चाँदनी और आग // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी

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रेलवे प्लेटफार्म पर वीरानी है। कोई एक दो मुसाफिर प्लेटफार्म पर पड़ी बेंचों पर टांगें फैलाकर लेटा हुआ है। कुली नीचे फर्श पर बैठकर, बीड़ियों के ...

रेलवे प्लेटफार्म पर वीरानी है। कोई एक दो मुसाफिर प्लेटफार्म पर पड़ी बेंचों पर टांगें फैलाकर लेटा हुआ है। कुली नीचे फर्श पर बैठकर, बीड़ियों के कश भरकर आकाश को ताक रहे हैं। एक खोमचे वाले के पास बूढ़ा बीमार कुत्ता पूंछ हिला रहा है। खोमचे वाला कुत्ते को धुतकारकर फिर से अपने काम में लग जाता है। टी स्टाल पर खड़ा व्यक्ति काऊंटर पर ठूंठें गाड़कर, कंधा झुकाकर आधी बंद आंखों से उबासियों के ऊपर उबासियां दे रहा है। एक दो मुसाफिर आते हैं, प्लेटफार्म पर लगी बड़ी घड़ी की ओर देखकर, चुपचाप किसी खाली पड़ी बेंच पर कंधा झुकाकर जाकर बैठ जाते हैं। मेरी निगाहें भी घड़ी की ओर उठ जाती हैं। रात के बारह बजने वाले हैं। मैं प्लेटफार्म पर बेमकसद चक्कर लगा रहा हूं। वातावरण कितना वीरान और सुनसान है। आधी रात हो चुकी है और जैसे जैसे रात गहरा रही है, वैसे ही वीरानी और अकेलेपन का अहसास दिल पर छाता जा रहा है। ऊपर आकाश में चाँद चमक रहा है और नीचे पृथ्वी पर बल्बों की तेज रोशनी... तब भी मेरे मन में इतना अंधेरा क्यों है -.... मैं खुद को ऐसे प्रश्न से बचाने के लिए एक बैंच पर बैठे दो मुसाफिरों के साथ जा बैठता हूं। वे मुझे देखकर चुप हो गए हैं। मैं भी घुटन अनुभव कर रहा हूं। दो व्यक्तियों की बातचीत में अड़ंगा डालना, कितनी न बुरी बात है! लेकिन मैं क्या करूं ... अकेलेपन से डरता हूं, ऊपर से लोगों के बीच बैठता हूं तो परेशान लगता हूं। अकेलेपन का अहसास यहां भी खत्म नहीं होता... क्या करूं ... सभी चुप हैं। दिल चाहता है चला जाऊं, लेकिन चाहकर भी उठ नहीं सकता।

एक व्यक्ति चुप्पी को तोड़ने के उद्देश्य से मुझसे पूछता है।

‘‘साहब, यह मुसाफिर गाड़ी आएगी न!’’

मैं उत्तर देता हूं; ‘‘हां, पैसेंजर गाड़ी तो आएगी।’’

दूसरा कहता है, ‘‘दूर से आती है, इसलिए मुसाफिर टांगें पसारकर सोए रहते हैं, सीट मुश्किल से मिलेगी!’’

‘‘अब कैसे भी करके सफर करना है,’’ उत्तर पहले वाले व्यक्ति ने दिया।

फिर से खामोशी छा गई। मैं सोच रहा था मुझे कहां पहुंचना है... मेरी मंज़िल कहां है... हम सबकी मंज़िल कहां है... हमारी ज़िंदगी ट्रेन की तरह पता नहीं हमें कहां ले जा रही है? आखिरी स्टेशन पर मौत का बोर्ड लगा हुआ है, जो धुंध की वजह से fdLls भी पढ़ने में नहीं आ रहा। लेकिन यह सब सोचने से क्या लाभ? लोग तो खुद को सुनहरे धोखे देकर ऐसे भावों को दबा देते हैं। वैसे ज़िंदगी बसर करने का यही एक अच्छा तरीका है, वर्ना कोई भी व्यक्ति इस दुनिया में मौत के डर की वजह से जी नहीं पाएगा।

(लोग खुद को ठगकर पता नहीं क्या क्या कर देते हैं!)

मैं भी खुद को कोई न कोई धोखा देकर अपने हिस्से की ज़िंदगी जीना चाहता हूं। लेकिन खुद को कौन-सा धोखा दूं! समाज सुधार का ठेका लूं... ज़िंदगी ऐशो आराम से गुज़ारने के लिए धन कमाने के तरीके ढूंढूं... नहीं, मैं एक आम आदमी की तरह ज़िंदगी बसर करना चाहता हूं। एक साफ सुथरे घर में, किसी की हसीन बांहों में, बालों की छांव के नीचे!... हुं, शायरानी बातें, सब बकवास।

‘‘आज गाड़ी लेट लग रही है...’’ पास बैठा व्यक्ति कुछ कह रहा है।

‘‘हां, गाड़ी लेट है,’’ ऐसा कहकर मैं उठ खड़ा होता हूं, और फिर धीरे धीरे चलने लगता हूं।

मैं पूरी उम्र किसी बड़े घने जंगल में चलता रहा हूं। जंगल के अनगिनत पेड़ तेज हवा में सरसराहट करके पता नहीं क्या कह रहे हैं। मैं कुछ न समझते, उनके पास से चला जा रहा हूं, मेरे चारों ओर अकेलापन और वीरानी है। हज़ारों इच्छाओं का बार अपने कंधों पर लेकर चलते चलते थक गया हूं। रह रहकर कोई दबी इच्छा, अचानकर उभरकर सुबकती है तो जंगल की वीरानी में मैं उछल पड़ता हूं, दिल डर जाती है। उम्मीदों की बस्ती अभी और कितनी दूर है?

दूसरे प्लेटफार्म पर गाड़ी आ रही है। सोया प्लेटफार्म अंगड़ाई लेकर जाग गया है। मुसाफिरों, कुलियों और खोमचे वालों की चहल पहल शुरू हो गई है। मैं भी उस ओर गया। गाड़ी प्लेटफार्म पर आकर खड़ी है। मेरे बिल्कुल सामने वाले कंपार्टमेंट की खिड़की से एक बूढ़ी औरत वीरान और खाली नज़रों से बाहर घूर रही थी। उसके बाल बिखरे हुए हैं। शायद नींद में से उठी है, लेकिन फिर भी उसकी शक्ल पर कितनी अजीब वीरानी के भाव छाए हुए हैं। मुझे वह किसी खंडहर के समान लगी परंतु... यह खंडहर मेरे ही आगे आने वाला था!... घबराकर मुंह मोड़ देता हूं।

मेरी गाड़ी भी आ गई है। मैं जल्दी जल्दी प्लेटफार्म की ओर जाता हूं। गाड़ी में ज्यादा भीड़ नहीं है, लेकिन सभी सीटें भरी हुई हैं। लोग सीटों पर सोए हुए हैं, बैठने की भी कोई जगह नहीं थी। मैं आगे बढ़ता गया। इंजन के करीब आकर पहुंचा। इंजन से लगे कंपार्टमेंट में केवल एक बूढ़ी और एक लड़का सोये हुए थे। पहले के दो मुसाफिर भी इधर ही चले आ रहे हैं। करीब आकर, एक कहता है, ‘‘चढ़ जाओ, चढ़ जाओ, पूरा डिब्बा खाली पड़ा है।’’ मैं भी औरों के साथ चढ़कर एक खाली सीट पर जा बैठता हूं।

दूसरा मुसाफिर सीट पर बैठते कहता है, ‘‘इसके बाद अगर औरतें आईं तो उतर जाएंगे।’’

‘‘हमारे बड़े बूढ़े कहते थे कि बिना दाढ़ी औरत और मर्द में कोई फर्क नहीं, इसलिए हम भी औरतों के साथ बैठे तो कौन-सा गुनाह हुआ।’’ उसका साथी अपने चेहरे पर हाथ फेरते बोला।

मैं उस व्यक्ति से पूछता हूं, ‘‘क्यों, ये जनाना डिब्बा है क्या?’’

‘‘आपने बाहर लिखा नहीं देखा क्या? आइए, देखिए...’’ वह मुझे बाहर ले गया और मेरे होंठों पर फीकी मुस्कान फैल गई।

‘‘खैर, कोई बात नहीं, आदम को भी तो ईव के कारण स्वर्ग से निकलना पड़ा। हम भी उतर जाएंगे,’’ हम तीनों हंसने लगे।

काले बुर्के में एक नौजवान औरत एक आधी उम्र के मर्द के साथ कंपार्टमेंट में आकर चढ़ी। हम तीनों एक दूसरे की ओर देखने लगे। औरत और मर्द चुपचाप खाली सीट पर जाकर बैठते हैं।

मेरे साथ बैठा एक मुसाफिर बेवजह उस आधी उम्र वाले मर्द को कहता है, ‘‘असल में यह लेडीज कंपार्टमेंट है, परंतु अगर आपको कोई एतराज हो तो हम उतर जाएं?’’

‘‘नहीं नहीं, आप बैठ सकते हैं। सफर का वक्त है, गुजर जाएगा।’’ धीरे धीरे यहां वहां की बेकार बातें शुरू हो जाती हैं। नीचे सीट पर सोयी बूढ़ी औरत शोर होने पर जागकर आँखें फाड़कर हमें देख रही थी, फिर मुंह फुलाकर सो जाती है।

गाड़ी चलने लगी और थोड़ी देर बाद खिड़की की चदर का पतला पर्दा ऊपर उठ जाता है। मेरा पूरा अस्तित्व ही डर गया, निगाहें डर गईं, डरकर हट गईं। ऐसा लगा जैसे हवा का ठंडा झोंका रूह को छूकर गुजर गया। वह अपने साथ बैठे मर्द से धीरे धीरे बातें कर रही है। उसकी आवाज छोटे मासूम बच्चे समान लग रही है।

मैं खिड़की से बाहर देखने लगा। बाहर धुंधली चाँदनी फैली है। आकाश में बादल दौड़ रहे हैं, चाँद पूरा निकला हुआ है, परंतु जब कोई बादल चाँद को ढक देता है तो चाँदनी धुंधली हो जाती है। अभी भी एक बड़े बादल ने चाँद को ढक दिया है। गाड़ी जैसे किसी चीज से डरकर चीखें करती पहाड़ों के बीच से सरपट दौड़ती जा रही है। धुंधली धुंधली चाँदनी में ये पहाड़ कितने भयानक दिख रहे हैं! चारों ओर खौफनाक वीरानी छायी हुई है। कहीं मेरी भटकती आत्मा भी इन खौफनाक वीरानियों में गायब न हो जाए। डरकर मैं चेहरा अंदर कर लेता हूं। निगाहें उसकी ओर उठ जाती हैं, और एकदम डरकर हट जाती हैं। जैसे चोरी करते पकड़ ली गई हों। मैं पुस्तक लेकर पढ़ने लगता हूं, खाली खाली अक्षर हैं, कोई बात समझ में नहीं आ रही, मन में कुछ अजीब तस्वीरें दौड़ रही हैं। डिब्बा किसी झूले की तरह झूल रहा है लेकिन नींद आँखों से कोसों दूर है। मैं डर डरकर उसकी ओर देखता हूं। वह सीट पर pn~nj बिछाकर लेट गई है। सभी मुसाफिर सो गए हैं, केवल मैं ही जाग रहा हूं। नींद मुझसे रूठ गई है। मैं उसकी ओर देखने लगता हूं। सीट पर सीधा लेटने के कारण और तेज तेज सांसे लेने के कारण उसका सीना अजीब ढंग से ऊपर नीचे हो रहा है। उसे परायों के बीच इस प्रकार नहीं सोना चाहिए। मेरे गले में जैसे कोई कांटा चुभ गया है। जितना ही निगलकर नीचे उतारने की कोशिश कर रहा हूं, उतना ही ऊपर चढ़ता आ रहा है। उसकी आँखें दो बंद कलियों की तरह लग रही हैं। उसके लाल और सूखे होंठों पर एक अनजान मुस्कान फैली हुई है।

अगर उसे पता चल जाए कि एक पराया मर्द उसे इस प्रकार घूर रहा है, तो... नहीं मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए। किसी परायी औरत को इस प्रकार लगातार देखते रहना खराब हरकत है। अब मैं उसकी ओर नहीं देखूंगा। मैं अपनी आँखें बंद कर देता हूं, उसके बाद भी उसका विचार मन से नहीं निकल रहा। वह बहुत खूबसूरत है। चाहे मैं कितनी भी कोशिश करूं, लेकिन उसका विचार मन से नहीं निकाल सकता। मेरे होंठ शोलों जैसे जल रहे हैं, शायद किसी अनजान आग में जल रहे हैं। मैं आँखें खोलकर उसकी ओर देखता हूं। उसके होंठ भी जैसे शोलों की तरह लग रहे हैं। यह मुझे क्या होता जा रहा है... मैं घबराकर आँखें बंद कर देता हूं। लेकिन आग बढ़ती जा रही है, शोले बनकर, पूरे शरीर में जहर की तरह फैलते, जलाते, तोड़ते... वह मासूम और खुमारी नजरों से मुझे देखने लगती है।

‘‘मैंने अपनी पूरी जिंदगी तड़पते गुजारी है। पता नहीं कितने वक्त तक मेरा शरीर प्यास की आग में जलता रहा है। मुझसे वायदा कर, मुझे छोड़कर तो नहीं जाओगे?’’...

‘‘मैं तुम्हारी हूं! तुम्हें छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी...’’ मैं अपने होंठ उसके होंठों पर रख देता हूं, लेकिन होंठों की प्यास बुझने की बजाय और बढ़ती ही जा रही है।

‘‘देख, तेरे और मेरे होंठों की आग आपस में मिलकर शोला बन रही है। हम दोनों उसमें जलकर खाक हो जाएंगे और फिर अमर बन जाएंगे...’’

ओह यह क्या हुआ... मेरा खिड़की पर रखा चेहरा खिड़की से जा टकराया है। होंठ कठोर और ठंडे लकड़े से जा लगे हैं और फट गए हैं। गाड़ी एक झटके से रुक गई है। शायद कोई स्टेशन है। मैं आँखें खोलकर चारों ओर देखता हूं। सभी मुसाफिर सोए हुए हैं, केवल बूढ़ी जाग रही है। स्टेशन देखकर वह अपने लड़के को उठाती है, लड़का उठता है। वह भी आवाज पर जाग गई है। बूढ़ी को देखकर फिर मेरी ओर देखती है। मैं घबराकर मुंह फेर लेता हूं। शायद उसने मेरे दिल का चोर पकड़ लिया है। मैं अब उसकी ओर नहीं देखूंगा। लेकिन मेरे होंठ... वे तो अभी तक शोलों की तरह जल रहे हैं...

मैं खिड़की से बाहर देखने लगा। चाँद पर से बादल हट गये हैं और चारों ओर दूध जैसी चाँदनी फैली है। एक चाँद बाहर चमक रहा है, एक गाड़ी के अंदर है। लेकिन दोनों चाँद मेरी पहुंच से बहुत दूर हैं। मैं वह चकोर हूं जिसके पंख कुतरे हुए हैं। यह मैं अच्छी तरह जानता हूं कि चाँद पर पहुंचना मेरे लिए नामुमकिन है, लेकिन चाँद को देखना भी मेरे लिए पाप है!... पता नहीं क्यों चाँद को देखकर अकेलेपन का अहसास जहर की भांति मेरी नस नस में दौड़ने लगता है। मेरी पूरी ज़िंदगी दुःखों के रेगिस्तान में गुजरी है। पग पग पर दुःख! दिल के खाने से जब भी कोई इच्छा, कोई तमन्ना उभरी है, तो मैंने उसे मरोड़कर अपने सीने में दफन कर दिया होगा। कभी कभी ये दफन की गई इच्छाएं खौफनाक ठहाके लगाकर उठ खड़ी होती हैं और अपने तेज नाखूनों से दिल के ज़ख्मों पर चढ़े तहों को कुरेदकर लहूलुहान करके, नए ज़ख्म पैदा कर देती हैं, मैं उनको जबरदस्ती मरोड़कर फिर से सीने में दफन कर देता हूं। लेकिन उनका बोझा बढ़ता ही जा रहा है, शायद एक दिन इन बोझों के नीचे मैं खुद भी दब जाऊं...

डिब्बे के बाहर भी रोशनी है और अंदर भी रोशनी है, लेकिन फिर भी मेरे दिल में इतना अंधकार क्यों है! चाँद बाहर रेत के टीलों को चमका रहा है लेकिन मेरे दिल की वीरानियों को नहीं चमका पा रहा। दिल की वीरानियां तो इन रेत के टीलों से भी ज्यादा भयानक हैं। अंधेरी रात में रेत के टीले कितने डरावने लगते हैं, लेकिन चाँदनी में ये कैसे चमक रहे हैं! मेरे नसीब में तो केवल अंधेरी रातें हैं। ऐसा क्यों है?... रात की खामोशी, गाड़ी के शोर और चीखों में मेरा प्रश्न दब जाता है। गाड़ी सरकती, गरजती, गहरी गहरी, तेज तेज सांसें लेती कहां भागती जा रही है। उसका शोर मेरे हवासों पर छाता जा रहा है, चारों ओर शोर है, कोई किसी की नहीं सुन रहा... मेरा कोई नहीं! कोई भी तो नहीं... मैं घबराकर उसकी ओर देखता हूं।

उसके होंठों पर मुस्कान है, उसके अर्ध नींद भरे नयन भी जैसे मुस्करा रहे हैं। वह हल्की उबासी देकर करवट बदल रही है। अब तो रात का आखिरी पहर है। मुझे ऐसा लग रहा है, जैसे रात के आखिरी पहर में कोई गुलाब खिल गया है। दिल चाहता है, यह गुलाब देखता रहूं और वक्त का एहसास खत्म हो जाए, गाड़ी चलती ही रही... गुलाब की हल्की-हल्की महक मुझ तक पहुंच रही है। उसकी खुशबू मुझे अपनी ओर खींच रही है। लेकिन फूल अनगिनत कांटों में गुत्था हुआ है। मेरा हाथ बढ़ेगा तो लहूलुहान हो जाएगा, कांटे उसे फूल तक पहुंचने नहीं देंगे; छूने भी नहीं देंगे।

और लोग भी जाग गए हैं और अब सामान बांध रहे हैं, शायद आने वाले स्टेशन पर उतर जाएंगे। क्या वह भी उतर जाएगी! मैं अपने इस विचार पर फीकी मुस्कान बिखेरता हूं। उसका और मेरा आखिर रिश्ता ही क्या है! कुछ नहीं...कुछ नहीं... जल्दी ही सूर्य निकलेगा और आज की रात केवल एक सपने की हैसियत इख्तियार (प्राप्त) करेगी। वह अब तैयार हो गई है। उसकी आंखें अभी तक अर्ध नींद में हैं। रह रहकर मेरी ओर देख रही है। मेरी ओर क्यों देख रही है!... कुछ देर बाद वह चली जाएगी-भले चली जाए, लेकिन मेरी ओर क्यों देख रही है! उसे मेरी ओर नहीं देखना चाहिए।

चाँदनी धुंधला गई है, धुंधली चाँदनी से वीरानी बरस रही है, रेत के टीले पुराने खंडहर लग रहे हैं। दूर शहर की रोशनी नजर आ रही है। लाखों करोड़ों बल्ब तारों की तरह चमक रहे हैं। वह बड़ी उबासी देकर मेरी ओर देखती है। उसे क्या हो गया है, मेरी ओर क्यों देख रही है!... शायद ऐसे ही बेवजह देख रही है... गाड़ी शहर के एक लोकल स्टेशन पर आ रुकी है। वे उतर रहे हैं। मुझे दूसरी लोकल स्टेशन पर उतरना है। वैसे भी मैं शायद इनके साथ न उतरूं... वह प्लेटफार्म पर खड़ी है। अब शायद आखिरी बार मेरी ओर देखेगी, उसके बाद चली जाएगी और समुद्र जैसे फैले शहर में पता नहीं कहां गायब हो जाएगी। वे अब जा रहे हैं, वह आखिरी बार पीछे मुड़कर मेरी ओर देखेगी... लेकिन आखिर क्यों देखे मेरी ओर! नहीं उसे एक बार तो मेरी ओर देखना चाहिए। आखिरी... ओह! भयानक आवाज कहां से आई? शायद कोई इंजन शंट कर रही है, मेरी गाड़ी भी एक भयानक चीख मारकर चलने लगी है। अभी ही स्टेशन को छोड़कर आई है। चारों ओर बल्बों की तेज रोशनी है, फिर भी मेरे दिल में काला अंधकार क्यों है! ऊपर आकाश में चाँद कितना बेचारा लग रहा है। हल्का हल्का और धुंधला! मैं खिड़की से मुंह निकालकर, आँखें बंद करके चाँद की ओर देखता हूं, और एक अकेली गर्म आँसू की बूँद हवा में पता नहीं कहां उड़ जाती है।

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श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक 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रचनाकार: चाँदनी और आग // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
चाँदनी और आग // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
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