व्यंग्यशाला और 'अट्टहास’ मासिक पत्रिका के तीन व्यंग्यालोचना विशेषांकों का लोकार्पण-लेखक फारूक आफरीदी

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गुरुग्राम: यहाँ तीन सितम्बर को 'शब्द शक्ति साहित्यिक संस्था’, गुरुग्राम के तत्त्वावधान में व्यंग्यशाला और 'अट्टहास' मासिक पत्रिक...

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गुरुग्राम: यहाँ तीन सितम्बर को 'शब्द शक्ति साहित्यिक संस्था’, गुरुग्राम के तत्त्वावधान में व्यंग्यशाला और 'अट्टहास' मासिक पत्रिका के तीन व्यंग्यालोचना विशेषांकों के लोकार्पण का आयोजन महत्त्वपूर्ण रहा। समारोह के मुख्य अतिथि प्रतिष्ठित व्यंग्यकार डॉ. हरीश नवल रहे। वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कान्त, व्यंग्य आलोचक और इतिहासकार डॉ. सुभाष चन्दर, व्यंग्य आलोचक डॉ. रमेश तिवारी, अनूप श्रीवास्तव और वरिष्ठ कथाकार-संपादक बलराम, वरिष्ठ व्यंग्यकार फारूक आफरीदी, रामकिशोर उपाध्यक्ष ने मंच साझा किया।

कार्यक्रम के प्रारंभ में स्थानीय कवियों और गद्य रचनाकारों अनिल श्रीवास्तव, सुश्री सुरेखा एवं अन्य ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की जिन पर मंचस्थ सभी अतिथियों ने व्यंग्य के सन्दर्भ में आलोचनात्मक दृष्टि से चर्चा की। इस अवसर पर अट्टहास के संरक्षक कप्तान सिंह भी मौजूद थे। प्रारंभ में कार्यक्रम के संयोजक युवा व्यंग्यकार-आलोचक एमएम चन्द्रा ने कहा कि युवा व्यंग्यकार आज व्यंग्य की जमीन पर काफी महत्वपूर्ण प्रयास कर रहे हैं। पिछले दिनों ऐसे एक सौ सैतालीस युवा व्यंग्यकारों को चिन्हित किया गया और उनमें से 76 की रचनाओं को सम्मिलित कर एक संकलन "व्यंग्य का नव स्वर " निकाला गया।ऐसे युवाओ को तराश कर और मार्ग दर्शन देकर भविष्य में उनसे बेहतर व्यंग्य की संभावनाएं तलाशी जा सकती हैं। व्यंग्य के प्रतिभा संपन्न रचनाकारों से उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।

एम एम चन्द्रा ने व्यंग्य लेखन के आज के परिदृश्य की चर्चा करते हुए कहा कि सृजनशीलता हमेशा सामाजिक होती है कोई भी जन्मजात लेखक पैदा नहीं होता। समकालीन व्यंग्य लेखन को तीन श्रेणियों में रक्खा जा सकता है । पहला: वर्तमान व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रहार करना और नई व्यवस्था के निर्माण करने में अपनी भूमिका निभाना। दूसरा: वर्तमान व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रहार करना और इसी व्यवस्था में सुधार की उम्मीद और इसी व्यवस्था में यकीन करना और बनाये रखना। तीसरी धारा भी है जो किसी के भी पक्षधर लेखन की पक्षपाती नहीं है लेकिन मूलतः इस धारा की जड़चेतन में मूल विचार वर्तमान व्यवस्था को ही स्थापित करना है। अर्थात सत्ता के खिलाफ बोलते रहना किन्तु उसके पुरस्कार लेते रहना है। 

मुख्य अतिथि प्रतिष्ठित व्यंग्यकार डॉ. हरीश नवल ने इस अवसर पर कहा कि व्यंग्य में बारीकी को समझने की सतत चेष्टा की आवश्यकता है। आलोचक की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। हम पूर्वाग्रहों से नहीं आग्रहों के साथ बात करें। उन्होंने कहा कबीर के पास भाषा और शैली नहीं थी लेकिन भाव था। इसलिए भाव का अभाव न हो। व्यंग्यकार की दृष्टि बहुत सूक्ष्म होनी चाहिए।वह सतही न हो बल्कि बात की तह तक जाए। उसमें सूक्ष्म पर्यवेक्षक दृष्टि और धैर्य हो। व्यंग्य में जिसके पास चिंतन नहीं होगा उसका आगे चलकर कोई नामलेवा नहीं होगा। लेखन में हमने कितना लिखा इसका कोई महत्व नहीं बल्कि यह देखा जायेगा कि आपने कितना अच्छा लिखा। अपने लेखन को एक विषय तक भी सीमित नहीं रखना चाहिए।अगर आप फ्यूजन नहीं करेंगे तो हमेशा कन्फ्यूजन रहेगा। आपको चीजों को समझना होगा। आज सूचनाओं को ज्ञान समझ लिया गया है। माँ और बेटी का अपमान हो रहा है और हमारे नियंता चुप बैठे हैं।व्यंग्य क्लासिक है,इसे हर कोई नहीं समझ सकता। आलोचना के बाद व्यंग्य ही ऐसी विधा है जिसमें सबसे ज्यादा बौद्धिक पराकाष्ठा की जरुरत होती है। व्यंग्य का सम्बन्ध विडम्बना और विद्रूपता से है। इसमें हंसाने नहीं बल्कि रुलाने की क्षमता होनी चाहिए।वह अंत में मीठा सुकून दे।  

डॉ. नवल ने कहा कि साहित्य का काम मनुष्य को ऊँचा उठाना है गिराना नहीं। व्यंग्य चित्र में जीनियस होता है बस इस जीनियस को पहचान लो। व्यंग्य लिखने से पहले अपनी प्रतिभा को पहचानने की जरुरत है। एक लेखक को प्रज्ञाशील होना चाहिए। अच्छा साहित्यकार अच्छा मनुष्य बनाता है।व्यंग्य में व्युत्पति का महत्व है, उसमें सांकेतिकता हो। अगर अपने सब कुछ प्रत्यक्ष कह दिया तो वह व्यंग्य नहीं है। उसकी महत्ता व्यंजना में है। अगर आप किसी व्यंग्य रचना को रोचक और ग्राह्य नहीं बना सकते तो आप वह लिखिए जिस विधा में आप बेहतर लिख सकते हैं। व्यंग्य लिखने से पहले आप पुराने लेखकों और अपने साथियों को पढ़िए। डॉ. नवल ने अपने लेखन की चर्चा करते हुए कहा कि उन्होंने पिछले पैतालीस सालों में अपने शिष्यों, से परिवार से सिखा और जाना जो आज भी अक्षुण्ण है। अपने भीतर आचरण की सभ्यता होनी चाहिए, चरित्र होना चाहिए। व्यंग्यकार के भीतर उदारता, विनम्रता हो, उसमें विद्वेष ना हो और किसी को रंदा ना लगाए। रंदा लगाना छोड़ दो। हम नियामक नहीं हैं।हम नियमों का पालन करें। मुश्किल यह है कि हम होना चाहते हैं किन्तु दिखना नहीं चाहते। हम मन से सुन्दर बनें। इसके लिए सत्यम, शिवम् और सुन्दरम की कसौटी पर उतरना पड़ता है।हम समाज को लाभान्वित करने के लिए लिखें किसी को पीड़ित प्रताड़ित करने के लिए नहीं। हम अभाषित नहीं सुभाषित हों। व्यंग्यकार को गंदे नाले के पास खड़ा होना पड़ता है वह रूमानी कवि की तरह नहीं हो सकता । व्यंग्यकार विद्रूपताओं को ढूंढ़ता है और अपनी शैली और भाषा  के जरिए वह उसे व्यक्त करता है। उसमें अहम् का नहीं 'हम’  का भाव हो। धर्म एक ही होता है जो मानवता पर आधारित है। 

कला सिखलाई नहीं जा सकती किन्तु सीखी जा सकती है:

प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कान्त ने कहा कि व्यंग्य साहित्य है इसलिए कला है और कला सिखलाई नहीं जाती। हमारे यहाँ गुरु-शिष्य परंपरा भी रही है। इसके बावजूद मैं कहना चाहूँगा कि कला सिखलाई नहीं जा सकती किन्तु सीखी जा सकती है। उन्होंने प्रश्न किया कि व्यंग्य की आवश्यकता क्यों है? उन्होंने कहा कि मनुष्य मूल रूप में देवता होता है किन्तु संसार में असुर भी हैं। असुर प्रवृतियाँ व्यंग्य लिखने को विवश करती हैं। इंसान के फीलिंग्स तो है किन्तु जिसके पास संवेदना है, भाषा है, कलम है, व्यंजना को साधने का गुण है वह व्यंग्य लिख सकता है। ।हमने जो कुछ पाया वह गुरुजनों से पाया तो कुछ जीवन अनुभवों से पाया। व्यंग्य एक विधा है। जब हम किसी घटना या विषय से विचलित होते हैं, हमारे भीतर एक प्रकार का आक्रोश पैदा होता है तो हम लिखते हैं। इस आक्रोश से लेख, कविता और कहानी आदि जन्म लेते हैं। भारतीय वांग्मय में साहित्य और साहित्येत्तर दो प्रकार की गतिविधियाँ होती हैं। व्यंग्य के कई टूल्स होते हैं। इनें अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, उपहास, हास्य का प्रयोग किया जाता है। इनमें मिथक का प्रयोग बहुधा आसान है। वह पाठक को बाँध लेता है। उन्होंने श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास 'राग दरबारी’ को उद्धृत करते हुए एक प्रसंग बताया कि हम मेले में जाते हैं और देखते हैं कि वे कैसे गन्दगी को भी पकवान में बदल देते हैं। इसलिए मैं हमेशा कहता हूँ अपने वरिष्ठों को पढ़ें, उनसे सीखेंगे। जलते हुए दीपक की लौ को देखें, धैर्य रखें। आज की पीढ़ी में धैर्य नहीं है, उन्हें जल्दी है। आज व्यंग्यकार बनना आसान लगता है। व्यंग्यकार की लोकप्रियता व्यंग्य लेखन के लिए आकर्षित करती है। व्यंगकार आम आदमी की पीड़ा को वाणी दे रहा है और तुरंत देता है। लक्ष्य को साधता है। आज व्यंग्यकार को आदमी सबसे ज्यादा पसंद करता है। मेरा कहना है कि व्यंग्यकार की जैसी लेखनी है उसका आचरण भी वैसा होना चाहिए। व्यंग्यकार आज नायक समझा जा रहा है तो उसे अपने आचरण से साबित भी करें। अखबार में लिखना अपने को सक्रिय बनाए रखना भर है और वह किसी बड़े काम के लिए अपने को सक्रिय रखता है। व्यंग्यकार अगर ऐसा आचरण करेगा तो एक दिन बुझा हुआ दीपक कब जल उठेगा आपको पता ही नहीं चलेगा।

संवेदना की धार भेदने के लिए जिस कील की जरूरत है उसे व्यंग्य कहते हैं:

वरिष्ठ व्यंग्यकार और इतिहासकार डॉ. सुभाष चंदर ने कहा कि आज समाज में शोषण, तनाव, कुंठा, बेहूदगी और असामाजिकता की दीवार बन गई है। उसमें छेद करने की कोशिश की जा रही है। यह दीवार इतनी मोटी हो गई है कि संवेदना की धार को दूर से लौटा देती है। इसको भेदने के लिए जिस कील की जरूरत है उसे व्यंग्य कहते हैं।

व्यंग्यकार अपनी रचनाओं के जरिए विसंगतियों के खिलाफ माहौल बनाने का काम करते हैं और गहरे तक जाते हैं। व्यंग्य लिखने के पीछे एक विशेष सोच होती है। यह वह सोच ही होती है जो किसी को हरिशंकर परसाई बना देती है। जिस किसी के पास भाषा, शिल्प और चीजों को पकड़ने  की क्षमता होती है वह व्यंग्य लिख सकता है। युवा व्यंग्यकारों को मेरा यही कहना है कि वे हमारे वरिष्ठ व्यंग्य लेखकों को पढ़े, उन्हें समझें और चीजों को पकड़ने का हुनर सीखें। कह भी गया है-सौ पढ़िए, दस गुनिए और एक लिखिए। व्यंग्यकार के पास ऐसा शिल्प होना चाहिए जो उसकी बात को संप्रेषित कर सके।व्यंग्य लिखना कोई सिखा नहीं सकता। व्यंग्यकार को समझ में जो घट रहा है उस पर पैनी नजर रखने की आवश्यकता है। डॉ. सुभाष चंदर ने कहा कि व्यंग्य के नवलेखन में आज सपाटबयानी चरम पर है। व्यंग्य किसी घटना का आख्यान नहीं है और ना ही किसी विसंगति पर प्रतिक्रिया भर है। रचना में व्यंग्य लाना है तो शैलीय उपकरणों को समृद्ध करना होगा। रचना ऐसी हो जिसमें देश, काल, परिवेश हों और उसे रिक्शेवाले से लेकर प्रबुद्ध प्रोफेसर तक सभी समझ जाएँ।

फटी बिवाई को अभिव्यक्त करना व्यंग्य है:

व्यंग्यकार और आलोचक डॉ. रमेश तिवारी ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि लिखता वही है जिसमें लिखने की आग होती है और यह आग बेचैन करती है। समाज कैसा है, इसका आईना लहक लेखक ही दिखाता है। लेखक यह नहीं कहता कि जो व्यक्त कर रहा है उस मार्ग पर चलो। हर इन्सान में कुछ मानवीय रुचियाँ होती हैं। रचनाकार में मूलत: संवेदना और सहृदयता होती है, जो उससे कुछ लिखवाती है। सवाल यह उठता है कि कोई इन्सान आखिर क्यों लिखे? इसके पीछे एक प्रकार की बेचैनी होती है। जैसे एक स्त्री प्रसव पीड़ा से गुजरती है और उसके बाद प्रसन्नता का अनुभव करती है बिलकुल वैसा ही लेखन से गुजरने जैसा है। 'जा की पीर फटी ना बिवाई’ में बिवाई को अभिव्यक्त करना व्यंग्य है।व्यंग्य में आप चिकोटी काटें, कटाक्ष करें, बेचैन करें किन्तु वह बोझिल नहीं होना चाहिए। अनिल श्रीवास्तव ने विभिन्न मुहावरों का प्रयोग करते हुए अपनी रचना में मानवीय दुर्बलताओं का आईना दिखाया है। इसी तरह एक कवि ने अन्य पद्य रचना में 'मैं बेईमान हूँ’  कहते हुए समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार की प्रवृति पर व्यंग्य किया है। व्यंग्य लिखते हुए ये सवाल भी कौंधते हैं कि लिखते क्यों हैं, लिखना क्या है और किसके लिए लिखना है? व्यंग्य में सवाल कैसे बूझे जाते हैं, उसका ट्रीटमेंट कैसे करते हैं, रचना के तेवर कैसे हैं आदि का विशेष महत्व होता है।रचना में योजना से तेवर तैयार होगा। प्रवृति को देखना होगा और देखना होगा को वह विसंगति को कैसे पकड़ता है। व्यंग्य अमिधा में नहीं हो सकता इसलिए जाहिर है व्यंजना का ही सहारा लेना होगा। व्यंग्य में यथास्थिति को बार-बार चुनौती देनी होगी।

'अट्टहास' के सलाहकार संपादक अनूप श्रीवास्तव ने सभी अतिथियों का अभिनंदन करते हुए बताया कि 'अट्टहास’ ने हास्य-व्यंग्य के प्रति गंभीर चिंतन को महत्व दिया है और व्यंग्य आलोचना पर तीन विशेषांक निकाले हैं। व्यंग्य पाठशाला संगोष्ठी भी एक प्रकल्प जैसा कार्य है और सभी क्षेत्रों में इसके आयोजन निरंतर होते रहे हैं। पत्रिका के एक आगामी विशेषांक डॉ सुभाष चंदर के अतिथि संपादन में प्रकाशित किया जायेगा। गोष्ठी का सयोजन युवा व्यंग्यकार नरेंद्र कुमार गौर ने किया . उन्होंने अपने बोलने के समय को स्थानीय और मंच को समर्पित करके एक नया उदाहरण पेश किया.  सीसीए स्कूल, गुरुग्राम की प्राचार्य निर्मल यादव ने सभी का आभार व्यक्त किया।

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रचनाकार: व्यंग्यशाला और 'अट्टहास’ मासिक पत्रिका के तीन व्यंग्यालोचना विशेषांकों का लोकार्पण-लेखक फारूक आफरीदी
व्यंग्यशाला और 'अट्टहास’ मासिक पत्रिका के तीन व्यंग्यालोचना विशेषांकों का लोकार्पण-लेखक फारूक आफरीदी
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