प्राचीन भारत में भगवान की परिकल्पना // डॉ. सुनील दीपक

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आदिमानव ने सबसे पहले भगवान की परिकल्पना कब की, यह तो शायद कोई नहीं बता सकेगा. हाँ यह बात पक्की है कि जब मानव में इतिहास की समझ का समय आया, त...

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आदिमानव ने सबसे पहले भगवान की परिकल्पना कब की, यह तो शायद कोई नहीं बता सकेगा. हाँ यह बात पक्की है कि जब मानव में इतिहास की समझ का समय आया, तब तक दुनिया की हर सभ्यता में भगवान की परिकल्पना थी. वह सभ्यताएँ एक दूसरे से बहुत भिन्न थीं लेकिन उनकी भगवान की परिकल्पनाओं में बहुत सी समानताएँ थीं. लेकिन प्राचीन भारत में जिस तरह से भगवान के बारे में सोचा गया, वह बाकी दुनियाँ से थोड़ा से भिन्न था. इस आलेख का विषय है प्राचीन भारत में भगवान की सोच कैसे बनी और विकसित हुई.

भारत के बारे में बात करने से पहले, आईये पहले यह देखें कि अन्य सभ्यताओं में भगवान के बारे में किस तरह से सोचा गया.

पवित्र प्रकृति से ले कर प्रकृति के सरंक्षक देवता

विभिन्न सभ्यताओं ने भगवान को सबसे पहले प्रकृति के भीतर ही खोजा. कई समाजों में यह सोच आज भी जीवित है. इस सोच में मानते है कि भगवान प्राकृतिक चीज़ों, जैसे कि पत्थर, पहाड़, पेड़ों आदि, में ही बसते हैं, इसलिए इन चीज़ों को पवित्र माना जाता है और इनकी पूजा की जाती है.

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इसके बाद, धीरे धीरे लोगों ने मानव शरीर वाले असाधारण शक्तियों से युक्त देवी देवताओं की कल्पना करना शुरु कर दिया, और यह मानने लगे कि वह हर प्राकृतिक चीज़ या घटना के लिए ज़िम्मेदार होते हैं. अगर एक देवता वर्षा कराते हैं तो दूसरे देवता हवा के स्वामी हैं, एक देवता के हाथों में प्रेम के बाण हैं, तो दूसरे देवता युद्ध करा सकते हैं. अमरीका के अमिरिन्डियो से ले कर रोमन, यवनी, मिस्री और फारसी, हर सभ्यता में विभिन्न देवी देवता थे, जिन्हें भगवान का रूप माना जाता था.

एक पिता-ईश्वर

करीब ढाई हज़ार साल पहले, मध्य-पूर्व में यहूदियों के बीच में पहली बार एक ईश्वर की सोच बनी, जिसे बाद में ईसाइयों व मुसलमानों ने भी स्वीकारा. उन्होंने इस सोच को अपने एक पैगम्बर से जोड़ दिया. इन तीनों सोचों में विश्वास करने वालों का कहना था कि उनका रास्ता ही भगवान का सच्चा रास्ता है, बाकी के अन्य रास्ते मिथ्या हैं.


तीनों गुटों ने भगवान को "दयालू पिता" के रूप में देखा, जो करुणामय और प्रेमपूर्ण था, लेकिन जो चाहता था कि उसकी पूरे रीति रिवाज़ और श्रद्धा के साथ नियमित पूजा की जाये. हर एक के जीवन सही जीने के नियम थे, जिसमें उनसे कहा जाता था कि उन्हें कैसे कपड़े पहनने हैं, क्या खाना है, कब पूजा करनी है, कब आराम करना है. अगर वह उस पिता-ईश्वर के नियम न मानें तो वह भगवान उन्हें कड़ी सजा भी दे सकता था. उसे यह स्वीकृत नहीं था कि लोग उसे छोड़ कर किसी अन्य "मिथ्या भगवान" में विश्वास करें.

इस तरह से मध्य-पूर्व में तीन बड़े धर्मों का जन्म हुआ - यहूदी, ईसाई तथा ईस्लाम, जिन्हें मानने वाले आज सारी दुनियाँ में फ़ैले हैं. इन तीनों को मोनोथेईस्तिक (एक ईश्वरवादी) या अब्रहामिक (ईब्राहिम के वँश से जुड़े) धर्म भी कहते हैं. अमरीकी लेखक जेम्स मिशनर (James Michner) ने १९६५ की अपनी किताब "द सोर्स" (स्रोत - The Source) में मध्य-पूर्व में जन्म लेने वाले इन तीनों धर्मों के विकास के बारे में बहुत सुन्दर तरीके से लिखा है.

प्राचीन भारत में भगवान की परिकल्पना का विकास

भारत में भगवान को किस तरह से सोचा गया और समय के साथ यह सोच किस तरह से विभिन्न दिशाओं में विकसित हुई? अन्य सभ्यताओं की तरह भारत में भी भगवान के बारे में भिन्न भिन्न तरीकों से सोचा गया - प्रकृति को दैविक मान कर पूजना, मानव से मिलते जुलते, विशेष शक्तियों वाले देवी देवताओं के जगत, और, सब देवी देवताओं से ऊपर एक पिता-समान ईश्वर की परिकल्पना करना. लेकिन प्राचीन भारत के अध्यात्म-खोजी बाकी सभ्यताओं से एक कदम आगे निकले और उन्होंने भगवान को समस्त ब्रह्मांड के कण कण में व्याप्त अमूर्त निर्गुण संज्ञा या शक्ति के रूप में भी सोचा.

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अन्य सभ्यताओं में भगवान के बारे में नयी सोच बनी तो उसने पुरानी सोच को दबा और भुला दिया, लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ. यहाँ किसी एक नयी सोच ने बाकी पुरानी सोचों को दबाया या भुलाया नहीं, बल्कि सभी सोचें एक साथ ही समाज में बनी रहीं. भारतीय अध्यात्म-खोजियों ने भगवान के बारे में विभिन्न सोचों में समन्वय बनाने के तर्क खोजे, जिसमें हर सोच को भगवान की ओर जाने वाले विभिन्न मार्गों की तरह देखा गया.

प्रथम वेदग्रंथ, जिनमें प्राचीन भारत में पहली बार भगवान के बारे में लिखा गया, ईसा से करीब दो हज़ार वर्ष पहले रचे गये, यानि कि आज से चार हज़ार वर्ष पहले. इनमें भगवान के बारे में विभिन्न प्राचीन भारतीय सोचों को अभिव्यक्ति मिली. इन भिन्न आस्थाओं के समिश्रण से बनी जीवन पद्धति को, जिनमें कई आंतरिक विरोधाभास भी थे, हिन्दू धर्म का नाम दिया गया.

वेदग्रंथों में भगवान की विभिन्न परिकल्पनाओं के कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं. पहला उदाहरण है अर्थव वेद (११-७-२१) का एक श्लोक:

शर्करा: सिकता अश्मान: ओषधयो वीरुधस्तृणा।

अभ्राणि विद्युतो वर्षम् उच्छिष्टे संश्रिता श्रिता॥

इस श्लोक का अर्थ है कि लाल मिट्टी, बालू, पत्थर, औषधी, लताएँ, तिनके, बादल, बिजली, वर्षा, सभी एक दूसरे से जुड़े हैं और सभी परमेश्वर का हिस्सा हैं. यह श्लोक प्रकृति में भगवान है कि सोच को दर्शाता है और प्रकृति पूजन का महत्व समझाता है. इसमें प्रकृति हर जीव के प्रति आदर तथा रक्षा भावनाएँ निहित हैं.

कुछ वर्ष पहले में उत्तरपूर्वी भारत में असम में एक साधू से मिला था जिनका नाम था नोवीन बाबा. उन्होंने मुझे चट्टानों में से निकलने वाली उर्जा को छू कर महसूस करने को कहा था. जब मैंने उन्हें कहा कि मुझे कुछ उर्जा नहीं महसूस होती थी, तो वह बोले थे कि पहले मन को पहले शाँत करना पड़ेगा तभी हम प्रकृति में बसे ईश्वर को महसूस कर सकते हैं. नोवीन बाबा की बात में, अर्थव वेद के इस श्लोक का अर्थ छिपा था.

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दूसरा उदाहरण है ऋग्वेद का (१-१६४-४६) एक श्लोक:

इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहु: अथो दिव्य: सुपर्णो गरुत्मान्।

एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:

इस श्लोक का अर्थ है कि कुछ लोग उन्हें ईन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि के नाम से जानते हैं, कुछ के लिए वह सुन्दर पँखों वाला पक्षी है. चाहे वह अग्नि हो, या यम या वायु, सब एक ही सत्य हैं जिन्हें भिन्न नामों से पुकारते हैं. इस श्लोक में विभिन्न देवी देवताओं को एक ही परमात्मा के भिन्न रूपों व नामों से स्वीकारा गया है. जहाँ अब्रहामिक धर्मों में अपने ईश्वर को सच्चा ईश्वर और अन्य विश्वासों को "मिथ्या ईश्वर" मानते हैं, इस श्लोक में इसका उल्टा है क्योंकि इसमें हर देवी देवता को भगवान का ही रूप माना गया है. इस तरह से भिन्न विश्वासों को एक ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग मान कर स्वीकारा जाता है.

अगला उदाहरण भी ऋग्वेद (१०-८२-३) से ही है, जिसमें ईश्वर की परिकल्पना अब्रहामिक धर्मों की सोच वाले "एक पिता-ईश्वर" से मिलती हैः

यो : पिता जनिता, यो विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।

यो देवानां नामधा एक एव तं संप्रश्नं भुवना यन्ति अन्या॥

इस श्लोक का अर्थ है कि वही जन्म देने वाला पिता है जो हमारा संरक्षण करता है, जो सभी लोक अवलोकों में बसा है, भिन्न देवी देवता उसी एक का रूप हैं, और सब लोकों से प्रश्न पूछने वाले उसी की शरण में जाते हैं.

अंतिम उदाहरण यजुर्वेद (३२-८) से है और इसमें भगवान को ब्रह्माँड के कण कण में बसी संज्ञा के रूप में परिकल्पित किया हैः

वेनस्तत् पश्यन्निहितं गुहा सत् यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्।

तस्मिन्निदं सं वि चैति सर्वं, ओत: प्रोतश्च विभू: प्रजासु।

इस श्लोक के अनुसार, परम सत्य को खोजते हुए ज्ञानी इस लोक तथा अन्य लोकों में हर जगह गये, देवभूमि में भी गये तो पाया कि हर ओर एक ही सर्वव्यापी सत्य था, यह जान कर वह स्वयं भी उसी सत्य में लीन हुए और तब समझे कि वह तो पहले से ही उसी सत्य का हिस्सा थे.

भगवान के बारे यह सोच कि वह सर्वव्यापी है, सारा जगत, ब्रह्माँड उसी का हिस्सा है और वह हम सब जीवों के भीतर भी है, सभी अन्य सभ्यताओं में भगवान की परिकल्पना से भिन्न है. इस सोच को स्वीकारने से हममें प्रकृति और दुनिया के सभी जीव जन्तु के प्रति आदर व प्रेम की भावना बनती है.

भारत का सामाजिक यथार्थ

भारत में सर्वव्यापी ईश्वर के बारे में सोचा गया, उस सोच में पूजा और धर्म के विभिन्न तरीकों को एक ही ईश्वर तक पहुँचने की विभिन्न मार्गों के रूप में स्वीकारा गया और उसमें सब जीव जन्तुओं के प्रति आदर व प्रेम की भावनाएँ जुड़ी हैं, यह सब सोच कर मुझे बहुत अच्छा लगता है. लेकिन साथ ही मन में प्रश्न भी उठते हैं कि इतनी सुन्दर और ऊँची सोच होते हुए भी, भारत में बीसियों शताब्दियों से मानवों के प्रति ऊँच नीच की संकरी सोच इतनी गहरी कैसे बनी? कैसे हर जीव आत्मा में एक ही परमेश्वर को मान करके भी हमने अपने समाज में लोगों को शूद्र कह कर सदियों तक उनका अमानवीय शोषण किया?

प्राचीन काल से ही भारत में कई समाज सुधारक हुए, महात्मा बुद्ध से ले कर बासवन्ना, नानक और महात्मा गाँधी तक, लेकिन कोई भी इस ऊँच नीच और छूआ छूत को नहीं मिटा पाया. क्यों?

शायद इसके बहुत से कारण हैं. उनमें से एक कारण मुझे संत कबीर के दोहे में दिखता है जिसमें उन्होंने कहा थाः "पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।" वेदों में, धर्म ग्रंथों में बहुत सुन्दर बाते लिखी हैं लेकिन जब तक उनको समझ कर और प्रेम के साथ अपने जीवन में लागू करने की समझ नहीं होगी, वह केवल शब्द ही रहेंगे.

कुछ माह पहले दक्षिण भारत में केरल के कन्नूर जिले में मुझे एक मंदिर में दो-तीन तक चलने वाली थैय्यम पूजा देखने का अवसर मिला था. वहाँ यह मान्यता है कि हर वर्ष एक विषेश पूजा के समय भगवान धरती में मानव शरीर में थैय्यम बन कर आते हैं. थैय्यम बनने वाले व्यक्ति शूद्र जाति के होते हैं और त्योहार के लिए उन व्यक्तियों को विषेश तरह से सजा कर तैयार किया जाता है. पूजा के उन दिनों में गाँव के सभी व्यक्ति उनके पाँव छूते हैं, उनके सामने झुकते हैं, उनकी पूजा करते हैं.

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मेरे विचार में जब भारतीय समाज "हर मानव में एक वही ईश्वर का वास है" के सिद्धाँत को, केवल त्योहारों या विषेश अवसरों पर ही नहीं, सामान्य जीवन में हमेशा के लिए सत्य मान कर उँच नीच और छूत छात के विचारों को त्याग सकेगा, तभी सच में सभ्य बनेगा.

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COMMENTS

BLOGGER: 2
  1. साधुवाद... सादर !

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  2. बहुत सुन्दर !
    आप तो हिन्दू निकले हालांकि अधिकांश हिन्दू ईश्वर और देवताओं का अंतर भी नहीं जानते । मैं आपको प्रणाम करता हूं ।

    जवाब देंहटाएं
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रचनाकार: प्राचीन भारत में भगवान की परिकल्पना // डॉ. सुनील दीपक
प्राचीन भारत में भगवान की परिकल्पना // डॉ. सुनील दीपक
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