व्यंग्य // गल्पाहार का अर्थशास्त्र // कमलानाथ

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किसी भी समारोह का सबसे अहम भाग हमेशा अंतिम होता है। कहने का मतलब है, अंतिम भाग हमेशा अहम होता है, क्योंकि समारोह के अंत में जो होता है वह अल...

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किसी भी समारोह का सबसे अहम भाग हमेशा अंतिम होता है। कहने का मतलब है, अंतिम भाग हमेशा अहम होता है, क्योंकि समारोह के अंत में जो होता है वह अल्पाहार, हाई टी, रिफ्रैशमेंट, जलपान आदि के स्वादिष्ट नाम से अलंकृत होता है। यह पिछले दो-तीन घंटों में पहुंचाई गई पीड़ा को केवल भुलाने में क्या, अक्सर जड़ से ही मिटा देने में मददगार साबित होता है। मंदबुद्धि को भी समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि यह कार्यक्रम सबसे अंत में ही क्यों रखा जाता है। संक्षेप में, हॉल में लोगों की मौजूदगी और उनकी ‘रुचि’ बनाये रखने का यही एकमात्र गुर है।

जितनी बड़ी समारोह आयोजित करने वाली संस्था, उतना ही बड़ा समारोह का अंतिम कार्यक्रम, अर्थात् वह बहुप्रतीक्षित आयोजन और उतनी ही अधिक संख्या खाने की सामग्री की। इस गतिविधि में उपभोक्ताओं की विशेष रुचियां कई बार भगदड़ की स्थिति पैदा कर देती हैं। लोग अधिक ‘मूल्यवान’ आइटम पर पहले हाथ साफ़ करने के लिए चुनाव करते वक़्त शुरू से ही इधर उधर दौड़ लगाते नज़र आते हैं कि पहले कहाँ जाया जाय? स्थिति म्यूज़िकल चेयर की तरह हो जाती है जब एक आइटम को बिना देर किये गिटक कर दूसरे पर कब्ज़ा जमाने के लिए दौड़ना पड़ता है। लेकिन सब चीज़ें एक जगह रखी होने पर भी महाभारत का सा दृश्य पैदा हो जाता है। तलवारों की जगह प्लेटों के वार करते हुए या इससे ढाल की तरह दूसरे के प्रहार से बचते हुए यहाँ कोई भी व्यक्ति एक एक करके वह आइटम नहीं लेता, बल्कि कई हाथ एक साथ लपकते हैं। अगर पहली बार में ही पूरी प्लेट भर ली जाय, तब भी धक्कमपेल में हनुमानजी की तरह संजीवनी बूटी वाले द्रोणगिरि पर्वत जैसी प्लेट को हाथ में सम्हालना शायद उनके बाद किसी मदारी के बस की बात ही होती है।


अल्पाहार स्थल ऐसा स्थान होता है जहाँ आकर आदमी को न सर्दी की फ़िक्र होती है और न गर्मी से टपकते हुए पसीने की चिंता सताती है। ऋग्वेद वाक्य “उप नः पितवा चर शिवः ...” कि “हे पालनकर्ता अन्नदेव! आप कल्याणकारी, सुखप्रद, विद्वेश रहित, मित्र के सामान हितैषी, भलीभांति सेवनीय हैं। आप मंगलकारी संरक्षणयुक्त पोषक तत्वों से युक्त होकर हमारे समीप आयें...” का यहाँ उपस्थित सभी लोग बड़ी श्रद्धा के साथ अनुसरण करते हैं। यह ही स्थान है जहाँ न राजनैतिक झगड़ा रहता है, न लोगों में धर्मों का भेदभाव, और न ऊंच नीच का फ़र्क। सब केवल एक ही नज़र से, एक ही चीज़ को, एक ही सोच और उद्देश्य से देख रहे होते हैं – अल्पाहार।

अगर आप किसी न किसी रूप में ऊपर मंच (डायस) पर बैठा दिए गए हैं, तब तो सेवा के बदले मेवा दिलवाने के लिए ईश्वर ही आपका मालिक है जो किसी कार्यकर्ता या आयोजक की सहानुभूति के जरिये ही कार्यक्रम के अंत में आप तक अल्पाहार की एक प्लेट के रूप में पहुंचा सकता है, वर्ना जो सम्मान आपको मंच पर बैठा कर दे दिया गया था, सिर्फ़ उससे ही सब्र कीजिये। अल्पाहार की मेज़ों के इर्दगिर्द जो मारामारी हो रही होगी उसमें भीड़ को चीर कर सबको धकेलते हुए अल्पाहार छीन पाना आपके सम्मान के लिए भी ठीक नहीं है और आपके बस की बात भी नहीं है। बहरहाल अगर आप घटनास्थल तक पहुँच भी सकें तो यहाँ आकर आपको आश्चर्य के साथ नया ज्ञान मिलेगा कि केवल कानून के ही हाथ लंबे नहीं होते, यहाँ आपसे पीछे चौथे नंबर वाला आदमी भी बेसब्री के वशीभूत वहीँ से लंबा हाथ करके आप से पहले गुलाब जामुन, समोसा अपनी प्लेट में समेट रहा होगा।

कुछ संस्थाओं के ऐसे कार्यक्रमों में जो दिन भर चलते हैं, जैसे पेपर बांचने, लेक्चर, ट्रेनिंग आदि के प्रोग्राम, तो उनमें अमूमन बीच में भोजन भी रखा जाता है, जिसे लंच कहते हैं। सत्र के अंत होने से पहले तक, यानी दोपहर एक बजे तक तो लंच के स्थल पर पूरी तरह व्यवस्था नज़र आती है। सत्र के खत्म होने पर जैसे ही लंच की घोषणा हुई कि अचानक माहौल ऐसा हो जाता है जैसा स्कूलों में खेलघंटी के बजते ही होता है या सीमा पर युद्ध की घोषणा करते ही होता है - आक्रमण। प्रतिनिधि, जवान, बूढ़े और अशक्त प्रतिभागी, यहाँ तक कि आयोजकों के स्वयंसेवक भी उस दिशा की ओर पूरी शक्ति से दौड़ते दिखाई देते हैं।

लंच की टेबल तक दौड़ की प्रतिस्पर्धा में प्रथम तीन भाग्यशालियों की पहाड़ सी भरी प्लेट देख कर बाकी सभी पीछे वालों को लगातार यह भय सताता रहता है कि कहीं ये आगे वाले पूरी खाद्य सामग्री पर ही हाथ साफ़ न कर गुज़रें। इस आशंका के मद्देनज़र मुक़ाबले में कतार के पीछे वाले प्लेटें उठा कर भोजन के अंत में खाई जाने वाली गुलाबजामुन, चमचम, रसमलाई या आइसक्रीम की तरफ़ धावा बोल देते हैं जो दनादन रोटी, सब्ज़ी, दाल, चावल निगल रहे आगे वाले लोगों के लिए शीघ्र ही चिंता का सबब बन जाती है। तात्पर्य ये कि आगे वाले या पीछे वाले, फ़िक्रमंद सभी रहते हैं। मुश्किल से चौथाई लोग ही निबटे होते हैं कि दुबारा प्लेटें भरने के सिलसिले में अभी भी लाइन में लगे बेचारे ‘भूखे’ लोगों को धकेलते हुए टेबलों के पास फिर से मारामारी शुरू हो जाती है। पता नहीं कल हो, न हो! लंच की झपटमारी के बाद शीघ्रातिशीघ्र दूसरी ‘सर्विंग’ हासिल कर लेने की जुगत के लिए हर डेलीगेट की एक आँख अपनी प्लेट और दूसरी आँख मेज़ पर बची हुई सामग्री का अंदाज़ा लेने पर रहती है। केटरर के बेचारे फ़ौजी सिपाही इन नए योद्धाओं के सामने सर्व करने के अपने कड़छीनुमा अस्त्र सरेंडर करके रसद सप्लाई करने में जुट जाते हैं।

ऐसे कार्यक्रमों में जिनके अंत में अल्पाहार होता है, श्रोताओं की मानसिकता अलग अलग तरह की होती है। उनमें से ज़्यादातर तो मुख्य प्रोग्राम की शुरुआत से लेकर अंत तक का (यानी अल्पाहार के शुरू होने तक का) समय बड़ी मुश्किल से निकाल पाते हैं – कभी ऊँघते हुए, कभी कभी तो पूरी तरह खुर्राटे लेते हुए, कभी पास बैठे साथी से बात करते हुए, कभी नींद भगाने के लिए आँख मिचमिचाते हुए, कभी यह सोचते हुए कि जब ओखली में सर डाला है तो फिर किसी तरह भाषण भी सुन ही लो, और कभी इस ‘महावाक्य’ से तसल्ली करते हुए कि ‘दिस टू शैल पास’ - यह समय भी किसी तरह निकल ही जाएगा और उसके बाद आने वाला ‘गल्पाहार’ का समय तो आनंद ही आनंद का होगा। डायबिटीज़ वाले भी अपने मन को आश्वस्त करते हुए कि कभी कभी तो मिठाई खाई जा ही सकती है, उस दिन के लिए निस्संकोच हो कर संयम को घर पर ही ताक पर रख कर आते हैं। कॉलेस्ट्रोल से लबालब जिन ‘तंदुरुस्त’ महानुभावों को डॉक्टर ने ‘जंक फ़ूड’ की सख्त मनाई की हुई है, वे भी इतनी देर तक भाषण सुनने के बदले कचोरी समोसों पर जम कर दुश्मनी निकाल कर ही हिसाब बराबर करते हैं। जो पेशेवर श्रोता होते हैं, वे वास्तव में श्रोता से अधिक दर्शक होते हैं। आम श्रोता तो वक्ता के शब्दों को एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देते हैं, पर ये ‘श्रोता’ मंच से आरही ध्वनि के आवागमन तक के लिए कानों का उपयोग नहीं करते। देखते वे भले ही मंच और वक्ता की ओर हैं, पर उनके कान बखूबी केवल पीछे प्लेटों की मधुर ध्वनि ही सुनते हैं और उनकी नाक शीघ्र ही मुट्ठी में आने वाले खुशनुमा समय के इंतज़ार में बाहर समोसों से आरही खुशबू से आनंदित होती रहती है।

ऐसी सभाओं और कार्यक्रमों में जिनके अंत में निमंत्रण पत्र के द्वारा बाक़ायदा अल्पाहार की घोषणा हुई हो, अपने बैठने का स्थान चुनने में काफ़ी सावधानी और समझदारी बरतनी होती है। समझदार, अनुभवी या पेशेवर श्रोतागण सभास्थल में पहली, दूसरी या आगे की पंक्तियों में बैठने का लालच कभी नहीं किया करते। वे हमेशा सबसे पिछली वाली लाइन में, और अगर खाली हो तो सबसे कोने वाली सीट पर, स्थापित होंगे। इसका कारण साफ़ है। यही वह सीट है जो उनको कार्यक्रम के अंत में सबसे कम समय में अल्पाहार की मेज़ तक पहुंचायेगी और खाने की प्लेट में जितनी भी जगह हो, पहाड़ का आकार प्रदान करवाने में सहायता करेगी। कई बार कुछ संभ्रांत से लगने वाले व्यक्ति भी आगे बैठने की बजाय बड़ी शालीनता और नम्रता दिखाते हुए आगे की लाइन में जगह होते हुए भी पीछे ही बैठते हैं। अगर वे समारोह के अंत तक बैठे रहते हैं तो समझ जाइए असली माज़रा क्या था।

यह मज़ाक का विषय नहीं है, बल्कि अर्थशास्त्र के व्यावहारिक पक्षों को सीखने का गुर है। लेन-देन की समीकरण आप ऐसे कार्यक्रमों में जा कर ही समझ पाते हैं। श्रोता के रूप में आप अपने कान और अपना ध्यान वक्ता को देते हैं और उसकी एवज में आप अल्पाहार के रूप में उसकी क़ीमत वसूलते हैं। आदान-प्रदान के इसी अर्थशास्त्रीय आधार पर कई मुहावरे और नारे बने हैं, जैसे – “इस हाथ (अपनी उपस्थिति) दे, उस हाथ (अल्पाहार) ले”, “जैसी (कार्यक्रम आयोजित करने की) करनी, वैसी (अल्पाहार खिलाने की) भरनी”, “तुम मुझे (सुनने की यंत्रणा के रूप में कान और ध्यान रूपी) खून दो, मैं तुम्हें (भरपेट अल्पाहार उड़ाने की) आज़ादी दूंगा” आदि।

आशा है, भविष्य में उक्त सिद्धान्त के अनुसार पाठक कार्यक्रमों में शामिल होने की यंत्रणा का हिसाब बाद में उसी अनुपात में अल्पाहार उर्फ़ गल्पाहार से वसूल करके बराबर कर सकेंगे।

***

कमलानाथ

संपर्क: 401 B-विंग, रिवियेरा टॉवर, लोखंडवाला, कांदिवली (पूर्व), मुंबई-400 101 (महाराष्ट्र)

E-Mail: er.kamlanath@gmail.com

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रचनाकार: व्यंग्य // गल्पाहार का अर्थशास्त्र // कमलानाथ
व्यंग्य // गल्पाहार का अर्थशास्त्र // कमलानाथ
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