वार्तालाप जिज्ञासुओं से - डॉ. महेन्द्र भटनागर की डा. भगवानस्वरूप ‘चैतन्य’ से बातचीत

SHARE:

वार्तालाप जिज्ञासुओं से कवि महेंद्रभटनागर से बातचीत - डा. भगवानस्वरूप ‘चैतन्य’ प्रगतिशील कविता के द्वितीय उत्थान के प्रमुख कवि महेंद्रभटनागर...

image

image

वार्तालाप जिज्ञासुओं से

कवि महेंद्रभटनागर से बातचीत

- डा. भगवानस्वरूप ‘चैतन्य’

प्रगतिशील कविता के द्वितीय उत्थान के प्रमुख कवि महेंद्रभटनागर का रचना-कर्म सन् 1941 के लगभग अंत से प्रारम्भ होता है। परिमाण की दृष्टि से उन्होंने अधिक नहीं लिखा। उनकी लगभग एक-हज़ार कविताएँ ही उपलब्ध हैं। किन्तु गुणवत्ता की दृष्टि से उनकी काव्य-सृष्टि महत्त्वपूर्ण है। यही कारण है कि उनकी ख्याति आज देश-व्यापी ही नहीं; विश्व-व्यापी है। वे इंटरनेट के माध्यम से ग्लोबल समाज में जाने-पहचाने जाते हैं। अधिकांश भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त, अनेक विदेशी भाषाओं में भी उनकी कविताएँ अनूदित व पुस्तकाकार प्रकाशित हैं। उनकी काव्य-कृतियों से भारतीय कविता समृद्ध हुई है। अपनी समाजार्थिक-राजनीतिक चेतना-सम्पन्न एवं मानवीय सरोकारों से सम्बद्ध काव्य-सृष्टि के कारण वे हिन्दी साहित्येतिहास में विशिष्ट स्थान रखते हैं। उनके कविता-संसार में जीवन-राग, प्रेम और प्रकृति की भी मार्मिक अभिव्यक्तियाँ उपलब्ध हैं। हमने उनसे जो बातचीत की वह अविकल रूप में यहाँ प्रस्तुत है।

कविता का मक़सद?

व्यक्ति और समाज के लिए कविता की उपादेयता निर्विवाद है। कविता के प्रमुख तत्त्वों में (अनुभूति/भाव, विचार, कल्पना, शिल्प) भाव-तत्त्व मानस को जितना उद्वेलित करता है; उतना अन्य तत्त्व नहीं। कविता इसीलिए अभीष्ट है; क्योंकि भाव-प्रधान होने के कारण वह हमारी चेतना को बड़ी तीव्रता से झकझोरने की क्षमता रखती है। कविता पढ़कर-सुनकर हम जितना प्रभावित होते हैं; उतना साहित्य की अन्य विधाओं के माध्यम से नहीं। कविता व्यक्ति को बल प्रदान करती है; उसे सक्रिय बनाती है; उसके सौन्दर्य-बोध को जाग्रत करती है। जब-तक मनुष्य का अस्तित्व है; कविता का भी अस्तित्व बना रहेगा। कविता का सहारा सदा से लिया जाता रहा है। मानवता का प्रसार करने के लिए, व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य प्रेम-भाव बनाए रखने के लिए, देश-प्रेम का उत्साह जगाने के लिए, वेदना के क्षणों में आत्मा को बल पहुँचाने लिए, सात्त्विक हर्ष को अभिव्यक्त करने के लिए आदि अनेक प्रयोजनों की पूर्ति कविता से होती है। काव्य-रचना का प्रमुख उद्देश्य मनोरंजन नहीं (वस्तुतः मनोरंजन की भी अपनी उपयोगिता है); हृदय के सूक्ष्मतम भावों और श्रेष्ठ विचारों को रसात्मक-कलात्मक परिधान पहनाना है; आकार देना है।

[post_ads]

एक श्रेष्ठ और सफल कविता की क्या शर्तें और नियम हैं?

कविता के पाठक-श्रोता दो प्रकार के होते हैं-जन-साधारण और काव्य-मर्मज्ञ। काव्य-मर्मज्ञों को काव्य-शास्त्रीय ज्ञान होता है; जबकि जन-साधारण मात्र भावक होता है। कविता उसकी समझ में आनी चाहिए; तभी वह उससे आनन्दित हो सकेगा। अन्यथा भी, प्रांजलता श्रेष्ठ कविता के लिए अनिवार्य शर्त है। क्लिष्ट-दुरूह काव्य से मस्तिष्क का व्यायाम तो हो सकता है; हृदय का आवर्जन नहीं। कविता ऐसी न हो कि ख़ुद समझें या ख़ुदा समझे। सम्प्रेषणीयता किसी भी रचनात्मक कृति के लिए अनिवार्य है। सम्प्रेषणीयता वहाँ बाधित होती है; जहाँ कवि अप्रचलित शब्दों का प्रयोग करता है, अपनी विद्वत्ता दर्शाने के लिए प्रसंग-गर्भत्व का आवश्यकता से अधिक सहारा लेता है, पाठक को चौंकाने के लिए अटपटी अभिव्यंजना का प्रयोग करता है, जनबूझकर काव्य-शास्त्रीय बौद्धिक चमत्कारों के भार से अपनी रचना को लाद देता है। कल्पना, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक, लक्षणा-व्यंजना आदि गुण जब कविता में सहज ही अवतरित होते हैं तो वे प्रभावोत्पादक सिद्ध होते हैं। अन्यथा आरोपित; बाहर से थोपे हुए। ऐसा कविता-कर्म कभी-कभी तो हासास्पद बन जाता है। अस्तु। कविता की श्रेष्ठता का मापदंड उसका कथ्य, उसकी अन्तर्वस्तु, उसमें अभिव्यक्त भाव-विचार माना जाना चाहिए। व्यक्ति और समाज के मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना रचनाकार का धर्म है। इसका अर्थ यह नहीं कि कलात्मक मूल्यों के महत्त्व को कम किया जा रहा है या उनकी अवहेलना की जा रही है। प्रश्न प्राथमिकता का है। वरीयता तो कथ्य को ही देनी होगी। चाहे वह किसी भी रस की कविता हो। सफल व सार्थक कविता वही है जिसमें उत्कृष्ट भाव, श्रेष्ठ विचार, उदात्त कल्पनाएँ और अभिव्यंजना कौशल हो।

कविता की भाषा और शिल्प-सौन्दर्य पर आपकी टिप्पणी?

काव्य-भाषा के अनेक रूप होते हैं। जन-सामान्य के लिए लिखी जानेवाली कविता की भाषा भी जन-भाषा होगी। सूक्ष्म भावों, गूढ़ विचारों और विराट् कल्पनाओं को अभिव्यक्त करनेवाली भाषा जन-भाषा नहीं हो सकती। यहाँ रचनाकार शब्द-शक्तियों एवं बिम्बों-प्रतीकों का भी प्रश्रय लेता है। तत्सम शब्दों का प्रयोग क्लिष्टता नहीं है। जन-साधारण को अधिक भाषा ज्ञान नहीं होता; किन्तु शिक्षित समाज से तो कवि

यह अपेक्षा रखता है कि वह परिष्कृत भाषा-सौन्दर्य को समझेगा। हाँ, अप्रचलित शब्दों का प्रयोग अवश्य सम्प्रेषण में बाधक होता है। विषयानुसार भी भाषा का रूप-परिवर्तन होता है। हास्य-रस की कविताओं की जो भाषा होती है; वह दार्शनिक अथवा प्रेम कविताओं की नहीं। ओजस्वी कविताओं में सरल शब्दावली और अभिधा की प्रधानता रहती है। वस्तुतः भाषा क्लिष्ट व दुरूह नहीं होती; दुरूहता अक़्सर अभिव्यक्ति में होती है। कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो आपके लिए क्लिष्ट हो सकते हैं; पर अन्यों के लिए नहीं। आज ऐसी जटिल कविताएँ लिखी जा रही हैं; जिनमें शब्द तो एक भी कठिन या अप्रचलित नहीं होता; किन्तु उनका कथन इतना अटपटा और अद्भुत होता है कि पाठक समझ ही नही पाता कि क्या कहा गया है! गद्यात्मकता भी उसमें अत्यधिक पायी जाती है। ऐसी कविताएँ कविता का आभास मात्र देती हैं। कविता की लोकप्रियता कम हो जाने का एक कारण यह भी है। ऐसी रचनाओं का अस्तित्व एक दिन स्वतः समाप्त हो जाएगा कविता रची जाती है; अतः उसके संदर्भ में शिल्प का महत्व कोई कम नहीं। माना, बात (कथन) बुनियादी वस्तु है; किन्तु बात किस ढंग से कही गयी; यह भी विशेष है। कवि सौन्दर्य-तत्त्वों का ज्ञाता होता है। वह अपनी अभिव्यक्ति से पाठकों-श्रोताओं को आनन्दित करता है। सफल-सार्थक कविता के लिए यह गुण अनिवार्य है।

उत्तर-छायावाद और प्रगतिवाद के दौर में आप पर क्या किसी कवि का विशेष प्रभाव रहा?

अपने अग्रज कवियों से प्रेरणा अवश्य मिली; इसे भले ही कोई प्रभाव समझे। इन कवियों में जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द, शिवमंगलसिंह ‘सुमन’, ‘बच्चन’ का उल्लेख किया जा सकता है।

आपके अनुसार प्रगतिवाद और जनवाद में अन्तर?

प्रगतिवाद (प्रगतिशील) और जनवाद दोनों वाम-पंथी हैं। एक दूसरे के पूरक। साम्यवादी दल और मार्क्सवादी पार्टी में जो अन्तर है; वही प्रगतिवाद और जनवाद में है। ये दोनों साहित्यिक वाद प्रमुख रूप से राजनीतिक-समाजार्थिक क्षेत्र से सम्बद्ध हैं। इनका विस्तार विश्व-व्यापी है। आलोचना और विश्लेषण की दृष्टि दोनों की लगभग समान है। मार्क्स के विचारों से दोनों सहमत हैं। मार्क्सवादी सिद्धान्तों की व्याख्या में भी दोनों में मतभेद नज़र नहीं आता। लेकिन हिन्दी-साहित्य में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और ‘जनवादी लेखक संघ’ इतना मिलकर काम नहीं कर रहे। एक दूसरे से अपनी अलग पहचान बनाए रखना चाहते हैं। जो ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का सदस्य है; वह ‘जनवादी लेखक संघ’ से जुड़ना नहीं चाहता। दोनों एक-दूसरे के कार्यक्रमों में शामिल नहीं होते। उनकी अपनी-अपनी साहित्यिक पत्रिकाएँ हैं। जहाँ-तक मेरी विचारणा का संबंध है, साहित्य एवं राजनीति में किसी भी प्रकार का कठमुल्लापन मुझे पसंद नहीं। वाम विचारधारा वाले लोगों को एकजुट होकर काम करना चाहिए। वस्तुतः इन दोनों वादों से सम्बद्ध सैद्धान्तिक विवेचन के लिए पृथक से विस्तृत आलेख प्रस्तुत करने की ज़रूरत है। इस संदर्भ में, अधिक ज्ञान न होने के कारण मैं इस विवाद में उलझना नहीं चाहता। जब कोई मुझे प्रगतिवादी कहता है तो मुझे उससे उतना ही तोष होता है; जितना किसी के मुझे जनवादी कहने पर। दोनों मुझे अपने लिए सम्मानपूर्ण विशेषण लगते हैं।

[post_ads_2]

प्रतिबद्धता और स्वतंत्र चिन्तन?

प्रतिबद्धता और स्वतंत्र चिन्तन परस्पर विरोधी नहीं हैं। प्रतिबद्धता मनुष्य को एक अच्छा व्यक्ति बनाती है। प्रश्न है, प्रतिबद्धता किसके प्रति? आपका आशय स्पष्ट है, यह प्रतिबद्धता किसी राजनीतिक मतवाद या दल के प्रति होना है। ऐसी संकीर्ण प्रतिबद्धता स्वतंत्र चिन्तन के लिए नितान्त बाधक है। राजनीति में सहिष्णुता के लिए कोई स्थान नहीं। माना लाखों लोगों में राजनीतिक प्रतिबद्धता पायी जाती है; लेकिन जो विचारक हैं, रचनाकार हैं; उनकी दृष्टि पर इस तथाकथित प्रतिबद्धता का पट्टा नहीं बाँधा जा सकता। हमें प्रतिबद्ध होना चाहिए - मानव-मूल्यों के प्रति, मानवता के प्रति, वसुधैवकुटुम्बकम् के प्रति, सद्भावों-सद्विचारों के प्रति। मनुष्य को यदि पशुता से मुक्त देखना है तो हमें निष्ठापूर्वक इस दिशा में प्रयत्न करने होंगे। साहित्य, कला और विज्ञान का यही उद्देश्य होना चाहिए। आज धर्म तक लोकमंगलकारी नहीं रहा। सर्वत्र धार्मिक उन्माद नज़र आता है। विभिन्न धर्मावलम्बियों में परस्पर सहनशीलता के स्थान पर घृणा-भाव दृग्गोचर होता है। धर्म के क्षेत्र में स्वतंत्र चिन्तन को कदापि सहन नहीं किया जाता। इतिहास साक्षी है, मनुष्य का स्वतंत्र चिन्तन ही उसके विकास में सहायक हुआ है। परिस्थितियों के बदलने पर हमारा सोच भी बदलता है। मनुष्य किसी एक विचारधारा का सदा अनुयायी नहीं रह सकता। स्थिरता प्रगतिशीलता नहीं। हमें अपने हृदय-मस्तिष्क के दरवाज़े खुले रखने चाहिए। हमारी दृष्टि की दिशा एक न हो। हमारी दृष्टि का विस्तार चारों ओर तथा तीनों कालों (भूत, वर्तमान, भविष्य) तक हो। वेद-वाक्य या क़ुरान-वाक्य मानव-चिन्तन का अंतिम निष्कर्ष नहीं है।

सामाजिक-यथार्थ और कविता में अभिव्यक्त यथार्थ में कितना साम्य है?

कला-कृति सामाजिक-यथार्थ की हूबहू अनुकृति नहीं होती। साम्य का बोध तो होता ही है; अन्यथा रचना की विश्वसनीयता प्रभावित होगी। सम्भावनाओं के अनुरूप रचनाकार अपनी ओर से बहुत-कुछ जोड़ता है। सामाजिक-यथार्थ की अभिव्यक्ति सामाजिक स्वास्थ्य को नज़र-अन्दाज़ नहीं कर सकती। हम आाशावादी बने रहेंगे; तभी समाज का मनोबल बढ़ेगा। साहित्य एवं अन्य ललित कलाओं का प्रमुख उद्देश्य यही होना चाहिए। माना, अपरोक्ष संकेतों से कृति की प्रभविष्णुता में अधिक वृद्धि होती है। यही कलात्मक सौन्दर्य है।

स्वाधीनता आन्दोलन में आपकी कविता का क्या योगदान रहा? कवि के रूप में आपकी भूमिका क्या रही?

मेरी सार्थक काव्य-रचना का प्रारम्भ सन् 1941 के लगभग अंत से होता है; जब मैं 15 वर्ष का था और ‘विक्टोरिया कॉलेज, ग्वालियर’ में प्रथम-वर्ष का छात्र था। भारत 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुआ। लगभग छह वर्ष का यह समय राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम का समय था। कांग्रेस और गांधी-नेहरू तथा बाद में सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम के सैनिक संघर्षरत थे। बलिपंथियों के रोज़ नारे लगाते जत्थे सड़कों पर से गुज़रते थे। देश का ऐसा कोई कारागृह न रहा होगा; जिसमें स्वतंत्रता सैनानी न रहे हों। ऐसे माहौल में मेरा युवा-हृदय कितना आन्दोलित होता होगा; इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। इन दिनों मैं मुरार (ग्वालियर) और उज्जैन (मालवा) रहा। मुरार की देशभक्त-टोली में जगन्नाथप्रसाद मिलिन्द और रघुनाथसिंह चौहान जैसे राष्ट्रीय चेतना-सम्पन्न कवियों के साथ मैं अटूट रहा। ब्रिटिश सत्ता के विरोध में निकलने वाली ‘प्रभातफेरियों’ में भाग लेता था। मुरार उन दिनों अंग्रेज़ों की सैनिक छावनी थी। तब मैं भी खादी के वस्त्र धारण करता था। कभी-कभी छावनी की तरफ़ (ठंडी सड़क) निकल जाता था। दूर से, अंग्रेज़ सैनिकों को आक्रोश भाव से देखता था। इन सैनिकों के साथ अंग्रेज़-वेश्याएँ भी थीं; जो जब-तब उनके साथ अशोभन रूप में नज़र आ जाती थीं। यह सब देखकर, अपने मित्र रघुनाथसिंह चौहान के साथ, विद्रोह करने की अनेक योजनाएँ बनाता था। चूँकि मेरे पिता श्री. रघुनन्दनलालजी भटनागर ग्वालियर-रियासत की नौकरी (अध्यापक-प्रधानाध्यापक) में थे; इस कारण राष्ट्रीय आन्दोलनों में खुले आम भाग नहीं ले सकता था। आर्यसमाजी होने के कारण, पिता जी में राष्ट्रीय भावनाएँ कूट-कूट कर भरी हुईं थीं। विद्यालय बंद करवाने (हड़ताल करवाने) जब विद्यालय में जुलूस प्रवेश करता; पिता जी उसके पूर्व ही, निडर होकर, छुट्टी की घंटी बजवा देते और इस प्रकार अध्यापन-कार्य स्वतः बंद हो जाता था। तोड़-फोड़ नहीं हो पाती थी। उनके उज्जैन स्थानान्तरण के कारण मुझे भी उज्जैन जाना पड़ा। वहाँ ‘माधव महाविद्यालय’ में पढ़ता था (1942-43 / द्वितीय वर्ष का छात्र)। लेखक-कवि श्री. नरेश मेहता मेरे सहपाठी थे। उनके साथ मैं भी सन् 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के छात्र-जुलूसों में भाग लेता था। पुलिस और सी-आई-डी की नज़र से इसलिए बचा रहा; क्योंकि पिता जी की सरकारी नौकरी होने के कारण, मैंने इन जुलूसों का नेतृत्व नहीं किया। अन्यथा सरकार उन्हें नौकरी से हटा देती।

स्वतंत्रता-प्राप्ति पूर्व-वर्षां में मेरा लेखन राष्ट्रीय विचारधारा से प्रभावित रहा। किसी राष्ट्रीय संस्था का सदस्य बनना तो सम्भव न था; किन्तु अपने को राष्ट्रीय चेतना से अछूता कैसे रख सकता था। हिन्दी-साहित्य में इन दिनों राष्ट्रीय काव्य, उत्तर-छायावादी गीति-रचना और प्रगतिवादी काव्यान्दोलन अपने चरम पर थे। मेरा लेखन इन तीनों काव्य-धाराओं से सम्बद्ध रहा। देश-भक्ति या राष्ट्रीय भावनाओं की अनेक कविताएँ मेरे इस काल के लेखन में द्रष्टव्य हैं; जो तत्कालीन अनेक साप्ताहिक-मासिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। देश में राष्ट्रीयता के प्रसार में इन ओजस्वी कविताओं की भी अपनी भूमिका है। उन दिनों मैं कवि-सम्मेलनों में भी भाग लेता था। सैकड़ों लोगों ने उन्हें सुना। चूँकि देश परतंत्र था; अतः इन रचनाओं में साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के प्रति भी शंखनाद है। आज भी मेरी कविताओं में इन स्वरों की प्रधानता है। राष्ट्रीय एकता को बल पहुँचाना समाजचेता कवि का धर्म है। अपनी सीमाओं में मैं जो कर सकता था; वह मैंने किया। वर्तमान में भी इस उद्देश्य के प्रति सजग हूँ।

(देखिए, ‘सामाजिक चेतना के शिल्पी : कवि महेंद्रभटनागर’ में समाविष्ट डा. शीतलाप्रसाद मिश्र का आलेख ‘स्वाधीनता-संग्राम और कवि महेंद्रभटनागर’ / क्र. 9 - पृष्ठ 70)

क्या धर्म और अध्यात्म भी कभी आपकी कविता के विषय रहे हैं?

मेरी कविताओं में मानव-धर्म तथा जीवन-जगत् के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण अवश्य परिलक्षित है। हमने तो बचपन से ही, तथाकथित धर्म का विकृत रूप देखा। किसी धार्मिक सम्प्रदाय के प्रति कभी आस्थावान नहीं रहा मैं। पिता जी ‘आर्य-समाज’ के सक्रिय कार्यकर्ता थे; माँ वैष्णव थीं। कपोल-कल्पित अध्यात्म के नाम पर किस प्रकार धर्म-प्रवण व ईश्वर-भीरु जनता को ठगा जाता है, यह हमने ख़ूब देखा है; देख रहे हैं। धर्म के भ्रष्ट स्वरूप एवं पुरोहितों के छद्म पर मैंने खुलकर लिखा है।

व्यंग्य का काव्य में क्या औचित्य है? आपने भी व्यंग्य लिखा है। आपकी व्यंग्य-कविताएँ कौन-कौन-सी हैं?

व्यंग्य बड़ी सशक्त और प्रभावी शब्द-शक्ति है। व्यक्ति और समाज की विरूपताओं को व्यंग्य-द्वारा जब तटस्थ-भाव से निरावृत्त किया जाता है; तब वह कथन मारक सिद्ध होता है। व्यंग्य इसीलिए व्यक्ति और समाज का सुधारक होता है। मेरी काव्य-सृष्टि में व्यंग्य यत्र-तत्र आपको उपलब्ध होगा। कुछ कविताएँ तो व्यंग्य-कविताएँ ही हैं। पर, व्यंग्य मेरी काव्य-रचना की प्रमुख विशेषता नहीं है। समीक्षकों ने अभी मेरी व्यंग्योक्तियों पर विमर्श भी नहीं किया है। वस्तुतः व्यंग्य करना मेरे स्वभाव में है नहीं। मेरे भावों-विचारों की बेलाग-बेलौस अभिव्यक्तियाँ ही सशक्त-समर्थ हथियारों का काम करती हैं।

आपने प्रकृति-सौन्दर्य पर भी रचनाएँ लिखी हैं?

कविता लिखने की प्रेरणा सर्वप्रथम मुझे प्रकृति से ही मिली। बचपन में, सबलगढ़ (मुरैना) के जंगलों में ख़ूब भटका हूँ। आसमान के तारों ने भी मुझे बहुत आकर्षित किया। ‘तारों के गीत’ (21 गीत) अभिधान से मेरी प्रथम कविता-पुस्तिका 1949 में प्रकाशित हुई थी। समय-समय पर प्रकृति-प्रेरित कविताएँ सहज ही लिखी जाती रहीं। प्रकृति-सौन्दर्य की 94 कविताओं का विशिष्ट संकलन ‘इंद्रधनुष’ / 'Sparrow and other poems' अभिधान से हिन्दी / अंग्रेज़ी में पृथक से भी प्रकाशित है।

क्या कभी प्रेम-गीत की भी रचना की है आपने?

प्रेम का जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। संसार का अधिकांश काव्य-साहित्य प्रेम-परक है। यौवन-काल में मेरा भी प्रेम-भाव से सिक्त रहना स्वाभाविक था। अतः मैंने भी जब-तब प्रेम-कविताएँ लिखीं। चूँकि मेरी ख्याति एक प्रगतिशील कवि के रूप में रही; मैं सामाजिक यथार्थ का घोषित कवि रहा; अतः अपनी प्रेम-कविताओं को उजागर करने में मुझे सदैव संकोच रहा। सात संकलन प्रकाशित हो जाने के बाद, मेरी प्रेम-परक कविताओं का संकलन ‘मधुरिमा’ प्रकाशित हुआ; जिसके प्रारम्भिक वक्तव्य में मैंने प्रेम के सनातन महत्त्व, उसके स्वस्थ स्वरूप और उसकी उपादेयता पर लिखा है। इस स्पष्टीकरण को आलोचकों ने ग़ैर-ज़रूरी ठहराया। मेरी प्रेम-कविताओं में ‘चाँद’ प्रेमिका का प्रतीक है। समस्त प्रेम-कविताओं (109) का विशिष्ट संकलन ‘चाँद, मेरे प्यार!’ अभिधान से इधर प्रकाशित हुआ है। मेरी प्रेम-भावनाएँ किसी कल्पित प्रेमिका या स्वकीया को समर्पित हैं। शृंगार-प्रधान इन गीतों में मांसलता या वासना नहीं; स्वस्थ प्रेमोद्गार अभिव्यक्त हुए हैं। द्रष्टव्य।

आपकी कृतियाँ? ‘समग्र’ के प्रकाशन से क्या आप संतुष्ट हैं?

हमारी काव्य-कृतियाँ सन् 1949 से प्रकाशित होना शुरू हुईं। इस समय तक 18 काव्य-कृतियाँ प्रकाश में आ चुकी हैं (‘तारों के गीत’ सन् 1949, ‘टूटती शृंखलाएँ’ 1949, ‘बदलता युग’ 1953, ‘अभियान’ 1954, ‘अन्तराल’ 1954, ‘विहान’ 1956, ‘नयी चेतना’ 1956, ‘मधुरिमा’ 1959, ‘जिजीविषा’ 1962, ‘संतरण’ 1963, ‘संवर्त’ 1972, ‘संकल्प’ 1977, ‘जूझते हुए’ 1984, ‘जीने के लिए’ 1990, ‘आहत युग’ 1997, ‘अनुभूत क्षण’ 2001, ‘मृत्यु-बोध : जीवन-बोध’ 2002, ‘राग-संवेदन’ 2005)। सन् 2002 में ‘समग्र’ छह खंडों में निकला। तीन खंड कविता के (मात्र 16 काव्य-कृतियाँ), दो खंड आलोचना-लेखन के, एक खंड विविध लेखन (लघुकथाएँ, रूपक, बाल-किशोर साहित्य, संस्मरण, पत्रावली, चित्रावली आदि) का। कथाकार प्रेमचंद पर लिखित सामग्री ‘समग्र’ में शामिल नहीं है। इधर, अठारहो काव्य-कृतियाँ तीन जि़ल्दों में प्रकाशित हुई हैं-‘महेंद्रभटनागर की कविता-गंगा’ (सन् 2009)। ‘समग्र’ के प्रकाशन से संतुष्ट हूँ; नहीं भी हूँ। द्वितीय संस्करण पता नहीं कब निकलेगा!

आपके व्यक्तित्व-कृतित्व पर बहुत-कुछ लिखा गया है। किन-किन समीक्षकों की मूल्यांकन-दृष्टि आप युक्तियुक्त मानते हैं?

जिन आलोचकों ने तटस्थ-निष्पक्ष दृष्टि से सविस्तर लिखा है; उनमें से कुछ नाम ज़ेहन में उतरते हैं। यथा-श्री. विश्वम्भर ‘मानव’, डा. शम्भूनाथ चतुर्वेदी (लखनऊ), डा. शिवनाथ (शांतिनिकेतन), डा. रामप्यारे तिवारी (मऊभंजन-नाथ), डा. देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’ (साहिबाबाद-गाजि़याबाद), राजेंद्रप्रसाद सिंह (मुजफ्’फ’रपुर), डा. रमाकान्त शर्मा (जोधपुर), डा. श्रीनिवास शर्मा (कोलकाता), डा. शिवकुमार मिश्र (वल्लभविद्यानगर), डा. किरणशंकर प्रसाद (दरभंगा), डा. ऋषिकुमार चतुर्वेदी (रामनगर / उ.प्र), डा. आनन्दप्रकाश दीक्षित (पुणे), डा. आदित्य प्रचण्डिया (अलीगढ़), डा. रामसजन पाण्डेय (रोहतक), डा. हरदयाल (दिल्ली), डा. हरिश्चंद्र वर्मा (रोहतक), डा. वीरेन्द्र सिंह (जयपुर), डा. संतोषकुमार तिवारी (सागर), डा. दुर्गाप्रसाद झाला (शाजापुर), डा. माधुरी शुक्ला (ग्वालियर), डा. रामसनेही लाल ‘यायावर’ (फीरोज़ाबाद) आदि। कुछ और भी नाम हैं; जो मेरे काव्य-कर्तृत्व में विशेष रुचि रखते हैं।

आपकी काव्य-यात्रा के हमसफ़र कवि?

मेरा काव्य-रचना-कर्म सन् 1941 के लगभग अंत से होता है। इस कार्यकाल के अन्य कवियों की उपस्थिति साहित्येतिहासकारों द्वारा सर्वविदित है। अनेक कवि ऐसे हैं; जिनसे मेरा मिलना-जुलना हुआ; जिनसे मेरा पत्राचार रहा। ऐसे कवियों की एक लम्बी सूची है (कुछ के संबंध में द्रष्टव्य ‘पत्रावली/संस्मरण’-‘समग्र’ : खंड - 6)। अनेक कवि-मित्रों की काव्य-सृष्टि पर मैंने आलोचनात्मक आलेख लिखे; जो ‘समग्र’ खंड-5 में समाविष्ट हैं। अनेक कवि-मित्रों ने मेरे कविता-लेखन में रुचि ली और मेरे काव्य-कर्तृत्व पर समीक्षा-आलेख लिखे। जिनमें से अधिकांश सम्पादित कृतियों में उपलब्ध हैं; यथा-‘कवि महेंद्रभटनागर : सृजन और मूल्यांकन’ (सं. डा. दुर्गाप्रसाद झाला), ‘कवि महेंद्रभटनागर का रचना-संसार’ (डा. विनयमोहन शर्मा), ‘सामाजिक चेतना के शिल्पी : कवि महेंद्रभटनागर’ (डा. हरिचरण शर्मा), ‘डा. महेंद्रभटनागर का कवि-व्यक्तित्व’ (डा. रवि रंजन), ‘डा. महेंद्रभटनागर की काव्य-सृष्टि’ (डा. रामसजन पाण्डेय), ‘कवि महेंद्रभटनागर की रचना-धर्मिता’ (डा. कौशलनाथ उपाध्याय), ‘महेंद्रभटनागर की कविता : पहचान और परख’ (डा. पाण्डेय शशिभूषण ‘शीतांशु’)। अनेक सहधर्मी-सहकर्मी कवियों का मुझे भरपूर प्रेम मिला।

आपकी पसंद के प्रमुख कवि-प्राचीन-अर्वाचीन? आपके मित्र कवि? आपके सान्निध्य में आये युवा-कवि जो आपको पसंद हैं?

प्राचीन कवियों में मेरी पसंद के कवि हैं तुलसीदास, रहीम, बिहारी। अर्वाचीन कवियों में जयशंकर प्रसाद (‘आँसू’ काव्य-कृति), ‘निराला’, सुमित्रानन्दन पंत, महादेवी, ‘बच्चन’, ‘दिनकर’, ‘मिलिन्द’, शिवमंगलसिंह ‘सुमन’, नेपाली। मित्र-कवियों में केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, ललित शुक्ल, रामसनेही लाल ‘यायावर’, काका हाथरसी। सान्निध्य में आये युवा-कवि अनेक हैं। ऐसे युवा-कवि अब प्रौढ़ हो चुके हैं। आप स्वयं इस सूची में शामिल हैं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता से भी मुझे बल मिला है।

मौज़ूदा राजनीतिक परिदृश्य और लोकतंत्र के भविष्य के बारे में?

भारत का वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य विश्व के अनेक देशों की तुलना में बेहतर हैं। संविधान की व्यवस्थाओं के अनुसार शासन चल रहा है।

न्यायपालिका भी विश्वसनीय है। लोकतंत्र की बुनियादी शर्त - समय पर निर्वाचन-का पालन हो रहा है। अतः भारत में लोकतंत्र को कोई ख़तरा नहीं है। हाँ, भारत में मौज़ूदा राजनीतिक दल पर्याप्त दूषित, भ्रष्ट और घटिया हैं। मतदाताओं की मानसिकता धर्म, सम्प्रदाय और जातिवाद के शिकंजे से अभी मुक्त नहीं हुई है। प्रांत और भाषा का दुष्प्रभाव अवश्य इतना अधिक नज़र नहीं आता है। भले ही, एकाधिक अंचल में प्रांत और भाषा के नाम पर क्रूर हिंसक घटनाएँ जब-तब घटित हो जाती हैं। देश का बहुसंख्यक समाज साम्प्रदायिकता के विरुद्ध है। धर्म-निरपेक्षता की भावना उसमें प्रबल है। भारत सामासिक संस्कृति का देश है। अनेक धर्मों और भाषाओं के बीच भावनात्मक एकता का मज़बूत सेतु भारत की शक्ति और स्थिरता का परिचायक है।

गांधीवाद और मार्क्सवाद में आपकी क्या पसंद है?

आपका यह प्रश्न मेरे लिए महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः मार्क्सवाद और गांधीवाद एक दूसरे के पूरक हैं। लेकिन राजनीतिक विचारकों ने उन्हें परस्पर विरोधी प्रचलित कर रखा है। गांधीवाद व्यक्ति का जीवन-दर्शन है; मार्क्सवाद समाजार्थिक मूल्यों पर आधारित है। दोनों में गुण हैं; दोनों की उपादेयता है। दोनों की प्रासंगिकता है। आगे चलकर इन दोनों दर्शनों का यदि विकास होता है तो उनके स्वरूप में परिवर्तन अवश्य होगा। कोई भी विचारणा स्थिर नहीं रहती। समय और परिस्थितियों के अनुरूप उसमें नवीन विचारों का समावेश होता है। पूर्व मान्यताओं-स्थापनाओं को अपरिवर्तनीय मान लेना; हमारे जड़ चिन्तन का प्रमाण है।

मेरी काव्य-सृष्टि में मार्क्सवाद और गांधीवाद दोनों की पृष्ठभूमि स्पष्ट दिखायी देगी। यह कोई अन्तर्विरोध या असंगति नहीं है। सिद्धान्तों की व्याख्या सदा अक्षुण्य बनी रहे; ऐसा कभी हो नहीं सकता। अन्यों के विचारों को समझने और उन्हें आत्मसात करने की हममें भरपूर लचक होनी चाहिए। यही विचार-स्वातं=य है। जहाँ जो श्रेष्ठ और उत्तम है; उसे ग्रहण करने में ही बुद्धिमानी है। हमारी दृष्टि जितनी पारदर्शी होगी उतनी ही अधिक सचाई हमें प्रकट होगी। अतः मार्क्सवादियों को गांधीवाद से परहेज़ नहीं करना चाहिए तथा गांधीवादियों को मार्क्स के चिन्तन का पूरा लाभ उठाना चाहिए। वैज्ञानिक एवं यांत्रिकी उपलब्धियों के फलस्वरूप भविष्य में हमारी धारणाएँ भी बदलेंगी। मार्क्सवाद-गांधीवाद में जो प्रासंगिक होगा; वह अवश्य बना रहेगा।

देश की विषमता कैसे मिटेगी? कविता की इस दिशा में क्या भूमिका हो सकती है?

विषमता तो हर देश में है; जो मिटती नज़र नहीं आती। शासकों को प्रयत्न करना चाहिए; पारस्परिक अन्तर जितना कम किया जा सके।

कविता शासकों-शासितों को जाग्रत ही नहीं; उन्हें सक्रिय भी कर सकती है। ज़रूरी है, कवि समाजार्थिक-राजनीतिक चेतना सम्पन्न हों।

Ä

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: वार्तालाप जिज्ञासुओं से - डॉ. महेन्द्र भटनागर की डा. भगवानस्वरूप ‘चैतन्य’ से बातचीत
वार्तालाप जिज्ञासुओं से - डॉ. महेन्द्र भटनागर की डा. भगवानस्वरूप ‘चैतन्य’ से बातचीत
https://lh3.googleusercontent.com/-iVY7qqaK0sI/W5zhfxLVJHI/AAAAAAABEQs/OxOmUwEWk_MYx2IMbvXsAkABmU8YOcQIwCHMYCw/image_thumb?imgmax=800
https://lh3.googleusercontent.com/-iVY7qqaK0sI/W5zhfxLVJHI/AAAAAAABEQs/OxOmUwEWk_MYx2IMbvXsAkABmU8YOcQIwCHMYCw/s72-c/image_thumb?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/09/blog-post_2.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/09/blog-post_2.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content