रात का रंग // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी

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वह करवट बदल बदलकर परेशान हो गया, फिर भी उसने उठना नहीं चाहा। घड़ी में वक्त देखा, जबकि कुछ ही देर पहले वक्त देख चुका था। अभी तक दस भी नहीं बजे...


वह करवट बदल बदलकर परेशान हो गया, फिर भी उसने उठना नहीं चाहा। घड़ी में वक्त देखा, जबकि कुछ ही देर पहले वक्त देख चुका था। अभी तक दस भी नहीं बजे थे। वैसे उठने का वक्त आठ बजे का था। दस बजे ऑफिस की गाड़ी लेने आती थी। लेकिन आज मरुस्थल जैसा दिन था। छुट्टी का दिन था। दिन बड़ी मुसीबत बन जाता था, इतना बड़ा दिन जो पूरा होने का नाम ही न लेता था। ऐसा लगता था जैसे सूर्य भी उस दिन छुट्टी करता था, और सुस्ती से सरकता सांस लेता जाता था। उसे डर था कि आंख खोलने से वही देखी हुई आकृतियां नज़र आएंगी, वही रोजमर्रा की वही बातें करनी पड़ेंगी। उसके पार्टनर वक्त काटने के लिए बैठकर ताश खेलते रहेंगे और खुद उन्हें खेलते हुए देखेगा। उसे खेलना नहीं आता। ज्यादा से ज्यादा कोई पुस्तक उठाकर पढ़ेगा लेकिन अब तो पुस्तकों से ऊब चुका था। ध्यान से पुस्तक नहीं पढ़ सक रहा था। पेज के पेज पढ़ने के बाद उसे अहसास होता था कि पता नहीं क्या पढ़ गया। फिर पन्ने पलटकर दोबारा पढ़ता था। पिछले एक वर्ष से लगातार उसकी ऐसी हालत थी-रुटीन लाईफ, ऊब, मुर्दापन; ज़िंदगी का, परिवर्तन का, रंगीनी का एहसास मृतप्राय।

‘ऐसा लग रहा है जैसे कि कई वर्षों से फ्रीज़र में बंद पड़ा हूं और जमकर बर्फ बन गया हूं। लेकिन बर्फ तो बाहर निकलने पर गल जाती है और पानी बहने लगता है। बहता पानी मुझे अच्छा लगता है। ठहरा हुआ पानी देखकर मन परेशान हो उठता है बहते पानी की भांति व्यक्ति भी चलता रहे। एक ही जगह जम न जाये।

उसने आंखें खोलकर देखा। उसके सभी पार्टनर अभी तक सो रहे थे, बड़े मज़े से। वे माहौल से तालमेल न बिठाते हुए भी ठीक ठाक थे। उन्हें कचहरी लगाने, फालतू बातें करने, डींगें हांकने में मज़ा आता था। वे सभी सामान्य प्रकार के व्यक्ति थे। ‘व्यक्ति हो तो सामान्य हो, वर्ना ऐबनॉर्मल व्यक्ति के लिए जो अहसास हो भी तो उसके लिए ज़िंदगी सज़ा है। मुझमें बेज़ारी पहले से ही थी। अपने आप से बेज़ारी, हालातों से बेज़ारी परंतु अब यह ऐहसास बढ़ता जा रहा है, लहर की तरह मेरे ऊपर चढ़ता जा रहा है। हालातों का खत्म न होने वाला बहाव है। बस में कुछ भी नहीं। केवल बेबसी, मजबूरी और परिणाम स्वरूप गुस्सा और नफरत खुद से, क्योंकि लग रहा है कि दोष खुद का ही है। दुनिया से, माहौल (घटनाओं) से ‘एडजेस्ट’ नहीं कर पाता। व्यक्ति औरों के लिए परेशानी तो है ही, खुद के लिए भी परेशानी है। जब कोई व्यक्ति अपने आप के लिए नर्क बन जाए तो उसके लिए ज़िंदगी काटना कितना मुश्किल काम है। मुझे लगता है कि मैं ऐसा ही हो गया हूं। मैंने ऐसा चाहा नहीं था, लेकिन चाहने न चाहने से फर्क क्या पड़ता है। हकीकत यह है कि यह सब कुछ जो हुआ है, वह पता नहीं कैसे धीरे धीरे या अचानक हो गया... मुझे पता भी न चला कि मैं बीमार बन गया हूं।’

पार्टनर एक के बाद एक उठने लगे। उसने फिर से आंखें बंद करके सोने का ढोंग किया। उसकी परेशानी बढ़ती गई। कुछ देर बाद उसकी दिल ने चाहा कि उठकर चीखे। गुस्से में लात से चादर हटाकर वह उठ बैठा और फिर रिवाज के अनुसार तैयार होने लगा।

‘‘पार्टनर आज कहां की तैयारी है?’’ एक ने पूछा।

‘‘दोस्त को वक्त दिया है,’’ उसने संक्षेप में उत्तर दिया।

‘‘यार, कभी हमें भी वक्त दो, आखिर हमारा भी तो अधिकार है।’’

‘‘आप लोगों के साथ रहता हूं, गपशप करते हैं इससे ज्यादा और क्या कर सकता हूँ!’’

‘‘छोड़ यार, रात को पता नहीं कब आते हो और सुबह तुम सोये ही पड़े रहते हो तो हम चले जायें। कभी आदमी सामने बैठकर गपशप करे, तभी मज़ा है।’’

‘‘हम तो इनके साथ गपशप करने के लिए उतावले रहते हैं,’’ दूसरे पार्टनर ने कहा।

‘‘यह तो आप लोगों का प्यार है, क्या करें-नौकरी ही ऐसी है। वैसे, आज मैं जल्दी लौटकर आऊंगा, उसके बाद गपशप करेंगे।’’

‘और उस गपशप में मैं केवल सुनने वाला रहूंगा (होऊंगा), उसने मन में कहा।

ज्यादा खिंचाव से बचने के लिए वह जल्दी तैयार होकर बाहर निकल गया।

छुट्टी होने के कारण बस में भीड़ कम थी। लोग आराम से खड़े हो रहे थे। किसी और दिन तो बस में खड़े होने की भी जगह न मिलती। लोग ऐसे भरे रहते हैं जैसे ट्रक में भरी हुईं भेड़ें और बकरियां। कम ऊब, पसीने की बदबू, लातें, कंडक्टर की चहल पहल।

सदर, सेल्फी - जहां लोगों से ज्यादा मोटर कारें होती हैं, वहां आज वीरानी थी। केवल होटलें खुली हुई थीं, लेकिन उनमें वह शोर नहीं था। फुटपाथों पर पुरानी पुस्तकें रखी हुई थीं। ढेर में से कभी कभी अच्छी पुस्तक निकल आती है और वैसे पुस्तक ढूंढते वक्त भी कट जाता है। वह कुछ देर तक पुस्तक देखता व ढूंढता रहा। इस बार कोई भी अच्छी पुस्तक नज़र नहीं आई। ‘‘अंग्रेज़ी में इतना सारा ट्रैश लिटरेचर लिखा जाता है! यह किस प्रकार के लोग पढ़ते होंगे?’’ आखिर वह थककर उठा।

वह बोरी बाज़ार की सुनसान गलियों में, ऐल्फी, विक्टोरिया रोड और रीगल के आसपास भटकता रहा। एक प्रकार के लोग हैं जिन्हें वक्त नहीं मिलता और मेरे लिए वक्त काटना बड़ी समस्या है। यह मरुस्थल जैसा दिन आखिर कब खत्म होगा? (जब तक मरुस्थल जैसी ज़िंदगी है) इतने बड़े जगमग शहर में मेरा वक्त नहीं कट रहा, जहां वक्त काटने के लिए हर चीज़ उपलब्ध है। लेकिन ये चीज़ें रास्तों पर गिरी हुई तो नहीं पड़ी हैं...’

चलते चलते उसकी टांगों ने जवाब दे दिया। वह पैराडाइज़ सिनेमा के पास रेलिंग पर बांहें रखकर खड़ा रहा। एक-दो कारें गुज़रती रहीं। एक दो कारों में उसे जानी पहचानी आकृतियां नज़र आईं और उसने मुंह फेर लिया। उसे ख्याल (विचार) आया कि वे उसके बारे में क्या सोचते होंगे कि फालतू लोगों की तरह और अजीब नज़रों से घूर घूरकर देख रहा है लानत है। जिसे जो चाहे जाकर सोचे। मैं अपने आप से भी डरूं और दूसरों से भी डरूं ... बड़ा नीच हूं, निम्न (छोटा-मामूली) हूं। हीन भावना का मरीज हूं। मुझे खुद से घृणा है... घृणा है...’ उसने रेलिंग पर ज़ोर से घूंसे मार दिए, उसके हाथ कांपने लगे। उसे ऑफिस में हुई कल की घटना याद आ गई।

‘‘जी?’’ लड़की ने उससे तीसरी बार पूछा : ‘‘माफ कीजिए, मुझे आपकी बात समझ में नहीं आई!’’

‘‘कहता है कि तुम्हारे कागज़ अभी तक पढ़ न सका हूं। अब जल्दी पढ़कर, खत द्वारा बताऊंगा,’’ दूसरी लड़की ने सहेली को समझाते कहा।

वह बेवजह कागज़ों को उलट पलट रहा था। निगाहें कागज़ों पर थीं, लेकिन पूरा ध्यान लड़कियों की बुदबुदाहट की ओर था।

‘‘इतना धीरे बात करता है कि मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा। पता नहीं तुम कैसे समझ जाती हो?’’

‘‘पहली बार में तो मैं भी नहीं समझ रही।’’ दोनों मुंह पर हाथ रखकर हंसने लगीं। उसके शरीर से पसीना बहने लगा। उसे ख्याल आया कि ज्यादा देर तक चुप रहा तो चूतिया (बेवकूफ) लगूंगा।

कोशिश करके उसने बड़े आवाज में कहा : ‘‘आप पास में ही रहते हैं या दूर?’’ उसे अपनी आवाज कुछ ज्यादा ही बड़ी लगी।

‘‘नहीं, मेरा घर काफी दूर है। कराची में सवारी की बड़ी समस्या है। रिक्शाओं वाले तो बिल्कुल नवाब हैं। जिस ओर वे जाना चाहें तो मुसाफिर भी उसी ओर जाएं...’’

‘‘आपके काम में थोड़ी देर लगेगी,’’ बीच में वह दूसरी बात कर बैठा। लेकिन लड़की ने उसकी बात नहीं समझी।

‘‘हां, यह रोज की मुसीबत है। रिक्शा वालों को बोलने वाला कोई नहीं है। पुलिस से तो इनका हिसाब-किताब (मिलीभगत) होता है, इसलिए शिकायत का कोई असर नहीं होता।’’

‘‘हकीकत में पूरा निज़ाम ही ऐसा है। हमारे यहां भी आपको बेवजह देर हो गई है,’’ उसने मजाक पैदा करने की कोशिश की।

‘‘जी!’’

दूसरी लड़की हंसने लगी : ‘‘दोनों एक दूसरे की बात नहीं समझते।’’

वह टूटकर टुकड़े टुकड़े होने लगा।

‘‘साहब, आप यहां खड़े हैं?’’ उसने हड़बड़ाकर देखा, सामने ऑफिस का कोई व्यक्ति खड़ा था।

‘‘ओह! मैं यहां टैक्सी के लिए खड़ा था,’’ उसने जान छुड़ानी चाही।

‘‘साहब, यहां तो टैक्सी मिलना मुश्किल है। मैं आपके लिए लेकर आऊं?’’

‘‘नहीं नहीं, तुम जाओ, मैं खुद ही लेकर आऊंगा।’’

वह उसे अजीब नजरों से देखता चला गया।

‘‘लोग कहीं भी नहीं छोड़ते। मेरी मर्जी, मैं कहीं भी खड़ा रहूं।’’ वह वहां से चलने लगा। सामने होटल पर नजर गई। अंदर चला गया और खाली टेबल पर जाकर बैठ गया। बैरा (वेटर) पानी का ग्लास लेकर आया। चाय लाने के लिए कहकर, उसने आसपास देखा। पूरी होटल में उसके अलावा और कोई भी अकेला नहीं था।

‘‘तुम इतना धीरे क्यों चल रहे हो? ऐसे संभल संभलकर कदम उठाते हो, जैसे डर रहे हो कि कहीं धरती (पृथ्वी) को तकलीफ न हो,’’ एक मित्र ने कहा था। लेकिन फिर बाद में जब उसने इस बात पर गौर किया था तो उसे मित्र की बात सही लगी थी।

‘जिंदगी जीने के काबिल नहीं या मुझमें जीने की चाह (मादा) नहीं। जीना भी एक कला है, जो मुझे कभी न आया। ऐसी अपूर्ण, गलत और बेकार जिंदगी जीने का क्या लाभ। मौत तो कभी भी आ सकती है, फिर आदमी बैठा इंतज़ार करे और तकलीफें सहन करे!’’

पहले कई बार सोची हुई बात उसके दिमाग में फिर आई। पता नहीं कितने समय तक मैं उस पर सोचता आया हूं। लेकिन अब, इस वक्त मुझे पक्का इरादा (निश्चय) करना चाहिए। मेरे लिए यही एक इज्जतदार तरीका है, नहीं तो मैं अपने आप से नफरत के नर्क में जलता रहूंगा। मुझे आज ही अपना अंत करना चाहिए, आज ही...’ उसने पक्का निश्चय किया। उसके आगे टेबल पर प्लेट में बिल रखा था। उसे हैरानी हुई कि कब उसने चाय पी ली। कप खाली था और उसके तल में थोड़ी बची हुई चाय थी।

जेब से पैसे निकालते उसने सोचा कि कौन-सी जगह ठीक रहेगी। उसे समुद्र का ख्याल आया। ‘हां, समुद्र ज्यादा ठीक है। समुद्र ने हमेशा से मेरे मन को अपनी ओर खींचा है। समुद्र देखकर मुझे खिंचाव के साथ हैबत (दुख) महसूस होती है। मैं खुद को समुद्र के बे अंत कालेपन में गुम कर दूंगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा। मैं यह नहीं चाहता कि लोग मेरी मौत पर बातें करें। जीते जी तो मुझपर बातें करते रहते हैं, लेकिन मैं उन्हें अपनी मौत पर बातें करने नहीं दूंगा। किसी को मेरी खबर तक नहीं लगेगी।’

वह उठ खड़ा हुआ और किल्फटन की ओर जाती बसों के अड्डे की ओर चलने लगा। एक बस अड्डे से चलने वाली थी। छुट्टी होने के कारण किल्फटन की ओर जाती बसों में ज्यादा भीड़ थी। उसने दूसरी बस का इंतज़ार करना नहीं चाहा। चलती

बस में चढ़ने के लिए दौड़ा। उसका हाथ डंडे में पड़ गया और पैर ऊपर उठ गये। और भी कई लोग बाहर लटक रहे थे। केवल उसके एक पैर को ही फुट बोर्ड पर जगह मिल पाई और दूसरा पैर लटकता रहा। हाथ मजबूती से पकड़े हुए थे।

‘अगर मैं केवल यह हाथ छोड़ दूं तो देर ही नहीं लगेगी। वहीं काम पूरा हो जायेगा, लेकिन यह ठीक नहीं। मैं अपनी मौत को तमाशा बनाना नहीं चाहता। मौत की पब्लिसिटी मुझे अच्छी नहीं लगती। साफ है कि बस रुकवाई जाएगी। लोग इसे इत्तफाकी दुर्घटना कहेंगे, लेकिन इसके साथ ही मुझे बेपरवाह और बस के दरवाजे पर लटकने वाला शोबाज (शोमैन) समझेंगे। रिश्तेदारों, मित्रों और पहचान वालों को मेरी बेवकूफी पर आश्चर्य होगा। बस में सफर करने वाले सभी लोग मुझे गालियां देंगे कि मेरे कारण उन्हें देर हो गई। बस का गरीब ड्राइवर और कंडक्टर फंसेंगे। ये सब बातें हैं, लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि हो सकता है कि मैं मरूं ही नहीं, बस से तो दूर जाकर गिरूंगा, केवल हाथ पैर टूटें और अपाहिज बन जाऊं। इस वक्त खुद पर बोझा हूं, बाद में औरों पर बोझा बन जाऊंगा।’ विचारों का सिलसिला टूट गया। आगे खड़े व्यक्ति का पूरा बोझा उसके ऊपर पड़ रहा था और उसके हाथ की पकड़ ढीली पड़ रही थी। उसने उस व्यक्ति को अपनी छाती से ढकेलते गुस्से से कहा, ‘‘भाई साहब, खुद को सम्हालो, गिरा रहे हो।’’

व्यक्ति ने उसकी ओर गुस्से से देखा : ‘‘मुझे भी दूसरे लोग धकेल रहे हैं,’’ लेकिन फिर भी उसने खुद को सम्हाला।

कुछ देर तक दिमाग को आराम मिल गया। वह पूरे रास्ते खुद को मजबूती से संभालने की कोशिश करता रहा। बस किल्फटन पर आकर खड़ी हुई तो उसे केवल हाथ खोलना पड़ा और आसानी से उतर आया। हाथ में दर्द हो गया था और हथेली लाल हो गई थी। वह चलता हुआ समुद्र की ओर आया। बच्चे, महिलाएं और मर्द इधर उधर दौड़ रहे थे, ठहाके लगा रहे थे, सभी खुश थे या खुश होने का ढोंग कर रहे थे। वह खुद भी तो ऐसा ही करता आया था, दोस्तों और पहचान वालों के आगे, मुंह पर शांति होने की, खुश होने का झूठा नकाब चढ़ाकर। जब अकेले में वह यह नकाब उतारता था तो उसका मन भर आता। चाहता कि उस वक्त कोई हो, जो उसके मन को समझ सके।

- तुम्हारा चेहरा इतना Expressionless (संवदेनहीन) क्यों है?

- तुम हमेशा Confuse (उलझे) और दुखी क्यों रहते हो?

- तुम चुपचाप किन विचारों में खोये रहते हो?

- तुम्हारे होंठ हिलते रहते हैं, होंठों में क्या बुदबुदाते रहते हो?

- तुम में फुर्ती नहीं है! लगता है जैसे खुद से ही परेशान हो... और उसने खुद से पूछना चाहा, ‘तुम इतने वक्त तक ज़िंदा क्यों हो?’

अचानक वह ज़ोर से चीखा : फालतू... एकदम हड़बड़ाकर आसपास देखा। पागलों की तरह चीखने पर उसे शर्म आई। लेकिन उसे आश्चर्य हुआ कि किसी का भी उसकी ओर ध्यान नहीं था। लोगों ने जान बूझकर उसकी ओर ध्यान नहीं दिया या... या कोई और बात थी। उसकी सांस घुटने लगी। तभी उसे एहसास हुआ कि यह चीख उसके गले में ही घुटकर रह गई थी। उसे खुद पर क्रोध आया। ‘बुज़दिल, डरपोक... जो कुछ चाहता हूं, वह कर नहीं पाता, एक चीख भी नहीं!’ उसे रोना आ गया, वह भी अंदर ही अंदर। बाहर कुछ न था। ठहरा पानी, जमा हुआ, बर्फ बना हुआ-अंदर गहराई में पानी उबल रहा था और पीड़ा थी जलने की।

वह किनारे पर बने पत्थर की दीवार पर चढ़कर बैठ गया और समुद्र की ओर देखने लगा। कुछ घंटों के बाद वह खुद को उन लहरों के हवाले करने वाला था।

वक्त रेती की भांति उसकी मुठ्ठी के कोनों से सरकता जा रहा था। उसे विचार आया कि इतने सारे लोगों के आगे वह नहीं मरेगा। वह उठा और किनारे किनारे चलता रहा किसी सुनसान और सही जगह की तलाश में। वह लोगों, लोगों के ठहाकों और बच्चों के शोर से बहुत दूर निकल आया। वहां केवल समुद्र का शोर था और उसके ऊपर सफेद पक्षी उड़कर चीख रहे थे। लहरें उसके पैर भिगोने लगीं। उसने पीछे देखा, दायें बाएं देखा और फिर समुद्र की ओर देखा। उसके आगे जहां तक नज़र जा रही थी बेअंत समुद्र था, समुद्र की छोटी-बड़ी लहरें थीं और समुद्र का पहाड़ था। उसने खुद को बेहद अकेला, बेचारा और बेबस पाया। उसने पूरी जिंदगी ऐसा ही महसूस किया था। ‘आखिरी लम्हों में जब मैं अपनी मर्ज़ी से कुछ कर रहा हूं, फिर भी खुद को बेचारा महसूस कर रहा हूं!’

बायीं ओर पहाड़ियां थीं। उसे विचार आया कि उन पहाड़ों पर चढ़कर आसपास आखिरी नज़र डाले। वह जैसे ही एक पहाड़ पर चढ़ रहा था तो दो लोगों के बातें करने की आवाज़ें सुनीं : औरत और मर्द। वह हिचककर ठहर गया।

‘‘मैं एक मामूली हैसियत वाला आदमी हूं। मैं तुम्हें इतना सुख न दे पाऊंगा, जितना तुम्हें अपने रिश्तेदारों से मिला है। मैंने तुझसे कुछ नहीं छिपाया है, वीना! फैसला (निर्णय) तुम्हारे ऊपर है। ऐसा न हो, कि सुख और आराम की जिंदगी छोड़कर, पूरी उम्र पछताती रहो!’’

फिर उसने औरत की आवाज़ सुनी, ‘‘हम दोनों पढ़े लिखे हैं। रस्मी प्यार में हमारा विश्वास नहीं। हम एक दूसरे के अंदर विवेक द्वारा देख सकते हैं, समझ सकते हैं, सह सकते हैं। मिलकर जिंदगी गुजारने के लिए इससे अधिक और क्या चाहिए। हम भूखों नहीं मरेंगे। बाकी ऐश आराम न हुआ तो क्या, हम एक दूसरे के लिए ऐश आराम हैं।’’

‘‘ओ वीना... वीना... मेरी वीना... तुमने मुझे तबाह होने से बचा लिया। तुमने मेरी बेरंग जिंदगी में रंग भर दिए हैं। समुद्र का रंग, धरती का रंग, पहाड़ियों का रंग, आसमान का रंग और शाम का रंग...! पता नहीं कितने रंग भर गये हैं मेरी बेरंग जिंदगी में!’’

‘‘इश्क ने तुम्हें शायरी सिखा दी है,’’ ठहाका लहरों के संगीत में घुलकर, ‘‘लेकिन अच्छा शायर बनने के लिए इश्क में नाकामी ज़रूरी है।’’

‘‘नहीं नहीं, मैं नाकाम शायर बनना ज्यादा पसंद करूं गा।’’ समुद्र की लहरों पर तैरता ठहाका।

उसका पूरा शरीर कांप रहा था। ज्यादा वक्त तक ठहर नहीं पाया और चलने लगा। वह कांपते कदमों से वापस जाने लगा, लेकिन उसे इस बात का होश ही न था।

‘क्या कोई व्यक्ति इस उम्मीद पर खुद को जीने के लिए मजबूर कर सकता है कि कभी उसकी बेरंग जिंदगी में रंग भर जायेंगे। समुद्र का रंग, धरती का रंग, आसमान का रंग, शाम का रंग... शायद कभी कभी ऐसा इत्तेफाक हो जाता है जिंदगी में।’ उसे याद आया कि वह खुदकुशी (आत्महत्या) करने के लिए आया था, वह निजात (मुक्ति) व छुटकारा जिसे मैं खुद महसूस कर सकूं, मजा ले सकूं, वो तो मौत में भी नहीं मिलेगा। वह तो उल्टा अप्राप्त है, जिंदगी में दुख-दर्द हैं, पग पग पर पीड़ा है, लेकिन ये सभी अहसास हैं तो सही, मौत के बाद तो ये अहसास भी नहीं रहेंगे। मैं चाहता हूं मुक्ति, जिसमें मुक्ति का कोई अहसास न होगा।’ उसने खुद को हल्का हल्का बेवजन महसूस किया। उसकी तबीयत का भारीपन उतर गया, डिप्रेशन की लहर उभरकर उतर गई थी। उसे ऐसा महसूस होने लगा, जैसे एक भारी हंगामे के बाद शांति छा गई हो।

‘कहीं मैंने डरकर आत्महत्या का विचार मन से उतार तो नहीं दिया। नहीं, मैंने यह उतार नहीं दिया है। केवल कुछ वक्त के लिए टाल दिया है। मैं इंतजार करना चाहता हूं, देखना चाहता हूं। शायद कभी हालातों (माहौल-चीज़ों) में परिवर्तन आ जाए। अभी तो बहुत वक्त पड़ा है। देखें...’ वह फिर से लोगों की भीड़ में आ पहुंचा। उसने खुद को आम आदमी की तरह समझा। उसकी दिल ने चाहा कि किसी से बात करे, ठहाके लगाये।

बहुत लोग वापस जाने की तैयारी करने लगे। उसने सोचा कि उसे भी वापस जाना चाहिए। दो बसें बदलनी थीं और घर कराची के आखिरी छोर पर था। वह बस स्टाप की ओर जाने लगा।

लोग भीड़ करके बस के इंतजार में खड़े थे। सीट मिलने की उम्मीद कम थी। उसने निश्चय किया कि कैसे भी करके बस में पहले चढ़ने की कोशिश करेगा और सीट पर ज़रूर बैठेगा। उसने बस में खड़े लोगों की भीड़ में पिसना नहीं चाहा। वह अभी कुछ दूरी पर था तो बस आकर खड़ी हो गई। लोगों ने बस को घेर लिया और उतरने वाले बड़ी मुश्किल से उतरने लगे। वह दौड़कर बस की ओर बढ़ा। रोड पार करते वक्त उसकी नजरें बस के दरवाजे पर थीं। रोड से तेजी से आती हुई कार के टायरों की जोरदार आवाज हुई। उसकी आंखों के आगे अलग-अलग रंग नाचने लगे। धरती का रंग, आसमान का रंग, शुफक का रंग और न खत्म होने वाली अंधेरी रात का रंग...

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: रात का रंग // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
रात का रंग // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
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