संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 52 // वो सोलह दिन // मीना चंदेल

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वो सोलह दिन संस्मरण मीना चंदेल एक दिन अचानक सुबह उठकर किसी को ये पता चले कि उसको एक अजीब और खतरनाक बीमारी हो गई है जिसका नाम भी काफी है रूह...


वो सोलह दिन

संस्मरण

मीना चंदेल

एक दिन अचानक सुबह उठकर किसी को ये पता चले कि उसको एक अजीब और खतरनाक बीमारी हो गई है जिसका नाम भी काफी है रूह कांप जाने के लिए, अभी कल तक तो जीवन सामान्य था स्वस्थ शरीर ,अच्छा खान-पान, योगा सबके चलते कैसे किसी को इतनी गंभीर बीमारी हो सकती है ? पर ऐसा हुआ, जी हाँ ऐसा ही कुछ घटित हुआ मेरे जीवन में जिसे आज भी याद करके मुझे भगवान की रहमतों और अपनी किस्मत की बुलंदी पर हैरानी होती है।

बात 24 जून 2016 की है सामान्य सुबह और उसके साथ वही भाग - दौड़ , झाड़ू – पोंछा, खाना बनाना , बच्चों का और अपना लंच पैक किया। अलमारी से नीले रंग की साड़ी निकाली और प्रेस करने के साथ –साथ बच्चों को समय को भी चेतावनी दे रही थी ,जल्दी करो देर हो जाएगी। कल से गर्मियों की छुटियाँ शुरू होनी थी बच्चों में भी उत्साह था कि कहीं घूमने निकलेंगे , शोपिंग के लिए लिस्टें तैयार हो रही थी।

प्रेस करके मैं नहाने के लिए बाथरूम में चली गई उस दौरान मुझे महसूस हुआ कि मेरी बाईं पसली की तरफ कुछ असामान्य है, जैसे कोई गाँठ है पर स्कूल की बस की जल्दी में बड़ा ध्यान नहीं दिया और तैयार होकर अपनी कर्मभूमि की तरफ रवाना हो गई। स्कूल में हंसी-ख़ुशी दिन निकला और रात को सब बैठकर छुट्टियों की प्लानिंग करने लगे। फिलहाल अगले दिन के लिए ये निर्णय लिया गया कि छोटी बेटी की आँखें दिखाई जाएँगी उसके चश्मे का नंबर कम हुआ या नहीं। 25 जून को सभी हॉस्पिटल के लिए चल पड़े ब्रेकफास्ट भी रस्ते में ही किया और लंच चेक-अप के बाद सागर व्यू होटल में करना तय हुआ।

हॉस्पिटल १० बजे ही मरीजों से खचाखच भरा हुआ था एक डॉक्टर और इतने मरीजों पर एक अनार सौ बीमार वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। इंतज़ार करते-करते बड़ी मुश्किल से १२ बजे नंबर पड़ा| आँखें दिखाई ,डॉक्टर ने आँखों में सुधार बताया तो थोड़ी तसल्ली हुई। मैंने पतिदेव से कहा मैं भी ओ.पी.डी. में दिखा लूं पसली में कुछ सिस्ट सी महसूस हो रही है उन्होंने कहा ,‘आज बहुत भीड़ है और लंच टाइम भी हो चला है किसी और दिन फिर आ कर दिखा लेंगे। उस दिन गर्मी भी बहुत थी और मरीजों की लम्बी कतार देख कर मुझे भी उनकी बात सही लगी।

हम हॉस्पिटल से बाहर निकलने के लिए सीढियों की तरफ बढे तभी,`चंगे चाहे माडे हालात बिच रखीं मैनो मेरे मालका औकाद बिच रखी , मेरे फ़ोन की रिंगटोन बजी। फ़ोन देखा तो मेरे बड़े भाई का था जो पेशे से डॉक्टर, शिमला में कार्यरत हैं। हालचाल पूछा तो मैंने बताया कुछ ऐसी सिस्ट महसूस हो रही है दिखाना चाह रही थी पर भीड़ ही बहुत ज्यादा है। भाई ने कहा, आप रूम नंबर २०१ के बाहर जाकर इंतज़ार करो मैं थोड़ी देर में फ़ोन करता हूँ शिमला से पहले भाई जी बिलासपुर मैं ही कार्यरत थे तो सभी डॉक्टर जानने वाले थे। मैंने भी पर्ची बनवाई और ओ.पी.डी. के बाहर खड़ी हो गई।

लगभग पांच मिनट बाद अंदर से नर्स ने मुझे मेरे नाम से पुकारा, मैं अंदर चली गई। वहां सुनीता नाम की डाक्टर थी जिसने मेरी जांच की और कहा, ‘वैसे तो सब ठीक लग रहा है नो नीड टू वरी पर आप तसल्ली के लिए अल्ट्रासाउंड करवा के दिखाओ। एक अजीब सा डर मैंने महसूस किया पर फिर सोचा कुछ नहीं होगा। फ़ोन पर भाई से बात हुई तो उन्होंने कहा ,‘आप कल मेरे पास शिमला आ जाओ यहीं सारे टेस्ट करवाते हैं।

मुझे लगा चलो अच्छा हो गया शिमला घूमना भी हो जाएगा और दिखा भी लेंगे क्या बात है। वहां से हम फिर सागर व्यू होटल पहुंचे। भूख भी जोरों पर लगी थी सबने अपनी पसंद का खाना आर्डर किया और मैंने अपनी कमजोरी चना-बटूरा ही खाया जब बाहर खाना तो तली चीजों से क्या डरना। छुट्टियों का पहला दिन थोडा दिक्कत में और ज्यादा मजे में कटा। दूसरे दिन हम शिमला के लिए रवाना हो गए। शिमला पहुँच कर खूब सेवाभाव हुआ मेरी भाभी भी पैशे से डाक्टर हैं। अगले दिन यानि २७ जून को हॉस्पिटल जाकर ओंकोलोजिस्ट को दिखाया तो उन्होंने लम्बी लिस्ट टेस्ट करवाने के लिए दे दी।

मुझे समझ नहीं आ रहा था ऐसा क्या हुआ है मुझे हॉस्पिटल तो आना ही नहीं चाहिए। अब पता नहीं इनके कितने प्रयोग झेलने होंगे। ब्लड टेस्ट,सी.टी. स्केन, सी.बी.सी. , अल्ट्रासाउंड, मेमोग्राफी, बायोप्सी और एक्स-रे न जाने कितने टेस्ट करवाने के लिए सारा दिन एक रूम से दूसरे रूम दौड़ लगती रही। थोड़ी देर के लिए तो मन में ये आ रहा था कि मैंने बताया ही क्योँ ? सारा दिन थक गए, फिर घर जाकर खाना खाकर कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। अगले दिन सभी शिमला घूमने निकल गए। माँल में आइसक्रीम, त्रिशूल में पेस्ट्री ,कुरकेज, डोमिनोज में पिज़्ज़ा खूब मजे उडाये, पिछले दिन की सारी कसर निकाल ली। बस यूं ही मस्ती में दिन बीत रहे थे।

4 जुलाई सुबह के दस बजे एक्सरसाइज कर रही थी क्यों कि उठना भी देरी से हुआ था घर का लैंड-लाईन फ़ोन बजा , मैंने उठाया तो दूसरी तरफ भाभी थी उसने बताया कि मेरी सारी रिपोर्ट्स आ चुकी हैं वो कुछ घबराई हुई तो लग रही थी पर मुझे पता नहीं क्यों ऐसा विश्वास था कि वो बोलेंगी सब ठीक है पर ऐसा कुछ नहीं हुआ| मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि तुम्हें ब्रेस्ट कैंसर है वो शायद आगे भी कुछ बोल रही थी पर मुझे कुछ सुनाई नहीं दिया ये सुनने के बाद जैसे मेरे दोनों कानों में साईंरन जोर-जोर से बज रहा था और जैसे एक क्षण में मेरी जिन्दगी ही बदल गई। मेरे हाथ पैर जैसे छूट गए सिर में अजीब सी झननाहट मानो मेरी दुनियां ही ख़त्म हो गई| आँखों के आगे अँधेरा छा गया। कितने ही मंजर आँखों के आगे घूम गए और दिल से एक दर्द भरी शिकायत उस परमपिता के लिए, अभी तो सबकुछ अधूरा है और मैं क्यों ? कितने ही विचारों ने मेरी घुटन को और बढ़ा दिया।

आँखों के आँसूं रुक नहीं रहे थे और दिल इतना भारी कि अभी धड़कना बंद कर देगा ,शरीर की नसों में जैसे खून जाम हो रहा था। इस तरह भी दर्द होता है इससे पहले मैंने जीवन में महसूस नहीं किया था। टूटे शीशे की तरह जैसे जीवन बिखर कर रह गया। फिर वही सबकुछ जो आम तौर पर होता है अपनों की तसल्ली, कि सब ठीक हो जाएगा , आजकल ये बीमारी आम है , बहुत अच्छा इलाज और दवाइयां है। मैं इस दर्द में जैसे अपनी ही दुनियां में थी मुझे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कोई क्या कह रहा है मैं अंदर ही अंदर तिल-तिल बिखरती जा रही थी। मेरा पूरा परिवार मेरे साथ खड़ा था और इस बीमारी से लड़ने के लिए तैयार था, और मुझे भी मानसिक रूप से तैयार कर रहा था कि अब लड़ना होगा , जीना है तो जीतना ही होगा।

६ जुलाई सुबह मैं ,पतिदेव और भाई जी दिल्ली के लिए रवाना हुए। एक बहुत ही अच्छे न्यूरोलॉजिस्ट, हमारे रिश्तेदार थे जो दिल्ली अपोलो हास्पिटल में सर्जन थे। शाम को हम उनके यहाँ रुके और लम्बे चौड़े विचार-विमर्श के बाद अगला इलाज धर्मशिला कैंसर हॉस्पिटल में करवाना तय हुआ। 7 जुलाई, हॉस्पिटल पहुँचकर सारी औपचारिकता शुरु हुई। मेरे आसपास बहुत से चेहरे जो उदास थे शायद वो जानते थे कि लड़ने के बाद भी हम जिन्दगी की जंग हारने वाले है ,पर कुछ चेहरे ऐसे भी थे जो फूलों की तरह मुस्कुरा रहे थे मासूम तीन-चार साल की उमर वो अंजान थे इस बीमारी से वो जूझ रहे थे पर डर नहीं रहे थे वो मस्त थे बालों का झड़ने पर कटवा देना उनके लिए नया हेयर स्टाइल था और हॉस्पिटल के चक्कर काटना महज सैर सपाटा था। मुझे ई.सी.जी के लिए अंदर ले जाया गया।

आँखें बार बार भर रही थी और मैं उँगलियों से आँखों के कोने दबाकर , झूठी मुस्कान चेहरे पर ला रही थी ये मेरे लिए बहुत दर्दनाक था। तभी एक नर्स जो बात करने के लहजे और शक्ल से दक्षिण की लग रही थी, मेरे पास आकर उसने मेरे सिर पर हाथ रखा और कहा, घबराने का नहीं यहाँ रोज कितना मरीज आता है, सब ठीक हो जाता है आप भी होगा ,बस हिम्मत रखने का। ये तो किसी को भी हो सकता है मैं अभी अच्छा भला है कल को मेरे साथ भी हो सकता है। एकाएक मेरे मुँह से निकला , प्लीज ऐसा मत कहो ऐसी बीमारी तो दुश्मन को भी न हो एक–एक करके सभी टेस्ट हो गए।

मुझे शाम को स्पेशल वार्ड में एडमिट करवा दिया गया। 8 जुलाई सुबह दस बजे डॉक्टर राउंड पर आया काफी काउंसिलिंग की और समझाया कि बीमारी बड़ी नहीं इसका डर बड़ा होता है, अगर आप ठान लें कि इससे निकलना है तो कुछ भी मुश्किल नहीं। 11 जुलाई को ऑपरेशन रखा गया। जैसे-तैसे समय कटा सुबह से कुछ नहीं खाना था १०.३० का समय तय था। मैंने नहा-धोकर ओपरेशन गाउन पहन लिया जो भी गहना मैंने पहना था मुझसे खुलवा लिया गया। वार्ड लेडी व्हील चेयर लेकर मुझे ले जाने आई। मैंने चलकर जाने की बात कही। मेरे पति, भाई और भाभी मुझे ओपरेशन थिएटर के दरवाजे तक छोड़ने आये।

मैं बहुत डरी हुई थी ,पर बाहर से दिखावा कर रही थी कि ये मामूली बात है मैं बस गई और आई, पर में पीछे मुड़कर उन सबको नहीं देख पाइ क्यों कि ये चेहरा तो सच का आईना है अंदर प्रवेश करते ही जैसे मैं सितारों की दुनिया मैं आ गई थी इतनी लाइट्स की जगमगाहट, डाक्टर और नर्स जैसे भगवान के दूत लग रहे थे। मुझे स्ट्रेचर पर बिठाया गया और मुझसे बातें करते हुए डाक्टर ने कहा आप बिलकुल शांत हो जाइये बस आपकी पीठ पर हल्की सी दर्द होगी क्यों कि एक इंजेक्शन लगाना है उसके बाद आपको कुछ पता नहीं चलेगा अगला काम हमारा है हम आपकी बीमारी को................बस मैं इतना ही सुन पाई क्यों कि अनेस्थीजिया अर्थात बेहोश होने का इंजेक्शन मुझे दे दिया गया था और मैं बेहोश हो गई थी।

१२ जुलाई शायद अंदाजन शाम का समय मुझे थोड़ी सी होश आई जिसमे सिर्फ मेरा दिमाग कुछ आवाजें सुन पा रहा था पर मुझे पता नहीं मैं कहाँ हूँ ? जिन्दा हूँ या मर गई हूँ। मेरे आसपास की हलचल को मेरा दिमाग महसूस कर पा रहा था जिसमे सबसे ज्यादा तंग करने वाली एक तीखी सी आवाज थी जो हम्मा–हम्मा करके बज रही थी जो मुझे बाद में पता चला कि वो वेंटीलेटर मशीन की आवाज थी। सिर्फ मेरा दिमाग आसपास की गतिविधियों को महसूस कर पा रहा था| मेरी आँखें नहीं खुल पा रहीं थी। कुछ बोल नहीं पा रही थी, ना ही मेरे हाथ पैर या शरीर का कोई हिस्सा हिल पा रहा था। मैं सक्षम नहीं थी ये जानने मैं कि मैं कहाँ हूँ क्यों ?

मुझसे दिमाग पर जोर नहीं डाला जा रहा था मैं बोलना चाह रही थी पर आवाज नहीं निकल रही थी क्यों कि पाईप से मेरी वोकल कार्ड बंद कर दी गई थी। बाद में मुझे पता चला कि मेरे नाक में ऑक्सीजन पाईप लगी थी। मुँह में दो नालियां डली थी कुल मिलकर कोई आठ नालियां मेरे शरीर में डली थी। एक हरे रंग का कपड़ा मेरे मुँह पर डाला हुआ था जो उस वक्त कफन का काम कर रहा था| उससे मेरा साँस घुट रहा था। मैं पसीने से तरबतर हो रही थी और बार-बार उस घुटन से मैं बेहोश हो रही थी। जब होश आता तो भगवान से प्रार्थना करती कि कोई आकर मेरे मुँह से इस कपडे को हटा देता जिससे मैं सांस ले पाती, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। उस घुटन से मैं बड़ी देर जूझती रही यूं लगे कि इस घुटन से मेरा साँस रुक जाएगा और अब बचना मुश्किल है पर शायद अभी भगवान की बक्शी साँसे और थी।

मुझे आई.सी.यू. में शिफ्ट कर दिया गया। मैं तरस गई थी अपने अपनों को देखने के लिए , पर वहां भी नियम मानवीय जज्बातों से बड़े थे। सिर्फ आधा घंटा रिश्तेदारों को मिलने की इजाजत होती है। मैं अपनों के साथ रहना चाहती थी, आई.सी.यू में नहीं, पर मुझे एक रात पर्यवेक्षणाधीन रहना पड़ना था क्यों कि अभी शरीर के सारे अंग सही से काम कर रहे है या नहीं ये डाक्टर की जांच का विषय था। मुझे लगा बस एक रात और फिर सब ठीक हो जाएगा धीरे-धीरे, पर जिन्दगी का एक और इम्तिहान अभी बाकी था और बहुत कठिन !

थोड़ी देर बाद भाई और दो डॉक्टर मेरे पास आकर ओपरेटीड हिस्से की जाँच करने लगे। उनके चेहरे पर अजीब सी उलझन थी पर मुझे कोई कुछ नहीं बता रहा था। वो लोग बिना मुझसे बात किये बाहर चले गए और थोड़ी देर बाद मुझे स्ट्रेचर पर शिफ्ट किया गया और दुबारा ओप्रेसन थेटर ले जाया गया। मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया था। पूछ मैं किसी से कुछ सकती नहीं थी क्यों कि वोकल कोर्ड को पाईप डाल कर बंद कर दिया था और बता मुझे कोई कुछ नहीं रहा था। ओ.टी पहुँचकर डॉक्टरों की आपसी बातचीत से पता चला कि कोई कट नस पर रहने की वजह से खून बह रहा था इसलिए दुबारा सर्जरी होगी। कोई चारा नहीं था मेरे पास सिवाय भगवान का नाम लेने के। ओपरेशन खोला गया कटी नस को स्टिच करने के लिए वो जो भी कर रहे थे उन टर्म्स को मैं नहीं जानती पर करंट मेरे सारे शरीर को जला रहा था। अब होगा अब होगा सोचते सोचते छह घंटे की सर्जरी चली।

उसके बाद मुझे नहीं पता कब मुझे आई.सी.यू शिफ्ट कर दिया गया। क्या वक्त है दिन है या रात मुझे कुछ पता ना था। दो रातें वहां रखने के बाद जब मुझे स्पेशल वार्ड में भेज दिया गया। मैं बहुत शांति महसूस कर रही थी अपनों के बीच आकर, और मेरे अपने भी। मुझे तो ये सब झेलना ही था पर मेरे अपनों ने मुझसे ज्यादा दर्द और डर महसूस किया। अब सब चैन की नींद ले रहे थे , पर हास्पिटल में मेरा मन उदास ही था मैं खुली हवा मैं सांस लेना चाहती थी दवाइयों की अजीब सी महक से मैं ऊब गई थी। सूरज की रोशनी को महसूस करना चाहती थी ताजी हवा में बहना चाहती थी चिड़ियों की चहचहाहट सुनना चाहती थी अपने पैरो पर चलना चाहती थी। पर ये अभी संभव नहीं था क्यों कि मैं इतनी कमजोर थी कि अपने पैरों पर खड़ी भी नहीं हो सकती थी।

17 जुलाई दोपहर दो बजे मेरा मन हुआ मैं बाहर कोरिडोर तक चलूँ। भाई और भाभी ने मुझे दोनों तरफ से पकड़ा और पतिदेव हमारा वीडियो बनाने लगे। मैंने हिम्मत कर सहारा लेकर चलना शुरु किया। मुझे आज भी याद है मैं अडतालीस कदम चलकर बाहर बालकनी तक पहुंची थी, जहाँ नीचे कितनी ही कारें पार्किंग मैं खड़ी थी और एक सफ़ेद स्कूटी देखकर मेरी नजरें उस पर रुक गई और मुझे अपनी स्कूटी याद आ गई ना जाने कब वो दिन आएगा जब मैं अपनी स्कूटी को चलाने लायक हो पाऊँगी।

19 जुलाई गुरु पूर्णिमा का दिन हास्पिटल से डिस्चार्ज होना था मन को पंख लग गए थे अब ध्यान माता-पिता के पास शिमला के घर में पहुँच गया था| अभी भी शरीर में चार पाइप लगे थे| भाई-भाभी दोनों डॉक्टर हैं इसलिए तब बाकी ड्रेसिंग घर में खुद ही की उन्होंने।

आज सोचती हूँ तो हैरानी होती है कि कैसे मैंने उस हालत में दिल्ली से शिमला तक का सफ़र तय किया।

इसके बाद इलाज का अगला पड़ाव शुरू हुआ।

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मीना चंदेल

गाँव – बेरी दरोलन

डाकखाना – बेहना जट्टां

बिलासपुर [ हिमाचल प्रदेश ] १७४०२४

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रचनाकार: संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 52 // वो सोलह दिन // मीना चंदेल
संस्मरण लेखन पुरस्कार आयोजन - प्रविष्टि क्र. 52 // वो सोलह दिन // मीना चंदेल
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