संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 10 - रिश्तों की मजबूत डोर // रामानुज श्रीवास्तव 'अनुज'

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प्रविष्टि क्र. 10 रिश्तों की मजबूत डोर रामानुज श्रीवास्तव 'अनुज' जाने क्यूँ ये दरोदीवार जाने पहचाने से लगते हैं, जबकि मैं ऋतु के घर ...

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प्रविष्टि क्र. 10

रिश्तों की मजबूत डोर

रामानुज श्रीवास्तव 'अनुज'


जाने क्यूँ ये दरोदीवार जाने पहचाने से लगते हैं, जबकि मैं ऋतु के घर पहली बार ही आया हूँ। इसके पहले कभी नहीं आया , यद्यपि जौनपुर मैं इसके पहले भी अपने निजी काम से कई मर्तबा आया गया हूँ। लेकिन होटल में रुका हूँ। पर इस बार पहले से ही निर्देश मिला था कि आप घर में ही रुकेंगे। ऋतु के पति जयंत मुझे स्टेशन लेने आये हुये थे।

ऋतु से मेरा कोई पुराना परिचय नहीं है..सोशल साइट की लत से अचानक परिचय हुआ,। एक दिन इनकी पोस्ट अनायास दिख गई। .ग़जल नाम दिया था ऋतु ने,..अपनी इस छोटी सी रचना को...बेतरतीब कतरनों की तरह बिखरे शब्द भाव की गम्भीरता और कथ्य की सरलता को छिपा नहीं पाये थे। मैंने उसे बार बार पढ़ा..फ़िक्र की नई तहज़ीब मुझे बहुत पसंद आई.. लेकिन रचना में ऐसा कोई फन नहीं दिखा की उसे ग़जल मान ले..वो रचना किसी कोण से ग़जल थी ही नहीं।

खैर मुझे क्या करना..यह सोचकर नेट ऑफ़ कर दूसरे काम में लग गया। शाम को जब दोबारा नेट खोला तब फिर यही रचना सामने आ गई....सोचा कैसा अद्भुत संयोग है...और ताज़्ज़ुब की बात के सौ से भी  ज्यादा लोग रचना पढ़कर तारीफ के पुल बांध कर चुके थे...वाह वाह...अद्भुत नायाब बेहतरीन, क्या बात है... आदि आदि। इन पाठकों ने रचना के भाव को ही महत्व दिया या रचना के नीचे चस्पा फोटो को...मैं समझ नहीं पाया..मुझे इन नासमझ लोगों पर बहुत तरस आया...मैंने सीधे कमेंट किया.....

"बेटा इसे कविता माना जा सकता है, लेकिन इसे ग़जल नहीं कह सकते, हाँ !! ग़जल कहने की पूरी क्षमता तुम्हारे भीतर देख रहा हूँ।" ऋतु में बड़ी निडरता से जवाब भी लिख दिया...."क्या आपको ग़जल लिखना आता है? क्या आप मुझे ग़जल लिखना सिखा सकते है।"

मैंने कभी भी इस तरह के जवाब की उम्मीद नहीं की थी। मुझे लगा कि यह लड़की चुनौती दे रही है, लेकिन यह सिर्फ मेरी सोच की कमी निकली, वह वास्तव में ग़जल लिखना चाहती थी। निहायत खूबसूरत अंदाज़ के दूर की कौड़ी लाने वाले चंद अशआर उसके पास मौजूद थे,  उसे कहने का सलीका और सऊर की कमी मुझे उन अशआरों में दिखी। ये सारी चीजें .....एक दम सीसे की तरह साफ हो गई ....जब अगली सुबह फोन में उससे बात हुई। बात बात से ही दर्पण में जमी धूल की परत हट गई...और सामने आ गई एक ऐसी तस्वीर जो मुझे अपनी लगी...इस तस्वीर की बनावट ने मुझे कतई प्रभावित नहीं किया किन्तु एक ऐसी अपरा शक्ति जो बहुधा आम इंसानों के अंदर नहीं देखीं जाती...उसमें विद्यमान थी......मैंने साफ साफ देखा...इसके और मेरे बीच कोई रूहानी नाता है...जो काल की सीमा से बाहर आना चाहता है...मुझसे कोई जवाब देते नहीं बना..अनायास ही अन्तस से एक शब्द निकला वो था...हाँ !!

मैं बड़े धर्म संकट में था...गजलें लिखना मुझे आता है....लेकिन कैसे लिखते हैं..लिखने का शिल्प क्या है ? इसे परिभाषित करना या समझाना मेरे लिए सहज नहीं था। ये बात पूरी ईमानदारी से कह रहा हूँ... कोई यकीन नहीं करेगा के फ़िक्र ओ फन को कागज में उतारने वाला कहे कि मुझे नहीं मालूम ऐसी नफ़ासत कैसे आती है.....लेकिन हकीकत तो यही है।

खैर...लिखने पढ़ने का सिलसिला चल निकला...थोडी विचलन के बाद रास्ता दिखने लगा परिश्रम से सब कुछ सम्भव है...इसका प्रत्यक्ष मिसाल था ऋतु का लेखन...गति बढ़ती गई बीच बीच में शेर मेरे पास सलाह के लिये आते रहे। आहिस्ता आहिस्ता इतनी गजलें हो गई कि किताब बन सकती है। फिर धीरे-धीरे ये सिलसिला कम होते होते ठहर गया। मुझे भी ख़ुशी हासिल हुई की चलो किसी के काम तो आया, अब कितना आया ये तो ऋतु जाने।

पिछले हफ्ते जब ऋतु का फोन आया तो मुझे पहचानने में परेशानी हुई..छःसात माह का समय गुजर चुका था। ऋतु ने पूरी कैफियत से जब बताया तब बात समझ आई....बेइंतहां ख़ुशी मिली कि ऋतु का ग़जल संग्रह प्रकाशित होकर आ गया है। मुझे ऋतु ने लोकार्पण में बुलाया था, उसकी खुशी इन बातों में साफ-साफ नुमाया हो रही थी....

" सर !! अंतर्राष्ट्रीय मंच से किताब का विमोचन होना है..उन्होंने तारीख और समय दिया है। आप् का रहना जरूरी है।"

मेरा रहना जरूरी है या नहीं...मेरी क्या उपयोगिता है ये तो ऋतु जाने लेकिन मैं भी बहुत खुश हूँ...ख़ुशी की वजह शायद वो अंतर्राष्ट्रीय मंच है....जो किताब का लोकार्पण करायेगा हो सकता है..यहीँ से ऋतु की शोहरत, मेहनत और कामयाबी का रास्ता जाता हो। जिसकी वह यकीनन हकदार है।

मुझे भीड़ भाड़ वाली जगह में जाने से हमेशा परहेज रहा है..मंचीय नाटकीयता से मुझे सदैव नफरत रही है... मंच की प्रस्तुति और स्तुति दोनों से हमने किनारा कर लिया हूँ...यही वजह है कि मुझे कोई नहीं जानता है...ऋतु के मामले में मेरी खुली सोच है। यदि उसे उचित प्लेट फार्म मिलता है तो इसमें गलत क्या है...शायद यही गली उसे मंजिल तक ले जाये......मुझे क्या!!.. सबकी अलग अलग जिंदगी है...अपने अपने तरीके से सबको जीने का हक है...इस लिहाज से हमे उसका हौसला बढ़ाना चाहिये...ये क्या कम होगा...आज तो आँसू पोंछने वाला भी किराये का लेना पड़ता है।...हौसला बढ़ाने की बात करना बेमानी होगी।

अभी पिछले महीने ही किताब के विमोचन कार्यक्रम का आमंत्रण मिला था...मेरी समझ में यह बहुत अच्छी बात है...आज जमाना वह आ गया है कि अपना गीत सुरा बेसुरा स्वयं को गाना पड़ता है....दूसरा क्यूँ गाये... उसका कौन गाये। अपनी पीठ है...ठोंक लो भाई...हाथ को जरा सा पीछे ही तो करना है। पीठ ठोंकते कोई देखे या देख़े... कैमरे की नज़र में तो आप है ही। आजकल जब से इंटरनेट की कृपा से लोगों का आपस में सम्पर्क बढ़ा है...लेखन कार्य कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है...हर कोई लेखक, कवि शायर के रूप में अपना चेहरा चमकाने में लगा है... इनके बीच में पिस रहा है.... असली साहित्यकार... तो बेचारा दमा के मरीज की तरह पर्दे के पीछे हाँफ रहा है....असाहित्यकारों की भीड बीमार साहित्यकारों के सर में सवार होकर ठुमरी दादरा गा रही है।

आज अखबार में छपा एक लेख पढ़ा...मोहतरमा लेखिका ने चिंता जताई है कि आज किताबों के पाठक कम बचे है...लोगों की प्राथमिकता किताब पढ़ना नहीं रहा है...बिलकुल सोलह आने सही बात है....दूसरे पहलू पर कुछ नहीं कहा गया है...जबकि पाठक की मनः स्थिति पर भी गौर करना लाज़िमी था।

कोई किताब क्यों पढ़े...क्या आपने अपनी बुक में रोजी रोटी जुगाड़ने का कोई अचूक नुस्खा दिया है..किसी बीमार की सेहत पर बात उठाई है...क्या किताब में उन शब्दों का समावेश है जो किसी के आँसू पोंछ सकते है या आपने ऐसी तरकीब लिखी है जो विषम परिस्थितियों में तनकर खड़े होने का जज्बा देती है...बहुत सारे और भी सवाल है.... जिक्र करने लगे तो एक किताब यह भी बन जायेगी।  "शायद नहीं'.....तो फिर कोई क्यूँ आपकी किताब खरीदे और पढ़े।

" कहते है साहित्य समाज का दर्पण है" ....पर इस समय कुछ गड़बड़ी है। इस समय समाज और साहित्य की ठीक ठीक आपस में बन नहीं है। लिहाज़ा आपसी बोलचाल बंद है। कोई एक दूसरे के हित की बात नहीं कर रहा। दर्पण जो दिखा रहा है, वह लिखने की कूवत नहीं है या फिर लिखना नहीं आता।

खैर जो भी बात हो, अपने को इस पचड़े से दूर रहना...कलम कागज और सोच सनक सबका जुदा-जुदा है ......खूब लिखिए...सूरज चंदा, बाग़ बगीचा..खूब वर्णन करिये .....औरत के आँख और ओंठ का...कम लगे तो पैर की ऊँगली भी बता दो कैसी है.. लेकिन यह जान ले ....ये विषय अब बहुत पुराने हो गये.... पाठकों की रूचि अब इन विषयों की तरफ नहीं है। यदि आपकी कविता के पास पेट दर्द या भूख का ज्वर उतारने का नुस्खा तो आइये स्वागत है..अन्यथा घर की लाइब्रेरी में सजाकर अगरबत्ती उतारिये।

तभी मोबाइल फोन की घण्टी बजी.....देखा तो ऋतु का कॉल था "आप कल आ रहे हैं न"...ऋतु ने पूछा था।

"घर से आज की निकलने की सोच रहा हूँ....रात इलाहाबाद में रुककर सुबह चल दूँगा ताकि समय से पहुँच सकूँ"।...........मैंने उसे बताया। "स्टेशन पहुँचने के पहले इत्तला कर दीजियेगा।''

"ओके !! बता दें।

                  ***** उत्तरी भारत में ठंड के दिनों में रेलगाड़ियां कोहरे के कारण देरी से चलती है...इस लिहाज से सड़क रूट से बस द्वारा यात्रा करने की सोची। निर्धारित समय में बस की यात्रा शुरू हुई। बस बहुत पुराना फ़िल्मी गाना बजाती हुई सड़क में दौड़ने लगी थी। कुछ समझदार लोग आपस में अपनी-अपनी हाँकने में लग गये थे...नासमझ लोग कान में मोबाइल का तार डालकर गाना सुन रहे थे। मेरे जैसे आदमी के पास पुराने फ़िल्मी गाना सुनने के अलावा कोई रास्ता नहीं था...गाने के बोल और धुन इतनी प्यारी थी कि कई लोग बैठे बैठे सीट में लुढ़क गये... मुझे भी कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।

बाहर शोर शराबा सुनकर मेरी आँख खुल गई...देखा !! बस किसी कस्बे में खड़ी थी, यात्री चढ़ उतर रहे थे...इसी बीच बस में एक लड़का मूंगफली बेचने की गरज़ से चढ़ आया..... दस की एक ..पन्द्रह की दो...की आवाज लगाकर मूंगफली बेचने लगा...लेकिन किसी ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया...वह लड़का मेरे सीट की बाज़ू में खड़ा होकर बोला....

"बाबू जी !! आप ले लो"...अभी तक बोहनी नहीं हुई है। वह तकरीबन दस या बारह साल की वय का गोरा  दुबला पतला लड़का था..सर के बाल बेतरतीब बढ़े हुये.. उसकी बड़ी बड़ी काली आँखों को ढँक रहे थे। जिस्म में मैली टी शर्ट और हाफपैंट के अलावा कुछ नहीं था। मैं उस पर रहम खाकर बोला... "दस की दे दो।"

"पन्द्रह की लो न..बाबू जी !!..सस्ती पड़ेगी...दो मिलेगी।"

मेरे कुछ कहने के पहले ही वह दो पुड़िया मूंगफली थैले से निकाल कर मेरे हाथ में रख चुका था। मैंने उसके हाथ में पचास का नोट पकड़ा दिया..वह. नोट को ऊपर नीचे उलट पलट कर देखा और बोला..... " छुट्टे दीजिये बाबू जी"

" छुट्टे नहीं है"...जेब टटोलते हुये मैंने कहा।

"रुकिये.... मैं नीचे से लाता हूँ। इतना कह कर वह तेजी से बस से उतर गया.. दो मिनट बाद बस भी चल पड़ी....लेकिन वो लड़का छुट्टा लेकर नहीं पहुँचा।। कंडक्टर से कह के मैंने बस रुकवाई और उस लड़के को देखने की गरज से नीचे उतर गया...इधर उधर नज़रें दौड़ाई पर वे भी ख़ाली हाथ सर हिलाती लौट आयीं। बस दोबारा रेंग चली थी....यात्रियों के बीच में भी बात फ़ैल गयी थी...सब मुड़ मुड़कर मुझे ऐसे देखने लगे थे..जैसे मुझसे बड़ा मूर्ख दुनिया में कोई न हो। मेरी सीट के आगे की सीट में बैठी एक मोटी महिला जिसे गर्दन घुमाने में बहुत तकलीफ हुई होगी मुझसे बोली....

"कित्ते का नोट दिया था भाई साब' "पचास का"....पैंतीस उसे लौटाना था। ..मैं जानबूझकर अगले संभावित सवाल का भी उत्तर दे दिया था। लेकिन बात यही रुकने वाली नहीं थी...मेरे बाजू में बैठे सज्जन के मुँह में खुजली उठ आई... वे अपना चश्मा उतारते हुये बोले.....

"आप लोग भी किस किस पे यकीन कर लेते है...सब साले चोर उचक्के उठाई गीर है... इन पर भरोसा कैसा....अभी पिछले माह मैं दिल्ली से आ रहा था...कानपुर स्टेशन पर थैला टांगें एक लड़का मेरे पास आकर बोला....'बाबू जी !! लाओ जूते चमका दें।' मेरे कुछ बोले ही ब्रश फेरने लगा...फिर बोला....जूते उतार दो ...तो पॉलिस फेर दें... मैं जूता उतार दिया....

"फिर क्या हुआ".....कई स्वर एक साथ उठे। 'अरे होना क्या था  जूतों में पॉलिस हो गई...पाँच रूपये मुझसे लिया...और ऊपर की बर्थ में लेटे भाई साब का दस हज़ार का मंहगा जूता भी थैले में भरकर ले गया।

उनके कहने के अंदाज़ से सब लोगों को हँसी आ गई....सबसे ज्यादा मुझे ख़ुशी हुई कि चलो माहौल चेंज हुआ.....बस में फिर वही पुराने गाने बजने लगे थे... "सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया। दिन में अगर चराग जलाये तो क्या किया।"

पुराने गाने बजाते हुए नये जमाने की बस अपने गंतव्य पथ में पूरी ताकत से दौड़ रही थी आँखों में आलस्य की चादर फिर बिछनी शुरू हो गई थी...मैं पुनः नींद के आगोश में चला गया। ये है पुराने गानों का असर....आज के गाने थोड़े ही है कि अस्पताल में बजा दो तो सुबह तक पचास फीसदी मरीज मरे मिलेंगे। इलाहाबाद आ गया था....आगे सिविल लाइन्स चौक था जहाँ उतर कर मुझे "विशाल होटल" जाना था....जब मैं होटल पहुँचा तो शाम के सात बजे चुके थे.. ..थोड़े इंतज़ार के बाद बारात भी आ गई...विवाह के रस्म-ओ-रिवाज में पूरी रात निकल गई बिल्कुल पता ही नहीं चला। सुबह सबको बताकर यू. पी. रोडवेज की बस से मैं जौनपुर के लिये रवाना हो गया। दोपहर बारह बजे जब बस स्टैण्ड में उतरा तो ऋतु के पति जयंत मेरा इंतज़ार करते मिल गये।

ऋतु का घर बस स्टैण्ड बा-मुश्किल वाकिंग डिस्टेंस में है, ...मै नहीं चाहता था कोई मुझे लेने आये...पता ठिकाना तो पास था ही...पैदल चला जाता...कुछ तो पैरों को काम मिल जाता....लेकिन वे कहाँ मानने वाले थे...दो मिनट में घर में लाकर बैठा दिया। वह सचमुच घर ही था..ऋतु जयंत और उनके बच्चों का घर। घर के कोने कोने में इंसानी रिश्तों की मौजूदगी मुझे अचंभित कर रही थी...ऐसा लगता था इस घर की बुनियाद तक मुझसे बात कर रही है....आँगन देहरी तक मेरी मौजूदगी से खुश नजर आ रहीँ है...शायद इन्हीं एहसासात को हमारे ऋषि मुनियों ने घर कहा है...आज मेरी समझ में आ गया कि ईंट पत्थर से बड़ी-बड़ी इमारतों को घर नहीं कहते..होटल कहते हैं...हवेली कहते है..बहुत बड़ा नाम देना हो तो किला कहते हैं...लेकिन घर नहीं कहते। जहाँ मुहब्बत की खुशबू हो रिश्ते जीवंत हो..रिश्तों के बीच सम्वाद होता हो....उसी को हम घर कहते हैं।

अचानक यथार्थ और मुखर हो गया जब ऋतु आकर बोली..."हाथ मुँह धो लें...खाना लगाती हूँ।"  भूख तो लगी थी...खाने का नाम सुनना कानों को बहुत अच्छा लगा। "भूख में खाना बहुत मीठा लगता है"  यह एक तथ्य है..यहाँ पर ज्यादा गहराई में उतरना आज का विषय नहीं था। मेरे और ऋतु के बीच में कुछ औपचारिक बात सिर्फ आज के प्रोग्राम को लेकर हुई। ऋतु ने बताया.....

"वे केवल पांच मिनट का समय दे रहे है"..'इतने कम समय में क्या हो सकता है।" "देखो इंटरनेशनल मंच है...एक मिनट बहुत है....किसी और मंच में दिन भर खड़ा होने से बेहतर है...ऐसे मंच पर एक मिनट ठहरना...फिर उनका शिड्यूल्ड है...किताब का लोकार्पण उनके आज के प्रोग्राम में शामिल है...कैसे होना है....कैसे करेंगे अब ये उनका काम हो गया है।" मैंने समझाया।

'आप थोड़ा रेस्ट कर लें...मै भी जरूरी काम से आधे घण्टे को बाहर जा रही है...सात बजे तक चलना है'...ऋतु ने बताया। मैंने सहमति में केवल सर हिला दिया कुछ बोला नहीं।

मुझे विश्राम करने की आदत भी नहीं है...और ऋतु के बच्चे भी तो यही चाहते थे...अभी तक उनसे मेरा परिचय नहीं हुआ था...दो लड़कियां थी ...एक लगभग तीन साल के वय का लड़का...वे मुझे बहुत शांत स्वभाव के लगे थे...यद्यपि बड़ी लड़की को यदि समझदार मान भी लें तो चलेगा....पर बाकी दोनों। ......धीरे-धीरे वे मेरे पास आ गये..और शुरू कर दिये बालसुलभ चपल बाते...".बड़ी बेटी ने जहाँ मेरा नाम पूछा...वहीँ छोटी बेटी ने पूछ लिया.... कहाँ से आये है".... छोटे साहबजादे कहाँ पीछे रहने वाले पूछ बैठे एक कठिन सवाल.... " आप् यहाँ क्यों आये है?

मैंने उन्हें बताया......" आज तुम्हारी माँ की लिखी किताब का फिल्म वालों के मंच से विमोचन होना है....इसलिये हम बहुत दूर से आये है।"

लेकिन इतने से मैं बच नहीं सका....." विमोचन क्या होता है? छोटी बेटी अनु (जो तकरीबन चार साल की होगी) ने पूछा।

मैं उन बच्चों के सवालों में उलझ चुका था इसलिए बचने का आखिरी उपाय आजमाया.. " देखो अभी सब बता देंगे तो मज़ा नहीं आयेगा....वही चलकर देखना"

"सच !! हम सब चलेंगे।" तीनों ने एक साथ पूछा।

"हाँ सच !! आप सब चलेंगे। आप लोगों के बिना इतना बड़ा काम कैसे हो सकता है।"

बच्चे मेरा पक्का यकीन कर लिए थे...वे बहुत खुश हो गये थे....इस खुशी में किसी ने मेरा कान खींचा...किसी ने नाक से चश्मा उतारा....कोई गोद में बैठ कर डांस किया मैं भी सारी थकान भूलकर बच्चा बन गया था। मुझे एक कविता याद आ रही थी..... जिसका उल्लेख करना सामयिक एवं प्रासंगिक होगा....

"कहां खोजता फिर रहा पत्थर में भगवान। बैठ यहीँ पर देख ले बच्चों के दरम्यान।

हम लोग निर्धारित समय से पहले ही कार्यक्रम स्थल में आ गये थे। बस्ती से बाहर लगभग एक चौथाई किलोमीटर के खाली मैदान पर अंतर्राष्टीय फिल्म महोत्सव का कार्यक्रम चल रहा था, लगभग पांच हज़ार लोगों के बैठने की व्यवस्था थी। उत्सव का आज तीसरा दिन था। आयोजकों ने बहुत कठिन परिश्रम किया होगा ....बहुत पैसा खर्च किया होगा तब जाकर यह रिक्त पड़ी धरती आज आलोकित हो रही थी...किसी ने स्वर्ग नहीं देखा होगा..लेकिन किसी ने स्वर्ग की जैसी कल्पना की होगी...ठीक उसी तरह का स्वर्ग आज आँखों के सामने देखकर हर देखने वाली आँखों का चकित हो जाना स्वाभाविक था।

देश के कोने कोने से आये हुए गुमनाम कलाकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हुये किसी अजूबा से कम नहीं थे...हर किसी को मौका दिया गया था...चाहे वे बुन्देलखण्ड के राई नृत्य के कलाकार हो..अखाड़ा डांस ...अहीर गड़रियों का पारंपरिक नृत्य गाय जगाने का हो बघेली का नुक्कड़ नाटक हो भोजपुरी टपरा फिल्म हों... सभी फ़नकारों को अपन अपना फन दिखाने का मुक्त और पूर्ण अवसर दिया गया था।

विदेशी सोच तक में हमारी संस्कृति की छाप है...तभी न सात समंदर पार से उड़कर आया हुआ एक ऑस्ट्रेलियन साधक वायलिन के तार से राग जय जयवंती छेड़कर लगभग दस हजार श्रोताओं को कुर्सी छोड़कर ताली बजाने को विवश कर दिया था.... .बुन्देलखण्ड का अखाड़ा नाच तो बहुत बड़ा सन्देश दे गया....... " भले ही तन में एक धोती है...पेट पीठ एक हो गया है....कोई परवाह नहीं...जरूरत पड़ने पर बुंदेली माटी का लाल सिर्फ लाठी उठाकर जंग ए मैदान में कूद पड़ेगा...... मुल्क की आन में आंच नहीं आने देगा।"

धन्य है ऐसा कला साधक..आपकी कला और सोच को मेरा सलाम है। हमारे मुल्क में हर क्षेत्र के फ़नकार कूचे कूचे में मौजूद मिलेंगे....जरूरत है पारखी नज़रों की सहृदय सोच की। ऐसे में फिल्म-महोत्सव जैसे बड़े आयोजन में इन गुमनाम कलाकारों को मंच देना बड़े दिल की बात कही जायेगी... आयोजन कर्ताओं की पूरी टीम साधुवाद की पात्र है।

चलिये सर !! "अगला कार्यक्रम किताब लोकार्पण का है।" जयंत जी मेरे पास आकर बोले। मंच के नीचे दोनों कोनो में लगे प्रोजेक्टर के परदों पर ऋतु की लिखी गजले बजने लगी थी, आज ग़जल गायक "आलोक रंजन" का स्वर भी गजब ढा रहा था...लगता था नीलगगन से मधुर संगीत लिए ग़जल की बज़्म धरती में उतर रही हो...दिल में अद्भुत अनुभूति का सुरूर छाने लगा था।

हम सब ऊँचे मंच में आ गये थे फ़िल्मी दुनिया के कई नामचीन अदाकार पहले से ही मंच में थे...सभी की उपस्थिति में ग़जल संग्रह  "अंजुमन" का लोकार्पण हुआ..मुख्य आयोजक ने ऋतु को बधाई  दी और माइक हाथ में देते हुए सबका धन्यवाद करने को कहा..." पर ये क्या....ऋतु के हाथ में माइक आते ही हजारों हज़ारों हाथ की तालियों ने ऋतु के मुँह से निकले शब्दों को अपनी करतल आवाज के साथ शामिल कर लिया था। रचनाकार के प्रति ऐसा मुहब्बत भरा इस्तक़बाल पहली बार देखा था।"

आज एक सपना हकीकत में तब्दील हो गया था..."अंजुमन" किसी एक की न होकर पूरे मुल्क के कद्रदां पाठकों की हो गई थी...सन्तोष और ख़ुशी के भाव ऋतु के चेहरे के साथ साथ उन तमाम चेहरों में झलक आये थे...जो इस शायरा से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष जुड़े रहे हैं।

कार्यक्रम चल रहा था...वहाँ से उठने का मन नहीं हो रहा था..लेकिन क्या किया जाये शरीर की अपनी सीमाएं है...साथ में बच्चे भी...इनकी जरूरतें अलग थीं....इसलिए न चाहते हुये भी वापस आना पड़ा।

घर आकर ऋतु ने सब के लिए चाय बनाई... चाय का कप मुझे देते हुये ऋतु बोली... सर !! "आपका बोलना जरूरी था"....लेकिन समय नहीं मिला। "कोई बात नहीं अभी बोले देता हूँ।"... "कुछ ज्यादा नहीं सिर्फ इतना कहना है कि पहली किताब के लोकार्पण में दो सीढ़ी थी...इस बार के मंच में पांच सीढ़ियां थी... अब उम्मीद करता हूँ की अगला पैर छठवीं सीढ़ी पर रखो। बस इतना चाहते है"...मैंने कहा।

"अरे ऋतु  !! अब वहीँ रुको आगे पैर मत बढ़ाना....भई !! भूख लगी है"।  जयंत जी ने कहा

उनकी बात और कहने के अंदाज़ पर सभी लोग हँस पड़े।

"आप भी गजब करते हो अभी पूरी चाय नहीं पी... और भूख लग आयी"...ऋतु ने कहा।

"मै अपने लिये थोड़ी बोला हूँ... सर के लिये कहा है।" जयंत ओठों में मुस्कुराहट लाते हुये बोले।

"अभी सब लोग बैठ लो...खाने को रत्ती भर मन नहीं है।" मैंने कहा।

ऋतु भी पास की चेयर में बैठकर चाय पीने लगी।

"पहली कविता संग्रह का विमोचन भी जिस मंच से हुआ था..वो भी तो एक अंतर्राष्ट्रीय मंच था?"...मैंने पूछा।

जी !!  योग और आध्यात्म का मंच था...'सुधीर भैया ने पूरा विमोचन का काम अपने ऊपर ले रखा था।" ऋतु ने बताया।

उन्होंने तो पूरा एक दिन का वक्त ही इस काम में लगा दिया था...मुझे याद है रात के बारह बज गये थे....क्षेत्रीय कवि सम्मेलन भी तो था। लेकिन आज दिखे नहीं...हमारी नज़रें तो पूरे समय डा. सुधीर को ही तलाशती रही।

"वे जरूरी काम से दिल्ली गये है.. जयंत ने बताया।

"आज उनके साथ उन लोगों की कमी भी बहुत खली जो मंच में नहीं आ पाये थे।" ऋतु मायूस होकर बोली।

"मन छोटा करने की जरूरत नहीं है। उन सबकी दुआएँ तो साथ थी..कुछ चीजें कही नहीं जाती महसूस की जाती है...बड़े गौरव की बात है कि यहाँ साहित्य में भी भाईचारा आपसी नेम प्रेम , सद्भाव है... जो बहुत कम देखने को मिलता है, मेरे यहाँ तो बहुत खराब माहौल है गुटबाज़ी है...जो भी आगे बढ़ने की सोचता है..उसे पीछे वाला लंगड़ी मार के गिराने की कोशिश करता है।" मैंने समझाया।

"एक बात बताओ ऋतु !!! इधर घर में बहुत जिम्मेदारियां देख रहा हूँ... सयानी माँ जी है, उनकी देखरेख करना...बच्चे तीनों छोटे हैं, इनकी देखभाल...घर समाज में उठना बैठना इन सबके बावजूद लेखन बराबर चलता रहता है। ये कैसे हो पाता है?" मैंने पूछा।

"सुबह उठने से लेकर रात सोने  के बीच में जो भाव आते है...उन्हें अपने काम के साथ-साथ लिख लेती हूँ... सुबह बच्चों के स्कूल जाने और नास्ते के बाद एक घण्टे का समय मिल जाता है आपस में मिक्स कर देती हूँ... ग़जल या कविता तैयार। मेरी पहली प्राथमिकता घर परिवार है...उसके बाद लिखना...और फिर फ़िक्र किस बात की..ये जो साथ में है, हर कदम में सहयोग देते है।" ऋतु अपने पति की ओर देखकर बोली।

वास्तव में आप लोगों के विचारों में बहुत पाकीज़गी है..मेरी नज़र में. आज से आप लोगों का कद बढ़ गया है....मालिक आप सबको इसी तरह खुशहाल रखे।

"न न सर !! कद बढ़ाने वाला आशीर्वाद अभी पेंडिंग रखिये...दरवाजे छोटे है...सर में लग जायेंगे".... जयंत जी मजाक के मूड में बोले। उनकी इस बात पर कोई भी अपनी हंसी रोक नहीं पाया।

"इनकी बातों का बुरा मत मानियेगा...ये ऐसे ही है।" "जैसे भी है...बहुत प्रिय है....फिर आप सभी मेरे बच्चों की तरह है...जो भी मन करे बोलते रहें अच्छा लगता है।"

इसी बीच खाना आ गया था.. सब खा रहे थे...बातें भी चल रही थी...लेकिन छोटी बेटी अनु नहीं खा रही थी, मैंने पूछा...." आप क्यूँ नहीं खा रहीँ?"

नहीँ खाना मुझे...आप झूठ बोलते है.... "कब झूठ बोला?"

भूल गये...जब भैया आपका चश्मा छुड़ा लिया था...तब बोले थे...अच्छे बच्चे!!...

चश्मा दे दो......... रात में कहानी सुनायेंगे।

ओह !! "याद आया.... अभी सुनाता हूँ...आप खाना शुरू कीजिए। एक था राजा....एक थी रानी...."

राजा रानी नहीं ...ओल्ड कहानी है...नहीं सुनना मुझे।

तो ठीक है आप खा ले....सब लोग खा ले....फिर एक सच्ची कहानी सुनाऊँगा...ओके!!

ओके !!

"मैं खा चुकी ....अब कहानी सुनाइये"..... अनु बोली।

सर को खा लेने दे..... अनु !! ....तंग मत कर...ऋतु ने कहा।

ठीक है...मैं सुनाता हूं सच्ची कहानी...सब लोग सुने।

."मेरे नगर से दस किलोमीटर दूर हर पूर्णमासी को काली देवी मंदिर में मेला लगता है.... मंदिर के लगा हुआ एक सुंदर तालाब भी है...जिसमें साफ पानी हमेशा भरा रहता है.....रंग बिरंगे पक्षी तैरते रहते है...रोज सुबह तालाब के बीच में कमल के फूल खिलते है।

मेले में दूर-दूर से दुकानदार बिक्री करने आते है...घर गृहस्थी की जरूरत का हर सामान मेले में मिलता है...चाट फुल्की की दुकानें...बच्चों के खिलौनों की दुकानें भी लगती है।

एक छोटा लड़का अपनी दादी को लेकर मेला देखने गया....दादी ने उसे पूरा मेला घुमाया देवी माता का दर्शन कराया....जलेबी खिलाई....झूला झुलाया। लेकिन दादी कुछ नहीँ खाई।,"

"हा हा हा...दादी के दाँत न रहे होंगे.....बेचारी दादी !!!"  अनु खुश होकर बोली।

"मुझे भी सुनना है...."

'लो सम्हालो ये भी सोकर आ गये".... छोटा बेटा यश जयंत के गोद में आ के बैठ गया।

आगे सुनो.... "दादी लड़के को लेकर तालाब के मेड़ में आ गई...जहाँ चाट वाले ने ठेला लगा रखा था...चाट देखकर बच्चे का मन चाट खाने को हुआ.. वह बूढ़ी दादी का आँचल पकड़ कर बोला.....

" दादी चाट खिला दो न।"

दादी चाट वाले के पास जाकर बोली..." भइया !! बच्चों वाला चाट कितने का बनेगा।"

चाट वाला बोला..." दादी पच्चीस का बनता है...इससे कम का नहीं...चाहे बच्चा खाये या बड़ा खाये।"

दादी चाट वाले की बात सुनकर उदास हो गई..वह लड़के से बोली...." देखो चाट खिला देंगे तो टैक्सी का पूरा भाड़ा नहीं चुका पायेंगे.... टैक्सी वाला घर से तीन किलोमीटर पहले उतार देगा आगे पैदल चलना पड़ेगा। बताओ क्या करना है...चाट खा के तीन किलोमीटर पैदल चलना है या बिना चाट खाये घर तक मजे से टैक्सी से चलना है।"

लड़का बोला..... "दादी हमें चाट नहीं खाना आप घर तक टैक्सी से ले चलो।"

सो दादी लड़के को लेकर टैक्सी से घर आ गई...कहानी खत्म हुई...अब बतायें लड़का क्या सोचकर ऐसा बोला था?

"कोई कुछ नहीं बोलेगा...मैं सोचकर बताती हूँ"... अनु जल्दी से बोली।

" लड़के ने सोचा...दादी जलेबी नहीं खाई...झूला नहीं झुली... अब पैदल चलेगी तो थक जायेगी......थक जायेगी तो पाँव दबाने को बोलेगी।"

तीनों बच्चे खुश होकर ताली बजाते बिस्तर की ओर दौड़ गये।

सुबह मुझे वापस आना था...ऋतु ने टिफिन बना कर रख दिया था....रविवार का दिन था सब मुझे स्टेशन छोड़ने को आये थे...सभी उदास दिख रहे थे......कोई ज्यादा बोल नहीं रहा था। स्टेशन में ट्रेन आकर पहले से खड़ी थी....मेरे बैठने के साथ ही ट्रेन धीरे-धीरे पटरी में चल पड़ी..सभी लोग हाथ हिलाकर अपने-अपने परिजनों को बिदा कर रहे थे। लेकिन जयंत और ऋतु हाथ नहीं हिला रहे थे.....बच्चे भी शांत खड़े-खड़े जाती हुई ट्रेन को अपलक निहार रहे थे उनके हाथ में थी रिश्तों  की मजबूत डोर थी...जिसे मुट्ठी में कस कर पकड़े थे.... दूसरा सिरा मेरे हाथ में था जो ट्रेन के साथ-साथ आगे बढ़ता जा रहा था। मैं ज्यादा देर देख नहीँ सका.. आँखों के ऊपर नम परत आ गई थी...पीछे बहुत कुछ छूट गया था....बहुत कुछ साथ में था......

/समाप्त/

रामानुज श्रीवास्तव अनुज

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रचनाकार: संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 10 - रिश्तों की मजबूत डोर // रामानुज श्रीवास्तव 'अनुज'
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