" सामाजिक आन्दोलन के पर्याय:ज्योतिबाराव फूले " // वीरेन्द्र त्रिपाठी

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ज्योतिबा फूले के पुण्यतिथि 28नवम्बर पर विशेष भारतीय समाज में व्याप्त जात-पात एवं सामंती शोषण- उत्पीड़न के खिलाफ तथा नारी शिक्षा, विधवा विवाह...

ज्योतिबा फूले के पुण्यतिथि 28नवम्बर पर विशेष

भारतीय समाज में व्याप्त जात-पात एवं सामंती शोषण- उत्पीड़न के खिलाफ तथा नारी शिक्षा, विधवा विवाह व किसानों के हित के लिए आजीवन संघर्षरत रहे ज्योतिबाराव फूले का जीवन संघर्ष आज भी प्रासंगिक व प्रेरणादायक है।

उनका जन्म 13 अप्रैल 1827 को सतारा(पूणे), महाराष्ट्र में हुआ था। उनके पिता गोविन्दराव फूले व माता चमनाबाई थी। उनके गोविन्दराव की पदवी 'गोरे' थी। गोरे लोग जाति से क्षत्रिय माली हुआ करते थे। हिन्दू समाज के अनुसार ये तथाकथित नीची जाति के अर्थात दलित थे। इसीलिए उनकी पदवी भी फूले हो गई। ज्योतिबा जब केवल नौ माह के थे तभी उनकी माता का देहांत हो गया। ऐसी स्थिति में ज्योतिबा की परवरिश उनकी मौसेरी विधवा बहन सगुणाबाई ने किया। सगुणाबाई की कोई स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी लेकिन वह बहुत जागरूक व साहसी महिला थी। वह जॉन नाम के एक मिशनरी के यहां घर का काम करती थी। जॉन दकियानूसी विचारों से मुक्त खुले विचारों का था जिसका प्रभाव सगुणाबाई पर पड़ा था। वहां रह कर सगुणाबाई थोड़ी बहुत अंग्रेजी भी सीख गई थी। वह चाहती थी कि ज्योतिबा अंग्रेजी सीख कर ईसाई धर्म के अनुसार फादर बने।

6 वर्ष की अवस्था में ज्योतिबा को पढ़ाई के लिए उसके पिता ने विनायक राव जोशी नामक एक ब्राह्मण शिक्षक के पास भेजा। विनायक जी ज्योतिबा के पढ़ाई के प्रति लगन देखकर प्रभावित थे और वह चाहते थे कि प्राथमिक शिक्षा के बाद ज्योतिबा को 'चर्च आफ स्काटलैंड मिशन' नामक अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाया जाए। गोविन्दराव के रिश्तेदारों एवं परिचितों ने जब सुना कि ज्योतिबा का दाखिला अंग्रेजी स्कूल में किया जायेगा, तब वे इसका जबरदस्त विरोध करने लगे। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी पढ़ने से ज्योतिबा बिगड़ जायेगा। गोविन्दराव की दुविधा को देखकर समाज के ठेकेदारों ने भी उन्हें काफी डांटा -फटकारा। आखिरकार न चाहते हुए भी उसके पिता ने उसे नौ साल की उम्र में स्कूली पढ़ाई छुड़वा कर बगीचे में फूल की खेती में लगा दिया। फिर पुरानी परंपरा के अनुसार तेरह वर्ष की आयु में ज्योतिबा का विवाह सावित्री नाम की आठ वर्षीय बच्ची से कर दी गई। लेकिन सगुणाबाई के प्रयास से ज्योतिबा घर पर ही पढ़ाई करते रहे। वे दिन में खेत पर काम करते और रात में पढ़ते। चार साल बाद सगुणाबाई के प्रयासों की वजह से ज्योतिबा का दाखिला अंग्रेजी स्कूल में हो गया। यहीं ज्योतिबा की मित्रता सदाशिव वल्लाम नाम के एक उदार ब्राह्मण से हुई और अटूट रही।

आधुनिक ज्ञान - विज्ञान के आधार पर जिन लोगों ने शिक्षा प्राप्त की थी, उनमें से ज्यादातर लोग कुसंस्कार से मुक्त हो चुके थे। फलस्वरूप उस दौरान समाज में दो प्रकार की सोच मौजूद थी। एक तरफ धर्म और अंधविश्वास से ग्रसित लोग थे, वही दूसरी ओर ज्ञान -विज्ञान से प्रेरित कुसंस्कार मुक्त लोग थे। ब्राह्मणवादी चिंतन से प्रभावित तथाकथित उच्च वर्ण के लोग अपने को श्रेष्ठ मानते थे। साथ ही वे तथाकथित निम्न वर्ण के लोगों को अस्पृश्य मानते थे। यहां तक कि निम्न वर्ण के लोग भी लम्बे अर्से से चले आ रहे सामाजिक नियमों को मनाने को मजबूर होने की वजह से मानसिक रूप से भी खुद को दूसरों के बराबर नहीं सोच पाते थे। दूसरी ओर मिशनरी और अंग्रेजी शिक्षा के द्वारा ज्ञान विज्ञान की रोशनी जिस हद तक समाज में पहुंची थी, उसके कारण जातिवादी सोच , छुआछूत, महिलाओं को पर्दे के पीछे रखने की सोच के खिलाफ एक प्रकार की मानसिकता युवा वर्ग के अंदर पनप रही थी। लेकिन ये लोग बहुत कम संख्या में थे और एक दूसरे से अलग-थलग थे। इन लोगों में कुछ ब्राह्मण युवा भी थे। ज्योतिबा भी धार्मिक नियमों एवं जाति प्रथा के खिलाफ संघर्ष छेड़ने का मन बना रहे थे। एक बार ज्योतिबा अपने एक ब्राह्मण मित्र के भाई की शादी में जब पहुंचे, तो उन्हें निम्न जाति का लड़का कहकर बारात से बाहर कर दिया गया। इस घटना ने उनको हिन्दू समाज में व्याप्त जातीय उत्पीड़न और शोषण से पूरी तरह वाकिफ करा दिया तथा उनको इस घटना ने अपने जीवन के उद्देश्य के प्रति गहराई से सोचने पर मजबूर भी किया। इक्कीस वर्ष में उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के साथ ही उन्होंने तमाम देशी-विदेशी साहित्य , जीवनियां , पाश्चात्य दार्शनिकों के लेख, गीता, पुराण व उपनिषद आदि पढ़ डाले। उनका स्पष्ट मत था कि , सभी धर्मग्रंथ इंसान की ही सृष्टियां है। ज्योतिबा इस बात को भी जल्दी ही समझ गये कि हिन्दू समाज में धर्म के नाम पर ऊंची जातियों द्वारा निम्न जातियों का शोषण और अत्याचार, गरीबों के आर्थिक शोषण से अविच्छन्न रूप से जुड़ा हुआ है। ज्योतिबा ने निम्न जाति के लोगों को इस सामाजिक - आर्थिक भ्रष्ट बंधन से आजाद कराने का संकल्प लिया।

उन दिनों ब्रिटिश सरकार द्वारा देश में बुनियादी शिक्षा का प्रयास शुरू हो चुका था लेकिन पिछड़ी सोच की वजह से तमाम ऊंची जातियां अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजते थे। स्कूलों में निम्न जाति के बच्चों को पढ़ने का अधिकार नहीं था। उस समय का समाज दो भागों में बंटा हुआ था। एक तरफ अंधविश्वासों और अन्यायपूर्ण जातिवादी चिंतन से ग्रसित समाज था तो दूसरी ओर आधुनिक लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष चिंतन से लैस सुशिक्षित लोगों का हिस्सा भी। ये लोग समाज में आधुनिक विचार को समाज में ले जाने हेतु संघर्षरत थे। इसी दौरान 1848 में ज्योतिबा ने एक पाठशाला की स्थापना तात्या नामक एक बाह्मण की मदद से की। ज्योतिबा ने पहली छात्रा के रूप में अपनी पत्नी सावित्री का नाम लिखवाया। अथक प्रयास के बाद किसी तरह कुछ छात्राओं का दाखिला इस विद्यालय में हो सका और विद्यालय शुरू हुआ। समाज के दबाव के कारण जब पिताजी ने ज्योतिबा की पाठशाला न बंद करने पर घर छोड़ने को कहा तो ज्योतिबा के साथ सावित्री ने भी घर छोड़ दिया। जीवन निर्वाह के लिए ज्योतिबा ने घर व सड़क निर्माण की ठेकेदारी का काम शुरू किया। पाठशाला में जब महिलाओं की बढ़ती संख्या के बीच अस्पृश्य महिलाओं के लिए अध्यापक न मिले तो ज्योतिबा ने अपनी पत्नी सावित्री को ही उन्हें पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंप दी क्योंकि सावित्री को ज्योतिबा ने घर पर ही पहले पढ़ाया था।

ज्योतिबाराव फूले के जीवन संघर्ष को सावित्रीबाई से अलग करके उनको पूरी तरह से नहीं समझा जा सकता है। ज्योतिबा का समाज को सबसे बड़ी देन स्वंय उनकी पत्नी सावित्रीबाई थी। उनका पति-पत्नी सम्बन्ध उस समाज की कसौटी पर ही नहीं, आज के समाज की कसौटी पर भी एक क्रांतिकारी सम्बन्ध था। वह आज भी उच्च मूल्यबोध पर आधारित पति-पत्नी सम्बन्ध की एक दुर्लभ मिसाल है। ज्योतिबा ने समाज के विकास मे महिलाओं की अग्रिम भूमिका को पहचाना था। ज्योतिबा एवं सावित्री ने कठिन परिस्थितियों का सामना करते हुए निरन्तर शिक्षा व समाज सुधार की अलख जगाते रहे। उन्होंने न केवल सिर्फ जातिगत असमानता के खिलाफ पिछड़ी जातियों व स्त्रियों की शिक्षा के लिए संघर्ष किया बल्कि विधवा विवाह के पक्ष में जो काम बंगाल में ईश्वरचंद विद्यासागर ने शुरू किया था उसे महाराष्ट्र आगे बढ़ाया। उन्होंने अंतर्जातीय विवाह की भी वकालत की। अपने संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ते हुए ज्योतिबा ने दकियानूसी चिन्तन के खिलाफ लड़ाई अपने घर के बाहर ही नहीं, भीतर भी लड़ी। उन्होंने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की जिसका उद्देश्य समाज सुधार के लिए एक व्यापक आन्दोलन को खड़ा करना था। सत्यशोधक समाज की स्थापना विभिन्न जाति, धर्म के 48 लोगों को लेकर हुई जिसमें सावित्रीबाई भी शामिल थी।

ज्योतिबाराव फूले हमारे देश के नवजागरण काल के शुरूआती दौर के वह शख्सियत थे जिनका नाम एक व्यापक सामाजिक आन्दोलन का पर्याय बन चुका था। उन्होंने न सिर्फ देश में दलितों और अछूतों के अधिकार और सम्मान की लड़ाई लड़ी बल्कि इसके साथ ही इस लड़ाई में समाज के हर तबके को शामिल करके इसे एक वर्ग विशेष के संकीर्ण दायरे से बाहर लाकर एक पूरे समाज के सम्मान और अधिकार के मुद्दे को भी एक व्यापक सामाजिक आन्दोलन का रूप दिया। उन्होंने अपने इस काम को किसी जाति, धर्म, लिंग, तक सीमित न रख कर देश की सम्पूर्ण शोषित - पीड़ित जनता के उत्थान की लड़ाई के रूप में देखा और इस लिए ज्योतिबाराव फूले इतना मुखर होकर उस समय में सामंतवाद, विदेशी साम्राज्यवाद और कांग्रेस के ढुलमुल रवैये के खिलाफ गरीबों के हक में खड़े हो पाए। उन्होंने किसानों की दुर्दशा के खिलाफ तमाम पर्चे लिखें व आन्दोलन भी खड़ा करने का प्रयास किया। ज्योतिबा समाज में जागरूकता कार्यक्रम निरन्तर चलाए हुए थे इस हेतु उन्होंने पत्र पत्रिका भी निकाली व विभिन्न विषयों पर तमाम लेख भी लिखे।

1890 में ज्योतिबाराव फूले जब अचानक बीमार पड़े तो काम छूट जाने के कारण इलाज कराना भी मुश्किल हो गया क्योंकि फूले ने कभी भी अपने लिए धन संचय नहीं किया था। 28 नवम्बर 1890 में 62 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया। अपने वसीयतनामे में ज्योतिबा ने लिखा कि सत्यशोधक समाज की रीति के अनुसार ही उनका अंतिम संस्कार किया जाए। उनका मृत शरीर जलाया नहीं जाए वरन् नमक के साथ उनके घर के पीछे ही दफना दी जाए। फूले ने इस हेतु अपने घर के पीछे एक गड्ढा भी खुदवाया था। जिस सत्य के लिए वे जीवनभर संघर्ष करते रहे, जीवन के खत्म हो जाने के बाद भी अपने मृत शरीर से उसके लिए अंतिम योगदान करने की फूले की यह कामना उनके व्यक्तित्व की ऊंचाई को दर्शाती है। लेकिन फूले की इस अंतिम इच्छा को नगरपालिका की अनुमति न मिल पाने के कारण पूरा नहीं किया जा सका।

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---- वीरेन्द्र त्रिपाठी, लखनऊ

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रचनाकार: " सामाजिक आन्दोलन के पर्याय:ज्योतिबाराव फूले " // वीरेन्द्र त्रिपाठी
" सामाजिक आन्दोलन के पर्याय:ज्योतिबाराव फूले " // वीरेन्द्र त्रिपाठी
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