चिथड़े जितना आकाश // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी

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आँख खुलते ही नवाज़ ने घड़ी में वक्त देखा। छह बजे थे। उसके बाद फिर से उसकी आँखें बंद हो गईं और नींद ने घेर लिया। कुछ देर के बाद उसे महसूस हुआ क...


आँख खुलते ही नवाज़ ने घड़ी में वक्त देखा। छह बजे थे। उसके बाद फिर से उसकी आँखें बंद हो गईं और नींद ने घेर लिया। कुछ देर के बाद उसे महसूस हुआ कि वह जाग रहा था। उसने पूरी तरह से जागने की कोशिश की और खुद को नींद के घेरे से आजाद (मुक्त) करना चाहा, लेकिन उसमें इतनी शक्ति नहीं थी। आँखें खुल रही थीं, फिर से बंद हो रही थीं। उसने खुद को बेहद थका हुआ, बेहद कमज़ोर महसूस किया। वह कितनी ही देर तक अर्ध जागृत और आधी नींद की हालत में रहा। आखिर जाकर नींद की गहराई से उभरकर बाहर निकला और सीधा होकर लेट गया। उसके बाद भी उठने का मन नहीं कर रहा था। नवाज़ ने आकाश की ओर देखा। चिथड़े जितनी जगह खुली हुई थी, जिसमें से आकाश का चौरस टुकड़ा नज़र आ रहा था। जगहों की लंबी दीवारें थीं और उनके बीच में उसकी कुएं जितनी कोठी और तंग आंगन था, जिसमें दो खाट रखने जितनी जगह थी। नवाज़ की खाट भी वहीं पड़ी थी, रसोईघर और नहाने की जगह भी वहीं थी। ऊपर आकाश की ओर देखते नवाज़ की आँखें कभी कभी सामने वाली ऊंची दीवार में अटक जाती थीं। उसने बेहद थकान भरी लंबी उबासी दी और तंग होकर करवट बदली। उसे उठने का ख्याल हुआ, लेकिन वह हमेशा की तरह निष्प्राण (सुन्न) था। उसका अंग अंग सुन्न था, जैसे कि किसी ने निचोड़ दिया था। उसे ऐसा लगा और हर सुबह उसे ऐसा लगता था जैसे कि पूरी रात सोया ही न हो और रात करवटें बदलकर गुजरी हो।

वह न चाहते हुए भी उठा और लंबी उबासी देकर मरणींग (मृत) कदमों से कोठी के अंदर घुस गया। पेटी की तरह बंद कोठी में सांस घुट रही थी। आईना उठाकर मुंह देखा। आईने में नवाज़ को अपना पीला सूखा मुंह नज़र आया और उसने आईना रख दिया। उसने सोचा कि उठते ही वह कोठी में किस काम से गया था। ‘केवल आईने में अपनी शक्ल देखने के लिए!’ वह रोज़ ऐसा ही करता था और फिर उसे खुद पर क्रोध आता था। वह बाहर निकल गया। लोटा लेकर उसे पानी से धोकर खाट पर रखकर, कमीज पहनी। उसके बाद ताला और लोटा लेकर बाहर आया। दरवाजे पर ताला लगाकर, चाबी जेब में डालकर, अंधेरी बदबूदार सीढ़ी से नीचे उतर गया।

नीचे खुला मैदान था। वह पिड़ था जिसके बीच में अल्म धंसा था। पिड़ के तीनों ओर जगहें थीं और दूर रोड था। नवाज़ ने लंबी सांस लेकर फेफड़ों में ताजी हवा भरी। उसके बाद वह सीधे बाजू वाली बिल्डिंग में घुस गया। अंदर भैंस का बाड़ा था। वहां बाजार की तुलना में ज्यादा दूध मिलता था। अंदर एक तख्ते पर दूध की बाल्टियां भरी रखी थीं। बाड़े में माल के भूसे और पेशाब की बू थी। बच्चू नहीं था। शायद ऊपर घर गया था। बाड़े के ऊपर उसका घर था।

नवाज़ बाड़े से बाहर निकल गया और दरवाजे की दीवार से पीठ लगाकर खड़ा हो गया। बाजू वाले घर की बालकनी में शाह कुर्सी पर बैठकर बीड़ी पी रहा था और रह रहकर खांस रहा था। बालकनी के नीचे बच्चू का लड़का सदीक लकड़ियां काट रहा था। उसका बाप दूध का धंधा करता था और सदीक लकड़ियां काटकर बेचता था। सदीक गर्दन नीचे करके लकड़ियां भी काट रहा था और शाह से बातें भी कर रहा था। शाह को थोड़ी बहुत जमीन थी, लेकिन उससे ज्यादा उसका पीरी मुरेदी का धंधा चलता था। महीने के कुछ दिन शहर में रहता था और कुछ दिन गाँव में। वह अधेड़ उम्र का था। रंग का काला और शक्ल मवालियों जैसी थी। नवाज को उसकी पीली आंखों में सफेद गंद नजर आया। उसका जी मितलाने लगा और मुंह घुमाकर दूर रोड की ओर देखने लगा, जहां से रह रहकर कोई रिक्शा या तांगे निकल रहे थे। रोड पर चहल-पहल शुरू हो चुकी थी। एक रिक्शा आकर खड़ी हुई और उसमें से काले बुर्के में एक औरत उतरी। उसकी केवल आंखें नज़र आ रही थीं और मुंह पर नकाब था। यह उनका खास पर्दे का तरीका था। वह धीरे धीरे कदम उठाती पुड़ में आई और शाह की बालकनी से गुजरकर, अंधेरे वाली सीढ़ी चढ़ गई।

‘‘नाईट ड्यूटी करके आ रही है क्या?’’ शाह ने हंसकर कहा और उसकी आंखों का पीलापन गहरा हो गया। सदीक, जो कुल्हाड़ी हाथ में पकड़कर खड़ा था उसने बड़ा ठहाका लगाया और कुल्हाड़ी जोर से तने पर मारा। शाह ने बीड़ी का गहरा कश भरा और हंसते हंसते खांसने लगा।

नवाज़ अंदर बाड़े में घुस गया। बच्चू बाल्टियों का दूध नाप रहा था। उसने एक पाव लिया और वापस लौटा। शाह की बालकनी से गुजरते उसकी गर्दन नीचे थी। उसने शाह और सदीक की ओर देखना न चाहा। उसने सोचा कि वह किस कोठी में घुस गई होगी। उसके बाजू वाली कोठी में या ऊपर की जो कोठियां थीं? अंधेरी सीढ़ियां चढ़ते उसे विचार आया कि उसके बारे में शाह और सदीक क्या कहते होंगे? ‘वे मुझे पहचानते हैं या कुछ और समझते हैं? पड़ोस में लोगों से अलग रहने के कारण हो सकता है कि लोग मुझे पहचानते न हों और मेरे लिए खराब सोचते हों। उन्हें यह पता न होगा कि मैं एक शरीफ आदमी और सरकारी ऑफिस में क्लर्क हूं। वे समझते होंगे कि मैं भी कोई नाईट ड्यूटी करके आने वाली किसी औरत की कमाई पर जीता हूं।’ उसे अपने आप पर क्रोध आया। ‘लोगों को जो चाहिए भौंकते रहें। लोगों के कहने से मैं हो नहीं जाऊंगा।’ दरवाजे का ताला खोलते उसे शाह की कही हुई पंक्ति याद आ गई : ‘‘नाईट ड्यूटी करके आ रही है क्या?’’

‘हुं, नाईट ड्यूटी,’ नवाज़ गुस्से में बुदबुदाया और अंदर जाकर दरवाजा बंद किया। दूध का लोटा चूल्हे पर रखकर, उसके ऊपर थाली रख दी। उसके बाद बर्तन में पानी भरकर ऊपर जाती सीढ़ी के नीचे बने पाखाने का दरवाजा खोलकर अंदर घुस गया। पाखाने की तेज बदबू उसकी नाक में चली गई। उसे विचार आया। मैं इस जगह से शायद मरकर निकलूं और यहां तो मेरी लाश भी जल्दी सड़कर बदबू फैला देगा। कोई और अच्छी जगह मिलने की तो कोई उम्मीद ही नहीं। पूरी उम्र इस काल कोठरी में सड़ सड़कर गुजर जाएगी।’ नवाज़ ने जब पहली बार यह जगह देखी थी तब उसके दिल पर बोझ पड़ गया था। उसे जगह की, और वह भी सस्ती जगह की सख्त जरूरत थी; लेकिन उस जगह में रहने पर उसे कोई खुशी न हुई। ‘मैं भ्रमी नहीं हूं, लेकिन उस वक्त से मेरे दिल में यह भ्रम हो गया है कि यह कोठी मेरे लिए कब्र है। इसमें मेरा कोई दोष भी नहीं। यह केवल भ्रम भी तो नहीं था। जगह है ही ऐसी। आगे और बाजु से बड़ी बड़ी आकाश तक जाती दीवारें और उनके बीच में यह कुएं जैसी बंद कोठी। यह जगह इंसानों के रहने लायक है? या तो मैं इंसान नहीं हूं जो ऐसी जगह पर आकर रह रहा हूं। लेकिन केवल मैं ही तो नहीं हूं। कई और भी जो रहते हैं या रहती हैं! ऐसी अंधेरी छुपी जगह। उनके लिए ठीक है। ये सभी आई कहां से हैं? अच्छा होता बाजार में जाकर रहतीं। वहां भी बहुत हो गई होंगी और जगह नहीं मिलती होगी। और फिर यहां पर इनकी सुरक्षा भी है। आस पास शरीफ लोगों का मुहल्ला है,’ नवाज़ को विचार आया, कि इस जगह से कोई भी आता जाता है, उसे लोग शकी और अजीब नजरों से देखते हैं। ‘हो सकता है यह मेरा भ्रम हो। लेकिन नहीं, मैं यहां रहना ही नहीं चाहता। मुझे इस काल कोठरी से ही नफरत है...’

वह पाखाने से निकलकर बाहर आया। कमरे से ब्रश और पेस्ट लेकर आया और दरवाजे के बाहर जाते नाले के आगे दांतों पर ब्रश करने लगा। वहां से फारिग होकर चाय की छोटे बर्तन को पानी से धोकर डेढ़ कप पानी डालकर, चूल्हा जलाकर उसपर रखा। खुद लकड़ी के संदल पर दीवार से पीठ टिकाकर बैठ गया। घर में रसोईघर नहीं था, इसलिए उसने आंगन के एक कोने में रसोईघर बनाया था। वह सर दीवार से टिकाकर तंग आंगन की लाल ईंटों को देखने लगा। अंदर कोठी में सीमेंट का प्लास्टर और उस पर चूना पुता हुआ था; लेकिन बाहर की दीवारें नंगी थीं। उन पर प्लास्टर नहीं था और न ही चूना पुता था। लाल ईंटें देखकर उसे ऐसा लगता था जैसे कि डरावने जानवर लाल लाल खून से भरी जबानें निकालकर उसे घूर रहे हैं। उसने आँखें मूंद लीं। बर्तन में पानी के उबलने की आवाज आने लगी तो उसने आंखें खोलीं और चाय बनाई। उसने बर्तन उतारकर चाय मग में डाली। रात को ली डबलरोटी लेकर आया और मग में डुबोकर खाने लगा। पहला मग डबलरोटी चूस गई। उसने दूसरा मग भरकर चाय पी, उसके बाद बर्तन और मग को धोकर रखा।

वह कमरे से शेविंग का सामान ले आया। प्याली में पानी डालकर खिड़की पर आकर रखा। आईने को खिड़की की कुंडी पर अटकाकर, क्रीम ब्रश पर रखकर दाढ़ी पर लगाने लगा। उसने ब्लेड निकालकर सेफ्टी रेज़र में डालना चाहा। ‘तीसरे दिन मैंने ब्लेड का कौन-सा बाजू इस्तेमाल किया था?’ उसने याद करना चाहा, लेकिन उसे याद न आया। ‘पता नहीं कौन-सा बाजू था! मुसीबत है। मैं यह बात हमेशा भूल जाता हूं। दिनों दिन मेरी याद्दाश्त कमज़ोर होती जा रही है। अभी परसों ही शेव की थी और ब्लेड रखते वक्त भी याद करने की कोशिश की थी। तो भी बात भूल गया। पता नहीं कौन-सी धार थी। लेकिन इस ब्लेड से तो यह चौथी बार शेव है। ऐसे थर्ड क्लास ब्लेड से चार शेव महंगे तो नहीं हैं। पहले के दो शेव तो हर एक धार से अच्छी बन जाती हैं। लेकिन उसके बाद शेव कुछ मुश्किल लगती है। जैसे तैसे काम चल जाता है। हफ्ते में एक ब्लेड काफी है। मैं कोशिश तो बहुत करता हूं, लेकिन फिर भी बचत नहीं होती जो गाँव में कुछ पैसे भेज सकूं। मैं खुद पर कम से कम पैसे खर्च करता हूं। खींच खींचकर (जैसे तैसे) महीना पूरा होता है। इसलिए तो मैं लोगों से ज्यादा घुलने मिलने से कतराता हूं। दोपहर का भोजन घर में करना मुश्किल है। आदमी ऑफिस से थक हारकर आए तो भोजन करके आधा एक घंटा आराम करे। थकावट और भूख में खाना बनाना मुझसे नहीं होता। लेकिन फिर भी बनाना पड़ता है...’ वह शेव बना चुका था। उसने मुंह धोया और टॉवेल से मुंह को पोंछा। उस वक्त आठ बज रहे थे। वह जल्दी जल्दी में कपड़े पहनने लगा। ऑफिस का वक्त साढ़े सात का था, लेकिन वह पूरे वक्त पर पहुंच नहीं पाता था। रोज डर डरकर जाता था कि आज डांट पड़ेगी। डांट पड़ती तो दूसरे दिन थोड़ा जल्दी जाता था।

वह कपड़े पहनकर जाने के लिए तैयार हुआ, तो किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। सफाई वाली आई होगी! उसने सोचा और जाकर दरवाजा खोला। बाहर सफाई वाली खड़ी थी।

सफाई वाली ने कोई जवाब नहीं दिया और अंदर घुस आई। नवाज़ मटके से पानी निकालकर डब्बे में डालने लगा। ‘इस बूढ़ी ने तो तंग किया है। ऑफिस जाने के लिए तैयार होऊंगा तो ऊपर से आकर ठक करेगी। अगर कोई नौजवान होती तो कम से कम सुबह सुबह कोई अच्छी शक्ल तो देखने को मिलती।’

सफाई वाली सफाई करके चली गई और नवाज़ भी ताला लेकर बाहर आया। दरवाजे को ताला लगाते उसे विचार आया, ‘कुछ लेना भूल तो नहीं गया हूं! लगता है कोई
चीज भूल गया हूं। बहुत भुल्लकड़ हो गया हूं, क्या करूं ? एक बात है कि अगर
कोई चीज भूल जाता हूं तो मन में घूमती रहती है। आज भी घूम रही है। कौन-सी चीज भूल गया हूं?’ उसने दिमाग पर जोर डाला, लेकिन उसे कुछ याद न आया। वह खुद पर चिढ़कर जल्दी जल्दी बदबूदार सीढ़ी से नीचे उतर गया।

(2)

इस वर्ष तो मार्च महीने में ही गर्मियां शुरू हो गई थीं। धूप में ज्यादा तपिश आ गई थी। दिन गर्म हो गए थे, बाकी रात कुछ ठंडी थी। नवाज़ रात को बाहर एक खाट रखने जितने आंगन में सो सकता था, जहां कभी कभी हवा का कोई झोंका लंबी दीवारों से टकराकर उसे आकर लगता था, लेकिन असल समस्या दिन की थी। ऑफिस से लौट आने के बाद वह कहां जाए! पेटी सरीखी बंद कोठी में पंखा भी न लगवाया था। पंखा खरीद करके लगवाना नवाज़ की पहुंच से बाहर था। उसने कई बार सोचा कि पेडस्टल फैन या कम से कम टेबल फैन खरीद करे। इससे लाभ यह था कि दोपहर को कोठी में और रात को आंगन में काम आ सकता था। पगार से जैसे तैसे पूर्ति होती है। उसने ऑफिस से कर्ज लेने की कोशिश की थी, वह काम भी अभी हो न सका था।

गर्मी ज्यादा थी और इसके साथ ही घुटन भी। नवाज़ ने चावल बनाने का विचार उतार दिया। उसने प्याली ली और दरवाजे को ताला लगाकर नीचे उतर गया। उसने पहले दही ली और उसके बाद होटल से दो रोटी लीं और वापस लौट आया। मिर्च की आग से तो फिर भी दही पेट को ठंडा रखती है। उसने खाना खाकर, प्याली को पानी से धोकर रखा।

आंगन जितना टुकड़ा पूरा काला था। उसने कोठी के दरवाजे तक कालीन बिछाकर उसपर तकिया रखकर मुंह आंगन की ओर करके लेट गया। कभी कभी गर्म हवा आ रही थी तो वह अखबार से खुद को हवा करने लगा। ऐसी तपिश में भी उसे नींद घेर रही थी, लेकिन कोठी की घुटन (उमस) और गर्मी के कारण नींद के घेरे से बाहर निकल रहा था। तकिये पर रखी गर्दन पूरी तरह पसीने से भीग गई थी। उसने गीली कमीज उतारी और उसे कुर्सी पर फेंक दी। बनियान तो वह पहनता ही न था। उसने सलवार के दोनों पायों को खींचकर ऊपर घुटनों तक किया और लेट गया।

ऑफिस से आते वक्त उसने सोचा था कि घर नहीं जाएगा। बस में चढ़कर रानी बाग (बगीचा) में चला जाए और वहां लॉन के किसी पेड़ की छाया के नीचे जाकर सो जाए। उसने पिछली गर्मियां भी ऐसे ही काटी थीं। ऑफिस से लौटकर, कल्लू पकौड़े वाले के पास आता था और वहां से डबल रोटी और पकौड़े लेकर, बस में चढ़कर रानी बाग जाता था। किसी गहरे पेड़ की ठंडी छांव के नीचे बैठकर डबल रोटी और पकौड़े खाकर, नल से पानी पीकर लेट जाता था। कभी नींद आती थी, कभी नहीं भी आती थी। लेकिन इन गर्मियों में यह सिलसिला फिर से शुरू करना मुश्किल था। पकौड़े खा खाकर उसका हाजमा बिगड़ गया था। अब वह ऑफिस से लौटकर, होटल से रोटियां लेकर घर आता था और जैसी तैसी भाजी बनाकर खाता था।

पसीने सरीखे बालों में उंगलियां फिराते, उसे याद आया कि उसके बालों में काफी सफेद बाल आ गए थे। बाल तो कभी भी सफेद हो सकते हैं। उसके लिए उम्र की कोई सीमा नहीं। आजकल तो छोटी उम्र के लोगों के भी बाल सफेद होने लगे हैं और उसने सोचा कि उसकी उम्र तो फिर भी 25 वर्ष थी। लेकिन वह इस उम्र में ही बूढ़ा होने लगा था। कम से कम नौजवानी तो उसने देखी ही न थी। उसे याद आया कि जब से उसे होश आया, उसने खुद को बड़ा समझा, घर का पूरा बोझा, सभी जिम्मेदारियां उसके ऊपर आकर पड़ी थीं।

‘मैं न होता तो क्या होता?’ उसने खुद से पूछा। ‘मेरे होने से क्या फर्क पड़ा है! मैंने घर वालों के लिए कौन-से बड़े काम किए हैं। दो पाटों में पिस रहा हूं... पिसकर न आटा हो रहा हूं और न ही जान छूट रही है। एक गहरी पीड़ा है जिससे न दिन छूट रहे हैं न रातें। और इस ज़िंदगी की पूरी प्राप्ति है यह कब्र जितनी कोठी!’ इस वक्त कोठी की घुटन और गर्मी में ज़िंदगी के सभी ज़खम मिल गए हैं।

दिल के किसी दर्दभरे कोने से शहनाज़ की याद लू की तरह उसके तन मन को जला गई। इसी कोठी में शहनाज़ भी रह गई थी। नवाज़ को जब नौकरी मिली थी और वह कम भाड़े वाली जगह की तलाश कर रहा था, तब उसे किसी ने बताया था कि शहनाज़ के लोग वह जगह खाली करने वाले थे। उसे वह जगह शहनाज़ के लोगों ने ही दिलाई थी, लेकिन तब बाज़ारी औरतों ने यहां रहना शुरू नहीं किया था, पाबंदी के बाद उनमें से कुछ यहां आकर रहने लगी थीं।

नवाज़ ने माथे और नाकों पर से बहता पसीना पोंछा। वह और शहनाज़ एक दूसरे को बहुत चाहते थे। फिर अचानक क्या बात हुई जो सब कुछ खत्म हो गया। उसने इस बात पर कई बार सोचा था : ‘जिंदगी मेें इतने बड़े परिवर्तन कैसे आ जाते हैं। व्यक्ति तो वही होता है-फिर भी उसके बाहर और उसके अंदर इतना परिवर्तन हो जाता है जो वह वही नहीं रहता जो पहले था। भावुक सोच ही सही, क्योंकि उसकी उम्र ही ऐसी थी, लेकिन हमने तो ऐसा समझा था कि हम एक दूसरे के बिना जिंदा नहीं रह पायेंगे, फिर जब जिंदगी की कड़वी सच्चाइयां सामने आईं तो पूरी भावुकता फुग्गे के समान फुस्स हो गई। मैं खुद बेरोजगार, रात को सोने के लिए ठिकाना गैरेज और वर्कशाप। वह मुझसे ज्यादा समझदार और मैच्योर थी, तभी तो उसने मुझसे कहा था : अच्छा हो कि हम केवल अच्छे दोस्त बनकर रहें। मैंने उसकी मजबूरियां नहीं देखीं। मैंने समझा कि मेरे पास कुछ नहीं, इसलिए वह मुझसे पीछा छुड़ाना चाहती है। आदमी केवल खुद के लिए ही क्यों सोचता है! हम किसी को कितना भी चाहें लेकिन सोचते केवल खुद के लिए ही हैं और चाहते हैं कि दूसरा भी हमारे लिए ही सोचे। मैंंने क्यों नहीं सोचा कि शहनाज़ कितने मुश्किल हालातों से गुजर रही थी। मैं खुद तो शहनाज़ के लिए कुछ कर न सका। लेकिन उसकी शादी की बात सुनकर मुझे गुस्सा आया कि उसने गाड़ी और बंगले के शौक के लिए खुद को बेच दिया।’

नवाज़ को खुद पर क्रोध आया। ‘कभी कभी आदमी इतना निष्ठुर हो जाता है कि न खुद को देखता है न मजबूरियों को, दूसरों की मजबूरियां देखना तो दूर की बात है। लेकिन आदमी कितना वक्त गंवा सकता है। आखिर तो आईने में उसे अपने आप नजर आ जाता है, उसके बाद समझ में नहीं आता कि आदमी हंसे या रोए। जो अपने हाथों खुद धोखा खाते हैं, वे न हंस सकते हैं, न रो सकते हैं।’

उसने चाहा कि उसे नींद आ जाए, लेकिन ऐसी गर्मी में नींद आना मुश्किल था। जिंदगी ऐसी थी, ऐसी है और ऐसी ही रहेगी। उसे दूर दूर तक किसी परिवर्तन के चिन्ह नज़र नहीं आ रहे थे। भरी दोपहर का यह सफर कहां खत्म होगा? पसीने की बूंदों की तरह दिमाग में यह प्रश्न फूटते रहे और नवाज़ मुंह से पसीना पोंछने के साथ इन प्रश्नों को भी समेटने की व्यर्थ कोशिश करता रहा।

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: चिथड़े जितना आकाश // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
चिथड़े जितना आकाश // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
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