जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो गांधीजी के एकादश व्रत अपनाइए । - डॉ० कुसुमाकर शास्त्री

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संसार का हर व्यक्ति जीवन में सफल होना चाहता है। इसके लिए वह तरह तरह  के  साधन व व्रत (संकल्प) अपनाता है, चुन-चुन कर गुणों को ग्रहण करता है त...

भारती श्याम की कलाकृति

संसार का हर व्यक्ति जीवन में सफल होना चाहता है। इसके लिए वह तरह तरह  के  साधन व व्रत (संकल्प) अपनाता है, चुन-चुन कर गुणों को ग्रहण करता है तथा अवगुणों को दूर करता है। महात्मा गांधी जी इस कार्य के लिए दो डायरी रखते थे, एक  सुबह लिखते थे कि  आज क्या-क्या करना है? दिन भर उसपर अमल करने का प्रयास करते थे। शाम को सोने से पूर्व दूसरी डायरी में यह लिखते थे कि आज के निश्चय में कितने सफल हुए। उन्होंने अपने तथा आश्रमवासियों के लिए कुछ व्रत (आदर्श) बना रखे थे, जिनका पालन करना हर आश्रमवासी का पुनीत कर्तव्य था। ये व्रत गांधी जी के “एकादश व्रत” के नाम से जाने जाते हैं।

इन एकादश व्रतों में प्रथम स्थान “सत्य” का है। इसका अर्थ मात्र सत्य बोलना ही नहीं  है। आश्रमवासियों के लिए तो यह एक गहन विचार था । यह उनके जीवन के हर पहलू को निर्देशित करता था। सत्य उनके कर्म, वाणी और चिंतन में था। इसके बिना गति ही नहीं थी।

एकादश व्रतों में सत्य के बाद दूसरा स्थान ‘अहिंसा’ को दिया गया है। सत्य एवं अहिंसा परस्पर अन्योन्याश्रित हैं । सत्य अगर मंज़िल है तो अहिंसा उस तक पहुँचने का मार्ग। सत्यनिष्ठ व्यक्ति के मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ आती है। जो लोग उसके मार्ग मे कांटे बिछाते है, क्या सत्यनिष्ठ को उसके उच्छेद की बात सोचनी चाहिए? नहीं। सत्यनिष्ठ किसी से बदला (प्रतिशोध) नहीं लेगा क्योंकि वह अहिंसा के पथ का पथिक है। इस लिए वह ऐसे उपाय करेगा जिससे उसके विरोधियों का हृदय परिवर्तन हो और वे घृणा के स्थान पर उससे प्रेम करने लगें।

महात्मा गांधी के अनुसार अहिंसा उसी क्षण हिंसा में परिवर्तित हो जाती है जब किसी के लिए बुरे विचार रखते है। बिना कारण जल्दबाज़ी करना,झूठ बोलना, दूसरों से घृणा करना, उस वस्तु को अपने पास रखना जिसकी हमें आवश्यकता नहीं, पर जो हमारे पड़ोसी के लिए आवश्यक है,ये सब हिंसा के विविध रूप हैं।

गांधी जी के ग्यारह व्रतों में तीसरे स्थान पर है ‘ब्रह्मचर्य’इस व्रत के विषय में विवाद बहुत है,परन्तु इसकी गम्भीरता को समझने वालों की संख्या अत्यल्प है । अधिकांश लोग इसका अर्थ ‘निग्रह’ समझते हैं अर्थात कामेच्छा पर काबू पाना, इंद्रियों को बस में रखना, पर गांधीजी के अनुसार यह अर्थ पूरा नहीं है । चर्य का अर्थ है कम करने का ढंग या संचालन का ढंग । ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म(सत्य )की खोज करना । (ब्रह्मसत्यम् जगंमिथ्या जीवो ब्रह्मैवनापरः) इसका एक अर्थ है इंद्रियों पर पूर्ण संयम ।

इससे ही सम्बद्ध चौथा व्रत है ‘अस्वाद’। हमें उतना ही भोजन करना चाहिए जिससे शरीर का काम चलता रहे । स्वाद के लिए ठूँस-ठूँस कर भोजन करना उचित नहीं है। इस प्रकार भोजन करना तो शरीर पर आक्रमण करना है । हम उसे चोट पहुंचा रहे हैं । इसका एकमात्र इलाज उपवास है । गांधीजी की रसोई में साझा भोजन बनता था । यह पौष्टिक होता था और आश्रमवासी इसे संतुष्टि से खाते थे । समाजसेवा के कार्य में लगे हुए आश्रमवासियों को यह भोजन यथेष्ट शक्ति प्रदान करता था ।

अस्वाद के पश्चात ग्यारहव्रतों में ‘अस्तेय’ का स्थान है । अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना ; पर यह सीमित अर्थ है । गांधीजी तो यहाँ तक कहते थे कि हमें भविष्य में अपने पास क्या रखना है इसकी चिन्ता करनी भी गलत है । जिसने अस्तेय व्रत धारण कर रखा है वह ऐसी चिन्ता कभी नहीं करेगा । दूसरे के विचारों को चुराना या उसकी नकल करना भी चोरी है ।

अस्तेय के उपरान्त आता है ‘असंग्रह’ अर्थात स्वेच्छा से निर्धनता को स्वीकार करना । जिस वस्तु की हमें आवश्यकता नहीं है उसे अपने पास रखना वैसा ही है जैसा चोरी का माल अपने पास रखना । गांधीजी का कहना था कि यदि हरेक व्यक्ति के पास उतनी ही वस्तु हो जितनी उसे आवश्यकता तो किसी के लिए किसी चीज की कमी नहीं रहेगी । तब सब संतोष के साथ जीवन-यापन करेंगे । धनी लोगों को तो अपने जीवन का आरंभ ही असंग्रह से करना चाहिए ।

इस शृंखला का अगला व्रत है ‘निर्भयता’। हर व्यक्ति को भय से मुक्त रहना चाहिए । भय चाहे बीमारी का हो या चोट लगने का, यह अच्छा नहीं है । मृत्यु का भय भी उचित नहीं । दूसरों के अत्याचारों का भय,स्पष्ट बात न कहना और सत्य को छिपाना , यह भी भय है । आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने मन और मस्तिष्क से भय को सदा के लिए निष्कासित कर दें ।

गांधीजी के एकादश व्रतों में निर्भयता के बाद ‘अस्पृश्यता निवारण’ का नम्बर आता है । छुआछूत की भावना रखना आश्रमवासियों के लिए वर्जित था । गांधीजी अस्पृश्यता के विचार को प्लेग अर्थात महामारी कहते थे । वे कहा करते थे –“प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है कि वह हिन्दू धर्म को इस महामारी से मुक्त करने का संकल्प ले ।”

मात्र अस्पृश्यों को मित्र बनाने से ही यह बीमारी दूर नहीं होगी ।अस्पृश्यता–निवारण का अर्थ है सबसे प्रेम करना । जब ऐसी भावना होगी तभी अहिंसा का उदय होगा। ग्यारह व्रतों में ‘शरीरश्रम’ को स्थान देकर गांधीजी ने हमें शरीर श्रम के महत्व को समझाने का प्रयत्न किया है। जो कोई अन्नखाता है उसे शरीर श्रम भी करना चाहिए । हमें ऐसा कार्य करना चाहिए जो उत्पादक हो ।

     ‘सर्व धर्म समभाव’ इस व्रत का अर्थ है –“सब धर्म समान हैं इसलिए हमें सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए । परन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि यदि किसी धर्म में कोई बुराई प्रविष्ट हो गई है तो हम उसकी अनदेखी कर दें । ऐसा धर्म तो हमारा अपना धर्म भी हो सकता है, इसलिए हमें सचेत रहना चाहिए । दूसरे धर्मों की अच्छाई अपने धर्म में सम्मिलित कराना  चाहिए । सर्व धर्म समता का यह अर्थ नहीं कि हम धर्म पर अविश्वास करने लगें या पर-धर्म का अनादर करें, इसका यह अर्थ भी नहीं की हम धर्म-अधर्म में भेद न करें । सर्व धर्म समानत्व का अर्थ है –“हम धर्म के मूल आदर्शों का सम्मान करें ।

गांधीजी ने अपने एकादश व्रतों में ‘स्वदेशी’ को भी स्थान दिया। उनके अनुसार यह क़ानूनों का भी कानून था। स्वदेशी पर विश्वास करने वाला अपने पड़ोसी की सेवा में स्वयं को समर्पित कर देगा पर इसका यह मतलब नहीं कि वह पड़ोसी के अतिरिक्त किसी और को महत्व नहीं देगा। स्वदेशी का अर्थ है विश्व के साथ एकात्म हो जाना। ऐसा होने पर हम स्वार्थ भावना से ऊपर उठ जाएंगे।

स्वदेशी का चिंतन करने से ही गांधी जी को खादी का विचार सूझा था। यह विचार व्यावहारिक भी था। खादी या चर्खे में देश के करोड़ों लोगों को जो अधभूखे थे, जीवनदान देने का सामर्थ्य था। स्वदेशी का संबंध केवल कपड़े तक सीमित नहीं। स्वदेशी या खादी का प्रचारक इसके माध्यम से अपने पड़ोसी की भी सहायता कर सकता है। वह अपने आस-पास के वातावरण का अध्ययन कर के पड़ोस में तैयार खादी या अन्य वस्तु का प्रचार कर पड़ोसी को लाभ पहुँचा सकता है।

यद्यपि आरंभ में ‘विनम्रता’ को एकादश व्रतों में सम्मिलित नहीं किया गया था पर इसका महत्व कम नहीं है। वह व्यक्ति जिसके लिए अहिंसा उसका स्वाभाविक गुण बन गया था उसके आम व्यवहार में विनम्रता का होना अस्वाभाविक नहीं था। ऐसे व्यक्ति ने सेवा के काम में स्वयं को उत्सर्ग कर दिया था।

सत्याग्रह आश्रम ने अपने समक्ष कुछ लक्ष्य रखे थे। एकादश व्रत उन्हे प्राप्त करने का माध्यम था। गांधी जी को यह विश्वास था कि भविष्य में एक न एक दिन वे लक्ष्य प्राप्त हो जाएंगे। इन्हीं व्रतों की कसौटी पर स्वयं को कसकर स्वयं को खरा बनाते थे इसके अनुसरणकर्ता।

आप भी अपने लिए गुणों की सूची बना सकते हैं। जिन-जिन गुणों को आवश्यक समझें, उन्हें धीरे-धीरे अमल में लाइये तथा अवगुणों को एक-एक कर कम करते जाइए। बस, आप देखेंगे कि आपके अंदर आशातीत परिवर्तन आ गया है, निरंतर अभ्यास से आप सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ कर लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होंगे।

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जीवन में सफलता प्राप्त करना चाहते हैं तो गांधीजी के एकादश व्रत अपनाइए । - डॉ० कुसुमाकर शास्त्री
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