भयभीत हृदय, उतावली उल्का // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी

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एक बड़ा चाकू सूर्य की रोशनी में चमकता, एक बूढ़े ग्रामीण की कोख को चीरता, उदर फाड़ता, बाहर निकल आया, रक्त से भरा हुआ और मरने वाले की केवल एक दबी...


एक बड़ा चाकू सूर्य की रोशनी में चमकता, एक बूढ़े ग्रामीण की कोख को चीरता, उदर फाड़ता, बाहर निकल आया, रक्त से भरा हुआ और मरने वाले की केवल एक दबी हुई हिचकी, और चारों ओर नारे और शोर... इसके कानों में नारे व गालियां, जलता हुआ सीसा बन गया व दिमाग में अंगारे उबलने लगे। गुस्से व डर के कारण उसका कण कण सूख गया। कुछ भी न कर सकने के कारण, बेबसी, आंखों के सामने मौत व टांगों में रक्त जम गया, फिर भी वह मुंह उठाकर भागने लगा। वह चारों ओर से घिरा हुआ था और जल्लादों से घिरा। माहौल में रक्त और बारूद की अजीब बू थी। उसका दिमाग उस बू और डर के अहसास से सुनक् हो चुका था। आवाज उसके पीछे, बाजू से और आगे उसके साथ दौड़ते रहे, और वह उन आवाजों से दूर होने के लिए आवाज से तेज दौड़ने की कोशिश कर रहा था। वह भागता गया, सहमे और डरे कुत्ते की तरह। लेकिन उसे लगा : वह भाग नहीं रहा था, चारों ओर घूम रहा था आवाजों के घेरे में। फिर भी वह भागता रहा। अचानक उसके आगे धमाके के साथ धरती हिल गई। शायद बम फटा था। उसने घूमकर पीछे भागना चाहा, लेकिन उसके आगे काले लाल हरे पीले तारे आ गए, और दिमाग और पैरों का साथ टूट गया। पीछे से, बाजू से, आगे दौड़ते आवाज भी धीरे धीरे कम होते, दूर होते, अचानक बंद हो गए।

वह भागता गया और उसे लगा : वह बहुत दूर निकल आया था, कहां? उसे पता न लग सका। ‘अजीब जगह है, लेकिन नहीं, यह मेरी जानी पहचानी है।’ उसने सोचा। चारों ओर रेत के बड़े बड़े टीले थे, वीरानी थी और वह उस वीराने में अकेला था। रेत पहाड़ों जितने टीलों पर चढ़ चढ़कर उसकी सांस फूल गई। उसे लगा कि यहां भी लोग उसका पीछा कर रहे हैं। उसने तेज चलना चाहा, लेकिन पैर की ऐड़ियां रेत में घुस रही थीं। ‘मैं भाग क्यों रहा हूं! मैंने कौन-सा गुनाह किया है?’ उसने अपने दिमाग पर जोर दिया, लेकिन उसे कुछ भी याद नहीं आया। कुछ लोग मुझे मारने के लिए पीछे पड़े हैं! और कुछ अजीब धुंधली, नहीं लिखी और बे मतलब तस्वीरें उसके दिमाग में उभरकर मिटती रहीं, जो शायद उसके भूतकाल की थीं या वर्तमान की थीं, लेकिन कुछ भी साफ नहीं था। अचानक एक विचार उसके सुनक् हुए दिमाग में बिजली की तरह कड़ककर पैदा हुआ और उलझी लकीरों को मिटाता गया-जिंदगी का बड़ा और भरपूर भाग व्यर्थ और बे मतलब गुजर गया... वह सुनक् हो गया। तभी... तभी... लेकिन मैं उस बे मतलब की जिंदगी व्यतीत करने के लिए मजबूर किया गया हूं। इसमें मेरा कोई दोष नहीं। मुझे अब पता चला है कि मैं उसे बे मतलब में ही पैदा हुआ हूं और मेरे चारों ओर बे मतलब और अजनबीपन है। मैंने पूरी उम्र उस अजनबीपन के धुएं में सांस ली है। मेरी सांस घुट रही है।’ उसे सख्त तकलीफ महसूस होने लगी। मैंने भी सपने देखे थे, अपने घर के, अपने देश के। लेकिन यह मेरा देश नहीं था, मैंने खुद को अपने ही देश में पराया महसूस किया है। अपने ही देश में पराया और बे घर! तभी जिंदगी ऐसे बे मतलब गुजर गई...’ यह पंक्ति बार बार उसके दिमाग में घूमने लगी। ‘लेकिन मैंने उस परायेपन और बे मतलबी को कभी भी दिल से स्वीकार नहीं किया है। मैंने हालातों से समझौता नहीं किया है, इसीलिए तो मुझे देश छोड़ने की सज़ा दी गई है। मैं भाग भागकर यहां आकर पहुंचा हूं, लेकिन यहां भी लोग मेरे पीछे हैं...’ वह सहम गया और जल्दी जल्दी चलना चाहा। ‘यह अजीब बात है कि गुलामों को अपनी गुलामी का अहसास नहीं है और वे उस बेबसी में ही खुश हैं!’ सोच टुकड़े टुकड़े हो गई और टूटे टुकड़े उसके अंदर चुभने लगे। काफी देर तक केवल वही चुभन थी और बेहद पीड़ा थी। धीरे धीरे आकाश में बादल छने लगे और उसके बाद कुछ नहीं था।

होने का अहसास आकाश में भरे बादलों को चीरकर उभरकर आया। उसने खुद को अकेला पाया और चारों ओर रेती का न खत्म होने वाला रेगिस्तान था। उसे विचार आया कि यह रेगिस्तान कभी भी जाग नहीं पाएगा। आखिर वह कहां जाए-कदम कदम पर उसके आगे कई राहें निकल रही थीं और वह उलझा खड़ा था। निर्णय नहीं कर पा रहा था कि कौन-सी राह चुने। राहें अलग अलग थीं और एक दूसरे से जुड़ी हुई थीं और उलझी हुई थीं। कभी कभी वह चल चलकर फिर उसी जगह लौटकर आता था, जैसे कि चला ही नहीं था। उसे लगा कि जैसे वह एक ही चक्कर में फंसा हुआ था जहां से निकलने का कोई भी उपाय उसे नहीं सूझ रहा था। वक्त कैसे बीत गया और बीत रहा था! कभी उसे लगता कि अभी अभी ही यहां पर पहुंचा है, कभी वह समझ रहा था कि उसे चलते चलते कई वर्ष बीत गये हैं। लेकिन वह कुछ भी सही अंदाजा नहीं लगा पाया। इतना समझ रहा था कि उसे काफी वक्त हो गया है। लेकिन अब तो वक्त बीतने का कोई पता ही नहीं चल रहा था।

पैर आग जैसे तपे हुए तवे पर रखे हुए थे और दिमाग थकान से भरा हुआ था। थकावट, लाचारी और एक अजीब दुख का दबा अहसास सभी बांध तोड़कर बाहर निकलने के लिए उतावले थे। अचानक उसके आगे धूल का एक भवंडर उठा और नाचते नाचते दूर होते गायब हो गया। उसे लगा : वह भी केवल एक धूल का बवंडर है और बाकी सब खत्म हो चुका था।

‘क्या, सच में सब कुछ खत्म हो चुका है!’ वह हड़बड़ाया।’ लेकिन मैं लड़े बिना ही हार चुका हूं...’ उसे विश्वास नहीं हो रहा था। ‘मैं एक हारा हुआ इन्सान हूं।’ चारों ओर दूर दूर तक रेत के टीले थे। उसने खुद को देखना चाहा। केवल महसूस करने की हद तक वह वही था, नहीं तो उसमें कोई भी बात ऐसी नहीं रही थी जिसे देखकर कहा जा सके कि वह वही था-या शायद वह था ही नहीं।

‘और मैं सहमा और दुखी हूं!’ उसने खुद को ताने से कहा और हंसना चाहा। ठहाका लगाते उसे आभास हुआ कि वह चीखें और शिकायत कर रहा था। वह एकदम चुप हो गया और इसके साथ सोच भी चुप हो गई।

‘... व्यक्ति केवल एक ही बात पर क्यों ठहर जाता है। घड़ी के पेन्डुलम की हदें हैं, बार बार फिर से उसी जगह लौटकर आता है। वही रास्ता। वही चलना। लेकिन व्यक्ति का ठिकाना एक जगह है ही नहीं, या कम से कम दिमाग तो एक जगह टिककर खड़ा नहीं होता। मैं बहुत तेज चला हूं। मैंने कहीं पहुंचना चाहा। लेकिन कहां? किसी ऐसी जगह जहां आराम मिले। मैं कहीं भी रुका नहीं, या रुका तो मैंने रुकना नहीं चाहा, लेकिन मुझे रुकना पड़ रहा था। हे भगवान! मैं समझ रहा था कि मैं कुछ करूं गा। और लोग भी ऐसा ही कह रहे थे। माँ कह रही थी कि मेरा बेटा बड़ा आदमी बनेगा और हमारे दुख उतर जायेंगे। मुझे ये बातें सुनकर रोना आ रहा था या गुस्सा आ रहा था खुद पर। मैं अपनी माँ के मुंह से उम्र की रेखाएं मिटा नहीं सकता था लेकिन दुख की रेखाएं तो मिटा सकता था और उसने मुझसे कितनी गलत उम्मीदें रखीं। मैं बचपन से ही सपने देखकर खुश हुआ हूं। मैंने तेज दौड़ना चाहा। मैं नहीं दौड़ा था क्या? लेकिन मैंने देखा कि रास्ता बंद था। मैंने इस बंद को तोड़ना चाहा। मैंने सबसे कहा कि माहौल में गुलामी का धुआं है। आप अंधे हैं, गूंगे हैं, बहरे हैं, बेबस हैं। सुस्त हैं। आप गुलाम हैं और गुलामी में खुश हैं। लानत है आप पर। मैं ऐसे माहौल में नहीं रह सकता। नहीं रह सकता... नहीं रह सकता... लेकिन मैं तो रहा हूं। मैं तो हमेशा ही ऐसे माहौल में रहा हूं, मेरे लिए कोई भी भविष्य नहीं। केवल वर्तमान है और कितना तकलीफदेह... कितना डरावना। लेकिन मैं नहीं डरता। डरने की चिंता करने की ज़रूरत क्या है। फिर भी मैं भाग क्यों रहा हूं। जबकि व्यक्ति जानता भी है कि भागने का बचने का कोई रास्ता नहीं। कितना थक चुका हूं भाग भागकर...’

रेत बहुत गर्म थी। नाखुन से चोटी तक दर्द की असंख्य लहरें थीं। वह बैठ गया सांस लेने के लिए। उसे बैठे अभी थोड़ी ही देर हुई थी कि अचानक पीछे से किसी ने उसे धक्का दिया। उसने खुद को गिरने से बचा लिया और हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसने पीछे मुड़कर देखा। केवल अंधकार था जो तेजी से आगे बढ़ता और फैलता गया। उसके बाल खड़े हो गए। ‘आखिर पहुंच गए...’ उसने भागना चाहा लेकिन वह दसों दिशाओं से घिर चुका था। हवा रेत की मुठ्ठी भरकर उसके मुंह, छाती और पीठ को पीट रही थी। उसने अपनी आंखें बंद कर दी थीं। रेत के धक्कों से खुद को बचाने के लिए वह इधर उधर व्यर्थ दौड़ रहा था। ‘पता नहीं चल रहा था कि कब कहां से धक्का लग रहा था। लेकिन अगर पता चले भी, तो उससे क्या फर्क पड़ता। कहीं से भी कोई भी वार हो और भले व्यक्ति देखे, लेकिन जब बचाव कर भी सके। सवाल यह नहीं कि वार हो रहा है। वार हर ओर से और हर तरह का होता है, लेकिन सवाल यह है कि बचाव कैसे करें। समस्या है ही बचाव की। और यहां बचाव की सभी राहें बंद हैं।’ उसे अपनी सांस घुटती हुई महसूस हुई। उसने मुंह को जोर से बंद कर दिया... लेकिन रेत नाक में घुस रही थी। जैसे कि उसके सर पर कोई जोर दे रहा था और उसका दर्द पूरे शरीर में नसों में दौड़ रहा था। उसके पैर रेत में धंसे हुए थे और जैसे वह रबर का गुड्डा था, जिसे कोई जोर देकर फिर से छोड़ रहा था। कंपकंपी थी, लेकिन शरीर के किस भाग में! शायद टांगें कंपकंपा रही थीं या दांत या छाती या शायद पूरा वजूद... ‘किसी भी बात का विश्वास नहीं। हर वक्त बे विश्वास की हालत, अगले पल में क्या होगा, कोई विश्वास नहीं, कुछ भी विश्वास से नहीं कहा जा सकता। क्या पता कब तूफान खत्म हो जाए और यहां तो कई तूफान आए हैं और गुजर चुके हैं। मैंने किसी को कहते सुना है कि हम टीले हैं : उभरने और कुचलने के बाद भी फिर से जन्म लेंगे। खत्म हो जाएंगे और फिर से जन्म लेंगे और केवल टीले ही रहेंगे...’

उसे अहसास हुआ कि उसका मुंह खुला है। उसने जोर से मुंह को बंद किया। दांतों का आपस में या दांतों में रेत की आवाज हुई और वह डर गया। किसी ने दांत तोड़े! उसने हड़बड़ाकर चारों ओर देखा। रेत के बवंडर थे, जो उसके चारों ओर भूतों की तरह घूम रहे थे और वह उन भूतों से डरता, तेज हवा में धक्के खाता, भागता गया। उड़ती रेत उसकी आंखों में घुस रही थी और वह आंखें न्हीं खोल पा रहा था। रेत में दौड़ते गिर गया, फिर भी वह भागने की कोशिश कर रहा था, शायद केवल कोशिश ही कर रहा था। ‘मैं जानता हूं कि यह सारी कोशिश व्यर्थ है। बचने के सभी रास्ते बंद हैं और चारों ओर तलवारें हैं, जो व्यक्ति को धकेलकर लातें मारकर फिर उसी जगह पर ला पटकते हैं जहां से वह भागा था। कोई भी इस कैदखाने से भाग नहीं सकता। मैं चारों ओर से घिरा हूं। मुझे लग रहा है कि कहीं न कहीं से अचानक कोई जाल मेरे ऊपर फेंका जाएगा और मैं फंस जाऊंगा, तड़पूंगा लेकिन सब व्यर्थ और अचानक एक तलवार मेरी छाती में घुस जाएगी...’

उसे भागने का विचार आया और उसने अपनी पूरी ताकत समेटकर भागना चाहा, लेकिन ताकत जैसी कोई चीज बची नहीं थी। पूरा रक्त जैसे रेत चूस गई थी और टांगें सूखकर पथरा गई थीं। केवल हड्डियां थीं जिस पर सूखी चमड़ी चढ़ी हुई थी और हड्डियों के खांचों में पीड़ा भरी हुई थी। उसने जैसे ही पूरा जोर देकर आगे बढ़ना चाहा, तो उसकी टांगें रेत में धंस गईं। वह घुटनों तक फंस चुका था। उसने रेत से पैरों को निकालने की बहुत कोशिश की, लेकिन पैर तो जैसे उसके थे ही नहीं, केवल उसके साथ जुड़े हुए थे। तेज हवा ने उसके आसपास रेत का टीला बनाना शुरू किया, और टीला उसके घुटनों से ऊपर चढ़ता गया। उसने अपने मुंह से और आंखों से रेत हटानी चाही, लेकिन उसे ऐसे लगा जैसे कि उसके हाथ और सर के बीच मीलों का फासला हो। बांहें उसके कंधों से केवल चिपटी हुई थीं। दिमाग का शरीर के किसी भी भाग पर इख्तियार नहीं था और केवल दर्द की बेअंत लहरें थीं।

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रचनाकार: भयभीत हृदय, उतावली उल्का // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
भयभीत हृदय, उतावली उल्का // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
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