कहानी // माँ मैं तेरी बेटी // जितेंद्र आनंद

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माँ का स्थान समाज में बहुत ऊँचा है । लेकिन कभी – कभी माँ जैसे अपने बेटे के लिए अच्छी होती है, जरूरी तो नहीं कि अपनी बेटी के लिए भी उतनी शक्त...

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माँ का स्थान समाज में बहुत ऊँचा है । लेकिन कभी – कभी माँ जैसे अपने बेटे के लिए अच्छी होती है, जरूरी तो नहीं कि अपनी बेटी के लिए भी उतनी शक्ति दिखा पाये । आज मैं आपको एक अलग कहानी सुनाता हूँ – जीवन भर माँ के प्यार के दो बोल को लेकर परेशान नेहा शर्मा और जन्म देने वाली कठोर हृदय कविता शर्मा की ।

जब आप आगरा से दिल्ली की तरफ चलें तो रास्ते में एक शहर आता है सुरीर और इसी सुरीर में जन्म हुआ कविता शर्मा का । पिता दुकान पर रहते जरूर पर कहाँ इतनी आमदनी कि परिवार का खर्च चलाकर ले जायें। छोटे शहर कि अपनी समस्या, नौकरी करे भी लें, लेकिन मिले तो सही। कविता के मामा सुरीर के एक विद्यालय में न जाने कैसे नौकरी पा गए, पैसे बहुत नहीं मिलते, लेकिन मामा-मामी ने कभी भी कविता को सहारे की कमी न महसूस होने दी। अगर घर पर कुछ न मिला तो कविता सुबह शाम दो रोटी तो खाकर आ ही जाती, मामी कभी किसी शादी ब्याह में जाती तो कविता को एक सूट माँग कर जरूर ले आती, रिश्तेदारों को भी पता चल गया और मामी के कविता के प्रेम की बढ़ाई करते न थकते, भाई मामी हो तो ऐसी।

जैसे – जैसे समय गुजरता गया कविता एक बाद एक उम्र के पायदान चढ़ने लगी, और जो समझ आया वो बस पैसा। चार बच्चों के पिता की परेशानी, माँ के चेहरे पर नजर आती पैसों की कमी, अपनी हिम्मतकश और खिलखिलाती छोटी बहन। मामी न साथ देती तो, खाने की भी मुश्किल। वक़्त ने कविता को बेहद मिलनसार और समझदार बना दिया, मतलब निकालना और काम पूरा हो जाने पर भूल जाना एक फितरत सी बन गयी। जो समझ आ रहा था वह एक लंबा संघर्ष था, मन पूरी तरह से पक्का हो चला। जीवन कोई पेड़ तो नहीं बना लेकिन पानी की तरह बह निकला ।

सोलह साल की उम्र में कविता को एक फैक्टरी में काम मिल गया, जिंदगी को जीने की दौड़ कई कदम आगे निकल गयी। जो उम्र सपने देखने की थी, वो एक मजदूरी बदल गयी। लेकिन बदल गया घर का हिसाब किताब, मामी की जान में जान आई। आज कविता के दम पर घर का खर्चा चल निकला । मेहनत ने शरीर जल्दी बदल दिया और बदल दिया नजरिया, पैसा ही भगवान, वही आस्था और वही सम्मान ।

एक समस्या धीरे – धीरे करीब आने लगी, शादी और शादी का खर्चा। कविता ने मन सोच लिया जो हो जाए, जैसे भी हो जाये लेकिन वह न नहीं करेगी। बिना पैसों के शादी भी मुश्किल, जिस घर में रोटी ही कविता के दम पर चल रही हो, वहाँ शादी का खर्चा तो एक दम भयावह स्वप्न की तरह से लगता।

सुरीर से थोड़ी दूर एक जगह है, पलवल और पलवल में एक अजीब कहानी ने जन्म लिया। सुनील शर्मा बहुत होशियार और काबिल व्यक्ति थे, दिल्ली विश्वविद्यालय से विज्ञान में पोस्ट ग्रेजुएट और फिर अमेरिका की नामी स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय से शिक्षा लेकर आए, उस समय में बहुत नाम था। पढ़ने लिखने के शोकीन, अलमारी किताबों से भरी रहती थी। जब लौट कर आए तो अपने जैसी ही एक शिक्षित पत्नी पा ली, समय के साथ दो पौत्रियों के बाप बने। एक छोटी सी उद्योगशाला थी, जो अच्छा जीवन यापन का साधन बन चुकी थी। समय गुजर रहा था आराम से, सुनील के मन के हिसाब से।

पता नहीं क्या हुआ की एक बार जो सुनील की प्रिय जो बीमार पड़ी तो इलाज चलता गया, समझ से बाहर बात हो गयी। दुनिया भर में दिखने के बाद भी सही न हो पायीं और जीवन भर का साथ छूट गया। अपनी ग्यारह साल और सात साल की दो बेटियों को सुनील के हवाले कर उन्होने अंतिम साँस ले ली । बत्तीस साल के सुनील के सामने दुनिया ही बदल गयी। परिवार बड़ा था, सभी तीन बहिनों के पति अच्छी पोस्ट पर थे, दूर दूर तक नातेदारी । और सुनील को कोई न चाहे ऐसा तो संभव ही नहीं। परिवार का नाम था, सुनील एक पल भी अकेले और अलग न हो पाये।

एक साल गुजर गया, सभी सुनील को लेकर परेशान, दोनों बेटियों को लेकर परेशान। सुनील की माँ इस उम्र खाना बनाती तो सुनील मदद करने की कोशिश करते, दोनों बेटियाँ लग जाती, लेकिन वो बात कहाँ । बात हर ओर चल पड़ी, कि जैसे भी हो सुनील की फिर शादी की जाये। सुनील चाहते हुए न चाहते हुए मान ही गए।

तलाश शुरू हो गयी, लेकिन सुनील की उम्र में ये कोई आसान बात न थी। दो बेटियों की ज़िम्मेदारी और ये मुकाम, राह आसान न थी। कोई गरीबी का सौदा कर ले तो बात बन जाये, वैसे तो शादी मुश्किल ही थी। और इसी तलाश में एक दिन कोई शादी की बात करने कविता के घर पहुँच गया ।

कविता के पैरों ने नीचे से जैसे जमीन ही खिसक गयी। माँ बाप उस दिन जी भर कर रोये । लेकिन कविता का दिल आज पत्थर का बन गया, बस उसने कुछ दिन का समय माँग लिया।

बहुत सोच विचार करने का बाद में एक बात तो साफ हो चली, कि कोई रिश्ता इस टक्कर का कविता को मिलने वाला नहीं था, अगर शादी होती एक मजदूर या कोई छोटे दुकानदार से हो सकती थी । कविता पूरे एक महीने तक हिसाब लगाती रही कि क्या खो सकता है ओर क्या मिल सकता है।

और खोने पाने का हिसाब आज भरी पड़ गया, माँ ने भाग्य मान लिया, पिता पहले से ही पागल से हो चले थे, बेटी का विवाह हो जाये वही काफी था। कविता ने हाँ कर दी। कठोरता अब एक पहचान बन गयी, मन भी अब भावहीन हो चला । फिर आने वाले समय वो नहीं था जो लगता था, संघर्ष तो अभी था लेकिन इसका परिणाम अब उज्ज्वल हो चला। हाई स्कूल पास और मजदूर कविता एक दिल्ली और स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त, मजदूरों से काम लेने वाले सुनील के घर आ गयी । बिज़नेस पहले जैसा नहीं था लेकिन संभावना बनी हुई थी, लक्ष्य साफ था। पैसा ही भगवान और वही न्याय।

सब कहते हैं कि समय बड़ा बलवान है, एक एक दिन महीनों में फिर साल में बदल गया। एक बात जो कविता को बहुत तेजी से समझ आई कि व्यापार का स्कोप तो बहुत था लेकिन उतना पैसा नहीं आ पा रहा, सुनील कि हर किसी की मदद करने की आदत और बहुत ज्यादा प्रयत्न नहीं कर पाना एक गंभीर समस्या बनी हुई थी। हल समय को निकालना था और तरकीब कविता को लगानी थी ।

कविता ने मन में ठान ली, अगर मजदूरी किसी दूसरी फेक्टरी में की जा सकती थी तो अपनी में क्यूँ नहीं, बस ठन गयी, सुनील देखते ही रह गए। घर में तूफान, लेकिन घर में सभी को पैसों की बहुत जरूरत, हिम्मत देखकर हर कोई दंग । तरीके निकाले गए और परिणाम कुछ महीनों में ही नजर आ गया। आगे बढ़ने के सपने जो कविता की आँखों में थे, वह कोई सोच पाने की हालत में भी नहीं था।

अचानक एक दिन कविता को महसूस हुआ की, शरीर में बदलाव है, एहसास हो गया कि वह माँ बनने वाली है। लेकिन इतनी जल्दी, ये न सोचा कभी। और न जाने कैसे मन को ये भी लग गया कि आने वाली एक बेटी है । बेटियाँ तो पहले ही दो-दो घर पहले से थीं, फिर एक और। वो खुद बीस साल कि हो चली और अब दोनों बेटियाँ तेरह और ग्यारह साल मेँ आ गयी। अजीब सा माहौल, बिना वजह। बस मन नहीं था कविता का, वह पहले अपने मन के हिसाब से दौलत में आगे जाना चाहती थी, अभी बच्चे नहीं चाहिए और उम्र भी तो कोई खास नहीं, कुछ साल और सही। कविता ने गुस्से से अपना पेट पीट लिया, बस नहीं चाहिये। मन ही मन फैसला कर लिया, पता नहीं सुनील को अहसास हुआ कि सब ठीक नहीं है। मेहनत और लगन के तो वह पहले से ही कायल थे, और प्रेम भी हो चला। जब कविता ने बताया तो गुस्से का ठिकाना न रहा। बड़ी मुश्किल से समझा पाये, कविता ने आखिर बात मान ही ली, जो भाग्य को मंजूर । बस नहीं गयी तो अजन्मी बेटी के लिए हुई दिल नफरत की शुरुआत।

दिन आ ही गया और कविता को जो लगा था, वही सच हुआ, घर में एक और बेटी ने जन्म लिया, नाम रखा गया नेहा । आखिर नेह की तलाश जीवन की दास्तान जो बनने वाली थी।

जिस दिन जन्म हुआ, सुनील को एक बड़ा ऑर्डर मिला और काम की कमी न रही। जो बदला वो दोनों बेटियों का मन, बड़ी बेटी को पता था कि उसकी नयी माँ एक गरीब घर से है। एक दिन बोल ही आयी कि अब तो हमारी क्या चिंता रहेगी। आग लग गयी कविता के मन में, जिस बेटी को जन्म से पहले से न चाहा अब तो एक बहाना मिल गया। कविता ने फैसला ले लिया, चाहे अपनी बेटी का बलिदान हो जाये लेकिन कोई परिवार में या समाज में कह नहीं पाएगा कि उसने न्याय न किया। छोटी से नेहा के अन्याय की कहानी जन्म ले चुकी थी, बस अब आकार और रूप बड़ा होना बाकी था।

दिनों की दास्तान धीमे धीमे बदलने लगी, घर में खेत आ गए, ब्याज का पैसा बड़ गया। नेहा के साथ द्रोह बड़ गया। सुनील का जरा सा प्यार करना भी दो बेटियों को अच्छा न लगता। कोशिश हो चली की बात कैसे गिरा दी जाये। घर में एक गेंद तरह कूदती नेहा अब हर लात पर एक कोने से दूसरे कोने में भागती। अपनी माँ से डर लगता, अकेले ही अच्छा लगता। कोई बात न करे तो ठीक है, अगर कोई बात करने की कोशिश करता तो सिर्फ अपने मज़े के लिये, मज़ाक बनाने के लिए और मन को ठेस देने के लिए। कविता का बदला पूरा हो चला, एक अजीब सी खुशी मिलती। न जाने क्या कर्मों का दोष, क्या भाग्य की गाथा ।

चार साल बाद कविता के घर बेटे का जन्म हुआ और उसका जन्म सफल हुआ। तीज त्योहार का मौसम, खुशी का कोई आलम नहीं और न फुर्सत। किरन और सरला दोनों बड़ी बेटियों की तेजी सी बढ़ती उम्र और जालिम तरीके, बेटे का नटखट जीवन, खुशी ही खुशी। बस इंतज़ार एक दिन का कब ये नेहा शादी होकर अपने घर जाये तो सूरत न कोई देखे। सुनील देख न पाये, लाख जतन किए पर सब बेकार। दिल के रोगी हो गए, कविता को पता था अब खेल एक ही चलेगा, अब बेटा ही सहारा, और जो अब जीवन में हासिल किया वही आनन्द । एक कोशिश और शुरू हो गयी, ड्रामा और बड़ा हुआ साथ में दिल का दर्द। एक दिन सुबह झगड़े के बाद सुनील टूर पर ऐसे गए कि जिंदा वापिस न लौटे। कुछ दिन बाद माँ ने नेहा से करारनामे पर हस्ताक्षर करा लिए कि मेरे इस जायदाद पर कोई हक़ नहीं। जिंदा लाश कि तरह से कमजोर, आँखों की कम रोशनी और ऊपर से इस उम्र में ब्लड प्रैशर। माँ को इंतज़ार नेहा की शादी का या मौत का, जो पहले हो जाये। बस जीवन भर पलट कर शक्ल ने देखेंगी।

अपने अपने भाग्य हैं, अपने अपने कर्मों की गाथा। न जाने किस जन्म का वैर निकाला तीनों ने मिलकर। जैसे जैसे कविता के पैसों की भूख बढ़ती जाये, किरन नेहा को परेशान करती जाये। बिना बाप के सहारे नेहा ने किसी से बात करना भी बंद कर दिया। अपने आप से ही बातें करती रहती। किरन और सरला को इस बहुत मजा आया, नेहा को किसी कोने में अपने आप से बातें करती देखती तो कविता को बताती, माँ को और गुस्सा आता नेहा पर, धीमे धीमे बड़ा होता बेटा शोभित भी चुपके से आता और एक हाथ मार कर चला जाता, दर्द से बिलबलाती नेहा को देखकर खिलखिलाते हुए । माँ पूरे दिन बड़बड़ाती, न जाने इस जन्मजली से किस दिन छूटकारा मिलेगा। दोनों बहनों का टाइम पास , मनोरंजन और माँ के साथ साजिश में साझीदारी का उपहार, मान-सम्मान सब इस बात से हो गया कि कविता अपनी बेटी नेहा को कितना नीचे गिरा सकती थी, उनके अत्याचार की मूक गवाह बन कर साथ निभा सकती थी। उम्र का फासला, और मौत न आए तो जीना तो पड़ेगा, नेहा को कभी महसूस ही न पाया कि आत्म सम्मान क्या होता हो, रिश्ते का क्या मोल, अपनी दोनों जालिम बहनों के पीछे – पीछे भागते हुए, प्रेम और दया की भीख मांगते हुए, नेहा ने सोलह साल कि उम्र पार कर ली।

कविता भले ही न पड़ी लिखी थी, उसने इस जिंदगी में पैसों का खेल देखा था। वो जानती थी कि अब इस कारोबार को चलाने के लिए एक आदमी कि जरूरत थी, जब तक बेटा शोभित न बड़ा हो जाये। इतने खेल खेलकर अगर जायदाद का वारिस बेटा न बन पाया तो जीवन की सुरीर से चली यात्रा पूरी कैसे होगी। काइरन को रिश्ता तलाशा गया, सुनील का नाम मरने के बाद भी काम आया और एक आईआईटी कानपुर के लड़के ने किरन के लिए हाँ कर दी, दो साल और गुजरे और सरला को बैंक ऑफिसर मिल गया। रह गयी नेहा, माँ को मतलब नहीं, शोभित पड़ने बाहर चला गया। जो नुकसान जिंदगी में होना था सब हो चुका। रह गया तो किरन और सरला का त्योहार पर आना, नेहा का मज़ाक बनाना, मनोरंजन का वही अंदाज, फर्क बस इतना सा कि जो खेल पूरे साल सातों दिन चलता वह एक सप्ताह सिमट कर रह गया।

नेहा को लगा कि शायद अब माँ उसके मन कि सुन लेगी, दो बोल कभी प्यार के बोल देगी। लेकिन ये और भी मुश्किल हो गया। जिस बेटी के होने पर कविता ने अपने पेट पीट लिया था, उससे आज क्या प्यार। खामोशी और बढ़ गयी, घर में कोई बात करने वाला न रहा, भाई कभी आता तो दूर- दूर भागता।

बस रह गया तो इंतज़ार, एक दिन घर से विदा होने का, नेहा को भी और कविता को भी, अब दिन गुजर रहे थे तो बस एक अजीब से इंतजार में। कविता और सरला आपस मे बात करके खिलखिलाती, नेहा पागल सी शक्ल ताकती, अब शायद उससे भी कोई बात करेगा। माँ अपनी इस पागल सी बेटी के लिया और भी कठोर हो गयी, बेअकल, बेहया और गँवार। किरन और सरला कितने अच्छी थीं, कितने सलीके से रहती, कपड़े पहनती, इस हूस और और पागल को कौन संभाले। कविता जब भी बात करती ज़ोर से चिल्ला कर बात करती, जनम जली, क्यों उसका नाम खराब करने उसके घर आ गयी।

कविता हर हाल में अपने बेटे शोभित के पढ़ाई कर वापिस लौटने से पहले नेहा की शादी कर विदा करना चाहती थी। किरन और सरला को काम दे दिया गया, दोनों काबिल दामाद एक ऐसा रिश्ता तलाशने ने लग गए, जो उन्हें कभी भी किसी बात पर भला बुरा न कह सके, नेहा के साथ अन्याय की बात न करे, और शांति से इस घर से एक बार रिश्ता होने पर दूर चला जाये, नेहा को बार-बार मिलवाने न ले आए। कविता और सरला को अपनी धर्म माँ पर विश्वास था, आखिर गुनाहों का साथ कभी इतनी आसानी से खतम होता है, और एक गुनाह हो तो कोई बात करे। कविता आखिर किरन से डरती भी बहुत थी, अपने से सात साल छोटी बेटी को उन्होंने बहुत मन पहचाना था, हर चाल सिखायी थी।

बात बन ही गयी, नेहा की एक क्लर्क से शादी हो गयी। गरीब बाप का बेटे केशव को जो मिल गया भाग्य बन गया। मजदूर बाप न समझ पाया, माँ अपनी दुनिया में खोयी हुई। बस कुछ दिन बाद ही केशव नेहा को लेकर नौकरी करने चला गया।

सब सही हो गया, कविता ने भगवान का यज्ञ कराया, प्रसाद खाया और बेटे को कभी नेहा से बात न करने का आदेश दे दिया। जो पेट पीटने से न मर पायी, आज कविता के मन में अपनी बेटी नेहा हमेशा के लिये मर गयी। बस रह गया तो नेहा का मन, अपनी माँ से बात करने का, भाई से प्रेम के दो शब्द सुनने का और रह गया केशव, जीवन के इस संघर्ष में अपने कठोर भाग्य को साथ लिए अपनी साँसों की गिनती पूरी करने के लिए।

कई बार लगता है कि सब गलत है, कल्पना है, माँ ऐसी नहीं होती। लेकिन किरदार अपने आस पास ही हैं, कोई देखे तो सब सच है। हर बेटी माँ को प्यारी नहीं, प्यार के इस खेल में पैसा भी अपना किरदार निभाता है।

माँ, ये तेरी बेटी, आज भी तरसती हैं दो शब्द प्रेम के सुनने के लिए, एक फोन पर हुलसते हुए। लेकिन हर बेटी माँ को नहीं पसन्द, जीवन भर की त्रासदी है और कोई सुनवाई नहीं। कोई न्याय नहीं, बंद कमरों की कहानियाँ दफन हो जाती हैं समय के साथ।

जो रह जाता तो बस इंतजार, शायद एक दिन।

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जितेंद्र आनंद – एक परिचय

जन्म : 21 अगस्त 1970 को अलीगढ़ में । मालवीय क्षेत्रीय अभियांत्रिकी विद्यालय, जयपुर से स्नातक व रुड़की विश्वविद्यालय, रुड़की से स्नातकोत्तर डिग्री ।

किरदारों के मन को समझ पाना भी आसान नहीं, अपने आस-पास हर चेहरा गवाह है एक नयी कहानी का। अन्याय को अपने दिल छुपाये, कुछ किरदार मिल ही जाते हैं अक्सर चेहरे पर एक चेहरा लगाए। पैसों की इस अंधी दौड़ में कौन अपना अन्याय कर गया और इसकी सजा जीवन भर कौन भरे, पता नहीं।

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रचनाकार: कहानी // माँ मैं तेरी बेटी // जितेंद्र आनंद
कहानी // माँ मैं तेरी बेटी // जितेंद्र आनंद
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