अनूदित कहानी (गुजराती) // बेचारी चम्पूड़ी // मूल कहानी लेखिका : वर्षा अडालजा // अनुवाद : डॉ. रोशन जी शहानी

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  जयहिंद कॉलेज के अंग्रेजी विभाग से अवकाश प्राप्त। केनेडियन विमेन्स फिक्शन' पर (कनाडा) से पीएच. डी. के लिए शोध अध्येता की वृत्ति प्राप्त...

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जयहिंद कॉलेज के अंग्रेजी विभाग से अवकाश प्राप्त। केनेडियन विमेन्स फिक्शन' पर (कनाडा) से पीएच. डी. के लिए शोध अध्येता की वृत्ति प्राप्त। शोध की उपाधि एस.एन. डी. टी. से। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित। संप्रति: हिन्दी भाषा व साहित्य का अध्ययन। देश-विदेश में भ्रमण की रुचि।

दरसनिया ने जोर से तबले पर थाप मारी। उसके हाथो पर बँधे हुए घुँघरू और गले की बुलंद आवाज ने मकान की, अठहत्तर माले की ऊँचाई तक पहुँचने की कोशिश की भाई ने नई फिल्म का प्रसिद्ध गाना शुरू किया और चम्पूड़ी खुश होकर, अपना शरीर ज्यों- त्यों मोड़कर नाचने लगी। अब तक कोई खास लोग जमा न होने के कारण, उसने अपनी नजर कंपाउंड के कोने में बैठी हुई माँ पर दौड़ाई। दो गलियों में नाचने के बाद आज इतनी शानदार बिल्डिंग के कंपाउंड में वे लोग पहली बार आए थे। नाचते-नाचते चम्पूड़ी ने एक बार फिर से मकान की ओर नजर उठाई। आज वह खुश थी। ऐसे बड़े-बड़े मकानों पर जाने के लिए चम्पूड़ी ने माँ और भाई से बहुत बार विनती की थी और आज तो रो-रोकर, जिद करके वालकेश्वर आ पहुँची थी। जब से यह मकान बन रहा था, तब से वह चाहती थी कि वह यहाँ पर आकर नाचे। इसीलिए, आज सुबह- सुबह घर से निकलते ही वह दरसनिया का दिमाग चाटने लगी।

' ए ' भईला' आज तो वालकेस्वर' जाना ही पडेगा। '

रोज की तरह आज भी दरसनिया चिढ़ गया। ' 'तुझे कितनी बार मना किया है। इन बड़े लोगों के दिल तो एकदम छोटे होते हैं। तू अभी छोटी है समझेगी नहीं। ' ' पीछे-पीछे, चलती हुई जीवली क्रोधित होकर बोली ' ' तुझे तो हर रोज नए-नए सपने सूझते हैं। घर  के हंडे खाली पड़े हैं, तुम लोगों को क्या खिलाऊंगी? रात से तेरे बाप को दमा चढ़ रहा है और कानिया को बुखार चढ़रहा है। दोनों के लिए हमें पैसे फूँकने पड़ेंगे। हमे पड़ोस में ही जाना है, वही ठीक होगा। ' '

चम्पूड़ी की गुस्से- भरी आँखे माँ की गोद में बैठे हुए भाई को घूरती रही। जब भी सुनो तब बाप का दमा और भाई का बुखार। छोटा भाई था तो उसको प्यारा पर जब-तब वह बीमार पड जाता था। और गए सब पैसे दवाई के लाल पानी मे। एक जमाना था जब माँ उसे आइसक्रीम खिलाती थी, कभी-कभी पिपरमिंट खाने को मिलती थी। पर जबसे यह कानिया घर में आया है, तबसे... ' 'चलो-चलो पैर उठाओ' '। सिर हिलाते निराशा भरी साँस लेते हुए, भागकर चम्पूड़ी दरसनिया के पास जा पहुँची। रेलवेलाइन की झोपडियों के पास जब वह पहुँची तब उसका मन कड़वाहट से भर उठा, मानो वह पहली बार यहाँ पर आ पहुँची हो। गंदे पानी की धाराएँ यहाँ-वहाँ बह रही थीं। सड़े हुए कचरे की बदबू से उसका जी घबराने लगा। उसने तुरंत अपने फटे हुए घाघरे की किनारी नाक में घुसाई।

काले, गंदे बच्चे व बाल खुजलाती हुई औरतें, सूखी हुई छाती पर अपने बच्चों को रखते हुए उनकी ओर आ पहुँची। बीडी के हूँठ फूँकते हुए या मंजन करते हुए या कंघी करते हुए थोडे-बहुत पुरुष भी वहाँ पर जमने लगे।

दरसनिया का गाना शुरू होते ही, चम्पूड़ी ज्यों- त्यों शरीर को मोड़कर नाचने लगी। मुँह बिगाड़कर उसने आसपास नजर दौड़ाई। मगर जो भी हो ये भले लोग थे। उसका नाच देखकर खुश हो जाते थे। कई बार उसको खाना-पीना देते थे और थोडे-बहुत सिक्के भी मिल जाते थे।

लेकिन आज तो चम्पूड़ी बहुत ही जिद करती रही ' ' चले वालकेस्वर उस बडे मकान की ओर' '। अंत में, परेशान होकर जीवली ने उसकी बात मान ली।

करीब एक घंटे तक चलने के बाद जब वे वालकेश्वर पहुँचे तब बेचारी जीवली तो थककर बेहोश-सी हो गई थी। कानिया भी बुखार की बेहोशी में पड़ा था। इन सब को तेज प्यास लगी थी, पर यहाँ पर पानी मिलना कठिन-सा था। जीवली जाकर गैरेज की छाया में बैठ गई।

' झट-पट करो बच्चे यहाँ पर तो सब बड़े लोग रहते हैं। ''

नए पेट किए हुए मकान पर सूर्य की सुनहरी किरणें गिर रही थी, अत. वह अधिक शानदार लग रहा था। चम्पूड़ी थकान, प्यास, सब भूल गई। उछलते हुए वह बोली, ' भायला, देखते रहना पैसे गिरेंगे टपाटप इतने कि तेरी जेब में समा भी नहीं सकेंगे। '

कंपाउंड की चमकीली मोटरें और अनोखी बिल्डिंग की शान-शोभा देखकर अब दरसनिया भी रंग में आ गया। ' ' देख चम्पूड़ी, अगर काफी पैसे कमाएँगे तो मैं तुझे फाटा पिलाऊँगा। शुरू कर दे अब दम लगाके। ' ' चम्पूड़ी कंपाउंड के बीच खड़ी हो गई। दरसनिया की मधुर टीपदार 'ये. दोस्ती. .हम नहीं तोड़ेंगे. ' ऊँची बिल्डिंग की बद खिड़कियों पर जा टकरायी। हीरोईन की एक्टिंग ध्यान में रखकर चम्पूड़ी नाचने लगी।

एक के बाद एक टपाटप खिड़कियों पर चेहरे दिखाई पड़े। बहन- भाई खुश-खुश होकर एक दूसरे के चेहरे देखने लगे। चम्पूड़ी ने माँ की ओर नजर दौड़ाई। आज तो मिल जाएँगे, फाटा और कानिया की दवाई के पैसे। एक के बाद एक टपाटप ।

चम्पूड़ी ने एक बार फिर से खिड़कियों की ओर नजर दौड़ाई। सूर्य के प्रकाश में हीरे की तरह वे चमक रही थी। बालकनियो में उगाए हुए फूल-पत्ते कितने मनोहर लग रहे थे पर अब देखो तो सब चेहरे गायब हो गए थे।

अपनी थकी हुई गर्दन को चम्पूड़ी ने नीचे किया। कुछ थोड़े से आदमी कंपाऊंड में घेरा-सा बनाकर जमा हुए थे, पर अब तक कुछ पैसे की टनटनाहट नहीं सुनाई दी थी। चम्पूड़ी की आँखों में पानी तैरने लगा। एक के बाद एक दरसनिया गीत गाता रहा पर अब उसके तबले की थाप भी धीमी हो गई थी। अचानक चम्पूड़ी ने एक सीटी सुनी। उसका ध्यान उस आवाज की ओर खिंचा। सामने की गाड़ी में एक ड्राईवर दरवाजा खोलकर गाड़ी की सीट पर बैठा था। उसके हाथों में कुछ चमक रहा था चम्पूड़ी का मन उछल पड़ा। खुश होकर वहाँ दौड़कर पहुँची और हाथ लंबा बढ़ाया। ड्राईवर ने तुरंत हाथ खींच लिया। चम्पूड़ी निराश हो गई।

हँसकर ड़ाईवर ने हथेली खोल दी। चमकता हुआ एक रुपया चम्पूड़ी के सामने मानो हँस रहा था। 'ले लो' ड्रायवर बोला। हाथ बढ़ाते ही उसने चम्पूड़ी का हाथ पकड लिया। फिर चम्पूड़ी की हथेली में सिक्का रखकर हाथ दबाकर बंद कर लिया।

दौड़कर, माँ की गोद में पैसे फेंक कर, वह फिर से नाचने लगी। वाह! क्या नसीब था। एक पूरा रुपया तो आज उसने पहली बार देखा। उत्साहित होकर जोश से अपना शरीर वह घुमाती फिराती, नाचती रही। अब तो एक भीड़ उसके आसपास हो गई थी

एक बार और उसकी नजरें मकान की ऊँची दीवारों पर ऊपर-नीचे सरकी। एक भी मेमसाहेब नहीं खडी थी उसका नाच देखने के लिए। सुबह से वह सपना देख रही थी कि आज तो माला-माल हो जाएँगे। यहाँ के रहवासी तो सब बडे लोग थे शायद कोई ऊपर से पुरानी रेशमी साड़ी फेंकेंगे या कोई रंगीला छोटा पड़ गया हुआ काक. लेकिन अब तो उसके पैर थक गए थे और उसको एक सिक्के के सिवा कुछ भी तो नहीं मिला।

बिल्डिंग से एक जवान जोड़ा आ निकला और एक बडी-सी, नई-सी लाल मोटर में वे जा बैठे। नाचती- नाचती, चम्पूड़ी वहाँ जा पहुँची। कितनी सुंदर थी वह युवती। चम्पूड़ी को तो वह बहुत ही पसंद आई। नसीब में होगा तो एक नोट तो जरूर दे देगी। लड़की के गुलाबी होठों पर एक हल्की-सी मुस्कान थी। झुककर, चम्पूड़ी ने अपना हाथ बढाया।

'चल हट' लड़के ने चिढ़ कर गाड़ी शुरू की। 'वाचमैन भी इतना स्टुपिड' है। '

फौरन गाड़ी कंम्पाउड के बाहर निकल गई। फेटा की बोतल भी चम्पूड़ी की दुखभरी आँखो के सामने से गायब हो गई। दरसनिया के थापने की गति की तरह चम्पूड़ी के भी पैरो की गति धीमी हो गई। सूरज भी मानो अपने दाँत पीसकर धूप फूँकने लगा था। इतने में उसने एक बार फिर से सीटी सुनी। सुनते ही उसका दिल आनंद से भर उठा। ड़ाईवर मंडली में खडा था और उसकी हथेली में कुछ चमक रहा था।

चमकते हुए सिक्के पर उसकी नजर थम गई और पैर नाचते रहे। पर सिक्के की खनक न सुन पाई। फिर सिक्केवाला हाथ थोड़ा सा ऊँचा हुआ और चम्पूड़ी के सामने हिलने लगा। उत्सुक होकर वह हाथ की ओर भागी। लेकिन सिक्का मानो हाथ में चिपक गया हो, वह हाथ में से उखाड़ नहीं सकी।

चम्पूड़ी को महसूस हुआ कि भीड़ शायद बढ़ रही थी क्योंकि उसका शरीर अब कुचलने लगा। पर सिक्के की खातिर वह अधिक जोश से नाचने लगी। और भी दो-चार छोटे-बड़े सिक्के मिले, उसके जी में जी आ गया। भाग्य साथ दे रहा था सो वह और भी दम लगाकर नाचने लगी। वह कौन-सी फिल्म थी, जहाँ उसका भाई उसे ले गया था? उसमे वह लड़की वैसी ही नाचती थी। एक के बाद एक के पास जाकर मुस्कुराती थी, नाचती थी। अब चम्पूड़ी भी एक के बाद एक के पास जाकर मुस्कुराने लगी लगातार नाचती रही। उस ऐक्ट्रेस की तरह वह भी अपना शरीर लटक-मटक करके मोड़ती रही अखियाँ मिलाने लगी, इशारे करने लगी। दो-चार नोट गंदी, फटी हुई चोली में जा खुस गये अब चम्पूड़ी को क्या परवाह थी अगर ऊपर से सेठानी पुराना फ्राक फेंके या नहीं उसकी कोमल छाती नोटों से ढंक गई थी। वह दरसनिया के पास गई ' लो भाइला '। खिलखिला कर हँसकर भाई के पास मसले हुए नोट रख दिये।

'माँ को दे' दरसनिया ने आँखे तरेरकर, ऐसी कठोर आवाज में कहा कि वह घबरा गई। भाई खुश क्यों नहीं था। जीवली की गोद में पैसे फेंकते ही उसको वह सीटी सुनाई दी। माँ का परेशान चेहरा देखे बिना वह दौड़ी। सूर्य प्रकाश की वजह से सिक्के की चमक और भी चमकीली लगी। पैसे पाने के लिए वह भीड़ के चक्कर में जा गिरी। ऊँचाई पर होने के कारण, उसने ऊँची छलाँग मारी। भीड़ के कारण उसकी छाती पर दबाव पड़ने लगा और दम घुटने लगा। थोड़ी देर तक वह भीड़ के चक्कर में फँस गई और बाहर निकल न सकी।

ड्राईवर बगल में ही खड़ा था। ' काईकु गबराती है? ' ' कहकर उसने चम्पूड़ी को आलिंगन करते हुए उसे भीड़ से बाहर निकाला राहत की साँस लेकर चम्पूड़ी उसके सामने मुस्कुराई। बेचारा कितना भला आदमी है। फिर से जोश में आकर वह नाचने लगी।

गोल-गोल चक्कर घूमने लगी पायल छन-छन बजने लगी, बिलकुल उस फिल्म एक्ट्रेस की तरह। वैसे ही उनको भी सब लोग पैसे देते थे। थकान प्यास, भूख सब कुछ वह भूल गई। बस, सब के सामने मुस्कुराकर नाचती रही। भीड़ बढती रही और उसको कुचलती रही। हर वक्त ड्राईवर उसे बचा लेता।

अचानक दस पैसे लेने के लिए बढ़ाए हुए हाथ को किसी ने झटक के खींचा। वह चौंक गई, दरसनिया का क्रोधित चेहरा देखकर वह घबरा गई।

' ' चल अभी, बहुत पैसे मिले, नहीं नाचना है। घर चल। ' 'पर भाइला थोड़ी ही देर के लिए। कल सिनेमा जाएँगे और आइसक्रीम भी खाएँगे। ' '

' 'एक बार कह दिया, सुना नहीं? एक थप्पड़ खाना है? चम्पूड़ी की कलाई पकड़कर वहाँ से वह फौरन निकल पड़ा। कानिया को कमर पर बैठाकर, जीवली भी साथ-साथ चलने लगी।

' 'जीते रहो भाई-बहन, जीते रहो। अब तो हमगंदी झोपड़ियों से दूर ही रहेंगे! ऐसे ही मकान की तरफ जाएँगे। ' ' चम्पूड़ी ने भाई की ओर नजर दौड़ाई, जो अब भी उसकी कलाई पकड़कर, उसे खींच रहा था। हिचकिचाकर वह बोली " माँ, वह फिल्म का नाच था न, जब मैं वह नाची तो सब राजी हो गए। सबको पसंद आ गया।

'' दरसनिया तुम दोनों आज जरूर फिल्म देखने जाना। ' भाई सिर झुकाकर, कब से चुपचाप चल रहा था, अब वह बिफरकर चिल्लाने लगा '' खबरदार, यहाँ पर आने का नाम भी लिया तो। टाँग ही तोड़ दूँगा। ''

बेचारी चम्पूड़ी को कुछ भी समझ में नहीं आया। भाई का हाथ पकड़कर, उदास चेहरा लेकर, वह कंपाउंड से बाहर निकल पड़ी।

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पता: 21, सोविनियर, -ली पास्ता लेन कोलाबा, मुबई – 4००००5

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(हिन्दुस्तानी ज़बान - अप्रैल-जून 2017 से साभार)

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रचनाकार: अनूदित कहानी (गुजराती) // बेचारी चम्पूड़ी // मूल कहानी लेखिका : वर्षा अडालजा // अनुवाद : डॉ. रोशन जी शहानी
अनूदित कहानी (गुजराती) // बेचारी चम्पूड़ी // मूल कहानी लेखिका : वर्षा अडालजा // अनुवाद : डॉ. रोशन जी शहानी
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