आँखों की कहानी / अमिताभ वर्मा

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       बचपन में मुझे एक चीज़ का बेहद शौक़ था - रेलगाड़ी पर सफ़र करने का। जब कभी रेलगाड़ी पर चढ़ने का मौक़ा मिलता, मुझे बेहद खुशी होती। जी च...

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       बचपन में मुझे एक चीज़ का बेहद शौक़ था - रेलगाड़ी पर सफ़र करने का। जब कभी रेलगाड़ी पर चढ़ने का मौक़ा मिलता, मुझे बेहद खुशी होती। जी चाहता, रेलगाड़ी कभी न रुके, और मैं उस पर बैठा पीछे भागते खेत-खलिहान, बाग़-बग़ीचे देखता ही जाऊँ। रेलगाड़ी में बैठे तरह-तरह के लोग, स्टेशनों पर अलग-अलग अंदाज़ में फेरी लगाते फेरीवाले, और बीच-बीच में फ़िल्मी गाने गाते हुए भिखमंगे मेरे अचरज और कौतुक का कारण बनते। कहना न होगा, उन्हें छोड़ कर स्टेशन पर उतरना मुझे उदास कर दिया करता था।

       ऊपरवाला शायद मेरे इस शौक़ से वाक़िफ़ हो गया, और उसे दया भी आ गई मुझ पर। बस, ऐसी नौकरी मिली, जिसमें सफ़र-ही-सफ़र करने पड़े। शुरू में तो ऐसा लगा, जैसे अंधे को दो आँखें मिल गई हों। अगर मैं बच्चा ही रहता, तो शायद इस नौकरी से कभी न उकताता। लेकिन, हर सफ़र से होने वाली अस्तव्यस्तता और थकान मुझे जल्दी ही उबाने लगी। यह भी कोई ज़िंदग़ी है भला? न खाने का ठीक, न सोने का! कल तक कोई प्रोग्राम ही नहीं था, और आज अचानक ऊँट की तरह गर्दन उठाए चल दिए टूर पर - ऐसे खयाल रोज़ परेशान करते। पर आदमी करे भी तो क्या? रोटी के लिए तो सदा साथ रहने वाले होंठ भी अलग हो जाते हैं, फिर मामूली से सफ़र से क्या घबराना? मैं अपने को तसल्ली देता। रेलगाड़ी पर चढ़ना ऐसी कड़वी दवा बन गया, जिसे पीना वज़ूद कायम रखने के लिए ज़रूरी हो।

       एक दिन यूँ ही ऊबा-सा मैं रेलगाड़ी पर चढ़ा। पाँच घंटों से भी ज़्यादा का सफ़र था। फ़र्स्ट क्लास के उस केबिन में मेरे सिवाय कोई नहीं था। मेरे पास समय काटने को कोई किताब नहीं थी। बोरियत से भरा पहला आधा घंटा किसी तरह कटा। एक स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही मैं जायज़ा लेने नीचे उतरा। वही, हमेशा की तरह का माहौल था। एक-दो चाय-पकौड़े वाले, कुछ भिखमंगे, और मुसाफ़िरों की भीड़। यही सब कितना आकर्षित करता था मुझे पहले! अब तो इनमें कोई ख़ास बात नज़र नहीं आती। मैं अपने केबिन में वापस घुसा।

       मैं अब केबिन में अकेला नहीं रह गया था। मेरे सामने की सीट एक अधेड़ आदमी ने ले ली थी। सर पर छोटे-छोटे बाल आधे से ज़्यादा सफ़ेद थे। पैंट-बुशशर्ट पहने वे सज्जन समाज के मध्यमवर्गीय तबके का प्रतिनिधित्व करते मालूम पड़ते थे। चूंकि फ़र्स्ट क्लास में जा रहे थे, इसलिए, या तो विदाउट टिकट थे, या रेल कर्मचारी - मैंने अंदाज़ लगाया। उनकी एक तरफ़ उनका एक मित्र था, और मेरी सीट के दूसरे छोर पर एक दूसरा मित्र। उनके सामान में टिन का छोटा-सा एक संदूक और टिफ़िन बॉक्स भी शामिल था। तीनों दोस्तों की बातचीत से मिनटों में ज़ाहिर हो गया, कि वे गार्ड या वैसे ही किसी और पद पर काम करते थे।

       लेकिन, मेरे केबिन में घुसने वालों की संख्या तीन नहीं, चार थी। मेरे ठीक सामने, खिड़की की बगल में, एक लड़की बैठ गई थी। सत्रह-अठारह साल की रही होगी। मोर के पंख जैसी नीली सलवार-कमीज़ में थी वह। कमीज़ का कट लो तो नहीं था, पर उसने उस छोटे-से झरोखे को भी अपनी ओढ़नी के पर्दे से छुपा दिया था। गोरी नहीं थी, पर नाक-नक़्श आकर्षक थे। मुझे अपनी तरफ़ घूरता पा कर वह सकपकाई, और खिड़की के बाहर देखने लगी।

       ऐसे माई के लाल कम ही होंगे, जो लड़की के बाप की मौजूदगी में ही उस पर निगाहें-करम फ़रमाएँ। उस पर, वह खूसट तो मेरी ओर हर पाँच मिनट के बाद घूर रहा था। मैं कभी खिड़की के बाहर देखता, कभी केबिन के दरवाज़े को, और कभी उस खूसट को। इस प्रक्रिया में आँखें एक सौ अस्सी डिग्री का कोण बनातीं, जिसके बीचों-बीच वह नाज़नीन भी आ जाती। जब भी मैं उसे देखता, तो पता चलता, वह भी मुझे चोरी-चोरी देख रही है। जब ऐसा दस-बारह बार हो गया, तो दिले-बेताब ने इसे महज़ इत्तेफ़ाक़ मानने से इन्कार कर दिया। मीठी कसक और दिल के तारों का झनझनाना शुरू हो गया। हमारी निगाहें मिलने की फ्रीक्वेंसी दोगुनी हो गई। शायद मेरी बीवी भी ऐसी ही हो, मेरे कुँवारे दिमाग़ ने सोचा। या कौन जाने, यह भी वहीं उतरे जहाँ मुझे उतरना है। हमारी आँख-मिचौली दोस्ती में बदले, दोस्ती प्यार में, और प्यार शादी में। आखिरकार मेरी जन्म-कुंडली भी तो लव-मैरेज की घोषणा करती है! बस, वह नीली सलवार-कमीज़ शादी के लाल जोड़े में बदल गई। केबिन सजे-धजे कमरे में रूपांतरित हो गया। हमारी सीटें जुड़ कर सुहागरात की फूलोंसजी सेज बन गई। मैं घूंघट उलटने को हाथ बढ़ा ही रहा था, कि एक झटका लगा। गाड़ी रुक गई थी, और दोनों टिन संदूकधारी खूसट महोदय से विदा ले रहे थे। मेरा दिल थोड़ा घबराया। अबतक तो इसका ध्यान बँटाने को दो दोस्त थे। उनके उतरने पर खूसट का पूरा ध्यान हम दोनों की ओर ही होगा। लेकिन, भगवान जब देता है, तो छप्पर फाड़ कर देता है। गाड़ी दोबारा चलते ही वह उठा, और केबिन के बाहर चला गया।

       मैंने लड़की का ग़ौर से मुआयना किया। अच्छी, सुशील मालूम पड़ती थी। शायद बाप के बाहर जाने से घबरा गई थी। मैंने आँखों-ही-आँखों में दिलासा दी - “घबराओ मत! मैं बड़े पक्के चरित्रवाला आदमी हूँ। आजतक कभी छेड़खानी करते पकड़ा नहीं गया।”

वह शायद समझ गई। उसकी आँखों में चैन और प्यार - दोनों नज़र आ रहे थे। मैं हल्का-सा मुस्कुराया। जवाब में वह भी मुस्कुराई और फिर शरमा कर खिड़की के बाहर देखने लगी। दस मिनट तक अगर इसका बाप न आए तो मैं बाक़ायदा बातचीत शुरू कर दूँ, मैंने तय कर लिया। लेकिन तभी धप्-धप् की ज़ोरदार आवाज़ करते हुए एक सिपाही ने हमारे केबिन में प्रवेश किया। बिना पूछे-माते, पूरे सिपाहियाना अंदाज़ में वह मेरे बगल में बैठ भी गया। राइफ़ल गोद में रख ली, और लड़की को घूरने लगा। बंदूकधारी सिपाही से तो कोई भी दहशत खा जाए। वह बेचारी तो मासूम, कमसिन थी। मैंने उसकी आँखों का भय पढ़ लिया। निगाहों में कहा - “आश्वस्त रहो, तुम्हारा बाल भी बाँका न होने दूँगा।” सिपाही ने मुझे घूरा, जैसे कह रहा हो - “बेटा! अपनी हद में ही रहो। मुझे रोका तो बंदूक चल जाएगी।”

बंदूक-वंदूक तो खैर क्या चलती! तबतक उसका बाप आ गया कॉफ़ी का एक गिलास हाथ में लिए। लड़की को उसने कॉफ़ी दी। गिलास पकड़ते समय उसने मुझे देखा, मानो कह रही हो - “सॉरी! इतनी जल्दी तो ऑफ़र नहीं कर सकती न!”

सिपाही समझ गया कि वह माइनॉरिटी में आ गया है। उसने एक और सिपाही को बुला लिया। दूसरा सिपाही लड़की के बाप की बगल में बैठ गया। दोनों भोजपुरी गाने गुनगुनाने लगे। लड़की की आँखें भय से विस्फारित हो गईं। उसका बाप भी कुछ नर्वस हो गया। मुझे बचपन की एक सीख याद आ गई - समय पर किया गया उपकार बहुत दिनों तक याद रहता है। दिल ने कहा, “ससुर जी नर्वस न हों। देखिए मेरी भोजपुरी का कमाल!” सिपाहियों से दो-चार बातें कीं तो वे शांत हो गए। मैंने लड़की को देखा - “तुम्हारे भविष्य के हर संकट में भी मैं यूँ ही मदद कर सकता हूँ।” उसकी आँखों से कृतज्ञता छलक पड़ी।

       थोड़ी देर बाद, अपने मित्र के आग्रह पर पहले सिपाही ने अपना रेक्सीन का हैंड बैग खोला। जब उसका हाथ हैंड बैग से बाहर निकला तो उसमें पॉलीथीन में लिपटा एक टेप रिकॉर्डर था। हम सब उत्सुक हो कर देखने लगे। सिपाही ने आहिस्ता-आहिस्ता पॉलीथीन से टेप रिकॉर्डर निकाला। किसी लोकल कम्पनी में बने उस टेप रिकॉर्डर पर फूल पत्तियों का डिज़ाइन बना था। बैटरी चेक करने के बाद सिपाही ने उसे बहुत सँभाल कर रखा। उतना ही सँभाल कर एक कसेट निकाला। अब तक हमारी दिलचस्पी आसमान छूने लगी थी। टेप रिकॉर्डर फ़ुल वॉल्यूम पर बजते ही दोनों सिपाही झूमने लगे। वे कोई भोजपुरी गीत बजा रहे थे। ज़ोर से बजने की वजह से शोर ज़्यादा हो रहा था, संगीत और बोलों का पता कम चल रहा था। पर सिपाही थे कि आँखें बन्द कर झूमे जा रहे थे। मुझे बहुत ज़ोर से हँसी आई। मैंने लड़की को देखा। वह भी मुझे ही देख रही थी। मैं एक बार फिर हँस दिया। साथ ही वह भी हँस पड़ी।

दो-तीन गाने सुनने के बाद घड़ी पर नज़र डाली। पंद्रह मिनट में स्टेशन आनेवाला था। उसने भी मुझे घड़ी देखते देख लिया था। उसकी आँखें उदास-सी हो आई थीं। उन अंतिम पंद्रह मिनटों में शायद हम एक-दूसरे को दस मिनट देखते रहे। गाड़ी स्टेशन पर रुकी। मैंने अपना सूटकेस उठाया, और उतर गया। अभी प्लेटफ़ॉर्म के ओवरब्रिज पर चढ़ा ही था, कि देखा, दूर, वही खूसट आ रहा था। उसके साथ मोरपंख जैसे नीले कपड़ों में वह लड़की भी आ रही थी। वह उचक-उचक कर चल रही थी। बच्चा भी बता देता, उसका एक पैर बेकार था।

मैंने कदम तेज़ कर दिए। आँखों की कहानी खत्म हो चुकी थी। मुझे घर पहुँचने की जल्दी थी अब!

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लेखक परिचय

अमिताभ वर्मा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय प्रौद्योगिक संस्थान से खनन अभियांत्रिकी में स्नातक हैं। उन्होंने निजी क्षेत्र की विभिन्न कम्पनियों में पैंतीस वर्ष कार्यरत रहने के बाद 2016 में अवकाश ग्रहण किया। वे आकाशवाणी से बतौर समाचार सम्पादक और समाचार वाचक सम्बद्ध रहे हैं। उनके तेरह-तेरह एपिसोड के दो धारावाहिक नाटक - बाल-श्रम के विरुद्व ’अब ऐसी ही सुबह होगी’ तथा कन्या-संरक्षण पर ’नन्ही परी’ - आकाशवाणी पर प्रसारित हुए। वे सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के टेलिविज़न तथा रेडियो कार्यक्रमों में अभिनय तथा पटकथा लेखन द्वारा योगदान करते रहे है। उनकी रचनाओं का संकलन, ’कृतिसंग्रह’, बहुत सराहा गया। उन्होंने एक अंग्रेज़ी पुस्तक, ’स्टेइंग इन्सपायर्ड’, भी लिखी है।

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आँखों की कहानी / अमिताभ वर्मा
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