समुद्र और डरी हुई रूह // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी

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आकाश का रंग गहरा नीला था, और उस पर बादलों के टुकड़े कपास के गुच्छों की तरह बिखरे पड़े थे। नीचे समुद्र का रंग भी आकाश की तरह था। समुद्र शांत था...

आकाश का रंग गहरा नीला था, और उस पर बादलों के टुकड़े कपास के गुच्छों की तरह बिखरे पड़े थे। नीचे समुद्र का रंग भी आकाश की तरह था। समुद्र शांत था। तूफान कब का खत्म हो चुका था, लेकिन समुद्र के हर तह को पलटकर और हर चीज को तोड़कर। गुजर गये तूफान की एक निशानी, एक तख्ता, लहरों की रफ्तार पर लुढ़कता जा रहा था और वह डरा और दबा हुआ, तख्ते से चिपका हुआ था। उसका गायब पूरा होश लौट आया था, अधूरे और टूटी हालत में। हर तूफान के बाद समुद्र नया लगता है, उसे भी समुद्र बिल्कुल नया नजर आया। रह रहकर उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह तैरता जा रहा हो। ‘शायद मेरा मन सोया हुआ और शरीर थका हुआ है, इसलिए ऐसा अनुभव हो रहा है’ - उसने सोचा : ‘जहाज की तरह, मेरा वजूद भी टूट चुका है और सोच भी। लेकिन यह टूटी हुई सोच, टूटे शीशे की तरह मेरे मन में चुभ रही है।’ उसने सोचा की सर तख्ते पर जोर से टकराए और उस चुभन से मन को आजाद कराए। ‘लेकिन अगर तख्ता छूट गया तो...’ उसे टूटे जहाज का केवल वह एक तख्ता ही हाथ लगा था, यह भी गनीमत था। ‘मुझे इस तख्ते पर कितने दिन हो गए हैं?’ उसने याद करना चाहा। वह डर गया। ‘यह मेरे मन को हो क्या गया है? यादें कितनी धुंधली हैं। समुद्र के पानी की तरह काली! ऐसा अनुभव हो रहा है जैसे कि मैं शुरू से ही इसी हाल में रहा हूं। कितने ताज्जुब की बात है!’ एक बार फिर से उसने पूरी कोशिश की कि आंखें बंद करके खुद को मौजूदा हालत में गैर मौजूद और किसी और जगह और अलग हालत में मौजूद समझे। वह एक भरे हुए जहाज में सवार था, जिसमें खेलते कूदते लापरवाह लोग थे। जहाज समुद्र में बड़ी ही शान और मजे से जा रहा था कि अचानक ही... ‘लेकिन यह तो मैं जबान से भी कह सकता हूं। मन में चित्र क्यों नहीं उभर रहे! लेकिन आखिर फर्क क्या पड़ता है। याद करने से कुछ लाभ भी नहीं है। जैसे कि भूतकाल है ही नहीं, और न ही भविष्य का कोई भरोसा है, और वर्तमान हाल ही सत्य है। बाकी सब कुछ बकवास है मेरे लिए... मेरे टूटे वजूद के टूटे मन से सभी यादें टूटकर गायब हो चुकी हैं।’ उसने तंग होकर आंखें खोल दीं। ‘समुद्र कितना बड़ा और फैला हुआ है और मैं एक तिनके की तरह उस पर लुढ़कता जा रहा हूं। अगर मैं डूब गया तो क्या फर्क पड़ेगा। समुद्र की लहरें तो ऐसे ही आती जाती रहेंगी। कभी कम नहीं होंगी - ज्वार भाटा और लहरें... आखिर ये लहरें कहां से आती हैं और कहां जाती हैं? कहीं पर कम भी होती हैं या नहीं? यह पानी लगातार बहता जा रहा है। कोई भी चीज इतने अचरज में डालने वाली नहीं है जितना यह समुद्र, जिसमें कई रहस्य, तूफां और परिवर्तन समाये हुए हैं... और कितने ताज्जुब की बात है, हर उठती लहर मुझे प्रशक्ात्मक निशान की तरह दिख रही है। यह शायद रहस्यों का बहाव है, जिसमें मैं लुढ़कता जा रहा हूं। ज्यादा सोचना बेकार है। कुछ भी समझ में नहीं आएगा। ज्यादा सोचने के बाद मुझे खुद अपना मन भी पराया लगता है। मैं शायद मर चुका हूं। लेकिन मेरा मन मरा हुआ नहीं है, केवल टूटा हुआ है।’ उसने पक्का करने के लिए तख्ते को महसूस (अनुभव) करना चाहा, लेकिन उसके सुन्न शरीर को कुछ भी महसूस नहीं हुआ। फिर उसकी सूखी उंगलियों ने शरीर को छुआ। तो भी उसे कोई विश्वास नहीं हुआ। ‘नहीं, मैं जिंदा हूं। कम से कम इतना तो समझ सकता हूं। यह इतनी सारी जफाकशी जिंदा रहने के लिए ही तो कर रहा हूं, नहीं तो एक मामूली तख्ते के सहारे जीना कितना मुश्किल है। मुझे हर समय डूबने का डर है। अगर जिंदगी प्यारी न होती तो रात दिन इस तख्ते से क्यों चिपका रहता? जानता भी हूं कि इसका सहारा हमेशा का नहीं है। आखिर कब तक? आखिर तो यह सहारा भी खत्म हो जाएगा। कोई भी सहारा हमेशा के लिए नहीं होता। सहारे बदलते ही रहते हैं। लेकिन मेरी चाहना इतनी अद्भुत तो नहीं। मुझे धरती का सहारा चाहिए। धरती के सहारे पूरा जीवन गुजार सकते हैं, अगर किसी अच्छी जगह सहारा मिल जाए।’

‘मैं ज्यादा कुछ नहीं, केवल धरती पर पैर रखना चाहता हूं।’ धरती पर पैर रखने की उसकी चाहना कभी कभी बहुत जोर पकड़ रही थी। तभी उसने भगवान से मदद की दुआ मांगी। वह समझ रहा था कि अब उसे कोई चमत्कार ही बचा सकता है।

‘मैं किसी और जगह भी पैदा हो सकता था।’

वह एक टूटे जहाज का मुसाफिर था। खुद भी टूटा हुआ और सहारा केवल एक तख्ते का।

‘काश जहाज सही सलामत और मजबूत होता।’

रह रहकर गुप्प (गहरा) अंधेरा उसकी आंखों में घुस रहा था। उसने जान बूझकर आंखें फाड़कर खुद को होश में रखना चाहा... या शायद समुद्र का रंग ही ऐसा था। वजूद किसी अलग व्यक्ति का लग रहा था, ऐसा पराया, जिसे व्यक्ति खुद भी समझ न पाये। ‘यह अजीब हालत है। इससे पहले मैंने कभी भी ऐसा महसूस नहीं किया है। मैं बहुत ही थका हुआ हूं। एकदम रग रग थककर चूर हो गई है और जब कोई चीज अपनी होते हुए भी परायी महसूस हो...’ गुप्प अंधेरा फिर से उसकी आंखों में घुस आया। उसने जोर से आंखें खोलीं और करवट बदलने की कोशिश की।

‘मैं भी एक आम इन्सान हो सकता था...’

‘अगर मैं नहीं सोचूं तो तुरंत मर जाऊं। शरीर सुनक् होकर सांस छोड़ चुका है। केवल लगातार सोचने वाला दिमाग यह विश्वास दिला रहा है कि मैं अभी तक जिंदा हूं। कभी कभी तो मैं यह भी भूल जाता हूं कि मैं इस वक्त कहां पर हूं। आखिर यह यात्रा कब पूरी होगी? कहां पूरी होगी? मैं बिल्कुल तंग आ गया हूं। आखिर कोई हद होती है। सभी स्त्रोत खत्म हो चुके हैं। जिंदा रहने के लिए इसी खत्म न होने वाली चाहना और थकाने वाली कश्मकश ने मुझे अंदर से तोड़ दिया है। मैं पृथ्वी पर किसी मजबूत जगह पर पांव रखना चाहता हूं। लगातार तख्ते के सहारे लुढ़कते जाना, दिनोंदिन मेरी सहन शक्ति से बाहर होता जा रहा है। कहीं मैं...’ आकाश नेवले की तरह रंग बदलता रहा और तख्ता लुढ़कता गया।

उसकी आंखें फट गईं। धुंध के अजीब चेहरे थे या वाकही पहाड़ थे। उसने अपनी पूरी कोशिश से परखकर देखा, वाकही पहाड़ थे। धुंधले... ऐसे लगा जैसे गहरे अंधेरे में अचानक नजरों को एक चमकता तारा नजर आया था, जो तुरंत गायब हो गया। ‘मैंने तो सीधी सपाट पृथ्वी पर पांव रखने के लिए दुआ मांगी थी। आदमी चाहता क्या है, और उसे मिलता क्या है। इन पहाड़ों तक पहुंचना मेरे लिए संभव नहीं है, मैंने तो कभी ऐसा नहीं चाहा था।’ समुद्र के किनारे खड़े पहाड़ों के उस पार तो जैसे जिंदगी की राहें खत्म हो रही थीं। ‘सच तो यह है कि मैं समुद्र से अलग होना नहीं चाहता।’ उसे विचार आया, लेकिन एक मामूली तख्ते के सहारे, वायु के झकोरों (झोंकों) पर, कोई कब तक लहरों पर लुढ़कता रहेगा। समुद्र में रहने के लिए एक मजबूत जहाज की आवश्यकता है। यह भी किस्मत की ही बात है।’

अब वह पहाड़ों के नजदीक पहुंच गया था। वहां समुद्र में बहुत शोर था। सतह से लेकर तल तक एक जबरदस्त मंथन था। पूरी बुनियाद उछल रही थी। वह तख्ते से जोर से चिपक गया।

‘नहीं नहीं, मैं इस तख्ते को नहीं छोडूंगा।’

समुद्र की बड़ी बड़ी लहरें पहाड़ों की चोटी तक जोर से गरजकर टकराते वापस लौट रही थीं। उस पर दहशत छा गई। जोरदार लहरों में उसका तख्ता तिनके की तरह उछल रहा था। अचानक एक बड़ी लहर उठी और उसने आंखें बंद कर दीं।

शायद चमत्कार ही हुआ था। वह अभी तक जिंदा था। काफी वक्त तक डर से आंखें बंद करके, अपने जिंदा होने पर ताज्जुब कर रहा था। डरते डरते उसने आंखें खोलीं और आंखें खोलकर डर गया। उसने खुद को एक पहाड़ की चोटी पर पाया। ऊपर से तेज हवा लग रही थी और नीचे समुद्र गरज रहा था। उसने अपने डर पर काबू पाने की कोशिश की। डर धुुंध की तरह उसके मन पर छा गया। ‘बचने का कोई रास्ता नहीं है, क्या, मैं ऐसे ही अकेला मर जाऊंगा? इन्सान की रू ह (आत्मा) इतना अकेलापन क्यों महसूस करती है! मौत और डर सब उस अकेलेपन की पैदाइश हैं।’ उसके आगे बेअंत, फैला हुआ और कभी न खतक् होने वाला समुद्र था और उसकी अकेली रूह। जैसे उसे समुद्र में अपने अकेलेपन की परछाइ± नजर आई... एक खौफनाक राक्षस जैसी। डरकर एकदम उसने अपनी नजरें घुमा लीं। उसने चारों ओर घूरकर देखा। पहाड़ के पीछे गहरा धुंध था। धुंध में उसे कुछ नजर ही नहीं आया। उसने अनुभव करना चाहा, वह क्या हो सकता है! कोई भी अंदाजा लगाना मुश्किल था। शायद कोई अंधेरी बेअंत गहरी खाई होगी, गहरे धुंध से ढकी। ‘मैं समुद्र की ओर लौट जाना चाहता हूं।’ उसने फिर से समुद्र की ओर देखा, जिसकी लहरें उस पहाड़ की चोटी से लगकर वापस लौट रही थीं। लेकिन बिना मदद समुद्र में घुसना मुश्किल है। उसे तख्ता याद आया, लेकिन वह पहाड़ पर नहीं था। एक मामूली तख्ते का सहारा था, लेकिन अब वह भी नहीं रहा। ‘मुझे यह पहले से ही पता था कि कोई भी सहारा हमेशा के लिए नहीं होता है। कोई भी व्यक्ति किसी सहारे को खुशी से छोड़ना नहीं चाहता है, लेकिन जैसे वह कहीं न कहीं खो जाता है। इन्सान आखिर इन्सान है, तिनका आखिर तिनका, लेकिन दोनों में एक बात समान है, दोनों का एक जगह पर टिकना मुश्किल है। एक तूफान दोनों को अपनी बुनियादों से उखाड़कर कभी कहीं तो कभी कहीं उछालता रहता है, और आखिर किसी गहरी खाई में जाकर फेंकता है।’ उसने आंखें बंद कर दी। मुझे यह बाद में पता चला कि जहाज पहले से ही झर्झर था। मैं जानबूझकर टूटे जहाज में नहीं चढ़ा था। तूफान के लगातार थपेड़ों ने जहाज को तोड़ दिया था। बचने की हर तरकीब अपनायी गई। खुद को बचाने के लिए और अपनी दुनिया को बचाने के लिए। जहाज भी एक छोटी दुनिया थी। हम सभी खुश थे, और बेपरवाह थे। मगर, छोटी छोटी खुशियों में खुश। जहाज के बुनियाद धीरे धीरे उखड़ने शुरू हुए। हम सभी सोच में पड़ गये। टूटने की रफ्तार बहुत ही धीमी थी और यह सब कुछ हमारी आँखों के आगे होता रहा। अपनी कोशिश कौन नहीं करता, लेकिन जहां बुनियाद कमजोर होकर उखड़ने लगे, वहां पर क्या किया जा सकता है। हमें एक दूसरे से अलग होने का इन्तजार था। हम सब दुखी थे, संबंध बारे में कुछ ज्यादा। अब यह बात साफ तौर पर सामने आई कि हम सबको आखिर अलग होना पड़ेगा। हर किसी को अपने अकेलेपन का डर था। वक्त बेरहम है, या हालात जालिम हैं, टूटे पत्ते के लिए यह सोचना बेकार और बेमतलब है। गिरते वक्त केवल गिरने की बात दिमाग में होती है। हाथ हिलाकर अलग होने और अचानक ही अलग होने में फर्क है, लेकिन व्यक्ति अलग दोनों ही सूरतों में होता है। फिर भी इस प्रकार अलग होना, अपनी आंखों के सामने अपनों को और खुद को डूबता देखना। उस वक्त किसी भी दिल में यह चाहना नहीं उभरती कि हाथ हिलाकर एक दूसरे से अलग हों। जहाज लगभग पूरी तरह टूट चुका था और सबने जिंदा रहना चाहा था। कुछ लोग डूब गए और कुछ लोगों को तख्तों का सहारा मिल गया। जिस हाल में मैं यहां तक पहुंचा हूं, मेरे लिए यह निर्णय लेना कठिन है कि मैं खुशनसीब हूं या बदनसीब। अब तो कोई आंसू भी नहीं बचा है जो बीते वक्त को याद करके बहाया जाए। लेकिन मुझे तो बीता वक्त भी याद नहीं। जैसे कि बीते वक्त का कोई वजूद ही न था। वक्त का महत्व तब तक रहेगा जब तक मैं जिंदा हूं। मरने के बाद मेरे लिए किसी भी चीज का महत्व नहीं होगा।’

उसने एक अजीब बेचैनी महसूस की। उसके मन में आया कि उस अनदेखी, कोहरे में गुम हुई, खाई में छलांग लगा दे। पहाड़ों से टकराने वाली लहरों की जोरदार ध्वनी उस विचार पर छा गई। ‘मुझे ऐसी बातें नहीं सोचनी चाहिएं। मुझमें अभी सांसें हैं, और सांस की शक्ति है। शायद मैं भयानक पहाड़ से सही सलामत उतर जाऊं। लेकिन समुद्र में घुसने का कोई lzksr तो होना चाहिए। मैं खाली हाथ, हारे हुए मन के साथ इस वीरान पहाड़ पर ठहरकर क्या कर सकता हूं! मैं कभी था लेकिन अब कुछ नहीं रहा हूं, अब भी वह मैं ही हूं, लेकिन पहले जैसा नहीं हूं। ऐसा क्यों होता है? मैं कुछ बन सकता था। मैंने तो केवल पृथ्वी पर पैर रखने की दुआ मांगी थी, कितनी न मामूली और सीधी सादी दुआ। इसमें किसी का क्या नुकसान (हानि) था? मैं गलत था, मुझे पता नहीं था कि मामूली दुआएं कभी भी पूरी नहीं होती हैं। मेरे से विश्वासघात हुआ है, परंतु ऐतराज करना बेकार है। यहां चुनाव करने का अधिकार किसी को दिया ही नहीं जाता। अगर मैं ज्यादा सोचता हूं तो भाग्य जैसी बेकार और फालतू चीज पर विश्वास करने के लिए मजबूर हो जाता हूं। समुद्र ने मुझे तोड़ दिया है। मुझे चुनाव का कोई भी अधिकार नहीं दिया गया। अगर कोई अधिकार दिया गया है तो केवल कोहरे में गायब गहरी खाई और बिना किसी सहारे के बड़े फैले समुद्र में से किसी एक को चुनने का। इस हालत में मैं ज्यादा देर तक नहीं रह सकता। मुझे कोई न कोई निर्णय करना ही है। इतने बड़े सफर के बाद भी केवल एक बेकार मंजिल पर ही पहुंच पाया हूं, जहां पर आराम करने की भी इजाजत नहीं है, और सब कुछ अविश्वसनीय है, सब कुछ बकवास है... बकवास... ओ! बंद कर... बंद कर... बंद कर... यह दिमाग भी बकवास है, सब बकवास है’... वह चिल्लाने लगा। फिर जोर से उलटी मुट्ठी मारी अपने सर पर।

उसने बहुत ही मुश्किल से खुद को काबू किया : ‘अगर थका मांदा उसका दिमाग उसके काबू से निकल गया तो फिर खात्मा पक्का है। लेकिन इस हालत में तो दिमाग को काबू में रखा ही नहीं जा सकता। यह तो खुद ब खुद सोचता रहता है। मुझे कोई न कोई तरकीब निकालनी पड़ेगी।’ परंतु जो बात उसे डरा रही थी, वह थी तेज हवा, वह किसी भी वक्त कोहरे में गुम खाई में गिर सकता था। उसने चलते विचारों को रोकने के लिए वहां से निकलने के तरीके सोचने चाहे, लेकिन दिमाग काबू में नहीं था। वह ऑटोमेटिक मशीन की तरह चल रहा था। उसे गुस्सा आया कि दिमाग को जोर से पत्थरों पर पटककर शांत करा दे... उसके दिमाग में तेज बवंडर उठा। उसे लगा : वह गया... गया... उसने अपनी टूटी ताकत को समेटकर खुद को बचाने की कोशिश की। ‘मैं खुद अपने दिमाग को छेड़कर उसकी तबाही ला रहा हूं।’ उसने गुस्से से सोचा। फिर उसने दिमाग को उसकी मर्जी पर छोड़ दिया, और खुद तटस्थ होकर बैठ गया। विचारों की लहरें थीं, और उसने आंखें बंद कर दी थीं।

वक्त चल है या रुक गया है, इस बात की उसे कोई जानकारी नहीं थी। ‘क्या करना चाहिए? कोहरे में गायब खाई को अपनी आखिरी मंजिल समझूं?’ लेकिन अनदेखे के लिए यह निर्णय उसे नहीं जंचा। ‘अच्छा लगने और न लगने का एहसास अभी भी होता है!’ उसने खुद पर हंसना चाहा? ‘अगर हंसना बंद न हो तो... अगर मैं यहां पागल हो जाऊं तो?’ उसे अपना यह विचार बहुत ही दिलचस्प लगा। फिर उसे दूसरा विचार आया, ‘मैं अपनी मर्जी से हंस भी नहीं सकता! शायद किसी भी चीज में मेरी मर्जी का दखल नहीं रहा है। ऐसी हालत में चुनाव और निर्णय करना, मुझे केवल बेजान शब्द लगते हैं। मेरे अंदर खालीपन है, शून्य सरीखा, और शब्द बेजान हैं। कहीं से भी गर्मी मिलना संभव ही नहीं है।’

‘क्या मैं ऐसे ही चुप मर जाऊं?’ उसने सोचा।

उस वक्त उसने अपने अंदर एक परिवर्तन महसूस किया। उसकी दिल मायूसी के पाताल से निकलकर, ऊपरी सतह पर आई। ‘मैं जीना चाहता हूं। मैंने अभी किया ही क्या है। अभी भी मौका है, शायद मैं कुछ बन सकूं... कम से कम एक आम इन्सान।’ जीने की चाहत ने उसके थके हारे दिमाग को कुछ ताजगी दी। अब वह पहले से अच्छा अनुभव करने लगा। ‘एक टूटे व्यक्ति के लिए कश्मकश कितना कठिन है। लेकिन नहीं, मुझे एक बार फिर से शुरुआत करनी चाहिए। एक बार फिर से आजमाना चाहिए। हो सकता है... हो सकता है कि...’ डूबती उम्मीद फिर से उभर आई। वह अब दोबारा शुरुआत करने के लिए मंसूबे गढ़ने लगा।

वह थका, शून्य और वीरान नजरों से समुद्र को देखता रहा, और बचने के उपाय सोचता रहा। अचानक उसे कहीं दूर से एक बिंदु उभरता नजर आया। वह उस बिंदु को घूरकर ध्यान से देखने लगा : ‘यह क्या हो सकता है?’ बिंदु बड़ा होता गया, वह एक जहाज था। वह खुशी से उठ खड़ा हुआ। ‘मैं बच सकता हूं!... ‘मैं बच सकता हूं!’... जहाज करीब आता गया। उसने एकदम से अपनी कमीज उतारी और उसे जोर जोर से घुमाकर हिलाने लगा। ‘हो सकता है उनकी मुझ पर नजर पड़ जाये और इस मुसीबत से बचा लें।’ जहाज आगे बढ़ गया। वह कमीज को झंडा बनाकर हवा में हिलाता रहा और जहाज दूर होता गया। उसकी फुंकी दिल बुझ गई। उसकी आंखें जहाज पर टिकी हुई थीं और बांहें ऊपर कमीज को पकड़कर खड़ी थीं। उसे याद आया कि एक बार वह दौड़ता दौड़ता प्लेटफॉर्म पर आया था और गाड़ी उसके आगे छूटी जा रही थी। बांहें टूटी टहनी की तरह नीचे आ गिरीं। बिंदु उसकी आंखों के आगे नाचने लगा। अब कोई उम्मीद नहीं रही थी। ‘अगर कुछ हो सकता है तो वह केवल मैं ही कर सकता हूं। बाकी उम्मीदें बेकार हैं।’

उसने तख्ता बनाने के लिए सोचा, और इधर उधर से लकड़ियां इकट्ठी करनी शुरू कीं। बहुत मुश्किल से इतनी लकड़ियां इकट्ठी कर पाया, जिनसे मामूली तख्ता बनाया जा सके। उसने कपड़े फाड़कर, रस्सियां बनाकर, तख्ते को बांधा। तख्ता मजबूत न बन पाया, लेकिन वह जिंदा रहना चाहता था। ‘मैं चुपचाप मर जाना नहीं चाहता। इस मामूली तख्ते के सहारे हालातों से मुकाबला करूंगा। जिंदा रहने के लिए कश्मकश करने के लिए अभी कुछ हिम्मत है।’ सोच के साथ उसके हाथ भी काम करते गये। अब तख्ता बिल्कुल तैयार था। वह तख्ते को लहरों से बचाने के लिए अच्छे वक्त का इंतजार करने लगा।

वह फिर से समुद्र में था।

‘कितनी अजीब बात है’, उसने सोचा, ‘मैं फिर नए सिरे से शुरुआत कर रहा हूं, सब कुछ नए सिरे से प्राप्त करने के लिए। मैं यह नहीं जानता कि कुछ प्राप्त भी होगा या नहीं। अगर जानता तो फिर इतनी माथापच्ची क्यों करता, हो सकता है कि कुछ भी प्राप्त न हो। हो सकता है मेरा तख्ता टूट जाए। लेकिन फिर भी मैं समझता हूं कि मैं जो कुछ भी कर रहा हूं, अच्छा कर रहा हूं। मैं वजूद के बोझे से भागना नहीं चाहता। जहां तक हो सका, यह बोझा उठाऊंगा। यह भी जैसे एक सजा है, जो हर हाल में भोगनी है।’

आकाश को जैसे किसी ने धोकर साफ कर दिया था। नीचे अनंत और फैले समुद्र पर तख्ता तिनके की तरह तैरता जा रहा था। उसे पता था कि तख्ता कमजोर है। यह मामूली धक्का भी सह नहीं पा रहा था। सामने हर लहर देखकर वह डर रहा था। इससे जहाज वाला तख्ता ज्यादा मजबूत था। ‘पता नहीं क्यों, धीरे धीरे सहारे टूटते और कमजोर होते जाते हैं।’ पहाड़ों की कतारें पूरी हो चुकी थीं, और वह दूर निकल गया था। ‘मैं सीधी सपाट जमीन पर पैर रखना चाहता हूं।’ उसने अपनी चाहत को दिल में टोका। कमजोरी और टूटी हिम्मत ने उसे गला दिया था। उसे अच्छी तरह पता था कि उसने अपनी टूटी हिम्मत को समेटकर यह आखरी कोशिश की थी। तख्ता लहरों पर लुढ़कता गया-कहीं पर तेज, कहीं धीमे। वक्त का कुछ पता न था, या नजरों से भी तेज गति से गुजरता जा रहा था। कोई भी बात स्पष्ट नहीं थी। भविष्य पर पर्दे चढ़े हुए थे, जिनको तख्ता एक एक करके उतारता जा रहा था... परंतु ये पर्दे कम ही नहीं हुए। भविष्य के पर्दे भी शायद कांदे की तरह होते हैं। छिलके एक के पीछे दूसरा उतरते जाते हैं, और आखिर में जाकर कुछ भी नहीं बचता। भविष्य के आखिरी पर्दे के बाद केवल शून्य है, जिसके अनंत अंधेरे में कुछ भी नजर नहीं आता।’

देखते देखते, आकाश में पता नहीं कहां से बादल इकट्ठे होने शुरू हुए। साफ आकाश काले बादलों से गंदा हो गया और समुद्र का रंग और भी ज्यादा गहरा काला हो गया। उसे वायुमंडल अजीब और दहशतनाक लगा। उसे सख्त बेचैनी महसूस होने लगी। हवा में तेजी आती गई, जो बढ़ती गई। लहरें हवा की तेज मुरली पर नागिन जैसा फन फैलाकर नाचती आयीं। वह डर गया, और तख्ते से मजबूती से चिपक गया, जो लहरों के डंक खाकर इधर उधर भागने लगा। उसका दिल डूब गया। मरणीय हालत में तख्ते से चिपका हुआ था। लहरें तख्ते को एक जगह से दूसरी जगह पर उछाल रही थीं। अचानक उसे महसूस हुआ कि तख्ता तिनका तिनका हो रहा था। आखिर यह होना ही था! लेकिन यह जानते हुए भी वह उसके लिए तैयार नहीं था। वह अलग होती लकड़ियों से मजबूती से चिपक गया। लेकिन तख्ता पूरी तरह से टूट गया था और उसके साथ ही वह खुद भी।

...जहाज चलते-चलते बंद हो गया है। कोई आवाज नहीं है। आखिर बात क्या है! लोग कितने खुश थे, लेकिन उनकी हंसी, ठहाके, शोरगुल बंद क्यों हो गए हैं। कोई भी आवाज नहीं। कोई भी रोशनी नहीं। मुझे कुछ दर्द महसूस हो रहा है। दिल में मंथन है, जैसे उसे कोई निचोड़ रहा हो। कितनी अजीब बात है! सब मुझे अकेला छोड़कर चले गए हैं। मैं भी जाना चाहता हूं। देखना चाहता हूं कि सब गए कहां हैं। मुझे कुछ पता नहीं चल रहा। जहाज इतना क्यों हिल रहा है-जैसे कोई तेज झूलने वाला झूला है। मैं उठना चाहता हूं, लेकिन उठ नहीं पा रहा। मेरे भगवान! मैं देखना चाहता हूं... यह इतना अंधेरा क्यों है?’

‘‘कोई है? रोशनी करो... थोड़ी रोशनी करो!’’

‘‘अभी जिंदा है। शायद कुछ कहना चाहता है।’’

उसे मक्खियों की भूं भूं सुनने में आई। वह रेती पर लेटा हुआ था, और कितनी अजीब बात थी कि वह फिर भी बच गया था। उसके चारों ओर लोग खड़े थे, गोल बनाकर। लोग कह रहे थे कि वह भाग्यशाली है जो किनारे के करीब आकर पहुंचा था और तूफान शुरू हुआ। अगर किनारे से दूर होता... लेकिन किसी ने बताया कि वह बेहोशी में है। लोग उस पर अफसोस करने लगे, और हमदर्दी जताने लगे। वह अब पूरी तरह से टूट चुका था। उसका हृदय फटी घड़ी की तरह चल चलकर रुक रहा था। उसने जोर से अपनी आँखें खोलकर देखना चाहा। आकाश रंग काला था, या आकाश अपनी जगह पर ही न था? केवल कालापन था, चारों ओर। उसके अंदर निर्णय लेने की कोई चीज नहीं बची थी। उसने फिर से बहुत कोशिश करके अपने आसपास देखा। उसे कालापन कुछ कम नजर आया। उसने समझा शायद किसी ने रोशनी की थी। लेकिन उसके चारों ओर ये कैसे अजीब लोग खड़े थे : थे तो लोग, लेकिन बिल्कुल छोटे छोटे, जैसे लिलीपुट के ठिगने। उसे बहुत ताज्जुब हुआ। रह रहकर वे छोटे लोग भी आँखों से ओझल हो रहे थे। उसने जोरदार कोशिश करके फिर से आँखें खोलीं। दूर दूर तक कोहरा था, जो फिर से आसमान के रंग से मिलकर काला हो गया था। वह गहरा काला कोहरा बढ़ता आया, और नजर आने वाले छोटे छोटे लोग उसमें गायब होते गये। फिर वह कोहरा बहुत करीब आ पहुंचा, और उसकी खुली आँखों में घुस आया।

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: समुद्र और डरी हुई रूह // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
समुद्र और डरी हुई रूह // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
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