विज्ञान - कथा : योगिराज // डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय

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योगिराज। डॉ0 राजीव रंजन उपाध्याय। विज्ञान-कथा। ‘‘आ र्यशास्त्र में भक्ति को, उपासना का प्राण और योग को उपासना का शरीर कहा गया है। जिस प्रकार ...

योगिराज।

डॉ0 राजीव रंजन उपाध्याय।

विज्ञान-कथा।

‘‘आ र्यशास्त्र में भक्ति को, उपासना का प्राण और योग को उपासना का शरीर कहा गया है। जिस प्रकार बिना प्राण के शरीर नहीं रह सकता, उसी प्रकार बिना भक्ति के, श्रद्धा के, उपासना संभव नहीं है। शरीर के बिना जिस भाँति शारीरिक आत्मा का भोग असंभव है, उसी तरह योग शैली की अनुपस्थिति में उपासना का कोई साधन नहीं बन सकता। इसी हेतु योग को उपासना का शरीर कहा गया है।’’

योगिराज का गम्भीर स्वर सभा-कक्ष में गूँज रहा था।

सभा में पूर्ण शान्ति थी। आवरण और विभिन्न भावों के अन्तःकरण में युक्त रहने के कारण, परमात्मा का, सर्वशक्तिमान का कोई स्वरूप स्पष्ट नहीं हो सकता या दूसरे शब्दों में, जब तक सद्वृत्ति मानस वाणी में तरंगित नहीं हो तो उस अवधि तक सत्य-तथ्यात्मक परमात्मा का रूप स्पष्टता से दिखता नहीं। इसी कारण ‘योगि०चत वृत्ति निरोधः’ चित्तवृत्ति निरोध की सुकौशलपूर्ण क्रियाओं को योग कहते हैं।’

‘‘उपासना शब्द का अर्थ है - उप अर्थात् समीप, आस्यते का तात्पर्य है - प्राप्त होना और अनया - इस विधि द्वारा, अर्थात् जिस विधि से, जिन-जिन क्रियाओं से परमात्मा - उस ब्रह्माण्ड व्याप्त शक्ति से निकटता, जुड़ाव या समीपता की अनुभूति होती है, उसे उपासना कहते हैं। इसी उपासना के फलस्वरूप उस ब्रह्माण्ड व्याप्त शक्ति से, उस कॉसमिक फोर्स से सान्निध्य प्राप्त होता है।’’

‘‘परन्तु उस स्थिति को प्राप्त करने के पूर्व साधक को चित्त व्युत्थान दशा से लेकर, निरोध तक की दशा प्राप्त करने में पाँच दशायें, पाँच स्थितियाँ बतायी गयी हैं। योगशास्त्र की भाषा में वे हैं : मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। चित्त की, मन की मूढ़ भूमि वह कहलाती है जिसमें चित्त सद्विचारहीन होकर आलस्य, चंचल होकर, कुछ से कुछ करता रहता है।

यह तमोगुणी भाव भूमि है।’’

‘‘चित्त की रजोगुणी भाव भूमि का नाम क्षिप्त है, जिसमें चित्त किसी एक कार्य में लगकर बुद्धि की सहायता से विचार करता हुआ किसी लक्ष्य का साधन करता है। विक्षिप्त भाव भूमि सत्त्व गुणयुक्त है और क्षिप्त के साथ मिलकर सुख-दुख आदि अनेक मानवीय भावों से पृथक् होकर शून्य की स्थिति में स्थिर हो जाता है। इस भावभूमि का उदय महात्माओं में अधिक और सांसारिक जीवों में कभी-कभी थोड़ी देर के लिए होता है।’’

‘‘इनके बाद की चित्त की स्थितियों को प्राप्त करने के लिए ध्याता अथवा योगी ध्येय वस्तु में, ध्येय विम्ब में चित्त को ठहराने का प्रयास करता है, इसी के लिए महर्षि पतंजलि ने यम, नियम, प्राणायाम प्रत्याहार, ध्यान और समाधि आदि अष्टाँग योग रूप एवं साधारण उपाय और ईश्वर प्राणिधान, अभिमत, ध्यान, स्वप्न, निद्रा, ज्ञानावलम्बन, ज्योतितष्मसी, विशोकादर्शन आदि कई असाधारण उपाय बताये हैं।’’

‘‘इस प्रकार साधारण और असाधारण उपायों द्वारा, एकाग्र भूमि में उन्नत लाभ करके अन्त में जब साधक के चित्त में ध्याता, ध्यान, ध्येयरूपी त्रिकुटी का विलय हो जाता है तभी अन्तिम भूमि निरुद्ध की भूमिका का उदय होता है। इसी निरुद्ध भूमि में योगी क्रमशः सम्प्र्र्र्र्र्र्रज्ञान समाधि की चार अवस्थाओं का अतिक्रमण कर सिद्धावस्था प्राप्त कर मुक्त हो जाता है। अतः योग के किसी मार्ग का पालन करते हुए निरुद्ध भूमि-निरुद्ध भाव भूमि में पहुँचने का नाम साधन है।’’

योगिराज ने क्षणभर के लिए अपनी वाणी को विश्राम दिया। उन्होंने देखा कि श्रोतागणों के मुख पर उनके अगले शब्द को सुनने की प्रतीक्षा है। यह निरखकर उन्होंने कहना पुनः प्रारम्भ किया, ‘‘चित्तवृत निरोध करने वाली क्रिया शैली को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है और चित्तवृत्तियों को निरुद्ध करने के मार्ग को आठ सोपानों में विभक्त किया जा सकता है।’’

‘‘यह संसार नामरूप है - संसार का कोई अंग - कोई भाग, कोई अंश नामरूप से बचा नहीं है। इसी कारण जीव नामरूप में बद्ध होकर फँस कर तड़पता रहता है। उसका चित्त, चंचलता का परित्याग नहीं कर पाता, इसी कारण मनुष्य को नामरूप, जिसके कारण वह पतनोन्मुख होता है, उसी को पकड़कर ऊपर उठने का प्रयास करना चाहिए। अस्तु, नामरूप के अवलम्बन से चित्तवृत्ति निरोध की जितनी क्रियाएँ हैं, उनको मंत्र-योग के अन्तर्गत करके महर्षियों ने वर्णित किया है।’’

योगिराज की दृष्टि भाषण करते हुये योगिक क्रियाओं की वैज्ञानिक ढंग से करने के लिए विख्यात डॉ. विलियम पर जाकर ठहर गयी।

उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि डॉ. विलियम कुछ कहना चाहते हैं। डॉ. विलियम योगिराज के भाव को समझ गये।

उन्होंने प्रश्न किया, ‘‘चित्तवृत्ति निरोध की एक शैली हठ योग भी है, योगिराज!’’

‘‘निश्चित रूपेण’’ योगिराज का संक्षिप्त उत्तर था।

‘‘मानव का स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर का परिणाम है।

इस कारण स्थूल शरीर के अवलम्बन से सूक्ष्म शरीर पर प्रभाव डालकर, चित्तवृत्ति निरोध की जितनी शैलियाँ हैं - उन्हीं को हठ-योग कहते हैं’’ योगिराज ने अपने उत्तर का विस्तार देते हुये श्रोताओं को संबोधित किया।

सभाकक्ष में अभी तक बैठी एक महिला उठकर खड़ी हो गयी। उसने योगिराज से हठ योग से इतर, लय-योग के विषय में संक्षेप में जानने की इच्छा प्रकट की। योगिराज लय योग के विषय में दो शब्द कहने वाले थे कि यह शब्द मेघना के मुख से वहाँ प्रत्यक्ष हो गया। इस कारण साश्चर्य योगिराज ने उस प्रश्न की चर्चा सुनने की इच्छुक महिला को देखा।

तीस वर्षों की, गौर वर्ण, सुन्दर नख-शिख लसित उस युवती के स्वस्थ आनन पर से एक विचित्र प्रकार की छवि विद्यमान थी। इसे देखकर योगिराज उसकी उर्वर और कुशाग्र बुद्धि को तत्काल पहचान गये। वे अनायास ही उसका नाम जानने के लिये इच्छुक हो गये।

‘‘आपका नाम?’’ योगिराज ने पूछा।

‘‘मेघना।’’

‘‘मात्र मेघना?’’

‘‘जी!’’

‘‘अतीव नादयुक्त नाम है तुम्हारा! मैं तुम्हारी जिज्ञासा को शान्त करने का प्रयास करता हूँ।’’

योगिराज ने सभा को संबोधित करते हुये कहना प्रारम्भ किया, ‘‘लय योग का ढंग कुछ और ही विचित्र है।

इसमें शरीर रूपी पिण्ड और समष्टि सृष्टि रूपी ब्रह्माण्ड यह दोनों समष्टि-व्यष्टि संबंध में एक ही है। अतः इन दोनों को एक समझकर, अपने भीतर निहित जो प्रकृति शक्ति है उसको अपने के शरीर के पुरुष भाग में लय करने की जो शैली है, तथा जो साधन हैं, उनको इस शैली के अनुयायी लय शैली अथवा इसको लय योग कहते हैं।’’

‘‘और राज योग क्या है?’’ एक श्रोता का प्रश्न था।

‘‘इस 21वीं शताब्दी में मानव के मन में कामनाएँ बढ़ी हैं, जो मनुष्य के मन को मथती रहती हैं, व्यतिथ किये रहती हैं, परन्तु बुद्धि के संतुलित प्रयोग द्वारा, कोई भी व्यक्ति मनस्ताप से मुक्ति पा सकता है। इसी को अज्ञान से ज्ञान की ओर उन्मुख होना कहा जाता है। अतः बौद्धिक तर्क द्वारा चित्त निरोध की शैली को राज योग कहा जाता है।’’

‘‘यह योग शैली सहज होते हुये भी उचित तर्कबुद्धि की अपेक्षा रखती है।’’

‘‘अब मैं संक्षेप में आपके सम्मुख योग के आठ सोपानों जिनमें से चार बहिरंग और चार अन्तरंग हैं, की चर्चा करूँगा’’ योजिराज ने कहा।

‘‘योग मार्ग में यम, नियम, आसन एवं प्राणायाम यह चारों बहिरंग हैं और प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि यह चारों अन्तरंग मार्ग हैं।’’

‘‘मनुष्य सदैव बहिरिन्द्रिय और अन्तरिन्द्रिय के द्वन्द्व में फँसा रहता है। इस कारण इन इन्द्रिय द्वय को वीतराग करने, तटस्थ करने के अभ्यास को हम यम एवं नियम शब्दों से व्यक्त करते हैं।’’

‘‘चित्त की चंचलता को धर्म से, अभ्यास से रुद्ध किया जा सकता है। यह अभ्यास आसन के द्वारा प्राप्त होता है जिसमें शरीर धर्मयुक्त हो जाता है। इसको और सुदृढ़ करने का मार्ग है - प्राणायाम।’’

‘‘क्या जब मनुष्य अपनी बहिर्दृष्टि को इस प्रत्यक्ष जगत् से समेटकर अर्न्तजगत् में उसी प्रकार ले जाता है, जैसे कूर्म - कछुआ अपनी गर्दन को खींच कर शरीर के अन्दर कर लेता है, उसी को प्रत्याहार कहते हैं’’ एक योग साधक से लगते हुये गौरांग व्यक्ति ने कहा।

‘‘आपका कथन सत्य है’’ योगिराज ने मंद मुस्कान के साथ उत्तर दिया। ‘‘यही योग का पंचम अंग है।’’

‘‘और सूक्ष्म जगत् में स्थिर मन को किसी बिन्दु पर रोके रहना ही धारणा कही जाती है।’’ उसी युवक ने उत्साह से कहा।

‘‘फिर आप सभी को योग के सप्तम अंग अर्थात् ध्यान के विषय में भी बताएँ’’ योगिराज ने उस युवक का उत्साहवर्धन करने के विचार से कहा।

‘‘धन्यवाद! योगिराज!! यदि मुझे जो ज्ञात है उसकी बात कहूँ तो जब योगी के मानस में ध्याता के ध्यान में, ध्याता, ध्यानरूपी त्रिपुरी के सिवा कुछ नहीं रहता। न कुछ साकार रहता है और न कुछ निर्गुण ही, उसे ध्यान कहते हैं। यह योग का सप्तम अंश है।’’

‘‘और भावरहित-अद्वैत भावरहित स्थिति ही योगी की समाधि की अवस्था कही जाती है। यही योग का अष्ठम अंग है’’ यह कहते हुये वह युवक अपने स्थान पर बैठ गया।

‘‘श्रोतागण! आज आपके सम्मुख मैंने योगशास्त्र के विषय में अपने अल्पज्ञान का परिचय दिया। इसी वार्ता की शृंखला में आगामी सप्ताह में हम इसी सभागार में इस समय मिलेंगे।

आप सभी का आने हेतु आभार’’ कहते हुये योगिराज मंच से संबोधन स्थल से नीचे उतर आये।

वे अपने स्थान पर बैठे ही थे कि डॉ. विलियम, मेघना और वह नवयुवक उनके पास आ गये। योगिराज ने उन्हें उनके बगल की कुर्सियों पर बैठने का संकेत दिया।

डॉ. विलियम और मेघना तो उनकी परिचित थीं, परन्तु वह युवक योगिराज के लिये अज्ञात नाम था।

उन्होंने उसका परिचय जानना चाहा।

उस युवक ने अपना नाम डॉ. हीरोता नारायणम् बताया।

‘‘आश्चर्यजनक नाम है आपका’’ योगिराज ने कहा।

‘‘हाँ, मेरी माँ अमेरिकन मूल की जापानी महिला थीं और पिता भारतीय अमेरिकन’’

‘‘आप तो अमेरिकन हैं ही, आप यहाँ क्या करते हैं?

मेरा तात्पर्य आपका कार्य क्षेत्र क्या है?’’

‘‘मैं मानव और कृत्रिम बुद्धि के वि़भिन्न आयामों के अध्ययन में विगत कई वर्षों से लगा हुआ हूँ।’’

‘‘आपका क्षेत्र क्या रहा है?’’

‘‘मैं साइबरनेटिक्स-इंजीनियर हूँ’’ उस युवक ने योगिराज की शंका का समाधान करते हुये कहा।

‘‘ओह! फिर योगशास्त्र में यह गति आपको किस प्रकार प्राप्त हुयी?’’

‘‘‘स्वअध्ययन से, परन्तु मैं आप जैसे योगिराज का सान्निध्य और मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहूँगा’’ कहते हुये वह युवक - डॉ. हीरोता नारायणम् रुका और पुनः विनम्रता से उसने जानना चाहा कि क्या कल शाम को योगिराज उसका आतिथ्य, डॉ. विलियम और मेघना सहित स्वीकार करना चाहेंगे?

योगिराज ने डॉ. विलियम और मेघना की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली।

उन दोनों ने सहमति का संकेत दिया।

डॉ. हीरोता नारायणम् का ड्रांइग रूम भारतीय एवं जापानी संस्कृति का प्रतीक था। उसमें रखी वस्तुएँ और चित्र, दीवार के पास रखी एक सुन्दर कलात्मक चौकी, जिस पर सुन्दर आसन बिछा था, व्यासपीठ का, 18वीं शती की प्रचलित प्रवचन पीठ का स्मरण करा रही थी।

सभी अतिथि समय से आग गये थे। अपने अपार्टमेन्ट के द्वार पर डॉ. हीरोता ने योगिराज को चौकी की ओर ले जाकर, उस पर विराजमान होने का अनुरोध किया।

सभी अपने स्थानों पर बैठ चुके थे। डॉ. हीरोता ने एक ट्रॉली जिस पर विविध प्रकार के फलों और जूस की बोतलें रखी थीं, को रिमोट कन्ट्रोल के माध्यम से ड्रांइग रूम में आने का संकेत दिया।

स्वादिष्ट पौष्टिक फल नव-जेनेटिक विधि द्वारा विकसित किये गये थे, इस कारण उनका स्वाद 18वीं शती के फलों से भिन्न ही नहीं था वरन् वे अधिक औषधीय एवं पौष्टिक गुणों से युक्त थे और फलों का जूस तो परम विलक्षण था। उसके कण्ठ से नीचे जाते ही शरीर में ऊर्जा संचार हो जाता था।

योगिराज जूस पी चुके थे। लगता था कि डॉ. हीरोता इसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने योगिराज की तरफ जिज्ञासु भाव से देखा।

योगिराज के मुख पर मंद मुस्कान की रेखा खिल उठी। वह कहने लगे, ‘‘डॉ. हीरोता आपके प्रश्न की प्रतीक्षा, हम सभी कर रहे हैं।’’

अति विनम्रता से डॉ. हीरोता ने कहा, ‘‘योगिराज! आपके प्रवचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि योग में चित्तवृत्ति-निरोध को विकसित कर मनुष्य अन्तः समाधि की अवस्था में जा सकता है। उस स्थिति में वह भाव शून्य हो जाता है।’’

‘‘परन्तु योग के सक्षम संपादन के फलस्वरूप मनुष्य में, योगि में कुछ अद्भुत शक्तियाँ भी विकसित हो जाती हैं।

जिनके माध्यम से जो सामान्य जन के लिए अलक्ष्य है, वह योगी को सहज हो जाता है।’’

‘‘तत्थतः यह योगी के लिये महत्त्वहीन होता है, परन्तु सामान्यजन हेतु आश्चर्यजनक।’’

अपनी बात पूरी कर डॉ. हीरोता जिज्ञासाभाव से रुक गये।

योगिराज ने उनकी बातें ध्यान से सुनी। उस स्थिति में उनके नेत्र बन्द थे और उनके आनन पर एक विचित्र प्रकार का तेज छाया था जो सभी को स्पष्ट दिख रहा था।

कुछ पलों के उपरान्त उनके नेत्र खुले और वे कहने लगे, ‘‘डॉ. हीरोता - एक योगी भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिये साधना नहीं करता, वह इस दृष्यमान जगत् के प्रलोभनों से मुक्त होकर, प्रकृति का अंश बन, उसमें लय हो जाने के लिए साधना करता है। इस साधना, क्योंकि साधना-पद्धति के अनुसार साधना अनेक प्रकार की होती हैं, इस कारण साधक की साधना पद्धति उसे विचित्र प्रकार की शक्तियों को प्रदान कर सकती है, परन्तु प्रत्येक मार्ग का साधक उसके उच्चतम स्तर की अनुभूति तुरन्त चाहता है, जो सबके लिये सहज नहीं है।’’

‘‘योगिराज! इस बाइसवीं शती में कोई भी व्यक्ति सहसा यौगिक शक्तियों पर विश्वास नहीं कर सकता। इस कारण उसका प्रदर्शन एवं अनुभव ही व्यक्ति की धारणा को प्रभावित कर सकते हैं’’ मेघना का सुझाव था।

‘‘तुम्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि 18वीं शती में खेती की सिंचाई कुएँ से ढेकली द्वारा पानी निकाल कर होती थी। एक या दो आदमी दिन-रात परिश्रम कर कूप से पानी निकालते थे और मेरे अवध क्षेत्र में मिट्टी की नाली-कुल्या से पानी खेतों में पहुँचाया जाता था। इतना ही नहीं बैलों द्वारा कटे गेहूँ की दँवाई होती थी।’’

‘‘कुछ समय बाद मैकेनाइजेशन हुआ। रहट-ढेकली गायब हो गयी - पम्पिंग सेट का प्रचलन बढ़ा और धरा के गर्भ में स्थित भू-जल का दोहन बढ़ गया।’’

‘‘समय के साथ मानव ने प्रदूषण की वृद्धि की। उस उन्नीसवीं शती की नदियाँ कितनी प्रदूषित थीं, यह आज इस बाइसवीं शती में सोच पाना कठिन है। समय परिवर्तन कराता है। आज विज्ञान उन्नत है वह प्रकृति के रहस्यों को समझ रहा है। उसने चन्द्रमा-मंगल तक छलाँग तो लगा दी है, परन्तु वह मानव मस्तिष्क के रहस्यों को समझने की ओर उन्मुख अब हुआ है।’’

योगिराज रुके और डॉ. विलियम इसी पल की प्रतीक्षा कर रहे थे।

उन्होंने कहा, ‘‘योगिराज! हम तीनों व्यक्ति मानव मस्तिष्क की संरचना, उसकी कार्य-पद्धति और उसके रहस्यों को समझने-स्पष्ट करने में लगे हुए हैं।’’

‘‘यह तो प्रसन्नता का विषय है। मैं जहाँ तक जानता हूँ - मात्र सूचना है मुझे कि आप परिष्कृत न्यूक्लीयर मैनेटिक इमेंजिग और मस्तिष्क की तरंगों को नापने के लिए नॉनो प्रौद्योगिकी एवं अन्य तकनीकों का प्रयोग कर रहे हैं।’’

‘‘मुझे इस दिशा में विकास की गयी अन्य तकनीकों के विषय में जानने में रुचि है’’ योगिराज बोले।

‘‘आश्चर्य है कि आप इस दिशा में रुचि रखते हैं’’ मेघना ने चकित भाव से कहा।

‘‘हाँ! योगिराज का मस्तिष्क सभी दिशाओं में, ज्ञानार्जन के केन्द्रों की ओर गति करता है। अन्तर मात्र निपुणता प्राप्त करने का हो सकता है। किसी विषय अथवा किसी विधा में कोई निपुण हो जाता है तो दूसरा किसी अन्य क्षेत्र में’’ मंद स्वर में योगिराज का उत्तर था।

‘‘योगिराज, अब मस्तिष्क की कार्य-प्रणाली को स्पष्ट करने में फंक्शन मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग और रैन्डम इवेन्ट जनरेटर तकनीक का प्रयोग हो रहा है। आशा है इसका अधिक परिष्कृत स्वरूप भी उपलब्ध हो जायेगा’’ डॉ. विलियम ने बताया।

‘‘स्वाभाविक ही है, इस दिशा में भौतिक विज्ञान-चिकित्सा विज्ञान के सम्मिलन से नवीन विधाओं और यंत्रों का आविष्कार, परन्तु क्या आप समझते हैं कि इस प्रकार के यंत्र और बाइसवीं शती की विकसित प्रौद्योगिकी मानव मस्तिष्क की अतल-गहराई को, कभी माप सकेगी?’’

‘‘योगिराज! भौतिक प्रगति को प्राप्त करने के उपरान्त ही विज्ञान भारतीय अध्यात्म को उसके संबंधित विविध आयामों को अपने अध्ययन का क्षेत्र बना सकेगा’’ डॉ. हीरोता नारायणम् जो अभी तक मौन थे, बरबस बोल उठे।

‘‘आपके कथन से मैं सहमत हूँ’’ योगिराज का संक्षिप्त उत्तर था।

‘‘मेरी एक जिज्ञासा है!’’

‘‘बताएँ!’’

‘‘मैं यह जानने के लिए इच्छुक हूँ कि भारत में ही आध्यात्म का अभ्युदय, विकास अन्य देखों की तुलना में क्यों प्रभावशाली रहा?’’ डॉ. विलियम ने सहज भाव से प्रश्न किया।

‘‘संभवतः इसकी पृष्ठभूमि में भारतीयों का चिन्तनपरक स्वभाव और उनको आदि पुरुषों द्वारा दी गयी चेतना का विस्तार था’’ योगिराज ने उत्तर दिया।

‘‘आदि पुरुषों से आपका तात्पर्य है कि महर्षि कश्यप की संतानों से?’’ डॉ. हीरोता ने शंका व्यक्त की।

‘‘हाँ, आपने संकेत को समझा। मेरा तात्पर्य महर्षि कश्यप की संतानों - विशेषकर दिति और अदिति के पुत्रों से है।

जिन्हें पुरावैदिक काल से ही सुर और असुर कहा गया।’’

‘‘सुर-गण, देव गण, सतोगुणी थे। सद का आचरण करने वाले थे और उनके विपरीत असुर गण दैहिक सुख - भौतिक भोग में लिप्त रहना ही अपना प्रमुख धर्म समझते थे।’’

‘‘योगिराज! इस प्रकार दैहिक भोग-प्रत्यक्ष जगत् का भोग, असुरों की विशेषता थी’’ मेघना ने कहा।

‘‘आप का कथन सत्य है, क्योंकि उस युग में आत्मा की अमरता में पात्र देव ही विश्वास करते थे, असुर नहीं।

इतना ही नहीं वे शरीर को मृत्योपरान्त संरक्षित करते थे, क्योंकि उनकी अवधारणा थी कि यदि पुनर्जन्म हुआ तो मनुष्य, स्त्री-पुरुष, जीव-जन्तु प्राणवान होकर जीवित हो उठेंगे...।’’

‘‘ओह! यही कारण है कि भोगवादी शव को शवाधान करते, दफन करते थे और आत्मा की अमरता में आस्था रखने वाले शरीर को जला देते थे’’ मेघना के स्वर में आश्चर्य था।

‘‘इस प्रकार इस क्षणभंगुर शरीर का निर्माता, इस विश्व का नियंता, सृष्टि का प्रणेता कौन है? यह प्रश्न भारतीयों के, ऋषियों के मानस को उद्वेलित करता रहा था। उस अदृश्य शक्ति की खोज, उसको जानने की जिज्ञासा ने आध्यात्म को जन्म दिया’’ योगिराज ने शंका का समाधान प्रस्तुत करते हुए उत्तर दिया।

‘‘इसी की ध्वनि, इस तथ्य का अनुनाद वैदिक मंत्रों में विद्यमान है’’ डॉ. विलियम की टिप्पणी थी।

‘‘इस प्रकार की भावना के विकास में प्रारम्भ में भारत-भूमि की प्रकृति का शान्त वातावरण भी योग कारक रहा होगा’’ योगिराज ने कहा।

‘‘निश्चय ही भारत-भूमि का शान्त और रम्य वातावरण इस प्रकार के चिन्तन को बढ़ाने में सहायक रहा होगा’’

योगिराज के स्वर में सहमति स्पष्ट थी।

‘‘इतना ही नहीं, इसी आध्यात्म की विचारधारा ने इस विश्व के पूर्व और पश्चिम के चिन्तकों को प्रभावित कर जिस दर्शन का सूत्रपात किया वह आज भी भारतीय मनीषा के चिन्तन और पश्चिमी योरप एवं अमेरिका के चिन्तकों की विचारधारा में स्पष्ट दिखता है’’ योगिराज ने अपनी अधूरी बात पूरी कर दी।

‘‘इसी कारण हम आज आपके सम्मुख भारतीय आध्यात्मिक, योग आदि की चर्चा कर रहे हैं - उसको जानने के लिए, समझने के लिए।’’

मेघना की इस टिप्पणी पर योगिराज के मुखमंडल पर मंद मुस्कान की हल्की रेखा थिरक उठी।

उनकी दृष्टि दीवार पर चमक रही घड़ी पर टिक गयी।

डॉ. हीरोता के यहाँ दूसरे दिन शाम को योगिराज से ज्ञानवर्धन हेतु उत्सुक मेघना ने प्रश्न किया, ‘‘भारतीय वाúमय में योग सिद्ध होने पर साधक को अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। क्या आपका इस दिशा में कुछ प्रत्यक्ष अनुभव है?’’

‘‘तुम्हारे इस व्यक्तिनिष्ठ प्रश्न का उत्तर अभी तत्काल न देकर मैं अपने गुरु के गुरु की कुछ सिद्धियों की कुछ विलक्षण शक्तियों की चर्चा अवश्य करना चाहूँगा, यदि आप सभी को रुचि हो?’’

मेघना आज आध्यात्मिक प्रकरणों के विषय में जानने के लिए इच्छुक लग रही थी। उसने तत्काल अपनी स्वीकृति दे दी।

योगिराज उसकी तत्परता पर मुस्कराये और कहने लगे, ‘‘मेरे गुरु के गुरु अतीव प्रतिभा संपन्न योगी थे। उन्हें योग-साधना के फलस्वरूप कुछ अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त थीं, परन्तु वे इस विद्या को जनसामान्य से छिपाये रखते थे। वे मात्र जिज्ञासु से ही इसकी चर्चा करते थे। वे जनसामान्य में गंध बाबा के नाम से विख्यात थे।’’

‘‘गंध बाबा क्यों?’’ डॉ. विलियम का प्रश्न था।

‘‘उनके शरीर से मन प्रफुल्लित कर देने वाली विचित्र-सुखद गन्ध निकलती रहती थी। इसकी सुखद अनुभूति उनके भक्त गण, सान्निध्य के समय सदैव करते थे’’ योगिराज का उत्तर था।

‘‘आश्चर्य की बात है’’ मेघना ने कहा।

‘‘तुम्हारे लिए, क्योंकि इस बाइसवीं शती में तुम इसकी कल्पना मात्र ही कर सकती हो’’ योगिराज ने सहजता से उत्तर दिया।

‘‘क्या यह सुगन्धि सदैव उनके शरीर से निकलती रहती थी?’’ डॉ. हीरोता ने जानता चाहा।

‘‘हाँ - सदैव।’’

‘‘ऐसे व्यक्ति के विषय में, उनके योग शक्तियों के विषय में हम सभी जानने-सुनने के लिए उत्सुक हैं’’ डॉ. विलियम ने कहा।

योगिराज ने डॉ. विलियम की बात सुनकर, अपने नेत्रों को बन्द कर लिया, वे चित्त को एकाग्र कर वार्ता को स्वरूप देने का प्रयास कर रहे थे, ऐसा उनके श्रोताओं को प्रतीत हुआ।

‘‘एक दिन संध्या के समय मेरे गुरु गन्ध बाबा के पास गये। उस समय संध्या होने को थी और अनेक भक्त जन और दर्शक, एक व्याघ्र चर्म पर आसीन सौम्य मूर्ति के व्यक्ति के सम्मुख बैठे थे। उनकी तेजयुक्त काया को उनके दीप्त नेत्र गरिमा प्रदान कर रहे थे और उनकी सफेद दाढ़ी जो काफी लम्बी थी, उनकी आयु का अनुमान लगाने में बाधक लग रही थी। उनके गले में धवल यज्ञोपवीत था।’’

‘‘उनके चरणों पर भक्तों की फूलमालाएँ और फूलों के ढेर लगे थे। पास ही एक काश्मीरोत्पल से बना हुआ विशेष गोल यंत्र रखा हुआ था।’’

‘‘उस समय वह महात्मा योग विद्या और प्राचीन आर्षविज्ञान के गूढ़तम रहस्यों को सरल भाषा में जनसाधारण को समझा रहे थे। उनकी बातों में इतनी गंभीरता थी कि सभी ध्यान से, दत्तचित्त होकर उनकी वार्ता को सुन रहे थे।’’

‘‘वे इतने अनुभवी थे कि यदि किसी श्रोता के मुख पर उनकी बातों को सुनकर अविश्वास झलकता था, तो वे उसकी ओर दृष्टिपात करके, शंका का समाधान कर देते थे।

उस समय वे ‘जात्यान्तर परिणाम’ की चर्चा कर रहे थे।’’

‘‘मैं इस शब्द को प्रथम बार सुन रहा हूँ’’ सआश्चर्य डॉ. हीरोता ने कहा।

‘‘मैं अपनी धारणा में संरक्षित गन्ध बाबा की वार्ता ही तुम्हें बताऊँगा - अपनी शब्दावली का प्रयोग में नहीं करूँगा’’ योगिराज ने कहा।

‘‘हम सभी गन्ध-बाबा शब्दों में ही जात्यान्तर परिणाम की चर्चा सुनना चाहेंगे’’ मेघना ने नम्रता से कहा।

‘‘जब गन्ध बाबा ‘जात्यान्तर परिणाम’ की बात करते थे उस समय जाति से उनका तात्पर्य ‘गुण’ से अथवा पदार्थ के गुण से होता था। यह स्पष्ट करना आवश्यक है’’ कहकर योगिराज ने पुनः नेत्र बन्द कर लिये। सभी को लगा कि वे अपनी धारणा पर बल दे रहे हैं।

कुछ पलों बाद योगिराज के नेत्र खुले और वे कहने लगे, ‘‘इस जगत् में सर्वत्र ही सत्ता मात्र रूप से सूक्ष्म भाव से, सभी पदार्थ विद्यमान रहते हैं, परन्तु जिनकी मात्रा अधिक प्रस्फुटित होती है, वे ही अभिव्यक्त और इन्द्रिय गोचर होते हैं, जिस पदार्थ की भाव-मात्रा कम होती है, उसे अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। अतएव इनकी व्यंजना का कौशल जान लेने पर (तकनीक को जान लेने पर) किसी भी स्थान से किसी भी वस्तु का आर्विभाव किया जा सकता है।’’

‘‘यह कथन आधुनिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में अत्यन्त तथ्यपूर्ण है। पदार्थ इस जगत् में विद्यमान हैं, मात्र उसके स्वरूप में परिवर्तन किया जा सकता है।’’

योगिराज इस कथन पर तटस्थ रहे, उनके चेहरे पर सदैव विद्यमान रहने वाला आभामंडल, डॉ. विलियम को स्पष्ट दिख रहा था।

‘‘तुम यंत्रों के, भौतिकी के नियमों द्वारा पदार्थ की अवस्थाओं पर जिस परिणाम पर पहुँचे हो, वह भारतीय योगियों को कठोर साधना के फलस्वरूप, स्पष्ट और सिद्ध था’’ योगिराज ने कहा।

‘‘दूसरे शब्दों में, हम व्यवहार जगत् में जिस पदार्थ को जिस रूप में पहचानते हैं, वह उसकी सापेक्ष्य सतता है। वह केवल, हम उसे जिस रूप में पहचानते हैं वह हैं, यह सोचना भ्रम है। लोहे का दुकड़ा मात्र लोहा है यह सच नहीं है। उसमें सारी है, यह सोचना भ्रम है। लोहे का टुकड़ा मात्र लोहा है यह सच नहीं है। उसमें सारी प्रकृति अव्यक्त रूप में निहित है, परन्तु लौह भाव को प्रधानता से अन्य भाव उसमें विलीन होकर अदृश्य रहते हैं। उसमें निहित किसी भी विलीन भाव को, जैसे - सुवर्ण भाव को, प्रबुद्ध करके उसकी मात्रा बढ़ा दी जाये तो उसका पूर्व भाव स्वभावतः अव्यक्त हो जायेगा और सुवर्ण का प्रबुद्ध भाव प्रबल हो जाने के कारण वह वस्तु फिर उसी नाम और उसी रूप में प्रत्यक्ष हो जायेगी। वस्तुतः लोहा सेना नहीं हुआ, वह अव्यक्त हो गया और सुवर्ण भाव अव्यक्तता को हटाकर प्रकाशित हो गया। सामान्य दृष्टि से यह समझा जायेगा कि लोहा सोना हो गया।’’

‘‘इस योग की गूढ़ बात को हम आधुनिक विज्ञान में इलेक्ट्रोनों की कक्षा परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पन्न हुये नवीन पदार्थों के संदर्भ में, सरलता से समझ सकते हैं’’ मेघना ने टिप्पणी की।

‘‘ट्राँसम्यूटेशन ऑफ एलीमेन्टस’’ डॉ. विलियम का इस तथ्य को, कथन को संशोधित समर्थन था।

डॉ. विलियम की इस टिप्पणी पर योगिराज मुस्कराये और कहने लगे ‘‘अब जो मैं आपके सम्मुख कहने जा रहा हूँ, उसे भारतीय योगशास्त्रियों ने कुछ इस प्रकार स्पष्ट करने का भी प्रयास किया है - योगियों ने ‘मूल पृथकत्व्’ कहकर अव्यक्त भाव से बीजनिष्ठ रूप में पृथकता की सत्ता स्वीकार की है।

ऐसा इस कारण करना आवश्यक है, क्योंकि यही तथ्य सृष्टिवैचित्रय को स्पष्ट करने में सहायक है।’’

‘‘महर्षि व्यास ने लिखा है ‘जात्यातुच्छेदेन सर्वं सर्वात्मकम्’, इससे स्पष्ट है कि किसी पदार्थ का, जाति का, नाश, उच्छेद प्रलय में भी नहीं होता, प्रलय और अव्यक्त अवस्था में भी जाति भेद, पदार्थ वैविध्य बना रहता है, परन्तु यह अधिष्ठातान के लोप, स्वरूप परिवर्तन के कारण अव्यक्त रहता है - अदृश्य रहता है। सृष्टि के साथ पदार्थ की उत्पत्ति है, वह स्फर्ति प्राप्त करता है। प्रलय की परमावस्था में समस्त प्रकृति पर आवरण पड़ जाता है - विलय हो जाता है पदार्थों का, वे समस्त पदार्थ घनीभूत हो, एकीकृत हो विकाररहित-स्वरूपरहित अवस्थारहित होकर प्रकृति का अंश बन जाते हैं - यही प्रक्रिया चक्रीय गति से चलती रहती है।’’

‘‘प्रलय के फलस्वरूप समस्त तत्व - पदार्थ, सृष्टि में पुनः जात्यान्तर परिणाम महर्षि पतंजलि के शब्दों में ‘जात्यान्तर परिणामः प्रकृत्यापूरात’ को प्राप्त करते हैं।’’

‘‘यह परिवर्तन, यह विकार मात्र उन्हीं तत्वों, पदार्थों में संभव है जिनमें जात्यान्तर का गुण है। जिन तत्वों में यह गुण विद्यमान नहीं है वहाँ पर यह परिवर्तन कि एक धातु दूसरी धातु में बदल जाय, संभव नहीं है। इसी गुण के कारण लोहे को, पारद को (मरकरी को) पारे को सुवर्ण में परिवर्तित किया जा सकता है।’’

योगिराज ने अब अपने बन्द नेत्रों को खोला। शायद डॉ. हीरोता इसी क्षण की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने शान्त स्वर में योगिराज से कहा, ‘‘क्या आपके गुरु ने गन्ध बाबा से इस जात्यान्तर के प्रयोग का सत्यापन भी देखा था?’’

‘‘हाँ - मैंने अपने गुरु से सुना था इस संदर्भ में।’’

‘‘हम सभी उसको सुनना चाहेंगे’’ मेघना ने कहा।

‘‘मेरे पूज्य गुरु के शब्दों में - उन्होंने एक बार गन्ध बाबा से ‘जात्यान्तर’ के संदर्भ का प्रत्यक्ष प्रयोग देखना चाहा था। उन्होंने गन्ध बाबा से अपना अनुरोध व्यक्त किया। मेरे गुरु की बात सुनकर ‘गन्ध बाबा’ ने अपने आसन पर रखे एक गुलाब के फूल को उठाकर कहा था, ‘‘इसे किस रूप में बदल दूँ?।’’

मेरे गुरु ने सविनय कहा था ‘‘जपा पुष्प - में।’’

गन्ध बाबा ने अपने आसन के समीप रखे एक स्फटिक यंत्र को उठाया और उसके द्वारा उस गुलाब के फूल पर सूर्य रश्मियों का विकिरण करने लगे। मेरे गुरु के शब्दों में, ‘‘मैंने देखा उस गुलाब में एक स्थूल परिवर्तन हो रहा है। पहले एक लाल आभा प्रस्फुटित हुई, धीरे-धीरे कर गुलाब का फूल अव्यक्त-अदृश्य हो गया और उसके स्थान पर एक खिला हुआ जापा-पुष्प प्रकट हो गया।’’

मेरे गुरु उस को गन्ध बाबा से लेकर घर ले आये।

वह पुष्प बहुत दिनों तक उनके पास था और मैंने उसे सूखी अवस्था में देखा था।

‘‘मेरे पूछने पर उन्होंने बताया था कि गन्ध बाबा से प्राप्त उस जापा पुष्प को इस कारण मैं घर ले आया था जिससे यदि यह दृष्टि भ्रम या सम्मोहन के कारण उत्पन्न हुआ हो तो उसका निराकरण हो जायेगा। पर ऐसा कुछ न था। वह ‘गन्ध बाबा’ की यौगिक शक्ति के प्रभाव के कारण उत्पन्न हुआ था।’’

‘‘योगिराज! मैंने आपकी वाणी से सुना कि गन्ध बाबा ने उस स्फटिक यंत्र के प्रयोग से, सूर्य किरणों को केन्द्रित कर गुलाब के फूल को जापा पुष्प में परिवर्तित किया था। यह तो मैकेनिकल अथवा यांत्रिक प्रयोग द्वारा किया गया परिवर्तन था, न कि यौगिक शक्ति द्वारा’’ मेघना का प्रश्न था।

‘‘योगी के लिए कुछ असंभव नहीं है। वह अपनी ऊर्जा सदैव प्रकृति से प्राप्त करता है। यही ऊर्जा उस योगी में शक्ति का स्फुटन करती है जिसके फलस्वरूप वह हर असंभव को संभव कर सकता है। फिर योग का अर्थ संयुक्त करना, जोड़ना होता है। ‘गन्ध बाबा’ ने जो किया वह युक्तीकरण था - यौगिक शक्ति और सूर्य रश्मियों का’’ योगिराज ने स्पष्ट किया।

‘‘यह कार्य किस आर्ष विज्ञान द्वारा संभव हुआ?’’

डॉ. हीरोता का प्रश्न था।

‘‘मेरे गुरु ने भी यही जिज्ञासा प्रकट की थी और स्पष्टीकरण हेतु गन्ध बाबा ने उन्हें बताया था कि ‘सूर्य विज्ञान’ के माध्यम से संपादित किया गया था।’’

‘‘योगिराज! यह सूर्य विज्ञान क्या है?’’ डॉ. विलियम ने जानना चाहा।

इन शब्दों के कथन के उपरान्त योगिराज रुक गये।

मेघना को लगा कि जैसे योगिराज उन सभी के मानस में चल रहे अन्तर्द्वन्द्व को सुन रहे हों।

मेघना ने अन्तोगत्वा स्पष्ट स्वर में योगिराज से पूछा, ‘‘क्या सूर्य विज्ञान के माध्यम से गुलाब के पुष्प का रूपान्तरण जापा पुष्प में संभव है?’’

‘‘आपके गुरु का गन्ध बाबा से दीर्घकालिक संबंध रहा होगा और स्वाभाविक है कि उन्होंने गन्ध बाबा की अन्य क्षमताओं का प्रत्यक्षीकरण किया होगा ही। अतः आप गन्ध बाबा से संबंधित अन्य घटनाओं की चर्चा करने की कृपा करें’’ डॉ. हीरोता ने विनम्रता से अनुरोध किया।

‘‘यदि आप के पास समय हो तो यह कल के लिए रखिये, क्योंकि अब मेरे संध्योपासना का समय हो रहा है’’ योगिराज ने कहा।

डॉ. हीरोता ने योगिराज को उनके आवास पर पहुँचा दिया।

पूर्व निर्धारित समय पर सभी डॉ. हीरोता के आवास पर एकत्र हो चुके थे।

योगिराज ने सामान्य औपचारिकता के बाद डॉ. हीरोता के अनुरोध का ध्यान रखते हुये कहना शुरू किया - ‘‘गन्ध बाबा परमहंस सर्वज्ञ थे। इस तथ्य की अनुभूति उनसे अन्तरंग संबंध हो जाने पर ज्ञात होती थी। उनके वास्तुशास्त्र के ज्ञान से, वस्तुओं के निर्माण के ज्ञान से अधिकांश भक्त परिचित थे, परन्तु अपने परिचितों के घर में उनके कठिन रोगों से ग्रस्त हो जाने पर, वे सूक्ष्म शरीर से आर्विभूत होकर, उनके कष्टों को दूर कर देते थे।’’

‘‘योगिराज आदरणीय गन्ध बाबा की उपस्थिति का आभास उनके भक्तों को किस प्रकार होता था’’ उत्सुक मेघना का प्रश्न था।

‘‘परमहंस देव - गन्ध बाबा की उपस्थिति की उनुभूति उस क्षेत्र में, उस घर में उनकी चिरपरिचित मादक गन्ध से हो जाती थी - जो अलौकिक तोषदायक होती थी’’ योगिराज का उत्तर था।

‘‘18वीं शती के अन्त में आस्ट्रेलिया में लुइस राजर्स नामक व्यक्ति था जो एक ही समय में दो स्थानों पर, जो एक-दूसरे से काफी दूरी पर स्थित होते थे, प्रकट हो जाता था।

क्या उसमें भी यह शक्ति योग के द्वारा उत्पन्न हुई थी?’’ डॉ. विलियम का प्रश्न चौंकाने वाला था।

डॉ. विविलय के प्रश्न पर योगिराज कुछ क्षण मौन रहे और उस समय उनके सम्मुख उपस्थित उनको सुनने के लिये बैठे, डॉ. हीरोता आदि, को यह प्रतीत हुआ कि योगिराज अपने मानस में इस प्रश्न का समाधान खोज रहे हैं।

कुछ क्षणों योगिराज ने बताया, ‘‘जिस प्रकार प्रत्येक योग साधक कुण्डलनी जागरण का अधिकारी नहीं होता उसी प्रकार विपरीत क्रम में कुछ व्यक्ति जन्मजात अलौकिक शक्तियुक्त होते हैं। अपनी इस शक्ति को पहचानकर वे मस्तिष्क और कार्य संपादन में तारतम्य बनाकर, जनों को अपनी इस शक्ति का प्रदर्शन कर, चकित कर सकते हैं।’’

‘‘संभव है जिस व्यक्ति की चर्चा डॉ. विलियम ने उसमें यह शक्ति पूर्ण विकसित रही हो’’ योगिराज ने उत्तर दिया।

‘‘परमहंस देव के शरीर में अपूर्व शक्ति थी। शक्ति से मेरी तात्पर्य यौगिक शक्ति थी। उनके शरीर पर कभी भी किसी मच्छर अथवा मक्खियों को बैठते नहीं देखा था। यदि वे बैठ भी गये तो तत्काल मर जाते थे।’’

‘‘इसी प्रकार सर्प और बिच्छु उन्हें काटने के बाद मर जाते थे और गन्ध बाबा तटस्थ भाव से, निर्विकार भाव से बैठे हुये अपने श्रोताओं को, सरल भाषा में योग के गूढ़ रहस्यों को समझाते रहते थे।’’

‘‘कभी-कभी वे अपने किसी भक्त के आग्रह पर अदृश्य होकर अपने शरीर के अंगों को अलग कर उसके सम्मुख रख देते थे और प्रवचन देते हुये पुनः प्रकट हो जाते थे अपने भक्त के सम्मुख सशरीर।’’

‘‘अतीव आश्चर्य की बात बता रहे हैं, आप योगिराज’’ मेघना के स्वर में विस्मय भरा था।

‘‘तुम युवती हो, अविवाहित हो, पाश्चात्य शिक्षा के कारण तुम्हारी विचारधारा में भी परिवर्तन हो चुका है, परन्तु एक भारतीय नारी होने के कारण तुम्हारे मन में कुछ समय के उपरान्त संतान की भावना - पुत्र प्राप्ति की भाँति योग की भावना आयेगी। इसी प्रकार की एक घटना मैं आप सभी को सुनाना चाहूँगा’’ योगिराज ने मेघना के मुखमंडल पर दूष्टिपात करते हुये कहा।

मेघना का आनन रक्ताभ हो उठा। संभवतः उसमें निहित स्त्री जाग्रत हो गयी थी।

‘‘एक दिन संध्या के समय गन्ध बाबा के सम्मुख बैठे भक्तगण योग के गूढ़ तत्वों की चर्चा सुन रहे थे। परमहंस - गन्ध बाबा की दृष्टि एक स्त्री पर टिक गई। उन्होंने संकेत द्वारा उसे पास बुलाया। उसकी तरफ कुछ क्षण उन्होंने देखा और कहने लगे, ‘‘तू पुत्रविहना है! पुत्र प्राप्त करने की कामना से आई है?’’

‘‘हाँ! महाराज’’ उस स्त्री का करुण स्वर सभी ने सुना।

‘‘मैं सभी स्थानों से निराश होकर आपकी शरण में आयी हूँ। मेरी मनोकामना पूरी करें’’ कहते हुये वह स्त्री रोने लगी।

‘‘शान्त हो जा पुत्री’’ योगिराज का स्वर गूँजा।

‘‘दूसरे क्षण सभी ने देखा कि एक शिशु उस स्त्री की गोद में था और गन्ध बाबा अपने स्थान से अदृश्य हो चुके थे।’’

जब तक लोगों का आश्चर्य समाप्त होता, योगिराज गन्ध बाबा अपने आसन पर थे और उस स्त्री की गोद से बालक अदृश्य हो चुका था।

चकित भाव से उस स्त्री ने गन्ध बाबा की ओर देखा।

‘‘जा! तुझको पुत्र की प्राप्ति अब होगी, एक वर्ष के बाद आना।’’

‘‘क्या गन्ध बाबा का यह आशीर्वाद फलीभूत हुआ?’’

सलज्ज मेघना का प्रश्न था।

‘‘वह महिला एक वर्ष बाद अपने पुत्र को गन्ध बाबा का आशीर्वाद दिलाने आई थी’’ योगिराज ने मंद मुस्कान के साथ उत्तर दिया।

‘‘आश्चर्य है’’ डॉ. हीरोता स्वतः कह उठे।

‘‘योगशास्त्र में ब्रह्मनाल को उत्पन्न करने की शक्ति योगियों में विकसित हो जाती थी, इसकी चर्चा मैं कई स्थानों पर पढ़ चुका हूँ। क्या गन्ध बाबा को भी यह निपुणता प्राप्त थी?’’ डॉ. विलियम ने जानन चाहा।

‘‘हाँ! तथ्यतः मैंने अपने गुरु से इसी संदर्भ में प्रश्न किया था’’ योगिराज ने बताया।

‘‘उन्होंने क्या उत्तर आपको दिया था?’’ जिज्ञासु मेघना ने जानने की इच्छा प्रकट की।

‘‘मेरे गुरु को गन्ध बाबा ने यह सिद्धि दिखायी थी।’’

‘‘कृपा कर बताएँ।’’

‘‘सुनो मेघना!’’ योगिराज ने कहा, ‘‘मेरे गुरु को यह पुराण वर्णित रूपक सुनाते हुये गन्ध बाबा ने बताया था। यह अक्षरशः सत्य है। कुण्डलिनी शक्ति के विकसित हो जाने पर जब योग से अन्तराकाश में परमादित्य स्वरूप ज्योतिपुंज का उदय होता है, तब सूर्योदय के समय कमल की भाँति उसका नाभिकमल अपने आप ही प्रस्फुटित हो जाता है। जो व्यक्ति सिद्ध योगी है वह ही यह कर सकने में सक्षम होते हैं और साधारण बद्ध जीवों की नाभि में ग्रन्थि लगी रहती है, इस ग्रन्थि का मोचन न होने के कारण उसकी उर्ध्वगति असंभव है।’’

इतना कहकर उनके नाभि प्रदेश के पास दोनों हाथों से दो-चार बार संचालन करते ही नाभि प्रदेश में एक गढ्ढा-सा बन गया और उस धँसे भाग से एक नाल का उदय हुआ जिस पर एक सुन्दर कमल का पुष्प खिला था। इसकी सुगंधि से सभी प्रमुदित हो उठे। भक्तगण चकित भाव से गन्ध बाबा की चरण वन्दना करने लग गये। कुछ क्षणों के उपरान्त नाभि को हिलाते ही कमल नाभि सहित संकुचित होकर भीतर प्रवेश कर अदृश्य हो गया। गन्ध बाबा की शक्तियाँ असीम थीं।

‘‘इससे तो ऐसा लगता है कि योग का चरम उत्कर्ष कुण्डलिनी जागरण में निहित है’’ सआश्चर्य मेघना ने कहा।

‘‘निश्चय ही, परन्तु प्रत्येक योगी यह सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता’’ योगिराज ने संशोधित समाधान किया।

‘‘योगिराज! कुछ व्यक्तियों में असाधरण प्रकार की शक्तियाँ निहित होती हैं। मैंने पढ़ा है कि रूस की एक महिला अपनी दृष्टि को फार्क अथवा चम्मच पर केन्द्रित कर उसे मोड़ देती थी। इसी प्रकार एक जर्मन वैज्ञानिक फॉन श्रिंक नोटजिग ने म्यूनिख नगर के एक बालक विली की चर्चा अपनी पुस्तक में की है जो अपने दृष्टि को किसी वस्तु पर केन्द्रित कर उसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचा देता था। जर्मन वैज्ञानिकों ने उस बालक की इस अद्भुत शक्ति की अनेक विधियों से परीक्षा की थी, परन्तु वे इस शक्ति के विषय में कुछ बता न सके।’’

‘‘इसी तथ्य की चर्चा सर ओलिवर लाज ने अपनी पुस्तक ‘फैन्टम वाल’ में की है।’’

‘‘क्या भारतीय योग शास्त्रों में इस शक्ति के विषय में कुछ चर्चा है?’’

‘‘मेघना! तुम्हारा प्रश्न अति विशिष्ट है, तुम्हारी उर्वर मेधा की भाँति’’ योगिराज ने मन्द मुस्कान बिखेरते हुये कहा।

मेघना के आनन पर उसका आत्मविश्वास चमक उठा।

‘‘वास्तव में पश्चिमी वैज्ञानिकों ने इस शक्ति को अनेक नामों से संबोधित किया है, परन्तु इस शक्ति का प्रसार जितनी दूर तक रहता है, उसी सीमा तक इसके प्रभाव को देखा जा सकता है। इस तेज मंडल से बाहर के पदार्थ को संचालित करना या उठाना संभव नहीं। यह अत्यन्त परिचित ‘अधोमोक्ष गति’ का ही निर्देशन है। इसमें साधक अपनी साधना के बल से अपने चित्त सत्व को शुद्ध करके जब विशुद्ध और व्यापक जगत् सत्व के साथ उसे संयुक्त कर देता है, तब वह किसी भी स्थान से जगत् के किसी भी स्थान में जाने की शक्ति उत्पन्न कर लेता है। उस बालक की शक्ति उन सिद्ध प्राप्त योगियों के सम्मुख अति क्षुद्र है।’’

‘‘तो क्या योगिराज! आकाश मार्ग, शून्य मार्ग से गमन की, योगियों की चर्चा को हम सत्य माने?’’ मेघना का प्रश्न था।

‘‘यदि तुम सर ओलविर लाज द्वारा और अन्य स्थानों पर वर्णित अत्याधिक शक्ति संचालित घटनाओं को सत्य स्वीकार करती हो तो योगाचार्यों द्वारा लिखित घटनाओं को, आकाश मार्ग-गमन की घटनाओं को जो पातंजल दर्शन में वर्णित है, बौद्ध दर्शन ग्रन्थों में उल्लिखित हैं ‘वहन गति’, ‘अधिमोक्ष गति’ और ‘मनोवेग गति’ को असत्य क्यों मानों?’’

मेघना मौन थी।

‘‘सूक्ष्म शरीर के माध्यम से आधुनिक युग में, कुछ अलौकिक शक्ति संपन्न व्यक्ति एक ही समय में दो स्थानों पर उपस्थित हो सकते हैं, इस तथ्य से तुम परिचित हो’’ योगिराज ने शून्य में संबोधित करते हुये कहा।

‘‘आप लुइस राजर्स की ओर संकेत कर रहे हैं जो आस्ट्रेलिया का निवासी था और जिसके इस प्रकार की उपस्थिति की चर्चा मीडिया द्वारा प्रसारित की गई थी’’ डॉ. विलियम ने टिप्पणी की।

‘‘परन्तु लुइस रार्जस योगी नहीं था’’ मेघना ने प्रतिवाद किया।

‘‘हाँ, यह तथ्य है कि वह योगी नहीं था, परन्तु उसके मस्तिष्क में, शरीर में यह अलौकिक शक्ति निहित थी’’ योगिराज ने स्पष्टीकरण देते हुये बताया।

‘‘तो इसी प्रकार अलौकिक शक्ति पु×ज ‘गन्ध बाबा’ भी रहे होंगे?’’ डॉ. हीरोता के कथन पर योगिराज मुस्करा उठे और कहने लगे, ‘‘यह मानव शरीर-मस्तिष्क अतिरहस्यमय शक्ति पुंज है।’’

‘‘हम सभी इस तथ्य से परिचित हैं’’ मेघना सहर्ष कहने लगी, ‘‘परन्तु इस प्रकार की शक्ति कुछ व्यक्तियों में जन्मजात होती है और अन्य में योग साधना के फलस्वरूप उन्पन्न होकर उन्हें महत्ता प्रदान करती है। यही तथ्य योगशास्त्र की गुणवत्ता, महत्ता को भी प्रदर्शित करता है।’’

‘‘तुम्हारा कथन सत्य है’’ योगिराज ने समर्थन किया।

‘‘क्या इस प्रकार की घटनाओं को चमत्कार कहना उचित होगा?’’ मेघना ने जानना चाहा।

‘‘नहीं! इन्हें चमत्कार कहना उचित नहीं है।’’

‘‘क्यों?’’

‘‘चमत्कार इस कारण नहीं घटित हो सकते, क्योंकि प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कोई घटना घटित नहीं हो सकती।

जो कुछ भी हम देखते हैं, वह प्रकृति की सीमा के भीतर है।

दूसरे शब्दों में, जो कुछ देश-काल में घटित होता है वह क्रिया-संक्रान्त व्यापक नियम के अधीन है।’’

‘‘योगाचार्यों ने, भारतीय मनीषियों ने, इसी कारण आत्मा को ईश्वर-रूप माना है। अविद्या-अज्ञान के आवरण के कारण उसका ईश्वर रूप स्पष्ट नहीं हो पाता, परन्तु तीव्र योगाभ्यास के फलस्वरूप प्रज्ञा का, ज्ञान का उन्मेष होता है और अज्ञान का नाश होता है। उस समय सत्वगुण प्रबल हो जाता है, उस समय उसका स्वाभाविक ऐश्वर्य प्रकट हो जाता है।

ऐश्वर्य की अभिव्यक्ति से लेकर आत्मरूप में उपसंहृत होने तक ही को ईश्वर कहा जाता है। इस प्रकार ईश्वर ऐश्वर्य है, इसी कारण चमत्कार घटित नहीं होते। हमारी अज्ञान घटनाओं को सुस्पष्ट न कर पाने कारण, उन्हें इस सत्वगुणविहीन घटना को चमत्कार शब्द से संबोधित करता है’’योगिराज का सक्षिप्त कथन जिसके माध्यम से उन्होंने चमत्कार के, उस शब्द के निर्थक और अव्यवहारिक होने की तरफ संकेत किया था, सभी को प्रभावित कर गया।

रात्रि इस वार्ता मध्य, घनी हो गई थी, हिमपात बढ़ गया था, इस कारण योगिराज ने अपनी वाणी को विराम देना चाहा।

उनका संकेत सभी ने स्वीकार कर लिया तथा मेघना ने योगिराज को उनके आवास तक ले जाने की इच्छा प्रकट की।

योगिराज ने इसको स्वीकार कर चलने में तत्परता प्रदर्शित की।

योगिराज का प्रवचन अगले दिन मेघना के आवास पर होना था।

‘‘योगिराज! आपने चमत्कार की अवैज्ञानिकता पर योग की दृष्टि से जो व्याख्या की थी, वह अतीव रोचक, प्रभावशाली और पूर्णरूपेण वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न थी’’ डॉ. विलियम के शब्द उनके हृदय के यथार्थ को व्यक्त कर रहे थे।

योगिराज, उनके शब्दों पर मंद-मंद मुस्कराए, परन्तु कुछ बोले नहीं।

‘‘योगिराज! आपने डॉ. हीरोता के यहाँ अपने प्रारम्भ के वार्तालाप में कहा था कि इस जगत् में सभी पदार्थ स्थूल और सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं। स्थूल पदार्थ जत्यान्तर परिणाम के फलस्वरूप, प्रभाव स्वरूप, अन्य पदार्थ में, परिवर्तित किये जा सकते हैं।’’

‘‘मुझे स्मरण है मेघना,’’ योगिराज ने कहा।

‘‘क्या गुलाब के पुष्प को जापा पुष्प में परिवर्तित करने के उपरान्त भी, आपने उन गन्ध बाबा द्वारा अन्य किसी पदार्थ को दूसरे पदार्थ में परिवर्तित करते देखा था?’’ मेघना का प्रश्न था।

‘‘तुम उस सिद्धि जिसके माध्यम से लौह को सुवर्ण में परिवर्तित करने की ओर यह संभव हो जाता है, की ओर संकेत कर रही हो’’ योगिराज ने कहा।

‘‘हाँ! मेरा तात्पर्य यही है’’ मेघना के स्वर में सहमति थी।

‘‘योगिराज क्या भारतीय रस-शास्त्र, रसायन शास्त्र और उसके प्रवर्तकों के प्रयास कि मानव शरीर को दीर्घकाल तक यौवनयुक्त एवं स्वस्थ, रसायनों के प्रभाव से रखा जा सके, की विचारधारा ने मध्यकालीन युग में योरप में, अलकेमी, कीमियागीरी और जीवन का अमृत, प्राप्त करने तथा पारस-पाषाण की खोज को प्रोत्साहन दिया था?’’ डॉ. विलियम का प्रश्न था।

‘‘आप भारतीय रस शास्त्री, रसायनज्ञ, दार्शनिक नागार्जुन के द्वारा विकसित किये गये भस्मों आदि के विषय में जानते ही हैं।

उनका विकास मानव हित में किया गया था। उनके द्वारा विकसित रसायनिक समासों के फलस्वरूप मनुष्य दीर्घजीवन प्राप्त कर सका था’’ योगिराज ने उत्तर दिया।

‘‘उनके आयु के विषय में आपको सूचना होगी?’’

डॉ. हीरोता ने जानना चाहा।

‘‘मानव को विविध रसायनिक योगों द्वारा, औषधि के द्वारा दीर्घजीवन प्रदान करने वाले दार्शनिक रसायनज्ञ नागार्जुन की आयु 600 वर्षों की कही गई है’’ कहकर योगिराज मौन हो गये।

‘‘परन्तु क्या उनको पारद को, पारे को स्वर्ण में परिवर्तित करने की सिद्धि प्राप्त थी?’’ शब्दों को सतर्कता का आवरण धारण कराते हुए डॉ. विलियम ने कहा।

‘‘निश्चय ही उन्हें यह विद्या सिद्ध थी’’ योगिराज का उत्तर था।

‘‘आप इस प्रकार की रस सिद्धि की वास्तविकता को स्वीकारते हैं, इस कारण मुझे भी यह मान्य है’’ डॉ. विलियम के स्वर में निहित शंका स्पष्ट हो उठी।

‘‘मैं तुम्हारी शंका का निराकरण हेतु तुम्हें बताना चाहूँगा कि तुम दिल्ली के बिरला मन्दिर की दीवार पर लगे इसी संदर्भ के शिलापट्ट को देख सकते हो तो साक्षियों के सम्मुख 27 मई 1942 को प्रदर्शित किया गया था।’’

‘‘क्या लिखा है उस पट्ट पर’’ सभी ने आश्चर्यपूरित शब्दों में कहा।

‘‘उस शिला पट्ट पर पारद को, सुवर्ण में परिवर्तिन करने का विवरण और एक तोला पारे से एक तोला सोना बनाकर दिखाने का वर्णन अंकित है’’ योगिराज ने बताया।

‘‘यदि आप सभी की सहमति हो तो मैं सुदूर भू-कक्षा में गतिमान उपग्रह को निर्देशित कर, उस विवरण का चित्र यहाँ प्रस्तुत कर सकती हूँ’’ मेघना का उत्साहपूर्ण स्वर गूँजा।

‘‘हम सभी यह चित्र देखने के लिए इच्छुक हैं’’ डॉ. विलियम और डॉ. हीरोता के समवेत स्वर गूँज उठे।

मेघना ने दूसरे रूम में जाकर अपने कम्प्यूटर द्वारा भू-कक्षा में गतिमान सूचना एकत्र करने हेतु प्रक्षेपित उपग्रह में दिल्ली-भारत और बिरला मन्दिर की स्थिति फीड कर, अपने ड्रॉइंन रूम में लगी स्क्रीन पर सभी को देखने के लिए अनुरोध किया।

अनुमान से पन्द्रह मिनट चित्र प्रक्षेपण में लगा होगा।

क्रमशः बिरला मन्दिर और उसकी दीवार पर लगा सफेद संगमरमर पर अंकित शिला पट्ट दिखने लगा।

मेघना ने नागरी हिन्दी में तक्षित उस शिला लेख के विवरण को पढ़ना प्रारम्भ कर दिया - ‘‘ज्येष्ठ शुक्ल 1, संवंत 1988, तद्नुसार 27 मई 1942 को बिरला-हाउस में पंडित कृष्णपाल शर्मा ने एक तोला सोना करीब एक तोले पारद-मरकरी से हम सभी के सामने बनाया था।’’

‘‘पारे का, प्रयोग प्रारम्भ में एक रीठे के खोल के भीतर रखकर, उसमें एक अथवा आधा रत्ती किसी जड़ी बूटी की भस्म को एक अन्य पीले रंग की भस्म के साथ मिश्रित किया गया। इसको तद्उपरान्त एक मिट्टी के पात्र में रखकर, उसे मट्टी से बन्द कर, कोयले की आग पर रख दिया। कोयले को पंखे के द्वारा दहकाया गया। जब सारा कोयला जलकर समाप्त हो गया तो उस मिट्टी के पात्र को पानी में डाल दिया गया। उस मिट्टी के पात्र से एक तोला सोना प्राप्त हुआ था।’’

‘‘इसी प्रकार का एक शिला लेख काशी-वाराणसी के बिरला मन्दिर में भी विद्यमान है।’’ स्वामीजी ने कहा।

‘‘मैं उसका विवरण भी आपके सम्मुख प्रस्तुत कर सकती हूँ।’’ मेघना ने कहा।

‘‘फिर विलम्ब किसके लिए?’’ उत्साहपूर्वक डॉ. विलियम ने कहा।

इस विवरण को मेघना ने पढ़ना प्रारम्भ किया - ‘‘चैत्र मास संवत 1999 (सन् 1943) पंजाब निवासी पं. कृष्णपाल रस-वैद्य ने ऋषिकेश में, महात्मा गाँधी के सचिव महादेव देसाई, गोस्वामी गणेश दत एवं विख्यात उद्योगपति श्री घनश्याम दास बिड़ला के सम्मुख, दिल्ली के बिरला-मन्दिर में अंकित प्रतिक्रिया को दिखाते हुए श्री महादेव देसाई द्वारा दिये गये 16 किलोग्राम पारे को 16 किलोग्राम स्वर्ण में परिवर्तित कर सभी को विस्मय में डाल दिया।’’

‘‘उस सोने को सनातन धर्मप्रचारणी सभी-पंजाब को दान दे दिया गया। इसके विक्रय से प्राप्त 12000 रुपये को सनातन धर्म सभी ट्रस्ट को दान दे दिया गया। यह कार्य पंजाब के वासी पं. कृष्णपालजी ने इस प्रयोग को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रतापसिंहजी के सम्मुख प्रस्तुत किया था।’’

‘‘यह प्रक्रिया आधुनिक भौतिकी के शब्दों में ‘कोल्ड-फ्यूजन’ है और इस पर रूस, चीन एवं जापान के वैज्ञानिक कार्यरत हैं। यदि उन्हें अपने प्रयासों में सफलता प्राप्त हो जाती है तो मानव के सम्मुख ऊर्जा को सुलभ करने का अक्षय भंडार प्राप्त हो जायेगा। वह अपनी ऊर्जा की आवश्यकता स्वयं पूर्ण कर सकेगा।’’

‘‘किस प्रकार?’’ मेघना ने प्रश्न किया।

‘‘सर्वत्र उपलब्ध जल के द्वारा-प्रदूषणविहीन संन्यत्रों के माध्यम से’’ डॉ. हीरोता का स्पष्टीकारण था।

‘‘बिना रेडियोधर्मी तत्त्वों के प्रयोग से?’’ मेघना जानने के लिये उत्सुक थी।

‘‘निश्चय ही, रेडियोधर्मी प्रदूषण को उत्पन्न किए बगैर’’ डॉ. हीरोता ने स्पष्ट किया।

‘‘मात्र इतना ही नहीं, यह विधा आधुनिक भौतिक विज्ञान के सिद्धान्तों को परिवर्तित कर देगी, ठीक उसी प्रकार जैसे आधुनिक विज्ञान ने आज योग के विषय में अपनी धारणा बदल दी है’’ डॉ. विलियम की टिप्पणी थी।

‘‘मुझे दुखः इस तथ्य का है कि भारतीय अपने प्राचीन-विज्ञान के प्रति विमुख हैं। उन्हें इस कोल्ड फ्यूजन की क्रिया को समझने और इसे विस्तार देने का प्रयास करना चाहिए - जिससे पारद को सुवर्ण में पुनः परिवर्तित करने में सफलता प्राप्त हो’’ मेघना के स्वर में अपनी प्राचीन रस-शास्त्र की, रसायन शास्त्र की उपेक्षा की पीड़ा स्पष्ट हो उठी थी।

‘‘यह भारत की हजार-वर्षों की दासता का परिणाम है। हम भारत की उपलब्धियों पर उस समय तक ध्यान नहीं देते जब तक विश्व के विकसित राष्ट्र-विशेष कर पश्चिमी राष्ट्र उस पर अपनी मोहर लगाकर, स्वीकृति न प्रदान कर दें।’’

‘‘मेघना! भारत की गरिमा पुनः प्रज्वलित होगी।

उसका मस्तक गौरव से समस्त विश्व में पुनः ऊँचा उठेगा। हमें हस दिशा में प्रयासरत रहना होगा’’ योगिराज के स्वर में उनका दृढ़ भारत प्रेम, दृढ़ निश्चय झलक रहा था।

इतना कहकर योगिराज ने एक क्षण के लिए विराम दिया अपनी वाणी को। वे पुनः कहने लगे, ‘‘तथ्यतः इस कोल्ड-फ्यूजन विधा को विकसित न होने देने में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का स्वार्थपूरित षड़यंत्र है। एक पल के लिये सोचो कि यदि इस कम लागत की, कोल्ड फ्यूजन द्वारा ऊर्जा उत्पन्न करने की विधि वृहत स्वरूप में विकसित कर ली गई तो अरबों रुपयों लगाकर चल रही आधुनिक ऊर्जा उत्पन्न करने वाले विद्युत गृहों और एटामिक रिएक्टरों का क्या होगा?’’

‘‘मेरी दृष्टि से उस विधि के विकास से, सरकारों को सोना प्राप्त करने का सहज तरीका ही नहीं प्राप्त होगा - वरन् सोने की खदानों में लगा हुए खरबों रुपये का परिणाम भी कुछ न प्राप्त हो सकेता।’’

‘‘इसी कारण, मेरा विचार है कि यह एक अर्न्तराष्ट्रीय षड़यंत्र है और कुछ नहीं।’’

योगिराज के विचारों को सभी ने मौन स्वीकृति दे दी।

‘‘योगिराज - योग के माध्यम से योगी अपने मन और शरीर पर नियंत्रण प्राप्त कर अनेक प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है। मैंने जापान में भी इन सिद्धियों की चर्चा सुनी है। क्या तंत्र शास्त्र भी योग का अंश है?’’ डॉ. हीरोता के शब्द उनकी इस मार्ग की, तंत्र शास्त्र को समझने के प्रारम्भिक प्रयास से ओत-प्रोत थे।

योगिराज ने उन्हें बताया, ‘‘जापान, चीन, तिब्बत तथा अन्य देखों में बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ तंत्रमय-बौद्ध उपासना का प्रारम्भ हुआ। यह मार्ग वज्रमान कहलाया। तिब्बत में पूर्व प्रचलित बोन धर्म जो वैदिक शैव संप्रदाय का परिवर्तित विकृत रूप था और यह कैलास पर्वत के समीपवर्ती क्षेत्रों में प्रचलित था तथा इसमें जादू, टोने आदि का बाहुल्य था। दूसरे शब्दों में, तमप्रधान देवों की उपासना बढ़ गई थी। इसके निराकरण हेतु नालन्दा विश्वविद्यालय के विख्यात बौद्ध आचार्य शान्ति रक्षित को (सन् 650-750) तिब्बत के राजा ने अपने देश तिब्बत, बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु बुलाया था। आचार्य के तिब्बत पहुँचाने पर वहाँ पर अनेक उपद्रव प्रारम्भ हो गये। इन प्राकृतिक उपद्रवों को देखकर राजा ने आचार्य शाक्ति रक्षित से विचार-विमर्श कर प्रसिद्ध कर प्रसिद्ध तांत्रिक पद्यसंभव को भारत से बुलाया था। तांत्रिक पद्यसंभव ने तिब्बत पहुँच कर उपद्रवों को शान्त कर दिया और तिब्बत का लामा धर्म इन्हीं पद्यसंभव की देन है। वहीं से, मंगोलिया और अन्य देखों में तांत्रिक और तांत्रिक उपासना का प्रारम्भ हुआ था।’’

सभी ध्यान से योगिराज की बातों को सुन रहे थे।

मौन को तोड़ते हुये डॉ. हीरोता ने जानना चाहा कि क्या मंत्रों में भी कुछ विशेष प्रकार की शक्ति होती है?

‘‘निश्चय ही।’’

‘‘क्या प्रत्येक व्यक्ति मंत्रों की शक्ति को ग्रहण कर सकता है?’’ दूसरा प्रश्न था डॉ. हीरोता का।

‘‘मात्र सुपात्र ही’’ योगिराज बोले।

‘‘यह कौन निश्चित करता है?’’

‘‘साधक-गुरु’’ समाधान करते हुये योगिराज ने कहा।

‘‘हमने तांत्रिकों की शक्तियों के विषय में सुना है, क्या आप हम सभी को कोई तथ्यमय विवरण सुनाना चाहेंगे?’’

डॉ. विलियम ने कहा।

‘‘अवश्य! नालंदा विश्वविद्यालय बौद्ध तांत्रिकों का गढ़ था। प्रथम बार जब इस विश्वविद्यालय पर तुर्कों ने आक्रमण किया था उस समय नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य कमल रक्षित ने अपने योग-मंत्र बल से आक्रान्ता पाँच सौ तुर्कों को मार भगाया था। उल्लिखित है कि उन्होंने तुर्कों पर मंत्र अभिशक्त पूर्णकुम्भ फेंका था जिसके कारण तुर्क लोग रक्त वमन करते भाग खड़े हुये थे। इसी के प्रतिकार स्वरूप बख्तियार खिलजी ने सन् 1202 में इस विश्वविद्यालय को जला दिया था’’ योगिराज के स्वर में वेदना थी।

‘‘क्या इस पर आज कोई विश्वास करेगा?’’ मेघना के शब्द थे।

‘‘क्या आज कोई इस तथ्य को स्वीकार करेगा कि भारतीयों को आज की चर्चित नॉनो-प्रौद्योगिकी का ज्ञान था?’’ योगिराज का प्रबल प्रतिउत्तर था।

‘‘किस प्रकार?’’ डॉ. विलियम जिज्ञासु हो गये थे।

‘‘तुम्हें पता है कि भारत के फौलाद-स्टील निर्माण की चर्चा मध्ययुग में सभी करते थे। विशेषकर भारतीय तलवारों की तीखी धारा की। यह धार इतनी कठोर थी कि युद्ध में कभी न कटती थी, न टूटती थी और न कुंद ही होती थी। यह गुण कैसे आता था तलवार की धार में?’’ योगिराज ने कहा।

‘‘आप ही स्पष्ट करें।’’ डॉ. विलियम ने कहा।

‘‘भारतीय धातुविद् इन तलवारों को गर्म कर इतनी पिटाई-हैमारिंग करते थे कि फौलाद में नॉनो कण उत्पन्न हो जाते थे और धार को, तलवार की धार को तीक्ष्णता यही नॉनो कण प्रदान करते थे’’ योगिराज ने स्पष्ट किया।

‘‘आश्चर्यजनक तथ्य है यह’’ डॉ. हीरोता के शब्द थे।

‘‘और इसी प्रकार का आश्चर्य आज हम को भारत की प्राचीन विद्या, जिसमें योग, मंत्र आदि सभी सम्मिलित हैं, को देखकर होता है। मुझे अब ऐसा प्रतीत होता है कि आज का आधुनिक विज्ञान उस मदमत्त वृषभ की भाँति है जो समस्त प्राचीन ज्ञान का मर्दन करते हुये, अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने में लगा है’’ मेघना की टिप्पणी थी।

जिसे सुनकर योगिराज के ओष्ठों पर मंद मुस्कान झलक उठी।

‘‘योग के प्रताप से सिद्ध योगियों ने इस जगत् में विलक्षण कार्य किए हैं। यह जगत् प्रसिद्ध बात है कि वर्षोपाध्याय के शिष्य व्याड़ि, इन्द्रदत्त तथा वरुरुचि गुरु दक्षिणार्थ द्रव्य की इच्छा से नन्दक राज के शरीर में घुल गए एवं रति विज्ञान जानने के अभिलाषी श्री शंकराचार्य अमरक नामक राजा के शरीर में प्रवेश कर गये थे।’’

‘‘यह बातें हजार वर्ष पुरानी हो गयी हैं, परन्तु सन् 1950 के दशक में योग के एक बाह्य अंग को साधना द्वारा आधुनिक राम मूर्ति ने अपनी छाती पर हाथी को चढ़ा कर, तेजी से चलाई गई जीप को हाथों से रोक कर, बड़ी मजबूत लोहे की जंजीर को गले में डालकर फूल माला की तरह एक दो झटके में तोड़ कर, अनेक बार लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया था।’’

‘‘आज पश्चिम का विज्ञान इसके विषय में मौन है।

उसके पास योग द्वारा शरीर को अद्भुत शक्तिशाली बनाने की क्रिया को दर्शाने का, कोई यंत्र नहीं है। इस विधा में अधिक शोध न होने देने के पीछे वही कारण है जो पारद से सुवर्ण बनाने की प्रक्रिया को अवैज्ञानिक बताने का’’ योगिराज ने कहा।

‘‘क्या मैं आपसे आप द्वारा चयनित कुछ यौगिक तथ्यों के प्रभावों को यंत्रों द्वारा चेक कर सकता हूँ’’ डॉ. हीरोता ने पूछा योगिराज से।

‘‘सहर्ष’’ संक्षिप्त उत्तर था योगिराज का।

‘‘देखिये! आप सभी यौगिक समाधि की अवस्थाओं से परिचित हैं। मैं समाधि के पूर्व चाहूँगा कि आप अपने यंत्रों को शरीर में यथास्थान लगाना शुरू करें’’ इतना कहकर योगिराज उस कक्ष की भूमि पर बिछे आसनों पर पद्मासन की मुद्रा में बैठ गये।

डॉ. विलियम ने उनके सिर पर, हृदय क्षेत्र में, बाहों पर नेत्रों के ऊपर तथा छाती पर अनेक इलेक्ट्रोडों को लगाकर यंत्रों को ऑन कर दिया।

सभी यंत्रों की स्क्रीन पर आड़ी, तिरछी, ऊँची, नीची रेखाएँ उभरने और मिटने लगीं।

कक्ष में सभी मौन थे, यदि गतिमान था कुछ तो वह थी मशीनों की ध्वनि। आधे घण्टे के बाद योगिराज के हृदय की गति तथा नाड़ी की गति में मंद गति स्पष्ट दिखने लगी। उनके नेत्रों में गति तथा मस्तिष्क में तंरगों की गतिशीलता प्रदर्शित करने वाली रेखाएँ भी उतनी गहरी नहीं रह गयी थीं।

उनकी इस अवस्था को देखकर डॉ. विलियम ने धीरे से डॉ. हीरोता से कहा, ‘‘योगिराज सविर्तक-सविचार समाधि की अवस्था को पारकर अब सआनन्द की अवस्था में पहुँच रहे हैं।’’

‘‘कैसे?’’

‘‘उनकी बीटा तंरगों की गतिशीलता यह स्पष्ट कर रही है।’’

‘‘वास्तव में मैंने बीटा तरंगों के ग्राफ पर ध्यान नहीं दिया था।’’ डॉ. हीरोता का उत्तर था।

दोनों मौन थे। मेघना योगिराज को ध्यान से देख रही थी। न जाने क्या सोच कर, मेघना ने कक्ष में लगी स्विचों को ऑफ कर दिया। स्क्रीन पर उभरती रेखाएँ और भी स्पष्ट दिखने लगी थीं।

परन्तु यह क्या....?

सभी चकित से विविध यंत्रों की स्क्रीनों को देखने लगे। उन पर उभरती रेखाएँ क्रमशः हल्की होती जा रही थीं.....इतना ही नहीं.......वे सीधी होकर अदृश्य होने लगीं।

यंत्र कार्य कर रहे थे.......परन्तु स्क्रीन से रेखाएँ अदृश्य हो चुकी थीं।

दूसरी तरफ उस हल्के अंधकार में योगिराज के शरीर से आभा निकल रही थी। धवल शुद्ध आभा। तापरहित आभा.....उसका प्रभाव योगिराज के शरीर को गरिमा प्रदान कर रहा था। उनके नेत्र बन्द थे.....वे स्थिर थे...... और वे योगियों के लिए अलभ्य अस्मप्रज्ञान अवस्था में जा चुके थे।

सर्वत्र मौन....शान्ति थी....यौगिक प्रकाश था।

मेघना ने घड़ी देखी..... एक घण्टे का समय बीत चुका था, अब योगिराज चैतन्य हो रहे थे। यंत्रों की स्क्रीन पर रेखाओं का उभरना पुनः प्रारम्भ हो गया था।

योगिराज कुशासन से उठ खड़े हुये। अपने स्थान पर बैठते ही उन्होंने पानी माँगा।

सभी योगिराज की तरफ सुनने की इच्छा से देख रहे थे।

‘‘क्या आपके यंत्रों ने योग की चारों अवस्थाओं, ध्यान योग की, सविर्तक-सविचार, सानन्द-सस्मित एवं असम्प्रज्ञान, अवस्थाओं में हो रहे परिवर्तनों को अंकित किया है?’’

‘‘वे कुछ विशेष दर्शा न सके और न ही कुछ विशेष अंकित ही करने में प्रभावी सिद्ध हुये’’ बुझे स्वर में डॉ. विलियम ने कहा।

‘‘लेकिन ऐसा क्यों?’’ मेघना ने पूछा।

‘‘संभवतः इन यंत्रों की सूक्ष्म ग्राहिता, इन अवस्थाओं हेतु विकसित नहीं है’’ विचारपूर्ण स्वर में योगिराज ने शंका समाधान का प्रयास किया।

‘‘मैं आपके तर्क से सहमत हूँ। वास्तव में हमारा विज्ञान अनेक प्रश्नों का उत्तर भौतिक स्तर पर तलाशता है, परन्तु उसने अभी तक मस्तिष्क की क्षमताओं को समझने में दक्षता प्राप्त नहीं की है’’ डॉ. विलियम ने कहा।

‘‘योगिराज! आपसे एक अनुरोध है’’ मेघना ने कहा।

‘‘क्या?’’

‘‘आपने योगशास्त्र के विषय में हम सभी को विस्तार से बताया, परन्तु क्या आप तंत्रशास्त्र की महत्ता को, विलक्षणता को हमें दिखाना चाहेंगे?’’

‘‘मुझे तुम्हारा विनम्र निवेदन स्वीकार है, मेघना’’ योगिराज ने मंद मुस्कान सहित उत्तर दिया।

‘‘परन्तु यहाँ नहीं, बाहर के उद्यान में।’’

योगिराज पद्मासन की मुद्रा में बैठ गये। उनके सम्मुख मेघना, डॉ. हीरोता और डॉ. विलियम चकित भाव से प्रतिमाओं की भाँति बैठ गये।

कुछ क्षणों के उपरान्त योगिराज ने डॉ. विलियम से समीप के गमले से क्रोटान की एक पत्ती तोड़ कर लाने को कहा। योगिराज ने उस पत्ती को बीच से तोड़ कर आधी पत्ती का भाग दाहिने हाथ में तथा आधी को बाएँ हाथ की मुट्ठी में रख लेने के लिए डॉ. विलियम से कहा।

डॉ. विलियम ने अपनी मुट्ठी में क्रोटान की पत्तियों के टुकड़ों को रखकर बन्द कर लिया।

योगिराज ने अपनी आँखें बन्द कर लीं। उन्हेंने गहरी साँस खींची और उनके चेहरे पर लालिमा बढ़ने लगी। क्रमशः उनके चेहरे पर उस उद्यान के -5डिग्री के तापक्रम में पसीने की बूँदें उभर आयीं। योगिराज के चेहरे पर एक विचित्र प्रकार का तेज छा गया। उन्होंने अपनी आँखों को खोला और डॉ. विलियम को अपने दाहिने हाथ की बन्द मुट्ठी को खोलने के लिए कहा।

डॉ. विलियम ने मुट्ठी खोल दी।

सभी के नेत्रों में विस्मय था.....डॉ. विलियम की दाहिने हाथ की मुट्ठी में एक ताजा सुगन्धियुक्त गुलाब का फूल था और बाएँ हाथ की मुट्ठी में क्रोटान की आधी पत्ती।

सभी योगिराज ने इस प्रदर्शन पर अवाक् थे...... कुछ पलों के उपरान्त मेघना ने योगिराज को आदरपूर्ण नेत्रों से देखा और कहने लगी, ‘‘हम सभी को तंत्रशास्त्र का प्रत्यक्ष अनुभव का अवसर देने हेतु आपको अनेक प्रणाम।’’

योगिराज मंद-मंद मुस्करा रहे थे।

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रचनाकार: विज्ञान - कथा : योगिराज // डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय
विज्ञान - कथा : योगिराज // डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय
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