कहानी // प्रेम का प्रतिदान // श्वेता सिन्हा

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स्टडी रूम के दरवाजे पर दस्तक से पाखी की तंद्रा टूटी जो बड़ी तन्मयता से टेबल पर झुकी कागजों को रंगने में लगी थी। कमली कह रही थी,"मेमसाहि...

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स्टडी रूम के दरवाजे पर दस्तक से पाखी की तंद्रा टूटी जो बड़ी तन्मयता से टेबल पर झुकी कागजों को रंगने में लगी थी।

कमली कह रही थी,"मेमसाहिब कोई मिलने आया है।"

कौन आया है काकी? पाखी ने सर उठाये बिना पूछा।

"कोई रजत साब है।"

पाखी की उंगलियां थम गयी कानों पर भरोसा न  हुआ विस्मय से काकी की ओर पलटी और दुबारा पूछी कौन ?

काकी ने वैसे ही कहा, कोई रजत साब है।

पाखी ने पूछा कहाँ है वो?

आपने बिठाया न उन्हें हॉल में?

जाइये दो कॉफी बना लाइये  चीनी एक चम्मच ही डालियेगा और हाँ आपने कल जो नारियल के लड्डू बनाये थे न वो भी लाइयेगा।

पाखी ने पेन साइड में रखकर टेबल लैंप बंद किया और स्लीपर पैरों में डालती बाहर आ गयी।

रजत को देखते साथ पाखी ने सवालों की झड़ी लगा दी।

पाखी एक ही साँस में बोलने लगी,कैसे हो? सीमा कैसी है?अकेले आये उसे लाना चाहिये था न, एक तो इतने दिन पर आये हो और वो भी अकेले।

रजत उसकी व्यग्रता देखकर ठठाकर हँस पड़ा।अरे अरे रिलैक्स मैडम साँस तो लीजिए। पहले आराम से बैठ जाओ न तुम।

" सब ठीक है,सीमा भी बहुत अच्छी है तुम्हें याद करती रहती है। उसे भी नहीं पता मैं यहाँ आया हूँ।"


दरअसल,

तुम तो जानती हो मुझे मेरा टुअर लगा रहता है।

यहाँ भी बस तुमसे और सृजन से मिलने आया हूँ।

अभी एक घंटें में फ्लाइट है।

सृजन कहाँ है?

पाखी ने ठुनकते हुये कहा ये क्या है? अभी तो आये और अभी ही जाना है।

सृजन की आज इंपोर्टेंट मीटिंग है इसलिए वो देर रात तक आयेगे। तुम आज रुक जाओ मिल लो कल जाना।

"अरे नहीं पाखी ये संभव नहीं मुझे जाना होगा

अभी तो दिन के दो ही बजे हैं उसे आने में काफी देर है लगता है फिर इस बार मिलना न हो पायेगा। हमलोग जल्दी प्लान करते है न फिर मिलेंगे।"

कॉफी पीकर रजत उठ खड़ा हुआ जाने को, पाखी कार तक छोड़ने गयी तो अचानक जैसे रजत को कुछ याद आया।

अरे जिस काम के लिए आया था वो तो भूल ही गया कहकर उसने कार की पिछली सीट से एक पैकेट निकालकर उसकी ओर बढ़ाया पाखी को असमंजस में पड़ गयी।

रजत कह रहा था करीब छ:सात महीने पहले मानव जी मिलने आये थे मेरे ऑफिस।

उन्होंने ही दिया है यह पैकेट तुम्हें देने को,कह रहे थे तुम्हारी ही कोई चीज है मैं जब तुमसे मिलूँ तो दे दूँ।

"मुझे माफ करना इतने दिनों से आ नहीं पाया आज ही मौका लगा इधर आने का।"

इसके बाद रजत कब गया और कब वो अपने बेडरूम तक पहुँची उसे कुछ याद नहीं।

बेडरुम में आ कर बिस्तर पर आँखैं मूँद कर लेट गयी।


मानव,इस नाम को भला वो कैसे भूल सकती है! उसके मन के नाजुक एहसास का वो पन्ना जो समय की गहराई में दब गया था आज फिर से फड़फड़ाने लगा।  धीरे से उंगलियाँ फेरती उस पैकेट पर

उत्सुकतावश पैकेट को पेट पर रखकर खोलकर देखने लगी, रॉयल ब्लू वेलवेट का सुनहरी तारों से कढ़ाई किया हुआ हैंडपर्स दिखाई दिया।

उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गयी ये पर्स!

यादों की रेशमी कतरने उसके आस-पास उड़ने लगी। हौले से सर तकिये पर टिकाये आँखें बंदकर यादों के समंदर में डूबने-उतराने लगी जहाँ से भावों की लहरें आकर उसकी ज़ेहन का किवाड़ खटखटा रहीं थी।

दूर तक फैले हरे पहाड़ों को अपनी श्वेत,पनीले आगोश में भर कर मचलते बादलों ने आसमान से पहाड़ तक मनमोहक रास्ता बना दिया था। उड़ते बादलों से भरी घाटियाँ धुँध में लिपटी किसी परी लोक सी लग रही थी। भोर का झुटपुटा फैला हुआ था हल्की ठंडी हवाएँ चेहरे पर आ रहे बेतरतीब बालों को उड़ा रहे थे, काला शॉल कंधे से सरक कर पैरों के पास पड़ा था । पाखी को होश कहाँ वो तो मंत्रमुग्ध प्रकृति के इस अद्भुत रुप में खोयी थी।

अचानक कीनु की आवाज़ सुनकर वो चिंहुकी।

कीनु उसके हाथ पकड़कर झकझोर रही थी,

"मम्मा मम्मा चलो न पापा बुला रहे है।"

पाखी प्यार मुस्कुरा कर कीनु को बोली, "पापा को बोलो मैं आ रही हूँ।" किनु वापस दौड़ पड़ी।

पाखी अपने अस्त-व्यस्त कपड़े को सँभालकर जैसे मुड़ी उसका दिल धक् से रह गया।

ओह्ह्ह...वही आँखें फिर से...जाने कबसे वो खड़ा निहार रहा है उसे। उसने पलकें हौले से झुका लिया।

भोर की ओस की तरह मन हरी दूब पर उग आये नाजुक भावों को नरम उंगलियों से छूने जैसा सिहर गया तन।  धीरे से अपने चेहरे पर आई लटों को कान के पीछे खोंसकर काँपती उंगलियों से दुपट्टा संभालती तेजी से उसके सामने से हटकर रेस्टोरेंट के अहाते में बने हट्स में सृजन और कीनू को ढ़ूँढने लगी। दोनों रजत,सीमा और पीहू के साथ बैठकर गरमागरम पकौड़े और चीज सैडविच का आनंद ले रहे थे।

पाखी को देखकर सीमा बोल पड़ी,"आ गई मैडम पहाड़ों की प्रभाती सुनकर" सब खिलखिलाकर हँस पड़े। वो मुस्कुरा दी। उसके बैठते ही सृजन ने सैडविच का प्लेट उसकी ओर सरका दिया। वो चुपचाप सैडविच कुतरने लगी पर मन उन्हीं आँखों में उलझा हुआ था। खाते-खाते कनखियों से देखने लगी उसको जो दूसरी टेबल पर अन्य लोगों के साथ बैठा बीच-बीच उसकी ओर देख रहा था। अजब सी खुमारी भरी हुई थी हवाओं में जैसे रजनीगंधा के श्वेत पुष्प की खुशबू साँस में लिपट गयी हो।  जाने क्या बात थी उन आँखों में उसकी धड़कनें तेज हो जाती और मन अस्थिर और वो छटपटाने लगती है  फूलों पर मंडराती तितलियों जैसी। न चाहते हुये भी उसका ध्यान उसपर चला जाता। उसका दिमाग काम करना बंद कर देता। पिछले दो दिनों से उसके दिलो-दिमाग पर उसने कब्जा जमा लिया है। वो आँखें उसके साथ-साथ रहने लगी है हर घड़ी, पीछा करती मुग्ध होकर उसको ताकती आँखों ने उसका सुकून छीन लिया है। उसने महसूस किया अवश मन को जिसे जितना खींचती उस ओर जाने से वो उतनी ही तेजी से उसकी ओर भागता।

उसके विचारों पर विराम लगा जब सृजन ने कहा,"जल्दी करो पाखी सब गाड़ी में बैठ रहे हैं।"

उसने ठंडी हो रही कॉफी तीन घूँट में खत्म किया और जल्दी से आकर विंगर में अपनी विंडो वाली सीट पर बैठ गयी।


पाखी ,सृजन, कीनू और उसके जैसे अन्य परिवार

एक ट्रेवल ऐजेंसी के द्वारा पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग होते हुये कलिम्पोंग की मनमोहक वादी घूमने के लिए आये थे। फरवरी के अंतिम सप्ताह में जब कीनू की वार्षिक परीक्षा समाप्त होने लगी तो रजत और रीमा ने ज़िद करके सृजन को इस टूर के लिए बहुत मुश्किल से राजी किया था। रजत और सीमा,पाखी और सृजन के काफी अच्छे पारिवारिक मित्र है।

सृजन तो हमेशा की तरह आना ही नहीं चाहता था,पर इस बार रजत के साथ -साथ कीनू की जिद के आगे उसकी एक न चली।

विवाह के आठ सालों में हनीमून के बाद यह पहला मौका था पाखी का रजत और कीनू के साथ ऐसे कहीं घूमने आने का। सृजन को जरा भी शौक नहीं था घूमने का,उसका प्यारा साथी था तो बस उसका लैपटॉप और स्मार्ट फोन। अपने काम में आकंठ डूबे सृजन अन्य पुरुषों से बहुत अलग थे। शांत, मितभाषी सृजन ने कभी भी पाखी से अपने प्यार को प्रदर्शित नहीं किया।  सृजन के संयमित व्यवहार से पाखी को लगता सृजन उसपर ध्यान नहीं देते, उसकी परवाह नहीं करते। प्रेम बोला न जाय पर जताया तो जा सकता है, अभी से ही रिश्तों में एक औपचारिकता सी आना , सोचते हुये  वह उदास हो जाती थी अक्सर, वैसे तो सृजन उसके बिना बोले ही उसकी सुख-सुविधा का भरपूर ध्यान रखते। उसे पूरी स्वतंत्रता थी अपने मनमुताबिक जीने की। पर कभी-कभी बंधन की जरुरत होती है वो चाहती थी सृजन उसपर अधिकार जमाये। उसके साथ समय व्यतीत करे। सृजन की उसके लिए बेपरवाही उसे और भी अकेला कर जाती। कान्वेन्ट एजुकेटेड, खिला गेहुँआ रंग, बड़ी - बड़ी पनीली आँखें पीठ पर छितराये भूरे कत्थई बाल और भरा हुआ शरीर और खुद में खोये रहने की आदत,यही थी 33 साल की पाखी की पहचान इंग्लिश लिट्रेचर में पी.एच.डी किया था उसने,2 वर्ष विख्यात कॉलेज से लेक्चरर के तौर काम किया पर कीनू के आने के बाद उसने काम छोड़ दिया और पूरी तरह से गृहस्थी में रम गयी।

‎सृजन बहुत व्यस्त रहते थे एक मल्टीनेशनल कम्पनी में सी ई ओ की जिम्मेदारी सँभालना आसान भी नहीं था। वो समझती थी सृजन की व्यस्तता पर छुट्टियों में भी सृजन का लैपटॉप में उलझे रहने पर वो झुंझला उठती थी।

ट्रेवल ऐजेंसी का संचालक रजत का परिचित था इसलिए उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई।


अचानक कार किसी स्पीड ब्रेकर पर उछली पाखी की सोच का सिलसिला टूट गया। उसे फिर से उन्हीं आँखों की आँच महसूस हुई। वो जानती है उसके बराबर वाली सीट के ठीक पीछे किनारे की तरफ बैठकर आँखों पर भूरे रंग का धूप का चश्मा लगाये  वो उसे ही देख रहा होगा।

वो अनमनी सी रमणीक चाय बगानों की ढलान पर पीठ पर टोकरी लगाये सुंदर सुगठित औरतें और हँसते-खिलखिलाते बच्चों को देखने लगी।

12.बजे कार मिरिक की बेहद खूबसूरत वादियों में बने टूरिस्ट लॉज में पहुँची। सबने खाना खाया और निकल पड़े मिरिक की खूबसूरत वादियों में। दिन के 2 बजे थे धूप बहुत मीठी लग रही थी सबने फैसला किया मिरिक झील घूमने का और पैदल ही निकल पड़े वादियों में बिखरे सौंदर्य का आस्वादन करने। झिलमिल-झिलमिल करती झील के गहरे शांत पानी पर बिखरा अद्भुत सौंदर्य देखकर पाखी तो किलक पड़ी। झील के चारों ओर बने करीब तीन किलोमीटर पैदल पथ पर सब उड़ने लगे तितली बनकर। पाखी भी रंग-बिरंगे जंगली फूलों को उत्सुकता से देखती अपने कैमरे में हर दृश्य समेट लेना चाहती थी। विस्मय से भर परदेशी चिड़िया सी बौराई फुदकने लगी।

अचानक उसे एहसास हुआ उसके आगे-पीछे दूर-दूर तक कोई नहीं। वो घबरा कर जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाने लगी एक मोड़ पर अचानक हड़बड़ाहट में उसके दाँयें पाँव के नीचे एक पत्थर आ गया और पैर मुड़ गया वो दर्द से कराह उठी , लड़खड़ाकर गिरने वाली थी कि दो बलिष्ठ हाथों ने उसे थाम लिया।

एक पल में वो उसी की बाहों में थी। वो चौंक पड़ी,

ये चिरपरिचित खुशबू ,वही था गहरी आँखों वाला।  वो दर्द भूल गयी उस पल दिल की धड़कनें बेकाबू हो गयी, हड़बड़ाकर अलग होना चाहा उसने कि पैर में बहुत तेज दर्द का एहसास हुआ। दर्द की लकीरें उसके चेहरे पर पसर गयी,पाखी एक पग भी न बढ़ सकी। उसने उसे सहारा देकर किनारे एक पत्थर पर बैठाया और अपने कंधे पर टंगे एयरबैग से पानी की बॉटल उसकी ओर बढ़ाया उसने उसकी ओर बिना देखे ही सिर न में हिलाया।

उसने चुपचाप साधिकार उसकी काँपती हथेलियों को पकड़ बोतल खोल उसे पकड़ा दिया। जब तक वो घूँट-घूँट पानी पीने लगी तभी अपने दोनों पैर मोड़कर उसके घुटनों के पास बैठ गया वो, मूव का स्प्रे निकाला और उसके पैरों के अँगूठें को धीरे से अपनी उंगलियों से पकड़ा,पाखी के पूरे शरीर में एक करंट दौड़ने लगा उसने पैर सिकोड़ लिये।


उसने एक नजर पाखी पर डाली, कुछ नहीं कहा उसका पैर हल्के से दबाब देकर आगे खींचा और अपने मजबूत पंजों में लेकर स्प्रे कर दिया। दो-चार मिनट लगे वो बैग में वापस बोतल और स्प्रे रखकर अपना बैग पूर्ववत कंधे पर टाँग लिया फिर अपनी बाँयी हथेली खोलकर पाखी की ओर फैला दिया। पाखी एक क्षण उन हथेली से निकली महीन रेखाओं के रेशमी एहसास में बंध गयी  फिर भावनाओं को सख्ती से कुचलकर उठ खड़े होने का प्रयास किया पर लड़खड़ा गयी, फिर से उसकी बाहों में । पाखी को महसूस हो रहा था जैसे वो रुई सी हल्की हो गयी है। हाथ-पैर,दिमाग सब सुन्न हो गये कुछ सोच नहीं पा रही थी उसके वजूद ने मानो किसी सम्मोहन में बाँध लिया था।

शाम के झुटपुटा,गुलाबी सूरज की नशीली किरणों में भीगती, मन को पिघलता महसूस किया उसने,उफ़ ये क्या पागलपन है अपने इस विचार से खीझ उठी। तभी उसने उसे अपनी बाहों से सीधा खड़ा किया, और सहारा देकर चलाने का उपक्रम किया। तभी उसे ढूँढते हुये सृजन और रजत आ गये। सृजन को देखकर पाखी मानो किसी स्वप्न से जाग गयी।

सृजन उसे देखकर चिंतित हो उठा तो उसने कहा,

घबराने की बात नहीं,जरा-सा पैर मुड़ गया है मैंने स्प्रे कर दिया है कल तक ठीक हो जायेगा। उसके  बाद पाखी को कुछ याद नहीं रजत,सृजन और उसने क्या बात की ,कैसे वो वापस टूरिस्ट लॉज आयी। ख़्वाबों में डूबी उलझी उलझी अपने कमरे में आ गयी।

रात के तीन बजे थे सृजन और कीनू बेसुध सो रहे ।  पाखी की आँखों में दूर-दूर तक नींद का नामोनिशान नहीं था मखमली रजाई में लिपटी बस सोचे जा रही थी। क्या हो गया है उसे क्यूँ मन को बाँध नहीं पा रही बहती जा रही है भावों की सरिता में, बरसों से चट्टानों पर जमी काई को बहा देना चाहता है मन पर वह बहना नहीं चाहती किनारों पर उपेक्षित रहकर नदी का हिस्सा होने का सुख ही उसके अस्तित्व की पहचान है। भावों के भ्रम में उलझकर स्नेह के धागों में गाँठ पड़ जाये ये ठीक नहीं। पर ऐसा क्यूँ हो रहा है उसके साथ, समझ नहीं पा रही थी वो, कोई कमी तो नहीं सृजन में, सुखी तो है वो हर तरह से फिर मन के भावों का ऐसे किसी अनजान के लिए अंखुआना... मन की तृष्णा के पाश, अकाट्य प्रश्नों के जाल में उलझी वह सोचे जा रही थी..।

दो दिन पहले जलपाईगुड़ी के एक होटलएक वेटिंग हॉल अपने ग्रुप के दूसरे साथियों से मिलवाया था रजत ने।


इसी ग्रुप में शामिल था वो...."ये है मानव", रजत ने कहा और अनायास ही दोनों की नज़रें मिली थी। जाने कैसा सम्मोहन था उन गहरी काली आँखों में वो ऐसी डूबी कि अब तक बाहर आने को छटपटा रही है। लगभग चालीस वर्षीय मानव विधुर थे विवाह के छः माह के बाद पत्नी की एक कार एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी उसके बाद से घरवालों के लाख समझाने पर भी उसने विवाह नहीं किया। अपने दो मित्रों के साथ आये थे इस टूर में। गंभीर व्यक्तित्व, साँवले चेहरे,गहरी आँखें और सुगठित शारीरिक सौष्ठव किसी को भी सहज आकर्षित करने में सक्षम थे। उनकी सौम्यता,विनम्रमता और सहृदयता के किस्से सुन-सुनकर उनके प्रति आकर्षण और बढ़ रहा था। उनकी हाज़िर जवाबी,समसामयिक परिदृश्यों पर गहन विश्लेषात्मक विवेचन, मददगार स्वभाव पाखी के मन को मोहते चले गये। आँखों ही आँखों में हो रही बातों ने उसका सुकून छीन लिया है, वो सोचते-सोचते धीरे से बेड से उतरी...और अपने कमरे का दरवाजा खोल कर से बाहर आ गयी। एक कतार में बने कमरों के आगे लंबा चौड़ा बरामदा था।  नीरवता फैली हुई थी, पीली रोशनी में नहाया बरामदा उँघ रहा था। सब अपने लिहाफों में कितने सुकून से सोये होंगे। बरामदें से पाँच सीढ़ी उतर कर होटल के गार्डन में आ गयी। फिर धीरे-धीरे चलकर कोने में चीड़ के चुपचाप खड़े पेड़़ों के नीचे बने पत्थर के बेंच पर बैठ गयी। लंबें सीधे सफेद खड़े युक्लिप्टस की डालियों पर रुई से बादलों के फाहे की बीच लेटा चाँद उसे अपनी ओर खींचने लगा, वो विचारों में उलझी जाने कब तक ऐसे ही बैठी रही। घंटों सुनती रही नीरवता में अपने हृदय का स्पंदन।

चिड़िया जाग गयी थी दिन निकलने लगा था हल्के-हल्के धुएँ के बादल चारों ओर फैलने लगे थे वो वापस कमरे में जाने के लिए उठना चाहती थी तभी मानव की आवाज़ सुनकर चौंक गयी।

"अरे आप जग गयी"?

"पैर का दर्द कैसा है"?

"आपने स्लीपर नहीं पहना"?

वो सकपका गयी नाइट गाउन में ही बाहर आ गयी थी।  शॉल को और अच्छे से लपेटकर बालों पर हाथ फेरते हुये धीमे स्वर में कहा,

जी,"  टहलने आई थी।"

" मैं अब ठीक हूँ"।


मानव को उसकी घबड़ाहट समझ न आयी उसे लगा शायद पाखी उसके व्यवहार से उच्श्रृंखल समझ रही है। इसलिए जब वो उठकर जाने लगी तो मानव ने कहा,

"बैठ जाओ पाखी,मुझे कुछ कहना है तुमसे।"

पाखी नज़रें झुकाये बेकाबू दिल की धड़कनों को सँभालती काँपते  थरथराते पलकों को नीची किये हुये खड़ी ही रही ।

मानव ने कहना शुरु किया,

पाखी, अपने जीवन के बारे में क्या कहूँ, पिता की असामयिक मृत्यु के बाद किशोरावस्था में ही पारिवारिक जिम्मेदारियों को सँभालना पड़ा। तीन बहनों की शादी और दो भाइयों की पढ़ाई फिर नौकरी करवाने के बाद मेरा विवाह हुआ,पत्नी के साथ अभी जीवन समझना शुरु किया था कि एक हादसे ने उसका साथ छीन लिया। मैंने नियति मानकर इसको भी स्वीकार किया।

तुम्हें जब से देखा है जाने क्या हो गया है। कोई अदृश्य डोर खींचती है तुम्हारी ओर मैं अवश हो जाता हूँ। मैं स्वभावतः ऐसा नहीं हूँ, पर क्या  कहूँ ये अनुभूति तुम्हारे प्रति मेरी, मेरी समझ से परे है। तुम्हें मेरे आचरण से जो उलझन हो रही है मैं समझ सकता हूँ आइंदा कोशिश करुँगा तुम परेशान न हो।

पाखी मौन रही और मानव छोटे-छोटे कदमों से राहदारी नापने लगे।

पलभर पाखी अपने पलकों पर उतर आयी नमी को रोकने की नाकाम कोशिश करती रही और मोती की बूँदे झरकर गालों पर फैल गयी। पाखी अनमनी-सी अपने कमरे में लौट आयी। दोनों पापा-बेटी बेसुध सोये थे। सृजन के माथे पर बिखरी लटें और मासूमियत से भरा चेहरा देखकर वो सब भूलकर मुस्कुरा पड़ी। घड़ी देखा उसने अभी 5:30बजे है घूमने जाने के लिए 9 बजे का समय तय है। अब  थकान महसूस करने लगी पाखी धीरे से लिहाफ़ खींचकर लेट गयी।

पाखी पाखी की आवाज़ सुन कर कुनमुनाई अलसायी आँखें खोली तो सृजन कह रहे थे पाखी उठो न सब इंतज़ार कर रहे हमारी वजह से देर हो जायेगी।

फिर जल्दी-जल्दी तैयार होकर पाखी ने विंगर में आकर बैठ गयी,खुद को व्यवस्थित कर आस-पास दृष्टि फेरने लगी जैसे कुछ ढूंढ रही हो तो मानव को पीछे न पाकर वो बेचैन हो गयी। सहसा उसने देखा, आज मानव अपनी नियत सीट पर न बैठकर उसके आगे की सीट पर बैठे थे।पीछे किसी मुड़कर अपने मित्र से कुछ पूछ रहे थे पाखी को अपनी ओर देखता देखकर धीरे से सर घुमाकर खिड़की के बाहर देखने लगे। पाखी को मानव का ऐसा करना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा था, पूरे रास्ते बार-बार उसका ध्यान आगे बैठे मानव पर चला जाता,पर वो बेखबर अपनी दुनिया में व्यस्त थे।

अगले दो दिन सब कलिम्पोंग में रहना था , सबने खूब आनंद लिया जी-भर कर घूमे पर वहाँ की खूबसूरत वादियों में पाखी को अपनी उदासी का कोई कारण नहीं समझ आ रहा था। तिस्ता की धार पर अठखेलियाँ करती  कंजनजंगा की मनोरम चोटियों से प्रतिबिंबित सूरज की सुनहरी किरणों को छोड़ वो मानव के चेहरे पर फैली नरम धूप की अठखेलियाँ देखती, थोंगशा गोंपा मठ की शांति  में अपने अशांत मन की अनगिनत बातें सुनती।  दियोले बाग के खूबसूरत पेड़ों की कतार के बीच से उन्हें देखकर रोमांचित होती,उसने एक-दो बार मानव से बात करने की कोशिश भी की पर मानव का औपचारिक व्यवहार देख उसकी आँखें भर आती। दुबारा कभी मानव को अपनी ओर देखते उसने नहीं पाया न ही बात करने की कोई उत्सुकता ही देखी उसने। आमना-सामना होने पर भी वो चुपचाप आगे बढ़ जाते।

अचानक जैसे किसी गहरी नींद से जागी हो वो

मम्मा मम्मा कहकर कीनु उसे हिला रही थी।

पाखी ने उसे देखकर पूछा 5 बज गये क्या?

तुम्हारी ट्यूशन टीचर चली गयी आकर?

कीनु ने कहा हाँ मम्मा और उसकी भरी आँखें देखकर पूछने लगी,क्या हुआ मम्मा तबियत ठीक है न?


पाखी ने मुस्कुराकर कहा, हाँ सोना सब ठीक है जरा सिरदर्द है। थोड़ा सो लूँ तो ठीक हो जायेगा।

"ओके मम्मा आप सो जाओ मैं तृषा के खेलने जा रही हूँ।"

पाखी धीरे से मुस्कुराई।

कीनु हौले से उसका माथा चूमकर बाहर चली गयी।

पाखी फिर से टूटी कड़ियाँ जोड़ने लगी।

आने के एक दिन पहले सबने जमकर शॉपिंग की।

पाखी ने भी चिर-परिचितों के लिए और घर के लिए कुछ बेहतरीन हैडमेड वस्तुएं खरीदी, अंत में अपने लिए एक बेहद आकर्षक नेवी ब्ल्यू हैंडपर्स और मोतियों वाले कान के बूँदें पसंद किये पर पास में पर्याप्त रुपये न थे और सृजन आस-पास न थे इसलिए उसने अपने लिए जो सामान  लिये थे उसे निकलवा दिये।

अंतिम दिन सब वापसी की तैयारी कर रहे थे एक-दूसरे को फोन नं ई-मेल आई.डी,होम एड्रेस के आदान-प्रदान में लगे थे।  विचारों के संघर्ष में भावों से हारती पाखी ने मानव से एक बार बात करने के लिए उसे ढूँढती रही पर पता चला मानव को कोई जरूरी काम था इसलिए वो सुबह ही निकल गये है वापसी के लिए। उसे ऐसी उम्मीद तो नहीं थी, ऐसी भी क्या बेरुखी निराश,हताश पेड़ो के झुरमुट में मुँह को दुपट्टे में छुपाये पाखी खूब रोई।

घर लौटने का उल्लास सबके चेहरों पर छाया हुआ था। हँसी-खिलखिलाहट से पूरा ग्रुप गुंजित हो रहा था। पर पाखी चुपचाप मुस्कान चिपकाये सबके साथ होकर भी सबसे जुदा ख़ुद मैं ग़ुम थी।

अपनी मनोदशा को छुपाने की चेष्टा करती पाखी ने जबरन सबके साथ खुश रहने का भरसक प्रयास किया। सृजन ने उससे पूछा भी उसकी उदासी की वजह पर वह हँसकर सफर की थकान की वजह बताकर टाल गयी।


वापस आकर सृजन से पाखी का कुम्हलाया चेहरा गुमसुम आँखें देखी न गयी फिर से पाखी को कॉलेज ज्वाइन करने का सुझाव दिया तो पाखी खिल उठी। उसने अपने पुराने कॉलेज में अप्लाई किया और भाग्यवश उसे व्याख्याता के पद पर फिर से नियुक्ति मिल गयी। पाखी के जीवन की गाड़ी कीनु-सृजन,अपने काम और घर के तालमेल बैठाते हौले-हौले आगे बढ़ने लगी।

यादों के भँवर में डूबी पाखी ने व्याकुल होकर पर्स को मुट्ठी में जोर से भींचने का प्रयास किया तो उसे महसूस हुआ पर्स में कुछ और भी है।

काली सी जंग पड़ लगी पर्स की चेन थोड़ी मशक्कत के बाद खुल गयी और उसमें से मोतियों वाला कान का बूँदा गिर पड़ा साथ में एक छोटा सा कागज़ का टुकड़ा भी था। मारे विह्वलता के पाखी ने उसे उठाकर अधरों से लगा लिया।

काँपते हाथों से काग़ज़ को सावधानी से खोलकर पढ़ने लगी पर सारे अक्षर तो धुंधले हो रहे थे वो पढ़ नहीं पा रही थी। उसने अपनी भरी आँखों को कुर्ते की आस्तीन से पोंछ कर पढ़ना शुरु किया

पाखी,

समझ नहीं आ रहा क्या संबोधन लिखूँ। पर संबोधन चाहे कुछ भी दूँ उससे कुछ बदल तो नहीं सकता न।

कुछ बताना चाहता था तुम्हें, याद है तुम्हें मिरिक की वो शाम जिसके बाद तुम रातभर सो न सकी,तुम रातभर बाहर बगीचे में बैठी रही थी, मैं अपने कमरे से तुम्हें देख रहा था तुम्हारी बेचैनी और कश्मकश से भरा चेहरा मेरे मन को धिक्कारता रहा तुम्हारी ऐसी दशा देखकर उसी क्षण मैंने फैसला कर लिया था कि मुझे तुम्हारी ज़िंदगी से दूर चला जाना है।

उसके बाद मैंने जानबूझकर कर तुम्हारी सारी बातों को अनदेखा किया था। मेरे व्यवहार से जो तुम्हारे चेहरे पर पीड़ा की रेखाएँ बनती उससे कई गुना ज्यादा मैं आहत होता। क्या करता मैं बोलो,कैसे तुम्हारे सुखी वैवाहिक जीवन के सुंदर घोंसले के तिनकों को नोंच देता। तुम्हारी मासूमियत,तुम्हारी सादगी का फायदा उठाकर कैसे प्रेम की पवित्रता को कलुषित करता।

भावों के तूफान में बसा बसाया घर तो नहीं तोड़ा जा सकता था न। मेरे जीने के लिए तो तुम्हारे हँसते-खिलखिलाते परिवार की प्यारी तस्वीर बहुत है।

आज जाने क्यों मन हो आया अपने मन का बोझ हल्का करुँ। नहीं जानता हूँ कभी तुम तक यह ख़त पहुँच पायेंगा या नहीं।  तीन बार तुम्हारे शहर,तुम्हारे कॉलेज से बस तुम्हें देखकर वापस आ गया हिम्मत नहीं हुई तुम्हारे सामने आने की।


नहीं तुमसे किसी संपर्क में नहीं रहना चाहता हूँ मैं।

पर कभी मेरा नाम आने पर तुम उदास न हो,आँसू से न भरी हो तुम्हारी आँखें इसलिए यह सब कहना जरुरी लगा। बस तुम खुश रहो अपने सुखी परिवार में यही दुआ करता हूँ। किसी अनाम रिश्ते के लिए अपने जीवन के बहुमूल्य रिश्तों को कभी न खोने देना यही मेरे प्रेम का सच्चा प्रतिदान होगा।

हमेशा खुश रहो।

                                      - मानव

ख़त मोड़कर होंठों से चूम लिया पाखी ने फिर माथे से लगाकर सीने में भींच लिया। आँसू भरी आँखों को पोंछ लिया उसने,  मन  मानव के पैरों में श्रद्धा से झुक गया। पर्स और बूँदें उठाकर पूजाघर में देवी माँ के चरणों में रख आयी। बेशकीमती उपहार तो माँ का आशीष होते हैं सोच रही थी परसों अपनी शादी की सालगिरह पर यही पहनेंगी।

वापस कमरे में आ गयी बहुत हल्का महसूस कर रही थी आज वो।  बेडरूम की खिड़की खोल दिया उसने हवा का एक झोंका आकर उसके बेतरतीब से खुले बालों से खेलने लगा और वो फोन में व्यस्त थी,

सृजन मीटिंग खत्म हो गयी तो आ जाओ न साथ में डिनर करेंगे आज मैं तुम्हारी पसंद का पनीर परांठा बना रही हूँ अपने हाथों से।

    --श्वेता सिन्हा

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रचनाकार: कहानी // प्रेम का प्रतिदान // श्वेता सिन्हा
कहानी // प्रेम का प्रतिदान // श्वेता सिन्हा
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