कहानी // एक कोशिश // डॉ जया आनंद

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कहानी एक कोशिश डॉ जया आनंद आँखें सूनी हों या आँखें भरी हों, दोनों ही उदासियों को बिखेरती है। आज आँखें भरी थी, दो नहीं कई आँखें आँखों से बरस...

कहानी

एक कोशिश

डॉ जया आनंद

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आँखें सूनी हों या आँखें भरी हों, दोनों ही उदासियों को बिखेरती है। आज आँखें भरी थी, दो नहीं कई आँखें आँखों से बरस रही थी उदासियां उन बरसती उदासियों में एक चेहरा उभर रहा था सांवला सा, कुछ अपना सा -- वह एक सांवली सी दुबली पतली लड़की थी चेहरे पर कोई आकर्षण नहीं, कपड़े भी साधारण से, कुल मिलाकर ऐसा कुछ भी नहीं जो मन में जगह बना ले, पर फिर भी वह लड़की मन के एक कोने में कब आ कर चुपके से बैठे गई पता ही नहीं चला।

”हाय मैम ये सपना है मैथ्स की नई टीचर,, - स्टाफ रुम में एक टीचर ने मेरा उससे परिचय कराया। मैंने मुस्कुरा के उसकी ओर देखा बदले मे उसने भी एक हल्की सी मुस्कान बिखेर दी। सांवले से चेहरे पर स्वच्छ धवल मुस्कान ने कुछ भाव उसके प्रति जगा दिए। सच एक मुस्कान कितने सारे प्रश्नों का समाधान कर देती है, कौन,क्या, कैसा- -

मैं लेक्चर लेने चली गई और फिर कॉलेज की नित्य प्रति की क्रियाएं - जिसमें छात्र-छात्राओं को डांटना भी शामिल होता है -- कैसे सुधरेंगे आजकल के छात्र, टीचर को कुछ समझते ही नहीं --- नहीं कुछ विद्यार्थी तो बड़े अच्छे होते है और कुछ बेहद लापरवाह --- यही सारे विचारों का मंथन करते हुए जब लेक्चर लेकर मैं वापस स्टाफ रुम की ओर आ रही थी, तो क्लास में तेज फंसी हुई सी आवाज आ रही थी। झांक कर देखा अरे! ये तो सपना है पूरी क्लास शांत हो कर उसका लैक्चर सुन रही थी वाह! आवाज में फंसाव लेकिन एक बुलंदी कुछ बात तो है इसमें, मन में मैंने सोचा।

कॉलेज है तो सोमवार से शनिवार कैसे आता है, भागमभाग में पता ही नहीं चलता। सनडे इज द हॉलीडे, उस दिन आभास होता है कि इन छः दिनों में क्या क्या घट़नाएं (छोटी बड़ी) घट गई। दूसरे या तीसरे दिन ही शुभा ने बताया - उसकी माँ को कैंसर है“। ”किसकी!,, मैंने चिंतित स्वर में पूछा। ”नई टीचर क्या नाम क्या है? हाँ ,,सपना की माँ -- शुभा जल्दी में बताकर लेक्चर में चली गई।

मैं हतप्रभ सी, हो गई इतनी छोटी लड़की और इतना दुःख हम अपने ही दुःख से इतना दुःखी रहते हैं कि औरों के दुःख, कष्ट का अंदाजा भी नहीं होता, मन सचमुच विह्वल हो उठा -।

सपना धीरे-धीरे सबमें घुलने मिलने लग गई। हम सब का एक साथ इंटरवल में लंच करना एक नियम सा था। चाहे कितने भी वाद-विवाद क्यों न हो। अब सपना का भी डब्बा खुलने लगा था। मुम्बई में सबके लंच बॉक्स डब्बे हो जाते हैं। ”रेणुका क्या सब्जी लाई है? -- शुभा ने जोर से पूछा । आज मैं राजमा लाई हूँ“ मैंने ऐसे कहा मानो कोई बहुत बढिया चीज बनाई है. नैन्सी अपना इडली सांभर दे’ , ऐ मेरा डब्बा पास करो डब्बा’ भूख लगी है। लंच टाइम में मचलती आवाजों और विविध स्वाद के बीच सपना के डब्बे में ज्यादातर उबला दाल चावल और अचार ही रहता था। विश्वजा ने एक दिन उससे पूछ ही लिया --”हर दिन दाल चावल ही क्यों? और वह भी उबले हुए!

”क्या करुं मैम मुझे ही बनाना पड़ता है मम्मी तो बीमार ही हैं पापा भाई सबके लिए बनाना और सुबह-2 गोरेगांव से कॉलेज के लिए निकलना,, - पूरे दो घंटे लगते हैं.. फिर मुझे ज्यादा कुछ बनाना भी नहीं आता... सपना लगातार बोलती चली गई अपनी कुछ भारी और फंसी आवाज में।

अभी वह छोटी सी लड़की ही थी और इतनी जिम्मेदारी! मन भारी हो उठा। पर जीवन में दुःख निरंतर बने रहते है तो व्यक्ति जीवन जीना सीख लेता है और उन पलों में भी सुख की तलाश कर लेता है। चलो न मैम खोखो खेलते हैं,, सपना ने चहकते स्वर में कहा। ”खोखो और हम टीचर“! पर हम उस प्यार भरे आमंत्रण को मना नहीं कर पाए और खो-खो खेलकर कॉलेज का भरपूर मजा लिया। सचमुच! सपना के इस अंदाज से हमे सब के मन का बच्चा जग गया था। अब कभी स्टाफ रुम में डांडिया होता तो कभी वॉलीबॉल का खेल नहीं तो मोबाइल के गानों पर सपना का डांस। पारंपरिक शिक्षक की छवि को तोड़ने का सारा श्रेय सपना को है।

कॉलेज में शोर न हो तो उसके अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह लगने लगे। विद्यार्थियों का शोर, लेक्चर्स का शोर, पिरियड के लिए बजने वाली घंटियों का शोर --- पर यह शोर कुछ अलग था --

”कोई बेहोश हो गया“--- कौन? --- कोई छात्र? ---

नहीं-नहीं -- टीचर, कौन? मेरे मन मस्तिष्क में अनेक सारे प्रश्नों का जाल बिछने लगा। मैं लैक्चर पांच मिनट पहले ही छोड़कर स्टॉफ रुम आ गई। वहाँ का नजारा ही आश्चर्य में डालने वाला था --

सपना बेहोश हो गई, देखो! सभी टीचर्स, अन्य कर्मचारी चेहरे पर पानी डाल रहे थे पर उसे होश ही नहीं आ रहा था। पता लगा सपना के दस हजार रुपये गायब हो गए हैं जो उसके भाई की फीस के लिए थे। सपना को होश नहीं आया, हमने उसको पास के हास्पिटल में भर्ती कराया और जैसे ही उसे होश आया वह तड़प उठी-- ”पापा को मत बऽऽ ताऽ ना। -- प्लीज मैम डोन्ट टेल हिम।,, उस दिन उसकी आर्थिक परिस्थिति का भी अंदाजा हो गया था।

साथ रहने से किसी को न भी जानना चाहो तो भी उससे परिचय प्रगाढ होने लगता है। सपना की सारी गतिविधियां, उसकी परेशानियां, उसकी खिलखिलाहट सबसे हम सब क्रमशः परिचित होते जा रहे थे - और उसके बैंग्स। ”बडा सुंदर और कितना बडा बैग है,, सपना! शुभा ने थोडा हंसते हुए व्यंग्यात्मक लहजे में कहा। ”अरे! इसके बॉयफ्रैण्ड ने दिया है। विशाखा आँखें मटकाते हुए बोली। मेरे लिए यह बात बिल्कुल अचंभे वाली थी या शायद ऐसी जिसे मैं सामान्य रुप से नहीं ले पाती। शायद मध्यमवर्गीय शहर की पृष्ठभूमि एक कारण रही हो जहाँ किसी को पसंद करना तो मुझे मान्य लगता था पर ब्यॉयफ्रेन्ड, गर्लफ्रेन्ड बनाने में एक अपराध बोध सा लगता थ़ा। पर महानगरों की बात अलग है यहाँ तो हर किसी का ब्यॉयफ्रेन्ड, गर्लफ्रेन्ड है, सो सपना का भी है इसमें अज़ीब कैसा। पर मैं अपने मन का क्या करुं उसे तो अजीब लग रहा था। अभी तक सपना के सब सकारात्मक पहलू मेरे सामने थे, आज एक पहलू जो मेरी नजर में नकारात्मक था, सामने था। ये उपहारों का लेन देन, साथ में घूमना-फिरना, क्या है यह सब? पर सपना में ऐसा क्या था कि इस बात को भी मेरा मन स्वीकारता चला गया -- पर हाँ मैंने भी कहा -”सपना! जो घूम फिर रही हो तो शादी भी इसी से करना। सपना बस मुस्कुरा देती, उसका उत्तर न हाँ होता और न नहीं।

कॉलेज है तो परीक्षाएं हैं और परीक्षाए हैं तो कापियां है। कापियाँ समय से जाँची जाए इस बात की होड़ लगी रहती है। घरेलू परीक्षाओं में भी कॉपियां चेक करने की होड़। कालेज के स्टॉफ रुम में पहुँचते ही शोर सुनाई पडा ”कौन करेगा करेक्शन, बच्चों का रिजल्ट कैसे बनेगा,“ सायली जोर-जोर से चीख कर बोल रही थी। हुआ क्या? किसकी बात हो रही है? मेरे सामने अनेक प्रश्न खडे हो गए थे। ”मैथ्स़ की कॉपियां किसी को तो नहीं दे सकते चेक करने के लिए“ -- मेरे क्लास का रिजल्ट कैसे बनेगा - - - सायली फिर जोर से चिल्लाई।

सपना की मां नहीं रही - - और तुम्हें कॉपियों की पड़ी है“ -- शुभा ने बिफरते हुए कहा। ”क्या! सपना की माँ। - - और - - इन्हें कापियों की - - वाक्य अंधेरे ही छूटते जा रहे थे और मेरे मन में दर्द और पीडा का समंदर हाहाकार कर रहा था। छोटी सी सपना बिना माँ के कैसे - -। माँ कैंसर से पीड़ित थी, पर थी तो, माँ का होना ही, अपने आप में संपूर्णता भरता है - -और एक ये लोग है, गुस्से से भरी तिलमिलाहट मन में भर गई थी, - - ये रुखे लोग दूसरे का दर्द पीड़ा नहीं समझते। महानगरों का रुखापन आज मुझे साफ झलक रहा था कुछ चेहरों पर।

कहते हैं वक्त कितना भी कठिन हो गुजर जाता है। वक्त गुज़रा और सपना अपने सब दुःख कष्टो को समेट कर कॉलेज आयी और धीरे-धीरे कुछ समय बाद उसकी चहक से स्टॉफ रुम फिर से गुलजार होने लगा।

नया एकेडेमिक सेशन शुरु था, इसलिए कुछ नई बात हो और सपना तो कुछ नया हमेशा करने को तैयार। नया खून नया जोश, उत्साह-उमंग से भरा हुआ सपना का व्यक्तित्व। ”क्यों न हमलोग इंटर कॉलेजिऐट कम्पटीशन रखें,, सपना ने स्टॉफ रुम में चहकते हुए कहा। मैं भी तो ऐसा कुछ रचनात्मक चाहती थी। और उस स्टॉफ रुम के मित्रों ने जो सचमुच मेरे मित्र है हाँ में सर हिलाया और फिर बाकी शिक्षकों ने भी हामी भर दी सपना के साथ ये प्रस्ताव हमने प्रिसंपल और मैंनेजमेन्ट के सामने रखा और प्रस्ताव पास भी हो गया। सपना को इस इवेन्ट का प्रमुख बनाया गया। मैं और मेरे मित्र बहुत खुश हुए लेकिन कुछ शिक्षकों की आँखों में ईर्ष्या की चिंगांरी दिखाई पड़ने लगी। ”सपना को क्यों प्रमुख बनाया गया“ हम भी तो सीनियर है, वगैरह-वगैरह।

सबकी सलाह से इवेन्ट का नाम रखा गया 'खनक’ आखिर अन्तर महाविद्यालय नृत्य प्रतियोगिता जो थी। हम सभी शिक्षक अपना-अपना काम बखूबी कर रहे थे। लेकिन सपना अपने सपने को साकार करने में लगी थी यानी भाग-दौड, बडी बडी हस्तियों को बुलाते की जददोजहद, स्पान्सर्स के लिए दौड़ना। कार्यक्रम की योजना --- आदि। मैं सांस्कृतिक प्रमुख थी, इसलिए मेरा और सपना का संपर्क बहुत अधिक हो रहा। ”रेणुका मैम आज मैं शिल्पा के फिल्म सेट पर जा रही हूं, देखते हैं आती है कि नहीं -- आज रिलायन्स के आँफिस जाना है, शायद,, -- इन सारे समय के बीच मैंने पाया, उसका बड़ों के प्रति सम्मान, हर बात में हमारी राय लेना, बच्चों के बीच उसकी लोकप्रियता, साथ ही नेतृत्व क्षमता। ये सारे गुण कुछ शिक्षकों कि आँखों में चुभने लगे --। यह सब देख कर मैं अचंभे मैं थी -- इतनी ईर्ष्या, इतना द्वेष -- जलाकर खाक करे देगी इन्हें। कार्यक्रम बहुत सफल हुआ, बडी-बडी हस्तियां आयी।

कॉलेज का पेपर में नाम आया और साथ ही सपना का भी यश मिला। --- बहुत खुश हुए, नहीं बहुत अधिक खुश हुए, झूम उठे हम सब, नहीं हम सब नहीं, शायद हममें से कुछ लोग खुश थे। कुछ को तो सपना की सफलता काट रही थी ”एक जूनियर टीचर को इतना इम्पोर्टेंस--“

यह थी उनकी भावना सपना के प्रति जो धीरे-धीरे सपना के लिए व्यवहार में परिवर्तित होने लगी। अब कॉलेज में जो भी काम हो उसमें सपना की आलोचना करना, उसमें सपना की आलोचना करना, उसके पीछे पड़ना, उसकी हर बात को काटना शुरु हों गया था। हम कुछ शिक्षक सपना के साथ थे, पर सक्रिय रुप से उसके लिए कुछ नहीं कर पा रहे थे लेकिन सपना के व्यक्तित्व में एक साहस और दृढ़ता थी जो सबसे मोर्चा लेने को तैयार रहती थी। सपना की मेहनत, साहस, दृढ़ता, लगन हम सबके प्रति सहृदयता और अति उत्साह, उसकी बहुत सारी कमियों को ढक लेता था -- ”मैं अपने ब्यॉयफ्रेंन्ड से शादी नहीं करुंगी, --”लेकिन बर्थडे में गिफ्ट तो उससे खूब लेती है, फिर शादी क्यों नहीं,, -- मैंने उसे अपनी मध्ममवर्गीय पारम्पारिक दृष्टि से इस विषय पर थोड़ा गुस्साते हुए समझाया था। उसका अपने ऊपर पैसे खर्च करना, अपने जन्मदिन के लिए पन्द्रह दिन पहले से तैयारी करना, विद्यार्थियों के साथ डांस करना...। सच में सपना अपने आप में अनूठी थी। यह आधुनिक लड़की अपूर्व ऊर्जा के साथ आगे बढ़ना चाहती थी, लेकिन कुछ लोग उसके आगे बढ़ने में बाधक थे, ईर्ष्या करते थे सपना से। सपना यह सब सहने वालों में से नहीं थी।

मैं लेक्चर लेकर लौटी तो शुभा ने गुस्साते हुए कहा ”देखो रेणुका सपना ने क्या किया?“ में विस्मय में थी --क्या हुआ?

”अरे ऐसे कोई लिखता है“

”क्या लिखा“ बोलो तो कुछ

”दे वर हैरेसिंग भी टू मच -- मैंने भी लिख कर दे दिया कि मुझे अगर कुछ भी होता है तो इसके जिम्मेदार वे ही होंगे--“ सपना ने स्टाफरुम में घुसते ही जोर से हँसते हुए कहा।

” क्या सपना! क्या तरीका है ये? मैं गुस्सा पडी

”इतना एगे्रशन ठीक नहीं कि दिमाग से काम ही न लो“

”नो मैम सब ठीक है, मुझे उन्हें सबक सिखाना ही है सपना बिफर पड़ी ”सपना गलत किया तुमने, बहुत बड़ी गलती ठंडे ठंडे दिमाग से काम लेना था, मैं मन ही मन खुद से बोले जा रही थी। --और फिर स्वार्थ, जलन, ईर्ष्या ने सपना का सपना तोड़ दिया। आज आँखें भरी थी, दो नहीं कई आँखें। आँखों से बरस रहीं थी उदासियाँ। आज एकेडमिक सेशन का आखिरी दिन था, अब लम्बी छुट्टी मिलेगी, बाहर घूमने की तैयारी, पर यह सब जैसे धुंधलके में खोने लगा। सपना की आँखों से आँसू छलके पड़ रहे थे। ”--क्या हुआ सपना? सपना ने न्यूज पेपर हमारी ओर बढ़ाया। -- ये क्या, कॉलेज में नए मैथ्स टीचर के लिए वैकेन्सी।

क्यों? किसलिए? -- क्योंकि सपना ने कॉलेज में काम किया पूरे मन से, लगन से अपना विषय पढ़ाया या उसने कॉलेज के इतने बड़े कार्यक्रम का सपना न केवल देखा बल्कि उसे साकार भी किया या इसलिए कि वह कुछ शिक्षकों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो गई, प्रसिद्ध हो गई! उसे क्या चाहिए था सब कुछ तो नहीं, लेकिन --।

सपना चली गई। उसकी सीट खाली थी। कोई न कोई तो भरेगा उसे पर उसकी जगह तो कोई नहीं ले सकता जो हम सब के मन में बनी थी। लेक्चर लेने जाओ तो कभी उसकी फंसी आवाज कानों में बजने लगती। कॉलेज के ग्राउन्ड में कभी वह विद्यार्थियों के साथ नाचती दिखाई पड़ती और कभी स्टाफ रुम में लगता कि वह आकर बोलेगी - ”चलो न मैम डांस करते हैं या खो-खो खेलते हैं। --सच सपना की हर बात मेरे सामने एक चलचित्र की तरह घूम रही थी और हृदय पीड़ा से भरता जा रहा था।

नया शैक्षणिक सत्र शुरु हो रहा था-- नहीं मुझसे नहीं हो पायेगा अब कुछ, कल्चरल इवेंट फिर से करना, नहीं, मैं कैसे कर पाऊँगी -- सपना होती तो -- पर सपना नहीं है --। कॉलेज का सारा स्टाफ अपने कार्य को बखूबी कर रहा था। हर शैक्षणिक सत्र के शुरु में जो अफरा तफरी रहती है वह शुरु हो गई थी। पर मैं नहीं कर पा रही थी अपना काम --। ”शुभा! मैं क्या करुं --कहां से लाऊॅं वह उत्साह, वह स्फूर्ति! कुछ मन नहीं लग रहा किसी काम में --!“

”रेणुका! होता है ऐसा कभी-कभी, तुम विद्यार्थियों को देखो और उनके लिए काम करो, एन्ड बी प्रोफेशनल“ शुभा ने स्नेह से समझाते हुए कहा था।

हां! शुभा मैं कोशिश करुंगी ---कोशिश, बोलते हुए मेरी आवाज़ रुंध गई।

शुभा के शब्दों का असर मुझ पर धीरे-धीरे होने लगा। सच! विद्यार्थियों की कोई गलती नहीं इसमें, हाँ, मुझे उनके लिए अपने उत्साह को जगाना होगा ”एण्ड आई हैव टू बी प्रोफेशनल“ और मैं प्रोफेशनल होने की कोशिश में जुट गई ---।

--इति शुभम--

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डॉ जया आनंद

पूर्व प्रवक्ता

मुक्त लेखन(विविध भारती, मुंबई आकशवाणी संस्थापक -विहंग संस्थान

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रचनाकार: कहानी // एक कोशिश // डॉ जया आनंद
कहानी // एक कोशिश // डॉ जया आनंद
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