पुस्तक समीक्षा - पिता के नाम - कहानी संग्रह : सुशांत सुप्रिय

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समीक्ष्य कृति - पिता के नाम (कहानी संग्रह) - कहानीकार - सुशांत सुप्रिय समीक्षा आलेख - नवल-निराले तथ्य-कथ्य की कहानियां सुषमा मुनीन्द्र किस्स...

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समीक्ष्य कृति - पिता के नाम (कहानी संग्रह) - कहानीकार - सुशांत सुप्रिय

समीक्षा आलेख - नवल-निराले तथ्य-कथ्य की कहानियां

सुषमा मुनीन्द्र

किस्सागोई शैली के लिये जाने जाते सुपरिचित रचनाकार सुशांत सुप्रिय की हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी भाषा में अच्छी पकड़ है। इन्होंने हिंदी कविताओं और कहानियों की रचना जिस दक्षता से की है, उसी दक्षता से चर्चित विदेशी रचनाकारों की रचनाओं का हिंदी अनुवाद किया है। 'पिता के नाम' इनका पांचवां कहानी संग्रह है, जिसमें छोटे-छोटे शीर्षकों वाली छोटी किंतु उत्कृष्ट कहानियों में ऐसी जबर्दस्त किस्सागोई है कि कहानियां सहज ही पाठकों के अनुभव का हिस्सा बन गई हैं। सुशांत कहानीपन को कहानी की पहली शर्त मानते हैं। कहानी इस तरह रचते हैं कि कथ्य-तथ्य पुराना हो या नया, कहन की खूबी से नवल-निराला बन जाता है। हम निरंतर देख-सुन रहे हैं संवेदना खत्म हो रही है। रिश्ते अर्थ खो रहे हैं। रिश्तों का बोध अब ऐसा कृत्रिम और अस्वाभाविक होता जा रहा है कि लोग वाटस एप और फेस बुक पर भावनायें संप्रेषित कर संवेदना का परिहास कर रहे हैं। छूटते जा रहे रिश्ते, टूटते जा रहे बंधन सुशांत सुप्रिय को चिंतित करते हैं। संग्रह की प्रायः सभी कहानियों में रिश्तों की आवश्यकता, अपनेपन, दायित्व की बात कर उन्होंने सकेत दिये हैं हम अब भी न सम्हले तो पारिवारिक-सामाजिक संरचना को कायम रखना दुरूह हो जायेगा। अकेले व्यक्ति की ताकत खत्म होने में वक्त नहीं लगेगा। शीर्षक कहानी 'पिता के नाम' सहित कई कहानियों में पिता अपने अकेलेपन या अंतर्मुखी स्वभाव या महत्व या व्यवहारिक बुद्धि या प्रोत्साहन या आशीष या अभाव या सम्बल या उम्मीद के साथ मौजूद है।

''जब मैं छोटा था, आपने मुझे गहरी जडें दी। बड़ा हुआ,, आपने मुझे पंख दिये. ... जब मैं खुद को ढूँढने की यात्रा पर निकला, आपने मुझे उम्मीद दी। जब अपनी नियति को पाने निकला, आपने मुझे उत्साह दिया। (पृष्ठ 57)।'' ये पंक्तियां पिता के समग्र व्यक्तित्व को अत्यन्त सहजता से जाहिर करती हैं। संग्रह में पिता कई-कई स्थितियों से गुजर रहे हैं। कहानी रात' के पिता, पुत्र की इतनी उपेक्षा सह रहे हैं जब वह उनके मोतियाबिंद के ऑपरेशन तक को आवश्यक नहीं मानता। कहानी पाँचवीं दिशा' के पिता पूरे गाँव के हित की फिक्र कर रहे हैं। कहानी 'कलम' के पिता, पुत्र को कलम के रूप में प्रोत्साहन और सम्बल दे जाते हैंम कहानी 'बर्फ' के कभी प्रसन्न चित्त रहे पिता बडे बेटे की हत्या, कारावास भुगत रहे मंझले बेटे, सदमे में चल बसी पत्नी जैसे क्रमवार हादसों के कारण बर्फ जैसे सुन्न-शांत हो जाते हैं। संग्रह की कुछ कहानियाँ - खोया हुआ आदमी, हमला, पाँचवी दिशा, उड़न तश्तरी, लौटना, दुमदार जी की दुम आदि आभासी संसार की कहानियाँ हैं जिनका कहन ऐसा जादुई है, उपमा ऐसी अलहदा है जो चमत्कृत करती है। ''बाईसवीं सदी में एक दिन देश में गजब हो गया। तमाम तितलियाँ ही तितलियाँ... तितलियाँ भारी संख्या में लोक सभा और राज्य सभा में घुस आईं। हर तितली के- पंखों पर बारीक अक्षरों में कोई न कोई वादा या आश्वासन लिखा था. ये तितलियाँ वे वादे और आश्वासन जो नेताओं - अधिकारियों ने पिछले सडसठ साल में पूरे नहीं किये थे। वे सभी झूठे वादे और आश्वासन तितलियाँ बन गये थे। (कहानी-हमला)।'' विवरण बडे कौतुकपूर्ण तरीके से देश के कर्णधारों की पोल खोल देता है।

कहानी 'उड़न तश्तरी' का नौ-दस साल का बच्चा रिज के जंगल में प्रत्येक पूर्णिमा को रहस्यमयी उड़न तश्तरी देखता है जो धरा पर नहीं उतरती बल्कि उड़ते हुये ही कुछ देर में लोप हो जाती है। उड़न तश्तरी वयस्कों को नहीं बच्चों को ही दिखाती है क्योंकि उनका बाल मन निर्मल होता है। कहानी 'पाँचवी दिशा' के पिता स्वनिर्मित हॉट एयर बहुत में सवार हो अंतरिक्ष में ऊँचाई पर स्थाई तौर पर स्थापित होकर नियमित रूप से गांववासियों को ठीक उसी तरह मौसम संबंधी पूर्व सूचनायें देते हैं जिस तरह उपग्रह की मदद से दी जाती है। कहानी 'लौटना' नियर दु डेथ एक्सपीरियन्स पर आधारित है। कहानी 'खोया हुआ आदमी' का खोया हुआ आदमी सहसा एक गाँव में आता है और गांववासियों को सकारात्मक तरीके से सोचने का सलीका दे जाता है ये खूबसूरत कहानियाँ बेहतर मनुष्य बनने की प्रेरणा देती हैं। सुशांत ने वस्तुत: ऐसे कथानक चुने हैं जिन पर कथाकार आमतौर पर लिखने का विचार नहीं करते। बडी घटना-दुर्घटना ही नहीं जन साधारण का सामान्य व्यवहार भी सुशांत की सजग नजर से छूट-छिप नहीं पाता है। इसीलिये वे अपनी प्रचुर जानकारियों का उपयुक्त उपयोग-प्रयोग कर बदबू शोर, भूल!! जैसी साधारणतम स्थितियों पर इस तरह कहानी रच लेते हैं कि कहानी कहीं भी अपना अर्थ नहीं खोती।

कहानी बदबू में भ्रष्ट नेताओं, अंडरवर्ल्ड से साठ-गाँठ करने वाली फिल्मी हस्तियों, मिलावट करने वाले दुकानदारों, दूसरों का हक मारने वाले लोगों, व्यवस्था को दुर्गन्धयुक्त बनाने वाले तमाम कारकों की बदबू से तुलना कर कटाक्ष हुआ है। ट्रैफिक, टी०वी० संगीत, टेलीफोन, मोबाइल, आवारा कुत्ता, धार्मिक स्थान के लाउड स्पीकर से उत्पन्न जिस शोर को हम दैनन्दिनी का हिस्सा मानते हैं वह किस हद तक ध्वनि प्रदूषण को बढा रहा है कहानी 'शोर' इस ओर ध्यान आकृष्ट करती है। कहानी फुंसियां' का सुधीन्द्र तमाम पतियों की तरह अपनी कोई आदत नहीं बदलता लेकिन चाहता है पत्नी उसके अनुकूल होने के लिये हर सम्भव प्रयास करे। यहां तक कि चेहरे पर अक्सर होने वाली फुंसियों -मुंहासा को चाहे जिस विध ठीक करे क्योंकि सुधीन्द्र को फुंसियों से अरुचि है। वह बिल्कुल नहीं सोचना चाहता चेहरे की फुंसियों का उपचार सम्भव है पर अत्यधिक व्यवधान देने से आपसी रिश्ते में पड़ गये फोडे-फुंसियों का हल नहीं है। सुशांत की कहानियां इसी सादगी लेकिन परिपक्वता के साथ धर्म, राजनीति, जालसाजी, अवसरवादिता, शासकीय-अशासकीय संस्थानो, शैक्षणिक सस्थानों, चिकित्सालयो में पनप गई भर्रेशाही जैसी समाज की विद्रूपताओं को उजागर करती हैं। ''आजकल मेरे साथ अजीब बातें हो रही हैं। रात में मुझे काटने से पहले खटमल और मच्छर मुझसे मेरा धर्म पूछने लगे हैं। हवा मेरे ऑगन में बहने से पहले मुझसे मेरी जाति पूछने लगी है। धूप मेरे घर के दालान में उतरने से पहले मुझसे मेरी नस्ल पूछने लगी है। आकाश में घिर आई काली घटा मेरे आंगन में बरसने से पहले मुझसे जानना चाहती है, मैं किस राज्य का हूँ। कौन सी भाषा बोलता हूँ। (41)।'' यह आज का सर्वाधिक प्रमाणित सत्य है। शिक्षा-दीक्षा का प्रतिशत बढा है, वैज्ञानिक उपलब्धियाँ बढी हैं लेकिन साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, जाति. धर्म जैसा मतभेद कम नहीं हो रहा है। विडम्बना है, पक्की सड़कें चला को हाइवे से जोड़ कर विकास कर रही हैं लेकिन मुसहर टीले वालों को आज भी पाठशाला और मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता।

एक ओर ''शिव ने सपने में कहा, यहीं मंदिर बनाओ।' ' जैसे आधार पर मंदिर बन जाता है (कहानी - नास्तिक) दूसरी ओर ग्रामीण युवती धनियाँ की सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या कर दी जाती है (कहानी - छुई-मुई)। पंजाब के 1983 वाले आतंकवाद में एक सरदार, हिन्दू नवयुवक को अपना पुत्र कह कर आतंकवादियों से सुरक्षित करता है (कहानी - मिलन) जबकि सड़क पर पडे शव पर राजनीति हो जाती है कि शव का धर्म ओर जाति क्या है ' (कहानी - बँटवारा)। यह विभीषिका एकाएक उत्पन्न नहीं हुई है। सम्प्रभु वर्ग, जन साधारण पर सदियों से अत्याचार करता आया है। ''नाजियों ने उन्हें गैस चैम्बर में मारा था। दंगाइयों ने उन्हें देश के विभाजन के समय मारा था। वे दिल्ली, बोरिया के नर सहारों में मारे गये थे। वे हर उस जगह मरे थे जहाँ किसी बेगुनाह व्यक्ति को इसलिये मारा गया था कि वह किसी धर्म, वर्ग या जाति विशेष का था (कहानी - मिलन)। यह कम थम नहीं रहा है तभी तो अपनी नौकरियाँ पक्की करने और आठ माह का रुका वेतन पाने की जायज मांग लेकर धरने पर बैठे प्राध्यापक शरद आत्महत्या के लिये विवश हुये और प्रणेता प्राध्यापक सरोज कुमार की पुलिस ज्यादती से मृत्यु हो गई (कहानी कांड)। ये विद्रूपतायें सुशांत सुप्रिय के मानस में जो अधीरता भरती है उस अधीरता से 'चिकन' जैसी मार्मिक कहानी तैयार होती है।

चिकन शॉप में रजिन्दर फेश चिकन की माँग करता है दुकानदार मुर्गे को जिबह करने के लिये उद्धत है। दुकानदार के हाथों में चीख-फड़फडा रहे मुर्गे की आँखों में रजिन्दर को भय, लाचारी, कातरता नजर आती है। दुकानदार से कहता है - मुर्गे को मत मारो। मुझे चिकन नहीं चाहिये। संग्रह की प्रायः सभी कहानियों में इसी तरह नकारात्मकता और संवेदनशीलता की मानो निर्झरणी बह रही है। बँटवारा,, बयान, नास्तिक, धोकपाट आदि कहानियाँ ऐसी हैं जिनका पूरा उद्धरण देना चाहिये लेकिन समीक्षा की एक सीमा होती है। ये चारों कहानियाँ ऐसी उपयुक्त स्थितियों से गुजरते हुये विकसित हुई हैं मानो इन स्थितियों के अतिरिक्त अन्य स्थिति हो ही नहीं सकती थी। इनमें धोकपाट' संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी है। कई दगल जीतने वाला बडा फुर्तीला और ताकतवर हरपाल अपने इलाके में 'छोटा गामा' कहा जाता था। ढलती उम्र में आर्थिक अभाव से जूझता है। भिवानी में होने वाले कुश्ती मुकाबले में लड़ने का साहस इसलिये करता है कि जीतने वाले को अच्छी रकम और रुस्तम ए हिंद का खिताब मिलेगा। उसमें युवा पहलवानों की भाँति क्षमता और ऊर्जा नहीं है लेकिन आत्मबल और अनुभव से फाइनल मुकाबला जीत लेता है। विवरण इतना मार्मिक है कि पाठकों को यह हरपाल की नहीं खुद की जीत प्रतीत होती है। कहानी सवाल उठाती है जो खिलाडी (कुछ चर्चित खेलो के अलावा तमाम खेल के खिलाडी आर्थिक अभाव और गुमनामी से गुजरते हैं।) अपना जीवन खेलने, देश को ख्याति दिलाने में लगा देते हैं, उनके लिये शासन-प्रशासन पेंशन जैसा कोई इंतजाम क्यों नहीं करता कि वे अच्छा जीवन जी सकें, अच्छे खिलाडी तैयार कर सकें।

कुल मिला कर कहा जा सकता है 'पिता के नाम' में यथार्थ के बहुत भिन्न वाकये बहुत भिन्न पहलू हैं। सम्प्रभुवर्ग की अराजकता, अतिरेक, अहंकार है। सर्वहारा वर्ग की अड़चनें, अभाव, आपत्तियाँ हैं 1 छुरी-चम्मच से खाने वाले हैं। जनेऊ पहनने वाले ग्रामीण हैं। झुनिया, मीना, मुन्नी जैसे बर्तन धोने, खाना बनाने, कपडे प्रेस करने जैसे घरेलू काम करने वाले बच्चे हैं। ढाबों में काम करते, जूते पॉलिश करते, लाल बत्ती पर गाडियों के शीशे साफ करते बाल मजदूर हैं। डोर दू डोर सामान बेचते, ऑटो चलाते, लूट-पाट करते, अपराधी बनते बेरोजगार युवा हैं। इन सबसे ऊपर ''जिंदगी की छोटी-छोटी चीजों में अपनी खुशी खुद ढूँढनी होती है। (15)।'' जैसा पथ प्रदर्शक संदेश है। कहानियाँ पाठकों को विश्वास सौंपती है कि गलत लोग है तो भले लोगों की भी कमी नहीं हैं। अराजकता के मंजर में उद्धारक भी है। सुशांत सुप्रिय ने किस्सागोई शैली में कहानियों का ऐसा वितान रचा है कि कहानियाँ स्वाभाविक और वास्तविक लगती हैं। कही भी अपना अर्थ नहीं खोतीं। सुशांत की यही पहचान है। यही स्टाइल है। मुझे उम्मीद है उनकी स्टाइल कायम रहेगी।

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पुस्तक - पिता के नाम (कहानी - संग्रह)

लेखक - सुशांत सुप्रिय

प्रकाशनवर्ष - 2०१7

प्रकाशक शशि प्रकाशन

सी - 56 यूजी--4

शालीमार गार्डेन, एक्सटेंशन-।।

सहिबाबाद, गाजियाबाद - 201००5

मूल्य - 35० /-

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समीक्षक संपर्क -

सुषमा मुनीन्द्र

द्वारा श्री एम. के. मिश्र

जीवन विहार अपार्टमेन्ट्स

द्वितीय तल. पलैट न! 7

महेश्वरी स्वीट के पीछे

रीवा रोड. सतना 485001

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रचनाकार: पुस्तक समीक्षा - पिता के नाम - कहानी संग्रह : सुशांत सुप्रिय
पुस्तक समीक्षा - पिता के नाम - कहानी संग्रह : सुशांत सुप्रिय
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