डॉ० हरिश्चन्द्र शाक्य का रेडियो नाटक // घूमती दुनिया //

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पात्र परिचय गजानन बाबू : एक प्रॉपटी डीलर, उम्र लगभग 65 वर्ष आरती : गजानन बाबू की पत्नी, उम्र लगभग 60 वर्ष मगन प्रकाश : एक सरकारी सेवारत व्य...

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पात्र परिचय

गजानन बाबू

:

एक प्रॉपटी डीलर, उम्र लगभग 65 वर्ष

आरती

:

गजानन बाबू की पत्नी, उम्र लगभग 60 वर्ष

मगन प्रकाश

:

एक सरकारी सेवारत व्यक्ति, गजानन बाबू का छोटा भाई, उम्र लगभग 50 वर्ष

दीपा

:

एक गृहणी, मगन प्रकाश की पत्नी, उम्र लगभग 45 वर्ष

रामा

:

एक युवती, गजानन बाबू की बड़ी बेटी, उम्र लगभग 29 वर्ष

लोकेश

:

एक युवक, रामा का पति, गजानन बाबू का बड़ा दामाद उम्र लगभग 30 वर्ष

श्यामा

:

एक युवती, गजानन बाबू की दूसरी बेटी, उम्र लगभग 25 वर्ष

दिनेश

:

एक युवक, श्यामा का पति, गजानन बाबू का दूसरा दामाद, उम्र लगभग 28 वर्ष

शिखा

:

एक युवती, गजानन बाबू की तीसरी बेटी, उम्र लगभग 20 वर्ष

बालकराम

:

एक सेवा निवृत्त व्यक्ति, गजानन बाबू का पड़ोसी मित्र उम्र लगभग 65 वर्ष

(वातावरण में चिड़ियों की चहचहाहट की ध्वनि सुनाई पड़ती है साथ ही वाहनों की पी-पी, पों-पों सुनाई पड़ने लगती है। मन्दिर की घंटियों की आवाज भी आती है। तभी दरवाजे पर खट-खट की आवाज होती है।)

बालक राम- (जोर से आवाज लगाते हुए) गजानन बाबू! अरे ओ गजानन बाबू! सबेरा हो गया है ........... क्या आज टहलने नहीं चलोगे?

गजानन बाबू- अरे! बालकराम भाई साहब! आप आ गये........ आज रात को थोड़ा लेट सोया था इसलिए जल्दी नहीं जाग पाया।

(किवाड़ खुलने की आवाज होती है) बालकराम- मैं तो सोच रहा था कि रोज की तरह तुम्हीं मुझे जगाओगे...... किन्तु जब तुम नहीं आये तब मुझे आना पड़ा। गजानन बाबू- अभी चल रहा हूँ भाई साहब...... एक मिनट ठहरिये।

(जूतों की आहट होती है साथ ही साथ दरवाजा बन्द होने की आवाज होती है) बालकराम- गजानन बाबू! ...... देखो आज कैसा सुहावना मौसम है ............ हल्की-हल्की हवा कैसा आनन्द दे रही है......... सड़क पर अभी किसी का मुँह साफ-साफ नहीं दिखाई दे रहा है।

(दूर से बस के हॉर्न की आवाज, भर्र-भर्र की आवाज पास आती हुई फिर दूर जाती हुई.... इसके बाद मोटर साइकिल की फट-फट गूँजती है जो दूर जाती हुई प्रतीत होती है।) गजानन बाबू- बड़े भाई, आज मुझे गाँव से शहर आये हुए पूरे बीस साल हो चुके हैं।

बालकराम- समय बीतते देर नहीं लगती.......... तुम जब गाँव से आये थे मुझे अच्छी तरह याद है...... मुझे तो लगता है कि अभी कल ही की तो बात है।

गजानन बाबू- बड़े भाई! गाँव में मेरी अच्छी खासी खेती बाड़ी है ........ खूब पढ़ा लिखा होने के बावजूद मैंने नौकरी करने का कभी मन नहीं बनाया।

(हॉर्न सहित ट्रैक्टर की आवाज पहले पास आती हुई फिर दूर जाती हुई।) बालकराम- तब तो नौकरी बड़ी आसानी से मिल जाती थी........ नौकरी के लिए आज जैसी मारामारी नहीं थी........... आज लोग नौकरी खरीदने के लिए लाखों रुपये हाथ पर रखे डोलते रहते हैं।

गजानन बाबू- अध्ययन काल के दौरान मुझे एक अंग्रेजी कहावत 'बिजनेस इज बैटर दैन सर्विस' बहुत अच्छी लगा करती थी...मेरे विचार से कोई सरकारी नौकरी वाला यदि ऊपर की आमदनी न करे तो बिजनेसमेन से उसकी कोई तुलना नहीं है।

बालकराम- गजानन बाबू! .......... तुम तो यदि व्यापार भी न करते तो भी तुम्हारे घर पर क्या कमी थी... सौ बीघा जमीन के मालिक जो ठहरे।

गजानन बाबू- यह तो आप ठीक कह रहे हैं बालकराम भाई साहब!.... आज भी गाँव के सारे खेतिहर मजदूर मेरे खेतों में काम करके ही तो पलते हैं।

बालकराम- तुम तो मुक़द्दर के सिकन्दर हो गजानन बाबू......... मैंने सारी ज़िन्दगी नौकरी की फिर भी तुम्हारी बराबरी नहीं कर पाया।

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गजानन बाबू-

दिल छोटा क्यों कर रहे हो बड़े भाई........ आपके पास क्या नहीं हैं............ कोठी बँगला, कार......... आज्ञाकारी पुत्र........ मान प्रतिष्ठा सब कुछ तो हैं।

बालकराम-

सो तो ऊपर वाले की खूब कृपा है।

गजानन बाबू-

बिना हाथ-पैर चलाये बैठे- बैठे खाना भी अच्छा नहीं लगता है......... कुत्ता भी रोटी का टुकड़ा पूँछ हिलाने के बाद ही खाता है........... धन, पद, मान, प्रतिष्ठा पान की तृष्णा उन लोगों में और अधिक बढ़ जाती है जिनके पास सब कुछ होता है।

बालकराम-

सो तो है।

गजानन बाबू-

यही सोचकर मैंने प्रॉपर्टी डीलिंग का काम शुरू कर दिया था और मैं गाँव से शहर आ गया......... अपनी कालोनी तब नई-नई बन रही थी.......... मुझे भी सस्ता प्लॉट मिल गया था।

बालकराम-

वो तो मैंने सब देखा ही है।

गजानन बाबू- भाई साहब! लोग कहते हैं कि बिना कर्म करे कुछ नहीं मिलता............... और भाग्य से ज्यादा कुछ नहीं मिलता......... किन्तु मुझे तो लगता है कि मुझे तो भाग्य से भी ज्यादा मिला है। (दृश्य परिवर्तन की ध्वनि वाहनों की पीं-पीं, पों-पों के साथ बजती है) आरती- क्यों जी.......... अब तुम्हें गाँव की याद बिल्कुल नहीं आती है।

गजानन बाबू- अरी भागवान!............ हम लोग शहर में ही ठीक हैं.......... जो लोग गाँव में सम्पन्न हो जाते हैं वे अपने आप को गाँव में असुरक्षित समझने लगते हैं............ और सुरक्षा की दृष्टि से शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं......... हम लोग भी शहर में बिल्कुल सही आ गये।

आरती- देखो जी!........ गाँव, गाँव होता है और शहर, शहर............. जो ताजी हवा और प्राकृतिक सौन्दर्य गाँव में प्राप्त होते हैं उनके शहर में कहाँ दर्शन।

गजानन बाबू- देखो आरती! ........... शहरों में प्रमुख समस्या आवास की आती है........... शहरों में नई-नई कालोनियाँ बनती रहती हैं और शहर बड़े होते चले जा रहे हैं।

आरती- यह तो आप ठीक कह रहे हैं.............. दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई जब कभी बसाये गये होंगे तब क्या किसी ने कल्पना भी की होगी कि ये इतना विशाल आकार ग्रहण करेंगे।

गजानन बाबू- गाँव में रहती तो तुम पर कब का बुढ़ापा आ गया होता............ शहर के वातावरण की कृपा से तुम साठ साल की उम्र में भी षोड़सी बाला सी लग रही हो।

(गजानन बाबू व आरती के ठहाकों की मिश्रित आवाज)

आरती-

(हँसते हुए) मैं षोड़सी बाला लगती हूँ तो तुम भी तो अठारह साल के छोकरे ही लगते हो।

गजानन बाबू-

देखो आरती! ......... अपना शहर भी निरन्तर प्रगति कर रहा है ....... अपना प्रॉपर्टी डीलिंग का व्यवसाय भी निरन्तर फल फूल रहा है।

आरती-

इसमें कोई दो राय नहीं।

गजानन बाबू-

गाँव की खेती बाड़ी से अब हम लोगों को कोई खास मतलब तो रहा नहीं........... गाँव के छोटे-छोटे किसान हमारी खेती बँटाई पर कर ही रहे हैं।

आरती-

जब फसल पकती है तो हमारे हिस्से की फसल यहाँ पटक तो जाते हैं............ सच पूछिये तो बड़े ही ईमानदार हैं वे लोग।

गजानन बाबू-

ईमानदारी को ग़रीब लोग ही तो जिन्दा किये हुए हैं.......... जिस दिन इस समाज से गरीबी मिट जायेगी ईमानदारी भी उसी दिन दफन हो जायेगी।

आरती-

चलो बहुत सुन लिया तुम्हारा दार्शनिक भाषण ......... अब कुछ काम की बातें भी करोगे कि नहीं।

गजानन बाबू-

काम-काम-काम............ दिनरात काम ही तो करता रहता हूँ ............ कभी कभी तो मन की बातें करने दिया करो।

आरती-

करो न मन की बातें............ कौन रोक रहा है तुम्हें।

गजानन बाबू-

आरती! ............. तुम्हारी गोरी-गोरी चमड़ी आज भी किसी फिल्मी हीरोइन को मात दे रही है......... तुम किसी अप्सरा से कम खूबसूरत नहीं लग रही हो।

आरती-

बहुत तारीफ किये जा रहे हो मेरे रूप लावण्य की......... मेरा तो सुन-सुन कर गर्व से सीना ही फूला जा रहा है।

गजानन बाबू-

आरती! हमारे जीवन में तो खुशियाँ ही खुशियाँ हैं....... हम लोगों जैसा सुख संसार में किसी-किसी को ही नसीब

होता है।

आरती- सुख और दुख जीवन के दो पहलू होते हैं............ हम लोग तो सुखों के सागर में ही गोते लगाते आ रहे हैं............. दुख से तो हम लोगों का कोई साक्षात्कार ही नहीं हुआ है।

(दृश्य परिवर्तन की ध्वनि गूँजती है और उसमें से कोयल की कूहू-कूहू की आवाज उभरती है)

मगन प्रकाश-

आहा! कैसी सुरीली तान छेड़ रही है कोयल बेचारी।

दीपा-

आज वह मगन है........... कूहू-कूहू कर अपनी खुशी का इज़हार कर रही है।

मगन प्रकाश-

एक बात पूछूँ दीपा?

दीपा-

हाँ पूछिये।

मगन प्रकाश-

तुम्हें मेरा नाम लेते हुए शर्म नहीं आती.......... भारतीय संस्कृति में पत्नियाँ पति का नाम नहीं लेती हैं।

दीपा-

(आश्चर्य प्रकट करते हुए) मैंने कब लिया है आपका नाम?

मगन प्रकाश-

अभी तो कह रही थी कि आज वह मगन है।

(दोनों की खिलाखिलाहट की आवाज गूँजती है) दीपा- आप भी खूब हैं............ मैंने आपका नाम लिया था या कोयल के बारे में बताया था। मगन प्रकाश- चलो बाबा तुम्हीं सही कह रही हो बस............. अब चाय-बाय भी पिलाओगी या नहीं..। दीपा- अभी लायी।

(कप प्लेटों की खनखनाहट गूँजती है ............. मेज पर ट्रे रखने की आवाज)

दीपा- लीजिए।

मगन प्रकाश- (कपों के टकराने की आवाज) भई मजा आ गया तुम्हारी चाय में........ इसमें चाय तो नाम मात्र को पड़ी है....... सारा दूध ही दूध है।

(चाय की चुस्कियों की आवाज) मगन प्रकाश- तुम भी कितनी खूबसूरत हो दीपा........ जी करता है तुम्हें नौकरी पर ही साथ रखूँ। दीपा- अरे छोड़ो जी.......... मुझे क्यों ले जाओगे नौकरी पर........ वहाँ तमाम मेनकाएँ पाल रखी होंगी। मगन प्रकाश- (थोड़ा सख्त लहजे में) मगन सिर्फ दीपा का है.......... दीपा के सिवा अगर किसी का है तो अपने परिवार का। दीपा- आप दोनों भाइयों के प्रेम की तो मिसाल दी जाती है समाज में.......... कितना अगाध प्रेम है दोनों भाईयों में।'' मगन प्रकाश- तुम यहाँ भाई साहब की छत्र-छाया में ही तो रहती हो........ तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के प्रति उन्होंने कभी मन मैला नहीं किया है........... आदमी नहीं देवता हैं मेरे भैया।

दीपा- संयुक्त परिवार व्यवस्था चाहे सर्वत्र टूट रही हो किन्तु हमारा परिवार संयुक्त परिवार का एक आदर्श उदाहरण है।

(दृश्य परिवर्तन की ध्वनि बजती है।)

गजानन बाबू-

समय की गति निरन्तर चलती रहती है.......... अब तक तीन पुत्रियों का बाप बन चुका हूँ........ पुत्र प्राप्ति की अभिलाषा मेरे मन में आज भी है........ तीनों बेटियाँ लगभग शादी योग्य हो चुकी हैं......... तुम्हारी कोख से आखिर बेटे ने क्यों जन्म नहीं लिया आरती!

आरती-

(गहरी साँस लेते हुए) भाग्य के लिखे को कौन टाल सकता है प्राणनाथ!........... क्या मैं नहीं चाहती थी कि मेरी कोख से पुत्ररत्न की प्राप्ति हो......... लड़कियाँ तो परायी अमानत हैं......... एक दिन घर सूना करके चली जायेंगी........ कुल का दीपक तो बेटा ही होता है।

गजानन बाबू-

तुम सच कहती हो आरती........... भाग्य के लिखे को कौन टाल सकता है............ भाग्य ने हमें बेटा दिया ही नहीं........... क्या हम मगन प्रकाश के एक बेटे को गोद नहीं ले सकते .............. मगन प्रकाश के दो बेटे हैं............. एक उनका करोबार देखेगा एक हमारा......... भतीजे और पुत्र में आखिर अन्तर ही क्या है?

आरती-

(झिड़कते हुए) हुँ...... पराये बेटों से कहीं बेटे वाले नहीं बनते।

गजानन बाबू-

तुम तो सगे भतीजों को पराया कह रही हो..........मुझे तो सारे संसार के बच्चे अपने ही लगते हैं।

आरती-

(तेज आवाज में) तो बुला लो न सबको अपने घर .......... देखें बुढ़ापे में कौन सहारा देता है तुम्हें।

गजानन बाबू-

अरी! भागवान तुम चिन्ता मत करो......... तुम अपने बारे में सोचो....... मगन प्रकाश के दो पुत्र तथा दो पुत्रियाँ हैं......... उनके एक पुत्र को हम अवश्य दी गोद लेंगे।

आरती-

मैं देख रही हूँ कि आप अपने भतीजों को बहुत प्यार करते हो........... भतीजों के मोह में आप शायद यह भी भूल गये कि अपकी अपनी भी कोई सन्तानें हैं।

गजानन बाबू-

अपनी सन्तानों को कोई भूल सकता है क्या......... मैंने सचमुच ही यह निर्णय ले लिया है कि अपने एक भतीजे को

गोद ले लेंगे और अपनी सारी सम्पत्ति उसे ही दे देंगे......... हमारी पुत्रियों को भी नहीं लगेगा कि उनके भाई नहीं है......... यही सोचकर मैं अपने भतीजों को अत्यधिक प्यार करता हूँ।

आरती- (तेज स्वर) आपकी अक्ल पर शायद पत्थर पड़ गया है......... आप यह क्यों भूल जाते हैं कि आपकी सम्पत्ति पर सिर्फ आपकी बेटियों का अधिकार है।

गजानन बाबू- तुम शायद गलत समझ रही हो आरती..... मैं अपनी पुत्रियों का विरोधी नहीं हूँ........... मेरी पुत्रियाँ मुझे प्राणों से भी प्यारी हैं....... मैं इनके लिए ऐसे घर-वर तलाशूँगा जहाँ ये राज्य करें........... और मेरी सम्पत्ति की इन्हें जरूरत ही न पड़े।

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(दृश्य परिवर्तन की ध्वनि बजती है इसके बाद चिड़ियों की चहचाहट, गायों के रँभाने की आवाज तथा मुर्गे की आवाज

गूँजती है........ इसी वातावरण में दरवाजे पर खटखट की आवाज होती है।) बालकराम- अरे गजानन बाबू! ...... आज टहलने नहीं चलोगे क्या?

गजानन बाबू- आया भाई साहब आया (किवाड़ खुलने की आवाज) चलो भाई साहब।

(किवाड़ बन्द होने की आवाज) बालकराम- गजानन बाबू! दो बेटियों का विवाह करके अब तो बहुत हल्के हो गये हो। गजानन बाबू- हाँ भाई साहब...... कोई योग्य घर-वर मिलेगा तो तीसरी बेटी की शादी भी जल्दी ही कर दूँगा। बालकराम- आपने अपनी लड़कियों को पढ़ा लिखा कर योग्य बनाया......... इस बात से मैं बहुत खुश हूँ।

गजानन बाबू- भाई साहब! ...... लड़कियाँ इस देश की मातृशक्तियाँ है....यदि इस देश की सारी लड़कियाँ पढ़ा-लिखा दी जायें तो भावी पीढ़ियाँ अपने आप पढ़ी लिखी हो जाएँगी।

(एक कार की आवाज पास आती हुई........ हॉर्न की आवाज के साथ कार की आवाज दूर जाती हुई।)

बालकराम-

सबेरे का वातावरण कैसा मोहक लग रहा है...... सड़क पर कैसी शान्ति है........... थोड़ी देर बाद इस पर भागम भाग चालू हो जाएगी।

गजानन बाबू-

सच कहते हो बालकराम भैया............ कैसी ताजी हवा मिल रही है।

बालकराम-

तुम्हारा संयुक्त परिवार भी एक मिसाल कायम कर रहा है......... आज अपने पुत्र अपने माँ बाप को रोटी नहीं दे पाते........... आपके भतीजे तो आपको सिर पर बैठाये रहते हैं।

गजानन बाबू-

भाई साहब! यदि मन पवित्र है तो भतीजों और पुत्रों में कोई फर्क नहीं होता है।

बालकराम-

सो तो है ......... आपके घर की औरतें भी बड़ी सुलक्षणा हैं........... भाइयों-भाइयों के अगाध प्रेम में औरतें ही तक़रार डलवाती हैं।

गजानन बाबू-

संयुक्त परिवार टूटने के और भी कई कारण होते हैं भाई साहब...... एक बाप दस पुत्रों का पालन पोषण कर सकता है किन्तु वही दस पुत्र जब बाप बूढ़ा होता है तब उस एक बाप का पालन नहीं कर पाते।

बालकराम-

बिल्कुल सही कह रहे हो गजानन बाबू।

(वातावरण में वाहनों की पी-पी-पों-पों उभरती है तथा दृश्य परिवर्तन की ध्वनि बजती है।)

मगन प्रकाश-

काफी रात हो गयी दीपा............. अब सो जाओ।

दीपा-

कैसे सो जाऊँ.... मुझे नींद ही नहीं आ रही।

मगन प्रकाश-

भाई साहब की दो लड़कियों का विवाह हो जाने के बाद हम लोगों का वजन कितना कम हो गया है।

दीपा-

तो क्या आप लड़कियों को बोझ समझते हैं।

मगन प्रकाश-

नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है..... अपने घर की लड़कियाँ तो मुझे बहुत प्यारी हैं।

दीपा-

एक बात कहूँ आपसे........ बुरा तो नहीं मानेंगे।

मगन प्रकाश-

इसमें भी कोई पूछने की बात है........ यदि बुरा लगने लायक पूछोगी तो बुरा माँनूगा....... और यदि भला लगने लायक पूछोगी तो भला मानूँगा।

दीपा-

तो नहीं कहूँगी।

मगन प्रकाश-

नहीं-नहीं........ अवश्य कहो.......... मुँह पर आयी बात रोकी नहीं जाती....... यदि नहीं कहोगी तो यह तुम्हें भी तनावग्रस्त करेगी और मुझे भी।

दीपा-

बात दरअसल यह है कि मैं यह देख रही हूँ कि जब से दोनों लड़कियों की शादी हुई है तब से दीदी कुछ सीरियस रहती हैं।

मगन प्रकाश-

दो लड़कियाँ घर से दूर हो गयी हैं............. अपने ही दिल का टुकड़ा जब दूर चला जाता है तब कुछ न कुछ दुख तो होता ही है।

दीपा-

मुझे ऐसी बात तो नहीं लग रही........ मुझे तो ऐसी शंका हो रही है कि दीदी अपनी सम्पत्ति को लेकर बेचैन रहती हैं।

मगन प्रकाश-

और क्या शंका हो रही है।

दीपा-

भाई साहब हमारे बेटों को अत्यधिक प्यार करते हैं........ शायद दीदी सोच रही हों कि कहीं भाई साहब अपनी सम्पत्ति हमारे बेटों को न दे दें।

मगन प्रकाश-

मुझे तो ऐसा कोई लालच नहीं है कि भाई साहब अपनी संपत्ति हमारे बेटों को दे दें....... उनकी तीन बेटियाँ हैं....... उन्हें ही बराबर-बराबर बाँट देनी चाहिए।

दीपा-

क्या वे हमारे बेटे को गोद भी ले सकते हैं।

मगन प्रकाश-

यह उनका मामला है....... इस बारे में हम क्यों सोचें......... वे जो करना चाहें उनकी मर्जी है......... मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा है कि भाई साहब हमारे पुत्र को गोद ले सकते हैं और उसे अपनी सम्पत्ति दे सकते हैं।

दीपा- तुम न सोचो तो न सोचो............ सारा समाज तो सोच ही रहा होगा।

मगन प्रकाश- दीपा! मैं तो अपने हिस्से में ही सन्तुष्ट हूँ........ मेरी नौकरी भी लगी है और भगवान की दुआ से किसी चीज की कमी नहीं है हमारे पास......... छोड़ो इन बातों को और सो जाओ।

(दृश्य परिवर्तन की ध्वनि)

आरती- देखो आज तुम्हारे पापा घर पर नहीं हैं ........ तुम्हारी चाची अपने बच्चों को साथ लेकर मायके गयी हैं....... और तुम्हारे चाचा तो नौकरी पर हैं ही....... आज एक खास बात करने के लिए आप लोगों को बुलाया है।

समवेत स्वर- हाँ बताइये माँ जीऽऽऽ !

दिनेश- माँ जी सचमुच आप कितनी महान हैं।

श्यामा- लगता है माँजी सचमुच ही हम लोगों का कल्याण चाहती हैं (ठहाका)।

(समवेत स्वरों में ठहाकों की आवाज गूँजती है)

आरती- आज मेरी तीनों बेटियाँ रामा, श्यामा और शिखा तथा दोनों दामाद लोकेश और दिनेश मौजूद हैं .......... मेरे मन में

एक ही बात गूँजती रहती है कि मेरी सम्पत्ति पर तुम लोगों का अधिकार होना चाहिए न कि मगन प्रकाश के बेटों का।

लोकेश- मम्मी जी! पिताजी हम लोगों की सम्पत्ति चाचाजी के लड़कों को देकर हम लोगों का गला काटना चाहते हैं। आरती- क्या करूँ बेटा लोकेश.... बुड्ढा सठिया गया है.......... अब बुढ़ापे में इसकी सारी मति कट गयी है.......... हमें क्या दे दिया है मगन प्रकाश ने......सारी उम्र अपनी औरत की फरमाइश पूरी करने में ही लगे रहे हैं............ नौकरी पर से कभी एक धोती भी मेरे लिए लाये होते तो सबूरी होती ...... भगवान ने उन्हें लड़के दिये हैं सो उनके लिए हैं....... घोड़े की पूँछ लम्बी होगी तो अपनी मक्खियाँ ही तो उड़ायेगा......... हमें भगवान ने लड़कियाँ दी हैं तो लड़कियाँ ही सही ......... पराये बेटों से कहीं बेटे वाले बनते हैं।

लोकेश- माँ जी आप ठीक कहती हैं किन्तु किया क्या जा सकता है...... हम लोगों को इस समस्या का समाधान अवश्य

ढूँढना है।

श्यामा- जीजाजी! हम सब आपकी बात से सहमत हैं....... दीदी रामा तो आपकी पत्नी है........ वह तो वही करेगी जो आप चाहेंगे।

लोकेश- बात अकेली रामा की या मेरी नहीं है...... माताजी, तुम और तुम्हारे पति दिनेश एवं शिखा सभी के हक की बात है.

......... हम लोगों को कोई ऐसा रास्ता अवश्य निकालना है जिससे साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे।

दिनेश- आप सच कहते हैं भाई साहब........ हम सब को मिल जुल कर ही समस्या का समाधान निकालना है........ कोई न कोई तरीका तो हम लोगों को निकालना ही होगा जिससे हम अपनी सम्पत्ति को बचा सकें.... रामा भाभी बताएँगी कोई तरीका।

रामा- मैं अकेली ही क्या बताउँगी दिनेश जी..... जब सब मिलकर सोचे तो कोई न कोई तरीका निकल ही आयेगा। लोकेश- अच्छा माँ जी... अब हम लोग चलते हैं....... शिखा का खयाल रखना।

(दृश्य परिवर्तन की ध्वनि) शिखा- (घबराती हुई चीख के साथ) चाचाजी!....... चाचाजी! ..... चलो देखो पिताजी को न जाने क्या हो गया है....... वे मुँह से झाग डाल रहे हैं।

मगन प्रकाश- (घबराते हुए) यह तू क्या कह रही है शिखा बेटी (दौड़ते हुए कदमों की आहट तथा मगन प्रकाश के फूट-फूट कर रोने का स्वर) भैया ये क्या हो गया........ तुम हम सबको छोड़ गये।

(रोने चिल्लाने की अन्य आवाजों के साथ कोहराम का वातावरण।)


आरती-(छाती पीटने की आवाज के साथ विलाप) हे भगवान तूने ये क्या कर दिया....... मेरे पति परमेश्वर को तूने क्यों छीन लिया........ अरे दइया अब में क्या करूं


शिखा-

(रोते हुए) हाय पापा तुम सबको छोड़ गये।

मगन प्रकाश-

(रोते हुए) शिखा बिटिया! सभी रिश्तेदारों को फोन कर दो।

शिखा-

(रोते हुए) अरे चाचा!....... अब पापा कहाँ मिलेंगे?

मगन प्रकाश-

धैर्य से काम लो बेटी....... देखो तो तुम्हारी माँ सिर पटक-पटक कर रो रही है...... (घबराकर) अरे देखो वे बेहोश हो गयीं।

कई स्वर-

अरे! आरती के चेहरे पर पानी छिड़को........ बेहोश हो गयीं बेचारी।

एक स्वर-

अरे देखो....... शिखा भी बेहोश हो गयी।

दूसरा स्वर-

अरे भाई कोई मगन प्रकाश के बीबी बच्चों को बुलाओ।

तीसरा स्वर-

आ रहे हैं सब लोग.... फोन कर दिया गया है सब जगह।

चौथा स्वर-

अरे देखो आरती को होश आ गया है।

(चूड़ियों के टूटने की आवाज) आरती- (रोते हुए) क्या करूँगी ये चूड़ियाँ पहन कर......... आज तो मेरा सुहाग ही उजड़ गया........ आज मेरा सिन्दूर मेरी माँग से पुछ गया।

बालकराम- (तेज स्वर) क्या पागल हो गयी हो आरती........... चार-चार लोग तुम्हें सँभाल रहे हैं....... ऐसे क्या गजानन बाबू जीवित हो उठेंगे।

(दृश्य परिवर्तन की ध्वनि के साथ फोन की घंटी की आवाज उभरती है) मगन प्रकाश- (स्वगत) जाने किनका फोन आ गया (घंटी बन्द हो जाती है) लगता है अन्दर के रिसीवर पर बात होने लगी है...... चलो मैं भी सुनके देखूँ.......... किससे, किसकी क्या बात हो रही है।

(रिसीवर के उठाने की खटर-पटर के साथ टेलीफोन की हल्की आवाज।) नारी स्वर- जीजाजी! अपना काम हो गया.......... हम लोगों की योजना क्या रंग लायी।

पुरुष स्वर- हम लोगों के अलावा किसी को पता नहीं चला कि तुमने पिताजी को ज़हर दिया है....... भाई मान गये शिखा....... रोने धोने का भी तुमने खूब नाटक किया।

नारी स्वर- क्या आप मम्मी से बात करना चाहेंगे?

पुरुष स्वर- हाँ कराइए।

बूढ़ी नारी का स्वर- हाँ बेटा लोकेश! सब सही निपट गया....... अब जल्दी से जल्दी सारी सम्पत्ति मेरे नाम करा दो। पुरुष स्वर- मम्मी! आपको कुछ बुरा तो नहीं लग रहा है

बूढ़ी नारी का स्वर- सब कुछ अच्छा लग रहा है........ सम्पत्ति के बिना मैं अपने ही घर में दासी बन जाती........ कँगली सुहागिन से मालदार विधवा लाखगुनी अच्छी होती है।

(रिसीवर के गिरने की आवाज) मगन प्रकाश- (स्वगत) अब मैं सारा माजरा समझ चुका हूँ............. सम्पत्ति के आगे रिश्ते नाते का कोई मूल्य नहीं रहा समाज में....... सम्पत्ति के लिए एक पत्नी ने अपना पति मार डाला और पुत्रियों ने अपना पिता....... ईश्वर कभी माफ नहीं करेगा तुम लोगों को......... अरे यह क्या मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकती जा रही है..... मेरी आँखों के सामने अँधेरा क्यों छाने लगा है........ अरे! मुझे तो सारी दुनियाँ ही घूमती नज़र आ रही है।

(धड़ाम की आवाज के साथ नाटक समाप्त होने की ध्वनि गूँजती है।)


- डॉ० हरिश्चन्द्र शाक्य

शाक्य प्रकाशन, घंटाघर चौक

क्लब घर, मैनपुरी-205001 (उ.प्र.) भारत

स्थाई पता- ग्राम कैरावली पोस्ट तालिबपुर जिला मैनपुरी-205261(उ.प्र.) भारत

ईमेल- harishchandrashakya11@gmail.com

(एकांकी संग्रह 'घूमती दूनिया तथा अन्य एकांकी' से साभार। संग्रह प्राप्त करने का पता- निरुपमा प्रकाशन 506/13 शास्त्री नगर, मेरठ उ0प्र0 ईमेल- nirupmaprakashan@gmail.com आई.एस.बी.एन. नं०- 978-93-81050-67-5)

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: डॉ० हरिश्चन्द्र शाक्य का रेडियो नाटक // घूमती दुनिया //
डॉ० हरिश्चन्द्र शाक्य का रेडियो नाटक // घूमती दुनिया //
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