गूंगी धरती, बहरा आकाश // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी

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वह फिल्म के आखिरी शो से लौटा है। घर के सभी लोग सो चुके हैं। पत्नी की नींद खराब करने को ठीक न समझकर, वह खुद ही खाना निकालता है। यह देखकर खुश ...

वह फिल्म के आखिरी शो से लौटा है। घर के सभी लोग सो चुके हैं। पत्नी की नींद खराब करने को ठीक न समझकर, वह खुद ही खाना निकालता है। यह देखकर खुश होता है कि आज दाल के बदले पकोड़े हैं। सूखी रोटी को जोर से चबाकर सोचता है, ‘‘सीमा बहुत समझदार है। सोचा होगा कि महीने में एक बार फिल्म देखने जाता है, लौटकर आकर रोज रोज वाली दाल खाएगा तो फिल्म की खुशी गायब हो जाएगी। उसे दाल से सख्त चिढ़ है, तब भी रोज वही दाल खाता है, वह खाना खाकर, चुपचाप खाट पर पत्नी के नजदीक लेट जाता है। चाँद की ओर देखते देखते सोचता है, ‘‘रात कितनी हसीन है। हर ओर जैसे दूध जैसी चाँदनी गिरी हुई है...’’ दूध वाली बात पर उसे फिर से दाल याद आती है। दाल को भूलने के लिए वह कुदरत में गायब हो जाना चाहता है।

‘‘ठंडी ठंडी लहर के झोंकों में कोई नशा रचा हुआ है। हर चीज सुकून की चादर में लिपटी हुई है। इतना सुकून, इतनी खामोशी, मैंने पहले कभी महसूस नहीं की है-मुझे सुकून ही कब नसीब हुआ है जो किसी चांदनी रात के हुसक् का दीदार कर सकूं और जिंदगी के सारे झंझटों को भूल सकूं। पूरे दिन की बेजारी और थकान, अधमरा करके, मौत जैसी नींद में झोंक देती है। सुबह आंख खुलते ही, दिन का शोर किसी धमाके की तरह कानों में घुस आता है और ऑफिस की ओर जाने में देर होने के डर से तैयारी में लग जाता हूं। उसके बाद एक दर्जन बच्चे नींद से उठकर अपनी चीखों से दिन के शोर में और इजाफा कर देते हैं...’’ उसे बच्चों के रोने से सख्त चिढ़ है, उसे बच्चों का रोना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। ‘‘तौबा, अभी सीमा एक को ही चुप कराएगी तो दूसरा शुरू हो जाएगा या कहीं पर आपस में ही लड़ पड़ेंगे और चिल्लाते रहेंगे! सीमा उनको चुप कराए या मुझे कुछ करके दे...फिर जल्दी जल्दी में पूरे निवाले निगलकर, सीमा को झिड़ककर, दो तीन बच्चों पर हाथ साफ करके, बाहर निकलकर लोगों की भीड़ में गायब हो जाता हूं। कितनी भी कोशिश करते, ऑफिस पहुंचने में देर हो ही जाती है, और साहब डाँटते वारनिंग देता है। उस वक्त दिल चाहता है कि इस्तीफा लिखकर, साहब के मुँह पर मारकर चला जाऊं, लेकिन जब सीमा और दर्जन बच्चे आंखों के आगे घूम जाते हैं, तब होती है कागजों की सर सर और टाईप की खट खट... ऑफिस से जाते वक्त खुद को वर्षों का थका और बीमार समझता हूं, तब आत्महत्या करने का विचार आता है, आत्महत्या के किसी अच्छे तरीके पर सोचते सोचते घर पहुंच जाता हूं, और घर पहुंचने पर बच्चों की चीख चिल्लाहट से डरकर सभी विचार भागकर गायब हो जाते हैं। रात को रोटी दाल में भिगोकर, जानबूझकर निगलते; सीमा से महंगाई की शिकायतें, बच्चों के फटे कपड़ों के समाचार, बच्चों की बात पर, किसी पड़ोसी से झगड़े का समाचार, बीच बीच में कुछ मीठी मीठी बातें सुनता रहता हूं, आखिर नींद घेर लेती है। सुबह फिर वही काम-वही कोल्हू के बैल का चक्कर!

‘‘हम नौकरी पेशा वालों के लिए संडे जैसा शुभ और अच्छा दिन और कोई नहीं। केवल उसी दिन हमें महसूस होता है कि हम भी और इन्सानों जैसे इन्सान हैं... ऐसी रात तो सचमुच भाग्यशाली लोगों को नसीब होती है। मुर्गियों के गड्ड जैसे घर में, बहुत दिनों के बाद, ऐसी खामोशी और सुकून देखा है। वैसे यह भी कोई घर है! सचमुच मुर्गों का खड्ड है! इन्सानों के लायक तो बिल्कुल नहीं-लेकिन कैसे हुए इन्सान! ऐसे घरों में इन्सान थोड़े ही रहते हैं। गर्मियों में हवा का झोंका तक नहीं, सर्दियों में जैसे बर्फ घर! शायद यह हमारे ऊपर खुदा की मेहरबानी है जो हमारा घर सर्दियों में एयरकंडीशन्ड बन जाता है! चौड़ा भी इतना है जो एक दूसरे के ऊपर सटे रहते हैं... इधर दर्जन बच्चे एक दूसरे से सटे हुए हैं। वह सर ऊपर उठाकर बच्चों को देखता है। अभी कैसे शांत सोए हुए हैं, कितने प्यारे लगते हैं, लेकिन जब जागते हैं तो... एकदम शैतान के बाप बन जाते हैं, तौबा! इनके लिए ही तो हमने अपनी जवानी गला दी, रक्त सुखा दिया...’’

अचानक चाँदनी धुँधली बन जाती है। वह देखता है कि चाँद को एक बड़े बादल ने ढक दिया है। उसे बादल पर बहुत गुस्सा आया। जब बादल हट जाता है, तब वह बच्चों के जैसा खुश होकर सोचता है, ‘‘चाँद कितना सुन्दर है... चाँद से सुन्दरता छिटककर नीचे गिर रही है।’’ उसकी पत्नी उसकी ओर करवट बदलती है। वह पत्नी का चेहरा देखकर सोचता है, ‘‘अब सीमा कितनी बदल गई है...’’ सोच उसके मन में पुरानी यादें ला खड़ी करती है। उसे उन यादों से बहुत प्यार है। जब वह सीमा से अपनी शादी वाले वक्त की बातें करता है तो सीमा आज भी नई नवेली दुल्हन की तरह शर्माने लगती है। कभी सीमा भी चाँदनी की तरह थी, लेकिन हे भगवान! आज उसका चाँद जैसा चेहरा काला पड़ गया है। अब तो सुन्दरता से मेरा विश्वास ही निकल गया है। अब जब भी सीमा को देखता हूं तो हर सुन्दर चीज से नफरत होने लगती है। शायद इसलिए कि मेरी भावनाएं मर चुकी हैं। मशीन जैसी जिंदगी में पिस गई हैं, लेकिन नहीं, मैं गलत हूं। आज की हसीन रात ने मुझे यह सिखाया है कि जिन्दगी में दुख दर्द के साथ सुन्दरता भी है। जब तक इन्सान की आत्मा सुरक्षित है, तब तक इन्सान की भावनाएं नहीं मर सकतीं। ऐसा न होता तो सुन्दर शेर और गीत, सुन्दर तस्वीरों और शायरियों का कोई वजूद ही नहीं होता। मेरी आत्मा भी शायरानी आत्मा है! यह मेरा दोष था जो मैंने हालातों से समझौता कर लिया। अपने चारों ओर एक दीवार खड़ी कर दी। मैंने अपने हाथों से ही अपनी भावनाओं का गला घोंट दिया है। लेकिन ऐसे सुन्दर वक्त में अहसासों की उड़ान और भावनाओं के उछलने को कैसे रोक सकते हैं! दोपहर के शोर में तो ऐसे अहसास दब जाते हैं। जब ऐसी हालत लगातार कायम रहती है तो फिर इस अंधी, गूंगी और बहरी धरती पर हमारे एहसास भी गूंगे बन जाते हैं...’’ अचानक उसे याद आता है कि काफी देर हो गई है, सुबह देर से आँख खुलेगी और ऑफिस पहुंचने में देर हो जाएगी। उसी वक्त उसे याद आता है कि कल संडे है, और वह अपने आप पर हंसता है।

चाँद की ओर देखते वह फिर से सोच की लहरों पर सवार हो जाता है। बहुत दुःख हैं इस धरती पर। मेरा बस चले तो मैं उड़कर चाँद की हसीन दुनिया में जा पहुंचूं। चाँद की दुनिया धरती से सौ गुना अच्छी होगी। लेकिन साइंस ने तो इस बात को गलत साबित किया है। मुझे साइंस से भी नफरत है। कोई भी मुझसे चाँद का हसीन तस्सूर नहीं छीन सकता। लेकिन अगर चाँद में दुनिया आबाद नहीं है तो कुछ तारों में तो जरूर होगी! तारे अभी भी साइंस की पहुंच से दूर हैं। तारों की दुनिया, इस धरती से जरूर उलट और सुन्दर होगी। काश! मैं भी किसी तारे में चला जाऊं। पक्षी की तरह उड़कर, धरती के दुखों से दूर, इस जेल से आजाद होकर... इस घर से तो जेल ज्यादा चौड़े हैं। दीवारें कितनी न गंदी हैं। घर का हर सामान गंदा है और हर वक्त, उठते बैठते, यह सब कुछ देखते आत्मा को कितनी न तकलीफ होती है। कभी कभी तो अपने आप से ही नफरत होने लगती है और मैं खुद को एक गंदा कीड़ा समझने लगता हूं... मैं हूं तो इन्सान, बाकी इन्सानों जैसा! कुछ लोग ऐश और आराम कर रहे हैं, मैं उनके जैसा नहीं हूं क्या! काश! मेरा भी एक अच्छा सा घर होता। घर में एक सुन्दर सजा ड्राईंग रूम हो, जैसा मेरे साहब का है। लेकिन अगर उसके जैसा न हो तो भले उससे कम दर्जे का हो। हां, उसमें अच्छे पर्दे टंगे हों, अच्छा सोफा और मेजें पड़ी हों। मेजें विशेष सामानों से सजी हों। खाना खाने का कमरा भी अलग हो।’’ यह सोचकर उसकी आँखें चमकने लगती हैं। ‘‘मेज पर तरह-तरह की सवादी चीजें रखी हों, कीमती प्लेटों में... एक मुर्गा तो रोज हो और कुछ मीठा और फल भी...

‘‘घर के आगे एक छोटा पार्क हो, जिस पर मेरे बच्चे अच्छे कपड़े पहनकर खेलते हों। हां, एक कार भी हो। शेवरलेट तो बहुत महंगी है, भले ओपल कार ही हो...या वाक्स वेगन हो...कुछ नहीं तो तांगा ही हो...नहीं नहीं, कार हो...शाम को मैं, सीमा और बच्चे बहुत महंगे कपड़े पहनकर, कार में बैठकर घूमने जाएं। बड़े लोगों से मिलें, उनके साथ बड़ी दावतों में भाग लें। लेकिन सीमा ऐसी हालत में थोड़े ही चलेगी। बहुत कमजोर हो गई है। सीमा का किसी बड़े डॉक्टर से इलाज करवाऊं, ताकत की सुईयां लगवाऊं, और महंगी दवाएं और तैलीय चीजें खिलाऊं। बच्चों के झंझट से जान छुड़ाने के लिए बच्चों के लिए एक खास नौकरानी रखकर दूं। घर के कामकाज और खाना बनाने के लिए एक अलग नौकरानी हो। मैं ऑफिस से लौटूं तो केवल सीमा मेरे पास बैठी हो... वह मुस्कराकर, सोई सीमा की ओर देखता है और उसके चेहरे पर हाथ घुमाता है। वह तब तक हाथ नहीं उठाता, जब तक वह जागकर, हाथ हटाकर, आधी नींद वाले आवाज में कहती है :

‘‘अभी तक जाग रहे हैं! कितनी रात हो गई है। अभी तो सो जाओ...’’

वह उसके ऊपर बांह रखकर फिर से सो जाती है। वह सोचता है, ‘‘सचमुच काफी रात हो गई है। ऐसे ख्याली पुलाव पकाने से तो पूरी रात ही नींद नहीं आएगी, न ही हमारा ऐसा नसीब है...’’ वह ठंडी आह भरकर, सीमा की छाती में मुंह छिपाकर सोने की कोशिश करता है।

एक पक्षी, बहुत तेजी से एक चमकते तारे की ओर उड़ता जा रहा है। जल्दी ही वह तारे के अंदर पहुंच जाता है। तारे की दुनिया देखकर उसकी आंखें फट जाती हैं : ‘‘ऐसी हसीन दुनिया! ऐसी हसीन दुनिया का तो कोई मन में विचार भी नहीं ला सकता। चारों ओर रोशनी ही रोशनी, ठंडी ठंडी चाँदनी से भी अधिक मोहक... समतल जमीन पर हरियाली की चादर बिछी है। हर ओर रंगारंग फूल और पौधे हैं। कहीं भी मिट्टी और धूल का निशान नहीं है। चारों ओर सुन्दरता है, खूबसूरती है। कितनी सुन्दर दुनिया है न चाँद की दुनिया! वह खुशी से हरियाली भरी जमीन पर लोटने लगता है। यहां वहां दौड़ता है। उत्साह से उसकी रग रग फुंक जाती है। दूर से कोई आ रहा है। कुछ अजीब चेहरा है, लेकिन लगता तो इन्सानों जैसा ही है, और शायद लोगों से ज्यादा सुन्दर है। अचानक वह उड़ने लगता है। अच्छा! तो यहां के लोगों को पंख भी हैं! कितना अच्छा...उसे पक्षियों की आवाजें सुनने में आती हैं। ‘‘शायद सुबह होने वाली है। मैं थक गया हूं। कोई घर नजर आए तो वहां बैठकर थोड़ा आराम करूं और देखूं कि यहां की जगहें किस प्रकार की हैं।’’ उसे जगहें नजर आती हैं। जगहें अति सुन्दर हैं। धरती के शानदार बंगले भी इनके आगे कुछ नहीं हैं। वह एक जगह घुस जाता है। जगह अंदर भी अच्छे तरीके से सजी हुई है। लोग अभी अभी उठे हैं। बच्चे भी उठे हैं। उठकर चुपचाप सफाई में लग गए हैं। बच्चे कितने शान्त, समझदार और प्यारे हैं। उठने से न ही रोए, न शोर किया। घर में शोर तो बिल्कुल है ही नहीं। शायद यह चाँद की दुनिया ही स्वर्ग है। कितना आराम और सुकून (सुख-शान्ति) है। यहां की पूरी दुनिया ही ऐसी होगी! यहां के लोग दुःख-सुख, तकलीफों और समस्याओं से तो बिल्कुल ही अनजान होंगे। मैं पूरी उम्र यहां रहूंगा...! घर के लोग खाना खाने वाले कमरे में आकर इकट्ठे हुए हैं। सफाई तो कितनी है! मेज पर तरह तरह के व्यंजन रखे हुए हैं, जो ज्यादा तेल की वजह से चमक रहे हैं! बच्चे कितने शान्त और अनुशासन से खा रहे हैं।

‘‘बच्चे अच्छे कपड़े पहनकर, पिता के साथ बाहर जा रहे हैं। शायद स्कूल जाएंगे। पिता उनको स्कूल छोड़कर उसके बाद काम पर जाएगा। इस दुनिया में अगर काज न होता तो बहुत अच्छा होता। लेकिन यहां के लोगों को दुःख-दर्द भी तो नहीं। खाना-पीना, कपड़े और जगहें सब एक जैसी और बहुत अच्छी हैं। आदमी बेकार तो बैठ नहीं सकता। मैं उनके पीछे जा रहा हूं। वे एक बहुत बड़ी जगह में जा रहे हैं। जगह के चारों ओर एक शानदार बगीचा है। बगीचे में कई बच्चे खेल रहे हैं। केवल बच्चे ही हैं। उनके बीच कोई भी गरीब, कमजोर और बीमार बच्चा नजर नहीं आ रहा। यह जगह शायद बच्चों के मनोरंजन के लिए है, और यहां कोई भी बच्चा आ सकता है!’’ वह उस जगह से बाहर निकल आता है। चलते चलते बाजार पहुंच जाता है। बाजार में बड़ी बड़ी दुकान हैं, जिन में तरह तरह की चीजें रखी हैं। वह देखता है कि हर व्यक्ति बिना डर और हिचक, जिसे जो चीज पसंद आती है, उठा ले जाता है-न किसी की डांट-डपट। वह खुश होता है कि लोग एक जैसे हैं और यहां पर किसी भी चीज की कीमत नहीं है, जिसे जो चाहे, अपनी मर्जी से उठा ले जाए! बाजार में कई औरतें घूम रही हैं। औरतें इतनी सुन्दर हैं जैसे परियां यहां की औरतें शायद बीमार और कमजोर होती ही नहीं होंगी।

उसके बाद वह एक शानदार इमारत के आगे आकर खड़ा होता है-अंदर से साज़ों (वादों) की सुरीले आवाज आ रही हैं। वह करीब आकर झांकता है : ‘‘कितना लुभावना (आकर्षक) दृश्य है! लोग खुशी से ठहाके लगा रहे हैं। मैं भी अंदर जाकर उनके साथ बैठूं-लेकिन सभी लोग बहुत अच्छे कपड़े पहने हुए हैं, मेरे कपड़े तो बहुत ही खराब हैं...’’ वह डरता है कि कहीं लोग उसे भगा न दें! वह देखता है कि लोग उस इमारत में बेपरवाह होकर (बिना डर-झिझक) जा रहे हैं, जैसे उनका अपना घर हो। यह देखते भी वह वहां ठहर नहीं पाता और आगे बढ़ जाता है। सोचता है, ‘‘यहां के लोगों के तो मजे ही मजे हैं, न कोई कामकाज, न कोई दुःख तकलीफ...’’ अचानक वह देखता है कि वह शहर से बाहर आ गया है। अब वह बहुत थक गया है। चाहता है कि कहीं आराम करे। दूर से उसे कुछ छोटी-छोटी जगहें नजर आती हैं।

‘‘शायद यहां के लोगों ने अपने जानवरों के लिए ऐसी जगहें बनवाई होंगी। यहां के लोग खुद ऐसी सुन्दर जगहों में रहते हैं तो उनके जानवरों को भी जरूर घर होंगे- कितनी अच्छी है यह चाँद की दुनिया! घर महंगे और अच्छे तो नहीं हैं, लेकिन गरीबों के घर जैसे तो हैं। यहां पर मिट्टी और धूल भी है, हरियाली नहीं है लेकिन जानवरों को इस बात की क्या जरूरत! रहने के लिए अपना घर तो है, इधर उधर भटकते तो नहीं होंगे। इस दुनिया के जानवरों को भी इतनी समझ है कि अपने घर बनाकर बैठे हैं!’’ वह एक घर के नजदीक पहुंच गया है।

‘‘देखूं तो सही, जानवर किस प्रकार घरों में रह रहे हैं...’’ वह एक घर की दीवार पर बैठकर, नीचे देखता है। नीचे देखने पर उससे एक डरावनी चीख निकल जाती है, ‘‘हे भगवान! इन घरों में तो लोग रहते हैं। कितने बदसूरत, कमजोर और बीमार लग रहे हैं... शायद नींद से अभी जागे हैं। बच्चे भी एक दर्जन हैं। उठते ही चीखना चिल्लाना शुरू कर दिया है। कितना शोर है इस घर में, बच्चे एक दूसरे से लड़ रहे हैं। कोई रोटी के लिए रो रहा है, तो कोई ‘‘माँ माँ’’ की रट लगाकर शिकायत करके चिल्ला रहा है। कपड़े गंदे, फटे-पुराने पहने हुए हैं, सफाई तो दूर, घर कितना तंग है...इसमें लोग कैसे रहते हैं! दीवारें कितनी गंदी, घर की चीजें गंदी...और इन घरों में रहने वाले लोग भी गंदे और बदतमीज हैं...वह बीमार और कमजोर औरत, बच्चों की माँ है। अरे...सीमा! हाँ! यह तो मेरा घर है...घर की छत झूल रही है! अभी गिरी कि गिरी...मैं भाग नहीं सकता-ओह...मैं नीचे गिर रहा हूं...गिर रहा हूं...हे भगवान, गिर रहा हूं...’’

अचानक वह हड़बड़ाकर उठ बैठता है। उसे महसूस होता है कि शायद वह खुद खाट से नीचे गिर गया है। पक्का करने के लिए वह नीचे झुककर देखता है। गौर से देखने के बाद उसे लगता है कि रात बहुत ही अंधेरी और काली है। वह सोचता है : ‘‘बादल कब से आ गए, आकाश क्यों बादलों के पीछे छिप गया है...और वह तारा...’’ बाहर से किसी कुत्ते की लंबी और उदास रोने की आवाज सुनने में आई। फिर उसे ऐसा लगता है जैसे कोई उस पर ठहाका लगा रहा है। हल्की बूंदा बांदी होनी शुरू हो गई। बच्चे जाग गये हैं और रोने लगे हैं। उसकी पत्नी भी परेशान होकर उठी है। वह उबासियां लेकर कहती है :

‘‘बारिश को भी रात को आना था। कुदरत का भी अंधेर है, अगर दोपहर को बरसता तो क्या हो जाता!...एक घर तंग, ऊपर से घुटन...रात को बारिश की मुसीबत है...!’’

वह उत्तर में कहता है, ‘‘आकाश हम पर ताने कस रहा है!’’ सीमा आश्चर्यचकित हो उसे देखती है। उसने बात समझी नहीं।

बारिश तेज हो जाती है। वे जल्दी से बिस्तर अंदर करते हैं। एक खाट निकालकर बरामदे में डालते हैं। बच्चे और भी जोर से रोने लगते हैं। क्रोध में भरकर सीमा एक बच्चे को हाथ दिखाती है। बच्चा डरकर चुप हो जाता है। वह बच्चों को समझा बुझाकर चुप कराकर सुला देती है। बारिश धीरे-धीरे और तेज हो गई। पति और पत्नी घुटनों में सर छुपाकर, तंग होकर मुर्गों की तरह बैठे हैं। सीमा अर्ध नींद की वजह से बार-बार उठ बैठ रही है-वह अंधेरे में देखकर सोचता है : ‘‘आज की रात बड़ी मुसीबत की रात है, कब गुजरेगी! सुबह कब होगी!’’

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: गूंगी धरती, बहरा आकाश // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
गूंगी धरती, बहरा आकाश // सिंधी कहानी // शौकत हुसैन शोरो // अनुवाद - डॉ. संध्या चंदर कुंदनानी
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