निर्णय // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी

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उसने घड़ी में वक्त देखने की कोशिश की। कमरे में आती हल्की चाँदनी में उसने अंदाजा लगाया कि रात के तीन बजे चुके थे। नींद आँखों से गायब थी और उसक...

उसने घड़ी में वक्त देखने की कोशिश की। कमरे में आती हल्की चाँदनी में उसने अंदाजा लगाया कि रात के तीन बजे चुके थे। नींद आँखों से गायब थी और उसका दिमाग भारी हो गया था। उसने जबरदस्ती आँखें बंद करनी चाहीं तो उल्टे आँखों में दर्द और दिमाग भारी हो रहा था। मन में विचित्र शक्लें बनने लगीं। उसने फिर से एकदम आँखें खोल दीं। चारों ओर शान्ति थी, केवल छत के पंखे का शोर था। उसने बेचैनी से करवट बदली, जो उसे दुखता महसूस हो रहा था। उसके बाद वह सीधा लेट गया और छत की ओर देखने लगा। उसकी आँखें तेज घूमते पंखे में अटककर उलझ गईं। उसे महसूस हो रहा था कि उसका मन तेज घूमते पंखे के साथ घूम रहा है, तेज तेज, बहुत तेज... वह घबराकर एकदम से उठ बैठा। उसके माथे पर पसीने की बूँदें उभर आईं। वह खाट से उठकर कमरे के दरवाजे पर आ खड़ा हुआ। सामने खाट पर उसकी बूढ़ी माँ और छोटी बहन सोये हुए थे। नींद में उसकी बहन अज़रा के होंठों पर एक अनजान मासूम मुस्कान थी। उसने माँ की ओर देखा, जिसके चेहरे पर उम्र से ज्यादा दुःखों और तकलीफों के निशान पड़ गए थे। कुछ देर तक वह माँ के चेहरे में देखता रहा। उसका मन भर आया, और नजरें घुमा दीं। वह कमरे में लौटकर अपनी खाट पर आ गिरा।

‘हे भगवान! मैं क्या करूं ... क्या करूं !’ उसने अपने मन में मची उथल पुथल से तंग आकर अपने आप से कहा। ‘आखिर मैं कौन-सा निर्णय लूं! नाज़ान के लिए अपनी माँ और अपना घर छोड़ दूं! उस माँ को छोड़ दूं, जिसने मुझे अपनी ज़िंदगी का साधन समझा है! या मैं अपनी खुशियों का गला घोंट दूं! मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि मैं क्या करूं !’ उसने अपना चेहर बाँह में छुपा दिया। उसका मन सोच सोचकर, थककर सुनक् पड़ गया था, लेकिन कोई भी निर्णय नहीं कर पाया था। उसे ऐसा लग रहा था जैसे निर्णय करने की शक्ति खत्म हो चुकी थी। लेकिन आखिर उसे निर्णय लेना था, किसी एक बात पर पहुंचना था। वह अपने प्यार के लिए अपनी माँ को छोड़े या अपनी माँ के लिए अपने प्यार को छोड़े! हारुं के लिए, इस वक्त, यह निर्णय जिंदगी और मौत के निर्णय से कम नहीं था। लेकिन नहीं, कैसी मौत और कैसी जिंदगी? माँ जिसने हारुं को अपनी जिंदगी दी थी, अपना खून पसीना दिया था, ऐसी माँ, जिसके प्यार में समुद्र की गहराई हो, उसे वह कैसे छोड़ सकता था! दूसरी ओर नाज़ान थी, जो उसकी वीरान और सूखी ज़िंदगी में फूलों की बहार लेकर आई थी; जिसने उसके साथ जीने मरने की कस्में खाई थीं। आखिर वह किसे छोड़े! उसका मन कोल्हू के बैल की तरह घूम फिरकर फिर से उसी जगह आकर खड़ा हो जाता था, आगे बढ़ने का कोई रास्ता नहीं था। रास्ता दोनों ओर से बंद था, वह जैसे रास्ते के बीच में उलझा उलझा और अचंभित खड़ा था।

कल शाम को नाज़ान की माँ ने उसे बुलाया था, वह हारुं से कुछ बहुत जरूरी बातें करना चाहती थी। उसने कहा, ‘‘तुम्हें मेरी बातें शायद अजीब लगें, लेकिन हालात कुछ ऐसे हैं कि तुमसे साफ साफ बातें करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। वैसे तो ये बातें लड़के और लड़की के रिश्तेदारों के बीच होती हैं, लेकिन इन बातों पर निर्णय तुम्हें लेना है, इसलिए मैं तुमसे साफ साफ बातें करना चाहती हूं।’’

हारुं ने हिचकते हुए कहा, ‘‘मैं पूरे ध्यान से सुन रहा हूं, आप कहिए।’’

नाज़ान की माँ ने गंभीर होकर कहा, ‘‘हारुं! तुम्हें तो पता है कि इस घर में केवल हम दो औरत ज़ात रहती हैं। भगवान के सिवा हमारा और कोई नहीं। हम एक दूसरे के करीब हैं और एक दूजे की खोज खबर रखते हैं। नाज़ान के पिता के गुज़र जाने के बाद हम दोनों माँ बेटी बेसहारा बन गई थीं। उस वक्त नाज़ान पांच वर्ष की थी। मैंने अकेले ही हालातों का सामना किया। मशीन पर कपड़े सिलकर, तकलीफें सहकर गुजर बसर किया और नाज़ान को पाला। मेरी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मकसद नाज़ान की ज़िंदगी को संवारना था और अब नाज़ान ही मेरा सहारा है।’’ उसने हारुं पर नज़रें गढ़ाकर कहा, ‘‘तू ही बता हारुं! क्या मैं अपनी ज़िंदगी का सहारा दूसरे के हवाले कर दूं! इस उम्र में मैं औरों के दरवाजों पर धक्के खाकर मर जाऊं!’’ नाज़ान की माँ चुप हो गई। हारुं के मुंह से एक शब्द न निकला। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर क्या कहे!

नाज़ान की माँ फिर से बोली, ‘‘मैं नहीं चाहती कि नाज़ान अपनी ज़िंदगी मेरे लिए कुर्बान कर दे। नहीं नहीं, नाज़ान की खुशी के लिए मैं सब कुछ करने के लिए तैयार हूं। मैं केवल इतना चाहती हूं कि वह शादी करे, मेरे साथ इस घर में रहे। अगर तुम मुझे स्वार्थी समझते हो तो भले समझो, लेकिन मेरे लिए और कोई रास्ता नहीं है।’’

तभी हारुं ने घुटी आवाज में कहा, ‘‘नहीं मौसी, मैं आपकी मजबूरियों को समझता हूं।’’ लेकिन उसकी भी तो कुछ मजबूरियां थीं। उसके मन में हाहाकार मच गया था।

हारुं अब तुम्हारे निर्णय की जरूरत है।’’ नाज़ान के माँ की आवाज थी।

हारुं उलझ गया, फिर उसने कहा, ‘‘मुझे कुछ सोचने का वक्त दीजिए, मौसी।’’

नाज़ान की माँ उसकी उलझन को समझ गई। ‘‘शायद तुम जल्दी निर्णय नहीं ले पाओ। इसलिए तुम कुछ वक्त ठंडे दिल दिमाग से सोच। जल्दी किए गए भावुक निर्णय आगे चलकर हानि करते हैं। तुम अपने रिश्तेदारों से भी सलाह करो। यह बहुत ही कठिन समस्या है, बेटे।’’

हारुं उससे विदा लेकर बाहर आया। आँगन में रसोईघर के दरवाजे पर नाज़ान पीठ टिकाकर खड़ी थी। वह कितनी ही देर तक उस एक ही जगह पर खड़ी, दर्द सह रही थी। हारुं को देखकर उसने सर झुका दिया। हारुं उसके आगे जा खड़ा हुआ। ‘‘नाज़ां!’’ उसने घुटे स्वर में बुलाया। नाज़ां ने आँखों के पोरों पर अटके आँसुओं को छिपाने के लिए चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया। हारुं के मन ने चाहा कि आगे बढ़कर नाज़ां के आँसूं पोंछे। उसने केवल एक पग आगे किया और फिर उसके बाद पत्थर बन गया। ‘‘मुझे क्या हक्क है नाज़ां के आँसूं पोंछने का...’’ उसने सोचा, वह कितना बेबस था, कितना लाचार था। जैसे कोई अपाहिज था, जिसके बस में कुछ न था। वह केवल इतना भी नहीं कह सक रहा था, ‘‘मत रो, नाज़ो मत रो...’’ लेकिन यह बात बेकार और व्यवहारिक लगती। व्यक्ति जब कुछ और नहीं कर सकता है, तब केवल रो सकता है। रोना बेबसी और लाचारी का और कुछ न कर सकने का इज़हार है। उसे ऐसा लगा अगर वह और कुछ देर तक वहां खड़ा रहा तो जमकर पत्थर बन जाएगा। उसने एक लंबी सांस ली और उसके मुंह से निकला, ‘‘दिल छोटा मत कर नाज़ो, कुछ न कुछ अच्छा हो जाएगा।’’ और उसके बाद वह जल्दी जल्दी बाहर निकल गया, जैसे कि ज्यादा देर तक वहां रुकने से डरता हो। ‘लेकिन अगर मैं पत्थर बन जाता तो ज्यादा अच्छा होता मेरे लिए। कम से कम इस प्रकार तकलीफ तो नहीं सहता। अगर मैं केवल पत्थर होता, और कुछ न होता।’ हारुं ने सोचा।

करवट बदलकर उसने कमरे के बाहर देखा। प्रभात की हल्की हल्की सफेदी छा रही थी। एक पल के लिए भी उसकी आँख नहीं लगी थी। ‘जल्दी ही माँ उठेगी और मुझे जागा देखकर परेशान होगी।’ हारुं नहीं चाहता था कि उसकी माँ बेकार परेशान हो जाए। उसका अपनी माँ से बहुत लगाव था। वह अपनी माँ की थोड़ी भी तकलीफ सहन नहीं कर पाता था। उसकी माँ बीमार होती थी तो वह माँ से ज्यादा परेशान हो जाता था। बचपन से ही उसका ऐसा स्वभाव था कि जब भी उसकी माँ बीमार होती थी तो वह इतना उलझन में पड़ जाता था कि उसे कोई बात अच्छी नहीं लगती थी। पहले तो खेल छोड़कर माँ के पास जा बैठता था। माँ से उसकी यह परेशानी देखी नहीं जाती थी और वह उसे जबरदस्ती खेलने के लिए भेज देती थी, लेकिन खेल में उसका मन नहीं लगता था, थोड़ी थोड़ी देर के बाद खेल छोड़कर वह माँ को देखने आता था कि अब कैसी है। करीब खड़ा होकर पूछता था, ‘‘माँ! अच्छी भली हो?’’ उसकी माँ मुस्कराकर उसके सर पर हाथ फेरकर कहती ‘‘हां बाबा! अच्छी भली हूं, तू जाकर खेल।’’ उसके छोटी मासूम दिल में पता नहीं यह विचार कैसे आता था कि अगर माँ मर गई तो...! वह रोने लगता था और सोचता था कि मैं भी माँ के साथ मर जाऊंगा।

जब वह सोचने समझने लायक हुआ, तब उसे पता चला कि माँ से उसका लगाव इतना ज्यादा क्यों था? उसकी माँ बहुत दुःखी थी। शादी होने के बाद, केवल दुःखों और तकलीफों के, उसे और कुछ प्राप्त नहीं हुआ था। उसकी जिंदगी में कोई खुशी आई भी थी तो बिजली की रोशनी की तरह, नहीं तो घुप्प अंधेरा था। जैसे ही वह पराए घर में आई, वैसे ही घर के लोगों के साथ उसकी नहीं बनी। उसका पति, जो घर में खुद को बेबस मानता था, उसने उस लाचारी और बेबसी में हारुं की माँ को भी भागीदार बना दिया। जब हारुं बड़ा हुआ, तब उसे अपनी माँ पृथ्वी के समान लगी थी, जिसने पता नहीं कैसे कैसे दुःख और कैसी कैसी तकलीफें सहन की थीं। लेकिन पृथ्वी के समान गूंगी बनकर, सब कुछ सहन करती गई। उसकी माँ का मन लकड़े में लगे कीड़े (घुनक्) की तरह कुरदकर खोखला हो गया था। लेकिन उसके बाद भी उसके दुःखी और मुरझाए मन में सब्र का अनंत समुद्र समाया हुआ था, जिसका पता ही नहीं चल रहा था। हारुं का छोटा महीन अस्तित्व उसके लिए सबसे बड़ी सांत्वना थी। वह ज़िंदा थी तो केवल हारुं के लिए, हारुं उसके जीने का साधन था।

हारुं माँ के प्रेम और मेहनत के कारण इस लायक बना था कि वह न केवल अपना, लेकिन अपने घर का भार भी उठा सकता था। अब जब उसकी माँ के सब दुःख दर्द दूर हुए थे, उसके मन की इच्छाएं पूरी हुई थीं, तब हारुं अपनी खुशियों के कारण उसे छोड़ देने का निर्णय ले रहा था।

‘मैं जो अपनी माँ की मामूली बीमारी पर परेशान हो जाता हूं, अपनी माँ को हमेशा के लिए छोड़कर, एक पराये घर में रह सकूंगा?’ हारुं ने खुद से पूछा।

‘‘हारुं, बेटे हारुं!’’ माँ उसे बुला रही थी। वह चुपचाप लेटा रहा। वह माँ को उत्तर नहीं देना चाहता था। उस वक्त अचानक उसे विचार आया, ‘‘क्या मैं औरों के लिए अपनी ज़िंदगी तबाह कर दूं, अपनी खुशियों का गला घोंट दूं! नहीं, अब मैं बच्चा नहीं रहा। अपनी ज़िंदगी और भविष्य का खुद जिम्मेदार हूं। मैंने नाज़ो से वायदा किया था कि मैं सारी दुनिया को छोड़ सकता हूं, लेकिन उसे नहीं। मैं अपना वायदा जरूर निभाऊंगा।’

‘‘हारुं, ओ बेटे हारुं!’’ माँ उसे अभी तक बुला रही थी। हारुं को माँ के बुलावों पर क्रोध आ गया।

‘‘क्या हुआ माँ! नींद खराब कर दी।’’ उसने चिढ़कर कहा।

‘‘बेटे, देर हो गई है। ऑफिस भी जाना है कि नहीं,’’ माँ को उसकी चिढ़ पर आश्चर्य हुआ।

‘‘नहीं, आज ऑफिस नहीं जाऊंगा। तबियत ठीक नहीं है।’’

‘‘खैर तो है, क्या हुआ है दुश्मनों की तबियत को?’’ माँ परेशान हो गई।

‘‘कुछ नहीं माँ, रात को नींद नहीं आई है, इसलिए सरदर्द है।’’ हारुं को अपने व्यवहार पर शर्म महसूस हुई और उसने अपने लहजे को नम्र करने की कोशिश की, ‘‘थोड़ी देर सोऊंगा तो तबियत ठीक हो जाएगी।’’

माँ उसे व्याकुल नजरों से देखते चली गई, तब हारुं को अहसास हुआ कि उसने माँ से दुर्व्यवहार किया है। ज़िंदगी में पहली बार उसने अपनी माँ से रुखा व्यवहार किया है। वह खुद को दोषी मानने लगा।

‘लेकिन आखिर मैं करूं क्या! क्या करूं ! मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा...’ इन प्रश्नों से परेशान होकर आखिर वह खाट से उतरा और दातुन करके वापस आकर खाट पर आ बैठा। हारुं की छोटी बहन अज़रा चाय की प्याली ले आ उसके सामने खड़ी हुई। हारुं ने आंखें ऊपर नहीं उठायीं और चुपचाप उसके हाथ से प्याली ले चाय पीने लगा।

‘‘भाई! तुम्हारी तबियत तो ठीक है?’’ अज़रा ने उससे पूछा।

हारुं ने ऊपर देखा। अज़रा और उसकी माँ परेशान होकर उसे देख रही थीं।

‘‘मैं बिल्कुल ठीक हूं। आप बेकार परेशान हो रही हैं...’’ उसने मुस्काने की कोशिश करते कहा। माँ और अज़रा को उसकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसका थका और पीला चेहरा खुद ब खुद बता रहा था। हारुं ने सोचा माँ को सब कुछ बता दे।

‘‘माँ! कल नाज़ो की माँ ने मुझे बुलाया था।’’

‘‘फिर क्या कहा?’’ माँ ने उससे पूछा।

‘‘वह चाहती है कि मैं नाज़ो से शादी करने के बाद उसके घर में, उनके साथ रहूं।’’

उसकी माँ के होंठों पर एक दुःखी मुस्कान आई, ‘‘पगले, तुमने खुद को इस बात के लिए बेकार ही परेशान किया है। तुम समझ रहे थे कि मैं तुम्हें इजाजत नहीं दूंगी! तुम्हारी खुशी में ही तो हमारी खुशी है। हमने तुम्हें संभालकर इसलिए बड़ा नहीं किया है कि तुम्हारी खुशियां छीनें। तुम आज ही जाकर नाज़ों की माँ को ‘हाँ’ कहकर आओ।’’ शायद वह अपने अहसासों को अंदर ही अंदर दबाने की कोशिश कर रही थी।

हारुं के गले में कुछ अटक गया। जैसे ही वह उसे निगलकर नीचे उतारने की कोशिश करता वैसे ही वह ऊपर चढ़ आता। उस वक्त उसे अज़रा की आवाज़ सुनाई दी, ‘‘भाई, क्या तुम हमें छोड़कर चले जाओगे!’’

जैसे कोई धमाका हुआ, जिसने हारुं के पूरे अस्तित्व को हिला दिया। वह टूट गया था।

‘‘अज़रा!’’ गले में कुछ फंसा हुआ भार नीचे उतर गया, और एक घुटी चीख निकली। उसने अपनी बहन को प्यार से गले लगाया। उसे ऐसा महसूस हुआ, जैसे उसने अपने अस्तित्व को टूटने से बचा लिया था।

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रचनाकार: निर्णय // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
निर्णय // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
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