेष में हास्यास्पद व्यक्तित्व के रूप में मुखर होते नज़र आते हैं। अत्यधिक निरीह होकर पत्नी की खुशामद करने की उनकी आदत आलोचनास्पद है। शायद, उनका यह स्वरूप मौज़ूदा विघटित हो चुके संयुक्त परिवार का एक दुष्परिणाम है। सवाल यह उठता है कि स्त्री-पुरुष को समान दर्ज़ा दिए जाने की व्यापक कवायद के फलस्वरूप उच्च मध्यम वर्ग के परिवार में स्त्री का वर्चस्व कहीं समाज को अनैतिक क्रिया-व्यापार के दलदल में तो नहीं ले जा रहा है। कहानी में फीमेल सेक्स व्यवहार को सिर्फ़ सुख और हास्य के प्रमुख स्रोत के रूप में उजागर किया गया है जिसे परोक्षतः कथाकार स्वीकार करना नहीं चाहता है। सबला औरत को पति, बेटे, बहू आदि सभी पर शासन करते हुए प्रदर्शित किया गया है क्योंकि ऐसा न तो पुरुष के लिए न ही स्त्री के लिए समर्थनीय है। स्त्री का मनोविज्ञान कुछ इस प्रकार है कि वह तभी संतुष्ट हो पाती है जबकि उसकी शासन करने की प्रवृत्ति को अबाध विस्तार मिलता है; तभी तो वह अपने पारिवारिक सदस्यों के नाम संसार के प्रमुख तानाशाह लेनिन और मुसोलिनी तथा ब्रिटेन की भूतपूर्व प्रीमियर मारग्रेट थैचर पर रखती है। यहाँ तक कि अपने कुत्ते का नाम 'हिटलर' रखती है जबकि पति (लेनिन) कुत्ते (हिटलर) के सेवक के रूप में वर्णित किया गया है। कहानी बेहद मनोरंजक है।

कहानीकार संग्रह की अगली कहानी 'रखैल मर्द' में भी, जैसाकि शीर्षक से ही स्पष्ट है, स्त्री-वर्चस्व को पुनः रेखांकित करता है। 'लिव इन रिलेशनशिप' के रूप में अनैतिक-असामाजिक रूप से फल-फूल रहे दांपत्य के सुपरिणामी न होने की तर्कपूर्ण व्याख्या इस कहानी में की गई है और इसका दुःखद हश्र भी बताया गया है। पति स्वस्थ दांपत्य जीवन व्यतीत करना चाहता है जबकि पत्नी को अविवाहित रहते हुए बाल-बच्चों समेत आजीवन उसके साथ रहने से कोई गुरेज़ नहीं है। बल्कि वह इस रूप में ही रहने की ज़िद पर अटल रहती है। संग्रह की एक और पारिवारिक कहानी 'ऐसी है जुगुनी' स्त्रियों के विभत्स कुकृत्यों की जमकर नंगाझोरी करती हैं। औरत के मायकेवालों का कहर इतना घातक होता है कि पति के पास मृत्यु को आलिंगन करने के सिवाय कोई और विकल्प नहीं रह जाता। पति के ख़िलाफ़ षड़्यंत्र, जादू-टोने का प्रयोग, मायकेवालों की मिलीभगत, पति और दामाद का उत्पीड़न और वह भी दहेज लेने के कारण, ओझाओं और मौलवियों के कर्मकांड, मायकेवालों की निर्दयता के कारण दामाद के परिवार का घातक विघटन जैसे अनेक ज्वलंत पारिवारिक मुद्दों पर कथाकार चर्चा करता है। पूरी कहानी पढ़ने के बाद मन जुगुप्सा से भर जाता है और पाठक पारिवारिक बदहालियों पर बदलाव लाने के लिए उद्वेलित हो उठता है। बेशक, अगर समानतावादी लोकतंत्र बहाल करने की दुहाई समाज में की जाती है तो परिवार में क्यों नहीं?

मोक्षेंद्र अपनी चुनिंदा कहानियों में सिर्फ़ स्त्री-वर्चस्व के दुष्परिणामों को ही रेखांकित नहीं करते हैं बल्कि उद्दंड और हृदयविहीन पुरुषों द्वारा निरीह स्त्रियों के शोषण की भी खुलेआम नुक़्ताचीनी करते हैं। 'बात इतने से ख़त्म नहीं हुई' कहानी में स्त्रियों के ख़िलाफ़ पुरुष द्वारा अपनाए जाने वाले छल-प्रपंच और छद्म विवाहेतर संबंध को रूपायित किया गया है। कहानी की मुख्य पात्र श्यामल दीदी का विवाह गाँव के जिस बेरोज़गार युवक से होता है, वह रोज़ग़ार ढूंढने के बहाने शहर जाकर न केवल अपने प्रापर्टी डीलर मित्र के साथ काम करते हुए उसे धोखा देकर बेईमानी और गुंडागर्दी की नींव पर अपना नया भारी-भरकम बिज़नेस खड़ा करता है, बल्कि दूसरा विवाह भी करता है तथा अपनी पहली पत्नी श्यामल को इस भ्रमजाल में उलझाए रखता है कि वह अभी भी शहर में उसके लिए संघर्ष कर रहा है तथा जैसे ही वह वहाँ अपने रोज़ग़ार का स्थायी बंदोबस्त कर लेगा, उसे शहर बुला लेगा। लेकिन यह तो उसका स्वांगपूर्ण छद्म रूप था; भीतर से वह बेहद काइयां आदमी था। पहली पत्नी के बच्चे जिस अमानवीय हालात में अभाव और दरिद्रता की ज़िंदग़ी गुजर-बसर करते हैं, वह सचमुच दिल को दहला देता है। श्यामल दीदी का मुंहबोला भाई जब शहर जाकर प्रापर्टी डीलर मित्र को आईना दिखाने की कोशिश करता है तो उसे उसके गुंडे-मवालियों का सामना करना पड़ता है।

संग्रह की कहानी 'सियासतदारी में हमशक़्ल होने के मायने' एक क्लासिक कहानी है जिसमें एक आम दलित व्यक्ति द्वारा राजनीतिक क्षितिज पर वर्चस्व हासिल किए जाने के बाद उसके सियासी हथकंडों पर चर्चा की गई है। कहानी में आद्योपांत जिज्ञासा हिलोरे लेती है। राजनीतिक कुचक्रों तथा राजनेताओं के चरित्र का ब्योरा जितने सलीके से दिया गया है, वह पाठकों को सियासी गलियारों के नए-नए अनुभवों से अवगत कराता है। शीर्षक से ऐसा लगता है कि यह कहानी तिलस्म से भरी होगी; पर, सारा ब्योरा वास्तविक जगत पर आधारित है। पिता और पुत्र ही हमशक़्ल होते हैं जिनके ख़ौफ़ से दलित बाहुबली नेता सत्यार्थी स्वामी हमेशा सहमा रहता है। सियासतदारी में जो नेता अपने बाहुबल का प्रदर्शन करने और तिकड़म के जरिए अपना स्वार्थ सिद्ध करने में अव्वल होता है, उसकी ही चाँदी होती है। लेकिन, कहानी का एक और पहलू है जिसमें डी आर मेहता सरीखा नेता राजनेताओं के पाखंड को तोड़ना चाहता है। कथाकार ने इस कहानी को बड़े मनोयोग और शिद्दत से लिखा है।

संग्रह की अन्य कहानियों में कहानी 'फ़्लैट कल्चर' आवासीय कालोनियों की सोसाइटियों के पदाधिकारियों में व्याप्त अवैध भ्रष्टाचरणों तथा किसी अपार्टमेंट में रहने वाले एक शरीफ़ परिवार के शोषण का विवरण देती है जबकि परिवार के मुखिया 'जैन साहब' को तिकड़मी कालोनीवासियों के हाथों शोषित होना पड़ता है तथा आख़िरकार उसे फ्लैट बेचकर कहीं और जाना पड़ता है। कहानी 'गोबरधन' एक बेरोज़ग़ार युवक की ईमानदारी और घर के मालिक की फ़राखदिली को दिलचस्प ढंग से प्रस्तुत करती है जबकि मालकिन अपने स्त्री-सुलभ स्वभाव के कारण तब तक उस युवक पर संदेह करती है जब तक कि उसकी निष्ठा प्रमाणित नहीं हो जाती है। यह कहानी एक अच्छी सीख़ देकर जाती है। कहानी 'उगते हुए को यूं सूरज बनाना' साहित्याकाश में वर्चस्व तथा लोकप्रियता हासिल करने के लिए कूपमंडूक लेखकों द्वारा अपनाए जाने वाले हथकंडों पर प्रकाश डालती है तथा गंभीर लेखकों के साहित्य से मोहभंग़ होने की प्रवृत्ति को विश्लेषित करती है।

'संतगिरी' धार्मिक मठों में व्याप्त भ्रष्टाचरणों को आड़े हाथों लेने वाली उल्लेखनीय कहानी है जिसमें संत समाज के वास्तविक रूप को प्रथमतः पाठकों के सामने रखा गया है। संत समाज में भोग-विलास और सुख-ऐश्वर्य के जो साधन उपलब्ध हैं, उन्हें प्राप्त करने के लिए कनिष्ठ श्रेणी के साधुओं में छिड़े जंगी ज़द्दोज़हद को इस कहानी में वर्णित किया गया है। तदनंतर कहानी 'कुत्तागिरी' पश्चिम भारत के नव-धनाढ्य समाज के हीन भावना से ग्रस्त लोगों में अस्मिता की लड़ाई को चित्रित करती है जबकि भिन्न-भिन्न नस्लों के बेशकीमती कुत्ते पालने का शौक उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बन जाता है। संग्रह की अन्य कहानियाँ भी कथाकार की चातुर्यपूर्ण कथानक की बुनावट तथा उसकी कहानी-कला पर विशेष प्रकाश डालती है। कहानी 'सठियाई उम्र का उन्माद' वृद्धों के समाज में भावी जीवन में सार्थक रूप से सक्रिय होने के लिए जो उपक्रम अपनाए जा रहे हैं, वे फ़िलहाल भले ही हमें आपत्तिजनक लग रहे हों; लेकिन ऐसा करना समय की मांग है क्योंकि वृद्ध माँ-बाप को वृद्धाश्रम में निपटाने की परंपरा अब जोर पकड़ती जा रही है। ऐसे में, अपेक्षा की जाती है कि वृद्धजन आत्मनिर्भर बनें क्योंकि एक न एक दिन उनके बेटे उन्हें बेघर कर देंगे। कहानी 'तमाचा' भी एक-दूसरे का सहारा बनने के लिए वृद्धों और वृद्धाओं को वैवाहिक सूत्र में बंधकर नई स्वार्थी और निर्दयी पीढ़ी को एक स्मरणीय सबक दे जाती है।

मोक्षेंद्र की कैलिडोस्कोप की तरह दृष्टि है जो सभी दिशाओं में समाज के हर पहलू को भेदते हुए देखती है। उनका नज़रिया उन्हीं के शब्दों में देखिए, "इस नए दौर में ख़ासतौर पर युवाओं में मनोविकृतियाँ एक ऐसे लाइलाज स्तर तक पहुंच गई हैं, जहाँ निरोग और स्वस्थ मानवीय व्यक्तित्व की बातें करना ही बेमानी हो जाता है। पाशविकता के लक्षणों वाली आधुनिकता के इस दौर में मनुष्य की हर गतिविधि और यहाँ तक कि जनांकिकीय महत्व वाले सेक्स-संबंध भी कितने यांत्रिक-से हो गए हैं--इसकी व्याख्या करने की ज़रूरत है ही नहीं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साधन ही इस दौर के बच्चों के असली माँ-बाप और शिक्षक हैं जिनका अनुकरण वे आँख मूँदकर करते हैं। ये सर्व-सुलभ साधन जीवन के सबसे सड़ांध देने वाली कचरी गलियों में उस अंधखोह तक ले जा रहे हैं जहाँ से उसे निकालना असंभव हो जाता है। सो, सुलझे लेखकों के लिए इस तरह की गतिविधियों से कुपोषित परिवार एक चुनौतीपूर्ण समस्या बन चुका है। सदस्यों की मनोग्रंथियाँ इतनी जटिल हो चुकी हैं कि उनकी ब्रेन-वॉशिंग करना अत्यंत दुष्कर-सा हो गया है।"

निःसंदेह, मोक्षेंद्र बहु-आयामी कथाकार हैं तथा अपनी कहानियों में वे मुद्दे को तब तक नहीं छोड़ते जब तक कि उसका सांगोपांग विश्लेषण न हो जाए। सारी कहानियाँ नए-नए दृष्टिकोणों से लेखक के गंभीर उद्देश्य को उद्घाटित करती हैं। वे कहानी की सुडौल संरचना एक योजना के अनुसार करते हैं तथा भिन्न-भिन्न पात्रों का स्वाभाविक चित्रांकन तथा मुख्य कथानक के साथ उपकथाओं का सिद्धहस्त संयोजन इतने कौशल्य से करते हैं कि समूची कहानी अपेक्षा से ज़्यादा जीवंत हो उठती है। हमेशा की तरह इस संग्रह में भी भाषा का तिलस्म दिखाई देता है। पात्रों द्वारा बोले जाने वाले डायलाग की शब्दावलियों पर ख़ास ध्यान देते हैं। यदि पात्र आंचलिक प्रदेशों के हैं तो उनके लिए आंचलिक शब्दावलियों का प्रयोग किया गया है। ये शब्दावलियाँ पात्रों के चरित्र और मनोविज्ञान को स्वाभाविक रूप से परिलक्षित करती हैं।

मोक्षेंद्र की कहानियाँ आम जनजीवन का आमूलचूल निरीक्षण करती हैं, विभिन्न स्तरों पर मानवीय संबंधों और रिश्तों का जायज़ा लेती हैं और सामाजिक संबंधों को सदाशयता से लबरेज देखना चाहती हैं। यदि 'सियासतदारी में हमशक़्ल होने के मायने' जैसी राजनीतिक मुद्दे पर लिखी गई कहानी है तो भाषा और पात्र भी उसी के अनुकूल हैं। 'फ़्लैट कल्चर' के पात्र भी आवासीय सोसाइटियों के भ्रष्ट पदाधिकारियों जैसा ही आचरण करते हैं और उनके द्वारा किए जाने वाले घात-प्रतिघात, ईर्ष्या-द्वेष, स्वार्थ-पूर्ति आदि जैसी अनर्गल गतिविधियों को पूरी तरह प्रतिबिंबित करते हैं। 'सठियाई उम्र का उन्माद' और 'तमाचा' में वे न केवल उपेक्षित बुज़ुर्ग के आक्रोश को सार्वजनिक करना चाहते हैं अपितु जेनेरेशन गैप की धारणा को भी एक सिरे से खारिज़ करते हुए इस लोकप्रिय भ्रांति को मिटाना चाहते हैं। यहाँ यह कहना अनुचित न होगा कि मोक्षेंद्र अपनी कहानियों में पूर्णरूपेण एक सुधारक के रूप में मुखरित होते हैं। उनकी गुजारिश है कि समाज में सर्वत्र समानता, आत्मीयता और सदाचार की बयार बहे। साहित्यिक गलियारों से स्वयं को विरत रखने वाले मोक्षेंद्र उदात्त सामाजिक मूल्यों के पुनर्स्थापना की कामना करते हैं। मैं उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ और उनकी दिलचस्प कहानियों के अगले संग्रह की प्रतीक्षा बड़ी व्यग्रता से कर रहा हूँ।

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(समाप्त)

कहानी संग्रह : 'संतगिरी' (पृष्ठ सं. 144+8; मूल्य 300/- रुपए)

प्रकाशक : अनीता पब्लिशिंग हाउस, ए93,आज़ाद इंक्लेव, पूजा कालोनी, लोनी ग़ाज़ियाबाद-201102

मोबाइल नं. : 9650375089, 9810326389

e-mail : santosh.shrivastav255@gmail.com

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समीक्षक -

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जीवन चरित

और उपलब्धियों/विभिन्न गतिविधियों

का विवरण

नाम: (i) प्रतीक श्रीवास्तव

(ii) प्रचलित नाम : प्रतीक श्री अनुराग

(iii) उपनाम : अनुराग

जन्म-तिथि : 30-10-1978

पिता : श्री एल0 पी0 श्रीवास्तव (सेवा-निवृत प्रधानाचार्य)

माता : (स्वर्गीया) श्रीमती विद्या श्रीवास्तव

पता : बी-37/179-39, गिरि नगर कालोनी, (बिरदोपुर), महमूरगंज, वाराणसी (उ0प्र0)

शैक्षिक योग्यता : बी0ए0 आनर्स (अंग्रेज़ी साहित्य), काशी हिंदू विश्वविद्यालय,

वाराणसी (उ0प्र0)

अनुभव : (1) पत्र-पत्रिकाओं में लेखन, संपादन, प्रकाशन आदि का 20 वर्षों का अनुभव

(1) पत्रकार के रूप में अनुभव का विवरण

(क): वाराणसी टाइम्स में भूतपूर्व सह-संपादक;

(ख): वाराणसी टाइम्स, जनवार्ता, गाण्डीव एवं भारतदूत आदि दैनिक पत्रों में संपादकीय अंश और मुख्य संपादकीय लेखों का लेखन;

(ग): हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, आज, राष्ट्रीय सहारा, गाण्डीव, एवं जनवार्ता के साहित्यिक परिशिष्टों के लिए कविता, कहानी, निबंध, व्यंग्य आदि का लेखन;

(घ): नवभारत के 'एकदा' स्तंभ हेतु लेखन;

(ङ): विभिन्न दैनिक पत्रों के लिए संवाद-लेखन तथा समय-समय पर विशेष संवाददाता के रूप में महत्त्वपूर्ण समाचार तैयार करना और उनका तत्वर प्रकाशन;

(च): अंग्रेज़ी अख़बारों और ख़ासतौर से नार्दर्न इंडिया पत्रिका के लिए एजूकेशन कवरेज़

(छ): 'बिहारी ख़बर' (राष्ट्रीय साप्ताहिक समाचार पत्र) के लिए नियमित लेखन;

(ज): 'बिहारी ख़बर' के ब्यूरो प्रमुख रहे;

(झ): राष्ट्रीय पत्रिका--'वी विटनेस' स्वयं के स्वामित्व में नियमित प्रकाशन;

संप्रति : राष्ट्रीय पत्रिका--'वी विटनेस' के प्रधान संपादक

(2) सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आदि क्षेत्रों में सक्रियता संबंधी अनुभव का ब्योरा

(i) वाराणसी के अनेक साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी तथा इन विषयों पर आयोजित गोष्ठियों, बैठकों, सम्मेलनों और सेमीनारों में कार्यक्रमों का संचालन, निर्देशन, दिग्दर्शन तथा कार्यक्रमों की कार्यसूचियां एवं कार्यवृत्त तैयार करना;

(ii) व्यापक स्तर पर कवि गोष्ठियों/कवि सम्मेलनों/मेहफ़िले मुशायरों में काव्य पाठ;

(iii) विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आदि मंचों का संयोजन;

(iv) सामाजिक उन्नयन के लिए विद्याश्री फाउंडेशन की स्थापना एवं संचालन;

(v) शैक्षिक/शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक संस्था--'पगडंडियाँ' की स्थापना एवं संचालन;

(vi) राष्ट्रीय स्तर पर साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक आदि ग्रंथों के प्रकाशन हेतु विद्याश्री पब्लिकेशन्स की स्थापना और संचालन; इस बाबत पांडुलिपियों का संपादन;

(vii) समाज के सारभूत उन्नयन में समग्र भागीदारी हेतु राष्ट्रीय मंच--राष्ट्रीय समाज कल्याण परिषद का संचालन;

(viii) माइनॅारिटी एजूकेशन एण्ड वेलफ़ेयर सोसायटी, वाराणसी की स्थापना और संचालन।

(xi) सदस्य : 1. बर्टेड रसेल सोसायटी, अमरीका, 2. रसराज; 3. अभिमत; 4. टेम्पुल आफ़ अंडरस्टैंडिंग, 5. कृतिकार, 6.कहानीकार और 7. सद्भावनापीठ।

ज्ञात भाषाएं : हिंदी और अंग्रेज़ी

घोषणा : उपर्युक्त विवरण मेरी अधिकतम जानकारी और विश्वास के अनुसार सत्य और पूर्ण हैं।

भवदीय:

(प्रतीक श्री अनुराग)

संपर्क सूत्र :

प्रतीक श्री अनुराग

(पत्रकार, लेखक एवं समाज सुधारक)

बी-37/170-39,

गिरिनगर कालोनी (बिरदोपुर),

महमूरगंज, वाराणसी-221010

(उत्तर प्रदेश)

इ-मेल पता editor_wewitness@rediffmail.com

मोबाइल नं. 09648922883

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: समाज का आमूलचूल निरीक्षण करने वाली कहानियाँ(समीक्षा) --प्रतीक श्री अनुराग
समाज का आमूलचूल निरीक्षण करने वाली कहानियाँ(समीक्षा) --प्रतीक श्री अनुराग
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