हास्य नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक 14 - राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

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हास्य नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” के पुराने अंक  यहाँ [लिंक] पढ़ें नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत”...

हास्य नाटक

“दबिस्तान-ए-सियासत”

राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

हास्य नाटक //  “दबिस्तान-ए-सियासत” - अंक 9 // राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित


नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” के पुराने अंक  यहाँ [लिंक] पढ़ें


नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” अंक १४

राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित

मंज़र १ “हम तो वह मिडिया हैं, जो रखते हैं ज़र्रे-ज़र्रे की ख़बर !”

[मंच रोशन होता है, स्कूल के बरामदे का मंज़र सामने नज़र आता है ! बरामदे में दाऊद मियां, शेरखान और आक़िल मियां कुर्सियों पर बैठे आपस में गुफ़्तगू कर रहे हैं ! उनके निकट ही शमशाद बेग़म स्टूल पर बैठी हुई अपनी हथेली पर, ज़र्दा और चूना रखकर उसे अंगूठे से मसलती नज़र आ रही है ! वह भी इस गुफ़्तगू में, शराकत कर रही है !]

दाऊद मियां – [आक़िल मियां से] – आक़िल मियां, ज़रा संभलकर बोला करें ! न बोलो तो, और ही अच्छा ! जानते हैं आप, आज़कल सलाह देने का ज़माना रहा नहीं !

शेरखान – अजी, सलाह दें, तो कोई बात नहीं...मगर इनकी बुरी आदत है, सच्च बोलने की ! अरे जनाब, किसी बात को अपने दिल में छुपाकर रखनी होती है, मगर ये उस बात को छुपाकर नहीं रख पाते ! आज़कल इस ज़माने में वे लोग रहे नहीं, जो सच्चाई को पसंद करते थे..! जनाब... [आक़िल मियां से] आपको कहां ज़रूरत थी “तौफ़ीक़ मियां को, जमालिये की हरक़तों की जानकारी देने की ?”

शमशाद बेग़म – हुज़ूर, आक़िल मियां ठहरे भोले ! [तैयार सुर्ती पर, दूसरे हाथ से थप्पी लगाती हुई] यही कारण है, दाऊद मियां इनसे कई मुद्दों पर बात ही नहीं करते ! सच्ची बात तो यह है कि, “इनको क्या मालुम, तौफ़ीक़ मियां का जमाले के साथ कैसा रब्त है ?

शेरखान – बात तो आपकी सही है, ख़ाला ! तौफ़ीक़ मियां उस क़िस्म के इंसान हैं, जो हमेशा उस उगते सूरज को सलाम करते हैं ! कभी भी उस तरफ़ झांकते नहीं, जिसके सितारे ग़र्दिशज़द....यानी, वे ठहरे इब्नुलवक़्ती..मौक़े का फ़ायदा उठाने वाले ! जहां देखी भरी परात, वहां नाचे पूरी रात ! तभी कहता हूं, जनाब...कि, बड़ी बी के ख़ास प्यादे बने जमाल मियां...और जमाल मियां के ख़ास प्यादे हमारे तौफ़ीक़ मियां ! बोलो, बात पत्ते की है या नहीं ?

दाऊद मियां – लीजिये मैं पूरी बात समझा देता हूं, ख़ाला ! तौफ़ीक़ मियां आज़कल, बड़ी बी के ख़ास प्यादे बने हुए हैं ! अगर कोई बात कह दें, इनके सामने...[ बोलने के पहले, इधर-उधर देखते हैं] जानते नहीं, वे अपुन लोगों की कही हुई बात को बढ़ा-चढ़ाकर बड़ी बी के सामने रख देते हैं...! जानती हैं, आप ? इस बड़ी बी के ख़ास प्यादे हैं, जमाल मियां, इमतियाज़ बी, और चाँद बीबी ! इनके सामने कोई लूज़ बात मत कीजिये, यह बात हमेशा ध्यान रखने की है !

शमशाद बेग़म – वज़ा फ़रमाया, आपने ! अब तो मैं किसी बात की, ताईद ना करूंगी ! अब देखिये, बड़ी बी क्या कह रही थी ? “छुट्टी हो जाने के बाद, जब आप चाँद बीबी के पास गयी थी और उसे स्कूल की चाबियाँ सौंपी..तब चाबियाँ लेते वक़्त चाँद बीबी ने सौपी है आपको, मेरे कमरे की चाबियाँ ! चाबियाँ सौंपते वक़्त, उसने आपसे क्या कहा ? फिर अब आप इनकार करती हुई कैसे कह रही हैं कि, आपकी चाँद बीबी से मुलाक़ात नहीं हुई ?” हुज़ूर, इस झूठी बात को सुनकर मैं चकित होकर रह गयी ! क्या कहूं, हेड साहब ? मैं तो बड़ी बी के इस लग्व से, बहुत परेशान हो गयी ! अन्दर ही अन्दर मुझे गुस्सा...

दाऊद मियां – [बात काटकर, कहते हैं] - ख़ाला ! चाबियाँ देते वक़्त या तो मैं वहीं मौज़ूद था, या थे तौफ़ीक़ मियां..मैं तो बड़ी बी से, इस सम्बन्ध में कोई बात कहने से रहा, और तौफ़ीक़ मियां को तो आप जानती ही हैं ! वे उगते सूरज को सलाम ठोकने में, वे कभी बाज़ नहीं आते ! बड़ी बी के ख़ास प्यादे बनने के चक्कर में, ख़ुदा जाने क्या-क्या मोती पिरोकर आ जाते हैं बड़ी बी के पास ?

[सिगरेट का अंतिम कश लेते हुए तौफ़ीक़ मियां, सामने से आते दिखाई देते हैं !]

तौफ़ीक़ मियां – [सिगरेट का अंतिम छोर जाली से बाहर फेंककर, कहते हैं] - मुअज़्ज़म दानिशमंदों की महफ़िल में किस मुद्दे पर चल रही है, यह कैसी फ़र्माइशी गर्मी या लफ्ज़ी इख़्तिलाफ़ ...कहिये, हेड साहब ? [नज़दीक आते हैं !]

दाऊद मियां – ना फ़र्माइशी गर्मी...ना कोई लफ्ज़ी इख़्तिलाफ़ मियां, आप ज़रा अपनी नाक-भौं की कमानी को दुरस्त को करके देख लीजिएगा !

तौफ़ीक़ मियां – [लबों पर, मुस्कान बिखेरते हुए] – जनाब ! हम तो वह मिडिया हैं, जो रखते हैं ज़र्रे-ज़र्रे की ख़बर ! फिर कैसी छुपी रहेगी ये ख़बरें, जिन्हें आप सात पर्दों के भीतर रखते आयें हैं !

शमशाद बेग़म – यों आप तरदीद करना चाहें तौफ़ीक़ मियां, तब दूसरी बात है ! अभी-अभी आपने सबके सामने क़ुबूल किया है कि, आप ज़र्रे-ज़र्रे की की ख़बरें रखने वाले मिडिया हैं ! अब बताइये, आपने बड़ी बी को क्या कह डाला ? आपके सिवाय ऐसा कोई शख़्स नहीं, जो बेबाक़ ख़बरें परोसकर चुपचाप इत्मीनान से बैठ जाए ?

तौफ़ीक़ मियां – [तेज़ सुर में] – मैं कोई परोसने वाला बावर्ची नहीं हूं, ख़ाला ! तसल्ली रखो, ख़ाला ! हमने ऐसा कुछ नहीं कहा, बड़ी बी से !

[अब सुर्ती तैयार हो जाती है, शमशाद बेग़म दाऊद मियां व शेरखान मियां को सुर्ती थमाकर बची हुई सुर्ती अपने होठों के नीचे दबा लेती है !]

तौफ़ीक़ मियां – हमें भूल गयी, ख़ाला ? हम भी बैठे हैं इस महफ़िल में, सुर्ती बनाकर दीजिये ना...यह कैसी आपकी बेरुख़ी ?

शमशाद बेग़म – [पेसी थमाती हुई, कहती है] – लीजिये पेसी, अब आप ख़ुद बना लीजिये ख़ुद के लिए ! यह ख़ाला तुम्हारी नौकर नहीं है, मियां ! जाइए...जाइए, बड़ी बी की ख़िदमत में...सोच लीजिये अब दुदस्त: रहना, अब कोई समझदारी नहीं ! क्यों कहा आपने चाँद बीबी से कि, हमने उनसे चाबियाँ ले ली थी ?

तौफ़ीक़ मियां – [गुस्से से, तल्ख़ आवाज़ में] – ली चाबियाँ, आपने...[हाम्पते हुए] बिल..बिल्कुल सच्च है ! कह दिया, तो कौनसा गुनाह हो गया मुझसे ? [शाशाद बेग़म की तरफ़, पेसी फेंकते हुए] लीजिये, अपनी पेसी ! हमें नहीं चखनी, आपकी सुर्ती ! चलता हूं, अब किसके पास पड़ा है वक़्त, यहाँ हफ्वात हांकने का ?

दाऊद मियां - कहाँ जा रहे हो, मियां ? [उनको वापस बिठाने के लिए, पास पड़ा स्टूल उनके पास खिसकाते हैं] बैठिये ना ! आप तो समझदार हैं, आप जानते ही हैं कि, ख़ाला कौनसी ग़ैर है ? कह दिया उन्होंने कुछ, तो हो गया क्या ? बड़े-बुजुर्गों की बात का, बुरा नहीं मानते !

[तौफ़ीक़ मियां स्टूल पर, बैठते हैं !]

तौफ़ीक़ मियां – हेड साहब, ज़रा सी बात का बवंडर बना डाला ख़ाला ने...बड़ी बी ने पूछा कि, उनके कमरे की चाबियाँ किसके पास है ? हमने कह दिया, चाँद बीबी के पास में ! बड़ी बी ने वापस सवाल किया “चाँद बीबी को किसने दी ?’ हमने कह डाला “ख़ालाजान ने !” अब कहिये हेड साहब, मैंने क्या ग़लत कहा ? बताइये, यहाँ किससे हुई है, गुस्ताख़ी ?

शमशाद बेग़म – [तौफ़ीक़ मियां से] – आपने इस तरह क्यों कहा कि, चाबियाँ हमने ही उनको दी है ! यह भी कह सकते थे आप कि, किसी ने चाबियाँ चाँद बीबी के घर पहुंचा दी है ! हाय अल्लाह ! हमने क्या ख़ता की ऐसी...? तौफ़ीक़ मियां की लग्व, जीव का जंजाल बन गयी !

तौफ़ीक़ मियां – हमने कहाँ गुस्ताख़ी कर डाली, ख़ाला ? सदाकत से कहा है, मुख़बिरे सादिक बनना काहे की गुस्ताख़ी ?

शेरखान – चलिए हेड साहब ! आज से तौफ़ीक़ मियां का नाम, आक़िल मियां के साथ सच्च बोलने वालों की फ़ेहरिस्त में लिख दिया जाय...तो किसी को, क़ाबिले एतराज़ न होगा !

तौफ़ीक़ मियां – अब यहाँ क्या बैठना, जनाब ? जहां लोगों ने गर्देमलाल का अलील पाल रखाहै, जो इंसान के सलाहियत से जबीं ना रखता ! चलता हूं...!

शमशाद बेग़म – रुख़्सत होना चाहते हैं, तो आप शौक से जाइए ! मगर यह न पूछेंगे सवाल कि, आपके इस तरह बोल देने से हमें कितनी तकलीफ़ देखनी पड़ी ?

तौफ़ीक़ मियां – हम क्यों सवाल करेंगे, ख़ाला ? हमसे मोहमल सवाल उठाये नहीं जाते..आख़िर, हम काम करते हैं स्कूल का ! किसी के घर का काम करते नहीं...जो गालिबन, बाइशेरश्क का कारण बन जाए !

[इतना कहकर, मियां पाँव पटककर वहां से चल देते हैं !]

शमशाद बेग़म – क्या कहूं, हेड साहब ? आज़कल तौफ़ीक़ मियां के लग गए हैं, पर..जब से ये जनाब इस जमाल मियां की सोहबत में आये हैं ! हुज़ूर, आक़िल मियां की नादानी और तौफ़ीक़ मियां का जमाल मियां के कान भरने की आदत...जनाब, इनकी हरक़तें अब बर्दाश्त नहीं होती..!

दाऊद मियां – क्या हुआ ? आपको नाराज़गी क्यों है, उनसे ?

शमशाद बेग़म – जनाब, आपको कुछ पत्ता नहीं ? जमाल मियां ने तौफ़ीक़ मियां से कह दिया कि “मियां, आप मेरे राज़ में आराम ही किया करें, आपको काम करने की क्या ज़रूरत ? काम करने वाली, यह ख़ालाजान बैठी है ना स्कूल में ! अरे हुज़ूर, मेरी बीमारी का कोई लिहाज़ न कर मुझसे धूल लगे ४० अदद बस्ते और किश्तियां के बण्डल तैयार करवाकर इन हाथों से गाड़ी में रखवा दिए...हाय अल्लाह ! मैं तो पूरी नहा गयी इस धूल से, इधर आ रहा था चक्कर !

दाऊद मियां – ख़ालाजान, वक़्त पर ब्लड-प्रेसर की गोली ली नहीं..क्या ?

शमशाद दुल्हे बेग़म – कहाँ से लाती, हुज़ूर ? दस तारीख़ के बाद, तनख़्वाह के पैसे बचते है कहाँ ? अरे हुज़ूर, सब्जी लाना, सामाने ख़ुरोनोश लाना वगैरा कई ज़रूरी ख़र्चे हैं..तब दवाई के लिए पैसे कहाँ से निकालूं ? क्या कहूं, जनाब ? इस ख़ालक़ को दिखलाने के लिए मुझे रुख़सारों पर थप्पड़ मारकर, उनको किसी तरह लाल रखने पड़ते हैं !

दाऊद मियां – [दिलासा देते हुए] – ख़ुदा आपको पनाह में लें, पीर दुल्हे शाह पर भरोसा रखो..मोला आपकी क़िस्मत को ज़रूर जगायेगा ! अब यह कहिये, आपको नाराज़गी क्यों है उनसे ?

शमशाद बेग़म – [अचरच करती हुई] – यह क्या कह दिया, जनाब ? आपको कुछ भी पत्ता नहीं ? अभी बयान किया था, ना ? जमाल मियां ने तौफ़ीक़ मियां को आराम करने की पूरी छूट दे रखी है, और मुझसे...?

शेरखान – अरे दाऊद मियां, आप जानते नहीं...? यह जमाल मियां, चूहे की तरह क्यों फुदकता रहता है ? जनाब, इसके पीछे यह राज़ है कि, “इसके पीछे, बड़ी बी का ज़ोर है !” हमारी स्कूल की इस पाक तामिर में दबिस्तान-ए-सियासत शतरंज के माफ़िक चल रही है, तौफ़ीक़ साहब कहते हैं कि, शतरंज की सौ चालें होती है..और, हर चाल से चाल निकला करती है !”

दाऊद मियां – अब छोड़िये शेरखान साहब, अब ख़ाला ध्यान न देगी इन मोहमल बातों की तरफ़ ! ख़ाला जानती है कि, ‘बड़ी बी ख़ुद खड़ी है झूठ की तामिर पर, हर मुलाज़िम का अंदाज़े बयान गंजलक लगता है....उसे ! [शमशाद बेग़म की ओर देखते हुए] वह क्या जाने, ख़ाला ? उसका आने वाला ग़द क्या है ?

शमशाद बेग़म – हेड साहब, हम समझ न सके ! जनाब, आपके कहने का मफ़हूम क्या है ?

दाऊद मियां – जमाल मिया किसके सपोर्ट से, स्कूल में इतनी कूद-फांद मचा रहे हैं ? जानती हैं, आप ? उनके पीछे बड़ी बी का सपोर्ट है ! अब आप, बड़ी बी के बारे में ही सुनो ! तसलीमात अर्ज़ है, अभी कुछ रोज़ पहले का वाकया है ! सुनो, रेलवे-क्रोसिंग पर नासिर मियां की मुलाक़ात हो गयी रशीद मियां से !

शमशाद बेग़म – नासिर मियां कौन है, जनाब ? कहीं...

दाऊद मियां – मुक़्तज़ाए उम्र, ख़ाला आपकी याददाश्त इतनी कमज़ोर ? याद करो...नासीर मियां ने कुछ रोज़ पहले, इस स्कूल में डेपुटेशन पर काम किया था ! जो रशीद मियां के अज़ीज़ दोस्त ठहरे !

शमशाद बेग़म – याद आ गया, जनाब ! ये नासीर मियां वह हैं, जिनको रशीद मियां ने अपनी बेग़म आयशा की मुख़बिरी के लिए इस स्कूल में मुस्तैद कर रखा था...उनको डेपुटेशन पर, इस स्कूल में लगवाकर ! सब याद आ गया, जनाब !

दाऊद मियां – बस..अब ये मियां उनके शौहर रशीद मियां से मिलते ही वे उनके आयशा के खिलाफ़ कान भरने लगे ! कहने लगे कि, ‘रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर भाभीजान खड़ी-खड़ी इस रसिक एम.एल.ए. से हंस-हंसकर बात कर रही थी ! अब इसके आगे क्या कहूं, जनाब ? बाद में गाड़ी के आते ही वे चढ़ गए फर्स्ट क्लास के वातानुकूलित डब्बे में ! वहां बैठकर ये दोनों बातें करते रहे ! मुझे तो ऐसा लगा कि, उन दोनों का प्रोग्राम साथ-साथ जयपुर जाने का था !’

शमशाद बेग़म – फिर, क्या हुआ हुज़ूर ?

दाऊद मियां – क्या कहें, ख़ाला ? मुनासिब नहीं लगता, कोई शौहर और बीबी के बीच दंगल करवाकर ऐसा मक़रूर काम करे ! कहिये, नासीर मियां में कहाँ रही इंसानियत ?

शमशाद बेग़म – उनका तो ऐसी ख़बरें पाकर, कलेज़ा हाथों उछलता है ! फिर क्या ?

दाऊद मियां – आव देखा, न ताव ! झट अंगारों से भरे इस वाकये को, नमक-मिर्च लाकर परोस दिया रशीद मियां के सामने !

शेरखान – आप काहे की फ़िक्र करते हैं, हेड साहब ? [जम्हाई लेते हुए] बड़ी बी आयशा की फ़िक्र करने वाले मजीद मियां है ना..उनको करने दो, फ़िक्र ! [शमशाद बेग़म की तलकीन याद आते ही] तौबा...तौबा ! भूल गया, जनाब ! अब ज़बान से ऐसी बात नहीं निकलेगी, अपने लबों पर ! [हाथ ऊपर उठाकर, अंगड़ाई लेते हैं]

शमशाद बेग़म – [शेरखान से] – जनाब, सुस्ती आ रही है ? कहो तो, सुर्ती तैयार कर दूं ?

शेरखान – [आँखें मसलते हुए] – सुर्ती से क्या होगा, ख़ाला ? चाय बना दीजिये ज़रा, इंशाअल्लाह बदन में ताज़गी आ जायेगी !

दाऊद मियां – [खुश होकर] – यही ठीक है...

शमशाद बेग़म – इनकी बात छोड़िये, हेड साहब ! ये जनाब, कहाँ चाय पीने वाले हैं ? चाय ठंडी होती रहेगी, और मियां सुनहरे ख़्वाबों में न जाने कहाँ चले जायेंगे ? क़िब्ला...आप बताइए, अब आगे क्या हंगामा होगा ? या...

दाऊद मियां – ख़ाला, हमने बड़ी बी को सुबह-सुबह फ़ोन लगाया ! बेचारी रोती हुई कह रही थी “हमारा मूड ख़राब है, तीन दिन से हम अपने पीहर बैठे हैं ! आप ज़रा उन रशीद मियां को, समझा देना..” बस ख़ाला इतना ही बोली, और उनकी सिसकने की आवाज़ सुनाई देने लगी..तौबा ! हमसे यह ख़ता, क्यों हो गयी फ़ोन लगाने की ? बेचारी बड़ी बी के शिकस्ता दिल के, क़ुरुह को क़ुरेद दिया ?

शमशाद बेग़म – आपकी क़िस्मत ज़हीन ठहरी, मियां ! बड़ी बी को क्या मालुम, आप इस वाकये से नावाकिफ़ हैं ?

दाऊद मियां – कोई नेक बख़्त ऐसी वाहियात हरक़त नहीं कर सकता, ख़ाला ! वह भी, अपनी बेग़म के साथ ? शक का बीज़ उगने के बाद, आदमी का दिमाग़ काम करना बंद हो जाता है ! बस...फिर, क्या ?

शमशाद बेग़म – नासीर मियां से इस वाकये को सुनकर, रशीद मियां अपने घर आये ! और आकर, बेचारी आयशा मेडम को वहशी जानवरों की तरह पीट डाला ! बेचारी के मासूम बदन पर कई जगह चोटें आयी, और उनसे खून रिसने लगा !

[तभी बड़ी बी के कमरे से, किसी के सिसकने की आवाज़ सुनाई देती है !]

दाऊद मियां – यह क्या ? ख़ाला, यह तो किसी महज़ून औरत के सिसकने की आवाज़ है ! हाय अल्लाह, कहीं...

शमशाद बेग़म – अरे जनाब, यह तो बड़ी बी आयशा बेग़म के सिसकने की आवाज़ है ! ख़ुदा ख़ैर करे, उनकी तबीयत हलकान न हो ! क़िब्ला...मालुम ही नहीं पड़ा हमें, कब बड़ी बी स्कूल में तशरीफ़ लाई ?

दाऊद मियां – आख़िर आपका ध्यान कहाँ रहता है, ख़ाला ? आप तो आज़कल एक नंबर की भुल्लकड़ बनती जा रही हैं ! कल ही आप उस सुनार की दुकान पर, अपना टिफ़िन भूल आयी ! दूध लाने आपको भेजा जाता है, और आप उस सुनार की दुकान पर हफ्वात हांकने बैठ जाती हैं ?

शमशाद बेग़म – अब देखो उधर, इमतियाज़ मेडम आ रही है बाहर..उनके कमरे से ! [उंगली से इशारा करती है] अरे हेड साहब, वहां तो और भी मेडमें बैठी होगी...कमरे में ! क्या, आपको मालुम है ?

[इमतियाज़ मेडम शमशाद बेग़म के पास चली आती है, और आकर उसे दस रुपये का नोट देती हुई कहती है !]

इमतियाज़ – [दस का नोट थमाती हुई, कहती है] – ख़ालाजान ! ज़रा दूध लेकर आना, फिर वापस आकर चाय बना देना !

शमशाद बेग़म – [फिक्रमंद होकर] – ख़ैरियत तो है ?

इमतियाज़ – ख़ैरियत है, कहाँ ? ख़ाला, जो आपसे कहा गया है, वही काम पहले करो ! बड़ी बी की तबीयत नासाज़ है, ज़रा अपनी थैली टटोलना ! शायद कोई पेन किलिंग गोली मिल जाए आपको, इस आपकी थैली में ? गोली अभी चाय के साथ उनको दे दूंगी, तो इनके बदन का दर्द कम हो जाए ?

[शमशाद बेग़म थैली में गोलियां टटोलती है, फिर मिल जाने पर, वह उसे इमतियाज़ को थमा देती है ! गोली लेकर, इमतियाज़ वापस बड़ी बी के कमरे में चली जाती है !]

दाऊद मियां – मुक़्तज़ाए फ़ितरत आपकी क्या गंदी आदत है, हर किसी की ख़ैरियत पूछने की ? आप नहीं जानती, इस इमतियाज़ की आदत ? यह कमबख़्त, हर किसी को मुंह-तोड़ ज़वाब देती आयी है ?

शेरखान – कमबख़्त हर वक़्त बड़ी बी की ख़ैरख़्वाह बनने का ढोंग करती है, ऐसा जताती है...जैसे उसके समान कोई, बड़ी बी का एहबाब नहीं !

दाऊद मियां – अब जाइए, दूध लाने ! यहाँ खड़े रहकर हमारा मुंह न देखो, ना तो यह मर्दूद बड़ी बी को न जाने क्या पट्टी पढ़ा देगी ? तब आपको, अपनी सफ़ाई देनी मुश्किल हो जायेगी !

शमशाद बेग़म – ज़ग लेकर रुख़्सत होती हूं, मगर हेड साहब तब-तक आप क्या करेंगे ? आप कहते हैं तो, मैं सुर्ती तैयार करके ही जाऊं ?

दाऊद मियां – रहने दीजिये, ख़ाला ! अभी तो खिड़की के पास बैठकर, कमरे के अन्दर हो रही गुफ़्तगू पर कान दे देते हैं ! वल्लाह, आज़ तो चटपटी ख़बरें आने का ख़ास मौक़ा है !

शमशाद बेग़म – हुज़ूर, वैसे देखा जाय तो उनकी खिड़की के पास ही आपकी सीट लगी है, और वहीं है टी-क्लब की टेबल ! अब आप जैसा चाहें, वहीं जाकर कुर्सी पर तशरीफ़ आवरी होकर सुनते रहें उनकी गुफ़्तगू ! आख़िर, आपको वहां रोकने वाला है कौन ? हम तो हुज़ूर ठहरे, हुक्म के गुलाम...हमें तो काम से, बाहर जाना ही होगा !

शेरखान – क्या करें, ख़ाला ? आख़िर आपको जाना ही पड़ेगा दूध लाने..न तो आप भी उनके कमरे में चल रही गुफ़्तगू को सुन पाती ! चलिए, अब वापस आकर आप चाय बना देना ! आते वक़्त उस सुनार की दुकान से अपना टिफ़िन भी लेते आना !

[शमशाद बेग़म ज़ग़ उठाकर, दूध लाने के लिए चल देती है ! अब धीरे-धीरे उसके पांवों की आवाज़ आनी बंद हो जाती है !]

नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक १४

रकिम दिनेश चन्द्र पुरोहित


मंज़र २

क्या बड़ी बी मदारी है...?

[मंच रोशन होता है, बड़ी बी के कमरे की खिड़की नज़र आ रही है ! इस वक़्त जनाबे आली दाऊद मियां उस खिड़की के दरवाज़े पर अपने कान दिए खड़े हैं ! और, वे अन्दर चल रही गुफ़्तगू को सुनने की कोशिश कर रहे हैं ! यहाँ दाऊद मियां की कुर्सी के पास ही, कुर्सी पर मियां शेरखान बैठे हैं ! जो हमेशा की तरह आँखें बन्द किये नींद ले रहे हैं ! अब बड़ी बी के कमरे का मंज़र, सामने आता है ! अभी इस वक़्त वहां इमतियाज़, ग़ज़ल बी, नसीम बी और दूसरे भी मेडमें कुर्सी पर बैठी बड़ी बी को सात्वना देती हुई बातें कर रही है ! आयशा बार-बार उन मेडमों को हाथ-पाँव पर आयी चोटों को दिखला रही है ! और साथ में, वह सिसकती भी जा रही है !]

इमतियाज़ – [ दुःख भरे लहजे से] – आपकी यह हालत देखकर, हमारी आँखों से तिफ़्अश्क गिर पड़ते हैं ! आप बताएं कि ऐसी वाहियात हरक़त करने वाला है कौन ? ख़ुदा आपको बचाए, ऐसे शातिर आदमी से ! ख़ुदा रहम ! हाय ख़ुदा यह कैसा बेरहम इंसान है, जिसके पास ऐसा कठोर कलेज़ा...?

नसीम बी – अरे जनाब, हम तो अपने शौहर को इस तरह की तालीम दे चुके हैं...वे कभी हमसे ऊँची आवाज़ में बात नहीं कर सकते, हमसे ! एक उंगली दिखला दूं उनको, बस बेचारे भीगी बिल्ली बनकर किसी कोने में दुबककर बैठ जाते हैं !

ग़ज़ल बी – हुज़ूर ! हमारे साथ ही, हमारी सास रहती है ! उनके होते हुए, शौहर-ए-आज़म की इतनी हिम्मत नहीं होती...वे हमें आँख दिखाये ! जनाब, यही है फ़ायदा...जॉइंट फॅमिली में, रहने का !

इमतियाज़ – अरी आपा ! सदका उतारूं आपका, इमामजामिन पहना दूं लाकर..तो शायद कुछ अक्ल डाल दे अल्लाह मियां, आपके दिमाग़ में ? क़िब्ला ऐसी दर्द-ए-अंगेज़ बातें क्यों लाती है, इनके सामने ?

नसीम बी – [पाला बदलती हुई] – ख़्वामख़्वाह यह क्या ले बैठी दर्द-ए-अंगेज़ बातों को ? ज़रा ख़्याल कीजिये, बड़ी बी का ! अब क्या करना है, हमें ? जानती नहीं, बेचारी कितनी परेशान है ? इस मज़्फूर पर, ज़रा सोचा जाय !

आयशा – रहने दीजिये, मज़्फूर का क्या करना ? [सिसकती है, फिर इमतियाज़ से कहती है] अरी इमतियाज़, दर्द सहा नहीं जा रहा है ! जानती हो ? तीन दिन तक, मैं पीहर रही !

ग़ज़ल बी – उसके बाद...?

आयशा – उसके बाद एक दिन आख़िर, गयी अपने घर ! घर पर उनसे हो गया, वक़्ती इख़्तिलाफ़ ! मियां पूछने लगे, “तुम तीन दिन कहाँ रही ?” हाय अल्लाह, उन्होंने झूठा आरोप मंड दिया हम पर ! कहने लगे “तुम उस वहशी एम.एल.ए. के साथ एक ही कोच में बैठकर जयपुर गयी थी, और अब झूठ बोल रही हो ?

नसीम बी – हाय अल्लाह, ऐसी झूठी तोहमत..? ख़ुदा ख़ैर करे, आपका ! मेडम, तब आपका ज़वाब क्या रहा ?

आयशा – हमने कह दिया कि, “जनाब, मेरे पास मेसेज आया कि मेरे अब्बू सख़्त बीमार है ! अत: हम घर न आकर, सीधे अपने पीहर चले गए ! हमने पड़ोसन जुबेदा के साथ, पीहर जाने का मेसेज आपको भिजवा दिया ! इस कारण हम जाने के पहले, आपसे मिल न सके ! क्या हमारे जाने की इतला, पड़ोसन ज़ुबेदा नहीं दी ?”

ग़ज़ल बी – आगे क्या हुआ, जी ?

आयशा – इतना सुनकर, मियां का दिमाग़ गर्म हो गया ! वे मुझे अनाप-शनाप बकते हुए, चिल्लाकर कहने लगे कि, “झूठ मत बोलो, बीबी ! आपक झूठ पकड़ा गया ! मियां नासीर ने सारा भेद खोल डाला, उन्होंने अपनी आँखों से उस शैतान एम.एल.ए. के साथ आपको रेलगाड़ी में जयपुर जाते देख लिया ! आप फर्स्ट क्लास के कोच में बैठी थी, और आप...

नसीम बी – [ग़मगीन होकर] – हाय अल्लाह, यह क्या हो गया ? यह खन्नास नासीर मियां है, आँखों का अंधा ! कमबख़्त को यह नज़र नहीं आया कि, “यह स्कूल सीनियर हायर सेकेंडरी स्कूल बन चुकी है..और अब यहाँ प्रिसिपल की नियुक्ति होने वाली है ! तो अब रशीद मियां की ख़ातूने खान आयशा बी अपनी पोस्टिंग के लिए, कोशिश नहीं करेगी तो कब करेगी ?” जबकि रशीद मियां को ख़ुद को यह कोशिश करनी चाहिए कि, उनकी बीबी की पोस्टिंग किसी नज़दीक सेकेंडरी स्कूल में हो जाए !

[नसीम बी ठहरी ब्लड प्रेसर की मरीज़, वह बेचारी थक जाती है बोलते-बोलते ! लम्बी सांस लेकर, वह फिर आगे कहती है !]

नसीम बी – [लम्बी सांस लेकर, आगे कहती है] - तब इसी कोशिश में वह अपने भाई समान एम.एल.ए. के पास दरख़्वासत देने गयी स्टेशन पर, तो कौनसा गुनाह कर डाला ? [आयशा को देखती हुई, कहती है] मगर बदनसीब ठहरी आप, जहां एम.एल.ए. साहब बैठे थे फर्स्ट क्लास के कोच में..उसी केबिन की खिड़की के पास खड़ा यह नयनसुख नासीर मियां, अन्दर झाँक रहा था ! कमबख़्त ने, आख़िर देखा क्या ? जो बिना सोचे-समझे बवाल खड़ा कर डाला ? ख़ुदा उस नासीर को, दोज़ख़ नसीब करे !

इमतियाज़ – [नसीम से] – अरी नसीम, तूझे क्या पत्ता ? जैसे ही गाड़ी रवाना हुई, तब यह शैतान का पिल्ला कहीं नहीं नज़र आया ! वह तो गाड़ी के रवाना होने के पहले ही शोले भड़काने चला गया रशीद मियां के पास..! अगर मियां को तसल्ली करनी थी, तो सबसे पहले मुझसे पूछ लेते ! क्या कहूं, नसीम ? आयशा मेडम की क़िस्मत ही ख़राब है ! जैसे ही आयशा मेडम स्टेशन से बाहर निकली, और वहां मिल गए फन्ने खां साहब !

नसीम बी – क्या उन्होंने भी शोले भड़का डाले, या...

इमतियाज़ – अरी नसीम तू तो भोली निकली, वे तो बड़ी बी के अब्बू के ख़ास दोस्त ठहरे ! उस वक़्त वे बड़ी बी के अब्बू से मिलकर आये थे, उन्होंने ख़बर दी कि, “बेटा, तू झट अपने पीहर चली जा ! तेरे अब्बू सख़्त बीमार है ! मैं अभी उनसे मिलकर ही आया हूं ! तेरे मियां के पास तेरे रुख़्सत होने का मेसेज, मैं ज़ुबेदा के साथ कहला दूंगा ! कहला दूंगा कि, तू पीहर गयी है..अपने अब्बू की ख़ैरियत पूछने !”

नसीम बी – यह ज़ुबेदा है, कौन ? वही, बड़ी बी की पड़ोसन...?

आयशा – [गंभीर होकर] – हां, नसीम बी ! हमारी पड़ोसन ज़ुबेदा का पीहर फन्ने खां साहब के घर के पास ही है ! अब आप आगे सुनिए, मियां बोले इस माज़रे को नासीर मियां, अपनी आँखों से देखा है ! आप क्या हैं, और क्या बनने का दिखावा करती हैं ? हमारी आँखों में धूल झोंककर आप क्या-क्या गुल खिलाती जा रही हैं ? अब बीबी, हम सब-कुछ जान गए !” [सिसकती है !]

नसीम बी – ये अश्क बहुत क़ीमती हैं, इन्हें आप यों ना बाहें ! हिम्मत रखो, आप कोई अबला नारी न है ! अपने पांवों पर खड़ी हैं, समझी आप ? आगे कहो, फिर आपने क्या कहा ?

आयशा – कहना क्या ? मियां को बहुत समझाया मैंने कि, “हम ख़ाली उनको, नज़दीक पोस्टिंग करवाने की दरख़्वासत देकर ही आये ! कोई गुलछर्रे उड़ाने नहीं गए, वहां ! बस दरख़्वासत देते ही, हम वहां से चल दिए ! स्टेशन से बाहर आते ही, चच्चा जान जनाब फन्ने खां साहब मिल गए...और उन्होंने हमें, अब्बू के नासाज़ होने की ख़बर सुना डाली ! फन्ने खां साहब के ज़रिये ज़ुबेदा के साथ आपको इतला देकर, हम पीहर चले गए !” हाय अल्लाह, मगर मियां ने हमारी......

नसीम बी – क्या कहा, आपके मियां ने ?

आयशा – मियां ने हमारी एक भी बात पर भरोसा न किया, और ऊपर से मुझ पर आरोप लगाते हुए ऐसे कहने लगे कि...

ग़ज़ल बी – उन्होंने ऐसा क्या कह डाला, हाय ख़ुदा कहीं बेनियाम होकर....

आयशा – वे तल्ख़ आवाज़ में बोले “मियां नासीर ख़र्रास [झूठ बोलने वाले] नहीं हो सकते, खर्रास आप ख़ुद हैं ! पूरा मोहल्ला जानता है, आप एक आहिर: औरत...

[आयशा अब ज़ोर-ज़ोर से सिसकती जा रही है, रोते-रोते उसकी हिचकी बंध जाती है ! तभी टेलीफ़ोन की घंटी बजती है, वह अपनी नम आखों को पोंछकर क्रेडिल से चोगा उठाती है ! कान के पास ले जाकर, कहती है !]

आयशा – [फ़ोन पर] – हल्लो ! आप कौन ?

फ़ोन से आवाज़ आती है – मेडम, हम हैं दीन मोहम्मद..पुलिस लाइन सेकेंडरी स्कूल के, बड़े दफ़्तरेनिग़ार ! आपके हुक्म की तामिल हो गयी है ! रशीद मियां के ख़िलाफ़, अदालत में मआमला दर्ज हो चुका है ! अब-तक तो सम्मन भी ज़ारी हो गए होंगे !

आयशा – [फ़ोन पर] – शुक्रिया, जनाब ! यह आपका अहसान, मैं कभी न भूलूंगी...आपने बहत मदद की है ! यहाँ तो हमारे मायके वाले हम पर टूट पड़े, और कहने लगे...

दीन मोहम्मद – [फ़ोन पर] – ऐसा क्या कह डाला, हुज़ूर ? वे तो आपके अपने हैं..

आयशा – उन्होंने कहा कि, “अब भी कुछ नहीं बिगड़ा, चली जाओ वापस अपने ससुराल ! मियां-बीबी के बीच इस तरह बरतन खटकते रहते हैं, ऐसे में नाराज़ होकर पीहर नहीं बैठा जाता ! तुम सुलह कर लो !” हाय अल्लाह किसी ने भी, हमारी तक़लीफ़ों को नहीं देखा !

दीन मोहम्मद – [फ़ोन पर] – जनाब ! यह आपकी मदद हमारे लिए बुरी साबित होगी, आपको क्या मालुम ? रशीद मियां के साथ, हमारे रब्त ग़ारत हो गए ! अब...

आयशा – [फ़ोन पर] - अब क्या ? मियां रशीद को, हक़ीक़त के दीदार होंगे ! अब मालुम होगा, उनको ! आख़िर, हम क्या चीज़ हैं ? उनकी और हमारी, क्या बराबरी ? वे तो हैं सेकंड ग्रेड के मास्टर, और हम हैं गज़टेड ऑफिसर ! अब आया कुछ, आपके समझ में ?

दीन मोहम्मद – [फ़ोन पर] – क्या समझे, मेडम ? आपके कारण, हमारे रशीद मियां के साथ आपसी रसूख़ात ख़राब हो गए !

आयशा – [फ़ोन पर] – क्यों फ़िक्र करते हो, मियां ? बिना फ़ायदा, कोई किसी का काम नहीं करता है ? यह ज़रूर है, आपने मुसीबत के वक़्त हमारी मदद की ! हम ज़रूर आपका ध्यान रखेंगें, मियां !

दीन मोहम्मद – [फ़ोन पर, चहकते हुए] – सच्च कहा, मेडम ? अब हमें, कोई इस स्कूल से हटाएगा नहीं ?

आयशा – [फ़ोन पर] – आपको ध्यान होगा, एम.एल.ए. साहब के साथ हमारे कितने अच्छे रब्त हैं ? अब हम आपसे वायदा करते हैं कि, आपको पुलिस लाइन सेकेंडरी स्कूल से कोई नहीं हटाएगा !

[आयशा क्रेडिल पर चोगा रख देती है, शमशाद बेग़म आती है ! उसके हाथ में तश्तरी है, जिसमें चाय से भरे प्याले रखे हैं ! अब वह कमरे में बैठी सभी मेडमों को, चाय से भरे प्याले थमाती है ! फिर बड़ी बी आयशा को प्याला थमाती हुई, कहती है !]

शमशाद बेग़म – [आयशा को चाय का प्याला देती हुई, कहती है] – आप कहें तो हुज़ूर, मूव ट्यूब लगाकर आपके हाथ-पांवों पर मसल दूं ? आप जानती नहीं, मेरे हाथों में जादू है ! मैं जब मालिश करती हूं, उसी वक़्त दर्द छू-मन्त्र हो जाता है !

आयशा – मरहबा...मरहबा ! ख़ाला, बस आप चाँद बीबी को घर से बुला दें ! वह देख लेगी ! देखो, ख़ाला [वक़्त पर, शमशाद बेग़म की कही गयी बात को दोहराती है !] वैसे आपको अलील है कि, आपको चक्कर आते रहते हैं...

[ज़वाब न देकर, शमशाद बेग़म कमरे से बाहर चली जाती है ! वहां जनाब दाऊद मियां को खिड़की के पास, खड़े पाकर वह उनसे कह बैठती है !]

शमशाद बेग़म - आपके लिए मुनासिब नहीं हैं, ऐसी बातें सुनना ! अल्लाह मियां ने दिमाग़ दिया है इंसानों को, कुछ सोचने के लिये कि..ऐसे नाज़ुक मौक़ों पर, क्या क़दम उठाना चाहिए ? मगर, इंसान वक्तीज़ज़्बा के तहत फरेक़शानी से लड़ाई शुरू कर देता है !

दाऊद मियां – सच्च कहा है, ख़ाला आपने ! [वापस अपनी सीट पर बैठ जाते हैं, और शमशाद बेग़म से चाय का प्याला लेकर आगे कहते हैं] नतीजे के एतबार से देखा जाय, तो ऐसी हर लड़ाई बेनतीजे अंज़ाम पर ख़त्म होती है....

शमशाद बेग़म – हुज़ूर, ऐसे में हमेशा नुक्सान मज़ीद इजाफ़ा का सबब बनाती है ! छोड़िए हेड साहब, इन बातों को ! आख़िर, हमें करना क्या ? आज ये लड़ते हैं, और कल ये एक हो जायेंगे ! अब आपके लिए सुर्ती तैयार करती हूं, ज़रा शेरखान साहब....

दाऊद मियां – [स्टूल आगे खिसकाते हुए] – आप फ़िक्र न करें, ख़ाला ! आप तसल्ली से बैठ जाइए ! जैसे ही इस ज़र्दे की खंक इनके नासा-छिद्रों में पहुंचेगी...

[शमशाद बेग़म पेसी खोलकर ज़र्दा और चूना बाहर निकालती है, फिर उसे अपनी हथेली पर रखकर दूसरे हाथ के अंगूठे से मसलती है...फिर लगाती है उस पर थप्पी ! थप्पी लगाते ही, खंक उड़ती है, और वह चली जाती है शेरखान साहब के नाक में ! फिर क्या ? मियां लगाने लगते हैं, तड़ा-तड़ छींकें ! और मियां की आँख खुल जाती है, मियां बोलते हैं !]

शेरखान – [छींकते हैं] – आक छीं.... आक छीं... ! क्या करती हो, ख़ाला ? जन्नती ख़्वाब देख रहा था, बीच में उठा कर ग़ारत कर डाला....

शमशाद बेग़म – [चाय का प्याला थमाती हुई, कहती है] – लीजिये जनाब, चाये...चाये...गर्म गर्म चाय ! मसाले वाली चाय... !

[अब शमशाद बेग़म मियां शेरखान को चाय का प्याला थमाती हुई रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर चाय वाले के वेंडर की आवाज़ की नक़ल करती हुई आवाज़ लगाती है !]

शेरखान – [प्याला थामते हुए, कहते हैं] – इस तरह काहे बोल रही है, ख़ाला आप ? लूणी स्टेशन के वेंडरों के माफ़िक “चाये..चाये..” की रट लगा रखी है आपने ? कहीं आप इन वेंडरों से ट्रेनिंग लेकर तो नहीं आ गयी, यहाँ ? माशाअल्लाह, क्या बुलंद आवाज़ निकालती हैं आप ?

शमशाद बेग़म – लूणी के वेंडरों को मारो गोली, जनाब आप तो इस स्कूल के प्लेटफॉर्म की बात कीजिये ! जानते नहीं, जनाब ? यहाँ की हुस्न की मल्लिका ने, क्या-क्या नए-नए खेल रचे हैं ?

शेरखान – [आँखें मसलते हुए] – वल्लाह ! क्या कह रही हैं, ख़ाला ? ख़ुदा रहम, आप तो कभी-कभी बहकती हुई बचकानी बातें कर देती हैं ! क्या बड़ी बी मदारी है...? जो नए-नए खेल दिखलाती है, इस स्कूल में ?

दाऊद मियां – आप तो जनाब, इन्हें मदारी समझ लीजिये ! मोहतरमा नचा रही है अपने शौहर को, नए-नए खेल दिखलाकर !

शमशाद बेग़म – लाहौल-विल-क़ुव्वत ! यह क्या लग्व कर रहे हो मियां ? एक तो बेचारी, शौहर की मार खाए बैठी है, उसकी ख़ैरियत पूछना तो दूर..ऊपर से आप कह रहे हैं कि, वह रशीद मियां को नचा रही है ?

शेरखान – तौबा..तौबा ! ऐसी ज़हीन बात मुंह पर लाकर, बेचारी इस महज़ून मोहतरमा के ज़ख्मों पर नमक काहे छिड़क रहे हैं हेड साहब ?

दाऊद मियां – [हंसते हुए] – तौबा..तौबा ! वल्लाह, यह क्या बोल डाला आपने ख़ाला ? अजीब बात है, ख़ाला..तोला भी आपका और माशा भी आपका ? आप कुछ भी कह सकती हैं, और हम कुछ कहें तो क़ाबिल-ए-एतराज़ ?

शाशाद बेग़म – जनाब आप हंसी उड़ा रहे हैं...कुछ सीरियस बनिए, हुज़ूर !

दाऊद मियां – अब ख़ाक बनूँ, सीरियस ? ख़ाला, क्या रशीद मियां ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी है ? देखा नहीं, आपने ? बड़ी बी कहाँ-कहाँ भटकी थी, टूर्नामेंट का चन्दा मांगने ? तब बड़े-बड़े मुसाहिब क्या, यह मोहतरमा तो तो मिनिस्टरों से घिरी रही ..तब ये बातें रशीद मियां की ज़बान पर नहीं आयी ?

शमशाद बेग़म – अपना-अपना वसूक ठहरा....

दाऊद मियां – ख़ाक वसूक की बात कर रही हैं, ख़ाला आप ? जब टूर्नामेंट के वक़्त रुपयों की बरसात हो रही थी उनके घर, तब यह उनकी बेग़म महसूद नहीं बनी ? देखा नहीं, ख़ाला आपने ? उस दौरान बड़ी बी ने नगर सेठों की कोलोनी में महलनुमा बंगला बनवाना शुरू कर डाला !

शमशाद बेग़म – क्या कहा, जनाब ?

दाऊद मियां – मैंने यह कहा कि, मेडम ने उन दिनों में ही महलनुमा बंगला बनवाने का काम शुरू कर डाला ! यह रशीद मियां वही है ना, जिन्होंने उस वक़्त कहा था “मेडम के मेहर से बिल्डिंग बन रही है, इसके बनने के बाद मैं वहां अपना कोचिंग का धंधा खोलूंगा ! तब होगी चारो तरफ़ से, पैसों की बरक़त !”

शमशाद बेग़म – [पाला बदलते हुए] - - मैं तो ठहरी, ज़ाहिल औरत ! ऐसी सियासती बातें क्या जानू ? बस, मैं यह ज़रूर कहूंगी कि “इस औरत को तो लग गए हैं ऐश करने का आसेब ! यह आसेब बस यही चाहता है, कहीं से पैसे आते रहें !”

शेरखान – [चाय का ख़ाली प्याला टेबल पर रखते हुए, कहते हैं] – मैं जानता हूं, ख़ाला ! इस आसेब की भूख, कभी मिटने वाली नहीं ! औरत की इज़्ज़त, क्या होती है ? इससे, उसको कोई सारोकार नहीं !

शमशाद बेग़म – सच्च कहा, मियां आपने ! हम ग़रीब ज़रूर हैं, मगर किस मर्दूद की हिम्मत जो हम पर उंगली उठाये ? इतने साल हो गए इस स्कूल में रहते हुए...यहाँ काम करते-करते जवानी ढल गयी, अब बुढापा आ गया है ! मगर, “राज़िल काम नहीं किया कभी...”

शेरखान – हमें मालुम है, ख़ाला ! आपकी जगह और कोई औरत होती तो वह कभी अपना खसम बदल देती ! इस तरह क्यों दुःख उठाती आपकी तरह ? आप जैसी औरत बिरला ही मिलती है इस ख़िलक़त में, जो उन महज़बी उसूलों के ख़ातिर साबीर और साहबे अख़लाक बनी रहे !

शमशाद बेग़म – [लबों पर मुस्कान लाकर] – वज़ा फ़रमाया आपने, हम भी दुखी हैं ! हमारा शौहर, एक पैसा कमाकर लाता नहीं ! अब तो हमने कसम खा रखी है, ख़ुदा के मेहर से हम इस शौहर का ख़ास्सा बदलकर दिखलायेंगे ! मेरे यह दिल-ए-तमन्ना ख़ुदा पूरी करे...

दाऊद मियां – [ख़ाला की बात को पूरी करते हुए] – एक दिन ज़रूर आयेगा..

शमशाद बेग़म – [अपनी हथेली आगे करती हुई] – जब ये शौहर-ए-नामदार इस हथेली पर, अपनी कमाई के पैसे लाकर रखेंगे !

[शमशाद बेग़म अपने दोनों हाथ ऊपर ले जाकर, ख़ुदा से अरदास करती है !]

शमशाद बेग़म – [दोनों हाथ ऊपर ले जाती हुई] – ए मेरे मोला ! हमारी ईमानदारी की इस ज़िंदगी में, कभी दाग न लगने देना ! [वापस हाथ नीचे ले जाती है] हमको भूखा सुला देना, मगर इस दामन पर दाग न लगने देना !

दाऊद मियां – ख़ाला ज़रा ग़ौर करें, आप ! आप और हम कभी इन पार्षदों या किसी अवाम के ओहदेदारों को बुलाने की भरसक कोशिश कर भी लें, तो भी वे लोग हाज़र नहीं होते !

शमशाद बेग़म – सही बात है, आपकी ! अगर इस मोहतरमा का एक फ़ोन भी चला जाए उनके पास, ये दुम दबाते तशरीफ़ लाते हैं यहाँ ! अब मैं सवाल करती हूं, आपसे ! क्या यह मोहतरमा, कभी आप और मेरे जैसे मुलाज़िमों के लिए कभी फ़ोन करती है या नहीं ?

शेरखान – अरे हुज़ूर, ये लोग तो खुश हते हैं...जब यह मोहतरमा, इनको कोई काम करने को कहती है ! देखा नहीं, आपने ? इस मोहतरमा के फ़ोन लगाते ही वार्ड नंबर दो के पार्षद जनाब मोहम्मद अली साहब कैसे आये यहाँ दम हिलाते हुए ?

शमशाद बेग़म – आये तुरंत-फुरंत, और ख़करोबों की टीम को साथ लेकर आ गए..स्कूल ग्राउंड की साफ़-सफ़ाई करवाने !

शेरखान – अरे, हुज़ूर ! सफ़ाई के बाद तो यह ग्राउंड, बिल्कुल फ्रांस की सडकों की तरह चमकने लगा ! अरे जनाब, पाख़ाना साफ़ करने वाला यह सफ़ाई मज़दूर, मोहम्मद अली साहब को देखकर कैसा बन गया...जंगजू की ठौड़, आरिफ़ ? अजी क्या कहूं, जनाब ? हाथ बांधे खड़ा रहा, उनके सामने...शरीफ़ों की तरह !

दाऊद मियां – अब क्या कहें, आपसे मियां शेरखान ? हम बात करते हैं ईद की, और आप बात चालू कर देते हैं मुहर्रम की ! मियां शेरखान साहब, हम कह रहे थे आपसे कि “यह मोहतरम सियासती ख़तरों से से खेल रही है ! जिसके हर गलियारे में, ये गीद रूपी लीडर बाहें फैलाए इसका शिकार करने तैयार खड़े हैं !

शमशाद बेग़म – अब देखिये, शेरखान साहब ! इस मोहतरमा को...जनाब, यह अपना हुस्न दिखलाकर ललचा रही है ! हाय अल्लाह, कहीं इस स्कूल की चारदीवारी के भीतर, कोई गीद इस हुस्न की मल्लिका की जान न ले ले..!

दाऊद मियां – मुझे तो डर है, कहीं यह मोहतरमा ख़ुदकुशी न कर बैठे ? हमें तो यह मआमला ज़रा दर्द अंगेज का लगता है ! क्या, ऐसे कोई दानिशमंद शौहर इस तरह अपनी बीबी पर हाथ उठाता है, क्या ? अरे यह पढ़े-लिखे दानिशमंदों की क़ौम, ज़ाहिल कैसे बन गयी ?

शमशाद बेग़म – इस तरह, सरे-राह बीबी को ज़लील करना या ख़बासत दिखाना इन दानिशमंदों की ख़ब्स है...ना कि इनकी सिफ़त ?

शेरखान – हाय अल्लाह ! तौबा.तौबा ! अब तो बेदिरेग़ कहना पड़ेगा, हेड साहब ! अब ऐसे मआमले में पुलिस आयेगी स्कूल में, हथकड़ियां लेकर ! हर मुलाज़िम को साथ ले जायेगी, हवालात !

दाऊद मियां – ओ मियां ! यह क्या फ़र्माइशी गर्मी है ? [नाक-भौं की कमानी को ऊपर चढ़ाते हुए] बदहवाश बदशगुनी बातें हवा में उड़ाते जा रहे हैं, मियां ? ज़रा उस नेक बख़्त रशीद मियां का ख़्याल कीजिये ना, जिसकी मेहरारू...

शेरखान – [बात काटते हुए] – क्यों करूँ, रशीद मियां का ख़्याल ? क्या, वे हमारे एहबाब हैं ? अरे जनाब, यह मियां मिट्ठू वही है, जिन्होंने इसी ठौड़ पर अपुन चारों को यह एलान करते हुए इस शहर का पानी नसीब न होने की धमकी दी थी ! याद कीजिये, क्या कहा था उन्होंने उस वक़्त उस एम.एल.ए. के ज़ोर पर ? भूल गए, क्या ?

दाऊद मियां – याद आया, जी ! उन्होंने कहा था “एक जाएगा इस कोने में, दूसरे को भेजूंगा दूसरे कोने ! तीसरे को इधर तो इस चौथी को उधर पाली से दूर-दूर..! भारी शरीर वाले आक़िल मियां को तो मैं इतना दूर फेकूंगा कि, पाली से रोज़ का आना-जाना करने पर इनके शरीर की सारी चर्बी लुप्त हो जायेगी ! तब मुझे मज़ा आयेगा, देखकर, कि ‘किस-तरह तुम चारों, रोज़ का आना-जाना करते हो ?’

[आक़िल मियां अपने कमरे के दरवाज़े पर ताला जड़ रहे हैं, तभी उनके कान में दाऊद मियां का बोला गया जुमला सुनायी दे जाता है ! वे ताला जड़कर सीधे वहीं चले आते हैं ! तभी बाहर स्कूटियों के स्टार्ट होने की आवाज़ सुनायी देती है ! आवाज़ सुनकर, आक़िल मियां कह बैठते हैं !]

आक़िल मियां – [नज़दीक आकर, कहते हैं] – हुस्न की मल्लिका रुख़्सत हो चुकी है, अब काहे का वक़्ती इख़्तिलाफ़ बढ़ाते जा रहे हैं आप ? हम चारों का पाली के चार कोनों में तबादला करवाकर भेजने वाले रशीद मियां की ख़ुद की बीबी आयशा और उनका वकील जमाल मियां, अपना तबादला करवाकर यहाँ से रुख़्सत हो रहे हैं !

दाऊद मियां – [अचरच से] – क्या कहा, मियां ? यह हुस्न की मल्लिका चली जायेगी, अपने टोगड़े जमाल मियां को साथ लेकर...? और, यह केस का चार्ज वापस....?

आक़िल मियां – अरे जनाब, वह आयशा बी पेशो-पेश में फंस गयी बेचारी ! जमाल मियां ने झटक लिया अपना हाथ, माँगने लगे टूर्नामेंट में आये पैसों का हिसाब ! उस पैसों में अपना हक़ जतला दिया, जमाल मियां ने कि...

दाऊद मियां – उन्होंने जतला दिया कि, उस टूर्नामेंट के चंदे में में उसको भी हिसा मिलना चाहिए ! सुनकर मोहतरमा बिफ़र उठी, शेरनी की तरह ! कहने लगी “मियां, जानते हो तुम ? यह रोकड़ का चार्ज, किसके कारण मिला आपको ?

[अब मियां आक़िल ख़ाली कुर्सी पाकर, उस पर बैठ जाते हैं !]

शमशाद बेग़म – [चाय के प्याले उठाती हुई, कहती है] – यह क्या कर डाला, जमाल मियां ने ? यह तो वही हुआ, मेरी बिल्ली मुझसे म्याऊ ! कमबख़्त ने ग़ारत कर डाले सारे रब्त ?

आक़िल मियां – [हंसकर] – हां ख़ाला ! बात सही है ! तब ज़हरीली मुस्कान अपने लबों पर लाकर जमाल मियां बोल उठे “किस होश में हैं, मेडम...? तुम्हारे सारे राज़ पर, यह नाचीज़ पर्दा उठा सकता है...समझी आप ?

शमशाद बेग़म – किस राज़ की बात का जिक्र कर रहे थे, जमाल मियां ? जो हम नहीं जानते !

आक़िल मियां – उनका यही कहना था, ‘आपने टूर्नामेंट के चंदे में से कितना गबन किया ? अब आप चुपचाप, हिसाब दे दीजिएगा ! हमारा हिस्सा, आप मार नहीं सकती आप ! कैसे कहूं, आपसे ? अब इस केस के चार्ज में हमारा कोई इंटरेस्ट नहीं है ! इस चार्ज को आप जिसे चाहें उसे दे सकती हैं !’

दाऊद मियां – वाह रे, करमज़ले जमाले ! तू तो मासूम मोहतरमा को, दग़ा दे गया ?

आक़िल मियां – आगे सुनिए, बीच में बोलकर बातों की गाड़ी की रफ़्तार को कम मत कीजिये ! तब मोहतरमा बोली, “अब-तक की रोकड़ बही कौन तैयार करेगा..मियां ? इस लफड़े में, तुम भी बराबर के जिम्मेदार हो !”

शेरखान – बराबर के जिम्मेदार ? समझ में नहीं आया...जनाब, जमाल मियां तो वह हस्ती है एजुकेशन महकमें की ! जो आँखों से सूरमा चुरा ले, और लोगों को मालुम न पड़े कि, किसने चुराया है ? अरे जनाब, बेगुनाह इंसानों को बीच में लाकर उन्हें जिम्मेदार ठहरा देते हैं ! और, ख़ुद पतली गली से बचकर निकल जाते हैं !

आक़िल मियां – वज़ा फ़रमाया, जनाब ! आपने सौ फीसदी सच्च कहा ! बस...जमाल मियां तब अकड़ने लगे, और कहने लगे “क्या आप जानती नहीं, हर टूर्नामेंट वाउचर पर आपने क्या लिखा ? आपने हर वाउचर पर लिखे गए “पेड बाई मी” के नीचे अपने दस्तख़त किये हैं ! इसका मफ़हूम आप जानती हैं ? इसका मफ़हूम है, “वाउचर में अंकित राशि अमुक को भुगतान आपके द्वारा की गयी है, और वह राशि अब आप उठा रही हैं !”

शेरखान – यानी कि “पूरा ट्रांजेक्शन आयशा मेडम के द्वारा हुआ, अगर वित्तीय नियमों के ख़िलाफ़ यदि कोई भुगतान हुआ है तो उसके लिए आयशा मेडम ख़ुद जिम्मेदार होगी !” इस तरह तो जमाल मियां साफ़-साफ़ बचते जा रहे हैं, ऑडिट के पंजे से ! अस्तग़फिरुल्लाह, कहीं हम कुछ ग़लत बात न कह बैठे !

आक़िल मियां – जमाल मियां ने आयशा बी से साफ़-साफ़ कह डाला कि, “आपने केस बुक के हर पेज पर अपने दस्तख़त किये हैं, कहीं भी मेरे दस्तख़त आपको मिलेंगे नहीं ! कहीं हो तो, आप मुझे बताइये !”

[बाहर स्कूटियों के जाने की आवाज़ सुनायी देती है ! अब एक-एक कर सभी मेडमें अपने दौलतखाने की तरफ़ रुख़्सत हो जाती है ! उनके जाने के बाद, मनु भाई की दुकान पर बैठे मेम्बरानों के लबों पर मुस्कान छा जाती है, थोड़ी देर में उनके हंसी के ठहाके गूंज जाते है ! और उधर स्कूल के बरामदे में, अभी भी गुफ़्तगू ज़ारी है ! अब आक़िल मियां कहते जा रहे हैं...]

आक़िल मियां – अब आगे क्या बताएं, हेड साहब ? वह मोहतरमा आयी हमारे पास, और...जनाब रिक्वेस्ट करती हुई हमसे कहने लगी कि, “मियां वापस संभाल लीजिये, केस का चार्ज..अब स्कूल की इज़्ज़त का सवाल है !” फिर...

दाऊद मियां – वल्लाह ! हम तो भुलक्कड़ निकले ! बस...बस आगे का मआमला हमारे समझ में आ गया, मियां ! आपने बचा दी स्कूल की साख़...बहुत अच्छा काम किया, आपने !

शमशाद बेग़म – [धुले हुए बरतन लाती हुई] – क्या करें ? आक़िल मियां ठहरे, रहमदिल ! केवल इनमे एक ही कमी है, ये बड़े मुंहफट है ! ना तो ये इंसान, सौ टके के इंसान की खूबियाँ रखते होते ?

शेरखान – छोड़ो ख़ाला ! ज़ाइद अज़ उम्मीद की जाती है, अब जमाल मियां व उनकी बेग़म सरयू का पारस्परिक तबादला हो जाएगा ! कम से कम इस शैतान से, हमें निज़ात ज़रूर मिल जायेगी !

[तभी, तौफ़ीक़ मियां तशरीफ़ रखते हैं ! तौफ़ीक़ मियां आकर, शमशाद बेग़म से कहने लगे !]

तौफ़ीक़ मियां – [शमशाद बेग़म से कहते हैं] – हमसे ख़ता हो गयी, ख़ाला ! आपका दिल दुखा दिया, अनजाने में ! मगर हम कहते हैं, हम वह नहीं हैं जो आप समझती हैं ! लीजिये...आपको मुज़दा सुनाता हूं ! बड़ी बी ने मिनिस्टर साहब को इस टूर्नामेंट में बुलाकर भारी ग़लती की है ! यानी, अपने पांवों पर कुल्हाड़ी चला दी !

शेरखान – क्या...? साफ़-साफ़, पूरी बात बयान करें..आख़िर, माज़रा क्या है ?

तौफ़ीक़ मियां – मंत्रीजी को बुलाया, टूर्नामेंट में..मगर आकर एलान करके चले गए ! उनका एलान था, “इस स्कूल को क्रमोन्नत हुए क़रीब एक साल गुज़र गया है ! मगर, अभी-तक यहाँ प्रिंसिपल की पोस्टिंग हुई नहीं..अत: वे जयपुर जाते ही, इस स्कूल में प्रिसिंपल लगा देंगे !” अब समझे, मियां ? प्रिंसिपल के लगने का, क्या मफ़हूम ? बस, आयशा मेडम का यहाँ से जाना..और क्या ?

दाऊद मियां – [हंसी के ठहाके लगाकर, कहते हैं] – मुज़दा इस बात का रहा, मियां ! आपने आख़िर अपनी आदत से मज़बूर होकर पाला बदल ही डाला ! और, आ गए हमारे पाले में ! यह कहावत आप जैसे लोगों के लिए ही बनी है कि, “अगर जंगल में आग लग जाए, पशु-पक्षी जल जाते हैं..मगर इस आग [लाय] में, कलाग़ कभी नहीं जलता !”

[तौफ़ीक़ मियां को छोड़कर, सभी हंसने लगते हैं ! इन लोगों की हंसी सुनकर तौफ़ीक़ मियां की हालत “खिसयानी बिल्ली खम्बा नोचे” जैसी बन जाती है, बेचारे लाचारगी से सबका मुंह ताकने लगते हैं ! तभी घंटी लगाने का वक़्त हो जाता है ! शमशाद बेग़म उठकर, घंटी लगाने चली जाती है ! थोड़ी देर में, घंटी की “टन-टन” की आवाज़ सुनायी देती है ! मंच पर, अँधेरा छा जाता है !]

हास्य नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत”

राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित


मंज़र ३

“उगते सूरज को सलाम करने आ गए, हमारे एहबाब !”

[मंच रोशन होता है, टूर्नामेंट में मिनिस्टर साहब का बुलाया जाना आयशा के लिए गले आफ़त मोल ले लेने के बराबर रहा ! बड़ी बी अब पांच रोज़ से स्कूल नहीं आ रही है, उसके न आने की खुशी में दाऊद मियां दाऊद मियां स्टाफ़ के साथ बरामदे में बैठे हैं ! बैठे-बैठे वे स्कूल की डाक देखते जा रहे हैं ! तभी आक़िल मियां, वहां तशरीफ़ रखते हैं !]

आक़िल मियां – हेड साहब, यह क्या ? क्या मैं छुट्टी पर नहीं रह सकता ? क्या सील पर भी रहने का हमारा हक़ नहीं ? कभी आपका फ़ोन आता है, मेरे पास.. तो कभी आता है, डी.ई.ओ. दफ़्तर से ! आख़िर, यह क्या माज़रा है ? हाय ख़ुदा, एक दिन मिला आराम करने का, वह भी चैन से गुज़ार नहीं सका !

दाऊद मियां – [हंसते हुए, कहते हैं] – अब रोज़ चैन से वक़्त गुज़ारना, आ रही है ईमान की मंजूषा..बेनज़ीर बी ! यहाँ बड़ी बी बनकर, यानी इस स्कूल की प्रिंसिपल बनकर !

आक़िल मियां - [लम्बी सांस लेकर] – माशाअल्लाह ! अब चैन की सांस आयी, अब झूठे वाउचरों के दीदार न होंगे !

[दाऊद मियां के पास ही इमतियाज़ बैठी है, वह आक़िल मियां का यह जुमला सुनकर तमककर बीच में बोल पड़ती है ! बेनज़ीर का टोपिक चले और इमतियाज़ न बोले, ऐसा हो नहीं सकता ! आख़िर, इमतियाज़ इस बेनज़ीर की सताई हुई टीचर जो ठहरी ! इस स्कूल में आने के पहले वह रोहट की गर्ल्स सेकेंडरी स्कूल में काम कर चुकी थी, जहां यह बेनज़ीर उस स्कूल की हेड मिस्ट्रेस थी ! मगर भाग्य का खेल है, यह बेनज़ीर परमोशन पाकर बाड़मेर जिले की बायतू सीनियर हायर सेकेंडरी स्कूल में प्रिंसिपल बनकर चली गयी ! वहां ज्वाइन करके उसने सरकारी आदेश लाकर, इस स्कूल में अपना तबादला करवा डाला ! यहाँ उनकी पुरानी सहकर्मी इमतियाज़ को जब यह ख़बर हाथ लगी, तब वह बेचारी घबरा गयी और अब आक़िल मियां के मुख से ऐसा जुमला सुनकर अब वह बिफ़रकर कहती है !]

इमतियाज़ – [तुनककर कहती है] – ख़ाक...चैन की सांस आयी, आक़िल मियां ? जानते हैं आप, इस औरत को ? बिना साथ रहे, आपने कैसे समझ लिया..? कि, यह मोहतरमा अल्लाह पाक की आरिफ़ बंदी है ? जानते हैं आप, यह आने वाली मोहतरमा किसी पर वसूक नहीं करती है...चार दिन शान्ति से आप गुज़ार कर कह देना मुझसे कि, “इमतियाज़ तुम बड़ी ख़र्रास निकली !”

दाऊद मियां – सच्च कह रही है, इमतियाज़ बी ! देखना यह बरामदा हो जाएगा सूना, यहाँ कलाग़ मंडराएंगे, कबूतर घूम-घूमकर आवाज़ निकालेंगे “घूटर गूं..घूटर गूं..” आने-जाने वाले इनसे अपना दिल बहलाते रहेंगे, मगर एक भी टीचर यहाँ इस बरामदे में नज़र आयेगा नहीं ! स्कूल के वक़्त ना तो हम आपसे गुफ़्तगू कर पायेंगे, और न आप हमसे यहाँ बात करने आ पाएंगे ! समझ गए, आक़िल मियां ?

इमतियाज़ – शरे-ओ-अदब ! इस मोहतरमा को, अल्लाह मियां ने आला दर्जे का दिमाग़ दिया है ! क्या आप नहीं जानते ? अरे जनाब, आरिफ़ मोहतरमा, बहुत बड़ी दानिशमंद है ! इसके लिए कोई काम करना मुश्किल नहीं, आपके हर काम में दख़ल अंदाजी करना...इसके लिए बाएं हाथ का खेल होगा !

दाऊद मियां – अब समझे, आक़िल मियां ? इसलिए आपकी छुट्टी को नामंजूर करके आपको स्कूल में बुलाया गया है ! मोहतरम आज़ ही आने वाली है, इसलिए आप जोइनिंग वगैरा के काग़ज़ात तैयार करके रख दीजिएगा ! इसके सर्टिफ़ाइड दस्तख़त ट्रेज़री, बैंक, डी.ई.ओ. दफ़्तर आदि में चले जाय तो स्टाफ़ की तनख़्वाह वक़्त पर मिल जायेगी ! [ग्राउंड की ओर देखकर, कहते हैं] लो देखो, नाईट ड्यूटी वाले नूरिया बन्ना भी तशरीफ़ रख रहे हैं !

[नूरिया दाऊद मियां के पास आकर सलाम करता है, फिर वहां रखे स्टूल पर वह बैठ जाता है !]

नूरिया – [सलाम करता हुआ] – आदाब बजाता हूं, हेड साहब ! [मिथुन चक्रवर्ती की स्टाइल में डिस्को डांस के स्टेप दिखलाता हुआ, हाथों को घुमाता हुआ गीत गाता है] बहारों फूल बरसाओ ! ज़ुरअत-ए-हिन्द बेनज़ीर आयेगी....आयेगी, लायेगी मिठाई गुलाब हलुए की ! संग बामज़ नमकीन भी आएगा, फिर क्या ? बामज़ नमकीन संग गुलाब हलुआ खायेंगे, खाते-खाते हेड साहब मुस्काराते जायेंगे ! मैं नाचूँगा, आप नाचोगे..बेनज़ीर मेडम सबको नचाएगी ! बहारों फूल बरसाओ ! ”

[इतना गाने के बाद, वह पास पड़े स्टूल पर बैठ जाता है ! फिर यहाँ महफ़िल जम ही गयी है तो फिर शमशाद बेग़म पीछे रहने वाली नहीं ! वह भी ग़ज़ल की दो लाइनें सुना देती है !]

शमशाद बेग़म – [मीर अनीस साहब की ग़ज़ल की दो लाइनें सुनाती हुई] – अर्ज़ किया है, “हरारतें है मआल-ए-हलावत-दुनिया, वो ज़हर है जिसे हम शहद-ए-नाब समझे हैं ! ‘अनीस’ मख़मल ओ दीबा से क्या फ़क़ीरों को, इसी ज़मीन को हम फ़र्श-ए-ख़्वाब समझे हैं !”

शेरखान – [दाद देते हुए] – वाह, वाह ! वाह, वाह ! क्या कमाल की ग़ज़ल है ?

दाऊद मियां – [हंसते हुए, इमतियाज़ से कहते हैं] – लीजिये इमतियाज़ बी ! कलाग़ ठहरे, होशियार ! इन कमबख़्तों को ख़बर लग गयी, और आ गए मिठाई खाने ! [शमशाद बेग़म से] अब दस्तरख़्वान ध्यान से लगवाना, ख़ाला ! [नूरिये से] यहाँ क्यों खड़ा है, नूरिये ? जा..., अब ख़ाला की मदद कर ! आ गया मर्दूद, मेरे पास..कमबख़्त लोबान लगवाने ?

[शमशाद बेग़म गैस के चूल्हे के पास जाती है, और उसके पीछे-पीछे नूरिया चला आता है...साईकल की चाबी घुमाता हुआ ! चूल्हा जलाकर, शमशाद बेग़म चाय बनाने के लिए पानी से भरा भगोना चढ़ा चुकी है !

शमशाद बेग़म – [नूरिये को दस रुपये का नोट देकर, कहती है] – बन्ना ! अब तुम यहाँ मत बैठो, और जल्दी जाकर बाहर से दूध लेते आओ ! [टेबल पर रखी स्टील की बरनी की ओर उंगली से इशारा करके, कहती है] यह पड़ी है दूध लाने की बरनी ! इसे उठाओ, और फूटो यहाँ से !

नूरिया – [बरनी उठाता हुआ, कहता है] - मज्ऊम था हमारा, खायेंगे हलुआ ! मगर मुक़्तज़ाए फ़ितरत आपने मफ़हूम ना सोचा, और भेज दिया हमें दूध लाने ! ग़ारत कर डाली हमारी दिल-ए-तमन्ना ! ख़ुदादाद फ़हमीद है ! हम ऐसे छोड़ेंगे नहीं, गुलाब हलुआ !

शमशाद बेग़म – [झुंझलाकरकहती है] – अरे जा रे, जा ! बड़ी बी आयेगी, तभी आयेगा वह कमबख़्त गुलाब हलुआ !

[फिर क्या ? नूरिया “बहारों फूल बरसाओ” गीत गाता हुआ दूध लाने चला जाता है ! उसके बाहर जाते ही, हाथ में डस्टर लिए चाँद बीबी आती है ! और उधर, मेमूना भाई हाथ में फूलों का गुलदस्ता लिए तशरीफ़ रखते हैं !]

चाँद बीबी – मेमूना भाई, पहले मैं बड़ी बी की टेबल को कर देती हूं चका-चक साफ़ ! फिर, तुम टेबल पर गुलदस्ता रख देना !

[दोनों चपरासी कमरे में दाख़िल हो जाते हैं ! इन दोनों के अन्दर दाख़िल होते ही, ग़ज़ल बी के मुख से बरबस यह जुमला निकल आता है !]

ग़ज़ल बी – उगते सूरज़ को सलाम करने आ गए, हमारे एहबाब !

इमतियाज़ – [नग़मा गाती हुई] – ‘कहीं दूर कहीं दूर, मुझे ले चलो सनम...’

नसीम बी – क्या करें ? छुट्टी होने वाली...इधर हमने गोली ली नहीं, ब्लड प्रेसर की ! हाय अल्लाह...अब चक्कर आ रहा है, सर घूम रहा है ! अरी ओ मेरी बहना इमतियाज़, क्या मैं अपने घर चली जाऊं ?

इमतियाज़ – आज़..आज़ चली जाओ, नसीम बी ! कल से यह आने वाली मोहतरमा तमाम अलील निकाल फेंकेगी, तुम्हारे बदन से !

ग़ज़ल बी – तुम तो इमतियाज़, जल-भुन गयी होगी...? तुम्हारी सियासत तो अब ख़त्म ! तुम भी आयशा के साथ-साथ चली जाती, तो अच्छा होता !

इमतियाज़ – आपा ! आप छोटे मुंह, बड़ी बात मत कहलाओ ! तुम भी, क्या कम थी ? आयशा के आगे-पीछे, चक्करघन्नी की तरह घूमती रहती थी ! [आवाज़ की नक़ल करती हुई] बड़ी बी ! यह देखो, सीफोन की साड़ी ! ये है, लखनवी सलवार-कुर्ती ! ये..ये.. क्या चोंचले आप करती थी, कपड़ों का केटलोग दिखलाकर ?

ग़ज़ल बी - मोहमल बातें न करो, इमतियाज़ ! मैं जानती हूं, तुमने क्या..क्या किया..?

दाऊद मियां – [मेन गेट की तरफ़, उंगली से इशारा करे हुए] – ख़ामोश ! दुख़्तरेखान बड़ी बी बेनज़ीर, तशरीफ़ ला रही है !

[सभी गेट की तरफ़ देखते हैं, गेट के पास एक सफ़ेद कार आकर रुकती है ! कार का दरवाज़ा खोलकर पहले बेनज़ीर के रिश्तेदार बाहर आते हैं ! फिर उनके बाद, ख़ुद बेनज़ीर ! बेनज़ीर को देखते ही, दुकान के बाहर बेंच पर बैठे मेम्बरान उठकर खड़े हो जाते हैं ! और उसके नज़दीक आकर, उसे सलाम करते हैं ! उधर उगते सूरज को सलाम करने वाले हमारे तौफ़ीक़ मियां, झट फूलों का हार लिए दौड़कर आते हैं..उसके नज़दीक ! मगर बेनज़ीर इस तरफ़ कोई ध्यान नहीं देती, उसे तो एक ही फ़िक्र है कि, “कहीं ज्वाइन करने के मुहर्रत का, वक़्त गुज़र न जाए ?” बस इसी अंदेशे को लेकर बेनज़ीर झट आगे बढ़कर, तौफ़ीक़ मियां के हाथ से फूलों का हार छीनकर धड़धड़ाती हुई स्कूल में दाख़िल हो जाती है ! बेचारे तौफ़ीक़ मियां बिना देखे, नीमतस्लीम कर बैठते हैं ! तौफ़ीक़ मियां को, क्या मालुम ? कि, वह मोहतरमा स्कूल के अन्दर दाख़िल हो गयी है ! वे सलाम के लिए झुके ही थे, और वह मोहतरमा वहां से छू मन्त्र हो गयी ! और उसकी जगह, कार का ड्राइवर अवतरित हो जाता है ! उसको वहां खड़े पाकर, मियां सकपका जाते हैं ! इस तरह तौफ़ीक़ की इस अदा पर हँसता हुआ कार का ड्राइवर, उन्हें नज़र आता है ! और उन मेम्बरान का तो, कहना ही क्या ? यह मंज़र देखकर, उनका तो हंसी के मारे बुरा हाल हो गया है ! ये सभी मेम्बरान अब समझ जाते हैं कि, “आख़िर शतरंज के महान खिलाड़ी तौफ़ीक़ मियां आज़, चाल से चाल निकालने में फिस्सडी खिलाड़ी साबित हो गए !” यानी, बेनज़ीर बी उनको भाव दिए बिना स्कूल में दाख़िल हो गयी ! उधर स्कूल की जाफ़री के भीतर खड़ा स्टाफ़, तालियों की गड़गड़ाहट के साथ उस बेनज़ीर स्वागत करता है ! अब कमरे में दाख़िल न होकर बेनज़ीर वहां रखी कुर्सी पर बैठ जाती है ! उसके बैठते ही, चाँद बीबी झट कमरे में जाकर चार कुर्सियां बाहर निकालकर ले आती है ! उन कुर्सियों पर, साथ आने वाले बेनज़ीर के रिश्तेदार बैठ जाते हैं ! अब पास खड़े दाऊद मियां से, बेनज़ीर कहती है !]

बेनज़ीर – [दाऊद मियां से] – दाऊद मिया, ख़ैरियत है ?

दाऊद मियां – [बनावटी मुस्कराहट लबों पर लाते हुए] – आपकी मेहरबानी से सभी कुशल-मंगल ! आगे जैसा आप रखना चाहेंगी...आप पर है, हुजूरे आलिया ! हुज़ूर हम तो ठहरे, आपके हुक्म के गुलाम !

बेनज़ीर – गुलामी, अब रही कहाँ ? वह ज़माना लद चुका, और मेहरबानी हमारी नहीं ऊपर वाले की होनी चाहिए ! वह ऊपर वाला ख़ालिक़ है, दाऊद मियां ! जिसके हुक्म से हम तबादला-ए-ख़्याल बना डालते हैं ! आज़ यहाँ, तो कल कहाँ ?

दाऊद मियां – मरहूम के मुताल्लिक मशहूर है, उसकी इच्छा के बैगर कोई पत्ता भी नहीं हिल सकता ! हुज़ूर, आप देखिये, आप यहाँ...और चार्ज देने वाले कहाँ ?

बेनज़ीर – चार्ज ले लेंगे, मियां ! काहे की उतावली ? क्या आप, उनसे ख़फ़ा हैं ? सुनने में, कुछ ऐसा ही आया है !

इमतियाज़ – बड़ी बी ! आयशा बी अब यहाँ आने वाली नहीं, उन्होंने...

बेनज़ीर – [हंसते हुए] – उन्होंने नयी स्कूल में चार्ज एज़्यूम कर लिया है, तो क्या हो गया ? हम यहां एज़्यूम कर लेंगे, मेरे कहने का मफ़हूम यह है ‘पोवर एज़्यूम कर लिया जाएगा !’

दाऊद मियां – जैसी, हुज़ूर की मर्जी !

बेनज़ीर – मगर, मेरे एहबाब ! ऐसे नहीं किया जाता, इसके लिए भी कर्सी का ध्यान रखा जाता है ! उस जाने वाली गजटेड ऑफिसर का मान रखना पड़ता है, हमें ! [इमतियाज़ से] चलिए इमतियाज़ बी ! आप, आयशा बी को फ़ोन लगा दीजिये ! अभी हम करते हैं, उनसे गुफ़्तगू ! मुबारक लेना-देना भी, साथ में हो जाएगा !

[इमतियाज़ पर्स से मोबाइल बाहर निकालकर, नबर मिलाती है ! घंटी आने के बाद, मोबाइल बेनज़ीर को थमा देती है ! बेनज़ीर कुछ देर गुफ़्तगू करने के बाद, मोबाइल को वह वापस इमतियाज़ को संभला देती है !]

एक रिश्तेदार – [दीवार घड़ी को देखते हुए] – अरे आपा ! मुहर्रत का वक़्त होने में, अभी एक घंटा बाकी है ? हाय अल्लाह, एक घंटा पहले तशरीफ़ क्यों रखी आपने ?

बेनज़ीर – भाईजान यह स्कूल की घड़ी है, यह स्टाफ़ के बन्दों की चाहत पर वक़्त दिखलाती है ! ! [हाथ में पहनी घड़ी को, देखते हुए] मुझे तो भय्या, इस अपनी घड़ी पर वसूक है ! इस घड़ी को, सही वक़्त पर चलाया जा सकता है ! [दाऊद मियां को देखती हुई] क्यों दाऊद मियां, हमने सही कहा ना ?

दाऊद मियां – [आब-आब होते हुए] – हुज़ूर, ऐसा भी हो सकता है..शायद घड़ी के सेल पुराने हो गए हों !

बेनज़ीर – [हंसते हुई, कहती है] – जनाब, “शायद घड़ी के सेल पुराने हो गए हों” कहकर काम नहीं चलता ! जानते हैं आप, तनख़्वाह नहीं आती तब-तक यह पेट ख़ाली रहेगा क्या ? सामान उधार लाकर, काम चलाना पड़ता है ! बस मियां फिर आ जायेंगे, फिर आ जायेंगे कहकर काम मत चलाओ..काहे का इन्तिज़ार...? ला देते नए सेल, पांच रुपये तो कोई भी स्टाफ़ का बन्दा आपको दे देता..?

[शर्म के मारे, दाऊद मियां अपना सर नीचे झुका लेते हैं ! अब बेनज़ीर वापस अपनी हाथ-घड़ी पर नज़र डालती है !]

बेनज़ीर – [हाथ-घड़ी को देखती हुई, कहती है] – लो मियां, हो गया मुहर्रत का वक़्त ! [कुर्सी से उठती है, चाँद बीबी को आवाज़ देती है] चाँद बीबी ! पीर दुल्हे शाह बाबा का प्रसाद इन आरिफ़ बन्दों को बाँट देना ! अब चाय कमरे के अन्दर ही लेती आना !

[स्टाफ़ के साथ, बेनज़ीर कमरे के अन्दर दाख़िल होती है ! उनका एक रिश्तेदार थैली से गुलाब हलुआ का पैकेट बाहर निकालता है, फिर उसे चाँद बीबी को थमा देता है ! तौफ़ीक़ मियां तश्तरी पर पानी से भरे ग्लास लिए आते हैं ! और बाहर बैठे रिश्तेदारों को पानी पिलाकर, वापस शमशाद बेग़म के पास लौट आते हैं ! अब वे, शमशाद बेग़म से कहते हैं !]

तौफ़ीक़ मियां - देखो ख़ाला ! तसलीमात अर्ज़ करता हूं, यह मोहतरमा बड़ी घाघ है ! मीठी-मीठी बोलकर, सबसे पहले अपुन लोगों की कमज़ोरियां मालुम करेगी ! इसके बाद, सबकी नकेल कसती जायेगी !

शमशाद बेग़म – क्या करें, एक आक़िल मियां ठहरे भोले ! वे सबसे पहले, खुलते जायेंगे ! हाय अल्लाह ! उनको समझाया भी नहीं जा सकता कि, आप संभलकर रहें इस मोहतरमा से ! जनाब इमोशनल होकर, इस मोहतरमा के सामने अपनी ज़बान खोल देंगे !

तौफ़ीक़ मियां – आप इतनी भोली न रहें, जानती हैं इस मआमले में दाऊद मियां भी कम नहीं हैं ! ख़ालाजान आप जानती हैं, वे मुख़्तारे ख़ास बनाने की होड़ में पीछे रहने वाले नहीं ! अजी, आप जानती क्या हैं ? हम वो परवाने हैं, जो शमा का दम भरते हैं ! जो ख़ामोश रहकर, इस स्कूल के जर्रे-जर्रे की ख़बर रखते हैं ख़ाला !

[कमरे से, बेनज़ीर आवाज़ देती है !]

बेनज़ीर – [ज़ोर से आवाज़ देती हुई] – अजी ओ..तौफ़ीक़ मियां ! चाय बन गयी, क्या ? बन गयी हो, तो जल्दी लाइए !

शमशाद बेग़म – [हंसती हुई, कहती है] – अजी, ख़बरनवीस मिस्टर मीडिया कर्मी ! यह ख़बर भी अपने दिमाग़ में बैठा लीजिये कि, आपको बड़ी बी पुकार रही है ! मीडिया तो अक्सर घटना-स्थल पर पहले पहुंच जाता है, मगर आप कैसे नहीं पहुंचे ? जाइए, आपको चाय लेकर बड़ी बी के कमरे में जाना है ! [चाय से भरे प्याले तश्तरी पर रखकर, तश्तरी उनको थमा देती है] जनाब, लीजिये, और तशरीफ़ रखिये अन्दर ! कहीं दूसरी दफ़े आवाज़ न लगा बैठे, बड़ी बी !

तौफ़ीक़ मियां – [तश्तरी लिए, ज़ोर से] – आया हुज़ूर ! [जाते हैं !]

[शमशाद बेग़म अपने लबों पर तबस्सुम लाकर, अपने-आप से कहती है !]

शमशाद बेग़म – [अपने-आप] – क्या मैं आपको जानती, नहीं ? यहाँ तो भय्या, कोई भी अफ़सर आ जाए स्कूल में, हमें कोई उज्र नहीं ! मगर ये जनाब, बन जाते हैं हर आने वाले अफ़सर के “सर-ए-अज़ीज़” यानी चहेते ! तब ही मियां स्टाफ़ पर अपनी चवन्नी चला सकते हैं, और तब मिलता है इनको मौक़ा दबिस्तान-ए-सियासत की चाल चलने का ! हम तो ठहरे कोदन इंसान, जो क़ायदों के ख़ातर जलते है लाय [आग] में ! मगर, यह कलाग़ कभी नहीं जलता लाय में !

[मंच पर, अँधेरा छा जाता है !]

कठिन उर्दू शब्द -: [१] महसूद = घृणित, [२] ख़ास्सा = स्वाभाव, प्रकृति, [३] आसेब = भूत, प्रेत, [४] जंगजू = झगड़ालू, [५] आरिफ़ = भक्त, मुरीद, [६] ख़बासत = दुष्टता, [७] ख़ब्स = नीचता, [८]सिफ़त = गुण, ख़ूबी, [९] रज़ील = कलंक लगाने वाला [१०] साबीर = धैर्यवान, सहनशील, [११] साहिबे अख़लाक = चरित्रवान, [१२] ख़कारोबों की टीम = कचरा साफ़ करने वाले सफ़ाई कर्मचारियों की टीम !

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फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: हास्य नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक 14 - राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
हास्य नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक 14 - राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
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